विधि पर चर्चा करना बहुत ही गंभीर मसला है, खास कर विधि वालों पर करना उससे भी गंभीर। यह मै नही पिछले कुछ दिनों में हिन्दी चिट्ठाकारी में घटे वाक्यें ये कहते है। हमारे अरुण जी को एक मेल मिलता है, वे डर से या किसी और कारण अपनी ब्लॉग पोस्ट का वध कर देते है। उक्त पोस्ट के वध के कारणों की व्याख्या करते हुए स्वयं अरुण जी ने नये पोस्ट को भी लेकर आते है।
उनकी हटाई गई पोस्ट को मैने कई बार गंभीरता पूर्वक पढ़ा, मनन और विचार मंथन भी किया, किसी सिरे से वह पोस्ट ऐसा प्रतीत हो रहा था कि वह किसी समुदाय विशेष के लिये तो लिखी गई है किन्तु कोई आहत होगा, ऐसा तो मुझे नही ही लगा। मै ऐसा इसलिये कह रहा हूँ, कि मेरा परिवार स्वयं विधि से 35 वर्षों से जुड़ा हुआ है, और मै स्वयं 21 वर्ष से विधि के सानिध्य में पल-बढ़ रहा हूँ तथा गत 2 वर्षो से विधि का अध्ययन कर रहा हूँ, और एशिया के सबसे बड़े उच्च न्यायालय के शहर से जुड़े होने के नाते, कुछ महत्वपूर्ण फैसलों पर अध्ययन व लेखन भी करता रहता हूँ, विधि के एक छात्र होने के तौर पर। जब इस प्रकार के कुछ मुद्दे घटित होते है तो निश्चित रूप से प्रश्नचिन्ह खड़ा हो जाना स्वाभाविक होता है, जैसा आपने विभिन्न ब्लागों पर आप लोगो ने देखा ही होगा। मै पुन: मूल विषय पर आना चाहूँगा वह यह है कि क्या वह लेख अधिवक्ता समाज के लिये अपामान जनक है/था ? इस पर मै कुछ बात कहना चाहूँगा।
- सर्वप्रथम भारतीय फिल्मों को लूँगा, कहा जाता है कि फिल्में समाज की दर्पण होती है, सर्वप्रथम फिल्मों में वकील को किस किस रूप में नही दिखाया जाता है। भारत में लगभग 30 प्रतिशत फिल्मों में वकीलों का महत्वपूर्ण किरदार होता है, फिल्मों में दिखाया ज्यादातर वकील उच्चके, मक्कर, धूर्त, अश्लीलता भरे प्रश्न पूछने वाले, रिश्वत खोर, गुन्डो के सहयोगी, बलातकार के आरोपी का मददगार तथा भिन्न भिन्न रूपों में दिखाया जाता है। इन दृश्यों से वकील समुदाय की छवि नहीं खराब होती है? या यह सब वास्तविकता है जो वकील समुदाय चुप हो कर स्वीकार करता है। यहां तक की भारतीय न्यायालय व न्यायाधीश की स्थिति को भी नकारात्मक दिखाने का प्रयास किया जाता है।
- ज्यादातर फिल्मों में जो ऊपर वकीलों के लिये लिखता हूँ, उसी छवि को दिखाने के लिये नेता, पुलिस तथा डॉक्टर आदि के लिये भी किया किया जाता है। फिल्मों में साफ तौर पर दिखाया जाता है कि खास तौर पर महाराष्ट्र राज्य के मुख्यमंत्री कुर्सी बचाने के लिये व गृह मंत्री सीएम की कुर्सी पाने के लिये अपराधियों का साथ लेते है। यहाँ किसी समुदाय की ओर ऊँगली न होकर व्यक्ति विशेष की ओर होता है, क्योंकि मुख्यमंत्री या गृहमंत्री कोई व्यक्ति विशेष होता है। पुलिस के तौर पर केवल मुम्बई पुलिस को ले लिया जाता है और डॉक्टरों के लिये भी कि वे बहुत बार पैसों की लालच में अपराधी तत्वों के साथ खड़े होते है। अब तक कितने नेता, डॉक्टर व पुलिस समुदाय आहत हुआ।
