देवाशीष जी का साक्षत्कार पढ़ रहा था कि हिन्दी चिट्ठाकारी में मठाधीशी नही है किन्तु उनकी बातों में कितनी सच्चाई है, यह बात उनके कृत्यो के द्वारा पता चलता है। उक्त लेख पर मैने एक टिप्पणी चिट्ठाकार पर अपने प्रतिबन्ध को लेकर की थी और जानना चाहा था कि क्या वास्तव में चिट्ठाकारी में मठाधीशी नही है? उस टिप्पणी के प्रतिउत्तर में देबाशीष जी की जो प्रतिक्रिया मिली कि चिट्ठाकार गूगल समूह न होकर एक उनका व्यक्तिगत साईट है, और उस पर उन्हे पूर्ण मनमानी करने का अधिकार है। शायद आप सब को भी पता नही होगा कि जिस चिट्ठकार समूह के आप सदस्य है वह समूह देबाशीष जी की सम्पत्ति है और किस श्रेणी के लोगों को आने की अनुमति है और किस को नही। अब जरूरी है कि सच्चाई और वास्तविकता सामने आये।
अगर देवाशीष जी अपनी टिप्पणी को गौर से पढ़े और विश्लेषण करे तो निष्कर्ष यही आयेगा कि देबाशीष जी ने खुद की बातो को घता साबित किया है। देवाशीष जी की उक्त टिप्पणी निम्न है Debashish said...
प्रमेंद्र, आपने यह राज़ क्यों बनाये रखा मैं नहीं जानता। चिट्ठाकार पत्र समूह में कई बार कह चुका हूं, वह समूह कोई सार्वजनिक संपत्ति नहीं है, मेरी साईट है, इसकी नीति मैंने बनाई है जो http://groups.google.com/group/Chithakar/web/group-charter पर बड़े साफ शब्दों में लिखी है। स्पष्ट लिखा है कि समूह में "भड़काऊ, व्यक्तिगत आरोप प्रत्यारोप या धर्म जैसे संवेदनशील मसलों पर संदेश" वर्जित हैं और "ऐसे संदेश भेजने वाले सदस्य की सदस्यता बिना किसी चेतावनी के समाप्त कर दी जायेगी"। आपके और अन्य कुछ मामलों में यही किया गया। जो चार्टर से सहमत नहीं वो समूह में रह कर क्या करेंगे। यह आपकी अभिव्यक्ति पर रोक तो नहीं हैं क्योंकि ज़ाहिर तौर पर "चिट्ठाकार" कोई एकलौता मंच नहीं है जहाँ आप अपनी बात रख सकें, आपके अनेक चिट्ठे हैं, अन्य समूह भी हैं, नहीं हैं तो आप बना सकते हैं। आपको समान राय वाले समूह में ही रहना चाहिये, जहाँ मतैक्य न हों वहाँ क्यों रहना? यह जिद करना कि आप मेरी साईट पर आकर "मूंग दलेंगे" तो बचकानी जिद है। अपनी ही साईटों की नीति तय करना अगर आपकी दृष्टि में मठाधीशी है तो मैं आपकी सोच पर केवल तरस ही खा सकता हूं।
एक बात और जो मैं काफी दिनों से कहना चाह रहा था। मुझे विश्वास है कि आप चिट्ठाकारी में कुछ कहने आये हैं पर फिर ये शत्रुता का व्यवहार क्यों। हम दोनों एक दूसरे की विचारधारा से परीचित हैं यह तो अच्छी बात है, मैं कट्टर हिंदूवाद की विचारधारा से विरोध रखता हूं पर व्यक्तिगत तौर पर आग्रह नहीं पालता। मेरी बैंगानी बंधुओं और शशि सिंह से भी इस बाबत राय नहीं मिलती, पर हम अच्छे मित्र हैं। मैंने जगदीश भाटिया पर ब्लॉगवाणी द्वारा डीडॉज अटैक के आरोप का बड़ा तकनीकी तौर पर संयत स्पष्टीकरण दिया, मैथिलि जी ने स्वयं जवाब को सराहा। पर आपने क्या किया? अपने ब्लॉग पर मुझे शिखंडी करार दे दिया, जबकि तकनीक और इस सारे मामले की बारीकी से ही आप अनभिज्ञ थे। यहाँ तो हिन्दू मुस्लिम, साँप्रदायिकता की बहस भी न थी। मैं क्यों न समझूं कि आप की खुन्नस अब व्यक्तिगत हो चुकी है, वैचारिक नहीं रही। मुझे यह खुन्नस निकालनी होती तो मैं समूह में केवल अपने जाने पहचाने लोगों कौ ही आमंत्रित करता। विचारधारा का विरोध अस्विकार्य होता तो क्या अनुनाद, अरुण अरोरा वगैरह समूह में शामिल रहते? ठंडे दिमाग से सोचिये ज़रा।
मै देवाशीष जी की ही टिप्पणी का क्रमबद्ध उल्लेख करूँगा, उनकी बिन्दुवार उनकी टिप्पणी के अंश तथा उसके नीचे मैने अपनी बात रखी है -
चिट्ठाकार पत्र समूह में कई बार कह चुका हूं, वह समूह कोई सार्वजनिक संपत्ति नहीं है, मेरी साईट है, इसकी नीति मैंने बनाई है जो http://groups.google.com/group/Chithakar/web/group-charter पर बड़े साफ शब्दों में लिखी है।
कई लोगों को नही पता होगा कि ‘’चिट्ठाकार समूह’’ आपकी प्रोपराईटरशिप में चल रही है अन्यथा मुझ जैसे कई लोग आपके चिट्ठाकार समूह के नाम से बने चिट्ठाकार व्यापार मंडल की सदस्यता ग्रहण न करते। मुझे चिट्ठकार समूह पर आपके द्वारा किये गये बैन पर हर्ष है कि इस बाबत कई लोगों को सच्चाई से रूबरू होने का अवसर मिला, कि वे किसी सामुदायिक चिट्ठाकार समूह के सदस्य न होकर किसी की निजी सम्पत्ति में घुसे हुऐ है। आप जिस प्रकार से चिट्ठाकार समूह का नेतृत्व कर रहे है इससे यह नही प्रतीत होता है कि चिट्ठाकार समूह कोई समुदायिक विचार का मंच है, जैसा कि आपके बातों से भी स्पष्ट हो गया है। नेतृत्व हर समाज में होता है, इसमें प्रोपराईटरशिप या स्वामित्व की बात कहॉं से आ जाती। आपके द्वारा दिये गये तथाकथित व्यापार चार्टर लिंक को मैने अपने बैन होने के बाद काफी पढ़ा था। किन्तु आपके अन्दर का भय मुझे आज दिखा, कि जो चिट्ठाकार सर्वजनिक तौर पर खुला रहता था आज वह बन्द है। उस चार्टर को बन्द करके फिर लिंक देकर मुझे पढने के लिये कहना, हँसने योग्य प्रसंशनीय कार्य है।
