‘‘स्वाधीनता और स्वभाषा का घना संबंध है। बिना अपनी भाषा की नींव दृढ़ किए स्वतंत्रता की नींव दृढ़ नहीं हो सकती। जो लोग इस तत्त्व को समझते हैं, वे मर-मिटने तक अपनी भाषा नहीं छोड़ते। जिंदा देशों में यही होता है। मुर्दा और पराधीन देशों की बात मैं नहीं कहता, उन अभागे देशों में तो ठीक इसके विपरीत ही दृश्य देखा जा सकता है।’’
हिंदी के अनन्य प्रेमी पुरुषोत्तम दास टंडन (संक्षेप में पी.डी. टंडन) के हिंदी के संबंध में स्पष्ट धारणा थी कि ‘ऐसी भाषा हिंदी ही है, जो समूचे देश में सहज ही फैलाई जा सकती है।’ दरअसल, किसी राजनेता ने हिंदी के लिए उतना कार्य नहीं किया जितना टंडन जी ने। उन्होंने ही ‘हिंदी साहित्य सम्मेलन’ की नींव रखी थी। इलाहाबाद के जिस मुहल्ले में उनका जन्म हुआ था पं. मदनमोहन मालवीय तथा पं. बालकृष्ण भट्ट का निवास स्थान भी वही मुहल्ला था। उन्हें अपने छात्रा जीवन में भट्ट जी के शिष्य होने का सुयोग मिला था। भट्ट जी ‘हिंदी-प्रदीप’ नामक पत्रा निकालते थे। उनकी ही प्रेरणा से वे हिंदी-लेखन की ओर झुके। उन दिनों सरकारी तंत्रा में हिंदी को उचित प्रतिष्ठा प्राप्त नहीं थी। मालवीय जी के नेतृत्व में छिड़े हिंदी आंदोलन में टंडन जी उनके विशेष सहयोगी बने।
उन दिनों काशी में नागरी प्रचारिणी सभा की स्थापना हो चुकी थी। यहीं हिंदी साहित्य सम्मेलन की भी स्थापना
10 अक्तूबर, 1910 को हुई। सम्मेलन के गठन का उद्देश्य था हिंदी को राष्ट्रभाषा का स्थान दिलाना। महात्मा गाँधी भी बाद में सम्मेलन के विशिष्ट अंग बने। ‘दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा’ भी इसी सम्मेलन की देन थी। ‘हिंदी विद्यापीठ’ और ‘राष्ट्रभाषा प्रचार समिति’ (वर्धा) भी टंडन जी की ही देन हैं। पं. राहुल सांकृत्यायन ने टंडन जी को हिंदी का ‘प्रतीक’ कहा था। टंडन जी ने केन्द्रीय सचिवालय में संसदीय हिंदी परिषद् का गठन करके हिंदी के अध्यापन की व्यवस्था करवाई थी। 14 सितंबर को ‘हिंदी दिवस’ इसी संसदीय हिंदी परिषद् की ओर से मनाया जाता है।
राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन के गौरवमयी किस्से
- नेहरू और राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन की अदावत -कांग्रेस पार्टी के लम्बे इतिहास में अध्यक्ष पद के दो यादगार चुनाव हुए। एक 1939 में, जब गांधी जी के न चाहने के बाद भी सुभाष चन्द्र बोस अध्यक्ष चुन लिए गए। दूसरी बार 1950 में जब पंडित नेहरू के खुले विरोध के बाद भी राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन जीत गए। दोनों चुनावों में एक दिलचस्प समानता और रही। सुभाष चंद्र बोस को जीतकर भी इस्तीफा देना पड़ा। टंडन जी के साथ भी यही हुआ।
