एक दिन राधा की खोज करते हुये, एक अन्य जगह जाना हुआ जहॉं एक तर्क गुजरात मे युवक युवतियों के पीटाई के सम्बन्ध मे चर्चा हो रही थी। पर चर्चा तो ठीक थी किन्तु चर्चा के बीच संद्य के द्वितीय सरसंद्यचालक श्रीगुरूजी का नाम आना समझ मे न आया की पिटाई मे श्री गुरूजी क्या हाथ था और उनका नाम क्यों लिया जा रहा।
'' पूरी चर्चा को विस्तार से पढ़ा, सभी ने अपने अपने ढंग से अपनी बात को रखा अच्छा लगा, पर एक महोदय की बातें मन लग गई, यहीं महसूस होता है कि जब इतनी उम्रदराज व्यक्ति ऐसी बात करता है तो कुछ ठीक नहीं लगता है, आप वरिष्ठ है और इस कारण हम सब के सम्माननीय भी है। प्रत्येक व्यक्ति को अपने सम्मान की रक्षा करनी चाहिये, आपको विचारों के दोहरे मापदंड की दूरी को मिटना होगा ताकि यह सम्मान आगे भी बरकरार रहे। कुछ कतिपय लोगों ने तो अपने लाभ के लिये समाजवाद की परिभाषा ही बदल दी है। को नंगा कर दिया है, समाजवाद की पूरी परिभाषा ही बदल दी है। एक तरफ लोहिया का समाजवाद था जो कभी स्वालाभ के लिये न था तो दूसरी और मुलायम का समाजवाद जो स्वालाभ के लिसे ही बना है। हाल मे ही उत्तर प्रदेश मे स्थानीय निकाय के चुनाव मे एक वार्ड था चकिया जो स्थानीय समाजवादी सांसद अतीक अहमद और विधायक गृह वार्ड है इसमे समाजवाद का ऐसा रूप देखने को मिला कि कुल 84 प्रतिशत मतदान हुआ। और सभासद के चुनाव मे समाजवादी पार्टी के अलावा कोई प्रत्याशी न खडा हो सका और मेयर के चुनाव मे कुल पडे 10700 वोटो मे 10200 से अधिक वोट प्राप्त हुआ, जबकि उसी से सटे लूकरगंज वार्ड मे समाजवाद अपनी जमानत भी बचा सका। और यही विधायक, स्व0 विधायक की राजूपाल की हत्या के मुख्य अरोपी है।यह कैसा समाजवाद है?, कि अपने घर की विधायक की सुरक्षा कर ही नही सकता है उसे गुजराज की लैला-मंजनू की चिन्ता सता रही है। अगर समाजवाद का यही रूप देगे तो लोहिया को भी अपने उपर अफशोस होगा कि मै कौन सी पीढी को छोड कर गया हूँ।
बन्दर क्या जाने अदरक का स्वाद, लगता है अपने अपने सिर के बाल तर्जुबे से न पका कर इसी तरीके अनर्गल बातें पढ़कर या सोचकर पकाये है। पूज्य श्री गुरूजी के बारे मे आप क्या जाने है, बस यही न की मे महिला विरोधी है संद्य के है और आपकी तरह समाजवादी नही है। जिस गुरूजी पर आप आक्षेप कर रहे है, उसके वारे मे प्रख्यात कम्युनिष्ट तथा दुग्ध क्रांति के जनक श्री डॉ॰ वर्गीज कुरियन जो इस समय पूर्व के ऑक्सफोर्ड इलाहाबाद विश्वविद्यालय के कुलाधिपति है वे अपनी पुस्तक मे कहते है कि मै संघ की विचारधारा का समर्थन नही करता हूँ किन्तु श्रीगुरू जी के बौद्धिक चिंतन का समर्थन करता हूँ।
'' पूरी चर्चा को विस्तार से पढ़ा, सभी ने अपने अपने ढंग से अपनी बात को रखा अच्छा लगा, पर एक महोदय की बातें मन लग गई, यहीं महसूस होता है कि जब इतनी उम्रदराज व्यक्ति ऐसी बात करता है तो कुछ ठीक नहीं लगता है, आप वरिष्ठ है और इस कारण हम सब के सम्माननीय भी है। प्रत्येक व्यक्ति को अपने सम्मान की रक्षा करनी चाहिये, आपको विचारों के दोहरे मापदंड की दूरी को मिटना होगा ताकि यह सम्मान आगे भी बरकरार रहे। कुछ कतिपय लोगों ने तो अपने लाभ के लिये समाजवाद की परिभाषा ही बदल दी है। को नंगा कर दिया है, समाजवाद की पूरी परिभाषा ही बदल दी है। एक तरफ लोहिया का समाजवाद था जो कभी स्वालाभ के लिये न था तो दूसरी और मुलायम का समाजवाद जो स्वालाभ के लिसे ही बना है। हाल मे ही उत्तर प्रदेश मे स्थानीय निकाय के चुनाव मे एक वार्ड था चकिया जो स्थानीय समाजवादी सांसद अतीक अहमद और विधायक गृह वार्ड है इसमे समाजवाद का ऐसा रूप देखने को मिला कि कुल 84 प्रतिशत मतदान हुआ। और सभासद के चुनाव मे समाजवादी पार्टी के अलावा कोई प्रत्याशी न खडा हो सका और मेयर के चुनाव मे कुल पडे 10700 वोटो मे 10200 से अधिक वोट प्राप्त हुआ, जबकि उसी से सटे लूकरगंज वार्ड मे समाजवाद अपनी जमानत भी बचा सका। और यही विधायक, स्व0 विधायक की राजूपाल की हत्या के मुख्य अरोपी है।यह कैसा समाजवाद है?, कि अपने घर की विधायक की सुरक्षा कर ही नही सकता है उसे गुजराज की लैला-मंजनू की चिन्ता सता रही है। अगर समाजवाद का यही रूप देगे तो लोहिया को भी अपने उपर अफशोस होगा कि मै कौन सी पीढी को छोड कर गया हूँ।
बन्दर क्या जाने अदरक का स्वाद, लगता है अपने अपने सिर के बाल तर्जुबे से न पका कर इसी तरीके अनर्गल बातें पढ़कर या सोचकर पकाये है। पूज्य श्री गुरूजी के बारे मे आप क्या जाने है, बस यही न की मे महिला विरोधी है संद्य के है और आपकी तरह समाजवादी नही है। जिस गुरूजी पर आप आक्षेप कर रहे है, उसके वारे मे प्रख्यात कम्युनिष्ट तथा दुग्ध क्रांति के जनक श्री डॉ॰ वर्गीज कुरियन जो इस समय पूर्व के ऑक्सफोर्ड इलाहाबाद विश्वविद्यालय के कुलाधिपति है वे अपनी पुस्तक मे कहते है कि मै संघ की विचारधारा का समर्थन नही करता हूँ किन्तु श्रीगुरू जी के बौद्धिक चिंतन का समर्थन करता हूँ।
जिसे आप महिला कह रहे है उसे श्रीगुरू जी मातृशक्ति कहते है, वे विवाहित न थे किन्तु विवाह विरोधी न थे वे कहते है कि -- '' हम सबके अन्दर एक ही परमतत्व है विद्यमान है, जो हमें आपस मे जोड़ने का आधार प्रदान करता है, हमारे दर्शन मे उसे आत्मा कहा गया है। हम एक दूसरे के साथ जो प्रेम और सेवा का व्यवहार करते है वह बाह्य सम्बन्धों पर आधारित नही है।'' याज्ञवल्क्य ने मैत्रेयी से यही कहा है - ''ओ मैत्रेयि, पत्नी पति से इस लिये प्रेम नही करती है कि वह उसका पति है पर इस लिये करती है कि उसमें भी वही आत्मा है।''
श्री गुरूजी ने मातृशक्ति के योगदान को त्रिविध रूप मे स्वीकार किया है-
1. परिवार के विकास मे,
2. व्यक्तिगत हैसियत के रूप मे समाज मे
3. संगठन का अंग बनकर समाज के विकास मे, वही जिसे सब दुर्गा वाहिनी कहते है।
अगर मातृशक्ति के बारे मे श्री गुरु जी के अधिक विचार जानने हो तो एक पुस्तक है ''विचार नवनीत'' उसका अध्ययन करे।
श्री गुरूजी आधुनिकता के सम्बन्ध मे कहते है कि ज्ञानेश्वरी काव्य कि एक पंक्ति है -
निज सुकार्य को धर्मनिष्ठ करता विनम्रता मण्डित।
उसी उसी तरह नारी रखती तन बस्त्रवेष्ठित।।
यहां पर सती नारी का चित्रण किया गया कि किन्तु आज के दौर मे आधुनिक स्त्री अपने तन को सकी दृष्टि के सामने उघाड़ने मे ही आधुनिकता समझती है कैसा घोर पतन है। (विचार नवनीत पृ.367)
विचार नवनीत पुस्तक के पृ 42 से ''हम यह भी देखते है कि हमारे प्रमुख सांस्कृतिक पुरोधा निर्णयकों के रूप मे मिस इंडिया सौंदर्य प्रतियोगिताओं मे भाग लेते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि हमारी संस्कृति के संबंध मे उनकी जो अवधारणा है उसमे हमारे नारीत्व के आदर्श सीता, सावित्री, पद्मिनी व निवेदिता का कोई स्थान नही है। उस प्रतियोगिता मे से तो भारत का वास्तविक सौंदर्य ही गायब है।''
लक्ष्मी बाई केलकर के पत्र का उत्तर देते हुऐ श्री गुरूजी कहते है- '' .... रक्षाबंधन के दिन आपका भेजा हुआ पत्र एवं राखी प्राप्त हुई संघ के स्वयंसेवकों को आपकी ओर से राखी प्राप्त होना याने मातृशक्ति का विजयशाली आशीर्वाद प्राप्त होना है। इसलिये कृतज्ञता मे मै आपका नमस्कार पूर्वक आपका आभार मानता हूँ।'' (अक्षर प्रतिमा पृष्ट 56 मूल मराठी)
विचार नवनीत पुस्तक के पृ 42 से ''हम यह भी देखते है कि हमारे प्रमुख सांस्कृतिक पुरोधा निर्णयकों के रूप मे मिस इंडिया सौंदर्य प्रतियोगिताओं मे भाग लेते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि हमारी संस्कृति के संबंध मे उनकी जो अवधारणा है उसमे हमारे नारीत्व के आदर्श सीता, सावित्री, पद्मिनी व निवेदिता का कोई स्थान नही है। उस प्रतियोगिता मे से तो भारत का वास्तविक सौंदर्य ही गायब है।''
लक्ष्मी बाई केलकर के पत्र का उत्तर देते हुऐ श्री गुरूजी कहते है- '' .... रक्षाबंधन के दिन आपका भेजा हुआ पत्र एवं राखी प्राप्त हुई संघ के स्वयंसेवकों को आपकी ओर से राखी प्राप्त होना याने मातृशक्ति का विजयशाली आशीर्वाद प्राप्त होना है। इसलिये कृतज्ञता मे मै आपका नमस्कार पूर्वक आपका आभार मानता हूँ।'' (अक्षर प्रतिमा पृष्ट 56 मूल मराठी)
गुरु जी अपनी माता के सम्बन्ध मे कहते है ''एक माँ बहुत बीमार थी, गुरुजी के संघ कार्य से जाना था, उन्होंने मॉं से पूछा मै जा सकता हूँ, तो मॉं न कहा नहीं फिर उसी दिन पूछा जाऊ तो मॉं ने कहा कि जा। वह सोचती होगी की मै एक तरु बीमार हूँ और मेरा एक मात्र पुत्र मेरे पास न हो, नही वो ऐसा नहीं सोचती होगी, वह नही चाहती थी कि मेरे पुत्र ने जो राष्ट्र कार्य मेरे पुत्र ने लिया है मेरी बीमारी के कारण उसमें कोई खण्ड पड़े, इसलिए उन्होंने आज्ञा दे दी। माँ न यह भी कहा- किसी व्यक्ति की मृत्यु या जीवन इस पर निर्भर नही करता है कि कोई उसके पास हे कि नही'' यह सुनकर किसी को यह नहीं सोचना चाहिए कि वे योगिनी थी। हॉं वे भक्त जरूर थी और इसी लिये उनके अन्तःकरण मे धैर्य था मै यह संस्मरण इसलिए नहीं बात रहा हूँ कि मै कोई बड़ा मातृभक्त हूँ। पर हाँ मेरी मॉं वास्तविक माँ थी। उसने अपनी बीमारी को भी आड़े नही आने दिया।'' (श्रीगुरूजी समग्र दर्शन हिन्दी खण्ड 5 पृ 101)
श्रीगुरू जी एक व्यक्ति न होकर एक विचारधारा थे, वे एक ऐसी विभूति थे जिन्होने चारों पूज्य शंकराचार्यों विभिन्न संतों को एक मंच पर लाया, और संतो से कहलवाया कि हिन्दू पतित नही है, अस्पृश्यता उन्मूलन हेतु उसका निदान प्रस्तुत कर ही श्री गुरुजी ने अपने दायित्व को पूर्ण हुआ नहीं मान लिया। उनकी प्रेरणा से विक्रमी संवत् 2021 तदनुसार सन् 1964 में भगवान श्रीकृष्ण के पावन जन्मदिवस पर प्रस्थापित विश्व हिन्दू परिषद ने संवत 2026 (सन् 1969) में कर्नाटक के उडुपी नामक स्थान पर हिन्दू समाज के शैव, वीरशैव, माधव, वैष्णव, शाक्त, जैन, बौद्ध, सिख, आर्य समाज आदि समस्त सम्प्रदायों और पंथों के धर्माचार्यों का एक सम्मेलन बुलाया। श्रीगुरुजी उक्त सम्मेलन में उपस्थित थे। समस्त धर्माचार्यों ने हिन्दू समाज के समस्त घटकों से अस्पृश्यता उन्मूलन का आह्वान करते हुए सर्वसम्मति से एक प्रस्ताव पारित किया जिसमें घोषणा की गई थी कि :''समस्त हिन्दू-समाज को अविभाज्य एकात्मता के सूत्र में पिरोकर संगठित करने एवं स्पृश्य-अस्पृश्य की भावना व प्रवृत्ति से प्रेरित विघटन को रोकने के उद्देश्य की प्राप्ति हेतु विश्व भर के हिन्दुओं को अपने पारस्परिक व्यवहार में एकात्मता एवं समानता की भावना को बरकरार रखना चाहिए।''
इसमें सन्देह नहीं कि इस प्रस्ताव को हिन्दू समाज के समस्त मत-पंथों एवं सम्प्रदायों के धार्माचार्यों द्वारा एक स्वर से स्वीकृति दिया जाना इस देश के राष्ट्र-समाज के इतिहास में एक क्रान्तिकारी पग की संज्ञा दी जा सकती है क्योंकि यह घटना-क्रम एक विकृत परम्परा पर सच्ची धर्मभावना की विजय का स्वर्णिम क्षण था।
महात्मा गांधी जी भी संघ तथा श्री गुरु जी के अस्पृश्यता सम्बधी कार्यों की प्रशंसा की थी एक बार वर्धा के निकट संघ का शिविर लगा हुआ था जिसमें लगभग 1500 गणवेशधारी स्वयंसेवकों का अत्यन्त अनुशासित शिविर का समाचार जानकर उसे प्रत्यक्ष देखने की उत्कण्ठा और उत्सुकता के साथ गांधीजी उक्त शिविर में पहुंचे। वहाँ उनका समुचित योग्य अतिथि सत्कार किया गया। गांधीजी ने शिविर की आवास, भोजनादि व्यवस्थाओं को देखा और यह जानकारी चाहिए कि 'इस शिविर में कितने 'हरिजन' भाग ले रहे हैं?' इस पर जब उन्हें यह बताया गया कि संघ में किसी भी स्वयंसेवक से उसकी जाति नहीं पूछी जाती तो उनका प्रतिप्रश्न था कि 'स्वयंसेवकों से पूछ कर तो आप यह जानकारी दे सकते हैं?' इस पर जब संघ के वरिष्ठ अधिकारी श्री अप्पाजी जोशी ने इस पर अपनी असमर्थता यह कहकर प्रकट की कि 'हमारे लिए इतना जानना ही पर्याप्त है कि वे सब हिन्दू हैं।' तब गांधीजी ने स्वयंसेवकों से स्वयं यह जानकारी प्राप्त करने की इच्छा प्रकट की। अप्पाजी द्वारा 'हाँ' कहने पर जब गांधीजी ने शिविर में भाग ले रहे स्वयंसेवकों से स्वयं जानकारी प्राप्त की तब उन्हें यह पता चला कि 'इस शिविर में तो हरिजनों सहित सभी जातियों के लोग हैं, जो अपनी जातियों के नाम के बिना पानी पीने से लेकर खेलों तक के शिविर के समस्त कार्यक्रमों में आनन्द एवं मस्ती से भाग ले रहे हैं। यह देखकर गांधीजी दंग रह गए।' इस घटना से गांधीजी इतने प्रभावित थे कि 1946 में दिल्ली में सफाई कर्मचारियों की बस्ती में अपने निवास के दौरान एक दिन संघ के स्वयंसेवकों को सम्बोधित करते हुए उन्होंने 12 वर्ष पूर्व के उस दृश्य का पुन: उल्लेख किया और कहा कि ''मैं स्वयंसेवकों में अनुशासन, अस्पृश्यता का पूर्ण अभाव तथा कठोर सादगी को देखकर अत्यधिक प्रभावित हुआ।''
गुरूजी एक दूरदर्शी व्यक्तित्व के थे उन्होंने सरकार को चीन की मंशा बता दिया था जब प्रधानमंत्री नेहरू जी चीन के साथ पंचशील समझौता कर रहे थे कि चीन भारत पर आक्रमण कर सकता था तो प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने कहा था कि चीन लद्दाख की इतनी लम्बी सीमा को पार करके, लद्दाख के निर्जन इलाके मे क्या करने आयेगा, जब आया तो दृश्य सबके सामने था। संघ की उपस्थिती भारतीय समाज के हर क्षेत्र में महसूस की जा सकती है उदाहरण के तौर पर 1962 के भारत चीन युद्ध में प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू संघ की भूमिका से इतने प्रभावित हुये कि उन्होंने संघ की एक टुकड़ी को गणतंत्र दिवस के 1963 के परेड में सम्मिलित होने का न्योता दिया। सिर्फ़ दो दिनों की पूर्व सूचना पर तीन हजार से भी ज्यादा स्वयंसेवक पूरे परिधान में वहाँ उपस्थित हो गये।
गोवध निषेद्ध पर श्री गुरूजी का मत था ''गाय एक ऐसा प्राणी है, जो जितना खाता है, उससे अनेक गुना अधिक मनुष्य को वापस करता है। दूध के रूप में, उसके द्वारा विसर्जित किये जाने वाले पदार्थों गोबर-गोमूत्र आदि के द्वारा मिलने वाली खाद के रूप में और मृत्यु के बाद चर्म और अस्थि के रूप में वह हमें वापस करती है। उसका यदि हिसाब लगायें तो कहना पड़ेगा कि गाय के ऊपर यदि किसी ने सौ रुपये खर्च किये, तो उसे कम से कम पांच सौ रुपये मिलते हैं। इसे आर्थिक दृष्टि से लाभ कहोगे या हानि?'' ''अत: मनुष्य का खाना-पीना जिस पर निर्भर है, वह कृषि; और कृषि जिस पर निर्भर है, वह गोवंश, सम्पूर्ण दृष्टि से सम्वर्धीत होना आवश्यक है। उनके पोषण की चिन्ता करना और गोवंश की हत्या बन्द हो, इसके लिए सब प्रकार के प्रयत्नों की आवश्यकता है। सरकारी तौर पर कानून बनाकर, उसकी हत्या के लिए कड़े दण्ड का प्रबन्ध करते हुए हत्या बन्द करना नितांत आवश्यक है।'' (श्रीगुरुजी समग्र : खण्ड 3, पृष्ठ-212-13)।
श्रीगुरू जी एक व्यक्ति न होकर एक विचारधारा थे, वे एक ऐसी विभूति थे जिन्होने चारों पूज्य शंकराचार्यों विभिन्न संतों को एक मंच पर लाया, और संतो से कहलवाया कि हिन्दू पतित नही है, अस्पृश्यता उन्मूलन हेतु उसका निदान प्रस्तुत कर ही श्री गुरुजी ने अपने दायित्व को पूर्ण हुआ नहीं मान लिया। उनकी प्रेरणा से विक्रमी संवत् 2021 तदनुसार सन् 1964 में भगवान श्रीकृष्ण के पावन जन्मदिवस पर प्रस्थापित विश्व हिन्दू परिषद ने संवत 2026 (सन् 1969) में कर्नाटक के उडुपी नामक स्थान पर हिन्दू समाज के शैव, वीरशैव, माधव, वैष्णव, शाक्त, जैन, बौद्ध, सिख, आर्य समाज आदि समस्त सम्प्रदायों और पंथों के धर्माचार्यों का एक सम्मेलन बुलाया। श्रीगुरुजी उक्त सम्मेलन में उपस्थित थे। समस्त धर्माचार्यों ने हिन्दू समाज के समस्त घटकों से अस्पृश्यता उन्मूलन का आह्वान करते हुए सर्वसम्मति से एक प्रस्ताव पारित किया जिसमें घोषणा की गई थी कि :''समस्त हिन्दू-समाज को अविभाज्य एकात्मता के सूत्र में पिरोकर संगठित करने एवं स्पृश्य-अस्पृश्य की भावना व प्रवृत्ति से प्रेरित विघटन को रोकने के उद्देश्य की प्राप्ति हेतु विश्व भर के हिन्दुओं को अपने पारस्परिक व्यवहार में एकात्मता एवं समानता की भावना को बरकरार रखना चाहिए।''
इसमें सन्देह नहीं कि इस प्रस्ताव को हिन्दू समाज के समस्त मत-पंथों एवं सम्प्रदायों के धार्माचार्यों द्वारा एक स्वर से स्वीकृति दिया जाना इस देश के राष्ट्र-समाज के इतिहास में एक क्रान्तिकारी पग की संज्ञा दी जा सकती है क्योंकि यह घटना-क्रम एक विकृत परम्परा पर सच्ची धर्मभावना की विजय का स्वर्णिम क्षण था।
महात्मा गांधी जी भी संघ तथा श्री गुरु जी के अस्पृश्यता सम्बधी कार्यों की प्रशंसा की थी एक बार वर्धा के निकट संघ का शिविर लगा हुआ था जिसमें लगभग 1500 गणवेशधारी स्वयंसेवकों का अत्यन्त अनुशासित शिविर का समाचार जानकर उसे प्रत्यक्ष देखने की उत्कण्ठा और उत्सुकता के साथ गांधीजी उक्त शिविर में पहुंचे। वहाँ उनका समुचित योग्य अतिथि सत्कार किया गया। गांधीजी ने शिविर की आवास, भोजनादि व्यवस्थाओं को देखा और यह जानकारी चाहिए कि 'इस शिविर में कितने 'हरिजन' भाग ले रहे हैं?' इस पर जब उन्हें यह बताया गया कि संघ में किसी भी स्वयंसेवक से उसकी जाति नहीं पूछी जाती तो उनका प्रतिप्रश्न था कि 'स्वयंसेवकों से पूछ कर तो आप यह जानकारी दे सकते हैं?' इस पर जब संघ के वरिष्ठ अधिकारी श्री अप्पाजी जोशी ने इस पर अपनी असमर्थता यह कहकर प्रकट की कि 'हमारे लिए इतना जानना ही पर्याप्त है कि वे सब हिन्दू हैं।' तब गांधीजी ने स्वयंसेवकों से स्वयं यह जानकारी प्राप्त करने की इच्छा प्रकट की। अप्पाजी द्वारा 'हाँ' कहने पर जब गांधीजी ने शिविर में भाग ले रहे स्वयंसेवकों से स्वयं जानकारी प्राप्त की तब उन्हें यह पता चला कि 'इस शिविर में तो हरिजनों सहित सभी जातियों के लोग हैं, जो अपनी जातियों के नाम के बिना पानी पीने से लेकर खेलों तक के शिविर के समस्त कार्यक्रमों में आनन्द एवं मस्ती से भाग ले रहे हैं। यह देखकर गांधीजी दंग रह गए।' इस घटना से गांधीजी इतने प्रभावित थे कि 1946 में दिल्ली में सफाई कर्मचारियों की बस्ती में अपने निवास के दौरान एक दिन संघ के स्वयंसेवकों को सम्बोधित करते हुए उन्होंने 12 वर्ष पूर्व के उस दृश्य का पुन: उल्लेख किया और कहा कि ''मैं स्वयंसेवकों में अनुशासन, अस्पृश्यता का पूर्ण अभाव तथा कठोर सादगी को देखकर अत्यधिक प्रभावित हुआ।''
गुरूजी एक दूरदर्शी व्यक्तित्व के थे उन्होंने सरकार को चीन की मंशा बता दिया था जब प्रधानमंत्री नेहरू जी चीन के साथ पंचशील समझौता कर रहे थे कि चीन भारत पर आक्रमण कर सकता था तो प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने कहा था कि चीन लद्दाख की इतनी लम्बी सीमा को पार करके, लद्दाख के निर्जन इलाके मे क्या करने आयेगा, जब आया तो दृश्य सबके सामने था। संघ की उपस्थिती भारतीय समाज के हर क्षेत्र में महसूस की जा सकती है उदाहरण के तौर पर 1962 के भारत चीन युद्ध में प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू संघ की भूमिका से इतने प्रभावित हुये कि उन्होंने संघ की एक टुकड़ी को गणतंत्र दिवस के 1963 के परेड में सम्मिलित होने का न्योता दिया। सिर्फ़ दो दिनों की पूर्व सूचना पर तीन हजार से भी ज्यादा स्वयंसेवक पूरे परिधान में वहाँ उपस्थित हो गये।
गोवध निषेद्ध पर श्री गुरूजी का मत था ''गाय एक ऐसा प्राणी है, जो जितना खाता है, उससे अनेक गुना अधिक मनुष्य को वापस करता है। दूध के रूप में, उसके द्वारा विसर्जित किये जाने वाले पदार्थों गोबर-गोमूत्र आदि के द्वारा मिलने वाली खाद के रूप में और मृत्यु के बाद चर्म और अस्थि के रूप में वह हमें वापस करती है। उसका यदि हिसाब लगायें तो कहना पड़ेगा कि गाय के ऊपर यदि किसी ने सौ रुपये खर्च किये, तो उसे कम से कम पांच सौ रुपये मिलते हैं। इसे आर्थिक दृष्टि से लाभ कहोगे या हानि?'' ''अत: मनुष्य का खाना-पीना जिस पर निर्भर है, वह कृषि; और कृषि जिस पर निर्भर है, वह गोवंश, सम्पूर्ण दृष्टि से सम्वर्धीत होना आवश्यक है। उनके पोषण की चिन्ता करना और गोवंश की हत्या बन्द हो, इसके लिए सब प्रकार के प्रयत्नों की आवश्यकता है। सरकारी तौर पर कानून बनाकर, उसकी हत्या के लिए कड़े दण्ड का प्रबन्ध करते हुए हत्या बन्द करना नितांत आवश्यक है।'' (श्रीगुरुजी समग्र : खण्ड 3, पृष्ठ-212-13)।
श्री गुरूजी कहते है कि - ''लोग तर्क देते हैं कि गायों की वृद्धि से मनुष्यों की भोजन-सामग्री घट जायेगी। यह तर्क ठीक नहीं है; क्योंकि गाय मनुष्य का भोजन तो खाती नहीं। वह तो अनाज निकालने के बाद जो भूसा बचता है, वही खाती है।'' (श्रीगुरुजी समग्र : खण्ड 5, पृष्ठ-65)।
कुछ लोगो के यह कहने पर कि मुस्लिमो के साथ समझौता करने के कारण गांधी जी भी गो हत्या के सर्मथक थे तो गुरूजी ने गांधी जी का पक्ष लेते हुये कहते है - ''महात्मा गांधी गोरक्षा के पक्ष में थे। वे अपनी प्रार्थना में सबसे पहले गाय और ब्राह्मण की रक्षा का श्लोक कहते थे। गोरक्षा के प्रश्न को वे कितना महत्व देते थे, इसका एक उदाहरण बताता हूँ। अपने देश को अंग्रेजों से स्वतंत्र कराने के प्रयत्न चल रहे थे, तब कांग्रेस ने सोचा कि मुस्लिम लीग से समझौता कर लेने पर स्वराज्य-प्राप्ति में सुगमता होगी। गांधीजी कांग्रेस के सक्रिय सदस्य तो नहीं थे; पर परामर्श अवश्य देते थे। मुस्लिम लीग से समझौते का कागज श्री महादेव देसाई ने जब उन्हें दिखाया, तब उन्होंने उसे पढ़कर लौटा दिया और समझौते को अपनी स्वीकृति दे दी। उस समझौते में एक शर्त यह थी कि स्वराज्य-प्राप्ति के बाद मुसलमानों को गोहत्या का अधिकार रहेगा। इस छोटी-सी बात के कारण गांधीजी को बड़ी बेचैनी हुई। उन्हें रात भर नींद नहीं आयी। रात में ही उन्होंने महादेव देसाई से समझौते का कागज मँगवाया। उसे ठीक से पढ़ने के बाद उन्होंने कहा 'गोहत्या की शर्त मुझे मान्य नहीं। गाय के प्रति हम कृतज्ञ हैं। इसलिए उसकी रक्षा अपना परम कर्तव्य है।' समझौता उसी समय टूट गया।'' (श्रीगुरुजी समग्र : खण्ड 5, पृष्ठ-63)।
वामपंथियों की इस बात की पर कि वेदों मे लिखा है कि हिन्दू गो हत्या तथा गौ मांस का भक्षण करते है तो इस पर श्री गुरूजी कटाक्ष करते हुये कहते है - ''कुछ लोग ऐसे भी हैं, जो गोहत्या समर्थन में वेदों के प्रमाण देते हैं। वे कहते हैं कि वेदों में 'गो-मेधा' यज्ञ का वर्णन आया है। उनका कहना है कि प्राचीन काल में लोग गोहत्या करके यज्ञ करते थे तब गोमांस खाते थे। वस्तुत: ये सब प्रमाण काल्पनिक हैं। शब्दों के अर्थ यथार्थ लगाना चाहिए।
'गो-मेधा' का अर्थ यदि गाय को काटकर यज्ञ करना है, तो 'पितृ-मेधा' का भी अर्थ माता-पिता की आहुति देना हो सकता है। 'गृह-मेधा यज्ञ' भी कहा गया है; पर उसका अर्थ घर को आग लगाना तो है नहीं। इसका अर्थ कुछ और ही है। इसलिए जो वास्तविक अर्थ है, उसको लेना चाहिए। अपना स्वार्थ सिध्द करने के लिए ऐसे पाप का समर्थन करना अनुचित है।'' (श्री गुरुजी समग्र : खण्ड 5 , पृष्ठ-65)।
श्री गुरुजी गोरक्षा के प्रश्न को इतिहास से जोड़ते हुए इसे अपने महान पुरखों की परम्परा बताते हैं। वे कहते : ''स्वातन्त्र्य के लिए लड़ने वाले सब वीरों ने गोहत्या पर रोक लगाने को अपना ध्येय घोषित किया था। उसका अर्थ यह था कि वे अपने राष्ट्रीय जीवन के हर कलंक को मिटाने तथा अपनी पूज्य संस्कृति को पुनरपि वर्ध्दमान करने वाले यहाँ के जनजीवन को उच्चतर एवं पवित्रतर बनाने वाले स्वातन्त्र्य को पुनरपि प्रस्थापित करने पर लगे हुए थे।