समूह में "भड़काऊ, व्यक्तिगत आरोप प्रत्यारोप या धर्म जैसे संवेदनशील मसलों पर संदेश" वर्जित हैं और "ऐसे संदेश भेजने वाले सदस्य की सदस्यता बिना किसी चेतावनी के समाप्त कर दी जायेगी"। आपके और अन्य कुछ मामलों में यही किया गया। जो चार्टर से सहमत नहीं वो समूह में रह कर क्या करेंगे।
मुझे आपकी इस उत्तर पर तरस आ रहा है, कि आप इस समय अपने सबसे बुरे दौर से गुजर रहे है। क्योकि आपने टिप्पणी मे कहा था कि - समूह में "भड़काऊ, व्यक्तिगत आरोप प्रत्यारोप या धर्म जैसे संवेदनशील मसलों पर संदेश" वर्जित हैं किन्तु मै इस बात का पूर्ण खंडन करता हूँ कि मेरे द्वारा 2006 से आज तक चिट्ठाकार समूह तो क्या किसी भी समूह पर इस तरह की पोस्टिग नही की गई है, तो नियमों के उल्लंघन की बात कहाँ से आ जाती है। मेरी आपत्ति के बाद आपका तर्क प्रस्तुत करना नैतिक दायित्व है, जबकि आप इस समूह का नेतृत्व कर रहे है। यदि आप इसके प्रोप्राइटर या मालिक है तो नैतिकता समाप्त हो जाती है। स्पष्ट है कि जब अपराध हुआ ही नही तो चेतावनी क्या? कार्यवाही क्या ? आप पिछले कई महीनों से मठाधीशी की परिभाषा तलाश रहे है मेरे याद दिलाने से ज्ञान हो गया होगा। इसी के साथ पुन: एक कहावत कहना चाहूँगा – कस्तूरी कुंडल बसै , मृग ढूढै वनमाही। आप फिर कहेगे कि मै आपको शिखड़ी के बाद मृग कह रहा हूँ। पुनरावलोकन कर लें कि मैने चिट्ठाकार व्यापार मंडल के किसी नियम का उल्लघन तो नही किया। अगर मेरे द्वारा संदेश नही गया तो किसी नियम के उल्लघंन का प्रश्न ही कहाँ उठता? बिना नियमों के उल्लंघन के मेरी चिट्ठाकारी की दुकान का राजिस्ट्रेशेन कैन्सिल करना न्यायोचित नही है।
यह आपकी अभिव्यक्ति पर रोक तो नहीं हैं क्योंकि ज़ाहिर तौर पर "चिट्ठाकार" कोई एकलौता मंच नहीं है जहाँ आप अपनी बात रख सकें, आपके अनेक चिट्ठे हैं, अन्य समूह भी हैं, नहीं हैं तो आप बना सकते हैं। आपको समान राय वाले समूह में ही रहना चाहिये, जहाँ मतैक्य न हों वहाँ क्यों रहना? यह जिद करना कि आप मेरी साईट पर आकर "मूंग दलेंगे" तो बचकानी जिद है।
आपको ही बैन जैसे लुच्चे साधनों की आवाश्कता होगी, क्योकि आप हिन्दुत्व से अपने को दूर रखना चाहते है। हिन्दुत्व ही सर्वधर्म सम्भाव कि बात करता है, असली सेक्यूलरिज्म हिन्दुत्व में ही पोषित होता है। बाकी तो आपकी ही तरह पूछते रहते है कि मेरे अंगने में तुम्हारा क्या काम है? जहॉं तक ब्लाग्स की बात है तो मेरे लिये लिखने के मंचों की कमी नही है। जहाँ तक गूगल समूह की बात है तो आपकी व्यापार मंडल भी गूगल के रहमोकरम पर ही है, और गूगल तो सबके माई-बाप है। माई-बाप की जागीर में सभी संतानो का हिस्सा बराबर का होता है। चालबाज संताने ही पूरे पर दावा ठोकती है। समूह बनाना कौन सा बड़ा काम है? बहु धनुहीं तोरीं लरिकाईं, कबहुँ न असि रिस कीन्हि गोसाईं ||एहि धनु पर ममता केहि हेतू, सुनि रिसाइ कह भृगुकुलकेतू || मैने भी खेल खेल में बहुत से समूह और ब्लाग बना डाले है, पर स्वामित्व का ऐसा दावा, मतभिन्नता रखने वालो पर इतना बड़ा प्रहार मुझसे आज तक न हुआ। जहॉं तक मतैक्य की बात है तो मुझे लगता है आपका ही मत लोगो से नही मिलता है, तभी जो भी आता है आपकी घंटी बजाकर चला जाता है, किसी का नाम लेने की जरूरत नही है। जहॉं तक मूँग दलने की बात है तो आपकी जानकारी के लिये बता दूँ कि मूँग की दाल काफी मॅहगी है, पेट खराब होने पर काफी फयादा करती है। ऐसी चीज दलने में नुकसान ही क्या है? खुद ही सोचिये व्यापार मंडल की साइट पर मूँग नही दला जायेगा तो क्या मौसम की जानकारी प्रकाशित होगी? वैसे मेरे पास व्यापार मंडल में न तो मूँग दलने का समय है न बाजार लगाने का, मुझे लगाता है कि मूँग दलने और इस तरह के बाजार लगाने की आपकी पुरानी आदत है। आप आपने आदत से मजबूर है, नही तो अकारण बैंन नही लगातें।
अगर देवाशीष जी अपनी टिप्पणी को गौर से पढ़े और विश्लेषण करे तो निष्कर्ष यही आयेगा कि देबाशीष जी ने खुद की बातो को घता साबित किया है। देवाशीष जी की उक्त टिप्पणी निम्न है Debashish said...