- 1948 में अध्यक्ष पद का चुनाव हार चुके थे टंडन - पंडित नेहरू और सरदार पटेल इस चुनाव के पूर्व किसी एक नाम पर सहमति बनाने के लिए साथ बैठे थे। टंडन उस समय उत्तर प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष थे। राष्ट्रीय अध्यक्ष पद का इससे पहले 1948 का चुनाव वह हारे थे। समर्थक उन पर फिर से चुनाव लड़ने के लिए दबाव बनाए हुए थे। निजी तौर पर उनके प्रति आदर-लगाव रखने के बाद भी पंडित नेहरू उनकी उम्मीदवारी के पक्ष में नही थे। टंडन की दाढ़ी, विभाजन का प्रबल विरोध और हिंदी के प्रति उत्कट प्रेम के चलते नेहरू की नजर में उनकी छवि एक पुरातनपंथी और साम्प्रदायिक नेता की थी। टंडन के स्वतंत्र व्यक्तित्व और शरणार्थियों के एक सम्मेलन की अध्यक्षता ने भी पंडित नेहरू को उनसे दूर किया था। एक दूसरा नाम शंकर राव देव का था। देव भाषायी आधार पर वह बृहत्तर महाराष्ट्र के तगड़े पैरोकार थे। इसमें वे सेंट्रल प्रॉविन्स और हैदराबाद के कई जिले शामिल कराना चाहते थे। इसके चलते सरदार पटेल से उनकी दूरियां बढ़ी हुई थीं। एचसी मुखर्जी और एसके पाटिल का भी नाम चला पर बात नही बनी।
- दोहरी जिम्मेदारी नहीं निभाना चाहते थे नेहरू - पंडित नेहरू और सरदार पटेल दोनों ही शुरुआती दौर में एक राय के थे कि जेबी कृपलानी को उम्मीदवार नहीं बनाना है। कृपलानी 1946-47 में अध्यक्ष रहे थे। नेहरू-पटेल का उनसे तालमेल नहीं बन सका था। अध्यक्ष के तौर पर अपनी उपेक्षा की कृपलानी की भी शिकायतें थीं। इस बीच सीआर राजगोपालाचारी ने अध्यक्ष पद के लिए सरदार पटेल का नाम सुझाया। नेहरू खामोश रहे। लगा कि शायद नेहरू प्रधानमंत्री के साथ अध्यक्ष पद की भी जिम्मेदारी संभालना चाहेंगे। सरदार पटेल सहमत थे। नेहरू 2 अगस्त को पटेल के घर पहुंचे और सीआर राजगोपालाचारी को अध्यक्ष बनाने का सुझाव दिया। सरदार पटेल इस प्रस्ताव पर भी राजी थे, लेकिन सीआर ने इनकार कर दिया। ये भी साफ हुआ कि पंडित नेहरू दोहरी जिम्मेदारी नहीं चाहते, पर टंडन को हराना उनकी प्राथमिकता है।
- टंडन को नेहरू ने सीधे पत्र लिख जताया विरोध - नेहरू ने पटेल के रोकने के बाद भी मौलाना आजाद के घर वर्किंग कमेटी के दिल्ली में मौजूद सदस्यों की बैठक बुलाई। दो टूक कहा कि अध्यक्ष के पद पर टंडन उन्हें स्वीकार्य नही हैं। 8 अगस्त, 1950 को पंडित नेहरू ने टंडन को सीधे पत्र लिखकर उनका विरोध किया। पत्र में लिखा- 'आपके चुने जाने से उन ताकतों को जबरदस्त बढ़ावा मिलेगा, जिन्हें मैं देश के लिए नुकसानदेह मानता हूं।' टंडन ने 12 अगस्त को नेहरू को उत्तर दिया- 'हम बहुत से सवालों पर एकमत रहे हैं। अनेक बड़ी समस्याओं पर साथ काम किया है पर कुछ ऐसे विषय हैं, जिस पर हमारा दृष्टिकोण एक नहीं है। हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाया जाना और देश का विभाजन इसमें सबसे प्रमुख है। मैं आपको आश्वस्त करता हूं कि मेरे प्रति आपकी कटुतम अभिव्यक्ति भी मुझे कटु नहीं बना पाएगी और न ही आपके प्रति मेरे प्रेम में अवरोध कर सकेगी। मैंने सालों से अपने छोटे भाई की तरह विनम्रता के साथ आपसे प्रेम किया है।'