''छत्रपति शिवाजी महाराज गोब्राह्मण प्रतिपालक कहलाते थे। श्री गुरु गोविन्दसिंह जी महाराज ने अपनी आर्त प्रार्थना में तुर्कों का नाश करने के लिए तथा गाय को पीड़ा से बचाने के लिए तथा धर्म-संरक्षण के लिए ही सामर्थ्य माँगा है। सन् 1857 के स्वातन्त्र्य युध्द का विस्फोट गो-विषयक स्फुलिंग से ही हुआ। कूकाओं के शस्त्रोद्यत होने के लिए गोभक्ति की ही प्रेरणा थी।
''उत्तर काल में लोकमान्य तिलक तथा महात्मा गांधी जैसे स्वातन्त्र्य युध्द के महान नेताओं ने यही घोषित किया था कि यहाँ से जब हम अंग्रेजों को भगा देंगे, तब स्वतंत्र भारत का पहला कानून गोवंश की हत्या का सम्पूर्ण निषेध करने वाला होगा। महात्मा गांधी जी ने तो यहाँ तक कह दिया था कि गाय की समस्या का महत्व प्रत्यक्ष स्वराज्य से भी बढ़कर है।'' (श्री गुरुजी समग्र : खण्ड 10, पृष्ठ-274)।
गोवध पर पीडा व्यक्त करते हुऐ गुरू जी कहते है - ''आश्चर्य की बात है कि परदेशी शासक जाने के बाद बने हुए हमारे शासन ने आज तक यह नहीं पहचाना है कि यह विषय राष्ट्रीयता की दृष्टि से प्रथम श्रेणी का महत्व रखता है। अवस्था का विचार किये बिना गोवंश की हत्या जब तक हम पूर्णत: बंद नहीं करते, तब तक हमारा स्वराज्य अपूर्ण है। इस रूप में पारतंत्र्य के अत्यन्त पीड़ादायक चिन्ह शेष हैं और वे हमारी राष्ट्रीय अस्मिता को बुझाने का काम करते हैं। इस बात को हमारे वर्तमान शासकों ने कभी समझा ही नहीं।'' (श्री गुरुजी समग्र : खण्ड 10, पृष्ठ-274-75)।
श्रीगुरू जी के चिन्तन के विषय मे अनेक महत्वपूर्ण व्यक्ति भी लोहा मानते है, कुछ महत्व पूर्ण लोगो के श्री गुरू जी के प्रति निम्न विचार थे- ''श्रीगुरुजी न केवल इस देश के सबसे अधिक महत्वपूर्ण व्यक्ति हैं, अपितु वे देश के भाग्य-विधाता हैं। हिटलर से लेकर नास्सर तक विश्व की बड़ी-बड़ी हस्तियों से मैं मिल चुका हूँ। किन्तु श्रीगुरुजी जैसा प्रसन्नचित, आत्मविश्वासी और प्रभावी व्यक्तित्व अभी तक मेरे देखने में नहीं आया। ईमानदारी के साथ मुझे लगता है कि हिन्दू-मुस्लिम समस्या को सुलझाने के विषय में एकमात्र श्रीगुरुजी ही हैं, जो यथोचित मार्गदर्शन कर सकते हैं।'' यह मानना था डॉ. सैफुद्दीन जिलानी का। उन्होंने १९७१ में श्रीगुरुजी से कोलकाता में साक्षात्कार किया था। मूलत: ईरानी होते हुए भी डा. जिलानी बरसों पूर्व भारत में आ बसे। इस्लामी तत्वज्ञान के सूक्ष्म अध्ययन के साथ ही उन्होंने तौलनिक दृष्टि से भारतीय तत्वज्ञान का भी भरपूर परिचय प्राप्त किया था।
कुछ लोगो के यह कहने पर कि मुस्लिमो के साथ समझौता करने के कारण गांधी जी भी गो हत्या के सर्मथक थे तो गुरूजी ने गांधी जी का पक्ष लेते हुये कहते है - ''महात्मा गांधी गोरक्षा के पक्ष में थे। वे अपनी प्रार्थना में सबसे पहले गाय और ब्राह्मण की रक्षा का श्लोक कहते थे। गोरक्षा के प्रश्न को वे कितना महत्व देते थे, इसका एक उदाहरण बताता हूँ। अपने देश को अंग्रेजों से स्वतंत्र कराने के प्रयत्न चल रहे थे, तब कांग्रेस ने सोचा कि मुस्लिम लीग से समझौता कर लेने पर स्वराज्य-प्राप्ति में सुगमता होगी। गांधीजी कांग्रेस के सक्रिय सदस्य तो नहीं थे; पर परामर्श अवश्य देते थे। मुस्लिम लीग से समझौते का कागज श्री महादेव देसाई ने जब उन्हें दिखाया, तब उन्होंने उसे पढ़कर लौटा दिया और समझौते को अपनी स्वीकृति दे दी। उस समझौते में एक शर्त यह थी कि स्वराज्य-प्राप्ति के बाद मुसलमानों को गोहत्या का अधिकार रहेगा। इस छोटी-सी बात के कारण गांधीजी को बड़ी बेचैनी हुई। उन्हें रात भर नींद नहीं आयी। रात में ही उन्होंने महादेव देसाई से समझौते का कागज मँगवाया। उसे ठीक से पढ़ने के बाद उन्होंने कहा 'गोहत्या की शर्त मुझे मान्य नहीं। गाय के प्रति हम कृतज्ञ हैं। इसलिए उसकी रक्षा अपना परम कर्तव्य है।' समझौता उसी समय टूट गया।'' (श्रीगुरुजी समग्र : खण्ड 5, पृष्ठ-63)।
वामपंथियों की इस बात की पर कि वेदों मे लिखा है कि हिन्दू गो हत्या तथा गौ मांस का भक्षण करते है तो इस पर श्री गुरूजी कटाक्ष करते हुये कहते है - ''कुछ लोग ऐसे भी हैं, जो गोहत्या समर्थन में वेदों के प्रमाण देते हैं। वे कहते हैं कि वेदों में 'गो-मेधा' यज्ञ का वर्णन आया है। उनका कहना है कि प्राचीन काल में लोग गोहत्या करके यज्ञ करते थे तब गोमांस खाते थे। वस्तुत: ये सब प्रमाण काल्पनिक हैं। शब्दों के अर्थ यथार्थ लगाना चाहिए।
'गो-मेधा' का अर्थ यदि गाय को काटकर यज्ञ करना है, तो 'पितृ-मेधा' का भी अर्थ माता-पिता की आहुति देना हो सकता है। 'गृह-मेधा यज्ञ' भी कहा गया है; पर उसका अर्थ घर को आग लगाना तो है नहीं। इसका अर्थ कुछ और ही है। इसलिए जो वास्तविक अर्थ है, उसको लेना चाहिए। अपना स्वार्थ सिध्द करने के लिए ऐसे पाप का समर्थन करना अनुचित है।'' (श्री गुरुजी समग्र : खण्ड 5 , पृष्ठ-65)।
श्री गुरुजी गोरक्षा के प्रश्न को इतिहास से जोड़ते हुए इसे अपने महान पुरखों की परम्परा बताते हैं। वे कहते : ''स्वातन्त्र्य के लिए लड़ने वाले सब वीरों ने गोहत्या पर रोक लगाने को अपना ध्येय घोषित किया था। उसका अर्थ यह था कि वे अपने राष्ट्रीय जीवन के हर कलंक को मिटाने तथा अपनी पूज्य संस्कृति को पुनरपि वर्ध्दमान करने वाले यहाँ के जनजीवन को उच्चतर एवं पवित्रतर बनाने वाले स्वातन्त्र्य को पुनरपि प्रस्थापित करने पर लगे हुए थे।
''छत्रपति शिवाजी महाराज गोब्राह्मण प्रतिपालक कहलाते थे। श्री गुरु गोविन्दसिंह जी महाराज ने अपनी आर्त प्रार्थना में तुर्कों का नाश करने के लिए तथा गाय को पीड़ा से बचाने के लिए तथा धर्म-संरक्षण के लिए ही सामर्थ्य माँगा है। सन् 1857 के स्वातन्त्र्य युध्द का विस्फोट गो-विषयक स्फुलिंग से ही हुआ। कूकाओं के शस्त्रोद्यत होने के लिए गोभक्ति की ही प्रेरणा थी।
''उत्तर काल में लोकमान्य तिलक तथा महात्मा गांधी जैसे स्वातन्त्र्य युध्द के महान नेताओं ने यही घोषित किया था कि यहाँ से जब हम अंग्रेजों को भगा देंगे, तब स्वतंत्र भारत का पहला कानून गोवंश की हत्या का सम्पूर्ण निषेध करने वाला होगा। महात्मा गांधी जी ने तो यहाँ तक कह दिया था कि गाय की समस्या का महत्व प्रत्यक्ष स्वराज्य से भी बढ़कर है।'' (श्री गुरुजी समग्र : खण्ड 10, पृष्ठ-274)।
गोवध पर पीडा व्यक्त करते हुऐ गुरू जी कहते है - ''आश्चर्य की बात है कि परदेशी शासक जाने के बाद बने हुए हमारे शासन ने आज तक यह नहीं पहचाना है कि यह विषय राष्ट्रीयता की दृष्टि से प्रथम श्रेणी का महत्व रखता है। अवस्था का विचार किये बिना गोवंश की हत्या जब तक हम पूर्णत: बंद नहीं करते, तब तक हमारा स्वराज्य अपूर्ण है। इस रूप में पारतंत्र्य के अत्यन्त पीड़ादायक चिन्ह शेष हैं और वे हमारी राष्ट्रीय अस्मिता को बुझाने का काम करते हैं। इस बात को हमारे वर्तमान शासकों ने कभी समझा ही नहीं।'' (श्री गुरुजी समग्र : खण्ड 10, पृष्ठ-274-75)।
श्रीगुरू जी के चिन्तन के विषय मे अनेक महत्वपूर्ण व्यक्ति भी लोहा मानते है, कुछ महत्व पूर्ण लोगो के श्री गुरू जी के प्रति निम्न विचार थे- ''श्रीगुरुजी न केवल इस देश के सबसे अधिक महत्वपूर्ण व्यक्ति हैं, अपितु वे देश के भाग्य-विधाता हैं। हिटलर से लेकर नास्सर तक विश्व की बड़ी-बड़ी हस्तियों से मैं मिल चुका हूँ। किन्तु श्रीगुरुजी जैसा प्रसन्नचित, आत्मविश्वासी और प्रभावी व्यक्तित्व अभी तक मेरे देखने में नहीं आया। ईमानदारी के साथ मुझे लगता है कि हिन्दू-मुस्लिम समस्या को सुलझाने के विषय में एकमात्र श्रीगुरुजी ही हैं, जो यथोचित मार्गदर्शन कर सकते हैं।'' यह मानना था डॉ. सैफुद्दीन जिलानी का। उन्होंने १९७१ में श्रीगुरुजी से कोलकाता में साक्षात्कार किया था। मूलत: ईरानी होते हुए भी डा. जिलानी बरसों पूर्व भारत में आ बसे। इस्लामी तत्वज्ञान के सूक्ष्म अध्ययन के साथ ही उन्होंने तौलनिक दृष्टि से भारतीय तत्वज्ञान का भी भरपूर परिचय प्राप्त किया था।
प्रख्यात पत्रकार श्री डॉ. सैफुद्दीन जिलानी ने जब श्री गुरूजी से भेट किया तो उनके श्री गुरूजी के प्रति यह विचार थे- ''श्रीगुरुजी न केवल इस देश के सबसे अधिक महत्वपूर्ण व्यक्ति हैं, अपितु वे देश के भाग्य-विधाता हैं। हिटलर से लेकर नास्सर तक विश्व की बड़ी-बड़ी हस्तियों से मैं मिल चुका हूँ। किन्तु श्रीगुरुजी जैसा प्रसन्नचित, आत्मविश्वासी और प्रभावी व्यक्तित्व अभी तक मेरे देखने में नहीं आया। ईमानदारी के साथ मुझे लगता है कि हिन्दू-मुस्लिम समस्या को सुलझाने के विषय में एकमात्र श्रीगुरुजी ही हैं, जो यथोचित मार्गदर्शन कर सकते हैं।'' मुस्लिम बन्धुओं के विषय में सद्भावना रखने वाले हिन्दुओं की संख्या बहुत होने के कारण मुझे अपने प्रयत्नों में कुछ यश अवश्य प्राप्त हुआ। किन्तु वह सन्तोषकारक नहीं माना जा सकता। मेरे मतानुसार इस कार्य में सिवा श्रीगुरुजी के अन्य कोई भी सहायक सिध्द नहीं हो सकता।
वे आगे कहते है- यह बात कहते समय मैंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को अपनी आँखों से ओझल नहीं किया है। अनेक वर्षों से संघ का कार्य मैं बहुत नजदीक से देखता आ रहा हूँ। उसके आधार पर मैं असंदिग्ध शब्दों में कह सकता हूँ कि संघ इस देश के लिए बहुत बड़ा सहारा है। किन्तु अपने देश की दृष्टि से संघ कार्य के महत्व का जिन्हें आकलन नहीं हुआ, ऐसे लोग अज्ञानवश या जानबूझकर संघ-विरोधी प्रचार किया करते हैं। सच्चाई तो यह है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ मुसलमानों का शत्रु नहीं, अपितु मित्र है। किन्तु यह बात मुसलमानों की समझ में नहीं आती। इसका कारण यह है कि वे स्वयं की बुध्दि से विचार नहीं करते। मानों विचार करने की जिम्मेदारी उन्होंने अपने अनभिज्ञ और षड़यंत्रकारी नेताओं पर सौंप दी है।
उस प्रकार मैं यह भी नहीं भूला हूँ कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में मुसलमानों का प्रवेश निषिद्ध है। हिन्दू समाज में स्वाभिमान जागृत करने के लिए संघ का जन्म हुआ है। यह कार्य पूर्ण होते ही संघ के द्वारा अहिन्दुओं के लिए तत्काल खुल जायेंगे। किसी भी इमारत का निर्माण-कार्य, उसकी नींव से हुआ करता है। भारत के भव्य प्रासाद की आधारशिला हिन्दू है। यह नींव मजबूत होते ही, प्रासाद अभूतपूर्व वैभव से जगमगाने लगेगा। मैंने श्री गुरुजी से पूछा, 'हाल ही के दिनों में किसी प्रमुख मुसलमान ने आपसे जातिवाद की समस्या पर चर्चा की है अथवा नहीं? उन्होंने अनेक नाम बताये। परन्तु इस संदर्भ में मेरे दिमाग में जिन मुस्लिम नेताओं के नाम थे, उनमें से एक भी नाम उनमें नहीं थे। इसलिए मेरे दिमाग में जो नाम थे उनका उल्लेख करते हुए मैंने उनसे सीधा प्रश्न पूछा, ''क्या आप इनसे मिलना चाहेंगे?' उन्होंने तत्काल उत्तर दिया, 'मैं उनसे जरूर मिलना चाहूँगा! इतना ही नहीं, उनसे मिलकर मुझे प्रसन्नता होगी।'
उनके उक्त शब्दों में सदिच्छा एवं प्राथमिकता का स्पष्ट आह्वान था। परन्तु जैसा कि कुरआन में कहा गया है, 'विकृति से चेतनाशून्य हुए कानों में क्या वह प्रविष्ट होगा?'
जिलानी आगे फिर कहते है- मैं समग्र भारतीय जनता का एक नम्र सेवक हूँ परन्तु सच कहूँ तो मेरे दिमाग में सबसे पहले अगर कोई बात आती है तो वह है, भारत के मेरे मुस्लिम भाइयों के बारे में। हिन्दुओं के लिए नेतृत्व की कोई कमी नहीं है। किन्तु मुसलमानों के हालत उन भेड़ों जैसी है, जिनका कोई गड़रिया ही नहीं है। इसलिए मैं मुसलमानों से यही कहना चाहता हूँ कि वे अपनी आँखें और दिमाग खुले रखें। इसी बात को ध्यान में रखकर मैंने श्रीगुरुजी से भेंटवार्ता का अवसर माँगा था। मेरे व श्री गुरूजी विभिन्न पहलुओ पर जो संवाद हुआ वह निम्न है-
प्रश्न : देश के समक्ष आज जो संकट मुँह बाए खड़े हैं, उन्हें देखते हुए हिन्दू-मुस्लिम समस्या का कोई निश्चित हल ढूँढ़ना, क्या आपको आवश्यक प्रतीत नहीं होता?
