अनुगूँज को लेकर बातें खत्‍म नही हुई हैं

अनुगूँज को लेकर मेरी पिछली पोस्ट ने एक बार फिर से चिट्ठाकारों के मध्य उत्पन्न खाई को दर्शाती है। इसमें मै किसी व्यक्ति विशेष को दोष नहीं दूँगा। अनुगूँज के सम्बन्ध में उठाये गये प्रश्‍न वास्तव में कई प्रश्‍न ले कर आते है। अनुगूँज में मतभेद को लेकर कई वरिष्ठ चिट्ठाकारों ने भी अपनी चिन्ता जाहिर किया है। मुझे रोष इसलिए भी था कि मेरी प्रथम भागीदारी में मुझे नकारा गया। मै किसी के प्रथम को बहुत महत्व देता हूँ। किसी के असफल प्रथम प्रयास को भी अगर प्रोत्साहित किया जाये तो निश्चित रूप आगे आने वाले परिणाम सदैव सार्थक होंगे।
अनुगूँज सम्बन्धी पोस्ट पर मैने एक साथ कई बाते रख दी जो वास्तव में कई बातों को सामने लेकर आई है। आज जो प्रश्न है कि क्या एक ब्‍लागर दूसरे की सफलता से खुश है तो मेरा मानना है कतई नहीं, आज एक ब्‍लागर दूसरे के विचारों को इतना द्वन्द ले रहा है कि वह आपसी सौहार्द को भूल जाता है। तो कभी कभी ऐसी अभद्र टिप्‍पणी देखने को मिलती है अनैतिक होती है। अनैतिक काम भी करना ठीक है किन्तु नैतिकता का जामा पहन कर मन में राम बगल में छुरी की धारणा गलत है। अक्सर देखने में आता है कि ब्‍लागों पर बहुत ही अभद्र अभद्र टिप्‍पणी आ जाती है जो यह दर्शाता है कि हॉं आज के दौर मे ऐसे लुच्‍्चों की कमी नही है।
कुछ वरिष्ठ चिट्ठाकारों ने टिप्पणी के माध्यम से प्रश्न किए थे उनका उत्तर भी देना चाहूँगा। 


 
आपने कहा मैने कहा
arvind mishra said...
anugoonj bhalaa kya hai ?kya yah koi saahityik abhiyaan hai ?
मित्र आप इसे साहित्यिक अभियान का नाम भी दे सकते है, इसका आयोजन समय समय पर, किसी एक ब्‍लागर द्वारा किया जाता है जो अपनी विषय निर्धारित करता है सभी अन्‍य ब्‍लागर बंधु उस पर लेख लिखते है, आप भी चाहे तो इस बार के अनुगूँज में भाग ले सकते है।
मै अनुगूँज का महत्व भारतीय क्रिकेट की टीम की कैप तरह मानता हूँ, जिसे हर खिलाड़ी पहनने की इच्छा रखता है, ठीक उसी प्रकार अनुगूँज में भाग लेने के सम्बन्ध में मेरे विचार है।
Shiv Kumar Mishra said...
प्रमेन्द्र जी,
आपका कहना एक दम ठीक है. वैचारिक मतभेद कभी भी एक दूसरे को इज्जत देने में आड़े नहीं आना चाहिए. आपका नया ब्लॉग बहुत ही बढ़िया लगा मुझे. उसमें जिस तरह से विभिन्न विषयों पर लिखा जाता है, वो वाकई में तारीफ के काबिल है.
रही बात लिंक देने या नहीं देने की, तो ये कोई बहुत बड़ी बात नहीं है. आप अच्छा लिखते हैं और इतने सारे विषयों पर लिखते हैं कि आपके पाठक बहुत हैं. अनुगूंज में शामिल न होइए लेकिन अपनी लेखनी चलाते रहिये क्योंकि आपके लेखों का इंतजार बहुत लोगों को रहता है.