- किदवई थे चुनाव में नेहरू के सलाहकार - पर पंडित नेहरू मन बना चुके थे। टंडन के पत्र के एक दिन पहले ही 11 अगस्त को उनका नाम लिए बिना नेहरू ने एक बयान जारी किया- 'जब तक वह (नेहरू) प्रधानमंत्री हैं, उन्हें (टंडन) अध्यक्ष स्वीकार करना उचित नहीं होगा। उम्मीद जताई कि राजनीतिक, साम्प्रदायिक और अन्य समस्याओं के बारे में फैसले कांग्रेस की पुरानी सोच के मुताबिक ही लिए जाएंगे। इस बयान के जरिये नेहरू ने टंडन को लेकर अपना रुख सार्वजनिक कर दिया। रफी अहमद किदवई इस चुनाव में पंडित नेहरू के मुख्य सलाहकार थे। किदवई को एहसास था कि टंडन के सभी विचारों से सहमत न होने के बाद भी निष्ठा और ईमानदार छवि के कारण खासतौर पर हिंदी पट्टी के राज्यों में कांग्रेसजन के बहुमत का उन्हें समर्थन प्राप्त है। शंकर राव देव को उनके मुकाबले टिकने की उम्मीद नहीं थी।
- किदवई ने नेहरू को समझाने का किया प्रयास - किदवई ने नेहरू का मन बदलने की कोशिशें शुरू कीं। वह उन्हें समझाने में सफल रहे कि गुजरात, बिहार और उत्तर प्रदेश में अर्से से सक्रिय रहे कृपलानी ही टंडन का मुकाबला कर सकते हैं। सरदार पटेल के लिए ये खबर चौंकाने वाली थी। किसी भी दशा में कृपलानी को स्वीकार न करने की नेहरू के साथ देहरादून में 5 जुलाई को हुई बातचीत उन्होंने याद की। सीआर से कहा, 'मैं भीतर तक हिल गया हूं। मुझे आश्रम चले जाना चाहिए।' सीआर को भी कृपलानी को उम्मीदवार बनाए जाने पर नेहरू से शिकायत थी। दोनों ने नेहरू को समझाने की कोशिश की कि हिन्दू-मुस्लिम और शरणार्थियों के सवाल पर कृपलानी ने नेहरू की टंडन के मुकाबले अधिक कड़ी आलोचना की हैं। पर नेहरु फैसला बदलने को तैयार नहीं थे।
- सरदार पटेल को लुभा रही थी टंडन की लोकप्रियता - सरदार पटेल का टंडन के पक्ष में झुकाव शुरू हुआ। सरकार के भीतर भी खींचतान थी। सरदार को लग रहा था कि उन्हें किनारे किया जा रहा। कैबिनेट की वैदेशिक मामलों की कमेटी का सदस्य होने के बाद भी विदेशी मामलों में उनसे सलाह-मशविरा नही किया जा रहा था। खुद उनके गृह और राज्य मंत्रालय मामलों में नेहरू की आलोचनात्मक दखल बढ़ रही थी। कांग्रेसियों के बीच टंडन की लोकप्रियता सरदार को लुभा रही थी। 25 अगस्त को किदवई की पहल पर नेहरू और कृपलानी की बैठक हुई। बैठक के बाद कृपलानी ने पत्रकारों से नेहरू के रुख पर अपना आभार व्यक्त किया। कांग्रेस के वोटरों के बीच साफ संदेश पहुंच चुका था कि यह कृपलानी-टंडन नहीं नेहरू-पटेल के बीच का भी मुकाबला है।
