महारात्रि अज्ञानता और पापाचार की सूचक है ‘शिवरात्रि' फाल्गुन मास के कृष्ण पक्ष की अंतिम रात्रि (अमावस्या) से एक दिन पहले मनाई जाती है। परमपिता परमात्मा शिव का अवतरण इस लोक में कलियुग के पूर्णान्त से कुछ ही वर्ष पहले हुआ था जबकि सारी सृष्टि अज्ञान अन्धकार में थी। इसलिए 'शिव' का सम्बन्ध ‘रात्रि' से जोड़ा जाता है और परमात्मा शिव की रात्रि में पूजा को अधिक महत्व दिया जाता है। श्री नारायण तथा श्रीराम आदि देवताओं का पूजन तो दिन में होता है क्योंकि श्री नारायण और श्री राम का जन्म क्रमश: सतयुग एवं त्रेता युग में हुआ था। मन्दिरों में उन देवताओं को रात्रि में 'सुला' दिया जाता है और दिन में ही उन्हें जगाया जाता है। परन्तु परमात्मा शिव की पूजा के लिए तो भक्त लोग स्वयं भी रात्रि को जागरण करते हैं।
आज पूर्व लिखित रहस्य को न जानने के कारण कई लोग कहते हैं कि 'शिव' तमोगुण के अधिष्ठाता (आधार) है इसलिए शिव की पूजा रात्रि को होती है और इसकी याद में शिवरात्रि मनाई जाती है। क्योंकि 'रात्रि' तमोगुण की प्रतिनिधि है परन्तु उनकी यह मान्यता बिल्कुल गलत है क्योंकि वास्तव में शिव तमोगुण के अधिष्ठाता नहीं है बल्कि तमोगुण के संहारक अथवा नाशक है। यदि शिव तमोगुण के अधिष्ठाता होते तो उन्हें शिव अर्थात कल्याणकारी, पापकटेश्वर एवं मुक्तेश्वर आदि कहना ही निरर्थक हो जाता। 'शिव' का अर्थ है- 'कल्याणकारी।' शिव का कर्तव्य आत्माओं का कल्याण करना है जबकि तमोगुण का अर्थ अकल्याणकारी होता है। यह पाप वर्धक एवं मुक्ति में बाधक है। अत: वास्तव में 'शिवरात्रि' इसलिए मनाई जाती है क्योंकि परमात्मा शिव ने कल्प के अंत में अवतरित होकर अज्ञानता, दु:ख और अशांति को समाप्त किया था।
महाशिवरात्रि का आध्यात्मिक महत्व महाशिवरात्रि के बारे में एक मान्यता तो यह भी है कि इस रात्रि को परमपिता परमात्मा शिव ने महासंहार कराया था और दूसरी मान्यता यह है कि इसी रात्रि को अकेले ईश्वर ने अम्बा इत्यादि शक्तियों से सम्पन्न होकर रचना का कार्य प्रारम्भ किया था। परन्तु प्रश्न उठता है कि शिव तो ज्योर्तिलिंगम् और अशरीरी हैं। वह संहार कैसे और किस द्वारा कराते हैं और नई दुनिया स्थापना की स्पष्ट रूपरेखा क्या है?
ज्योतिस्वरूप परमपिता परमात्मा शिव प्रजापिता ब्रह्मा द्वारा सतयुगी सतोप्रधान सृष्टि की स्थापना और शंकर द्वारा कलियुगी तमोप्रधान सृष्टि का महाविनाश करते हैं। कलियुग के अन्त में ब्रह्मा के तन में प्रवेश करके उसके मुख द्वारा ज्ञान-गंगा बहाते हैं। इसलिए शिव को 'गंगाधर' भी कहते हैं और ‘सुधाकर' अर्थात् 'अमृत देने वाला' भी कहते हैं। प्रजापिता ब्रह्मा द्वारा जो भारत-माताएं और कन्याएं ‘गंगाधर' शिव की ज्ञान-गंगा में स्नान करती अथवा ज्ञान सुधा (अमृत) का पान करती हैं, वे ही शिव-शक्तियां अथवा अम्बा, सरस्वती इत्यादि नामों से विख्यात होती हैं। ये चैतन्य ज्ञान-गंगाएं अथवा ब्रह्मा की मानस पुत्रियां ही शिव का आदेश पाकर भारत के जन-मन को शिव-ज्ञान द्वारा पावन करती हैं इसलिए शिव 'नारीश्वर' और 'पतित-पावन' अथवा 'पाप-कटेश्वर' भी कहलाते हैं क्योंकि मनुष्यात्माओं को शक्ति-रूपा नारियों अथवा माताओं द्वारा ज्ञान देकर पावन करते हैं तथा उनके विकारों रूपी हलाहल को पीकर उनका कल्याण करते हैं और उन्हें सहज ही मुक्ति तथा जीवन मुक्ति का वरदान देते हैं। वे सभी मनुष्यात्माओं को शरीर से मुक्त करके शिवलोक को ले जाते हैं। इसलिए वे मुक्तेश्वर भी कहलाते हैं। परन्तु ये दोनों कार्य कलियुग के अन्त में अज्ञान रूपी रात्रि के समय शिव के द्वारा ही सम्पन्न होते हैं।