- पुन: विधि की ओर आऊँगा, सिरफिरे वकील द्वारा मुकदमा दायर करने की बात उठी थी। उसका भी विश्लेषण करना चाहूंगा। आज अधिवक्ता पेशे में नैतिक मूल्यों में काफी गिरावट आयी है। ज्यादातर युवा अधिवक्ता कोर्ट में कम सड़को पर ज्यादा नजर आते है। इस प्रकार युवाओं द्वारा अपनी मांगों को लेकर तोड़ फोड़ या बलवा नैतिक है। क्या कोई आम आदमी अपनी ओर से मुकदमा दायर करके, इनके अनैतिक बंद तथा तोड़ फोड का विरोध नहीं कर सकता है। क्योंकि आम आदमी को विधिक जानकारी नहीं होती है। अत्यंत खेद का विषय है कि कोई वकील क्यो नही अपने समुदाय इन कृत्यों को अवैध सिद्ध करने के लिए मुकदमा दायर नही करता है।
- वर्तमान समय मे हम हर समय विधि का उल्लंघन करते है, कहीं पान खाकर थूकते है तो कहीं सार्वजनिक स्थान पर धूम्रपान आदि ऐसे विषय है जहाँ विधि का तोड़ा जाता है किन्तु आप फिर से विधि को तोड़ कर पुलिस या सक्षम अधिकारी को घूस देकर छूट सकते है।
- करीब 2 साल पूर्व जिस प्रकार एक कथित ब्लॉग न इलाहाबाद उच्च न्यायालय की गरिमा को तार तार किया उसे भी कतई उचित नहीं कहा जा सकता था, किसी उच्च न्यायालय के न्यायाधीश पर ऐसी टिप्पणी मैने तो कभी नही देखी थी।
विधि का उल्लंघन कोई आम बात नही है, पायरेटेड सीडी से पूरा मार्केट पटा पड़ा है, क्या यह विधि के अंतर्गत है? प्रत्यक्ष व परोक्ष दैहिक धंधे हो रहे है क्या यह विधि के अंतर्गत है ? आज समाज में ऐसे बहुत से मुद्दे है जिस पर अधिवक्ता जैसे बौद्धिक वर्ग से समाज की बहुत अपेक्षायें है न किसी आतंकवादी के समर्थन में खड़े होने की। उस लेख की भाषा तल्ख थी, जिसमें आक्रोश था। देश पर आतंकी हमला, जो अब तक का देश पर सबसे बड़ा आतंकी हमला था, इस पर देश के हर नागरिक को आक्रोश होना स्वाभाविक है।
कसाब के सम्बन्ध में न्यायालय से तो मेरी यही माँग होगी कि कोई न्यायधीश इस मामले में लीक से हटकर अपना ऐतिहासिक फैसला दे, और न्याय की गरिमा को बनावटी गवाहो तथा साक्ष्यों से धोखा न दिया जा सके। मा. सर्वोच्च तथा उच्च न्यायालय के को किसी भी जगह त्वरित न्याय देने का अधिकार है, वह अपनी अदालत किसी भी समय किसी भी जगह लगा सकता है, न्याय को कसौटी पर मापने को स्वतंत्र है। निश्चित रूप से आज समय है कि देश की दर्द भरी पुकार को न्यायालय सुने और अपना ऐतिहासिक फैसला दे ताकि कोई अन्य गतिविधि को अंजाम देकर कसाब को बचाने का प्रयास न किया जा सके।