- पटेल ने नेहरू से कहा- 'आपको कभी समझ नहीं पाया' - 25 अगस्त को ही नेहरू ने पटेल को लिखा, 'टंडन का चुना जाना वह अपने लिए पार्टी का अविश्वास मानेंगे। अगर टंडन जीतते हैं तो वह न तो वर्किंग कमेटी में रहेंगे और न ही प्रधानमंत्री रहेंगे।' पटेल ने सीआर से कहा कि वह जानते हैं कि नेहरू ऐसा कुछ नहीं करेंगे। 27 अगस्त को पटेल ने नेहरू से कहा, 'आपको 30 वर्षों से जानता हूं पर आज तक नहीं जान पाया कि आपके दिल में क्या है?' पटेल ने एक संयुक्त बयान का प्रस्ताव किया कि उम्मीदवारों को लेकर असहमति के बाद भी बुनियादी सवालों पर हम एक हैं। अध्यक्ष जो भी चुना जाए, उसे कांग्रेस की नीतियों पर चलना होगा। नेहरू का जवाब था, 'बयान का समय बीत चुका है।'
- यूपी में टंडन को मिले वोट ही वोट - 29 अगस्त को 24 स्थानों पर मतदान हुआ। 1 सितम्बर को गिनती हुई। टंडन 1306 वोट पाकर जीत गए। कृपलानी को 1092 और देव को 202 वोट मिले। उत्तर प्रदेश जो नेहरू और टंडन दोनों का गृह प्रदेश था, वहां टंडन को अच्छी बढ़त मिली। सरदार पटेल के गृह राज्य गुजरात के सभी वोट टंडन को मिले। नतीजों के बाद पटेल ने सीआर से पूछा, 'क्या नेहरू का इस्तीफा लाए हैं?' पटेल की उम्मीद के मुताबिक, नेहरू इरादा बदल चुके थे। 13 सितम्बर 1950 को नेहरू ने एक बयान में कहा, 'टंडन की जीत पर साम्प्रदायिक और प्रतिक्रियावादी तत्वों ने खुलकर खुशी का इजहार किया है।'
- अब किदवई के नाम को लेकर अड़े नेहरू - सितम्बर के तीसरे हफ़्ते में कांग्रेस के नासिक सम्मेलन में टंडन ने अध्यक्षीय भाषण में हिन्दू सरकार की अवधारणा को खारिज किया। सम्मेलन ने नेहरु-लियाकत समझौते, साम्प्रदायिकता और वैदेशिक मामलों में भी सरकार के स्टैंड का समर्थन किया। टंडन वर्किंग कमेटी के चयन में नेहरू की इच्छाओं का सम्मान करने को तैयार थे सिवाय रफी अहमद किदवई के नाम को लेकर। नेहरू ने शर्त लगा दी कि वह बिना किदवई के कमेटी में शामिल नहीं होंगे। टंडन को समझाने की कोशिशें शुरू हुईं। मौलाना आजाद आगे आए। इनकार में टंडन ने कहा कि वे उनकी तुलना में किदवई को कहीं ज्यादा जानते हैं। किदवई ने कहा था कि टंडन के जीतने पर अगर नेहरू इस्तीफा नहीं देते तो मैं बयान जारी करूंगा कि वह ( नेहरू) अवसरवादी हैं। नतीजों के बाद किदवई ने खामोशी साध ली। मौलाना और सीआर ने पटेल से सिफारिश की। पटेल ने कहा कि टंडन से किदवई को कमेटी में लेने के लिए कहने की जगह वह सरकार छोड़ना पसंद, नेहरू से पूछिए, वह सिर्फ इशारा करें। मैं सरकार से निकलने को तैयार हूं। सीआर ने कहा, मैं ऐसा कैसे कह सकता हूँ ? इससे देश का नुकसान होगा। दो दिन बाद नेहरू बिना किदवई के वर्किंग कमेटी में शामिल होने को तैयार हो गए। टंडन के साथ नेहरू, पटेल और मौलाना आजाद, पटेल के घर पर बैठे, जहां अन्य नामों पर सहमति बन गई।
