मै पिछली बारके यात्रा वृतान्त में शैलेश जी के घर पर था और मैन कहा था कि मै अगले हिस्से में इण्डिया गेट का वर्णन करूँगा। यह पढाव इतना कष्टकारी और अकेलापन महसूस करायेगा मैने सोचा भी नही था। सुना था कि दिल्ली वालों के पास दिल होता है किंतु शायद यूपी की मिलावट के कारण वह दिल चोट पहुंचाने वाला निकला। मैने सोचा था कि मै अपनी यात्रा वृतांत के इस भाग को नहीं लिखूँगा किन्तु बाद में लगा कि बिना लंका कांड के रामायण भी अधूरी ही रहेगी।
आइये फिर चलते है इण्डिया गेट। लगभग 4 बजे 20-25 किमी की यात्रा समाप्त करने के बाद हमने कुछ देर आराम किया। तभी अनुमान हुआ कि शैलेश के यहां ठहरे अन्य बंधु इण्डिया गेट की ओर भ्रमण करने का कार्यक्रम बना रहे है। तभी शैलेश जी ने प्रस्ताव रखा कि आप भी जाना चाहते हो तो घूम आइये। हमें क्या था घूमने आये ही थे तो राजी हो गये। किन्तु जिनते विश्वास के साथ शैलेश जी ने हमें जाने के लिये उत्साहित किया था उतने उत्साह में ले जाने वाले नहीं थे। और वे लोग हमें लिये बिना चले भी गये और हम दोनों कमरे पर ही रह गये। यहीं से पराये शहर में अपनेपन की कमी या फिर कहें कि स्पष्ट अलगाव दिखने लगा था फिर क्या था मै और तारा चन्द्र ने हार नहीं मानी और शैलेश जी रूट मार्ग की जानकारी लेकर चल दिया भ्रमण करने भारत-द्वार का।
कमरे से निकलने पर पैर में दोपहर का थकान का अनुभव हो रहा था किन्तु चेहरे पर इसकी छवि जरा भी नहीं दिख रही थी, शायद यह दिल्ली भ्रमण की समय की कमी के कारण ही था। हम लोग बस स्टैड पर पहुँच गये जहॉं से हमें इण्डिया गेट के लिये जाना था। वहां पर हमसे पहले शैलेश जी के कमरे से निकली टोली मौजूद थी हमारे बीच किसी प्रकार की कोई बातचीत नहीं हुई, और मैने भी करना उचित नहीं समझा क्योंकि मुझे अनुभव हो गया था कि जब कोई हमें साथ ले जाने को तैयार नही है तो उनके व्यक्तिगत यात्रा को क्यों कबाब में हड्डी बन कर खराब किया जाये। जैसा कि मैने फोन पर आलोक जी से रात्रि 8:30 इण्डिया गेट पर मिलने का समय दिया था। इसलिए हम लोगों ने बस पर ही योजना बना लिया था कि हम पहले राष्ट्रपति भवन की ओर जाएंगे फिर लगभग 8 बजे रात्रि राष्ट्रपति भवन से इण्डिया गेट की ओर वापसी करेंगे। ताकि आलोक जी से मुलाकात हो सके। बस की योजनाएं योजनाएं ही रह गई और लगभग 6 बजे हम लोग कृर्षि भवन पर उतर चुकें थे और राष्ट्रपति भवन की ओर जाने लगे, वह मंडली भी हम लोगों के बाद उतरी तथा सड़क पार कर इण्डिया गेट की ओर जाने लगी, तभी तारा चंद्र ने मुझसे कहा कि वह लोग हमे बुला रहे है।
मै भी वापस इण्डिया गेट की ओर चलने लगा तब तक ट्रफिक चालू हो चुका था जिस कारण हम पार करने में 3-4 मिनट का समय लग गया था। और वे लोग हमारा इन्तजार किये बिना ही चल दिये और जब हम सड़क पार किया तो वे लोग भरी भीड़ में लगभग 200 मीटर से अधिक दूरी पर थे। फिर मुझे उनकी बेरूखी का अनुभव हो गया था। फिर हमने अपना रास्ता अपना लिया टहलते हुऐ हम लगभग 7:30 बजे इण्डिया गेट पर पहुँच गये थे। वहॉं का नाजरा बहुत ही मनमोहक था एक बिना उत्सव का जनसैलाब देखकर मन में अतीव प्रसन्नता हो रही थी। पर कहीं से दिल में एक सिकन थी इतने लोगों को अपने परिवार के साथ देख अपने आप अकेले होने का, पर क्या कर सकता था। बस याद करके ही रहा गया। फिर मैने अपने घर पर फोन मिलाया और सभी से बातें की और अभी तक जितना भी इण्डिया गेट पर देखा सबको बताया भी, एक प्रकार से फोन पर मै लाइव कमेन्ट्री कर रहा था। घर पर बात कर थोड़ा सूकून का अनुभव कर रहा था। जब मै यह सब करने में व्यस्त था तो तारा चन्द्र जी एक मीडिया चैनल के खुलासे का वर्णन का दर्शन कर रहे थें। फिर पल पल का समय भारी पढ रहा था। मैने पिछले आधे घंटे में आलोक जी को दर्जनों काल की कब आ रहे है।