श्री शिव कुमार मिश्र जी
मैने अपनी चिट्ठाकारी के जीवन में बहुत विवादों को झेला है और कईयों से अपने विभिन्न व्यवहारों के कारण विवादों का सामना भी किया किन्तु कभी किसी को अपशब्द नही कहा, किसी को सम्‍मान देने में कमी नही किया। मुझे जानकर अच्छा लगा कि आपको मेरा लिखा अच्‍छा लगता है,इससे बड़ी सम्‍मान की बात मेंरे लिये क्‍या होगी। लिंक दिया जाना उतना महत्‍वपूर्ण प्रश्‍न नही है जितना लिंकों को हटाया जाना है।
Sunil Deepak said...
परमेंद्र जी, इतना गुस्सा वह भी टिप्पणी न मिलने का? टिप्पणी न होने का यह अर्थ नहीं कि किसी ने पढ़ा नहीं. कभी कभी आलस के मारे में टिप्पणी न लिख पाते पर इसमें गुस्से से अपना खून जलाना ठीक नहीं. :-)
श्री सुनील दीपक जी,
क्षमा चाहूंगा , आपने पोस्ट पढ़ने में भूल की है। मेरा क्षोभ टिप्पणी को लेकर नहीं है। पाठक का आना टिप्पणी पाने से ज्यादा सार्थक होता है। एक सार्थक टिप्‍पणी पूरे लेख को धन्य कर देती है।
काकेश said...
आपकी बात से सहमत हूँ. मैंने पहले भी इस तरह की गुटबाजी के प्रति लिखा था. आप तो बस लिखते रहिये.धीरे धीरे टिप्पणीयां भी बढ़ जायेंगी.
श्री काकेश जी,
मै जून 2006 से इस चिट्ठाकारिता का कीड़ा मुझमें रेंग रहा है। और शायद मै आपसे पहले से इस कार्य को कर रहा हूँ किन्तु इस डेढ़ साल में मैंने यही पाया कि कुछ लोगों में में तो परस्पर प्रेम भावना है और एक दूसरे के मदत को अग्रसर रहते है किन्तु कुछ ऐसे भी है जो अपना काम तो साधते है किन्तु दूसरे का न सधे यह प्रयासरत रहते है। गुटबाजी का दौर तो जून 2006 में भी था जब मै नया नया आया था, और आज भी है। आज स्थिति सोवियत रूस और अमेरिका वाली रह गई है, और इसमें पीसने का प्रयास उसे किया जा रहा है जो तटस्थ है।
Pratik said...
भाई, हर बार भिन्न व्यक्ति अनुगूंज आयोजित करता है। पहले आपकी पोस्ट शामिल नहीं हुई, इसका मतलब यह नहीं है कि आगे भी शामिल नहीं की जाएगी। लोग अलग, सोच अलग।
भाई प्रतीक जी, अगर कोई कार्य सामूहिकता में किया जाय तो उसमें सभी को प्रतिभाग का अवसर दिया जाना चाहिए, अगल अगर व्यक्ति पर निर्भर करता है कि किसी को जगह मिले किसी नहीं तो इसे सामूहिक आयोजन नहीं मानना चाहिए।
शास्त्री जे सी फिलिप् said...
प्रिय परमेंद्र,
कुछ व्यावहारिक तरीके से सोचो !
1. एक बार में किसी के बारे में कोई राय न बनाओ. कम से कम तीन बार कोशिश करने के बाद ही किसी के विरुद्ध राय बनानी चाहिये. (अनुगूंज से मेरा कोई संबंध नहीं है अत: यह एक निर्गुट राय है).
2. अपने चिट्ठे पर आपने कई ऐसे चिट्ठों को कड़ी दी है जो कभी किसी को भी कडी नहीं देते. तो फिर शिकायत क्यो ?
3. सारथी जैसे "निर्गुट" चिट्ठे को आपने एक भी कड़ी नहीं दी है (कम से कम मुझे तो नहीं दिखा) वर्ना मुख्यपृष्ठ पर ही हम आपके चिट्ठे को सजा देते. ऐसा हम हर उस चिट्ठे के लिये करते हैं जो हमे कड़ी देता है -- शास्त्री
हिन्दी ही हिन्दुस्तान को एक सूत्र में पिरो सकती है.
इस काम के लिये मेरा और आपका योगदान कितना है?

श्री शास्‍त्री जी,
1. यह किसी से व्यक्तिगत आक्षेप नही है बल्कि समूहिकता को बढ़ावा देने का प्रयास है, मै तीन बार सोचने की बात पर ध्यान देंगे।
2. अक्सर मै जिन चिट्ठों पर जाना होता है या बिलकुल नये है उन्‍हीं को मैंने अभी तक जगह दी है, चूंकि मेरा लेखन ज्यादा लिंक करने वाला नहीं है, और जहाँ कि मै किसी व्यक्ति को लिंक करने वाला लेखन करता भी हूँ तो शीघ्र उपलब्ध होने वाले लिंक को जगह दे देता हूँ। साथ ही साथ अगर भूल भी जाता हूँ तो किसी के याद दिलाने अथवा लिंक दिये जाने पर तुरंत डाल देता हूँ।
3. चूंकि मैंने पहले भी कहा है कि मेरा लेखक लेख में लिं‍किंत करने वाला नहीं है। न ही कभी आपके बारे में लिखने का मौका मिला न ही आप लिंक हुए। और बात रही साइड में लिंक देने की मै सदैव तत्पर हूँ, सभी के लिंक देने के लिये, बशर्ते वह मेरा भी लिंक जरूर दे। जो मेरा लिंक नही भी देगें मै उन्‍हे एक माह तक जरूर अपने ब्लॉग पर जगह दूंगा। जिन दिन भी मैने लिंक डालूँगा आप अपने जो भी लिंक हो भेज दीजिये मै दे दूँगा।


