मानव जीवन के इतिहास में खोजों का बहुत महत्वपूर्ण स्थान रहा है। प्राचीन काल से लेकर आज तक मनुष्य अपनी खोजों के विख्यात रहा है। मनुष्य के खोजों की कड़ी में रत्नों की खोज का भी महत्वपूर्ण स्थान रहा है। प्राचीनकाल में मनुष्य अपनी दुविधा और बाधाओं से ग्रसित रहा है और इन दुविधा और बाधाओं से मुक्ति पाने के लिये रत्नों का प्रयोग किया करता था।
मनुष्यों तथा ऋषियों ने इस धरा पर जो भी सबसे उपयुक्त सामग्री पायी उसे रत्न की संज्ञा दिया। रत्न शब्द का प्रथम प्रमाण ऋग्वेद के श्लोक में मिलती है। जहाँ पर अग्नि को रत्न की संज्ञा देते हुऐ कहा गया था- अग्निमीहे सुरोहितम् यज्ञस्य देवमृत्विजम् होतारं रत्नधातमम्। देवासुर संग्राम के कारण का मुख्य लक्ष्य रत्नों की प्राप्ति ही थी। क्योकि इन रत्नों का प्रयोग भी स्वयं लाभ प्राप्त करना था। क्याकि देव हो या दानव सभी समुद्र से निकले रत्नों को प्राप्त कर शक्तिशाली, विजयी और अमर होना चाहते थे। जैसा कि पहले भी उल्लेख किया है कि रत्नों से तत्पर्य केवल हीरा, मोती पन्ना मूँगा से न होकर इस विश्व कि सर्वश्रेष्ठ कृति से है। समुद्र मंथन से निकले कौत्सुभ मणि को भगवान विष्णु ने हृदय में धारण किया था। भारतीय परिवेश में रत्न न केवल सौन्दर्य का प्रतीक है वरन यह चिकित्सा पद्धति का भी अंग है। जिसका उल्लेख आयुर्वेद की प्रसिद्ध पुस्तक चरक संहिता में हुआ है। आयुर्वेद के अनुसार रोगनाश करने की जितनी क्षमता औषधि सेवन में है उसी के समान रत्न्ा का धारण करने भी है। भले ही आज के वैज्ञानिक इस बात को न माने किन्तु आचार्य दण्डी रत्न की विशेषता बताते हुऐ कहते है- अचिन्त्यों ही मणिमत्रौषधीनां प्रभावा:।
भारतीय मनीषी रत्नों के चमत्कृत प्रभावों से प्रभावित थे तथा उन्होने रत्नों से सम्बन्धित ज्ञान को विभिन्न वेदों, पुराणों व उपनिषदों अादि में संकलित किया। विद्धानों ने यह भी बताया कि अगर रत्नों से लाभ है तो रत्नों के प्रयोग से हानि भी। किसी भी रत्न का मूल्य का अनुमान उसकी दुर्लभता से होती है। जो रत्न जितना दुर्लभ है वह उतना ही मूल्यवान होता है पर किसी रत्न के दुर्लभ व मूल्यवान होने से यह तय नही हो जाता कि वह उतना ही लाभकारी भी होगा।
अथर्ववेद में मणि का उल्लेख करते हुए बताया गया है कि रत्नों के धारण करने से ही इन्द्र की उन्नति हुई और उसे इन्द्र पद प्राप्त हुआ-
रत्नचौर्यनिन्दा प्रकरण में मनुस्मृति प्रकाश डालते हुऐ कहती है कि-
मानव जीवन के साथ-साथ मणि व रत्नों में भी संस्कार की बात परिलक्षित होती है। संस्कारित मणि वह है तो शाण पर चढ़ाकर घिसने पर प्राप्त हो। बिना शाण पर चढ़ी मणि संस्कारित नही होती है। यहॉं पर संस्कार से तात्पर्य मणि के गुणवत्ता से है। इसके बारे में कहा गया है कि - शाणाश्मकषणै: काष्णर्यमाकरोत्थं मणेरिव।सुभाषितरत्नभंडार में भी रत्न की संस्कारित व असंस्कारित होने की बात कहते हुऐ कहा गया है कि जो मणि सीधे खान से प्राप्त होती है वह शुद्ध नही होती है उसमें शुद्धता शाण पर चढ़ने पर ही आती है।
निश्चित रूप से भारतीय शास्त्रों और परम्परा में रत्नों का महत्व है, रत्न न के वह सौन्दर्य का प्रतीक बना बल्कि स्वस्थ और समृद्धि का प्रतीक भी सदियों से बना है।
जन्म कुंडली में जो ग्रह शुभ हो लेकिन वह स्वयं अशुभ, पापी व क्रूर ग्रहों से पीडत होकर कमजोर हो तो उसके प्रभाव को बढ़ाने के लिए उससे सम्बन्धी रत्न किसी योग्य ज्योतिषी की सलाह पर पहनना चाहिए ! यहाँ दो बातें ध्यान रखनी चाहिए- पहली बात रत्न वही धारण करना चाहिए जो लग्न को नुकसान ना पहुचाये अर्थात लग्न से मित्रवत (स्थिति व पंचधा मैत्री) होना चाहिए और दूसरी बात ध्यान देने की है की सूर्य और चन्द्रमा को छोडकर शेष ग्रह २-२ राशियों के स्वामी है, जिससे यदि कोई ग्रह एक शुभ और एक अशुभ भाव का स्वामी हो तो उसे प्रभावी बनाने से दोनों भावों के फलों में वृद्धि होगी इस कारण से ऐसे ग्रह का रत्न धारण बहुत ही विचार से करना चाहिए !सभी लग्न में कुछ ग्रहों के रत्नों को मोटे तौर पे त्याग दिया जाता है और कुछ ग्रहों के रत्नों को उपयोग में लेते है ! लग्नों की स्थिति अनुसार सभी का फल निम्नलिखित है !
