जन्मदिवस पर विशेष - 11 दिसंबर 1915
शाम का समय था, कुछ युवक एकत्र होकर खेल रहे थे। खेल इतने उत्साह से चल रहा था कि खेलने हेतु किसी का भी मन आकर्षित कर लेता। वहीं मैदान के बाहर बैठा 11 वर्ष का बालक बड़े मनोयोग से वह खेल देख रहा था। वह बालक रोज समय पर पहुँचता और पूरे समय बैठकर खेल देखा करता था। परन्तु, इतने से उसे संतोष नहीं था। वह स्वयं भी खेल में सम्मिलित होना चाहता था। एक दिन उसने खेल का संचालन कर रहे प्रमुख के सामने अपनी इच्छा प्रकट कर ही दी। उसने कहा 'आप इन लोगों को खेल खिलाते हैं, मुझे भी खिलाइए।' संचालक ने इस बालक की बात बड़े ध्यान से सुनी और अपनी धीर-गंभीर वाणी में कहा-'तुम बहुत छोटे हो और ये लोग आयु में तुमसे काफी बड़े हैं। तुम इनके साथ कैसे खेलोगे?' यह उत्तर सुनकर वह निराश नहीं हुआ। उसने बड़े साहस के साथ कहा—'तब आप छोटे बच्चों को अलग से क्यों नहीं खिलाते।' अब चौंकने की बारी संचालक महोदय की थी। उन्होंने कहा—'अच्छा तुम अपनी आयु के बालकों को अपने साथ लेकर आओ, फिर तुम्हें भी खिलाएँगे।' दूसरे ही दिन यह अपनी टोली लेकर संचालक के सम्मुख उपस्थित हो गया और उसी दिन से बालकों की यह टोली भी खेल में सम्मिलित हो गई। इनकी टोली को नाम दिया गया 'कुश पथक'। खेल के लिए आए इन बालकों को क्या मालूम था कि उनका यहाँ खेलने आना, उनके जीवन की दिशा ही बदल देगा। आगे चल कर कुश पथक का लगभग प्रत्येक सदस्य राष्ट्र की नींव का आधार स्तम्भ बना। यह क्रीड़ा-स्थल युवकों का कोई अखाड़ा मात्र नहीं था और वह संचालक थे राष्ट्र को सबल और सशक्त बनाने वाले डॉक्टर हेडगेवार थे। उन्होंने व्यक्ति को पहचानने की अपनी अद्भुत कला के कारण इस बालक के अंदर छिपी प्रतिभा को पहचान लिया। पहले ही दिन आपकी वाक्पटुता से संघ संस्थापक को प्रभावित करने वाला यह बालक आगे चलकर विश्वव्यापी संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का सरसंघचालक बना।बाला साहब पूरा नाम मधुकर दत्तात्रेय देवरस था लेकिन सब उसे बालासाहब कह कर पुकारते थे। इसलिए सरसंघचालक बनने के बाद भी वे इसी नाम से जाने जाते रहे। बाला साहब देवरस जी, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तृतीय सरसंघचालक थे। श्री बाला साहब देवरस का जन्म 11 दिसम्बर 1915 को नागपुर में हुआ था। उनका परिवार मूलरूप से मध्यप्रदेश के बालाघाट जिले के का रहने वाला था। उनके पिताजी नागपुर आकर बस जाने के कारण वे नागपुर के हो गए थे। उनकी सम्पूर्ण शिक्षा नागपुर में ही हुई। उनकी कुशाग्र बुद्धि को देखते हुए उनके पिता जी उनको बड़ा अफसर बनाना चाहते थे। उनको अंग्रेजी स्कूल "न्यू इंगलिश स्कूल" मे पढने भेजा। लेकिन जब डा. हेडगेवार जी ने नागपुर में आरएसएस की स्थापना की, तो वे शाखा में जाने लगे किन्तु संघ की शाखा में जाने के बाद उनका अंग्रेजी से मोह भंग हो गया। अब उन्होने अपना लक्ष्य, सरकारी नौकरी के बजाय