प्रमेंद्र, आपने यह राज़ क्यों बनाये रखा मैं नहीं जानता। चिट्ठाकार पत्र समूह में कई बार कह चुका हूं, वह समूह कोई सार्वजनिक संपत्ति नहीं है, मेरी साईट है, इसकी नीति मैंने बनाई है जो http://groups.google.com/group/Chithakar/web/group-charter पर बड़े साफ शब्दों में लिखी है। स्पष्ट लिखा है कि समूह में "भड़काऊ, व्यक्तिगत आरोप प्रत्यारोप या धर्म जैसे संवेदनशील मसलों पर संदेश" वर्जित हैं और "ऐसे संदेश भेजने वाले सदस्य की सदस्यता बिना किसी चेतावनी के समाप्त कर दी जायेगी"। आपके और अन्य कुछ मामलों में यही किया गया। जो चार्टर से सहमत नहीं वो समूह में रह कर क्या करेंगे। यह आपकी अभिव्यक्ति पर रोक तो नहीं हैं क्योंकि ज़ाहिर तौर पर "चिट्ठाकार" कोई एकलौता मंच नहीं है जहाँ आप अपनी बात रख सकें, आपके अनेक चिट्ठे हैं, अन्य समूह भी हैं, नहीं हैं तो आप बना सकते हैं। आपको समान राय वाले समूह में ही रहना चाहिये, जहाँ मतैक्य न हों वहाँ क्यों रहना? यह जिद करना कि आप मेरी साईट पर आकर "मूंग दलेंगे" तो बचकानी जिद है। अपनी ही साईटों की नीति तय करना अगर आपकी दृष्टि में मठाधीशी है तो मैं आपकी सोच पर केवल तरस ही खा सकता हूं।
एक बात और जो मैं काफी दिनों से कहना चाह रहा था। मुझे विश्वास है कि आप चिट्ठाकारी में कुछ कहने आये हैं पर फिर ये शत्रुता का व्यवहार क्यों। हम दोनों एक दूसरे की विचारधारा से परीचित हैं यह तो अच्छी बात है, मैं कट्टर हिंदूवाद की विचारधारा से विरोध रखता हूं पर व्यक्तिगत तौर पर आग्रह नहीं पालता। मेरी बैंगानी बंधुओं और शशि सिंह से भी इस बाबत राय नहीं मिलती, पर हम अच्छे मित्र हैं। मैंने जगदीश भाटिया पर ब्लॉगवाणी द्वारा डीडॉज अटैक के आरोप का बड़ा तकनीकी तौर पर संयत स्पष्टीकरण दिया, मैथिलि जी ने स्वयं जवाब को सराहा। पर आपने क्या किया? अपने ब्लॉग पर मुझे शिखंडी करार दे दिया, जबकि तकनीक और इस सारे मामले की बारीकी से ही आप अनभिज्ञ थे। यहाँ तो हिन्दू मुस्लिम, साँप्रदायिकता की बहस भी न थी। मैं क्यों न समझूं कि आप की खुन्नस अब व्यक्तिगत हो चुकी है, वैचारिक नहीं रही। मुझे यह खुन्नस निकालनी होती तो मैं समूह में केवल अपने जाने पहचाने लोगों कौ ही आमंत्रित करता। विचारधारा का विरोध अस्विकार्य होता तो क्या अनुनाद, अरुण अरोरा वगैरह समूह में शामिल रहते? ठंडे दिमाग से सोचिये ज़रा।
मै देवाशीष जी की ही टिप्पणी का क्रमबद्ध उल्लेख करूँगा, उनकी बिन्दुवार उनकी टिप्पणी के अंश तथा उसके नीचे मैने अपनी बात रखी है -
चिट्ठाकार पत्र समूह में कई बार कह चुका हूं, वह समूह कोई सार्वजनिक संपत्ति नहीं है, मेरी साईट है, इसकी नीति मैंने बनाई है जो http://groups.google.com/group/Chithakar/web/group-charter पर बड़े साफ शब्दों में लिखी है।
कई लोगों को नही पता होगा कि ‘’चिट्ठाकार समूह’’ आपकी प्रोपराईटरशिप में चल रही है अन्यथा मुझ जैसे कई लोग आपके चिट्ठाकार समूह के नाम से बने चिट्ठाकार व्यापार मंडल की सदस्यता ग्रहण न करते। मुझे चिट्ठकार समूह पर आपके द्वारा किये गये बैन पर हर्ष है कि इस बाबत कई लोगों को सच्चाई से रूबरू होने का अवसर मिला, कि वे किसी सामुदायिक चिट्ठाकार समूह के सदस्य न होकर किसी की निजी सम्पत्ति में घुसे हुऐ है। आप जिस प्रकार से चिट्ठाकार समूह का नेतृत्व कर रहे है इससे यह नही प्रतीत होता है कि चिट्ठाकार समूह कोई समुदायिक विचार का मंच है, जैसा कि आपके बातों से भी स्पष्ट हो गया है। नेतृत्व हर समाज में होता है, इसमें प्रोपराईटरशिप या स्वामित्व की बात कहॉं से आ जाती। आपके द्वारा दिये गये तथाकथित व्यापार चार्टर लिंक को मैने अपने बैन होने के बाद काफी पढ़ा था। किन्तु आपके अन्दर का भय मुझे आज दिखा, कि जो चिट्ठाकार सर्वजनिक तौर पर खुला रहता था आज वह बन्द है। उस चार्टर को बन्द करके फिर लिंक देकर मुझे पढने के लिये कहना, हँसने योग्य प्रसंशनीय कार्य है।
