हमारे कार्यों को संपादित करने में जहां विचारों की विशेष भूमिका रहती है, वहीं हमारे विचार ही हमें शुभ और अशुभ कार्यों को निष्पादित करने के लिए बाध्य करते हैं। ये विचार ही हैं जो हमारे ऋषियों-मुनियों ने अपने जीवन के आनुभूतिक भावों को मानव कल्याण के लिए कहे हैं। विवेक पूर्वक विचार करके ही हमें निर्णय लेना चाहिए।
एक विशेष शब्द है फूट । इसको आगे अपने जीवन में कोई स्थान नहीं देना चाहिए। इस शब्द के व्यवहार से जीवन नष्ट हो सकता है। फूट का शाब्दिक अर्थ तो होता है विरोध, बैर, बिगाड़ या फूटने की क्रिया का भाव । साथ ही फूट का एक और अर्थ होता है ऐसा फल जो पकने पर और धूप के प्रभाव से स्वयमेव ऊपर से फटने लगता है, ककड़ी की प्रजाति का एक फल । यद्यपि इस फल को बड़े चाव से खाया जाता है। लेकिन यही फूट फल के रूप में न होकर जब परिवार में होती है तो परिवार बिखर जाता है, बर्बाद हो जाता है। एक कहावत है- वन में में उपजे सब कोई खाय, घर में उपजें घर बह जाय।।
इस शब्द को परिवार के साथ जोड़ने का अच्छी तरह पकने से नहीं अर्थ होता है बल्कि अध-कच्चे सम्बंधो ओर
तालमेल के अभाव से है। वैचारिक कच्चेपन और टुच्चेपन के भाव से है। जिसके बिना परिवार में फूट पड़ना सम्भव नहीं होता। फल के फूट का फटना उसकी पक्कावस्था के चरमोत्कर्ष का द्योतक है। जबकि परिवार में फूट पड़ना सम्बंधो, विचारों और आपसी तालमेलों में पतन और विनाश प्रकट करता है। यह छोटा सा शब्द फूट न केवल परिवार को बल्कि बड़े-बड़े राष्ट्रों को कलह, संघर्ष और अंहिसा के मार्ग से विनाश की ओर ढकेलता है। अस्तु हमें आपस की फूट से दूर रहकर संगठित होकर परिवार ओर समाज के संगठित कार्यों को पूरा करना चाहिए । अंग्रेजी कहावत है हम संगठित ओर एक साथ रहेंगे तो हर प्रकार की प्रगति और उन्नति को प्राप्त करेंगे और यदि हम विभाजित हुए अलग-अलग हुए, परस्पर मतैक्य रखकर न चले तो पतन अवश्यम्भावी है। तुलसी बाबा ने कहा है कि- जहां सुमति तॅहजहां सुमति तॅह सम्पति नाना, जहां कुमति तॅह विपति निदानां ।
अपने धर्म शास्त्रों में कहा गया है ‘‘संघे शक्ति कलौ युगे’’ कलियुग में अर्थात आज के समय में संगठन में ही असीमित शक्ति होती है। पराधीन काल में चतुर अंग्रेज हमारी इस संगठित शक्ति को तहस-नहस करते हुए उन्होनें अपनी स्वार्थ पूर्ति के कारण निर्णय किया Divide and Rule अर्थात विभाजित करो और राज्य करो। अंग्रेज अपनी इसी बात के अंतर्गत इस देश के हिंदुओं और मुसलमानों में बांट कर राज्य करते रहे। क्योंकि हम संगठित होकर शक्ति के रूप में खड़े नहीं हुये है। अतः पराधीन हुए । हमें इस आपसी फूट से दूर रहकर अपने विवेकपूर्ण विचारों के कार्य निष्पादन कर अपना, समाज का और राष्ट्र का कल्याण करना चाहिए । तभी हम अपने लक्ष्य को पूरा कर सकेंगे।
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