कन्या लग्न :
तुला लग्न :
मनुष्यों तथा ऋषियों ने इस धरा पर जो भी सबसे उपयुक्त सामग्री पायी उसे रत्न की संज्ञा दिया। रत्न शब्द का प्रथम प्रमाण ऋग्वेद के श्लोक में मिलती है। जहाँ पर अग्नि को रत्न की संज्ञा देते हुऐ कहा गया था- अग्निमीहे सुरोहितम् यज्ञस्य देवमृत्विजम् होतारं रत्नधातमम्। देवासुर संग्राम के कारण का मुख्य लक्ष्य रत्नों की प्राप्ति ही थी। क्योकि इन रत्नों का प्रयोग भी स्वयं लाभ प्राप्त करना था। क्याकि देव हो या दानव सभी समुद्र से निकले रत्नों को प्राप्त कर शक्तिशाली, विजयी और अमर होना चाहते थे। जैसा कि पहले भी उल्लेख किया है कि रत्नों से तत्पर्य केवल हीरा, मोती पन्ना मूँगा से न होकर इस विश्व कि सर्वश्रेष्ठ कृति से है। समुद्र मंथन से निकले कौत्सुभ मणि को भगवान विष्णु ने हृदय में धारण किया था। भारतीय परिवेश में रत्न न केवल सौन्दर्य का प्रतीक है वरन यह चिकित्सा पद्धति का भी अंग है। जिसका उल्लेख आयुर्वेद की प्रसिद्ध पुस्तक चरक संहिता में हुआ है। आयुर्वेद के अनुसार रोगनाश करने की जितनी क्षमता औषधि सेवन में है उसी के समान रत्न्ा का धारण करने भी है। भले ही आज के वैज्ञानिक इस बात को न माने किन्तु आचार्य दण्डी रत्न की विशेषता बताते हुऐ कहते है- अचिन्त्यों ही मणिमत्रौषधीनां प्रभावा:।
अथर्ववेद में मणि का उल्लेख करते हुए बताया गया है कि रत्नों के धारण करने से ही इन्द्र की उन्नति हुई और उसे इन्द्र पद प्राप्त हुआ-
अभीवर्तेन मणिना येनेन्द्रो अभिवावृधे।
तेनास्मान् ब्राह्मणस्पतोभि राष्ट्राय वर्धय।।
हमारे धर्म ग्रन्थों में रत्नों के महत्व पर कुशलता पूर्वक प्रकाश डाला गया है तथा यह बताने का प्रयास किया गया कि रत्नों के प्रयोग से हम अपनी जीवन शैली को किस प्रकार शान्तिमय बना सकते है। रत्नों के नामकरण पर रसेन्द्र विज्ञान कहा गया है- रमन्तेsस्मिन्नतीप जना इति रत्ननिरूक्ति अर्थात लोग इसमें ज्यादा रमते है इस कारण इसे रत्न की संज्ञा दी गई है।तेनास्मान् ब्राह्मणस्पतोभि राष्ट्राय वर्धय।।
रत्नचौर्यनिन्दा प्रकरण में मनुस्मृति प्रकाश डालते हुऐ कहती है कि-
मणि मुक्ताप्रवालानां ताम्रस्य रजतस्य च।
अय: कास्योंपलाना़ञ्च द्वादशाहं कणन्नता।।
अर्थात मणि, मोती, मूँगा, तांबा, चॉंदी, लोहा, कांसा व पत्थर अादि के चुराने का प्राश्चित केवल अन्न का कण ही खाने पर होता है।अय: कास्योंपलाना़ञ्च द्वादशाहं कणन्नता।।