समूह में "भड़काऊ, व्यक्तिगत आरोप प्रत्यारोप या धर्म जैसे संवेदनशील मसलों पर संदेश" वर्जित हैं और "ऐसे संदेश भेजने वाले सदस्य की सदस्यता बिना किसी चेतावनी के समाप्त कर दी जायेगी"। आपके और अन्य कुछ मामलों में यही किया गया। जो चार्टर से सहमत नहीं वो समूह में रह कर क्या करेंगे।
मुझे आपकी इस उत्तर पर तरस आ रहा है, कि आप इस समय अपने सबसे बुरे दौर से गुजर रहे है। क्योकि आपने टिप्पणी मे कहा था कि - समूह में "भड़काऊ, व्यक्तिगत आरोप प्रत्यारोप या धर्म जैसे संवेदनशील मसलों पर संदेश" वर्जित हैं किन्तु मै इस बात का पूर्ण खंडन करता हूँ कि मेरे द्वारा 2006 से आज तक चिट्ठाकार समूह तो क्या किसी भी समूह पर इस तरह की पोस्टिग नही की गई है, तो नियमों के उल्लंघन की बात कहाँ से आ जाती है। मेरी आपत्ति के बाद आपका तर्क प्रस्तुत करना नैतिक दायित्व है, जबकि आप इस समूह का नेतृत्व कर रहे है। यदि आप इसके प्रोप्राइटर या मालिक है तो नैतिकता समाप्त हो जाती है। स्पष्ट है कि जब अपराध हुआ ही नही तो चेतावनी क्या? कार्यवाही क्या ? आप पिछले कई महीनों से मठाधीशी की परिभाषा तलाश रहे है मेरे याद दिलाने से ज्ञान हो गया होगा। इसी के साथ पुन: एक कहावत कहना चाहूँगा – कस्तूरी कुंडल बसै , मृग ढूढै वनमाही। आप फिर कहेगे कि मै आपको शिखड़ी के बाद मृग कह रहा हूँ। पुनरावलोकन कर लें कि मैने चिट्ठाकार व्यापार मंडल के किसी नियम का उल्लघन तो नही किया। अगर मेरे द्वारा संदेश नही गया तो किसी नियम के उल्लघंन का प्रश्न ही कहाँ उठता? बिना नियमों के उल्लंघन के मेरी चिट्ठाकारी की दुकान का राजिस्ट्रेशेन कैन्सिल करना न्यायोचित नही है।
यह आपकी अभिव्यक्ति पर रोक तो नहीं हैं क्योंकि ज़ाहिर तौर पर "चिट्ठाकार" कोई एकलौता मंच नहीं है जहाँ आप अपनी बात रख सकें, आपके अनेक चिट्ठे हैं, अन्य समूह भी हैं, नहीं हैं तो आप बना सकते हैं। आपको समान राय वाले समूह में ही रहना चाहिये, जहाँ मतैक्य न हों वहाँ क्यों रहना? यह जिद करना कि आप मेरी साईट पर आकर "मूंग दलेंगे" तो बचकानी जिद है।
आपको ही बैन जैसे लुच्चे साधनों की आवाश्कता होगी, क्योकि आप हिन्दुत्व से अपने को दूर रखना चाहते है। हिन्दुत्व ही सर्वधर्म सम्भाव कि बात करता है, असली सेक्यूलरिज्म हिन्दुत्व में ही पोषित होता है। बाकी तो आपकी ही तरह पूछते रहते है कि मेरे अंगने में तुम्हारा क्या काम है? जहॉं तक ब्लाग्स की बात है तो मेरे लिये लिखने के मंचों की कमी नही है। जहाँ तक गूगल समूह की बात है तो आपकी व्यापार मंडल भी गूगल के रहमोकरम पर ही है, और गूगल तो सबके माई-बाप है। माई-बाप की जागीर में सभी संतानो का हिस्सा बराबर का होता है। चालबाज संताने ही पूरे पर दावा ठोकती है। समूह बनाना कौन सा बड़ा काम है? बहु धनुहीं तोरीं लरिकाईं, कबहुँ न असि रिस कीन्हि गोसाईं ||एहि धनु पर ममता केहि हेतू, सुनि रिसाइ कह भृगुकुलकेतू || मैने भी खेल खेल में बहुत से समूह और ब्लाग बना डाले है, पर स्वामित्व का ऐसा दावा, मतभिन्नता रखने वालो पर इतना बड़ा प्रहार मुझसे आज तक न हुआ। जहॉं तक मतैक्य की बात है तो मुझे लगता है आपका ही मत लोगो से नही मिलता है, तभी जो भी आता है आपकी घंटी बजाकर चला जाता है, किसी का नाम लेने की जरूरत नही है। जहॉं तक मूँग दलने की बात है तो आपकी जानकारी के लिये बता दूँ कि मूँग की दाल काफी मॅहगी है, पेट खराब होने पर काफी फयादा करती है। ऐसी चीज दलने में नुकसान ही क्या है? खुद ही सोचिये व्यापार मंडल की साइट पर मूँग नही दला जायेगा तो क्या मौसम की जानकारी प्रकाशित होगी? वैसे मेरे पास व्यापार मंडल में न तो मूँग दलने का समय है न बाजार लगाने का, मुझे लगाता है कि मूँग दलने और इस तरह के बाजार लगाने की आपकी पुरानी आदत है। आप आपने आदत से मजबूर है, नही तो अकारण बैंन नही लगातें।