इस दौर मे मैने अरूण जी से बात करने की कोशिश की तो भी निराशा हुई उन्होंने फोन उठाया और कहा प्रमेन्द्र भाई भाई मै अभी मै विशेष मीटिंग में हूँ बाद में काल कीजियेगा। उनकी यह बात अकेले कचोटते मन पर एक और प्रहार करती है। लगभग 8:30 आलोक जी का कॉल आया और मैने उसे काट कर तुरन्त कॉल बैक किया क्योंकि मुझे रिसीविंग करने पर ज्यादा पैसा देना पर रहा था। मुझे यह कॉल एक विशेष पर की खुशी दे गई, आलोक जी का उत्तर था कि मै आ गया हूँ। मै ठेठ पूर्वी उत्तर प्रदेश की भाषा का प्रयोग कर जिससे वहां के लोगों के चेहरे पर मेरी वजह से थोड़ी मुस्कान भी दिखी। आलोक जी ने कहा भाई आप कहां है? मै उत्तर दूँ भी तो क्या? इनती बड़ी भीड़ मे एक दूसरे को खोजना कठिन काम था, वो भी तब जब आप एक दूसरे के चेहरे से वाकिफ न हो। फिर मैंने तपाक से जवाब दिया कि भाई जो तीन ठौ झन्डवा दिख रहा है ठीक वही के सामने मिलते थे। मैने तारा चंद्र को बुलाया जो मीडिया में दिलचस्पी ले रहे थे। और झंडे की ओर चल दिया वहां पर पहले से मौजूद आलोक जी ने जय श्री राम शब्द के उद्घोष के साथ गले मिल कर एक दूसरे का अभिवादन किया। अब तक यह यह वाक्या मुझे काफी कुछ सिखा चुका था, शायद कुछ ज्यादा ही, वो था अपने और पराये में फर्क। जिनके साथ मै था वह बात न मिली जो एक पल में मिले आलोक जी से मिली। मै कह सकता था कि वक्त ने भी हमें सब रंग दिखाये। मेरी इस पहली यात्रा में मेरा मेरे साथ मेरा मित्र( तारा और आलोक) न रहा होता तो मै तो इस यात्रा से टूट ही गया होता। जो भी मेरे साथ वाक्या हुआ मैने यह सब किसी से कहना उचित नही समझा।
मै घर से इतनी दूर अपनत्व पाने के लिये गया था न किसी बौरहे पागल की तरह घूमने। अब मुझे लग रहा है कि इस पोस्ट में बहुत कुछ ज्यादा लिख गया हूँ वह सब जो मैने उस दौर में महसूस किया था, दिल चाह रहा था कि इसी पोस्ट में आलोक जी के साथ घूमने का भी वर्णन कर दूँ। पर इतना अधिक हो जायेगा तो मजा नहीं आयेगी। तो ठीक है अगली कड़ी में मै आपको बताऊँगा कि रात्रि 8:30 से 11:00 बजे तक हमने क्या किया ? यह सब अगली कड़ी में।
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7 टिप्पणियां:
चलिये अगली कड़ी क इंतजार रहेगा. और खुशी की बात है आप आलोकभाई से मिल लिये, हमारी यह कामना तो अधुरी ही रही है.
संजय भाई नमस्कार,
आपको बता दूँ कि यह चिट्ठाकारी वाले आलोक जी नही है। यह मेरे खास मित्र है।
ह्म्म, चलिए मुलाकात तो हुई आपकी!!
अगली किश्त का इंतज़ार रहेगा!!
अगली कड़ी क इंतजार है.
सुंदर वर्णन है परमेन्द्र जी। इसकी अगली कड़ी का इंतज़ार रहेगा।
खूब, भई दिल्ली आए और बिना मिले चले गए ये बात अपने को भी अच्छी नहीं लगी!! इतने भी बुरे नहीं हैं अपन!! :)
बाकी यही कहूँगा कि अधिक भावुक न हों, जो मिला उसकी खुशी याद रखें, जो नहीं मिला उसको भूल जाएँ और अगली बार की आस रखें। :)
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