भारतीय प्राचीन ज्ञान को जन जन तक पहुंचाना बना लिया। इस उद्देश्य के लिए उन्होंने संस्कृत और दर्शनशास्त्र विषय लेकर पढ़ाई शुरु की और 1935 मे उन्होंने संस्कृत और दर्शन शास्त्र में बी. ए. और 1937 में उन्होंने लॉ की डिग्री हासिल की। विधि स्नातक बनने के बाद बाला साहेब ने दो वर्ष तक एक 'अनाथ विद्यार्थी बस्ती' मे निशुल्क अध्यापन का कार्य किया। वे पढ़ाई करने के साथ साथ संघ से समय समय पर मिलने वाले दायित्वों को पूरी निष्ठा से निभाते रहे। उनकी क्षमताओं को देखते हुए "श्री गुरुजी" उनसे बहुत स्नेह करते थे।
बालासाहब संघ का केवल स्वयंसेवक ही नहीं बने बल्कि उन्होंने स्वयंसेवकत्व को अपने अंदर पूर्णत: आत्मसात् किया। बालासाहब बचपन से ही बहुत कुशाग्र बुद्धि के थे। अपना अधिकांश समय वे खेलकूद में बिताते थे, परन्तु परीक्षा में सदैव प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण होते थे। मेधावी होने के कारण उन्होंने कई बार स्वर्ण-पदक प्राप्त किए। लेकिन उन स्वर्ण पदकों से कोई आसक्ति नहीं थी। वे उनका सोना निकलवाकर गुरु दक्षिणा में अर्पित कर देते थे। वे पोस्ट ग्रेजुएट थे और वकालत की शिक्षा भी प्राप्त की थी, परन्तु कभी नौकरी अथवा वकालत नहीं की। हाँ! डॉक्टर जी के कहने पर कुछ समय तक वे एक अनाथ विद्यालय में समाजसेवी के रूप में पढ़ाते रहे। जब वे नागपुर की इतवारी शाखा के कार्यवाह थे, तब उनकी शाखा युवकों के चैतन्य व कर्तृत्व का प्रत्यक्ष प्रमाण थी। उनके नेतृत्व में शाखा में नित नये कार्यक्रमों का आयोजन होता था। शाखा क्षेत्र में रहने वाले प्रत्येक परिवार से संजीव संपर्क रखना, उन्हें संघ से परिचित कराना और वार्षिकोत्सव कर उसमें सबको आमंत्रित करना उन्होंने ही प्रारंभ किया था। इस पद्धति का अनुकरण बाद में नागपुर की अन्य शाखाओं ने भी किया। संघ शाखा में सीखी प्रत्येक बात को वह अपने व्यवहार में भी उतारते थे।
1935 की घटना है। उस समय तक संघ की शाखाएँ नागपुर व उसके आसपास, विदर्भ और महाराष्ट्र में कई स्थानों पर लगती थीं। डॉक्टर जी संघ शाखाओं का जाल देशभर में फैला हुआ देखना चाहते थे इसके लिए कार्यकर्ताओं को अलग-अलग प्रांतों के प्रमुख नगरों में जाने की आवश्यकता थी। डॉक्टर जी ने अपनी यह पीड़ा एक बैठक में प्रकट की। बैठक के पश्चात् रात को जब वे घर पहुँचे, तब यह देखकर आश्चर्यचकित रह गए कि कई बिस्तरे उनके कमरे में रखे हुए हैं। उन्होंने बाहर बैठे हुए युवकों में से एक को अंदर बुला कर इसका कारण पूछा। तब उसने बताया कि संघ का कार्य करने के लिए अन्य प्रांतों में जाने के लिए वे आए हैं। इस टोली के नायक बालासाहब ही थे। जब वे नागपुर के नगर कार्यवाह थे, तब उन्होंने प्रत्यक्ष संघ कार्य के अतिरिक्त संघ कार्य को कार्यान्वित करने वाली विभिन्न संस्थाओं की ओर भी ध्यान देना प्रारंभ कर दिया था। आगे चल कर उन्हें नागपुर के कार्यवाह की जिम्मेदारी