अपनी ही साईटों की नीति तय करना अगर आपकी दृष्टि में मठाधीशी है तो मैं आपकी सोच पर केवल तरस ही खा सकता हूं।
आपको तरस खाने की जरूरत नही है वैसे आप कुछ भी खा सकते है, मूँग की दाल खाइये, फायदा करेगी। जैसा कि मैने पहले ही कहा था कि मठाधीशी तो कुछ के रग रग में है, जो अकारण सम्प्रभु बने रहने की कोशिश करते रहते है, मुझे आपका नाम लेने में जरा भी हिचक नही है। क्योकि जो कर्म आपने किया और फिर सीना जोरी के साथ सबके सामने यह कह रहे है कि आप चिट्ठकार व्यापार मंडल के प्रोपइटर है तो यह आप अपनी सबसे बड़ी मूर्खता को उजागर कर रहे है।
एक बात और जो मैं काफी दिनों से कहना चाह रहा था। मुझे विश्वास है कि आप चिट्ठाकारी में कुछ कहने आये हैं पर फिर ये शत्रुता का व्यवहार क्यों। हम दोनों एक दूसरे की विचारधारा से परीचित हैं यह तो अच्छी बात है, मैं कट्टर हिंदूवाद की विचारधारा से विरोध रखता हूं पर व्यक्तिगत तौर पर आग्रह नहीं पालता। मेरी बैंगानी बंधुओं और शशि सिंह से भी इस बाबत राय नहीं मिलती, पर हम अच्छे मित्र हैं।
अकारण प्रतिबंध दुराग्रह नही तो क्या है? जो कहना था आप कह सकते थे किन्तु लगता है कि आप प्रतिबंधित कर अपनी ताकत का प्रर्दशन करना चाहते थे। आपको यह कैसे लगा कि यह शत्रुता का व्यवहार कर रहा हूँ, हर चोर को दूसरा आदमी चोर ही नज़र आता है। मुझे तो नही लगता कि आपकी कोई अपनी विचारधारा है, सिवाय पिचाल खेलने के।
जहाँ तक मुझे लगता है कि मेरी कई व्यक्तियों के साथ वैचारिक दूरी है, वह संघ, गांधी, हिन्दुत्व के अलावा बहुत कुछ विषय है। हम एक दूसरे की खिचाई करते है किन्तु व्यक्तिगत दुराग्रह नही करते। किन्तु आपका मामला भिन्न है जो आपके आधीन और आपके नक्शेकदम पर नही चलता उसकी कोई विचारधारा नही। यह हिटलरशाही, तुगलकशाही, सद्दामशाही नही तो और क्या है? इसी को साहित्यिक भाषा में मठाधीशी कहते है।
मैंने जगदीश भाटिया पर ब्लॉगवाणी द्वारा डीडॉज अटैक के आरोप का बड़ा तकनीकी तौर पर संयत स्पष्टीकरण दिया, मैथिलि जी ने स्वयं जवाब को सराहा। पर आपने क्या किया? अपने ब्लॉग पर मुझे शिखंडी करार दे दिया, जबकि तकनीक और इस सारे मामले की बारीकी से ही आप अनभिज्ञ थे।यहाँ तो हिन्दू मुस्लिम, साँप्रदायिकता की बहस भी न थी। मैं क्यों न समझूं कि आप की खुन्नस अब व्यक्तिगत हो चुकी है, वैचारिक नहीं रही।
लगता है कि आपकी ऑंखे ठीक काम नही कर रही है, अगर न कर रही हो तो चश्मा लगवा लीजिऐ। क्योकि जिस लेख की बात आप कर वह मानवेन्द्र जी का है मेरा नही, क्योकि उन दिनों मै अपने ब्लाग से अनुपस्थित था और जिसकी स्पष्ट सूचना ब्लाग के हेडर पर मौजूद थी। एक बात स्पष्ट कर दूँ कि आपके चिट्ठाकार व्यापार मंडल पर प्रतिबंध के बाद वह लेख आया था। इससे यह कहना कि शुरूवात मैने की है यह निहायत ही ओछा आरोप है जो सर्वथा गलत है।
मुझे लगता है कि आपने मैथिली जी की बात भी स्पष्टता से नही पढ़ी क्योकि मैथिली जी ने कही भी क्लीन चिट नही दिया है क्योकि उनका कहना था कि – हो सकता है ? अर्थात उन्होने गांरटी के साथ नही कहा है कि गलती नही हुई है। मैथिली जी ने यहॉं श्रेष्ठ अग्रज की भूमिका निभाई है दो के विवाद के निपटारे के लिये उन्होने यह बात कहीं थी न कि किसी को सही साबित करने के लिये।
अब आप अपने आपको शिखड़ी मानो या शूपनर्खा, इसमें मेरा क्या दोष है ? जहॉं तक की गई टिप्पणी को देखने के बाद कोई छोटा सा बच्चा भी यह कहेगा कि यह किसी व्यक्ति विशेष के लिये नही कहा गया है, किन्तु चोर की दाढ़ी में तिनका यहीं दिखाई पढ़ता है, तिनका हो न हो चोर अपनी दाढ़ी जरूर साफ करता है। अब आप अपने शिखड़ी समझ रहे है तो भला चोर की दाढ़ी मे तिनका कहने वाले का क्या दोष ?