- आखिरकार पार्टी अध्यक्ष चुन लिए गए नेहरू - पर आगे की राह टंडन के लिए आसान नहीं थी। 15 दिसम्बर 1950 को सरदार पटेल के निधन के बाद पार्टी के भीतरी समीकरणों में भारी फेर-बदल हुआ। अनेक समाजवादी पहले ही कांग्रेस से अलग हुए थे। जून 1951 में आचार्य कृपलानी ने कांग्रेस छोड़ी। कृपलानी के इस फैसले के कारणों में टंडन की अगुवाई में पार्टी के पुरातनपंथी बन जाने का आरोप शामिल था। अध्यक्ष के तौर पर टंडन को नेहरू कभी स्वीकार नहीं कर पाए। सितम्बर 1951 में वर्किंग कमेटी से इस्तीफा देकर नेहरू ने नए सिरे से दबाव बनाना शुरू किया। उनका यह कदम इसी महीने बंगलौर में एआईसीसी की बैठक में शक्ति परीक्षण की तैयारी का हिस्सा था। पहला आम चुनाव पास था। पार्टी की कलह चरम पर थी। टंडन ने अध्यक्ष पद से इस्तीफा देकर प्रधानमंत्री नेहरू की राह आसान कर दी। बंगलौर में नेहरू अध्यक्ष चुन लिए गए। अब पार्टी और सरकार दोनों नेहरू के हाथ में थी। यही वह मुकाम था, जब सत्ता में दल के संगठन की दखल खत्म हो गई। आने वाले दिनों में कांग्रेस के इस फार्मूले को उसकी विरोधी पार्टियों ने भी सिर-माथे लिया।
- हिन्दी के प्रति टंडन का अनूठा प्रेम, हर जगह उठाई आवाज - आजादी की लड़ाई की अगली कतार के नेताओं में टंडन की गिनती थी। भारत की सभ्यता-संस्कृति और विरासत को लेकर उन्हें गर्व था। हिन्दी भाषा के प्रति उनका समर्पण अनूठा था। 1910 में काशी नागरी प्रचारिणी सभा के प्रांगण में उन्होंने हिन्दी साहित्य सम्मेलन की स्थापना की। 1918 में हिन्दी विद्यापीठ और 1947 में हिन्दी रक्षक दल का गठन किया। हिन्दी की मान-प्रतिष्ठा, प्रचार-प्रसार का संघर्ष उन्होनें अंग्रेजों के दौर में शुरू किया। आजादी के बाद भी यह जारी रहा। उन्होंने संविधान सभा में हिन्दी का सवाल जोर-शोर से उठाया। 1937 से 1950 के 13 वर्षों की अवधि में उत्तर प्रदेश विधानसभा के अध्यक्ष के रूप में भी वह हिन्दी के पक्ष में काम करते रहे।
- विभाजन के चलते आजादी के जश्न से रहे दूर - 1952 में लोकसभा में प्रवेश के बाद सदन में हिन्दी के लिए उनकी आवाज गूंजती रही। 1956 में वह राज्यसभा सदस्य चुने गए। वहां भी वह हिन्दी को उसका उचित स्थान न मिलने की शिकायत करते रहे। टंडन का हिन्दी के लिए संघर्ष सड़क से सदन तक जीवनपर्यन्त जारी रहा। वह जिस भी मंच पर पहुंचे, वहां उन्होंने हिन्दी के लिए आवाज उठाई। विभाजन के वह प्रबल विरोधी थे। देश के दो टुकड़े होने की पीड़ा के चलते वह आजादी के जश्न से दूर रहे। शरणार्थियों के कष्टों ने उन्हें बेचैन किया। उनके आंसू पोंछने की कोशिशों ने उनके अपनों की निगाहें तिरछी कर दीं। अपनी इन कोशिशों की उन्होंने बड़ी राजनीतिक कीमत चुकाई। पर वह अपने या परिवार के लिए कुछ हासिल करने के लिए राजनीति और सार्वजनिक जीवन में नही आए थे।