मानव जीवन के साथ-साथ मणि व रत्नों में भी संस्कार की बात परिलक्षित होती है। संस्कारित मणि वह है तो शाण पर चढ़ाकर घिसने पर प्राप्त हो। बिना शाण पर चढ़ी मणि संस्कारित नही होती है। यहॉं पर संस्कार से तात्पर्य मणि के गुणवत्ता से है। इसके बारे में कहा गया है कि - शाणाश्मकषणै: काष्णर्यमाकरोत्थं मणेरिव।सुभाषितरत्नभंडार में भी रत्न की संस्कारित व असंस्कारित होने की बात कहते हुऐ कहा गया है कि जो मणि सीधे खान से प्राप्त होती है वह शुद्ध नही होती है उसमें शुद्धता शाण पर चढ़ने पर ही आती है।
निश्चित रूप से भारतीय शास्त्रों और परम्परा में रत्नों का महत्व है, रत्न न के वह सौन्दर्य का प्रतीक बना बल्कि स्वस्थ और समृद्धि का प्रतीक भी सदियों से बना है।
जन्म कुंडली में जो ग्रह शुभ हो लेकिन वह स्वयं अशुभ, पापी व क्रूर ग्रहों से पीडत होकर कमजोर हो तो उसके प्रभाव को बढ़ाने के लिए उससे सम्बन्धी रत्न किसी योग्य ज्योतिषी की सलाह पर पहनना चाहिए ! यहाँ दो बातें ध्यान रखनी चाहिए- पहली बात रत्न वही धारण करना चाहिए जो लग्न को नुकसान ना पहुचाये अर्थात लग्न से मित्रवत (स्थिति व पंचधा मैत्री) होना चाहिए और दूसरी बात ध्यान देने की है की सूर्य और चन्द्रमा को छोडकर शेष ग्रह २-२ राशियों के स्वामी है, जिससे यदि कोई ग्रह एक शुभ और एक अशुभ भाव का स्वामी हो तो उसे प्रभावी बनाने से दोनों भावों के फलों में वृद्धि होगी इस कारण से ऐसे ग्रह का रत्न धारण बहुत ही विचार से करना चाहिए !सभी लग्न में कुछ ग्रहों के रत्नों को मोटे तौर पे त्याग दिया जाता है और कुछ ग्रहों के रत्नों को उपयोग में लेते है ! लग्नों की स्थिति अनुसार सभी का फल निम्नलिखित है !
मेष लग्न :
ग्रह – रत्न
|
स्थिति विशेष
|
फल
|
सूर्य - माणिक्य
|
पंचमेश, त्रिकोणेश, योगकारक
|
अतीव शुभ
|
चंद्र – मोती
|
चतुर्थेश, केन्द्रेश, मित्र, तटस्थ
|
सम*
|
मंगल – मूंगा
|
लग्नेश, अष्टमेश
|
शुभ#
|
बुध – पन्ना
|
पराक्रमेश, षष्ठेश, अकारक, शत्रु
|
अशुभ
|
गुरु – पुखराज
|
भाग्येश, व्ययेश, त्रिकोणेश, मित्र
|
सम
|
शुक्र – हीरा
|
मारकेश, केन्द्रेश, शत्रु
|
अशुभ
|
शनि – नीलम
|
आयेश, केन्द्रेश, बाधक
|
सम
|
- *केंद्र के ग्रह अपनी शुभता या अशुभता या छोड देते है ! यदि दो राशियों के स्वामी है तो अपनी दूसरी राशि का फल करते है !
- # लग्नेश पर अष्टमेश होने का दोष नहीं लगता है !