चूकिं तत्कालीन लेखन ने वह टिप्पणी भाटिया जी के ब्लाग पर की थी किन्तु भाटिया जी ने उसे प्रकाशित नही किया। तो लेखक को अपनी बात टिप्पणी से परे होकर ब्लाग पर करनी पड़ी।
मुझे यह खुन्नस निकालनी होती तो मैं समूह में केवल अपने जाने पहचाने लोगों कौ ही आमंत्रित करता। विचारधारा का विरोध अस्विकार्य होता तो क्या अनुनाद, अरुण अरोरा वगैरह समूह में शामिल रहते? ठंडे दिमाग से सोचिये ज़रा!
आपकी यह बात खुद ही उक्त लोगों से आपकी वैचारिक दूरी को उजागर करती है। आपकी महानता ही है कि उक्त लोगों को किस प्रकार इस समूह में झेल रहे है। उक्त लोग आपके सदैव आभारी रहेगे कि आपने अभी तक इन पर अपने प्रोप्राइटरी कार्यवाही का दंडा चला कर इनका रजिस्ट्रेशन कैन्सिल नही किया।
श्री देबाशीष जी की टिप्पणी के सर्मथन में एक और टिप्पणी आई थी मै उसका भी उल्लेख करना चाहूँगा, जो जरूरी है -
दिनेशराय द्विवेदी said...श्री द्विवेदी जी अधिवक्ता है विधिक मामलों के जानकार है, कानून क्या कहता है जितना उन्होने पढ़ा वह कह दिया। किन्तु सच्चाई यह है कि विचारमंच कभी किसी की सम्पत्ति नही हो सकती है, और यदि आप कानून के जानकार है तो आपको पता होगा कि किसी कारखाने का मालिक, प्रोपराईटर जब अपने किसी अदना से नौकर को भी उसकी गलती की वजह से कम्पनी से निकालता है तो उसे चार्टशीट देनी होती है, उसे उसके अपकृत्य से बिन्दुवार अवगत कराया जाता है, तथा एक इन्क्वाईरी ऑफिसर नियुक्त किया जाता है जो मामले की पूर्ण जॉंच करता है। जहॉं तक सम्मपत्ति की बात है तो मकान मालिक और किरायेदार के सम्बन्ध में राजस्थान के कानून भारत के अन्य राज्यों से बहुत ज्यादा भिन्न नही होगें, और शायद प्राकृतिक न्याय के सम्बनघ में भी आप अनभिज्ञ है। किसी की कब्जेदारी को विमुक्त करना एक पूर्ण विधिक प्रक्रिया है। जिसके पालन न किये जाने की गणना आपराधिक अपकृत्य में की जाती है। आपने उपयुक्त टिप्प्णी की अपेक्षा नही थी। किसी अधिवक्ता का इस प्रकार का कथन सच में उसकी विधिक अनभिज्ञता का घोतक है।
देबू भाई के बारे में जानने का अवसर मिला। धन्यवाद्।
मैं उन के इस विचार से सहमत हूँ, यह कानून भी यही कहता है कि दूसरे कि संपत्ति पर आप यदि कुछ कर रहे हैं तो उस की सहमति से कर रहे हैं। आप एक लायसेंसी हैं। अब आप वहाँ कोई भी ऐसा काम करते हैं जो संपत्ति के स्वामी द्वारा स्वीकृत नहीं है तो संपत्ति के स्वामी को आप को वहाँ से बेदखल करने का पूरा अधिकार है। आप उसे कोसते रहें तो कोसते रहें। आखिर संपत्ति के स्वामी ने अपने वैध अधिकार का उपयोग किया है कोई बेजा हरकत नहीं की है।
16 February, 2008 5:18 PM
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12 टिप्पणियां:
प्रिय भाई प्रमेन्द्र,
मैं आपकी स्पष्ट सोच और राष्ट्रीय विचारधारा का समर्थक रहा हुँ. लेकिन आपकी इस पोस्ट से और आपके देबुदा को लेकर विचारों से नहीं.
मित्र आप बहुत युवा हैं. उत्तेजित हो जाते हैं. मुझे यकीन है कि आज से 15 - 20 वर्ष बाद आप इस पोस्ट को पढेंगे तो अपनी भाषा पर हसेंगे.
देबु दादा ने क्या गलत कहा आपसे मुझे तो यही समझ नही आ रहा. उन्होने एक ग्रुप बनाया था चिट्ठाकार नाम से. लोग मेम्बर बनते गए. ग्रुप बडा हो गया. परंतु है तो वो देबु दादा का ही. तो नियम भी उनके हुए ना.
अब यदि आप महाशक्ति को मल्टी यूजर बना देते हो और मै भी लेखक बन जाऊँ तो नियम कायदे तो आप ही निर्धारित करोगे ना!
और फिर मान लें कि चलो आपके साथ अन्याय भी हुआ तो आपको अपनी बात रखने का पुरा अधिकार भी है. परंतु भाषा का ध्यान रखना चाहिए ऐसा मुझे लगता है.
मैं स्वयं कुख्यात रहा हुँ मित्र.. अपने अनुभव से बता रहा हुँ. मेरी बडी भयंकर लडाइयाँ हुई है कुछ चिट्ठाकारों से और भाषाई सयंम मैने भी खोया है, और उसी से सिखा है.
नरेन्द्र मोदी से मैने और तो कुछ नही परतुं एक चीज जरूर सिखी कि मौन मे बडी ताकत होती है. अब इस गुरूमंत्र को अपना लिया है.