अजमल कसाब के सम्बन्ध में यही कहना चाहूंगा कि मीडिया, भारतवासियों तथा बहुत माध्यम से सिद्ध है कि वह आतंकवादी के रूप में हमला किया व पकड़ा गया। दुर्भाग्य है कि किसी वीर सैनिक की गोली उसके सीने में नहीं लगी अन्यथा उसे बेकसूर सिद्ध करने का प्रश्न ही खत्म हो गया होता। आज जिंदा पकड़े जाने पर उस आतंकवादी को बेकसूर साबित करने की कोशिश की जा रही है। प्रश्न उठता है कि जो आतंकवादी गोली का शिकार होकर मारे गये वे भी तो बेकसूर हो सकते थे जब कसाब के बारे में बेकसूर होने की सम्भावना व्यक्त की जा रही है। अरुण जी ने जो आक्रोश व्यक्त किया, करीब बहुत से पाठकों ने अपना समर्थन व्यक्त किया था, जिसमें मै भी था। जिस प्रकार लेख को गलत कहा गया कि ''तीसरा खम्भे'' की नजरों में यह अपराध है। अगर ऐसा है तो तीसरे खंभे में जरूर घुन लग रहा है और यह घुने हुये तीसरे खम्भे की सोच ही हो सकती है क्योंकि लेख में कुछ गलत नहीं था यदि था तो उसे डिलीट करने के अलावा भी कई उपाय सोचे जा सकते थे, किंतु सीधे डिलीट करने की अनुशंसा करना ठीक नहीं था। जब अनुमोदन पर लेख हटाया जा सकता था तो लेख को बरकरार रखते हुये अपत्तिजनक बातो को हटाया जा सकता था। जिससे लेख भी बरकरार रहता और भावनायें भी। विधि का पालन होना जरूरी है न कि उसका आतंक, लेख डिलीट करने जैसी घटना ''विधिक आतंकवाद'' को जन्म देती है। लेखको के समक्ष लेख हटाने व वापस लेना अन्तिम विकल्प होना चाहिये।
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28 टिप्पणियां:
इस विषय पर पिछले दिनों से lagaataar पढता आ रहा हूँ..सोचता हूँ की टिप्प्न्नी न करूँ ..मगर आपके लेख की कुछ बातों ने मुझे मजबूर कर दिया..पहली बार इस मुद्दे पर कोई सार्थक बात निकल कर आयी है..वो ये की एक रास्ता था की जो मुद्दे विवादित थे उन्हें हटा कर पोस्ट को बने रहने देना चाहिए था..ये बिलकुल ठीक रास्ता था..
अब जहाँ तक दिनेश राइ द्विवेदी जी के मेल की बात है..तो जहां तक मुझे लगा की वो शायद किसी मित्र को भविष्य में किसी अनचाही मुसीबत से आगाह करने की अग्रिम सलाह सा था..मगर चूँकि अरुण जी ने पोस्ट ही हटा दी इसलिए वो कुछ और ही बन गया..
हाँ जहां तक आपने पोस्ट के प्रारंभ में कुछ प्रश्न उठाये हैं..तो कौन कहता है की गलत चित्रण के बारे में मुकदमें नहीं होते..अजी मैं खुद अपने ऐसे तीन वकील मित्रों को जानता हूँ जिन्होंने..पत्रिका (सरिता ) एक धारावाहिक..तथा एक अन्य ने एक पिक्चर के संवाद पर आपत्ति जताते हुए मुकदमा ठोंक रखा है..
सब अपने अपने तरीके से मुकदमा लड़ रहे हैं..देखिये सीधी सी बात है..क्या कोई भी किसी को ब्लॉग्गिंग करने से रोक सकता है..पोस्ट लगाने और हटाने से बाध्य कर सकता हैं..नहीं बिलकुल नहीं..हाँ तब तक सब ठीक ही है जब तक कुछ अप्रिय नहीं घट जाता..
ये ही देखिये न मान लीजिये दिनेश जी ने अरुण जी को पोस्ट हटाने के लिए नहीं कहा होता ..उन्होंने हटाई भी नहीं होती..और कल को कोई सचमुच ही ऐसा करता..तो बेशक हमें बड़ा गर्व होता.मीडिया में अरुण जी का नाम भी खूब होता मगर ..हम इसी कम्पूटर पर बैठे बैठे उनके समर्थन में कई पोस्ट लिख मारते..मगर अदालत के चक्कर कौन काटता..बस यही एक वजह थी शायद..