सौंपी गई। अपनी कुशलता के कारण तरुण स्वयंसेवकों को देशकार्य के लिए अपना जीवन समर्पित करने की प्रेरणा देने में वह सिद्धहस्त थे। नागपुर से अधिक से अधिक शिक्षित और योग्य तरुण संघ कार्य के लिए अन्य प्रान्त में जाएँ, इसके लिए वह हमेशा प्रयत्नशील रहा करते थे। यहाँ भी उन्होंने केवल दूसरों को प्रेरणा देने का ही काम नहीं किया। एक दिन वे डॉक्टर जी के सम्मुख उपस्थित हुए और कहा- 'क्या मैं केवल दूसरों को ही प्रचारक के रूप में काम करने के लिए भेजता रहूँगा? मैं भी संघ कार्य की अभिवृद्धि करने के लिए किसी दूसरे प्रांत में प्रचारक के रूप में जाना चाहता हूँ।' डॉक्टर जी ने उन्हें बंगाल प्रांत में जाने के लिऐ कहा। वे सीधे घर गए और पिताजी को प्रणाम कर उनसे आशीर्वाद माँगा। एक पुत्र मुरलीधर (भाऊराव) पहले ही संघ कार्य के निमित्त लखनऊ जा चुका था। वह न घर आने का नाम लेता था और न ही नौकरी करने का। शादी-विवाह करने को भी तैयार नहीं था। अब दूसरा पुत्र भी बाहर जाने को उद्यत था। पिताजी खूब बिगड़े। उन्होंने संघ और बालासाहब को बहुत भला-बुरा कहा। बालासाहब ने फिर से उन्हें प्रणाम कर केवल इतना ही कहा- 'मेरा निर्णय पक्का है, मैं जा रहा हूँ।'
संघ की आर्थिक स्थिति प्रारंभ से ही कठिनाई में रही। इसलिए कोई भी योजना बनाते समय प्रमुख समस्या धन की रहती थी। संघ में आने वाले स्वयंसेवक भी सामान्य परिवारों से होते थे। अपना गणवेश बनवाना, प्रत्येक कार्यक्रम के लिए शुल्क देना, आने-जाने हेतु किराये की व्यवस्था आदि तो स्वयंसेवक स्वयं ही करता था। कुछ पैसे बचाकर वह गुरु दक्षिणा भी करता था। ऐसे में संघ का घोष खड़ा करना था। प्रश्न धन की व्यवस्था का था। बालासाहब ने उसके लिए भी युक्ति ढूंढ निकाली। नागपुर का बुटी परिवार जाना माना श्रीमंत परिवार था। उनके यहाँ धार्मिक उत्सवों पर ब्राह्मण भोजन हुआ करता था। संघ के स्वयंसेवक भी उस भोजन में शामिल होते थे। भोजन के अतिरिक्त सबको दक्षिणा भी मिलती थी। स्वयंसेवक दक्षिणा को घोष के लिए जमा करने लगे। इस प्रकार एकत्र धन-राशि से नागपुर शाखा के घोष की व्यवस्था की गई। बात उस समय की है जब बालासाहब सरकार्यवाह थे। नागपुर संघ कार्यालय के दूरभाष की घंटी बजने पर उन्होंने स्वयं उसे उठाया। दूसरी तरफ से एक शाखा का प्रमुख बोल रहा था। परन्तु जब उसने सुना कि दूरभाष पर स्वयं बालासाहब हैं, तो वह सकपका गया। उससे कुछ बोलते नहीं बन रहा था। बालासाहब ने उससे दूरभाष करने का कारण पूछा। उसने बड़े संकोच के साथ बताया कि ' आज हमारी शाखा का वनसंचार का कार्यक्रम है, लेकिन अभी तक कोई वक्ता निश्चित नहीं हो सका है।' यह सुनकर उन्होंने पूछा-'यदि मैं तुम्हारे कार्यक्रम में आऊँ तो चलेगा क्या?' यह उत्तर पाकर शाखा प्रमुख तो पानी-पानी हो गया परन्तु उसकी कठिनाई जानकर उन्होंने कहा-'कोई चिंता न करना, मैं तुम्हारे कार्यक्रम में पहुँच रहा हूँ।' सरकार्यवाह होते हुए भी वे एक उपशाखा के वनसंचार कार्यक्रम में शामिल होने के लिए तैयार थे क्योंकि प्रश्न एक शाखा प्रमुख की समस्या व समाधान का था।