Gyandutt Pandey said...
ऐसा है तो आपके साथ निश्चित गलत हुआ। मुझे आपसे सहानुभूति है।
श्री ज्ञानदत्त पाण्डेय जी, आपका हार्दिक धन्यवाद, जरूरत है गलत व्यवस्था के खिलाफ आवाज उठाने की।
और जहॉं तक मुझे याद है कि आपने एक लेख में अभद्र टिप्‍पणी के सम्बन्ध में लिखा था। और मेरी समस्या को लिंक किया था। आपने अभद्र टिप्‍पणी से पीड़ित होकर ही ब्लॉग को मडरेट मोड में डाला था।
Sagar Chand Nahar said...
ऐसा नहीं चलेगा.. जिस दिन हम अनूंगूंज आयोजित करेंगे उस दिन आपको लिखना ही पड़ेग यह हमारा आदेश है। समझे... :)
(स्माईली लगा दी है )
अब मुस्करा भी दो भाई।

श्री सागर भाई, मेरा बहिष्कार सिर्फ वर्तमान अनुगूँज के लिये है, वह भी केवल विरोध स्वरूप जब आप आयोजन करेंगे तो मै जरूर शामिल होऊंगा। :) अगर आपका विषय गांधी जी होगा तो मजा आयेगा :D
Sanjeet Tripathi said...
बंधु, यदि पक्षपात हो रहा है, और आपकी टिप्पणियां वहां से हटाई जा रही है तो यह तो गलत बात है!!
श्री संजीत भाई, मैने वहां टिप्पणी की थी अब चाहे वह किस प्रकार हटी मै नही जानता किंतु इतना जरूर था कि मेरी टिप्पणी वहॉं थी।

कल मेरे इस शिकायती लेख के बाद श्री आलोक जी जो कि उस अनुगूँज के आयोजक थे, उन्‍होने खेद प्रकट किया और अपने खेद पत्र का सार्वजनिक करने को भी कहा, उनके इस पत्र में मेरा हृदय भी काफी दुख हुआ, किन्तु मै सामूहिकता में किसी एक को दोष नही दूँगा। श्री आलोक जी आयोजक मात्र थे और अयोजक की कोई गलती नही है, क्योंकि आयोजक की अपनी सीमाएं है। श्री आलोक जी के प्रति मेरे हृदय में सम्मान है और सदा रहेगा। मेरे इस विरोध को किसी के द्वारा व्यक्तिगत नही लिखा जाना चाहिए। बस उद्देश्य इतना ही है कि सामूहिकता में षयन्‍त्र की कोई जगह न हो। मेरे इस लेख से कई नई बातें सामने आई है और कई मित्र इससे सीख लेकर किसी प्रतिद्वंद्विता में शामिल न होकर, सामूहिकता और सहयोग को बढ़ावा देंगे। अभी बातें खत्म नहीं हुई और निश्चित रूप से गलत काम के खिलाफ बात खत्म नहीं होनी चाहिए।

8 टिप्‍पणियां:

  1. भाई प्रमेन्द्र जी,

    आप की शिकायत सर्वथा जायज हैं. आप और आपके समूह में शामिल सारे चिट्ठाकार भाईयों का योगदान हिन्दी चिट्ठाकारिता में महत्वपूर्ण रहा है और आगे भी रहेगा. जहाँ तक अनुगूंज की बात है तो हिन्दी चिट्ठाकारिता में अनुगूंज आखिरी बात नहीं है.

    आप तो इलाहबाद के हैं. तो अपने क्षेत्र के इस मुहावरे से भी भली भांति परिचित होंगे ही....हम लोग कहते हैं न

    कहेन कबीर जाई द बही
    जबसे चेता तबसे सही

    इसी बात को ध्यान में रखते हुए मैं आगामी अनुगूंज के आयोजकों से अनुरोध करूंगा कि वे अपनी गलतियों को सुधारें. आप बहुत अच्छा लिखते हैं, इसमें कोई दो मत नहीं है. आगे भी लिखेंगे ऐसी आशा हम सब को है.