उत्तर : देश का विचार करते समय मैं हिन्दू और मुसलमान इस स्वरूप में विचार नहीं करता। परन्तु इस प्रश्न की ओर लोग आज कल सभी लोग राजनीतिक दृष्टिकोण से ही विचार करते दिखाई देते हैं। हर कोई राजनीतिक स्थिति का लाभ उठाकर व्यक्तिगत अथवा जातिगत स्वार्थ सिद्ध करने में लिप्त है। इस परिस्थिति को समाप्त करने का केवल एक ही उपाय है। वह है राजनीति की ओर देशहित, और केवल देश हित की ही दृष्टि से देखना। उस स्थिति में, वर्तमान सभी समस्याएं देखते ही देखते हल हो जाएंगी।
हाल ही में मैं दिल्ली गया था। उस समय अनेक लोग मुझ से मिलने आये थे। उनमें भारतीय क्रांति दल, संगठन कांग्रेस आदि दलों के लोग भी थे। संघ को हमने प्रत्यक्ष राजनीति से अलग रखा है। परन्तु मेरे कुछ पुराने मित्र जनसंघ में होने के कारण, कुछ मामलों में मैं मध्यस्थता करूं, इस हेतु वे मुझसे मिलने आये थे। उनसे मैंने एक सामान्य-सा प्रश्न पूछा, 'आप लोग हमेशा अपने दल का और आपके दल के हाथ में सत्ता किस तरह आये इसी का विचार किया करते हो। परन्तु दलीय निष्ठा, दलीय हितों का विचार करते समय, क्या आप सम्पूर्ण देश के हितों का भी कभी विचार करते हो? इस सामान्य से प्रश्न का 'हाँ' में उत्तर देने के लिए कोई सामने नहीं आया। समग्र देश के हितों का विचार सचमुच उनके सामने होता, तो वे वैसा साफ-साफ कह सकते थे। किन्तु उन्होंने नहीं कहा। इसका अर्थ स्पष्ट है कि कोई भी दल, समग्र देश का विचार नहीं करता। मैं समग्र देश का विचार करता हूँ। इसलिए मैं हिन्दुओं के लिये कार्य करता हूँ। परन्तु कल यदि हिन्दू भी देश के हितों के विरुद्ध जाने लगे, तो उनमें मेरी कौन-सी रुचि रह जायेगी?
रही मुसलमानों की बात। मैं यह समझ सकता हूँ कि अन्य लोगों की तरह उनकी भी न्यायोचित माँगे पूरी की जानी चाहिए। परन्तु जब चाहे तब विभिन्न सहूलियतों और विशेषाधिकारों की माँगे करते रहना कतई न्यायोचित नहीं कहा जा सकता। मैंने सुना है कि प्रत्येक प्रदेश में एक छोटे पाकिस्तान की मांग उठाई गई, जैसा कि प्रकाशित हुआ है। एक मुस्लिम संगठन के अध्यक्ष ने तो लाल किले पर चांद वाला हरे रंग का पाक झण्डा लहराने की बात की। परन्तु भारतीय व सच्चे मुसलमानों के द्वारा इसका खंडन भी नहीं किया गया है। ऐसी बातों से समग्र देश का विचार करने वालों को संतप्त होना आवश्यक है।
उर्दू के आग्रह का ही विचार करें। पचास वर्षों के पूर्व तक विभिन्न प्रान्तों के मुसलमान अपने-अपने प्रांतों की भाषाएं बोला करते, उन्हीं भाषाओं में शिक्षा ग्रहण किया करते थे। उन्हें कभी ऐसा नहीं लगा कि उनके धर्म की कोई अलग भाषा है। उर्दू मुसलमानों की धर्म-भाषा नहीं है। मुगलों के समय में एक संकर भाषा के रूप में वह उत्पन्न हुई। इस्लाम के साथ उसका रत्ती भर का भी संबंध नहीं है। पवित्र कुरान अरबी में लिखा है। अत: मुसलमानों की अगर कोई धर्म-भाषा हो तो वह अरबी ही होगी। ऐसा होते हुए भी, आज उर्दू का इतना आग्रह क्यों? इसका कारण यह है कि इस भाषा के सहारे वे मुसलमानों को एक राजनीतिक शक्ति के रूप में संगठित करना चाहते हैं। यह संभावना नहीं तो एक निश्चित तथ्य है कि इस तरह की राजनीतिक शक्ति देश हितों के विरुद्ध की जायेगी।
कुछ मुसलमान कहते हैं कि उनका राष्ट्र-पुरुष रुस्तम है। सच पूछा जाए, तो मुसलमानों का रुस्तम से क्या संबंधा? रुस्तम तो इस्लाम के उदय पूर्व ही हुआ था। वह कैसे उनका राष्ट्र-पुरुष हो सकता है? और फिर प्रभु रामचंद्र जी क्यों नहीं हो सकते? मैं पूछता हूँ कि आप यह इतिहास स्वीकार क्यों नहीं करते?
पाकिस्तान ने पाणिनि की पांच हजारवीं जयंती मनाई! इसका कारण क्या है? इसका कारण यह है कि जो हिस्सा पाकिस्तान के नाम से पहचाना जाता है, वहीं पाणिनि का जन्म हुआ था। यदि पाकिस्तान के लोग गर्व के साथ यह कह सकते हैं कि पाणिनि उनके पूर्वजों में से एक है, तो फिर भारत के 'हिन्दू मुसलमान' भी - मैं उन्हें 'हिन्दू मुसलमान' कहता हूँ - पाणिनि, व्यास, वाल्मीकि, राम, कृष्ण आदि को अभिमान पूर्वक अपने महान पूर्वज क्यों नहीं मानते?
हिन्दुओं में से ऐसे अनेक लोग हैं, जो राम, कृष्ण आदि को ईश्वर के अवतार नहीं मानते। फिर भी वे उन्हें महापुरुष मानते हैं, अनुकरणीय मानते हैं। इसलिए मुसलमान भी यदि उन्हें अवतारी पुरुष न मानें, तो कुछ नहीं बिगड़ने वाला है। परन्तु क्या उन्हें राष्ट्र-पुरुष नहीं माना जाना चाहिए? हमारे धर्म और तत्वज्ञान की शिक्षा के अनुसार हिन्दू और मुसलमान समान ही हैं। ऐसी बात नहीं है कि ईश्वरी सत्य का साक्षात्कार केवल हिन्दू ही कर सकता है। अपने धर्ममत के अनुसार कोई भी साक्षात्कार कर सकता है।
श्रृंगेरी मठ के शंकराचार्य का ही उदाहरण लें। यह उदाहरण वर्तमान शंकराचार्य के गुरु का है। एक अमेरिकी व्यक्ति उनके पास आया और उनसे प्रार्थना की कि उसे हिन्दू बना लिया जाए। इस पर शंकराचार्य जी ने उससे पूछा कि वह हिंदू क्यों बनना चाहता है? उसने उत्तर दिया, कि ईसाई धर्म से उसे शांति प्राप्त नहीं हुई है। आध्यात्मिक तृष्णा अभी अतृप्त ही है।
इस पर शंकराचार्य जी ने उससे कहा, 'क्या तुमने सचमुच पहले ईसाई धर्म का प्रामाणिकता पूर्वक पालन किया है? तुम यदि इस निष्कर्ष पर पहुंच चुके होंगे कि ईसाई धर्म का पालन करने के बाद भी तुम्हें शांति नहीं मिली, तो मेरे पास अवश्य आओ।'
हमारा दृष्टिकोण इस तरह का है। हमारा धर्म, धर्म -परिवर्तन न करने वाला धर्म है। धर्मान्तरण तो प्राय: राजनीतिक अथवा अन्य हेतु से कराये जाते हैं। इस तरह का धर्म-परिवर्तन हमें स्वीकार नहीं है। हम कहते हैं - 'यह सत्य है! तुम्हें जँचता हो तो स्वीकार करो अन्यथा छोड़ दो।'
दक्षिण की यात्रा के दौरान मदुराई में कुछ लोग मुझसे मिलने के लिये आये। मुस्लिम-समस्या पर वे मुझसे चर्चा करना चाहते थे। मैंने उनसे कहा - ''आप लोग मुझसे मिलने आये, मुझे बड़ा आनन्द हुआ। मुसलमानों के विषय में मेरा दृष्टिकोण उन्होंने जानना चाहा तो मैं उनसे बोला, '' यह बात हमेशा ध्यान में रखनी होगी कि हम सबके पूर्वज एक ही हैं और हम सब उनके वंशज हैं। आप अपने-अपने धर्मों का प्रामाणिकता से पालन करें। परन्तु राष्ट्र के मामले में सबको एक होना चाहिए। राष्ट्रहित के लिए बाधाक सिध्द होने वाले अधिकारों और सहूलियतों की माँग बन्द होनी चाहिए।
हम हिन्दू हैं इसलिए हम विशेष सहूलियतों के अधिकारों की कभी बात नहीं करते। ऐसी स्थिति में कुछ लोग यदि कहने लगें कि 'हमें अलग होना है', 'हमें अलग प्रदेश चाहिए' तो यह कतई सहन नहीं होगा।
ऐसी बात नहीं कि यह प्रश्न केवल हिन्दू और मुसलमानों के बीच ही है। यह समस्या तो हिन्दुओं के बीच भी है। जैसे हिन्दू-समाज में जैन लोग हैं, तथाकथित अनुसूचित जातियाँ हैं। अनुसूचित जातियों में कुछ लोगों ने डा. अम्बेडकर के अनुयायी बन कर बौध्द धर्म ग्रहण किया। अब वे कहते हैं - 'हम अलग हैं।' अपने देश में अल्पसंख्यकों को कुछ विशेष राजनीतिक अधिकार प्राप्त हैं, इसलिए प्रत्येक गुट स्वयं को अल्पसंख्यक बताने का प्रयास कर रहा है तथा उसके आधार पर कुछ विशेष अधिकार और सहूलियतें माँग रहा है। इससे अपने देश के अनेक टुकड़े हो जायेंगे और सर्वनाश होगा। हम उसी दिशा में बढ़ रहे हैं। कुछ जैन-मुनि मुझसे मिले। उन्होंने कहा, ''हम हिन्दू नहीं हैं। अगली जनगणना में, हम स्वयं को जैन के नाम दर्ज करायेंगे।'' मैंने कहा, ''आप आत्मघाती सपने देख रहे हो!'' अलगाव का अर्थ है देश का विभाजन और विभाजन का परिणाम होगा आत्मघात! सर्वनाश!!
जब प्रत्येक बात का विचार राजनीतिक स्वार्थ की दृष्टि से ही करने लगते हैं, तो अनेक भीषण समस्याएँ उत्पन्न होती हैं। किन्तु इस स्वार्थ को अलग रखते ही अपना देश एक संघ बन सकता है। फिर हम सम्पूर्ण विश्व की चुनौती का सामना कर सकते हैं।
इस प्रकार के उत्तर की मैंने कभी अपेक्षा नहीं की थी। श्रीगुरुजी के व्यापक दृष्टिकोण को देख मैं विस्मय से विमुग्ध हो उठा। मेरे द्वारा पूछे गए प्रश्नों के उत्तरों में, श्रीगुरुजी ने देश की सभी समस्याओं का समावेश किया। साथ ही किया उसकी दुर्बलताओं का अचूक निर्देश। भारतीय मुसलमानों के बारे में श्रीगुरुजी ने ठीक-ठीक निदान किया और उस पर सुझाया अपना रामबाण उपाय भी।
प्रश्न : भौतिकवाद और विशेषतः मार्क्सवाद से अपने देश के लिए खतरा पैदा हो गया है। हिन्दू और मुसलमान दोनों ही ईश्वर के अस्तित्व पर विश्वास रखते हैं। क्या आपको ऐसा नहीं लगता कि दोनों मिलकर इस संकट का मुकाबला कर सकते हैं?
उत्तर : यही प्रश्न कश्मीर के एक सज्जन ने मुझसे किया था। उनका नाम सम्भवत: जागिर अली है। अलीगढ़ में मेरे एक मित्र अधिवक्ता श्री मिश्रीलाल के निवास स्थान पर वे मुझसे मिले। उन्होंने मुझसे कहा, ''नास्तिकता और माक्र्सवाद हम सभी पर अतिक्रमण हेतु प्रयत्नशील है। अत: ईश्वर पर विश्वास रखने वाले हम सभी को चाहिए कि हम सामूहिक रूप में इस खतरे का मुकाबला करें।''
मैंने कहा, ''मैं आपसे सहमत हूँ। परन्तु कठिनाई यह है कि हम सबने मानो ईश्वर की प्रतिमा के टुकड़े-टुकड़े कर डाले हैं और हरेक ने एक-एक टुकड़ा उठा लिया है। आप ईश्वर की ओर अलग दृष्टि से देखते हैं, ईसाई अलग दृष्टि से देखते हैं। बौध्द लोग तो कहते हैं कि ईश्वर तो है ही नहीं, जो कुछ है वह निर्वाण ही है, जैन लोग कहते हैं कि सब कुछ शून्याकार ही है। हममें से अनेक लोग राम, कृष्ण, शिव आदि के रूप में ईश्वर की उपासना करते हैं। इन सबको आप यह किस तरह कह सकेंगे कि एक ही सर्वमान्य ईश्वर को माना जाये। इसके लिए आपके पास क्या कोई उपाय है?''
मुझसे चर्चा करने वाले सज्जन सूफी थे। मेरी यह धारणा थी कि सूफी पंथी ईश्वरवादी और विचारशील हुआ करते हैं। मेरे प्रश्न का उन्होंने जो उत्तर दिया, उसे सुनकर आप आश्चर्यचकित हो जाएंगे; क्योंकि उन्होंने कहा, 'तो फिर आप सब लोग इस्लाम ही क्यों नहीं स्वीकार कर लेते?''
मैंने कहा, ''फिर तो कुछ लोग कहेंगे कि ईसाई क्यों नहीं बन जाते? मेरे धर्म के प्रति मुझमें निष्ठा है इसलिए मैं यदि आपसे कहूँ कि आप हिन्दू क्यों नहीं बन जाते, तो? यानी समस्या जैसी की वैसी रह गयी। वह कभी हल नहीं होगी।''
इस पर उन्होंने मुझसे पूछा, ''तो फिर इस पर आपकी क्या राय है?''
मैं बोला, ''सभी अपने-अपने धर्म का पालन करें। एक ऐसा सर्वभूत तत्वज्ञान है, जो केवल हिंदुओं का या केवल मुसलमानों का ही हो ऐसी बात नहीं। इस तत्वज्ञान को आप अद्वैत कहें या और कुछ। यह तत्वज्ञान कहता है कि एक एकमेवाद्वितीय शक्ति है। वही सत्य है, वही आनन्द है, वही सृजन, रक्षण और संहारकर्ता है। अपनी ईश्वर की कल्पना उसी सत्य का सीमित रूप है। अन्तिम समय का यह मूलभूत रूप किसी धर्म विशेष का नहीं अपितु सर्वमान्य है। तो यही रूप हम सबको एकत्रित कर सकता है। सभी धर्म वस्तुत: ईश्वर की ही ओर उन्मुख करते हैं। अत: यह सत्य आप क्यों स्वीकार नहीं करते कि मुसलमान, ईसाई और हिंदुओं का परमात्मा एक ही है और हम सब उसके भक्त हैं। एक सूफी के रूप में तो आपको इसे स्वीकार करना चाहिए।''
इस पर उन जागिर अली महोदय के पास कोई उत्तर नहीं था। दुर्भाग्य उनसे हमारी बातचीत यहीं समाप्त हो गयी।
प्रश्न : हिन्दू और मुसलमान के बीच आपसी सद्भाव बहुत है, फिर भी समय-समय पर छोटे-बड़े झगड़े होते ही रहते हैं। इन झगड़ों को मिटाने के लिए आपकी राय में क्या किया जाना चाहिए?
उत्तर : अपने लेखों में इन झगड़ों का एक कारण आप हमेशा बताते हैं। वह कारण है - गाय। दुर्भाग्य से अपने लोग और राजनीतिक नेता भी इस कारण का विचार नहीं करते। परिणामत: देश के बहुसंख्यकों में कटुता की भावना उत्पन्न होती है। मेरी समझ में नहीं आता कि गोहत्या के विषय में इतना आग्रह क्यों है? इसके लिए कोई कारण दिखाई नहीं देता। इस्लाम धर्म गोहत्या का आदेश नहीं देता। पुराने जमाने में हिन्दुओं को अपमानित करने का वह एक तरीका रहा होगा। अब वह क्यों चलना चाहिए?