इसलिए स्पष्ट है कि ‘शिवरात्रि' एक अत्यन्त महत्वपूर्ण वृत्तांत का स्मरणोत्सव है। यह सारी सृष्टि की समस्त मनुष्यात्माओं के पारलौकिक परमपिता परमात्मा के दिव्य जन्म का दिन है और सभी की मुक्ति और जीवन मुक्ति रूपी सर्वश्रेष्ठ प्राप्ति की याद दिलाती है। इस कारण से शिवरात्रि सभी जन्मोत्सवों अथवा जयन्तियों की भेंट में सर्वोत्कृष्ट है क्योंकि अन्य सभी जन्मोत्सव तो मनुष्य आत्माओंअथवा देवताओं के जन्म दिन की याद में मनाये जाते हैं जबकि शिवरात्रि मनुष्य को देवता बनाने वाले, देवों के भी देव, धर्म पिताओं के भी पिता, सद्गति दाता, परम प्रिय, परमपिता परमात्मा के दिव्य और परम कल्याणकारी जन्म का स्मरणोत्सव है। इसे सारी सृष्टि के सभी मनुष्यों को बड़े उत्साह से मनाना चाहिए परन्तु आज मनुष्य आत्माओं को परमपिता परमात्मा का यथार्थ परिचय न होने के कारण अथवा परमात्मा शिव को नाम-रूप से न्यारा मानने के कारण शिव जयन्ति का महात्म्य बहुत कम हो गया है और लोग धर्म के नाम पर ईर्ष्या और लड़ाई करते हैं।
सच्ची शिवरात्रि मनाने की रीति भक्त लोग शिवरात्रि के दिन होने वाले उत्सव पर सारी रात्रि जागरण करते हैं और यह सोचकर कि खाना खाने से आलस्य, निद्रा और मादकता का अनुभव होने लगता है, वे अन्न भी नहीं खाते हैं ताकि उनके उपवास से भगवान शिव प्रसन्न हों परन्तु मनुष्यात्माओं को तमोगुण में सुलाने वाली और रुलाने वाली मादकता तो पांच विकार हैं। जब तक मनुष्य इन विकारों का त्याग नहीं करता तब तक उसकी आत्मा का पूर्ण जागरण हो ही नहीं सकता और तब तक आशुतोष भगवान शिव भी उन पर प्रसन्न नहीं हो सकते हैं क्योंकि भगवान शिव तो स्वयं ‘कामारि' (काम के शत्रु) हैं, वे भला 'कामी' मनुष्य पर कैसे प्रसन्न हो सकते हैं? दूसरी बात यह है कि फाल्गुन के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी रात्रि को मनाया जाने वाला शिवरात्रि महोत्सव तो कलयुग के अंत के उन वर्षों का प्रतीक है, जिसमें भगवान शिव ने मनुष्यों को ज्ञान द्वारा पावन करके कल्याण का पात्र बनाया था। अत: शिवरात्रि का व्रत सारे वर्ष मनाना चाहिए क्योंकि वर्तमान संगमयुग में परमात्मा का अवतरण हो चुका है। इस कलियुगी सृष्टि के महाविनाश की सामग्री एटम, हाइड्रोजन, परमाणु बमों के रूप में तैयार हो चुकी है व परम प्रिय परमात्मा द्वारा विश्व नव-निर्माण का कर्तव्य भी सम्पन्न हो रहा है। अब महाविनाश के समय तक ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करें ताकि मनोविकारों पर ज्ञान-योग द्वारा विजय प्राप्त कर सकें। यही महा व्रत है जो कि 'शिवव्रत' के नाम से प्रसिद्ध है और यही वास्तव में शिव का मन्त्र (मत) है जो कि 'तारक-मन्त्र' के नाम से प्रसिद्ध है क्योंकि इसी व्रत से अथवा मन्त्र से मनुष्यात्माएं इस संसार रूपी विषय सागर से तैर कर, मुक्त होकर शिवलोक को चली जाती हैं। इस वर्ष परमात्मा शिव को इस सृष्टि पर अवतरित हुए 81 वर्ष हो रहे हैं। परमात्मा शिव ईश्वरीय ज्ञान और राजयोग की शिक्षा से सर्व मनुष्यात्माओं को पावन बना रहे हैं। आप भी परमात्मा के साथ सच्ची शिवरात्रि मनाकर जन्मजन्मान्तर के लिए श्रेष्ठ भाग्य प्राप्त कर सकते हैं।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें