विडम्बना है कि आज भारत अपनी आजादी की लड़ाई की 150वीं वर्षगांठ के अवसर पर देश भर में कार्यक्रम किये जा रहें है किन्तु एक जगह ऐसी भी है जहां स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों को अपमानित करने में कोई कसर नहीं छोड़ा जा रहा है। यह घटना कभी देश की राजधानी और स्वतंत्रता संग्राम का केन्द्र रहे कोलकाता की है। जहां पर सरकारी नुमाइंदों के द्वारा अमर शहीद मंगल पाण्डेय की स्मारक मीनार को तोड़ दिया गया। क्या हमारी सरकार और प्रशासन इसी तरह शहीदों को नमन करना चाहती है?
कांग्रेस की "सत्ता सौत" वाम दल द्वारा इस प्रकार की निंदनीय घटना ने पूरे देश को शर्मसार किया है, एक तरफ तो सरकारों द्वारा मात्र कार्यक्रम आयोजित करके सम्मान देने की खानापूर्ति की जा रही है दूसरी तरफ स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों को अपमानित करने में कोई कसर नहीं छोड़ रही है। किसी ने पार्टी ने स्थानीय स्तर पर विरोध को छोड़ कर इस कुकृत्य का विरोध नहीं किया। इन हरामखोर पार्टियों को गुजरात की हर घटना पर निगाह रहती है किन्तु अपने घर में क्या हो रहा है उसकी खबर तक नहीं है।
मैं इस दुखद घटना पर क्षोभ व्यक्त करते हुये इस घृणित घटना की निंदा करता हूँ। और स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों से क्षमा याचना करता हूँ। इस कुकृत्य पर इतना ही बात निकलती है "कि जो सरकार नहीं कर सकती जनता का सम्मान, उस पर थूको सौं-सौ बार।"
विशेष आग्रह - थूकने से पहले कृपया पान खा ले ताकि जब आप थूकें उसका रंग भी दिखें।
वामपंथी सरकार ने किया स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों का अनोखा सम्मान तोड़ दिया मंगल पांडेय की स्मृति मीनार
कितनी अजीब बात है कि देश की आत्मा को झकझोर देने वाली घटना का जिक्र एक दो अखबारों को छोड़कर किसी भी स्तर की मीडिया ने देना उचित न समझा? आज की मीडिया वास्तव में अपने महिमा मंडन से ही फुरसत नहीं मिल रही है। एक न्यूज को 4-4 घंटे तक पकड़ कर घुसे रहते है, लगता है बहुत बड़ी घटना हो। मंगल पाण्डेय की घटना मीडिया को इस लिये नहीं दिखी की यह कोई राजनीतिक घटना नहीं थी, जिससे राजनीतिक खेल खेला जा सकता। मंगल पाण्डेय कोई अम्बेडकर या गांधी नहीं थे जिनके पास वोट बैंक है। अगर मंगल पाण्डेय के पास वोट बैंक होता तो यह निंदनीय कदम किसी के द्वारा न किया जाता। कांग्रेस की "सत्ता सौत" वाम दल द्वारा इस प्रकार की निंदनीय घटना ने पूरे देश को शर्मसार किया है, एक तरफ तो सरकारों द्वारा मात्र कार्यक्रम आयोजित करके सम्मान देने की खानापूर्ति की जा रही है दूसरी तरफ स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों को अपमानित करने में कोई कसर नहीं छोड़ रही है। किसी ने पार्टी ने स्थानीय स्तर पर विरोध को छोड़ कर इस कुकृत्य का विरोध नहीं किया। इन हरामखोर पार्टियों को गुजरात की हर घटना पर निगाह रहती है किन्तु अपने घर में क्या हो रहा है उसकी खबर तक नहीं है।
मैं इस दुखद घटना पर क्षोभ व्यक्त करते हुये इस घृणित घटना की निंदा करता हूँ। और स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों से क्षमा याचना करता हूँ। इस कुकृत्य पर इतना ही बात निकलती है "कि जो सरकार नहीं कर सकती जनता का सम्मान, उस पर थूको सौं-सौ बार।"
विशेष आग्रह - थूकने से पहले कृपया पान खा ले ताकि जब आप थूकें उसका रंग भी दिखें।
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15 टिप्पणियां:
महाश्क्ती भाई देखो इतना सम्मान बहुत है कि ११ तारीख को नही तोडा ,वो अपना विरोध प्रकट कर रहे है उनका बस चले भारत आज चीन का हिस्सा घोषित हो जाये ये भारत के कब है कब थे
मैं इन पर थूक कर अपने थूक को अपमानित नहीं करना चाहता.