मित्र होने के नाते काफी कुछ लिख गया ..उम्मीद है अन्यथा नहीं लेंगे...
और हाँ मैं न सिर्फ खुद ही विधि का क्षात्र हूँ बल्कि पिछले ११ वर्षों से न्यायालय में ही कार्यरत हूँ...
शायद टिप्प्न्नी करना भूल थी..मैं सिर्फ इतना स्पष्ट कर दूं की मेरा नाम अजय कुमार झा है अजय कुमार झाकने नहीं ...और ऐसा ही रहा तो मुझे जैसे आम पाठक तिप्प्न्नियाँ करना बंद कर देंगे..
धन्यवाद..
कसाब व अफ्जल के केस में कहते हैं कानून अपना काम करेगा और उसमें समय लगेगा ही.
अब एक उदाहरण देखें. अमूमन बलात्कार का केस कितने समय चलता है? और ऐसे ही एक केस में राजस्थान में मात्र 13 दिन में न्यायालय ने अपना काम किया था. यह कैसे हुआ? बात इच्छाशक्ति और नियत की है.
मित्रो ब्लाग को गाली गलौज का अखाड़ा मत बनाइये, एक मित्र ने फोन कर सूचना दिया कि गाली आ रही है, मुझे वो टिप्पणी हटानी पड़ी, मै माडरेशन के पक्ष में न हूँ न रहा हूँ।
कृपया ब्लाग को माडरेशन के लिये मजबूर मत करे, तकि किसी को शिकायत हो कि उनकी टिप्पणी को मै प्रकाशित नही करता हूँ। जिन टिप्पणियों मे आपत्ति जनक बाते थी मै उसे हटा रहा हूँ।
यह अच्छी बात है कि आप का परिवार विधि से 35 वर्षो से जुड़ा हुआ है, और आप स्वयं 21 वर्ष से विधि के सानिध्य में पले बढ है और गत 2 वर्षो से विधि का अध्ययन कर रहे हैं। अरुण जी की हटाई गई पोस्ट को और मेरे मेल को किसी अपराध विधि के अनुभवी वकील को जो शायद आप के परिवार में ही हों, दिखाएँ और सलाह करें।
महाशक्ति जी, मोडरेशन रखना गलत बात नहीं है। क्यों कि टिप्पणी में आपत्तिजनक बात के लिए प्रकाशक (ब्लाग स्वामी) बराबर का जिम्मेदार है। इसी आधार पर डी अजित को महाराष्ट्र में मुकदमा झेलना पड़ रहा है।
@संजय बेंगाणी जी,
वह 13 दिनों में मकदमा जोधपुर की अदालत से निर्णीत हुआ था। उस में गवाहों की संख्या सीमित थी। आरोप मात्र एक या दो थे। कसाब के मुकदमे में सैंकड़ों गवाह हैं। हजार पृष्ठ से ऊपर की चार्जशीट है। मामला जोधपर के मामले से अधिक गंभीर है। जोधपुर वाले मामले में उँची अदालत से अपराधी छूट जाएगा तो कोई हल्ला नहीं होगा।
लेकिन कसाब के मामले में जरा भी कोताही नहीं हुई कि ..... आप अधिक समझते हैं पता नहीं किस किस के साथ क्या क्या होगा?