इसी प्रकार की अनेक छोटी-बड़ी बातें हैं। आपस के पर्वों-त्यौहारों में हम क्यों सम्मिलित न हों? होलिकोत्सव समाज के सभी स्तरों के लोगों को अत्यन्त उल्लासयुक्त वातावरण में एकत्रित करने वाला त्यौहार है। मान लीजिए कि इस त्यौहार के समय किसी मुस्लिम बन्धु पर कोई रंग उड़ा देता है, तो इतने मात्र से क्या कुरान की आज्ञाओं का उल्लंघन होता है? इन बातों की ओर एक सामाजिक व्यवहार के रूप में देखा जाना चाहिए। मैं आप पर रंग छिड़कूं, आप मुझ पर छिड़कें। हमारे लोग तो कितने ही वर्षों से मोहर्रम के सभी कार्यक्रमों में सम्मिलित होते आ रहे हैं। इतना ही नहीं तो अजमेर के उर्स जैसे कितने ही उत्सवों-त्यौहारों में मुसलमानों के साथ हमारे लोग भी उत्साहपूर्वक सम्मिलित होते हैं।
किन्तु हमारी सत्यनारायण की पूजा में हम यदि कुछ मुसलमान बंधुओं को आमंत्रित करें तो क्या होगा? आपको विदित होगा कि द्रमुक के लोग अपने मंत्रिमंडल के एक मुस्लिम मंत्री को रामेश्वरम के मंदिर में ले गये। मंदिर के अधिकारियों, पुजारियों और अन्य लोगों ने उक्त मंत्री का यथोचित मान-सम्मान किया किन्तु उसे जब मंदिर का प्रसाद दिया गया, तो उसने वह प्रसाद फेंक दिया। उसने ऐसा क्यों किया? प्रसाद ग्रहण करने मात्र से वह धर्मभ्रष्ट तो होने वाला नहीं था! इसी तरह की छोटी-छोटी बातें हैं। अत: पारस्परिक आदर की भावना उत्पन्न की जानी चाहिए।
हमें जो वृत्ति अर्थ प्रेत है, वह सहिष्णुता मात्र नहीं। अन्य लोग जो कुछ करते हैं उसे सहन करना सहिष्णुता है। परन्तु अन्य लोग जो कुछ करते हैं, उसके प्रति आदर भाव रखना सहिष्णुता से ऊँची बात है। इसी वृत्ति, इसी भावना को प्राधान्य दिया जाना चाहिए। हमें सबके विषय में आदर है। यही मानवता के लिए हितकर है। हमारा वाद सहिष्णुतावाद नहीं, अपितु सम्मानवाद है। दूसरों के मतों का आदर करना हम सीखें, तो सहिष्णुता स्वयमेव चली आएगी।
प्रश्न : हिन्दू और मुसलमान के बीच सामंजस्य स्थापित करने के कार्य के लिए आगे आने की योग्यता किसमें है? राजनीतिक नेता, शिक्षा शास्त्री या धार्मिक नेता में?
उत्तर : इस मामले में राजनीतिज्ञ का क्रम सबसे अंत में लगता है। धार्मिक नेताओं के विषय में भी यही कहना होगा। आज अपने देश में दोनों ही जातियों के धार्मिक नेता अत्यंत संकुचित मनोवृत्ति के हैं। इस काम के लिए नितांत अलग प्रकार के लोगों की आवश्यकता है, जो लोग धार्मिक तो हों किन्तु राजनीतिक नेतागिरी न करते हों और जिनके मन में समग्र राष्ट्र का ही विचार सदैव जागृत रहा हो, ऐसे लोग ही यह कार्य कर सकते हैं। धर्म के अधिष्ठान के बिना कुछ भी हासिल नहीं होगा। धार्मिकता होनी ही चाहिए। रामकृष्ण मिशन को ही लें। यह आश्रम व्यापक और सर्वसमावेशक धर्म-प्रचार का कार्य कर रहा है। अत: आज तो इसी दृष्टिकोण और वृत्ति की आवश्यकता है कि ईश्वरोपासना विषयक विभिन्न श्रद्धा को नष्ट न कर हम उनका आदर करें, उन्हें टिकाए रखें और उन्हें वृद्धि गत होने दें।
राजनीतिक नेताओं के जो खेल चलते हैं, उन्हीं से भेदभाव उत्तरोत्तर बढ़ता जाता है। जातियों, पंथों पर तो वे जोर देते ही हैं, साथ ही भाषा, हिन्दू-मुस्लिम आदि भेद भी वे पैदा करते हैं। परिणामत: अपनी समस्याएँ अधिकाधिक जटिल होती जा रही हैं। जाति संबंधी समस्या के मामले में तो राजनीतिक नेता ही वास्तविक खलनायक हैं। दुर्भाग्य से राजनीतिक नेता ही आज जनता का नेता बन बैठा है, जब कि चाहिए तो यह था कि सच्चे विद्वान, सुशील और ईश्वर के परमभक्त महापुरुष जनता के नेता बनते। परन्तु इस दृष्टि से आज उनका कोई स्थान ही नहीं है। इसके विपरीत नेतृत्व आज राजनीतिक नेताओं के हाथों में है। जिनके हाथों में नेतृत्व है, वे राजनीतिक पशु बन गये हैं। अत: हमें लोगों को जागृत करना चाहिए।
दो दिन पूर्व ही मैंने प्रयाग में कहा कि लोगों को राजनीतिक नेताओं के पीछे नहीं जाना चाहिए, अपितु ऐसे सत्पुरुषों का अनुसरण करें, जो परमात्मा के चरणों में लीन हैं, जिनमें चारित्र्य है और जिनकी दृष्टि विशाल है।
प्रश्न : क्या आपको ऐसा नहीं लगता कि जातीय सामंजस्य-निर्माण का उत्तरदायित्व, बहुसंख्य समाज के रूप में हिन्दुओं पर है?
उत्तर : हाँ, मुझे यही लगता है। परन्तु, कुछ कठिनाइयों का विचार किया जाना चाहिए। अपने नेतागण सम्पूर्ण दोष हिन्दुओं पर लाद कर मुसलमानों को दोषमुक्त कर देते हैं। इसके कारण जातीय उपद्रव कराने के लिए, अल्पसंख्यक समाज यानी मुस्लिमों को सब प्रकार का प्रोत्साहन मिलता है। इसलिए हमारा कहना है कि इस मामले में दोनों को अपनी जिम्मेदारियों का पालन करना चाहिए।
प्रश्न : आपकी राय में आपसी सामंजस्य की दिशा में तत्काल कौन-से कदम उठाए जाने चाहिए?
उत्तर : इस तरह से एकदम कुछ कहना कठिन है। बहुत ही कठिन है। फिर भी सोचा जा सकता है। व्यापक पैमाने पर धर्म की यथार्थ शिक्षा देना एक उपाय हो सकता है। आज जैसी राजनीतिक नेताओं द्वारा समर्थित धर्महीन शिक्षा नहीं, अपितु सच्चे अर्थ में धर्म-शिक्षा। लोगों को इस्लाम का, हिन्दू धर्म का ज्ञान कराए। सभी धर्म मनुष्य को महान, पवित्र और मंगलमय बनने की शिक्षा देते हैं, यह लोगों को सिखाया जाये।
दूसरा उपाय यह हो सकता है कि जैसा हमारा इतिहास है वैसा ही हम पढ़ाएँ। आज जो इतिहास पढ़ाया जाता है, वह विकृत रूप में पढ़ाया जाता है। मुस्लिमों ने इस देश पर आक्रमण किया हो तो वह हम स्पष्ट रूप से बताएँ। परन्तु साथ में यह भी बताएँ कि यह आक्रमण भूतकालीन है और विदेशियों ने किया है। मुसलमान यह कहें कि वे इस देश के मुसलमान हैं और ये आक्रमण उनकी विरासत नहीं है। परन्तु, जो सही है उसे पढ़ाने के स्थान पर जो असत्य है, विकृत है, वही आज पढ़ाया जाता है। सत्य बहुत दिनों तक दबाकर नहीं रखा जा सकता। अन्तत: वह सामने आता ही है और उससे लोगों में दुर्भावना निर्माण होती है। इसलिए मैं कहता हूँ कि इतिहास जैसा है वैसा ही पढ़ाया जाये। अफजलखाँ को शिवाजी ने मारा है, तो वैसा ही बताओ। कहो कि एक विदेशी आक्रमक और एक राष्ट्रीय नेता के तनावपूर्ण सम्बन्धों के कारण यह घटना हुई। यह भी बतायें कि हम सब एक ही राष्ट्र हैं, इसलिए हमारी परम्परा अफजलखाँ की नहीं है। परन्तु यह कहने की हिम्मत कोई नहीं करता। इतिहास के विकृतिकरण को मैं अनेक बार धिक्कार चुका हूँ और आज भी ऐसे धिक्कारता हूँ।
प्रश्न : भारतीयकरण पर बहुत चर्चा हुई, भ्रम भी बहुत निर्माण हुए तो क्या आप बता सकेंगे कि ये भ्रम कैसे दूर किये जा सकेंगे?
उत्तर : भारतीयकरण की घोषणा जनसंघ द्वारा की गयी है। किन्तु इस मामले में सम्भ्रम क्यों होना चाहिए? भारतीयकरण का अर्थ सबको हिन्दू बनाना तो है नहीं? हम सभी को यह सत्य समझ लेना चाहिए कि हम इसी भूमि के पुत्र हैं। अत: इस विषय में अपनी निष्ठा अविचल रहना अनिवार्य है। हम सब एक ही मानव-समूह के अंग हैं, हम सबके पूर्वज एक ही हैं, इसलिए हम सबकी आकांक्षाएँ भी एक समान हैं - इसे समझना ही सही अर्थ में भारतीयकरण है।
भारतीयकरण का यह अर्थ नहीं कि कोई अपनी पूजा-पद्धति त्याग दें। यह बात हमने कभी नहीं कही और कभी कहेंगे भी नहीं। हमारी तो यह मान्यता है कि उपासना की एक ही पद्धति, सभी मानव जातियों के लिए सुविधाजनक नहीं।
श्री जिलानी : गुरुजी! आपकी बात सही है। बिलकुल सौ फीसदी सही है। अत: इस स्पष्टीकरण के लिए मैं आपका बहुत ही कृतज्ञ हूँ।
श्री गुरुजी : फिर भी, मुझे संदेह है कि ये बातें मैं सबके समक्ष स्पष्ट कर सकता हूँ या नहीं।
श्री जिलानी : कोई बात नहीं। आपने अपनी ओर से यह बहुत अच्छी तरह से स्पष्ट किया है। कोई भी विचारशील और भला आदमी आपसे असहमत नहीं होगा। क्या आपको ऐसा नहीं लगता कि अपने देश का जातीय बेसुरापन समाप्त करने का उपाय ढूँढ़ने में आपको सहयोग दे सकें, ऐसे मुस्लिम नेताओं की और आपकी बैठक आयोजित करने का अब समय आ गया है? ऐसे नेताओं से भेंट करना क्या आप पसन्द करेंगे?
श्रीगुरुजी : केवल पसन्द ही नहीं करूँगा, मैं तो ऐसी भेंट का स्वागत करूंगा।
अपने बीच स्थित एक समाजवादी विचारक ने श्री गुरूजी के बारे जो कहा वह आप जानते ही है किन्तु एक और समाजवादी विचारक श्री जयप्रकाश नारायण जो भारतीय समाजवाद के पुरोधा माने जाते है उनके श्री गुरूजी के प्रति निम्न विचार थे, वे कहते है - पूज्य श्रीगुरुजी तपस्वी थे। उनक संपूर्ण जीवन तपोमय था। हमारे यहाँ सब आदर्शों में बड़ा आदर्श है त्याग का आदर्श। वे तो त्याग की साक्षात् मूर्ति ही थे। पूज्य महात्मा जी और उनसे पूर्व जन्मे देश के महापुरुषें की परंपरा में ही पूज्य गुरुजी का भी जीवन था। देश की इतनी बड़ी संस्था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसके एकमात्र नेता श्रीगुरुजी। उन्होंने सादगी का आदर्श नहीं छोड़ा, क्योंकि वे जानते थे कि सादगी का आदर्श छोड़ने का स्पष्ट अर्थ है, दूसरे सहस्रों गरीबों के मुँह की रोटी छीन लेना।
मैं अत्यन्त अस्वस्थ हूँ, अभी भी मेरी साँस फूल रही है। मैं कहीं आता-जाता नहीं। फिर भी मेरे मन में पूज्य गुरुजी के लिए जो भावना है, वह ऐसी है कि उसने मुझे इस बात के लिए इजाजत नहीं दी कि मैं यहाँ आने से अपने को रोक सकूँ। गुरुजी के असामान्य व्यक्तित्व का यह प्रमाण है कि आज यहाँ भिन्न-भिन्न दल और वर्गों के लोग उपस्थित हैं। मार्क्सवादी मित्र की बात सुनकर मुझे बड़ी खुशी हुई है। प्रदेश कांग्रेस तथा कम्युनिस्ट पार्टी के किसी प्रतिनिधि का यहाँ नहीं होना, मुझे अखर रहा है। जब राष्ट्रपति श्री गिरि और प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने सबसे आगे बढ़कर अपना शोक संदेश भेजा था, तब उन्हें किसी प्रकार का संकोच नहीं होना चाहिए था।
श्री पूज्य गुरुजी कर्मठता के मूर्तिमान रूप थे। कर्मठता की कमी है देश में। गुरुजी ने अपने जीवन में कर्मठता का जो आदर्श रखा है, वह अनुकरणीय है। समय-समय पर मेरा संघ के स्वयंसेवकों के साथ संबंध आता रहा है। अकाल के समय संघ के स्वयंसेवकों ने जो कार्य किया, वह 'अपूर्व' था। मैं जब भी उसका स्मरण करता हूँ, श्रद्धावनत हो जाता हूँ।
श्रीगुरुजी आध्यात्मिक विभूति थे। यह एक बड़ा बोध है कि हम भारतीय हैं, हमारी हजारों वर्ष पुरानी परंपरा है, भारत का निर्माण भारतीय आधार पर ही होगा। चाहे हम कितने ही 'माडर्न' क्यों न हो जाएँ। हम अमरीकी, फ्रेंच, इंग्लिश, जर्मन नहीं कहला सकते, हम भारतीय ही रहेंगे - यह 'बोध', जिसे सहस्रों नवयुवकों में जगाया था पूज्य गुरुजी ने। मैं आशा करता हूँ कि श्री बाला साहब देवरस पूज्य गुरुजी की परंपरा को निभाएँगे।
वरिष्ठ पत्रकार, साहित्यकार एवं व्यंग्यकार श्री खुशवंत सिंह श्री गुरु के बार मे क्या विचार थे - कुछ लोग ऐसे होते हैं जिनको बिना समझे ही हम घृणा करने लगते हैं। इस प्रकार के लोगों में गुरु गोलवलकर मेरी सूची में सर्वप्रथम थे। सांप्रदायिक दंगों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की करतूतें, महात्मा गांधी की हत्या, भारत को धर्मनिरपेक्ष से हिन्दू राज्य बनाने के प्रयास आदि अनेक बातें थीं, जो मैंने सुन रखी थीं। फिर भी एक पत्रकार के नाते उनसे मिलने का मोह मैं टाल नहीं सका।
मेरी कल्पना थी कि उनसे मिलते समय मुझे गणवेशधारी स्वयंसेवकों के घेरे में से गुजरना होगा, किंतु ऐसा नहीं हुआ। इतना ही नहीं, मेरी समझ थी मेरी कार का नम्बर नोट करने वाला कोई मुफ्ती गुप्तचर भी वहाँ होगा, पर ऐसा भी कुछ नहीं था। जहां वे रुके थे, वह किसी मध्यम श्रेणी के परिवार का कमरा था। बाहर जूतों-चप्पलों की कतार लगी थी। वातावरण में व्याप्त अगरबत्ती की सुगंध से ऐसा लगता था, मानो कमरे में पूजा हो रही हो। भीतर के कमरों में महिलाओं की हलचलें हो रही थीं। बर्तनो और कप-सासरों की आवाज आ रही थी। मैं कमरे में पहुँचा। महाराष्ट्रीय ब्राह्मणों की पद्धति के अनुसार शुभ्र-धवल धोती-कुर्ता पहने 10-12 व्यक्ति वहाँ बैठे थे।
65 के लगभग आयु, इकहरी देह, कंधों पर झूलती काली-घुंघराली केशराशि, मुखमुद्रा को आवृत करती उनकी मूँछें, विरल भूरी दाढ़ी, कभी लुप्त न होने वाली मुस्कान और चश्मे के भीतर से झांकते उनके काले चमकीले नेत्र। मुझे लगा कि वे भारतीय होची-मिन्ह ही हैं। उनकी छाती के कर्करोग पर अभी-अभी शल्यक्रिया हुई है, फिर भी वे पूर्ण स्वस्थ एवं प्रसन्नचित दिखाई दे रहे हैं।
गुरु होने के कारण शिष्यवत् चरणस्पर्श की वे मुझसे अपेक्षा करते हों, इस मान्यता से मैं झुका, परंतु उन्होंने मुझे वैसा करने का अवसर ही नहीं दिया। उन्होंने मेरे हाथ पकड़े, मुझे खींचकर अपने निकट बिठा लिया और कहा - 'आपसे मिलकर बड़ी प्रसन्नता हुई। बहुत दिनों से आपसे मिलने की इच्छा थी।' उनकी हिन्दी बड़ी शुध्द थी।
'मुझे भी! खासकर, जबसे मैंने आपका 'बंच आफ लेटर्स' पढ़ा', कुछ संकुचाते हुए मैंने कहा।
'बंच ऑफ थॉट्स' कहकर उन्होंने मेरी भूल सुधारी, किन्तु उस ग्रंथ पर मेरी राय जानने की उन्होंने कोई इच्छा व्यक्त नहीं की। मेरी एक हथेली को अपने हाथों में लेकर उसे सहलाते हुए वे मुझसे बोले - 'कहिए।'
मैं समझ नहीं पा रहा था कि प्रारंभ कहाँ से करूँ। मैंने कहा - 'सुना है, आप समाचार-पत्रीय प्रसिद्धि को टालते हैं और आपका संगठन गुप्त है।'
'यह सत्य है कि हमें प्रसिद्धि की चाह नहीं, किंतु गुप्तता की कोई बात ही नहीं। जो चाहे पूछें', उन्होंने उत्तर दिया।
इसी प्रकार विभिन्न विषयों पर परस्पर खुलकर बातचीत हुई।
मैं गुरुजी का आधे घंटे का समय ले चुका था। फिर भी उनमें किसी तरह की बेचैनी के चिन्ह दिखाई नहीं दिए। मै उनसे आज्ञा लेने लगा तो उन्होने हाथ पकडकर पैर छूने से रोक दिया।
'क्या मैं प्रभावित हुआ? मैं स्वीकार करता हूँ कि हाँ। उन्होंने मुझे अपना दृष्टिकोण स्वीकार कराने का कोई प्रयास नहीं किया, अपितु उन्होंने मेरे भीतर यह भावना निर्माण कर दी कि किसी भी बात को समझने-समझाने के लिए उनका हृदय खुला हुआ है। नागपुर आकर वस्तुस्थिति को स्वयं समझने का उनका निमंत्रण मैंने स्वीकार कर लिया है। हो सकता है कि हिन्दू-मुस्लिम एकता को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का उद्देश्य बनाने के लिए मैं उनको मना सकूँगा और यह भी हो सकता है कि मेरी यह धारणा एक भोले-भाले सरदार जी जैसी हो।' (साभार - श्री गुरुजी जन्म शताब्दी अंक, विश्व संवाद केन्द्र पत्रिका, लखनऊ.)
