अग्नि सूक्तं... सबसे पहले वेद... ऋग्वेद... की सबसे पहली ऋचा है... यह अग्नि देव को संबोधित करके गयी है | अग्नि देव... जिन्हें ब्रह्माण्ड की शक्ति माना जाता है... यह ऋचा रक्षा करने वाली है और मनुष्यों को पूर्णता की ओर प्रेरित करती है...
[ऋषि - मधुच्छन्दा वैश्वामित्र, छंद- गायत्री, देवता- अग्नि... ]
विशेष: - ऋग्वेुदस्यत प्रथमं सूक्तं अग्निदेवस्ये कृते सम्र्पितम् अस्ति , अनेनेव ज्ञायते यत् वैदिक काले एव अग्नि देवस्य महातम्यम ज्ञातम् आसीत् । अग्नि: विश्वगस्य सर्वप्रथम: आविष्का्र: आसीत् । अस्यज प्रथमप्रयोग: भारतदेशे एव अभवत् ।
[ अर्थ : ऋग्वेद का प्रथम सूक्त अग्निदेव को समर्पित है... इससे यह ज्ञात होता है की वैदिक काल में भी अग्निदेव की महिमा ज्ञात थी | अग्नि विश्व का प्रथम आविष्कार थी | इसका प्रथम प्रयोग भारत देश में ही हुआ था...]
ॐ अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम् । होतारं रत्न धातमम्।।१।।
हम अग्निदेव की स्तुति करते हैं... जो यज्ञ के पुरोहित, देवता, ऋत्विज ( समयानुकूल यज्ञ का सम्पादन करने वाले), होता (देवों का आवाहन करने वाले) और याजको को रत्नों (यज्ञ के लाभों ) से विभूषित करने वाले हैं |
अग्निः पूर्वेभिर्र्षिभिरीड्यो नूतनैरुत | स देवानेह वक्षति ||२ ||
जो अग्निदेव पूर्वकालीन ऋषिओं द्वारा प्रशंसित है... जो आधुनिक काल में भी ऋषि कल्प वेदज्ञ विद्वानों द्वारा स्तुत्य हैं... वे अग्निदेव इस यज्ञ में देवो का आवाहन करें |
अग्निना रयिमश्नवत पोषमेव दिवे-दिवे | यशसं वीरवत्तमम || ३ ||
ये बढाने वाले अग्निदेव (स्तोता द्वारा स्तुति किये जाने पर)... मनुष्यों को (यजमान को) प्रतिदिन विवर्धमान (बढाने वाला) धन, यश, पुत्र -पौत्रादि वीर पुरुष प्रदान करने वाले हैं |
अग्ने यं यज्ञमध्वरं विश्वतः परिभूरसि | स इद्देवेषु गछति || ४ ||
हे अग्निदेव ! आप सबका रक्षण करने में समर्थ हैं | आप जिस अध्यर ( हिंसा रहित यज्ञ ) को आवृत किये रहते हैं... वही ( जिसकी आहुति को आप ग्रहण कर रहे हैं ) यज्ञ के देवताओं तक अवश्य पहुँचता है |
अग्निर्होता कविक्रतुः सत्यश्चित्रश्रवस्तमः | देवो देवेभिरा गमत || ५ ||
हे अग्निदेव ! आप हवि -प्रदाता , ज्ञान और कर्म की संयुक्त शक्ति के प्रेरक , सत्यरूप और विलक्षण रूप युक्त हैं | आप देवो के साथ इस यज्ञ में पधारें |
यदङग दाशुषे तवमग्ने भद्रं करिष्यसि | तवेत तत सत्यमङगिरः || ६ ||
हे अग्निदेव ! आप जो भी कृपा अपने भक्त पर करते हैं... वह अग्निरस... अवश्य ही आपका सार है |
उप तवाग्ने दिवे-दिवे दोषावस्तर्धिया वयम | नमो भरन्त एमसि || ७ ||
हे अग्निदेव ! रात्रि को दूर करने वाले... अपने विचारों और प्रार्थनाओं से , आपकी वंदना करते हुए... हम दिन पर दिन आपके समीप आयें (अर्थात हमें आपका सानिध्य प्राप्त हो) |
राजन्तमध्वराणां गोपां रतस्य दीदिविम | वर्धमानंस्वे दमे || ८ ||
हे अग्निदेव ! यज्ञों के राजा/स्वामी... सनातन सत्य , प्रकाशमयी , अपने तेज में निरंतर वृद्धि को प्राप्त होने वाले , हम आपके समीप आ रहे हैं |
स नः पितेव सूनवे.अग्ने सूपायनो भव | सचस्वा नः सवस्तये || ९ ||
हे अग्निदेव ! कृपया आप हमें उसी प्रकार उपलब्ध होईये , जिस प्रकार
एक पिता अपने पुत्र को होता है | हे अग्निदेव ! आप हमारे भले के लिए हमारे साथ रहिये |
ॐ असतो मा सद्गमय | तमसो मा ज्योतिर्गमय | मृत्योरमा अमृतं गमय ||
ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति:
[ऋषि - मधुच्छन्दा वैश्वामित्र, छंद- गायत्री, देवता- अग्नि... ]
विशेष: - ऋग्वेुदस्यत प्रथमं सूक्तं अग्निदेवस्ये कृते सम्र्पितम् अस्ति , अनेनेव ज्ञायते यत् वैदिक काले एव अग्नि देवस्य महातम्यम ज्ञातम् आसीत् । अग्नि: विश्वगस्य सर्वप्रथम: आविष्का्र: आसीत् । अस्यज प्रथमप्रयोग: भारतदेशे एव अभवत् ।
[ अर्थ : ऋग्वेद का प्रथम सूक्त अग्निदेव को समर्पित है... इससे यह ज्ञात होता है की वैदिक काल में भी अग्निदेव की महिमा ज्ञात थी | अग्नि विश्व का प्रथम आविष्कार थी | इसका प्रथम प्रयोग भारत देश में ही हुआ था...]