इस मामले में पूरे भारत की ही नहीं अनेक देशों की प्रतिष्टा दाँव पर लगी है। अभियोजन एक भई सबूत को अदालत के सामने लाने से नहीं चूकना चाहता। इस प्रकरण की सुनवाई बिना् एक भी तारीख बदले लगातार हो रही है। लेकिन गवाहियाँ तो सारी करानी होंगी। किसी तरह का कोई छेद नहीं छूटना चाहिए। कसाब को वकील मुहैया कराना बहत मामूली बात है।
अभयोजकों पर पूरे मामले को बिना किसी छिद्र के साबित करने का जो दबाव है, उसे मीडिया में हो रही बहसें और बढ़ा देती हैं। लेकिन सिद्धहस्त लोग वही होते हैं जो सारे दबाव के बाद भी अपने कर्तव्य को सर्वोत्तम तरीके से अंजाम देते हैं। आप और हम जानते हैं कि जो इस काम को कर रहे हैं वे भी वकील ही हैं और उन के काम की गुणवत्ता और उन के श्रम के बारे में कोई एक शब्द भी मीडिया में नहीं लिखेगा। वे इतिहास की गुमनामी में खो जाएंगे। उन का उल्लेख होगा तो इस तरह कि वे भी उस पेशे के सदस्य थे जहाँ सब धूर्त होते हैं।
आप मीडिया कंपनी चलाते हैं। आप चाहें तो उन पर लिख सकते हैं।
क्या कोई भी किसी को ब्लॉग्गिंग करने से रोक सकता है..पोस्ट लगाने और हटाने से बाध्य कर सकता हैं..नहीं बिलकुल नहीं..हाँ तब तक सब ठीक ही है
मेरे नाम से की गयी टिप्प्न्नी को हटाने के लिए धन्यवाद..
एक अनुरोध है आप सभी से, हो सकता है कि बुद्धिहीन होने के कारण मुझे जो आपत्तिजनक लग रहा है वह वास्तव में ऐसा न हो । फिर भी . . .
ब्लॉग जगत को गुटों में न बाँटिए . सभी लोग समझदार हैं। अधिक कुछ नहीं लिख पा रहा हूँ. न जाने कौन क्या समझ बैठे !
यह सब अच्छा नहीं लग रहा है. आप कह सकते हैं अपने काम से काम रखो । फिर भी . .
अरे क्या हम लडे बिना बात नही कर सकते, कोई भी बात हो उसे प्यार से सुलझाये, तभी हमे कोई रास्ता मिलेगा, अगर सिर्फ़ लडेगे ही एक दुसरे पर इलजाम लगाये गे तो हम सब जहां है वही रहेगी बल्कि उस से भी पिछे रह जाये गै, अजी कोई नयी जानकारी मिल रही है तो उस पर विचार करे, सोचे एक दम से आग बुलबुला ना बने, तो आओ दोस्तो छोडो लडाई को मिल कर बात करे, यहां कोई किसी को धमकी ना दे, बस अपनी राय दे, मेने बहुत कुछ सीखा है यहां से,लेकिन बहुत कुछ सहन भी किया है, अगर पहली बार ही लड पडता तो आज मेरा ब्लांग कब का बन्द हो चुका होता, हमे हक है एक दुसरे को अपनी राय देने का क्योकि हम सब एक दुसरे को अपना समझते है इस लिये, किसी को हानि हो तो इस परिवार के अन्य सदस्य को भी दुख होता है, तो मत लडो ओर मिल कर चलो अभी तो (हिन्दी ) ब्लांग अपने घुटनो पर भी नही चल पाया.... आओ आपसी मत भेदो से दुर हम अपने इस हिन्दी ब्लांग को ओर ऊंचा ले जाये
अगर मेरी किसी बात से किसी को भी दुख पहुचा हो तो बेधडक गाली भी दे दे, लेकिन आपसी लडाई तो बन्द कर लो.