इन लोगों के लिये तो ये हीरो है हीं नहीं. वो तो धर्म के लिये लढ़ रहे थे
जिन लोगों नो नेताजी सुभाष तक के लिये अपशब्द प्रयोग किये, आप उनसे क्या उम्मीद रख सकते है़
यहां पटना में एक बुक्सेलर पीर अली 1857 में शहीद हुआ था-उसे फ़ांसी दे दी गयी थी. मगर आज उसकी शहादत स्थल पर संघ के लोगों का कब्ज़ा है. वहां बच्चों का पार्क बना दिया गया है और उस जगह का नाम दीनदयाल उपाध्याय जैसे व्यक्ति के नाम पर रख दिया गया है जो ऐसे गुंडा गिरोह से तालुक रखता है जो न सिर्फ़ हमारी आज़ादी की लड़ाई का गद्दार है बल्कि देशद्रोही भी है.
आइए, आप पीर अली की शहादत स्थल की मुक्ति की मांग कीजिए, हम मंगल पांडे के स्मृति मीनार के समर्थन में आवाज़ उठायेंगे. हमारा उद्देश्य एक ही है-1857 के शहीदों का अपमान बंद करवाना.
महाशक्ति जी, पांडे ने ये को ना जाने, इन सुसरो ने खुद तो देस खातिर कुछ किया नाहि। इन का जोर चले तो ये आप्णे को देश भगत घोषित करवा देवे सब को हटा के।क्यूँ भैया ठीक कही ना?
जैसे रियाज ने कहा (बल्कि गरियाया दीनदयाल उपाध्याय को) वैसे ही हमारे यहाँ हक है हर किसी को गाली देने का, आप किसी को भी गुण्डा कह सकते हैं, किसी की भी मूर्ति तोड सकते हैं, सावरकर को भी क्रांतिकारी मानने से इन्कार कर सकते हैं, वन्देमातरम का विरोध भी कर सकते हैं, सरस्वती वन्दना को भी सांप्रदायिक बता सकते हैं, यानी कि सब कुछ किया जा सकता है इस "लोकतन्त्र" (?) में... दर असल हमारा देश एक ऐसी भीड़ में बदल चुका है जो अपना इतिहास भूल चुकी है और सिर्फ़ बच्चे पैदा करने में लगे हैं... इनसे क्या उम्मीद करते हो भाई..
रियाज उल हक जी,
मैनें किसी संद्य विचार धारा के व्यकित की मीनार तोड़ने की बात नही किया है। जब हेडगवार और गुरूजी के लिये हम ऐसी माँग करेगें तो और आप हमारे साथ होगें तो यकीन रखिऐगा हम भी आपके साथ रहेगें।
और ये आजादी के 50 साल बाद भी आप अब कौन सी आजादी चाहते है ? भारत से मुस्लिमों कों आजादी तो आज से 50 साल पहले पाकिस्तान निर्माण के वक्त ही मिल गई है और अब किसी प्रकार की आजादी की इच्छा न करें। आजादी चाहिये तो आपके पास पाकिस्तान का विकल्प है किन्तु वो भी भारतीय मुस्लमानो को अपनाने से इन्कार करेगा। कहेगा कि जो अपनों का न हुआ वो हमारा क्या होगा ?
आपका आक्रोश समझ सकता हूँ, शहीद देश वासियों के दिलो में बसे है. भेड़ीयों को नोचने दो स्मारक.
