मैने पिछली पोस्ट में मेला और गॉंव यात्रा का वर्णन किया था, उस लघु मेला और यात्रा वर्णन को आप सभी ने काफी पंसद और मुझे प्रोत्साहित भी किया। आठ तारीख को लिखे इस वर्णन में 14 अक्टूबर तक टिप्पणी मिली। आज कल समयाभाव के दौर से गुजर रहा हूँ किन्तु एक दम से लिखना छोड़ देने की अपेक्षा गाहे बगाहे ही लिख पाता हूँ।
14 अक्टूबर को भाई अभिषेक ओझा ने कहा कि - मेला में पिपिहरी ख़रीदे की नहीं? उस पर एक और टिप्पणी सोने पर सुहागा साबित हुई और मै इस लेख को लिखने पर विवश हो गया। दूसरी टिप्णी सम्माननीय भाई योगेन्द्र मौदगिल ने कहा कि - अभिषेक जी ने जो पूछा है उसका जवाब कब दे रहे हो प्यारे। भाई Anil Pusadkar, श्री अनूप शुक्ल जी,श्री डॉ० कुमारेन्द्र सिंह सेंगर तथा प्रखर हिन्दुत्व का हार्दिक आभार व्यक्त करता हूँ। उसी के आगे थोड़ा वर्णन और सही ........
इसके आगे से ......... गॉंव से लौट कर मै बिल्कुल थक चुका था, 5 अक्टूबर की थकावट बदस्तूर कई दिनों तक जारी भी रही, चलिये उसका वर्णन भी कर ही देता हूँ, हमेशा हम मित्र मंडली बना कर दशहरा चौक का मेला घूमते थे, किन्तु इस बार गांव से लौटते ही बहुत तेज बुखार पकड़ लिया, जो एकादशी तक जारी रहा, मित्र शिव को पहले ही मै मना कर चुका था कि अब कोई मेला नही जायेगे, रात्रि को सभी लोग चले गये। हम तो बेड रेस्ट करते हुए फिल्म गोल देख रहे थे। रात्रि पौने 12 बजे गोल खत्म होते ही मैंने सभी को दशहरे की बधाई देने के लिए फोन किया। सभी तो प्रसन्न थे किन्तु मेरे न जाने से सभी निराश भी थे। अगले दिन एकादशी को प्रयाग के चौक में बहुत धांसू रोशनी का पर्व होता है, उसका आमंत्रण भी मिला किन्तु मै अब कोई रिस्क नहीं लेना चाहता क्योंकि मुझे 12 अक्टूबर को परीक्षा भी देना था। इस तरह तो मेरा दशहरा का मेला रसहीन ही बीता। जिसका मुझे मलाल रहेगा, क्योंकि साथियों के साथ घूमने का अपना ही मजा होता है।
5 अक्टूबर के बाद किसी मेले में जाना नहीं हुआ, किन्तु 5 अक्टूबर को ही मैंने अभिषेक भाई की शिकायत दूर कर दिया था, 5 तारीख को मेरी इच्छा के विपरीत आइसक्रीम खिला दिया गया जो आगे के मेला के लिये नासूर साबित हुई। मेला में मुझे पिपीहरी तो नहीं मिली किन्तु 5 रूपये का भोपा जरूर खरीदा था था, जो शानदार और जानदार दोनो था। जो घर पहुँचे पर सुबह का सूरज भी नही देख सका। कारण भी स्पष्ट था कि अदिति ने सभी खिलौनों के साथ ऐसा खेला कि तीन चार गुब्बारे और भोपा क्रय समय के 12 घंटे के अंदर अंतिम सांसे गिन रहे थे। खैर जिसके लिये खरीदा था उसने खेल लिया मन को बहुत अच्छा लगा। सारे गुब्बारे और भोपा नष्ट होते ही अदिति की स्थिति देखने लायक थी, जब अन्तिम गुब्बारा फूटा तो अदिति बोली- हमारे छोटे चाचा मेला जायेगे, और गुब्बारा लैहिहै। गुब्बारा तो बहुत आये किन्तु हम मेला नहीं जा सके।
आज मैने एडब्राइट लगाया है, पता नहीं इससे कोई फायदा पहुंचेगा भी या नहीं अभी तक एडब्राइट के ही विज्ञापन आ रहे है तो उम्मीद कम ही है। खैर महीने भर इसे भी देख ही लेते है। गूगल एडसेंस ने तो रंग दिखाये ही थे अब देखना है कि एडब्राईट का रंग चोखा होता है कि नहीं। :) अभी इतना ही फिर मिलेगे फिल्म 1920 की कहानी थोड़े मेरे विचार के साथ, जो मैने इन दिनों देखी थी। मेला के चित्र जल्द ही आदिति के ब्लाग पर।
अच्छा लगा यह .पिछला भी अभी एक साथ पढ़ा ...लिखते रहे यूँ ..नई बातें जानने की मिलती है
जवाब देंहटाएंमेले और वहाँ लगने वाले ठेले सब कहीं छूट से गए है.
जवाब देंहटाएंचलिए भोपा ही सही... नहीं तो पता ही नहीं चलता कि मेले से लौट रहे हैं :-) जब तक २-४ गुब्बारे और कुछ आवाज़ करने वाली चीज हाथ में न हो तो मेले का मजा ही क्या !
जवाब देंहटाएंभाई यह भोपा बजाते आना अपने गा मै,बहुत ही अच्छा विवरण. धन्यवाद
जवाब देंहटाएंएक शेर आपकी नज्र करता हूं
जवाब देंहटाएंकि
छूट गये कहीं मेले अबतो
यारों निपट अकेले अब तो
... मेले की याद दिलाये जा रहे हो, लगे रहो!
जवाब देंहटाएंमेले का सुंदर चित्रण किया आपने..जब मैं छोटी थी तो मेले मे जिसके पास बड़े गुब्बारे होते थे उसके गुब्बारे मे चुपके से सुई चुभाकर भाग जाती थी.हम बच्चों का दल यही करते हुए मेले मे घूमता था .
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