धन्यवाद
@ श्री अजय कुमार झा जी,उक्त झाकने वाले में मुझे भाषा ठीक नही लगी तथा वह किसी एकाउन्ट से न होकर अनाम टिप्पणी के रूप में थी अत: उसे डिलीट कर दिया गया था। चूकिं आपकी टिप्पणी पहले मिल चुकी थी मुझे लगा कि आपके नाम का कोई दुरपयोग कर रहा है।
श्री द्विवेदी जी, मै इस पर सलाह ले चुका हॅू और चर्चाऐं भी कर चुका हूँ, पूरी तरह सहमत नही हुआ जा सकता था, पर पूरी तरह असहमत भी नही हुआ जा सकता था। कुछ गलत तो था पर सब कुछ गलत भी नही था इसीलिये मैने कहा था जहाँ कुछ गलत था उसे चिन्हित करके उसे हटाने की सलाह देना चाहिये था न कि पूरे लेख को हटाने की बात कहनी चाहिये थी। लेख को हटाना ही शायद इतने बड़ी बात को खड़ा किया हुआ है।
Tippani maine taiyarr kar li hai evam apne LEGAL ADVISOR ko bhej di hai. Adhivakta mhoday ki sakaratmak report aate hi post kar du ga. (Pata nahi kaun kaun si dhara vara lag jaye).
Shesh sab kushal mangal hai aur bwaliyo ke hujum mai aapni aage bhi kushlta ki uparwale se kamna karta hun. Aasha hai aap naaraj na honge.
Aapka apna
अजय कुमार झा की टिप्पणी पर किसी बेनामी द्वारा अजय कुमार झाकने वाले के नाम से टिप्पणी करना निहायत ही कायराना और घटिया हरकत है। यह ध्यान देने वाली बात है कि असहमतियों को झेल न पाने वाले लोगों के बीच क्या कोई कॉमन प्वाइंट है। मुझे लगता है कि हो सकता है।
मैं कानून का ज्ञाता नहीं हूँ. अतः इस पर ज्यादा कह नहीं सकता. जोधपुर वाला केस मात्र तीव्रता का उदाहरण देने के लिए इंगित किया था. कसाब का मामला अलग है.
मेरी कम्पनी डिजाइनिंग का काम करती है अतः छापना, छपवाना हमारे काम का हिस्सा नहीं है.
कसाब के मामले में कठिनाई हो सकती है, अफ्जल के मामले का क्या? इसी तरह जब कसाब को फाँसी की सजा सुना दी जाएगी तब मामला "जय हो" करते राष्ट्रपति भवन में नहीं अटकेगा, इसकी क्या गेरंटी है?
bhai kuch ho ya na ho TRAFFIC to mil rha hai na. So be happy.
जी हाँ वो टिप्प्न्नी मैं भी पढ़ चूका था और मन व्यथित टिप्प्न्नी से भी और मेरे नाम के लिए जाने से भी आपका आभार ..स्नेह व साथ बनाए रखें..
इस आलेख और जारी बहस को पढ़कर के राब्सपीयर की याद आ रही है, 1789 की फ्रांसीसी क्रांति के पूर्व वह जज था। आपनी डायरी में लिखता है कि मुजरिम को सजा देने में मेरे दिल और दिमाग कांप जाते हैं....बाद में उसने फ्रांस को बचाने के लिए गिलोटिन का ताबड़तोड़ इस्तेमाल किया...और बाद में खुद भी गिलोटिन पर चढा दिया गया...विधि लोगों के लिए है या लोग विधि के लिए....