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  2. " सागर भाई, मेरा बहिष्‍कार सिर्फ वर्तमान अनूगूँज के लिये है, वह भी केवल विरोध स्‍वरूप जब आप आयोजन करेगें तो मै जरूर शामिल होऊँगा। :) अगर आपका विषय गांधी जी होगा तो मजा आयेगा :"

    भाई प्रमेन्द्र जी,
    उपरोक्त पंक्तियाँ आपकी पोस्ट से ली गई है. अनूंगूंज के बारे मे मैं भी ज्यादा नही जानता पर सिर्फ़ इतना कहूँगा कि गांधी जी मज़ा का विषय नही है उससे बहुत आगे और बहुत ऊपर है. जरा अपनी बात पर एकबार फ़िर विचार कीजियेगा.

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  3. Aadarneey Bal Kishan ji,

    Gandhi ji ke prati aapki shraddha theek hai.

    Lekin aaj ki yuva peedhi Gandhi ji par bhi bahas chaahti hai. Agar aap isi blog par ek post dekhe to aapko Orkut par kiye gaye ek survey ka result milega jo ki apane aap mein ek dastaavej hai.

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  4. आदरणीय Anonymous जी,
    सौ-पचास लोगों के प्रलाप को दस्तावेज़ कहते है मुझे आपकी समझ पर तरस आता है. इस तरस को रस मे डुबो सकूं जरा अपनी पहचान बताएं.

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  5. @ बालकृष्‍ण जी, यह मेरी और सागर भाई का व्‍यक्तिगत मामला है। जो मैने गांधी जी के विषय में कहा है। मजा से तात्‍पर्य हास्‍य विनोद से न होकर सार्थक चर्चा है। जहॉं तक अनाम भाई को जो उत्‍तर आपने दिया है, कि 100-50 लोगों के दस्‍तावेज की बात तो यह सर्वेक्षण करीब 1200 के मध्‍य में था, जिसमें करीब 200 लोगों ने पक्ष और विपक्ष में राय व्‍यक्त की है जो ज्‍यादा रोचक तथ्‍य लेकर आते है। चावल को पका है कि नही देखने के लिए पूरा चावल सउदने के बजाये एक दो चावल को मसलकर देखना पर्याप्‍त होता है। और पहचान छिपाने की बात है तो यह सुविधा जब ब्‍लाग कम्‍पनी देती है तो कोई उठा रहा है। पहचान सम्‍बधी आपकी मॉंग से मै सहमत नही हूँ।

    @ अनाम भाई, मै आपसे सहमत हूँ कि निश्चित रूप से गांधी जी चर्चा के विषय है। क्‍योकि जिन्‍हे हम महात्‍मा, राष्‍ट्रपिता कहते है और एक दिन की छुट्टी के मजे लुटते है, उसने बारे सही गलत जाने और राय देने का हक है।

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  6. प्रिय प्रमेंद्र

    मुझे अब समझ में आया कि आप लेख में लिंक देने की बात कर रहे है.

    लेख में लिंक देने से आपको वापस लिक कम ही मिलेंगे. चिट्ठे पर लिंक देने पर आपको अधिक मिलेंगे, बशर्ते आप ऐसे चिट्ठों को लिंक दें जो अपने चिट्ठे पर कडियां दिखाते हैं.

    सारथी के "सक्रिय चिट्ठे" मे (शीर्षपट्टी पर) आपके दो चिट्ठों की कडियां है -- शास्त्री

    हिन्दी ही हिन्दुस्तान को एक सूत्र में पिरो सकती है.
    इस काम के लिये मेरा और आपका योगदान कितना है?

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  7. प्रमेन्द्र भाई
    आपकी पिछली पोस्ट पर टिप्पणी करना चाहता था, कर नहीं पाया। मैं अक्तूबर 2005 से चिट्ठाकारी में हूँ और तब से ही पक्षपात झेल रहा हूँ। जब भी जिन 'वरिष्ठ' चिट्ठाकारों से मदद चाही, अधिकतर मायूसी ही हाथ लगी। इस चिट्ठाकारी में मौजूद प्रवृत्ति से हम समझ सकते हैं कि एक टीम में काम करना हम भारतीयों के लिए मुश्किल है, भले ही वो एक ही भाषा के क्यों न हों। कोई अचरज वाली बात नहीं कि हम सदियों गुलाम रहे हैं। गाँधी जी की महानता का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि वो ऐसी मानसिकता वाले लोगों को भी एकजुट और प्रेरित कर पाए।

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  8. लेकिन फिर भी कहूँगा कि अपना vision और इरादे ऊँचे रखो, ये लिंक, टिप्पणी आदि से ऊपर उठो।

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