यद्यपि श्रीगुरुजी सरसंघचालक बने, किन्तु उनका सदैव यह मानना रहा कि वास्तविक सरसंघचालक तो बालासाहब जी हैं। यह बात वे केवल अपने मन में ही नहीं रखते थे। समय-समय पर वे इस बात को सबके सामने प्रकट भी करते थे। वे कहा करते थे कि ' वे बालासाहब ही हैं जिनके कारण मैं सरसंघचालक जाना जाता हूँ।' श्रीगुरुजी कहा करते थे कि जिन्होंने पू. डॉ. हेडगेवार जी को नहीं देखा है अथवा जो डॉक्टर जी को समझना चाहते हैं, उन्हें बालासाहब की ओर देखना चाहिए। उनमें डॉक्टर जी के गुण पूरे-पूरे उतरे हैं। किसी पद की चाह उन्हें कभी नहीं रही। जब संघ के द्वितीय सरसंघचालक पूजनीय गुरुजी के देहावसान के पश्चात् उन्हें जानकारी मिली कि सरसंघचालक के नाते उन्हें नियुक्त किया गया है, तब उनकी पहली प्रतिक्रिया यह थी– 'श्री गुरुजी को तो मालूम था कि मेरी शारीरिक स्थिति ऐसी नहीं है कि मैं सरसंघचालक का महत्वपूर्ण दायित्व संभाल सकूं। मैं इस लायक कहाँ हूँ?' लेकिन एक बार दायित्व स्वीकार कर लेने के बाद उन्होंने अपने स्वास्थ्य की तनिक भी चिन्ता न करते हुए श्री गुरुजी की तरह ही प्रतिवर्ष दो बार संपूर्ण देश के प्रवास की प्रथा को यथावत् चलाया। वे कहा करते थे- मैं जानता हूँ कि मुझमें पूजनीय डॉक्टर जी और गुरुजी जैसी प्रतिभा नहीं है, लेकिन उन्होंने जिन देव-दुर्लभ कार्यकर्ताओं की टोली खड़ी की है, वह मुझे प्राप्त हुई है। उसके आधार पर मैं यह दायित्व निभा लूंगा।
सरसंघचालक बनने के बाद उन्होंने नये-नये कार्यक्रम चलाए। पंजाब के प्रवास में उन्होंने अनुभव किया कि अलगाव की भावना बढ़ रही है। नागपुर आते ही उन्होंने संस्कृत के विद्वान श्री श्रीधर भास्कर वर्णकर को बुला कर कहा कि-'सिख बंधुओं में अलगाव की भावना बढ़ रही है, एकात्मता की भावना को मजबूत करने के लिए हमें एकात्मता मंत्र की आवश्यकता है।' तब दर्शनों में उद्धृत ‘यं वेदिका मंत्र...' में परिवर्तन कर उसमें सिख गुरुओं, दक्षिण के संतों व अन्य महापुरुषों के नामों का समावेश कर नया मंत्र रचा गया। इसके पीछे मूल कल्पना बाबासाहेब आपटे की रही, पर इसे कार्यान्वित बाबा साहब ने ही करवाया। वही मंत्र आजकल शाखाओं में बोला जाता है। संघ में गीतों की प्रथा उन्होंने ही शुरू की। प्रारंभ में संघ के विजयादशमी व शस्त्र-पूजन उत्सव में तीन गीत गाये गये। उसका परिणाम स्वयंसेवकों व आमंत्रित सज्जनों पर बहुत ही प्रभावी रहा। तब से संघ कार्यक्रमों में गीत गाने का क्रम अनवरत रूप से चल पड़ा। उनका मानना था– गीत गाने में सरल और सुबोध हों ताकि वह सबको कठस्थ हो सके।