आज भी तरकश समूह पर छिटाकशी होती रहती है, पर अब हमने मुँह सिल लिया है.
यह कायरता नही होती दोस्त. अपना कर्म किए जाओ लोग तुम्हे जरूर हाथो हाथ लेंगे. अपनी राह से भटको मत.
यदि ऐसा लगे कि मैने जरूरत से ज्यादा बोल दिया है तो मुझे क्षमा करना.
प्रमेंद्र भाई. आपकी मेल पढी. देवाशीष जी के पक्ष में कहीं दिल दुखाने वाली बात नहीं है. आप बिनमतलब भिडने का प्रयास कर रहे है. आपके विचारों मैं दम है, आप मे शक्ति भी अपार है. पर यह क्षमताएं आप किसी उपयोगी जगह पर उपयोग करें. आपके विचारों का स्वागत करने वाले लोग भी है. आप उनके साथ मिलकर एक अन्य ग्रुप विकसित कर सकते है. लोग तुम्हारे साथ है. पर देवाशीष जैसे चिट्ठा कारी के शीष विद से आप क्यों खामखां झक मार रहे है.... इन सब से कुछ नसीब नही होता..... मेल पढी जरूर जायेगी पर पढने के बाद न तो पाठक को कुछ मिलेगा और न ही चिट्ठाकार को.
चलो अपने विचारों का नया सा घोंसला बुनलें
कहीं जब मन घुटेगा तो कहीं तो पहुंचना होगा....
प्रमेन्द्र बाबू, जहाँ तक मुझे ध्यान है कुछ समय पहले आपने एक mass email की थी अपनी किसी ब्लॉग पोस्ट को लेकर जिसकी एक प्रति चिट्ठाकार समूह में भी गई थी और जिस कारण आप पर तुरत-फुरत बैन लग गया था क्योंकि समूह के अन्य लोगों को इस तरह की सामूहिक ईमेलों से बचाने के लिए समूह की नियमावली में यह स्पष्ट लिखा है कि इस तरह अपने ब्लॉग की पोस्टों की जानकारी देना अनुचित है और बैन को आमंत्रित करना है।
मित्र जब आपने नियमावली को पढ़ा नहीं और उसके किसी नियम को उल्लंघन करने के कारण आपको सज़ा हुई तो इसमें दोषी कौन हुआ - आप या सज़ा देने वाला? मेरे अनुसार तो दोषी आप ही हुए क्योंकि आपने नियम नहीं पढ़े, तो इसके लिए किसी और को दोष काहे दें?
रही बात व्यक्तिगत साइट होने की तो भई जैसा कि अभी पंकज बाबू ने कहा, जिसकी लाठी उसी की भैंस होती है। कल को आप अपने किसी ब्लॉग पर लोगों को बुलाते हो तो यह आप पर होगा कि आप नियम स्वयं बनाओ या सबसे पूछ के नियम बनाओ या सभी को अपनी मनमानी करने दो। ठीक उसी तरह देबू दा ने समूह की स्थापना की और एक नियमावली बना दी। अब इस पर वे कई बार समूह में कह चुके हैं कि मेम्बरान को यदि नियमावली में कोई कमी-पेशी नज़र आती है तो उस पर चर्चा की जा सकती है और नियमावली बदली जा सकती है लेकिन नियमावली सभी पर लागू होती है।
जनवरी में हम लोगों ने जब एक ब्लॉग सेमिनार टाइप किया था तो उसके बारे में मैंने भी एक पोस्ट समूह में डाली थी। नियमावली पढ़ मुझे यह तो पता चल गया था कि मैं ऐसी ईमेल डाल सकता हूँ लेकिन फिर भी मैंने देबू दा से पूछना और उनकी सहमति लेना अनिवार्य समझा क्योंकि मौजूदा वे ही समूह के एकलौते संचालक हैं और मैंने ऐसे विषय में एक संचालक की अनुमति लेना बेहतर जाना। अब आप इसे बैन होने का डर समझें या कुछ और पर मैं इसे शिष्टाचार ही कहूँगा। :) देबू दा ने भी मुझे यही कहा था कि नियमावली पढ़ मैंने जान लिया होगा कि ऐसी ईमेल भेज सकता हूँ फिर पूछा काहे तो मैंने भी उनको यही उत्तर दिया कि मैंने अनुमति लेना बेहतर समझा इसलिए पूछा।
बाकी पंकज बाबू ने काबिल-ए-गौर बात कही है, मौन में बड़ी ताकत है, बस फर्क इतना है कि आपको यह समझना होगा कि आपको कब मौन रहना है और कब नहीं। अब यह तो मेरी माता जी भी मुझे बचपन से कहती आ रही हैं कि "एक चुप सौ को हराता है" पर मैं सदैव इस बात को याद नहीं रख पाता, प्रयास फिर भी जारी है। :)
पिछले दिनो इसने बेमतलब ही अपने ब्लोग पर मेरे नाम से टिपियाकर अपनी हिट बढाने के बाद हुये विवाद मे मुझे मेल की थी और मेरे उपर ब्लेम लगाया था की मै अपने ब्लोग को हिट करने मे लिये इसे प्रयोग कर रहा हू.."ये मेल पढकर तुम्हे थोथा चना बाजे घना याद आ जायेगी" "अरूण तुम मेरे साथ अगर कोई mind game खेल रहे हो तो ये समझ लो कि मैं इंटरनेट पर पिछले ८ साल से हूं और सारे दौर देख चुका हूँ। तुम्हारे जैसे कई देखे हैं। तो मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता और जहाँ संभव होगा मैं तुम्हारी उधेड़ कर भी रखुंगा। मैं भी भारत की ही पैदाईश हूं, पंगेबाजी सब को आती है, जानवर सब के अंदर है। फालतू के अपना समय और उर्जा इसमें खर्च मत करो, अगर इतनी परेशानी होती है तो हमारे ब्लॉगों को मत पढ़ो, जैसे मैं तुम्हारा नहीं पढ़ता, आसान है। और इग्नोर करना वाकई आसान है, उस दिन चिट्ठाकार लिस्ट पर भी मैंने राय दी थी, फिल्टर हैं, ब्लॉकलिस्ट है, नापसंद करने वाले लोगों का आपस में मिलना ना हो इसके अनेकों तरीके हैं। मैंने आजमा लिये हैं तो तुम तो अब मेरे पास फटकोगे नहीं। ये मशवरा तुम्हारे लिये दे रहा हूँ। अपनी निजी परेशानियाँ हम पर मत निकाला करो