वृष लग्न :
ग्रह – रत्न
|
स्थिति विशेष
|
फल
|
सूर्य - माणिक्य
|
केन्द्रेश, सुखेश, शत्रु, तटस्थ
|
सम
|
चंद्र – मोती
|
तृतीयेश, पराक्रमेश
|
अशुभ
|
मंगल – मूंगा
|
सप्तमेश, मारकेश, व्ययेश
|
अशुभ
|
बुध – पन्ना
|
पंचमेश, त्रिकोणेश, धनेश
|
शुभ
|
गुरु – पुखराज
|
अष्टमेश, आयेश, बाधक
|
अशुभ
|
शुक्र – हीरा
|
लग्नेश, षष्ठेश
|
शुभ
|
शनि – नीलम
|
भाग्येश, कर्मेश, योगकारक
|
शुभ
|
मिथुन लग्न :
ग्रह – रत्न
|
स्थिति विशेष
|
फल
|
सूर्य - माणिक्य
|
अकारक, पराक्रमेश
|
अशुभ
|
चंद्र – मोती
|
धनेश, तटस्थ
|
सम
|
मंगल – मूंगा
|
षष्ठेश, एकादशेश, अकारक
|
अशुभ
|
बुध – पन्ना
|
लग्नेश, चतुर्थेश, योगकारक
|
शुभ
|
गुरु – पुखराज
|
सप्तमेश, कर्मेश, बाधक, मारक
|
अशुभ
|
शुक्र – हीरा
|
त्रिकोणेश, व्ययेश, मित्र
|
शुभ
|
शनि – नीलम
|
भाग्येश, अष्टमेश
|
सम
|
कर्क लग्न :
ग्रह – रत्न
|
स्थिति विशेष
|
फल
|
सूर्य - माणिक्य
|
धनेश, मित्र, सामान्य मारक
|
सम
|
चंद्र – मोती
|
लग्नेश, कारक
|
शुभ
|
मंगल – मूंगा
|
योगकारक, त्रिकोणेश, कर्मेश
|
अतीव शुभ
|
बुध – पन्ना
|
अकारक, पराक्रमेश, व्ययेश
|
अशुभ
|
गुरु – पुखराज
|
षष्ठेश, भाग्येश, तटस्थ
|
सम
|
शुक्र – हीरा
|
बाधक, केन्द्रेश, आयेश
|
अशुभ
|
शनि – नीलम
|
मारकेश, अष्टमेश
|
अशुभ
|
सिंह लग्न :
ग्रह – रत्न
|
स्थिति विशेष
|
फल
|
सूर्य - माणिक्य
|
लग्नेश, कारक
|
शुभ
|
चंद्र – मोती
|
व्ययेश, मित्र, तटस्थ
|
सम
|
मंगल – मूंगा
|
योगकारक, त्रिकोणेश, केन्द्रेश
|
शुभ
|
बुध – पन्ना
|
मारक, आयेश, एकादशेश
|
अशुभ
|
गुरु – पुखराज
|
पंचमेश, अष्टमेश, तटस्थ
|
सम
|
शुक्र – हीरा
|
केन्द्रेश, तृतीयेश
|
अशुभ
|
शनि – नीलम
|
अकारक, मारक, षष्ठेश
|
अशुभ
|
कन्या लग्न :
ग्रह – रत्न
|
स्थिति विशेष
|
फल
|
सूर्य - माणिक्य
|
व्ययेश
|
अशुभ
|
चंद्र – मोती
|
आयेश, तटस्थ
|
सम
|
मंगल – मूंगा
|
अकारक, अष्टमेश, तृतीयेश
|
अशुभ
|
बुध – पन्ना
|
योगकारक, लग्नेश
|
अतीव शुभ
|
गुरु – पुखराज
|
बाधक, केन्द्रेश
|
अशुभ
|
शुक्र – हीरा
|
भाग्येश, धनेश, मारकेश
|
सम
|
शनि – नीलम
|
त्रिकोणेश, षष्ठेश, मित्र
|
शुभ
|
तुला लग्न :
ग्रह – रत्न
|
स्थिति विशेष
|
फल
|
सूर्य - माणिक्य
|
लाभेश, बाधक, शत्रु
|
अशुभ
|
चंद्र – मोती
|
कर्मेश, केन्द्रेश, तटस्थ
|
सम
|
मंगल – मूंगा
|
मारकेश, धनेश
|
अशुभ
|
बुध – पन्ना
|
त्रिकोणेश, व्ययेश, मित्र
|
सम
|
गुरु – पुखराज
|
अकारक, त्रिषडायेश, शत्रु
|
अशुभ
|
शुक्र – हीरा
|
लग्नेश, षष्ठेश, कारक
|
शुभ
|
शनि – नीलम
|
योगकारक, त्रिकोणेश
|
अतीव शुभ
|
वृश्चिक लग्न :
ग्रह – रत्न
|
स्थिति विशेष
|
फल
|
सूर्य - माणिक्य
|
कर्मेश, मित्र, कारक
|
अतीव शुभ