डोंट वरी, बी हैप्पी:)
मैंने मिटाई गई पोस्ट नहीं पढी इसलिए मैं कुछ कहने की स्थिति में नहीं हूँ
वीनस केसरी
जो भी द्विवेदी जी ने लिखा था और जो भी अरुण जी ने किया दोनों कदम सही थे। एक दूसरे पर दोषारोपण तो गलत है और बातों को बढ़ाएं नहीं तो बेहतर कई उदाहरण कुछ अलग मतलब से दिए जाते हैं। जहां तक रही बात कि अफजल गुरू की तो आप सब ये मान लीजिए कि उसे फांसी नहीं होने जा रही। हमारी किसी सरकार में इतनी हिम्मत नहीं है। कल ही एंटनी ने ये जवाब दिया है कि अभी तो इंदिरा के कातिल भी फांसी से बचने की फरियाद कर रहे हैं पहले तो उनका नंबर है। शायद आगे पुलिस पकड़ेगी नहीं आतंकवादियों को मार ही डालेगी। फायदा भी नहीं बचा कर रखने से आचार तो डालना नहीं इनका।
और एक बात कई केस ऐसे चल रहे हैं कि प्रिंट में एक शब्द भी गलत चला गया तो केस झेलना पड़ रहा है। तो ऐसा नहीं है कि अब ब्लॉग पर कुछ भी लिख दो कोई भी केस कर सकता है। हां पोस्ट हटाने से बेहतर होता कि आपत्तिजनक बातें हटाई जाती पर पोस्ट हटाना भी गलत नहीं था।
श्री लोकेश जी,
यदि स्वयंसेवको से आपका अभिप्राय राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ है से है तो आपकी उक्त टिप्पणी निन्दनीय है। अगर स्वयंसेवको से तत्पर्य आपका आरएसएस से है तो किसी संस्था या उसके सदस्यों पर इस प्रकार की टिप्पणी करना बिल्कुल उचित नही है।
जिस प्रकार द्विवेदी जी के ब्लाग व उनके बारे में कुछ किसी टिप्पणी में था मैने उसे हटाने में कोई संकोच नही किया, यही बात पंगेबाज जी के लिये भी लागू होती है, उनके तथा उनके ब्लाग के लिये लागू होती है।
वैसे मै आपको ईमेल के जरिये आपपके कमेन्ट से सम्बन्धित आपनी राय आपको दे चुका हूँ। अत: आप अपनी टिप्पणी केा भी हटाने को अन्यथा नही लेगे। कम से कम व्यक्तिगत आक्षेप से बचना चाहिये।
श्री प्रमेन्द्र जी,
आपका पूर्वाग्रह ग्रसित होना मन के किसी कोने को दुख पहुँचा गया। आप सभी ने देखा होगा कि मेरी बहुत कम आने वाली टिप्पणियाँ धार्मिक, राजनैतिक मुद्दों पर कतई नहीं होती तथा न ही उन्हें समाहित किये हुये होती है।
आपका ब्लॉग, आपका अधिकार, आपका नियंत्रण, आपका पूर्वाग्रह अपनी जगह उचित होगा। किन्तु एक बात का स्प्ष्टीकरण देना अब बहुत ज़रूरी है कि स्वयंसेवक टाईप के कुछ ब्लॉगर्स जब मैंने लिखा था तो मनोमष्तिष्क में मात्र अंग्रेजी भाषा का शब्द Volunteers था न कि आपकी सोच अनुसार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ!! और फिर जैसा आपने आरोप लगाया है कि किसी संस्था या उसके सदस्यों पर इस प्रकार की टिप्पणी करना बिल्कुल उचित नही तो यह भी एक मिथ्या आरोप है। हाँ सीधी सी बात को तोड़-मरोड़ दिया जाये तो बात अलग है।
टिप्पणी हटाने को मैं अन्यथा क्यों लेने लगा? किन्तु एक बार ऐसा अवश्य प्रतीत हुया कि आपके द्वारा यदि, तो, अगर जैसे शब्दों का प्रयोग करने की नौबत ही क्यों आती अगर एक बार भी मेल द्वारा सम्पर्क कर लिया होता। लगे हाथों यह भी बता देते कि किस पर निजी आक्षेप किया है मैंने
मुझे खुशी है कि स्वयंसेवको से मेरा अभिप्राय राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से नहीं है तो हटायी गयी टिप्पणी निन्दनीय नहीं मानी जायेगी।
आप खुश हुये होंगें टिप्पणी हटाकर, मुझे दुख पहुँचा है अपनी बात का गलत मतलब निकाले जाने पर।
लिखते रहें। आपके सारगर्भित विचारों से ही हम जैसे आलसियों को स्वस्थ टिप्पणी करने का मन कर आता है। :-)
इसी बहाने विधि की कई महत्वपूर्ण जानकारियां मिलीं। शुक्रिया।
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
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