माननीय इलाहाबाद उच्च न्यायालय के तत्कालीन ऐतिहासिक फैसला कि उत्तर प्रदेश के मुसलमान अब अल्पसंख्यक नहीं है। न्यायालय के इस फैसले से सेक्युलर राजनीतिक दलों में ज्यादा बेचैनी है कि उनके प्रिय वोटर अब अल्पसंख्यक नहीं रह गये है। बेचैनी होना स्वाभाविक भी है हमेशा मुसलमानों को बरगला कर वोट की राजनीति खेलते थे। आखिर सेक्यूलिरिज्म के नाम पर हिन्दुओं के साथ भेद भाव? हिन्दू हितों की बात करना हिन्दुत्व व साम्प्रदायिकता है, और मुस्लिम हितों की बात करना धर्मनिरपेक्षता। यह कैसा राजनीति ?
माननीय इलाहाबाद उच्च न्यायालय के माननीय न्यायमूर्ति श्री शम्भू नाथ श्रीवास्तव के इस निर्णय को यह कहा जाना कहा तक उचित होगा कि यह फैसला असंवैधानिक? माननीय न्यायमूर्ति ने अपने फैसले में क्या गलत कहा? इसका विश्लेषण इन निर्णय का विरोध करने वालों को करना चाहिये। शोचनीय विषय है कि जब भारत आजाद हुआ था तब भारत में मुस्लिमों की जनसंख्या का प्रतिशत 5% के आसपास था इस प्रकार इस सम्प्रदाय की जनसंख्या में कई गुनी वृद्धि देखने के मिली। जिसकी जनसंख्या में चार गुने से अधिक की वृद्धि हो रही है वह अल्पसंख्यक कैसे हो सकता है? अगर विश्लेषण किया जाये तो यह प्रतीत होता है कि भारत के सभी राज्यों में मुस्लिम धर्म की जनसंख्या 10% से अधिक है और यह कई राज्यों में 20-30% से ऊपर है कई राज्य ऐसे है जहां हिंदुओं की जनसंख्या 30% से भी कम है। वहां भी हिन्दू समुदाय बहुसंख्यक हो सकता तो मुस्लिम समुदाय को अल्पसंख्यक घोषित किया जाना कहां तक उचित होगा?
आखिर अल्पसंख्यकों को मापने के लिये क्या पैमाना होना चाहिये? आज अपना देश विश्व का दूसरा सबसे बड़ा मुस्लिम देश है भले ही धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र कहा जाये किन्तु मुस्लिमों की जनसंख्या को झुठलाया नहीं जा सकता है। वह देश जहां विश्व के दूसरे नम्बर पर सबसे अधिक मुस्लिम रहते है वहां पर मुस्लिम अल्पसंख्यक कैसे हो सकते है। देश के ऐसे मक्कार नेताओं की तुच्छ सोच का नतीजा है कि इतनी अधिक संख्या में होने के बाद भी मुस्लिमों को अपने को अल्पसंख्यक घोषित करने के लिये संघर्ष करना पड़ रहा है। और मुस्लिम समान इस भ्रम में हे कि उन्हें इस धूर्तों के बल पर अल्पसंख्यक बनाए रखा जाएगा।
मैं टेलीविजन देख रहा था और उस समय एक समाचार चैनल में एक समाजवादी पार्टी के मुस्लिम नेता की हताशा देखते ही दिख रही थी। मैं उनकी बात को सुन का सकते में आ गया कि कोई व्यक्ति इस तरह से माननीय न्यायमूर्ति के ऊपर आक्षेप कैसे कर सकता है। यह तो प्रत्यक्ष रूप से न्यायमूर्ति तथा न्यायालय की अवमानना का प्रश्न उठता है। उन नेता के कथन थे -
यह न्यायाधीश राजनीति से प्रेरित है और इसके पहले भी वह अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय पर विवादित निर्णय दे चुके है। यह उत्तर प्रदेश के चुनाव के देखते हुए फैसला आया है।
नेता द्वारा यह कहा जाना पूरी न्याय व्यवस्था पर प्रश्न चिन्ह लगाना है। क्या अब मुस्लिमों का न्यायालय के प्रति कोई उत्तरदायित्व नहीं ? लगता है कि यही स्थिति रही तो कोई भी न्यायाधीश न्याय की तरफ सोच भी नहीं सकता है। मुझे याद है कि एक बिहार उच्च न्यायालय के माननीय न्यायमूर्ति ने एक बार अपने फैसले में मुस्लिम ध्वनि विस्तारक (लाउड स्पीकर) के सम्बन्ध में फैसला दिया था पूरी पूरा का पूरा मुस्लिम समुदाय न्यायमूर्ति के खिलाफ हो गया, उनके आवास पर पत्थरबाजी की गई बाद में न्यायमूर्ति को अपना तबादला अन्य राज्य में करवाना पढ़ा। क्या इस मुस्लिम नेता का बयान भड़काऊ नहीं था क्या यह माननीय न्यायमूर्ति के खिलाफ उन्माद का प्रतीक नहीं था।
इस फैसले पर कुछ लोगों का कहना है कि यह असंवैधानिक फैसला है पर हाल में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने अपने आदेश में कहा था कि उसे संविधान का अधिकार है वह तय कर सकता है कि क्या संवैधानिक है या असंवैधानिक, तब उच्च न्यायालय के फैसले को असंवैधानिक कहना कहाँ तक सही है? अगर फैसला गलत है तो क्या सर्वोच्च न्यायालय की मौत हो गई है। माननीय न्यायमूर्तियों पर सीधा आक्षेप किया जाना कहाँ तक सही है ? क्या इससे न्याय व्यवस्था बरकरार रहेगी?
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3 टिप्पणियां:
जय जय भारत देश।
प्रमेन्द्र जी ने बहुत ही सामयिक और प्रासंगिक विषय पर अपनी लेखनी चलाई है। निश्चय ही अब वह समय आ गया है जब अल्पसंख्यकों के लिये कोई पैमाना निर्धारित किया जाये। अल्पसंख्यकों को विशेषकर मुसलमानों का शरियत से लगाव और उम्मा आधारित उनकी विदेश नीति को भी ध्यान में रखा जाये कि क्या कोई अराष्ट्रीय चेतना से युक्त समाज अल्पसंख्यक या दयनीय माने जाने का पात्र है।
देखो भाई, आप सब सच जानते हैं फिर भी ऐसी बचकानी बातें करतें हैं। धर्म के आधार पर बंटवारा हुआ। पर क्या आपने कभी ऐसे बंटवारे को देखा है जिसमें आपके व आपके भाई में घर खेत बंटे किन्तु आपका भतीजा आपके घर में खुशी से रहे और आपके बच्चे आपके भाई के घर से मार पीट कर निकाल दिये जाएं? सो ऐसा था हमारा बंटवारा और ऐसी है हमारी धर्मनिर्पेक्षिता!
मानती हूँ कि भारत में भी बंटवारे के समय मुसलमानों पर अत्याचार हुये। किन्तु यह बंटवारा और यह अलपसंख्यता का आलाप! धन्य थे हमारे महानायक जो हमारे लिये ये विवाद छोड़ गये।
अल्पसंख्यक तो हैं पारसी। पर वे न दंगा फ़साद करते हैं न किसी विशेष सुविधाकी बात करते हैं। ऐसे अल्पसंख्यकों का राजनीति में क्या स्थान?
घुघूती बासूती
पुन:श्च : मैं धर्म नाम की चीज़ में शायद विश्वास नहीं करती।
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