काहे जानवर को इतनी अहमियत दे रहे हो जी..उपर से जो गलतफ़हमी मे जीता हो की ये धरा उसी के दम से चलती है..:) वो तो बेचारा खुद ही दुसरो को उधडने के गम मे रोज बारोज उधड-उधड कर नंगा होता जा रहा है.ऐसे चीज को हमेशा दया की नजरो से देखा जाता है,गुस्सा नही खाते.जिस को तमीज जैसी चीज से कोई वास्ता नही काहे तुम उससे कैसी उम्मीद रखते हो..और रही बात उनके ग्रुप की तो भाइ धन्यवाद आपकी पोस्ट से मुझे पता चला की मै उनके ग्रुप से जुडा हू और उनकी महान अनुकम्पा से मै तुरंत उॠण होना चाहूगा .और अभी इसी क्षण से इन सज्जन (पता नही ये सज्ज्न कहने का कही बुरा ना मान जाये)के ग्रुप से अलग हो गया हू ..:)
प्रमेन्द्र जी, यह बिल्कुल सही है कि चिट्ठाकार डाक सूची के स्वामी देबाशीष हैं, स्वामी यानी उसके संचालन संबंधी निर्णय वह लेते हैं।
आपकी चिट्ठी का शीर्षक "चिट्ठाकारी के मठाधीशों" की बात कर रहा है। यदि देबाशीष मठाधीष हैं, तो केवल चिट्ठाकार डाक सूची के। "चिट्ठाकारी" और "चिट्ठाकार नामक डाक सूची" में फ़र्क है, वही फ़र्क जो "चिट्ठाकारी" और "चिट्ठाजगत-संकलक" में है, वही फ़र्क जो "चिट्ठाकारी" और "महाशक्ति" में है। आशा है आपको मेरा परिपेक्ष्य समझ आया होगा और आप इस बात को सही तरह से लेंगे, देबाशीष, मैं और आप, क्रमशः चिट्ठाकार डाक सूची, चिट्ठाजगत(के एक तिहाई हिस्से का :)), और महाशक्ति के मठाधीश ज़रूर हो सकते हैं, पर "चिट्ठाकारी" के नहीं। जाल के आविष्कारक टिम बर्नर्स ली ने भी कहा है,
"यदि आप कहते हैं कि भारत का जाल पर हस्तक्षेप बहुत कम है (यानी मठाधीशी दूसरों की है) तो इसमें केवल दो बाते हैं - पहली तो है सामग्री की - जाल पर कोई भी कुछ भी छाप सकता है, कोई रोक तो है ही नहीं। दूसरी बात है मानकों की, उसके लिए हमने w3c का एक दफ़्तर भारत में खोला है, तीसरी है प्रशासन, जैसे डोमेन नाम आदि की लेकिन वह इस खुलेपन का बहुत छोटा सा हिस्सा ही है।"
आपकी चिन्ता कि चिट्ठाकारी की मठाधीशी हो रही है, बिल्कुल अवाञ्छित है। क्योंकि जाल का ढाँचा ही इस तरह का है कि मठाधीशी सम्भव ही नहीं है, सिवाय शायद सरकारी सेंसर्शिप के, और वह भी अमूमन असफल ही होती है।
बेहतर होगा कि हम सभी टिम बर्नर्स ली के द्वारा कथित पहली बिन्दु - भाषा और संस्कृति की विविधता अन्तर्जाल पर लाने - पर काम करें, बजाय किसी मठाधीशी कि चिन्ता करने के।
प्रमेन्द्र, मैं तुम्हारी किसी बात के पक्ष या विरोध में कुछ नहीं कहना चाहता सिवाय इसके कि यह पोस्ट पढ़कर एक बार फिर अफ़सोस हुआ। तुम अपनी बात और बेहतर तरीके से रख सकते थे।
प्रमेन्द्र जी आपके विचार और आपका अभियान आपकी पहचान है. ये सब पढ़कर मुझे भी आश्चर्य हुआ.
आज आपकी बात से सहमत नही हुआ जा सकता. चिट्ठाकार के बारे मुझे जानकारी नही लेकिन ये बात तो सही है कि उस पर क्या रहेगा और क्या नही ये देबाशीष जी का अधिकार है.
आपने ख़ुद ही उनकी मेल को पेस्ट किया है और उसे पढ़कर तो उनकी बात सही लगाती है.
अब मैं क्या कहूं प्रमेन्द्र जी। कहने वाले बहुत कुछ कह गए।
दुनिया बहुत बडी है साहब
प्रमेन्दजी,
अफ़सोस हुआ आपकी इस पोस्ट को पढकर ।
भइया मैं jyada क्या कहूं /
मैं भी primary का मास्टर हूँ / और अपने ब्लॉग के promotion के सिलसिले me chithhakari samooh मे सद्यास्ता के लिए अप्प्ली किया टू सर्च इंजन से सर्च करने पर आप की और देवाशीष जी के मतभेदों की जानकारी और vidvatta की bhidant dekhi / अच्छा है की हिन्दी मे कुछ हो टू रहा है /
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