समरसता और समता के सीखे पाठ को उन्होंने अपने जीवन में भी उतारा और उसका प्रारंभ भी अपने घर से किया। उस काल की कल्पना की जा सकती है कि जब लोग सामान्य संबंध भी जाति पूछ कर ही रखा करते थे। बाला साहब के घर जब उनके स्वयंसेवक मित्रों की टोली आती थी, उसमें सब जाति और वर्ग के मित्र हुआ करते थे और बिना किसी भेदभाव के सबके साथ समान व्यवहार होता था। देवरस जी, छुआ-छूत के बहुत खिलाफ थे। वे कहते थे कि - अगर अस्पृश्यता पाप नहीं है तो दुनिया में कुछ भी पाप नहीं है। संघ के स्वयंसेवकों को एक दुसरे नाम को पुकारते समय, जाति के बजाय नाम में "जी" लगाकर पुकारने की परम्परा उन्होंने ही शुरू की थी। 1965 में उन्हें सरकार्यवाह का दायित्व सौंपा गया जो 6 जून 1973 तक उनके पास रहा। श्रीगुरूजी के स्वर्गवास के बाद 6 जून 1973 को सरसंघचालक के दायित्व को ग्रहण किया। उनके कार्यकाल में संघ कार्य को नई दिशा मिली। उन्होने सेवाकार्य पर बल दिया परिणाम स्वरूप उत्तर पूर्वाचल के साथ साथ, देश के वनवासी क्षेत्रों के हजारों की संख्या में सेवा कार्य आरम्भ हुए। उनके कार्यकाल में संघ का सर्वाधिक विस्तार हुआ। उन दिनों इंदिरा गांधी का शासन था, जो लोकतांत्रिक व्यवस्था के बजाय स्वयं की मर्जी से शासन चलाने में विशवास रखती थीं। अपनी मर्जी से राज करने तथा विरोधियों का दमन करने के उद्देश्य से 25 जून 1975 को इंदिरा गांधी ने देश में आपातकाल लगा दिया। रष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने इसका बिरोध किया तो इंदिरा गांधी ने संघ पर ही प्रतिबन्ध लगा दिया। स्वयंसेवको की धर पकड़ शुरु की। उनको निरपराध ही गिरफ्तार कर प्रताड़ित किया जाने लगा। इंदिरा गांधी ने संघ के हजारों स्वयंसेवको को "मीसा" तथा "डी आई आर" जैसे काले कानून के अन्तर्गत जेलों में डाल दिया। तब परम पूज्यनीय बाला साहब देवरस जी ने आपातकाल के विरोध में अखिल भारतीय स्टार विशाल सत्याग्रह प्रारम्भ कर दिया। उनके मार्गदर्शन में लाखों स्वयंसेवक इंदिरागांधी की निरंकुशता का बिरोध करने लगे। देवरस जी ने ही तत्कालीन "भारतीय जनसंघ" को अन्य कांग्रेस बिरोधी दलों को एक मंच पर लाने का निर्देश दिया। सभी कांग्रेस बिरोधी लोगों ने एक मच "जनता पार्टी" बनाकर 1977 में कांग्रेस को पराजित किया और जनता की सरकार बनाई। जनता पार्टी की सरकार बन्ने के बाद संघ से प्रतिबन्ध हटा। आपातकाल का बिरोध बहुत सारे गैर कांग्रेसी दलों ने किया था और सभी दलों के लोग जेल गए थे लेकिन कुल जेल जाने वाले सत्याग्रहियों में आधे से अधिक संख्या केवल अकेले "राष्ट्रिय स्वयंसेवक संघ के" स्वयंसेवकों की थी। लेकिन इसके बावजूद कांग्रेसी मूल के नेता संघ से नफरत करते रहे। जनता पार्टी की सरकार बनवाने ,में महत्वपूर्ण योगदान देने के बावजूद "जनता पार्टी" के कुछ नेता संघ से नफरत करते थे। जनसंघ के नेताओं पर दबाब बनाया जाने लगा कि - वे या तो संघ को छोड़ दें या जनता पार्टी को। जनसंघ के नेताओं ने भी स्पष्ट कर दिया कि - वे सत्ता छोड़ सकते हैं लेकिन संघ को किसी हाल में नहीं छोड़ सकते। इसी बीच चौधरी चरण सिंह जैसे कई नेता तो "जनता पार्टी" से गद्दारी कर इंदिरा गांधी से भी मिल गए थे। इंदिरा गांधी ने चौधरी चरण सिंह को प्रधान मंत्री बनवाने का लालच देकर जनता पार्टी को तोड़ दिया। तब बाला साहब देवरस जी के आशीर्वाद से ही जनसंघ के नेताओं में जनता पार्टी से अलग होकर, भारतीय जनता पार्टी नाम की नई पार्टी का गठन किया।