ॐ अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम् । होतारं रत्न धातमम्।।१।।
हम अग्निदेव की स्तुति करते हैं... जो यज्ञ के पुरोहित, देवता, ऋत्विज ( समयानुकूल यज्ञ का सम्पादन करने वाले), होता (देवों का आवाहन करने वाले) और याजको को रत्नों (यज्ञ के लाभों ) से विभूषित करने वाले हैं |
अग्निः पूर्वेभिर्र्षिभिरीड्यो नूतनैरुत | स देवानेह वक्षति ||२ ||
जो अग्निदेव पूर्वकालीन ऋषिओं द्वारा प्रशंसित है... जो आधुनिक काल में भी ऋषि कल्प वेदज्ञ विद्वानों द्वारा स्तुत्य हैं... वे अग्निदेव इस यज्ञ में देवो का आवाहन करें |
अग्निना रयिमश्नवत पोषमेव दिवे-दिवे | यशसं वीरवत्तमम || ३ ||
ये बढाने वाले अग्निदेव (स्तोता द्वारा स्तुति किये जाने पर)... मनुष्यों को (यजमान को) प्रतिदिन विवर्धमान (बढाने वाला) धन, यश, पुत्र -पौत्रादि वीर पुरुष प्रदान करने वाले हैं |
अग्ने यं यज्ञमध्वरं विश्वतः परिभूरसि | स इद्देवेषु गछति || ४ ||
हे अग्निदेव ! आप सबका रक्षण करने में समर्थ हैं | आप जिस अध्यर ( हिंसा रहित यज्ञ ) को आवृत किये रहते हैं... वही ( जिसकी आहुति को आप ग्रहण कर रहे हैं ) यज्ञ के देवताओं तक अवश्य पहुँचता है |
अग्निर्होता कविक्रतुः सत्यश्चित्रश्रवस्तमः | देवो देवेभिरा गमत || ५ ||
हे अग्निदेव ! आप हवि -प्रदाता , ज्ञान और कर्म की संयुक्त शक्ति के प्रेरक , सत्यरूप और विलक्षण रूप युक्त हैं | आप देवो के साथ इस यज्ञ में पधारें |
यदङग दाशुषे तवमग्ने भद्रं करिष्यसि | तवेत तत सत्यमङगिरः || ६ ||
हे अग्निदेव ! आप जो भी कृपा अपने भक्त पर करते हैं... वह अग्निरस... अवश्य ही आपका सार है |
उप तवाग्ने दिवे-दिवे दोषावस्तर्धिया वयम | नमो भरन्त एमसि || ७ ||
हे अग्निदेव ! रात्रि को दूर करने वाले... अपने विचारों और प्रार्थनाओं से , आपकी वंदना करते हुए... हम दिन पर दिन आपके समीप आयें (अर्थात हमें आपका सानिध्य प्राप्त हो) |
राजन्तमध्वराणां गोपां रतस्य दीदिविम | वर्धमानंस्वे दमे || ८ ||
हे अग्निदेव ! यज्ञों के राजा/स्वामी... सनातन सत्य , प्रकाशमयी , अपने तेज में निरंतर वृद्धि को प्राप्त होने वाले , हम आपके समीप आ रहे हैं |
स नः पितेव सूनवे.अग्ने सूपायनो भव | सचस्वा नः सवस्तये || ९ ||
हे अग्निदेव ! कृपया आप हमें उसी प्रकार उपलब्ध होईये , जिस प्रकार
एक पिता अपने पुत्र को होता है | हे अग्निदेव ! आप हमारे भले के लिए हमारे साथ रहिये |
ॐ असतो मा सद्गमय | तमसो मा ज्योतिर्गमय | मृत्योरमा अमृतं गमय ||
ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति:
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