श्रीगुरू जी के कार्यों का वर्णन करने के लिये अब मेरे पास न तो इतना समय है और न ही इतना सामर्थ कि मै उनके द्वारा किये गये अनंत कार्यों को वर्णन एवं टंकण कर सकूं। वे एक ऐसी मूर्ति मान व्यक्ति है। बस इतना जरूर है कि गुरूजी ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने राष्ट्र के सर्वांगीण विकास के लिये अपने प्राणों की तक की परवाह नहीं की।
वे आगे कहते है- यह बात कहते समय मैंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को अपनी आँखों से ओझल नहीं किया है। अनेक वर्षों से संघ का कार्य मैं बहुत नजदीक से देखता आ रहा हूँ। उसके आधार पर मैं असंदिग्ध शब्दों में कह सकता हूँ कि संघ इस देश के लिए बहुत बड़ा सहारा है। किन्तु अपने देश की दृष्टि से संघ कार्य के महत्व का जिन्हें आकलन नहीं हुआ, ऐसे लोग अज्ञानवश या जानबूझकर संघ-विरोधी प्रचार किया करते हैं। सच्चाई तो यह है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ मुसलमानों का शत्रु नहीं, अपितु मित्र है। किन्तु यह बात मुसलमानों की समझ में नहीं आती। इसका कारण यह है कि वे स्वयं की बुध्दि से विचार नहीं करते। मानों विचार करने की जिम्मेदारी उन्होंने अपने अनभिज्ञ और षड़यंत्रकारी नेताओं पर सौंप दी है।
उस प्रकार मैं यह भी नहीं भूला हूँ कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में मुसलमानों का प्रवेश निषिद्ध है। हिन्दू समाज में स्वाभिमान जागृत करने के लिए संघ का जन्म हुआ है। यह कार्य पूर्ण होते ही संघ के द्वारा अहिन्दुओं के लिए तत्काल खुल जायेंगे। किसी भी इमारत का निर्माण-कार्य, उसकी नींव से हुआ करता है। भारत के भव्य प्रासाद की आधारशिला हिन्दू है। यह नींव मजबूत होते ही, प्रासाद अभूतपूर्व वैभव से जगमगाने लगेगा। मैंने श्री गुरुजी से पूछा, 'हाल ही के दिनों में किसी प्रमुख मुसलमान ने आपसे जातिवाद की समस्या पर चर्चा की है अथवा नहीं? उन्होंने अनेक नाम बताये। परन्तु इस संदर्भ में मेरे दिमाग में जिन मुस्लिम नेताओं के नाम थे, उनमें से एक भी नाम उनमें नहीं थे। इसलिए मेरे दिमाग में जो नाम थे उनका उल्लेख करते हुए मैंने उनसे सीधा प्रश्न पूछा, ''क्या आप इनसे मिलना चाहेंगे?' उन्होंने तत्काल उत्तर दिया, 'मैं उनसे जरूर मिलना चाहूँगा! इतना ही नहीं, उनसे मिलकर मुझे प्रसन्नता होगी।'
उनके उक्त शब्दों में सदिच्छा एवं प्राथमिकता का स्पष्ट आह्वान था। परन्तु जैसा कि कुरआन में कहा गया है, 'विकृति से चेतनाशून्य हुए कानों में क्या वह प्रविष्ट होगा?'
जिलानी आगे फिर कहते है- मैं समग्र भारतीय जनता का एक नम्र सेवक हूँ परन्तु सच कहूँ तो मेरे दिमाग में सबसे पहले अगर कोई बात आती है तो वह है, भारत के मेरे मुस्लिम भाइयों के बारे में। हिन्दुओं के लिए नेतृत्व की कोई कमी नहीं है। किन्तु मुसलमानों के हालत उन भेड़ों जैसी है, जिनका कोई गड़रिया ही नहीं है। इसलिए मैं मुसलमानों से यही कहना चाहता हूँ कि वे अपनी आँखें और दिमाग खुले रखें। इसी बात को ध्यान में रखकर मैंने श्रीगुरुजी से भेंटवार्ता का अवसर माँगा था। मेरे व श्री गुरूजी विभिन्न पहलुओ पर जो संवाद हुआ वह निम्न है-
प्रश्न : देश के समक्ष आज जो संकट मुँह बाए खड़े हैं, उन्हें देखते हुए हिन्दू-मुस्लिम समस्या का कोई निश्चित हल ढूँढ़ना, क्या आपको आवश्यक प्रतीत नहीं होता?
उत्तर : देश का विचार करते समय मैं हिन्दू और मुसलमान इस स्वरूप में विचार नहीं करता। परन्तु इस प्रश्न की ओर लोग आज कल सभी लोग राजनीतिक दृष्टिकोण से ही विचार करते दिखाई देते हैं। हर कोई राजनीतिक स्थिति का लाभ उठाकर व्यक्तिगत अथवा जातिगत स्वार्थ सिद्ध करने में लिप्त है। इस परिस्थिति को समाप्त करने का केवल एक ही उपाय है। वह है राजनीति की ओर देशहित, और केवल देश हित की ही दृष्टि से देखना। उस स्थिति में, वर्तमान सभी समस्याएं देखते ही देखते हल हो जाएंगी।
हाल ही में मैं दिल्ली गया था। उस समय अनेक लोग मुझ से मिलने आये थे। उनमें भारतीय क्रांति दल, संगठन कांग्रेस आदि दलों के लोग भी थे। संघ को हमने प्रत्यक्ष राजनीति से अलग रखा है। परन्तु मेरे कुछ पुराने मित्र जनसंघ में होने के कारण, कुछ मामलों में मैं मध्यस्थता करूं, इस हेतु वे मुझसे मिलने आये थे। उनसे मैंने एक सामान्य-सा प्रश्न पूछा, 'आप लोग हमेशा अपने दल का और आपके दल के हाथ में सत्ता किस तरह आये इसी का विचार किया करते हो। परन्तु दलीय निष्ठा, दलीय हितों का विचार करते समय, क्या आप सम्पूर्ण देश के हितों का भी कभी विचार करते हो? इस सामान्य से प्रश्न का 'हाँ' में उत्तर देने के लिए कोई सामने नहीं आया। समग्र देश के हितों का विचार सचमुच उनके सामने होता, तो वे वैसा साफ-साफ कह सकते थे। किन्तु उन्होंने नहीं कहा। इसका अर्थ स्पष्ट है कि कोई भी दल, समग्र देश का विचार नहीं करता। मैं समग्र देश का विचार करता हूँ। इसलिए मैं हिन्दुओं के लिये कार्य करता हूँ। परन्तु कल यदि हिन्दू भी देश के हितों के विरुद्ध जाने लगे, तो उनमें मेरी कौन-सी रुचि रह जायेगी?
रही मुसलमानों की बात। मैं यह समझ सकता हूँ कि अन्य लोगों की तरह उनकी भी न्यायोचित माँगे पूरी की जानी चाहिए। परन्तु जब चाहे तब विभिन्न सहूलियतों और विशेषाधिकारों की माँगे करते रहना कतई न्यायोचित नहीं कहा जा सकता। मैंने सुना है कि प्रत्येक प्रदेश में एक छोटे पाकिस्तान की मांग उठाई गई, जैसा कि प्रकाशित हुआ है। एक मुस्लिम संगठन के अध्यक्ष ने तो लाल किले पर चांद वाला हरे रंग का पाक झण्डा लहराने की बात की। परन्तु भारतीय व सच्चे मुसलमानों के द्वारा इसका खंडन भी नहीं किया गया है। ऐसी बातों से समग्र देश का विचार करने वालों को संतप्त होना आवश्यक है।
उर्दू के आग्रह का ही विचार करें। पचास वर्षों के पूर्व तक विभिन्न प्रान्तों के मुसलमान अपने-अपने प्रांतों की भाषाएं बोला करते, उन्हीं भाषाओं में शिक्षा ग्रहण किया करते थे। उन्हें कभी ऐसा नहीं लगा कि उनके धर्म की कोई अलग भाषा है। उर्दू मुसलमानों की धर्म-भाषा नहीं है। मुगलों के समय में एक संकर भाषा के रूप में वह उत्पन्न हुई। इस्लाम के साथ उसका रत्ती भर का भी संबंध नहीं है। पवित्र कुरान अरबी में लिखा है। अत: मुसलमानों की अगर कोई धर्म-भाषा हो तो वह अरबी ही होगी। ऐसा होते हुए भी, आज उर्दू का इतना आग्रह क्यों? इसका कारण यह है कि इस भाषा के सहारे वे मुसलमानों को एक राजनीतिक शक्ति के रूप में संगठित करना चाहते हैं। यह संभावना नहीं तो एक निश्चित तथ्य है कि इस तरह की राजनीतिक शक्ति देश हितों के विरुद्ध की जायेगी।
कुछ मुसलमान कहते हैं कि उनका राष्ट्र-पुरुष रुस्तम है। सच पूछा जाए, तो मुसलमानों का रुस्तम से क्या संबंधा? रुस्तम तो इस्लाम के उदय पूर्व ही हुआ था। वह कैसे उनका राष्ट्र-पुरुष हो सकता है? और फिर प्रभु रामचंद्र जी क्यों नहीं हो सकते? मैं पूछता हूँ कि आप यह इतिहास स्वीकार क्यों नहीं करते?
पाकिस्तान ने पाणिनि की पांच हजारवीं जयंती मनाई! इसका कारण क्या है? इसका कारण यह है कि जो हिस्सा पाकिस्तान के नाम से पहचाना जाता है, वहीं पाणिनि का जन्म हुआ था। यदि पाकिस्तान के लोग गर्व के साथ यह कह सकते हैं कि पाणिनि उनके पूर्वजों में से एक है, तो फिर भारत के 'हिन्दू मुसलमान' भी - मैं उन्हें 'हिन्दू मुसलमान' कहता हूँ - पाणिनि, व्यास, वाल्मीकि, राम, कृष्ण आदि को अभिमान पूर्वक अपने महान पूर्वज क्यों नहीं मानते?
हिन्दुओं में से ऐसे अनेक लोग हैं, जो राम, कृष्ण आदि को ईश्वर के अवतार नहीं मानते। फिर भी वे उन्हें महापुरुष मानते हैं, अनुकरणीय मानते हैं। इसलिए मुसलमान भी यदि उन्हें अवतारी पुरुष न मानें, तो कुछ नहीं बिगड़ने वाला है। परन्तु क्या उन्हें राष्ट्र-पुरुष नहीं माना जाना चाहिए? हमारे धर्म और तत्वज्ञान की शिक्षा के अनुसार हिन्दू और मुसलमान समान ही हैं। ऐसी बात नहीं है कि ईश्वरी सत्य का साक्षात्कार केवल हिन्दू ही कर सकता है। अपने धर्ममत के अनुसार कोई भी साक्षात्कार कर सकता है।
श्रृंगेरी मठ के शंकराचार्य का ही उदाहरण लें। यह उदाहरण वर्तमान शंकराचार्य के गुरु का है। एक अमेरिकी व्यक्ति उनके पास आया और उनसे प्रार्थना की कि उसे हिन्दू बना लिया जाए। इस पर शंकराचार्य जी ने उससे पूछा कि वह हिंदू क्यों बनना चाहता है? उसने उत्तर दिया, कि ईसाई धर्म से उसे शांति प्राप्त नहीं हुई है। आध्यात्मिक तृष्णा अभी अतृप्त ही है।
इस पर शंकराचार्य जी ने उससे कहा, 'क्या तुमने सचमुच पहले ईसाई धर्म का प्रामाणिकता पूर्वक पालन किया है? तुम यदि इस निष्कर्ष पर पहुंच चुके होंगे कि ईसाई धर्म का पालन करने के बाद भी तुम्हें शांति नहीं मिली, तो मेरे पास अवश्य आओ।'
हमारा दृष्टिकोण इस तरह का है। हमारा धर्म, धर्म -परिवर्तन न करने वाला धर्म है। धर्मान्तरण तो प्राय: राजनीतिक अथवा अन्य हेतु से कराये जाते हैं। इस तरह का धर्म-परिवर्तन हमें स्वीकार नहीं है। हम कहते हैं - 'यह सत्य है! तुम्हें जँचता हो तो स्वीकार करो अन्यथा छोड़ दो।'
दक्षिण की यात्रा के दौरान मदुराई में कुछ लोग मुझसे मिलने के लिये आये। मुस्लिम-समस्या पर वे मुझसे चर्चा करना चाहते थे। मैंने उनसे कहा - ''आप लोग मुझसे मिलने आये, मुझे बड़ा आनन्द हुआ। मुसलमानों के विषय में मेरा दृष्टिकोण उन्होंने जानना चाहा तो मैं उनसे बोला, '' यह बात हमेशा ध्यान में रखनी होगी कि हम सबके पूर्वज एक ही हैं और हम सब उनके वंशज हैं। आप अपने-अपने धर्मों का प्रामाणिकता से पालन करें। परन्तु राष्ट्र के मामले में सबको एक होना चाहिए। राष्ट्रहित के लिए बाधाक सिध्द होने वाले अधिकारों और सहूलियतों की माँग बन्द होनी चाहिए।
हम हिन्दू हैं इसलिए हम विशेष सहूलियतों के अधिकारों की कभी बात नहीं करते। ऐसी स्थिति में कुछ लोग यदि कहने लगें कि 'हमें अलग होना है', 'हमें अलग प्रदेश चाहिए' तो यह कतई सहन नहीं होगा।
ऐसी बात नहीं कि यह प्रश्न केवल हिन्दू और मुसलमानों के बीच ही है। यह समस्या तो हिन्दुओं के बीच भी है। जैसे हिन्दू-समाज में जैन लोग हैं, तथाकथित अनुसूचित जातियाँ हैं। अनुसूचित जातियों में कुछ लोगों ने डा. अम्बेडकर के अनुयायी बन कर बौध्द धर्म ग्रहण किया। अब वे कहते हैं - 'हम अलग हैं।' अपने देश में अल्पसंख्यकों को कुछ विशेष राजनीतिक अधिकार प्राप्त हैं, इसलिए प्रत्येक गुट स्वयं को अल्पसंख्यक बताने का प्रयास कर रहा है तथा उसके आधार पर कुछ विशेष अधिकार और सहूलियतें माँग रहा है। इससे अपने देश के अनेक टुकड़े हो जायेंगे और सर्वनाश होगा। हम उसी दिशा में बढ़ रहे हैं। कुछ जैन-मुनि मुझसे मिले। उन्होंने कहा, ''हम हिन्दू नहीं हैं। अगली जनगणना में, हम स्वयं को जैन के नाम दर्ज करायेंगे।'' मैंने कहा, ''आप आत्मघाती सपने देख रहे हो!'' अलगाव का अर्थ है देश का विभाजन और विभाजन का परिणाम होगा आत्मघात! सर्वनाश!!