बाला साहब देवरस जी हमेशा जाति पात को छोड़कर हिंदुत्व को मजबूत करने की प्रेरणा देते थे। उन्होंने निर्धन बस्तियों में सेवा कार्य चलाकर धर्मान्त्रण को रोकना का कार्य किया। उन्होंने प्रांत स्तर पर तथा व्यवसाय के स्तर पर अनेकों अनुशागिक संगठन गठित किये, जो स्थानीय उद्देश्यों तथा व्यवसाय हितों को पूरा करते हैं। जब वे सरसंघचालक थे उन्हें कई पुरस्कार मिले। उन्होंने उनसे प्राप्त राशि विभिन्न संस्थाओं को सौंप दी। समाज से प्राप्त सम्मान को भी उन्होंने समाज को ही अर्पित कर दिया। जीजामाता न्यास ने उन्हें 'जीजामाता पुरस्कार' से सम्मानित किया। उन्होंने उसी दिन 'राष्ट्र सेविका समिति' की प्रमुख संचालिका ऊषाताई को बुलवाया और पुरस्कार में मिली राशि यह कहते हुए उन्हें सौंप दी कि इस पर आपका अधिकार है। जब उन्हें तिलक स्मारक संस्था की ओर से 'लोकमान्य तिलक' पुरस्कार मिला, उसे भी उन्होंने अभावग्रस्त किसानों के बीच काम करने वाले न्यास को सौंप दिया। संघ की कार्यपद्धति और कार्यक्रमों की तरह ही संघ में चली आ रही कुछ प्रथाओं को भी उन्होंने एक नई दिशा दी। संघ उत्सवों व कार्यक्रमों में पूर्व के दोनों सरसंघचालकों के चित्र लगाने का चलन था। इसलिए बालासाहब के सरसंघचालक बनने के बाद स्वयंसेवकों की इच्छा थी कि अब उनका चित्र भी रखा जाना चाहिए। परन्तु बालासाहब ने उसे रोक दिया। लम्बी शारीरिक अस्वस्थता और पक्षाघात के बाद उन्हें प्रवास करना तो दूर सामान्य जीवन जीना भी दूभर हो गया था। तब बिना किसी हिचकिचाहट के सरसंघचालक के आजीवन पद पर बने रहने की प्रथा को तोड़ते हुए, उन्होंने अपने स्थान पर अनुभवी व लोकप्रिय सहयोगी श्री रज्जूभैया की नियुक्ति की। उनका कहना था कि संघ का कार्य एक स्थान पर बैठकर अथवा प्रत्यक्ष जाकर देखे बिना करना संभव नहीं है। मेरी आज की शारीरिक अवस्था के कारण वह संभव नहीं है।
मधुमेह के कारण स्वास्थ्य गिर जाने पर उन्होंने स्वयंसेवकों से परामर्श कर, अपने जीवनकाल में ही, अपना दायित्व प्रो। रज्जू भैया को सौंप दिया। 17 जून, 1996 को उन्होंने अंतिम श्वास ली। उनकी इच्छानुसार उनका दाह संस्कार रेशीमबाग की बजाय नागपुर में सामान्य नागरिकों के श्मशान घाट में किया गया। हिंदुत्व के उत्थान में उनका योगदान सदैव याद किया जाता रहेगा। उन्होंने जाति को मिटाकर हिन्दू समाज को संगठित करने का संकल्प लिया था। आपातकाल का विरोध और अयोध्या आंदोलन में उनका बहुत योगदान था।
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