वाक़ई यह बहुत दु:खद घटना है। हर दल का अपना-अपना एजेण्डा है और उसके लिए स्वतंत्रता संग्राम सैनानियों तक को नहीं बख़्शा जाता है।
जहाँ तक रेयाज़-उल-हक़ जी की टिप्पणी का सवाल है, वह भी उतनी ही दु:खद है। यह टिप्पणी बतलाती है कि किस तरह हमने अपने नायकों को भी बांट लिया है। अपने-अपने "पंथों" से ऊपर उठ तटस्थ भाव से इतिहास को देखने और समझने की ज़रूरत है।
चिंता छोड़ो.. ये राजनीतिक एजंडे हैं. कोई बनवाता है कोई तुड़वा देता है. अमर शहीदों के जीवन प्रसंग प्रेरणा लेने योग्य होते हैं. कुछ कर गुज़रने का माद्दा रखना चाहिए.. अगरबत्ती जलाने से उनकी आत्माओ को ख़ुशी नहीं मिलेगी.
अब देखो ना.. भगत सिंह की शहादत पर संघ परिवार का पांच्जन्य छाप रहा था कि वे पक्के वेदांती परिवार मे पले-बढ़े और हिन्दू राष्ट्रवाद के पैरोकार थे.. जबकि दूसरी ओर हमने वामपंथियों के हवाले से सुना कि वे मार्क्सवादी विचारधारा के वशीभूत थे. अब ऐसा है उस्ताद हर महान व्यक्ति के गुज़र जाने पर नेतागण अपने अपने राजनीतिक एजंडे के अनुसार विश्लेषण करने बैठ जाते हैं. अगर आपको महान व्यक्तियों के जीवन वृतांत प्रेरणास्पद लगते हैं तो उसे जीवन मे उतारिए.
ऐसे ही हम इन दिनों ब्लॉगजगत में अपनी विचारधारा से सहमत न होने वाले व्यक्तित को बड़ी आसानी से सुविधानुसार वर्गीकृत करने में आसानी पाते हैं. इसमें सुविधा यह है कि अमुक को 'वाद' के कंधे पर चढ़ाकर आरोप मढ़ने में सुविधा होती है. ब्लागर तो ब्लागर बेचारे के ऊपर मार्क्स और गोलवलकर की टोपी रखकर जमकर कोसा जाता है. यह सुविधाजनक वर्गीकरण हमारी सोच को संकीर्ण बनाते चला जाता है और हम मुग़ालते मे रहते हुए कहते हैं - ''वाह देखो, अच्छा निपटाया स्साले जनसंघी को.''
बहुत दुखद: घटना है, मैं भी आपके साथ इसकी निन्दा करता हूँ, पर जितना दुख: इस घटना से हुआ उतना ही दुख इस लेख पर रियाज उल हक जी की अशोभनीय टिप्प्णी से हुआ।
सबसे घटिया टिप्प्णी का अवार्ड अगर दिया जाये तो आज के इस लेख पर रियाज-उल-हक की टिप्प्णी को दिया जाना चाहिये।
बधाई हो हक जी
बेहद दुःखद घटना है ये.. साथ साथ नीरज दीवान का कहना भी बहुत अर्थपूर्ण है.. उनकी बात में तत्व है..
उपरोक्त टिप्पणी मेरी है, प्रमेन्द्र भाई हो सके तो ठीक कर देना.
बहुत दुखद घटना है, लेकिन संजयभाई और नीरज बाबु ने सही कहा है.
शहीद तो हमारे दिलों में है, किसी "वादी" सरकार के करतुत से क्या होता है.
इन वामपंथियों का चीन प्रेम कोई छुपा हुआ नही है.
एक और बात इन रियाज़ साहब को कहना चाहुंगा कि कोई अगर अच्छा लिखता है तो तारीफ करना सिखीए . और अगर नही होती तो कम से कम फोगट में गरियायिए मत!
इतनी कम उम्र में प्रमेन्द्र अच्छा लिख रहे हैं. आप क्यों इन्हे किसी विशेष वाद से जोड कर देखते हैं??
आप भी कैसी मानसिकता रखते हैं, हमे पता है. इसलिए पहले अपनी गिरहबान में झांकना सिखीए.
उपरोक्त संजय भाई जी की भूल से आई टिप्पणी को पंकज भाई के आदेशानुसार हटा दिया गया है। कृपया अन्यथा अर्थ मे न लें।
प्रमेन्द्र
इसमें हैरानी कैसी
वामपंथी तो होते ही हैं देश के दुश्मन
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