जब प्रत्येक बात का विचार राजनीतिक स्वार्थ की दृष्टि से ही करने लगते हैं, तो अनेक भीषण समस्याएँ उत्पन्न होती हैं। किन्तु इस स्वार्थ को अलग रखते ही अपना देश एक संघ बन सकता है। फिर हम सम्पूर्ण विश्व की चुनौती का सामना कर सकते हैं।
इस प्रकार के उत्तर की मैंने कभी अपेक्षा नहीं की थी। श्रीगुरुजी के व्यापक दृष्टिकोण को देख मैं विस्मय से विमुग्ध हो उठा। मेरे द्वारा पूछे गए प्रश्नों के उत्तरों में, श्रीगुरुजी ने देश की सभी समस्याओं का समावेश किया। साथ ही किया उसकी दुर्बलताओं का अचूक निर्देश। भारतीय मुसलमानों के बारे में श्रीगुरुजी ने ठीक-ठीक निदान किया और उस पर सुझाया अपना रामबाण उपाय भी।
प्रश्न : भौतिकवाद और विशेषतः मार्क्सवाद से अपने देश के लिए खतरा पैदा हो गया है। हिन्दू और मुसलमान दोनों ही ईश्वर के अस्तित्व पर विश्वास रखते हैं। क्या आपको ऐसा नहीं लगता कि दोनों मिलकर इस संकट का मुकाबला कर सकते हैं?
उत्तर : यही प्रश्न कश्मीर के एक सज्जन ने मुझसे किया था। उनका नाम सम्भवत: जागिर अली है। अलीगढ़ में मेरे एक मित्र अधिवक्ता श्री मिश्रीलाल के निवास स्थान पर वे मुझसे मिले। उन्होंने मुझसे कहा, ''नास्तिकता और माक्र्सवाद हम सभी पर अतिक्रमण हेतु प्रयत्नशील है। अत: ईश्वर पर विश्वास रखने वाले हम सभी को चाहिए कि हम सामूहिक रूप में इस खतरे का मुकाबला करें।''
मैंने कहा, ''मैं आपसे सहमत हूँ। परन्तु कठिनाई यह है कि हम सबने मानो ईश्वर की प्रतिमा के टुकड़े-टुकड़े कर डाले हैं और हरेक ने एक-एक टुकड़ा उठा लिया है। आप ईश्वर की ओर अलग दृष्टि से देखते हैं, ईसाई अलग दृष्टि से देखते हैं। बौध्द लोग तो कहते हैं कि ईश्वर तो है ही नहीं, जो कुछ है वह निर्वाण ही है, जैन लोग कहते हैं कि सब कुछ शून्याकार ही है। हममें से अनेक लोग राम, कृष्ण, शिव आदि के रूप में ईश्वर की उपासना करते हैं। इन सबको आप यह किस तरह कह सकेंगे कि एक ही सर्वमान्य ईश्वर को माना जाये। इसके लिए आपके पास क्या कोई उपाय है?''
मुझसे चर्चा करने वाले सज्जन सूफी थे। मेरी यह धारणा थी कि सूफी पंथी ईश्वरवादी और विचारशील हुआ करते हैं। मेरे प्रश्न का उन्होंने जो उत्तर दिया, उसे सुनकर आप आश्चर्यचकित हो जाएंगे; क्योंकि उन्होंने कहा, 'तो फिर आप सब लोग इस्लाम ही क्यों नहीं स्वीकार कर लेते?''
मैंने कहा, ''फिर तो कुछ लोग कहेंगे कि ईसाई क्यों नहीं बन जाते? मेरे धर्म के प्रति मुझमें निष्ठा है इसलिए मैं यदि आपसे कहूँ कि आप हिन्दू क्यों नहीं बन जाते, तो? यानी समस्या जैसी की वैसी रह गयी। वह कभी हल नहीं होगी।''
इस पर उन्होंने मुझसे पूछा, ''तो फिर इस पर आपकी क्या राय है?''
मैं बोला, ''सभी अपने-अपने धर्म का पालन करें। एक ऐसा सर्वभूत तत्वज्ञान है, जो केवल हिंदुओं का या केवल मुसलमानों का ही हो ऐसी बात नहीं। इस तत्वज्ञान को आप अद्वैत कहें या और कुछ। यह तत्वज्ञान कहता है कि एक एकमेवाद्वितीय शक्ति है। वही सत्य है, वही आनन्द है, वही सृजन, रक्षण और संहारकर्ता है। अपनी ईश्वर की कल्पना उसी सत्य का सीमित रूप है। अन्तिम समय का यह मूलभूत रूप किसी धर्म विशेष का नहीं अपितु सर्वमान्य है। तो यही रूप हम सबको एकत्रित कर सकता है। सभी धर्म वस्तुत: ईश्वर की ही ओर उन्मुख करते हैं। अत: यह सत्य आप क्यों स्वीकार नहीं करते कि मुसलमान, ईसाई और हिंदुओं का परमात्मा एक ही है और हम सब उसके भक्त हैं। एक सूफी के रूप में तो आपको इसे स्वीकार करना चाहिए।''
इस पर उन जागिर अली महोदय के पास कोई उत्तर नहीं था। दुर्भाग्य उनसे हमारी बातचीत यहीं समाप्त हो गयी।
प्रश्न : हिन्दू और मुसलमान के बीच आपसी सद्भाव बहुत है, फिर भी समय-समय पर छोटे-बड़े झगड़े होते ही रहते हैं। इन झगड़ों को मिटाने के लिए आपकी राय में क्या किया जाना चाहिए?
उत्तर : अपने लेखों में इन झगड़ों का एक कारण आप हमेशा बताते हैं। वह कारण है - गाय। दुर्भाग्य से अपने लोग और राजनीतिक नेता भी इस कारण का विचार नहीं करते। परिणामत: देश के बहुसंख्यकों में कटुता की भावना उत्पन्न होती है। मेरी समझ में नहीं आता कि गोहत्या के विषय में इतना आग्रह क्यों है? इसके लिए कोई कारण दिखाई नहीं देता। इस्लाम धर्म गोहत्या का आदेश नहीं देता। पुराने जमाने में हिन्दुओं को अपमानित करने का वह एक तरीका रहा होगा। अब वह क्यों चलना चाहिए?
इसी प्रकार की अनेक छोटी-बड़ी बातें हैं। आपस के पर्वों-त्यौहारों में हम क्यों सम्मिलित न हों? होलिकोत्सव समाज के सभी स्तरों के लोगों को अत्यन्त उल्लासयुक्त वातावरण में एकत्रित करने वाला त्यौहार है। मान लीजिए कि इस त्यौहार के समय किसी मुस्लिम बन्धु पर कोई रंग उड़ा देता है, तो इतने मात्र से क्या कुरान की आज्ञाओं का उल्लंघन होता है? इन बातों की ओर एक सामाजिक व्यवहार के रूप में देखा जाना चाहिए। मैं आप पर रंग छिड़कूं, आप मुझ पर छिड़कें। हमारे लोग तो कितने ही वर्षों से मोहर्रम के सभी कार्यक्रमों में सम्मिलित होते आ रहे हैं। इतना ही नहीं तो अजमेर के उर्स जैसे कितने ही उत्सवों-त्यौहारों में मुसलमानों के साथ हमारे लोग भी उत्साहपूर्वक सम्मिलित होते हैं।
किन्तु हमारी सत्यनारायण की पूजा में हम यदि कुछ मुसलमान बंधुओं को आमंत्रित करें तो क्या होगा? आपको विदित होगा कि द्रमुक के लोग अपने मंत्रिमंडल के एक मुस्लिम मंत्री को रामेश्वरम के मंदिर में ले गये। मंदिर के अधिकारियों, पुजारियों और अन्य लोगों ने उक्त मंत्री का यथोचित मान-सम्मान किया किन्तु उसे जब मंदिर का प्रसाद दिया गया, तो उसने वह प्रसाद फेंक दिया। उसने ऐसा क्यों किया? प्रसाद ग्रहण करने मात्र से वह धर्मभ्रष्ट तो होने वाला नहीं था! इसी तरह की छोटी-छोटी बातें हैं। अत: पारस्परिक आदर की भावना उत्पन्न की जानी चाहिए।
हमें जो वृत्ति अर्थ प्रेत है, वह सहिष्णुता मात्र नहीं। अन्य लोग जो कुछ करते हैं उसे सहन करना सहिष्णुता है। परन्तु अन्य लोग जो कुछ करते हैं, उसके प्रति आदर भाव रखना सहिष्णुता से ऊँची बात है। इसी वृत्ति, इसी भावना को प्राधान्य दिया जाना चाहिए। हमें सबके विषय में आदर है। यही मानवता के लिए हितकर है। हमारा वाद सहिष्णुतावाद नहीं, अपितु सम्मानवाद है। दूसरों के मतों का आदर करना हम सीखें, तो सहिष्णुता स्वयमेव चली आएगी।
प्रश्न : हिन्दू और मुसलमान के बीच सामंजस्य स्थापित करने के कार्य के लिए आगे आने की योग्यता किसमें है? राजनीतिक नेता, शिक्षा शास्त्री या धार्मिक नेता में?
उत्तर : इस मामले में राजनीतिज्ञ का क्रम सबसे अंत में लगता है। धार्मिक नेताओं के विषय में भी यही कहना होगा। आज अपने देश में दोनों ही जातियों के धार्मिक नेता अत्यंत संकुचित मनोवृत्ति के हैं। इस काम के लिए नितांत अलग प्रकार के लोगों की आवश्यकता है, जो लोग धार्मिक तो हों किन्तु राजनीतिक नेतागिरी न करते हों और जिनके मन में समग्र राष्ट्र का ही विचार सदैव जागृत रहा हो, ऐसे लोग ही यह कार्य कर सकते हैं। धर्म के अधिष्ठान के बिना कुछ भी हासिल नहीं होगा। धार्मिकता होनी ही चाहिए। रामकृष्ण मिशन को ही लें। यह आश्रम व्यापक और सर्वसमावेशक धर्म-प्रचार का कार्य कर रहा है। अत: आज तो इसी दृष्टिकोण और वृत्ति की आवश्यकता है कि ईश्वरोपासना विषयक विभिन्न श्रद्धा को नष्ट न कर हम उनका आदर करें, उन्हें टिकाए रखें और उन्हें वृद्धि गत होने दें।
राजनीतिक नेताओं के जो खेल चलते हैं, उन्हीं से भेदभाव उत्तरोत्तर बढ़ता जाता है। जातियों, पंथों पर तो वे जोर देते ही हैं, साथ ही भाषा, हिन्दू-मुस्लिम आदि भेद भी वे पैदा करते हैं। परिणामत: अपनी समस्याएँ अधिकाधिक जटिल होती जा रही हैं। जाति संबंधी समस्या के मामले में तो राजनीतिक नेता ही वास्तविक खलनायक हैं। दुर्भाग्य से राजनीतिक नेता ही आज जनता का नेता बन बैठा है, जब कि चाहिए तो यह था कि सच्चे विद्वान, सुशील और ईश्वर के परमभक्त महापुरुष जनता के नेता बनते। परन्तु इस दृष्टि से आज उनका कोई स्थान ही नहीं है। इसके विपरीत नेतृत्व आज राजनीतिक नेताओं के हाथों में है। जिनके हाथों में नेतृत्व है, वे राजनीतिक पशु बन गये हैं। अत: हमें लोगों को जागृत करना चाहिए।
दो दिन पूर्व ही मैंने प्रयाग में कहा कि लोगों को राजनीतिक नेताओं के पीछे नहीं जाना चाहिए, अपितु ऐसे सत्पुरुषों का अनुसरण करें, जो परमात्मा के चरणों में लीन हैं, जिनमें चारित्र्य है और जिनकी दृष्टि विशाल है।
प्रश्न : क्या आपको ऐसा नहीं लगता कि जातीय सामंजस्य-निर्माण का उत्तरदायित्व, बहुसंख्य समाज के रूप में हिन्दुओं पर है?
उत्तर : हाँ, मुझे यही लगता है। परन्तु, कुछ कठिनाइयों का विचार किया जाना चाहिए। अपने नेतागण सम्पूर्ण दोष हिन्दुओं पर लाद कर मुसलमानों को दोषमुक्त कर देते हैं। इसके कारण जातीय उपद्रव कराने के लिए, अल्पसंख्यक समाज यानी मुस्लिमों को सब प्रकार का प्रोत्साहन मिलता है। इसलिए हमारा कहना है कि इस मामले में दोनों को अपनी जिम्मेदारियों का पालन करना चाहिए।
प्रश्न : आपकी राय में आपसी सामंजस्य की दिशा में तत्काल कौन-से कदम उठाए जाने चाहिए?
उत्तर : इस तरह से एकदम कुछ कहना कठिन है। बहुत ही कठिन है। फिर भी सोचा जा सकता है। व्यापक पैमाने पर धर्म की यथार्थ शिक्षा देना एक उपाय हो सकता है। आज जैसी राजनीतिक नेताओं द्वारा समर्थित धर्महीन शिक्षा नहीं, अपितु सच्चे अर्थ में धर्म-शिक्षा। लोगों को इस्लाम का, हिन्दू धर्म का ज्ञान कराए। सभी धर्म मनुष्य को महान, पवित्र और मंगलमय बनने की शिक्षा देते हैं, यह लोगों को सिखाया जाये।
दूसरा उपाय यह हो सकता है कि जैसा हमारा इतिहास है वैसा ही हम पढ़ाएँ। आज जो इतिहास पढ़ाया जाता है, वह विकृत रूप में पढ़ाया जाता है। मुस्लिमों ने इस देश पर आक्रमण किया हो तो वह हम स्पष्ट रूप से बताएँ। परन्तु साथ में यह भी बताएँ कि यह आक्रमण भूतकालीन है और विदेशियों ने किया है। मुसलमान यह कहें कि वे इस देश के मुसलमान हैं और ये आक्रमण उनकी विरासत नहीं है। परन्तु, जो सही है उसे पढ़ाने के स्थान पर जो असत्य है, विकृत है, वही आज पढ़ाया जाता है। सत्य बहुत दिनों तक दबाकर नहीं रखा जा सकता। अन्तत: वह सामने आता ही है और उससे लोगों में दुर्भावना निर्माण होती है। इसलिए मैं कहता हूँ कि इतिहास जैसा है वैसा ही पढ़ाया जाये। अफजलखाँ को शिवाजी ने मारा है, तो वैसा ही बताओ। कहो कि एक विदेशी आक्रमक और एक राष्ट्रीय नेता के तनावपूर्ण सम्बन्धों के कारण यह घटना हुई। यह भी बतायें कि हम सब एक ही राष्ट्र हैं, इसलिए हमारी परम्परा अफजलखाँ की नहीं है। परन्तु यह कहने की हिम्मत कोई नहीं करता। इतिहास के विकृतिकरण को मैं अनेक बार धिक्कार चुका हूँ और आज भी ऐसे धिक्कारता हूँ।
प्रश्न : भारतीयकरण पर बहुत चर्चा हुई, भ्रम भी बहुत निर्माण हुए तो क्या आप बता सकेंगे कि ये भ्रम कैसे दूर किये जा सकेंगे?