|
चंद्र – मोती
|
भाग्येश, योगकारक, बाधक
|
सम
|
मंगल – मूंगा
|
लग्नेश, कारक, षष्ठेश
|
शुभ
|
बुध – पन्ना
|
अकारक, अष्टमेश
|
अशुभ
|
गुरु – पुखराज
|
धनेश, पंचमेश, मारक, तटस्थ
|
सम
|
शुक्र – हीरा
|
सप्तमेश, मारकेश, व्ययेश
|
अशुभ
|
शनि – नीलम
|
तृतीयेश, केन्द्रेश
|
अशुभ
|
धनु लग्न :
ग्रह – रत्न
|
स्थिति विशेष
|
फल
|
सूर्य - माणिक्य
|
त्रिकोणेश, भाग्येश
|
अतीव शुभ
|
चंद्र – मोती
|
अष्टमेश, मित्र, तटस्थ
|
सम
|
मंगल – मूंगा
|
पंचमेश, व्ययेश
|
सम
|
बुध – पन्ना
|
बाधक, मारक, केन्द्रेश
|
अशुभ
|
गुरु – पुखराज
|
त्रिकोणेश, लग्नेश, सुखेश
|
शुभ
|
शुक्र – हीरा
|
अकारक, त्रिषडायेश
|
अशुभ
|
शनि – नीलम
|
मारक, पराक्रमेश, शत्रु
|
अशुभ
|
मकर लग्न :
ग्रह – रत्न
|
स्थिति विशेष
|
फल
|
सूर्य - माणिक्य
|
अष्टमेश, तटस्थ
|
सम
|
चंद्र – मोती
|
सप्तमेश, केंद्रश, तटस्थ
|
सम
|
मंगल – मूंगा
|
बाधक, सुखेश
|
अशुभ
|
बुध – पन्ना
|
भाग्येश, षष्ठेश
|
सम
|
गुरु – पुखराज
|
अकारक, व्ययेश
|
अशुभ
|
शुक्र – हीरा
|
योगकारक, कर्मेश, मित्र
|
अतीव शुभ
|
शनि – नीलम
|
लग्नेश, धनेश, कारक
|
शुभ
|
कुंभ लग्न :
ग्रह – रत्न
|
स्थिति विशेष
|
फल
|
सूर्य - माणिक्य
|
सप्तमेश, तटस्थ
|
सम
|
चंद्र – मोती
|
षष्ठेश, अकारक
|
अशुभ
|
मंगल – मूंगा
|
केन्द्रेश, तृतीयेश, शत्रु
|
अशुभ
|
बुध – पन्ना
|
पंचमेश, अष्टमेश
|
सम
|
गुरु – पुखराज
|
मारक, एकादशेश
|
अशुभ
|
शुक्र – हीरा
|
योगकारक, सुखेश, भाग्येश
|
अतीव शुभ
|
शनि – नीलम
|
कारक, लग्नेश, व्ययेश
|
शुभ
|
मीन लग्न :
ग्रह – रत्न
|
स्थिति विशेष
|
फल
|
सूर्य - माणिक्य
|
षष्ठेश, तटस्थ
|
सम
|
चंद्र – मोती
|
पंचमेश, कारक
|
शुभ
|
मंगल – मूंगा
|
भाग्येश, धनेश, मारक
|
सम
|
बुध – पन्ना
|
बाधक, मारक, चतुर्थेश
|
अशुभ
|
गुरु – पुखराज
|
योगकारक, लग्नेश, कारक
|
अतीव शुभ
|
शुक्र – हीरा
|
अकारक, अष्टमेश, पराक्रमेश
|
अशुभ
|
शनि – नीलम
|
लाभेश, व्ययेश
|
अशुभ
|
Share:
8 टिप्पणियां:
जानकारी के लिये आभार.
अच्छी जानकारी दी आपने ।
अन्नपूर्णा
महाशक्ति जी समझ नही आता था कि इन सब बातों पर विश्वास किया जाये या नही मगर आज आपकी पोस्ट पढ़कर कुछ विश्वास होने लगा है ...मुझे इस विषय पर और जानकारी चाहिये...आपके पास है तो इन्तजार रहेगा आपकी अगली पोस्ट का...
शानू
एक बात और आपसे दिल्ल्ली में मुलाकात करके बहुत अच्छा लगा...
शानू
अरे वाह जी क्या बात ह,कया गियर मोडा है .बहुत अच्छा लेख..:)
आपने यहां बहुत अच्छी जानकारी दी है
bahut hi acchi jankari. hamare purane jyotishachary ne jo kaha hi vah kahi na kahi jaroor sach hota hai.
sunita ji seshamat hoon
एक टिप्पणी भेजें