उत्तर : भारतीयकरण की घोषणा जनसंघ द्वारा की गयी है। किन्तु इस मामले में सम्भ्रम क्यों होना चाहिए? भारतीयकरण का अर्थ सबको हिन्दू बनाना तो है नहीं? हम सभी को यह सत्य समझ लेना चाहिए कि हम इसी भूमि के पुत्र हैं। अत: इस विषय में अपनी निष्ठा अविचल रहना अनिवार्य है। हम सब एक ही मानव-समूह के अंग हैं, हम सबके पूर्वज एक ही हैं, इसलिए हम सबकी आकांक्षाएँ भी एक समान हैं - इसे समझना ही सही अर्थ में भारतीयकरण है।
भारतीयकरण का यह अर्थ नहीं कि कोई अपनी पूजा-पद्धति त्याग दें। यह बात हमने कभी नहीं कही और कभी कहेंगे भी नहीं। हमारी तो यह मान्यता है कि उपासना की एक ही पद्धति, सभी मानव जातियों के लिए सुविधाजनक नहीं।
श्री जिलानी : गुरुजी! आपकी बात सही है। बिलकुल सौ फीसदी सही है। अत: इस स्पष्टीकरण के लिए मैं आपका बहुत ही कृतज्ञ हूँ।
श्री गुरुजी : फिर भी, मुझे संदेह है कि ये बातें मैं सबके समक्ष स्पष्ट कर सकता हूँ या नहीं।
श्री जिलानी : कोई बात नहीं। आपने अपनी ओर से यह बहुत अच्छी तरह से स्पष्ट किया है। कोई भी विचारशील और भला आदमी आपसे असहमत नहीं होगा। क्या आपको ऐसा नहीं लगता कि अपने देश का जातीय बेसुरापन समाप्त करने का उपाय ढूँढ़ने में आपको सहयोग दे सकें, ऐसे मुस्लिम नेताओं की और आपकी बैठक आयोजित करने का अब समय आ गया है? ऐसे नेताओं से भेंट करना क्या आप पसन्द करेंगे?
श्रीगुरुजी : केवल पसन्द ही नहीं करूँगा, मैं तो ऐसी भेंट का स्वागत करूंगा।
अपने बीच स्थित एक समाजवादी विचारक ने श्री गुरूजी के बारे जो कहा वह आप जानते ही है किन्तु एक और समाजवादी विचारक श्री जयप्रकाश नारायण जो भारतीय समाजवाद के पुरोधा माने जाते है उनके श्री गुरूजी के प्रति निम्न विचार थे, वे कहते है - पूज्य श्रीगुरुजी तपस्वी थे। उनक संपूर्ण जीवन तपोमय था। हमारे यहाँ सब आदर्शों में बड़ा आदर्श है त्याग का आदर्श। वे तो त्याग की साक्षात् मूर्ति ही थे। पूज्य महात्मा जी और उनसे पूर्व जन्मे देश के महापुरुषें की परंपरा में ही पूज्य गुरुजी का भी जीवन था। देश की इतनी बड़ी संस्था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसके एकमात्र नेता श्रीगुरुजी। उन्होंने सादगी का आदर्श नहीं छोड़ा, क्योंकि वे जानते थे कि सादगी का आदर्श छोड़ने का स्पष्ट अर्थ है, दूसरे सहस्रों गरीबों के मुँह की रोटी छीन लेना।
मैं अत्यन्त अस्वस्थ हूँ, अभी भी मेरी साँस फूल रही है। मैं कहीं आता-जाता नहीं। फिर भी मेरे मन में पूज्य गुरुजी के लिए जो भावना है, वह ऐसी है कि उसने मुझे इस बात के लिए इजाजत नहीं दी कि मैं यहाँ आने से अपने को रोक सकूँ। गुरुजी के असामान्य व्यक्तित्व का यह प्रमाण है कि आज यहाँ भिन्न-भिन्न दल और वर्गों के लोग उपस्थित हैं। मार्क्सवादी मित्र की बात सुनकर मुझे बड़ी खुशी हुई है। प्रदेश कांग्रेस तथा कम्युनिस्ट पार्टी के किसी प्रतिनिधि का यहाँ नहीं होना, मुझे अखर रहा है। जब राष्ट्रपति श्री गिरि और प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने सबसे आगे बढ़कर अपना शोक संदेश भेजा था, तब उन्हें किसी प्रकार का संकोच नहीं होना चाहिए था।
श्री पूज्य गुरुजी कर्मठता के मूर्तिमान रूप थे। कर्मठता की कमी है देश में। गुरुजी ने अपने जीवन में कर्मठता का जो आदर्श रखा है, वह अनुकरणीय है। समय-समय पर मेरा संघ के स्वयंसेवकों के साथ संबंध आता रहा है। अकाल के समय संघ के स्वयंसेवकों ने जो कार्य किया, वह 'अपूर्व' था। मैं जब भी उसका स्मरण करता हूँ, श्रद्धावनत हो जाता हूँ।
श्रीगुरुजी आध्यात्मिक विभूति थे। यह एक बड़ा बोध है कि हम भारतीय हैं, हमारी हजारों वर्ष पुरानी परंपरा है, भारत का निर्माण भारतीय आधार पर ही होगा। चाहे हम कितने ही 'माडर्न' क्यों न हो जाएँ। हम अमरीकी, फ्रेंच, इंग्लिश, जर्मन नहीं कहला सकते, हम भारतीय ही रहेंगे - यह 'बोध', जिसे सहस्रों नवयुवकों में जगाया था पूज्य गुरुजी ने। मैं आशा करता हूँ कि श्री बाला साहब देवरस पूज्य गुरुजी की परंपरा को निभाएँगे।
वरिष्ठ पत्रकार, साहित्यकार एवं व्यंग्यकार श्री खुशवंत सिंह श्री गुरु के बार मे क्या विचार थे - कुछ लोग ऐसे होते हैं जिनको बिना समझे ही हम घृणा करने लगते हैं। इस प्रकार के लोगों में गुरु गोलवलकर मेरी सूची में सर्वप्रथम थे। सांप्रदायिक दंगों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की करतूतें, महात्मा गांधी की हत्या, भारत को धर्मनिरपेक्ष से हिन्दू राज्य बनाने के प्रयास आदि अनेक बातें थीं, जो मैंने सुन रखी थीं। फिर भी एक पत्रकार के नाते उनसे मिलने का मोह मैं टाल नहीं सका।
मेरी कल्पना थी कि उनसे मिलते समय मुझे गणवेशधारी स्वयंसेवकों के घेरे में से गुजरना होगा, किंतु ऐसा नहीं हुआ। इतना ही नहीं, मेरी समझ थी मेरी कार का नम्बर नोट करने वाला कोई मुफ्ती गुप्तचर भी वहाँ होगा, पर ऐसा भी कुछ नहीं था। जहां वे रुके थे, वह किसी मध्यम श्रेणी के परिवार का कमरा था। बाहर जूतों-चप्पलों की कतार लगी थी। वातावरण में व्याप्त अगरबत्ती की सुगंध से ऐसा लगता था, मानो कमरे में पूजा हो रही हो। भीतर के कमरों में महिलाओं की हलचलें हो रही थीं। बर्तनो और कप-सासरों की आवाज आ रही थी। मैं कमरे में पहुँचा। महाराष्ट्रीय ब्राह्मणों की पद्धति के अनुसार शुभ्र-धवल धोती-कुर्ता पहने 10-12 व्यक्ति वहाँ बैठे थे।
65 के लगभग आयु, इकहरी देह, कंधों पर झूलती काली-घुंघराली केशराशि, मुखमुद्रा को आवृत करती उनकी मूँछें, विरल भूरी दाढ़ी, कभी लुप्त न होने वाली मुस्कान और चश्मे के भीतर से झांकते उनके काले चमकीले नेत्र। मुझे लगा कि वे भारतीय होची-मिन्ह ही हैं। उनकी छाती के कर्करोग पर अभी-अभी शल्यक्रिया हुई है, फिर भी वे पूर्ण स्वस्थ एवं प्रसन्नचित दिखाई दे रहे हैं।
गुरु होने के कारण शिष्यवत् चरणस्पर्श की वे मुझसे अपेक्षा करते हों, इस मान्यता से मैं झुका, परंतु उन्होंने मुझे वैसा करने का अवसर ही नहीं दिया। उन्होंने मेरे हाथ पकड़े, मुझे खींचकर अपने निकट बिठा लिया और कहा - 'आपसे मिलकर बड़ी प्रसन्नता हुई। बहुत दिनों से आपसे मिलने की इच्छा थी।' उनकी हिन्दी बड़ी शुध्द थी।
'मुझे भी! खासकर, जबसे मैंने आपका 'बंच आफ लेटर्स' पढ़ा', कुछ संकुचाते हुए मैंने कहा।
'बंच ऑफ थॉट्स' कहकर उन्होंने मेरी भूल सुधारी, किन्तु उस ग्रंथ पर मेरी राय जानने की उन्होंने कोई इच्छा व्यक्त नहीं की। मेरी एक हथेली को अपने हाथों में लेकर उसे सहलाते हुए वे मुझसे बोले - 'कहिए।'
मैं समझ नहीं पा रहा था कि प्रारंभ कहाँ से करूँ। मैंने कहा - 'सुना है, आप समाचार-पत्रीय प्रसिद्धि को टालते हैं और आपका संगठन गुप्त है।'
'यह सत्य है कि हमें प्रसिद्धि की चाह नहीं, किंतु गुप्तता की कोई बात ही नहीं। जो चाहे पूछें', उन्होंने उत्तर दिया।
इसी प्रकार विभिन्न विषयों पर परस्पर खुलकर बातचीत हुई।
मैं गुरुजी का आधे घंटे का समय ले चुका था। फिर भी उनमें किसी तरह की बेचैनी के चिन्ह दिखाई नहीं दिए। मै उनसे आज्ञा लेने लगा तो उन्होने हाथ पकडकर पैर छूने से रोक दिया।
'क्या मैं प्रभावित हुआ? मैं स्वीकार करता हूँ कि हाँ। उन्होंने मुझे अपना दृष्टिकोण स्वीकार कराने का कोई प्रयास नहीं किया, अपितु उन्होंने मेरे भीतर यह भावना निर्माण कर दी कि किसी भी बात को समझने-समझाने के लिए उनका हृदय खुला हुआ है। नागपुर आकर वस्तुस्थिति को स्वयं समझने का उनका निमंत्रण मैंने स्वीकार कर लिया है। हो सकता है कि हिन्दू-मुस्लिम एकता को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का उद्देश्य बनाने के लिए मैं उनको मना सकूँगा और यह भी हो सकता है कि मेरी यह धारणा एक भोले-भाले सरदार जी जैसी हो।' (साभार - श्री गुरुजी जन्म शताब्दी अंक, विश्व संवाद केन्द्र पत्रिका, लखनऊ.)
श्रीगुरू जी के कार्यों का वर्णन करने के लिये अब मेरे पास न तो इतना समय है और न ही इतना सामर्थ कि मै उनके द्वारा किये गये अनंत कार्यों को वर्णन एवं टंकण कर सकूं। वे एक ऐसी मूर्ति मान व्यक्ति है। बस इतना जरूर है कि गुरूजी ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने राष्ट्र के सर्वांगीण विकास के लिये अपने प्राणों की तक की परवाह नहीं की।
शेष फिर जब क्योंकि गुरूजी कोई विषय नहीं पूरे के पूरे महाग्रंथ है जिन्ह पर जितना भी लिखा जाएगा वह कम होगा।
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7 टिप्पणियां:
बहुत ही सटीक लेखन!! बधाई
लेख की तारीफ के लिये शब्द नहीं मिले, इतना कह सकता हूँ कि बहुत सटीक और सुन्दर लेख, साधूवाद स्वीकार करें।
प्रमेन्द्र,
मेरे द्वारा उठाये गये मुद्दों पर अभी आपने कुछ कहा ही नहीं।कृपया We or Our Nationhood Defined का मूल संस्करण प्राप्त करने का प्रयास करें।इस वर्ष काशी से प्रकाशित 'संघ' साहित्य में उसे सावरकर की पुस्तक का अनुवाद कह दिया गया है।'Bunch of thoughts' मूल अंग्रेजी में है।मैंने अब तक तीन जगह गोलवलकरजी का उल्लेख किया है-१) शाखा में गांधी को भगवद्गीता के सन्दर्भ में पूछे गए प्रश्न और गांधी के उत्तर की बाबत(गांधी के सचिव प्यारेलाल की 'पूर्णाहुति' के हवाले से http://samatavadi.wordpress.com/2006/11/26/gandhi-half-pant-2/ ), २) हिन्दू कोड बिल के गोलवलकरजी द्वारा विरोध के सन्दर्भ में तथा ३)प्रचारक द्वारा उनसे विवाह की इच्छा प्रकट करने पर उनकी प्रतिक्रिया('गांधी-वध' के बाद सरदार पटेल द्वारा संघ पर प्रतिबन्ध के दौरान जेल में बन्द रहे स्व. श्री सिरसीकरजी की उपस्थिति में हुआ संवाद)।
मुझे संघ से जुड़े ऐसे लोग मिले हैं जो विवेकपूर्ण तरीके से कहते हैं कि, 'इस बहस में पड़ने के लिए मैं अधिकृत नहीं हूँ।' प्रमेन्द्रजी आशा है आप के साथ ऐसा न हो ।
प्रमेन्द्रजी,
एक संतुलित आलेख लिखने के लिए बधाई स्वीकार करें, संभवतया यह आपका अब तक का सबसे विस्तारित आलेख है।
संघ और समाजवाद, दोनों की ही वास्तविक विचारधारा और कार्यशैली से मैं अनभिज्ञ हूँ, इसलिए मात्र इतना ही कहूँगा कि आपके इस आलेख में काफि मेहनत झलकती है। हमें आपसे इसी प्रकार के आलेख की अपेक्षा रहती है।
अत्यधिक लम्बा होनें के बावजूद यह कहीं भी थकाऊ नहीं है, यह बहुत अच्छी बात है।
प्रिय प्रमेन्द्र,
आपने अपनी बात को और गोलवलकर जी के व्यक्तित्व को बहुत सधे हुए तथा प्रभावोत्पादक ढंग से रखा है .
भाई प्रमेन्द्र,
अब तक संघ के विषय में सिर्फ़ सुना है, उसके साहित्य के अध्ययन करने का संयोग नहीं हुआ, किंतु उसके कुछ विचार मुझे प्रिय हैं. वैसे धुरविरोधी बड़ा विधर्मी आदमी है, किंतु राष्ट्रप्रेम और देश-सेवा उसे हमेशा से प्रिय रहें हैं.
निश्चय ही आपने आरएसएस के बारे में बहुत अच्छा लिखा है मैं इस लायक तो नहीं कुछ टिप्पणी कर सकूँ पर इतना कह सकता हूँ कि पंडित वही जो गाल बजावा और शायद आरएसएस गाल बजावा नहीं शायद इसी लिए पंडित नहीं बल्कि अछूत हैं।
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