- सुमित्रानंदन पंत्र को लेकर जब कही बड़ी बात - संसद सदस्य के नाते तब चार सौ रुपया महीना मिलता था। किसी अवसर पर भुगतान करने वाले लोकसभा स्टॉफ से उन्होंने पूछा कि क्या यह राशि सीधे सरकारी सहायता कोष में नहीं जा सकती? बगल में खड़े एक सांसद ने उनसे कहा, 'सिर्फ चार सौ रुपये मिलते हैं। उन्हें भी आप दान कर देना चाहते हैं।' टंडन का उत्तर था, 'मेरे लड़के कमाते हैं। सब मिलकर सात सौ रुपये देते हैं। तीन-चार सौ ही खर्च है। बचे रुपये भी दूसरों के काम आते हैं।' स्वास्थ्य कारणों से टंडन ने 1961 में राज्यसभा की सदस्यता से त्यागपत्र दे दिया। 23 अप्रैल 1961 को उन्हें भारत रत्न की उपाधि से विभूषित किया गया। इसी वर्ष कविवर सुमित्रानंदन पन्त को पद्मभूषण सम्मान घोषित किया गया। टंडन ने सुप्रसिद्ध साहित्यकार वियोगी हरि को इस विषय में जो लिखा, वह उनके महान व्यक्तित्व की एक झलक दिखाता है। उन्होंने लिखा- 'मुझे भारत रत्न और सुमित्रानंदन पन्त को पद्मभूषण? यह ठीक है कि उम्र में मैं बड़ा हूं। मैंने भी काम किए हैं। पर आगे चलकर लोग पुरुषोत्तम दास टंडन को भूल जाएंगे। लेकिन पन्त जी की कविताएं तो हमेशा अमर रहेंगी। उनकी कविताएं लोगों की जुबान पर जिंदा रहेंगी। उनका काम मुझसे ज्यादा स्थायी है। इसलिए सुमित्रानंदन पन्त को भारत रत्न मिलना चाहिए।'
- पुरुषोत्तम दास टंडन को देवराहा बाबा ने दी थी राजर्षि की उपाधि - राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन एक स्वतंत्रता सेनानी थे। संविधान सभा में देवनागरी लिपि के साथ हिंदी को उन्होंने राजभाषा का दर्जा दिलवा कर ही छोड़ा। अखिल भारतीय हिंदी साहित्य सम्मेलन की स्थापना काल से ही टंडन जी इससे जुड़े रहे। देवराहा बाबा ने उन्हें राजर्षि की पदवी दी।
प्रमुख तथ्य -
- भारत के प्रमुख स्वाधीनता सेनानी राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन का जन्म इलाहाबाद (उत्तर प्रदेश) में 1 अगस्त 1882 को हुआ था।
- भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के अग्रणी नेता के साथ-साथ वे एक समाज सुधारक, कर्मठ पत्रकार, हिंदी के अनन्य सेवक तथा तेजस्वी वक्ता भी थे।
- उनकी प्रारंभिक शिक्षा सिटी एंग्लो वर्नाक्यूलर विद्यालय में हुई। तत्पश्चात उन्होंने लॉ की डिग्री हासिल कर 1906 में इलाहाबाद हाईकोर्ट में (लॉ की प्रैक्टिस के लिए) काम करना शुरू किया।
- सन् 1899 अपने विद्यार्थी जीवन से ही वे कांग्रेस पार्टी के सदस्य थे। 1906 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के प्रतिनिधि (इलाहाबाद से) चुने गए।
- सन् 1919 में जलियांवाला बाग हत्याकांड का अध्ययन करने वाली कांग्रेस पार्टी की समिति से संबद्ध थे।
- सन् 1920 में असहयोग आंदोलन, 1921 में सामाजिक कार्यों तथा गांधीजी के आह्वान पर स्वतंत्रता संग्राम में काम के लिए हाईकोर्ट का काम छोड़ कर वे इस संग्राम में कूद पड़े।
- सविनय अवज्ञा आंदोलन के सिलसिले में सन् 1930 में बस्ती में गिरफ्तार हुए तथा कारावास भी मिला।
- लंदन में आयोजित (सन् 1931 - गांधीजी के वापस लौटने से पहले) गोलमेज सम्मेलन में पंडित नेहरू के साथ-साथ राजर्षि टंडन को भी गिरफ्तार किया गया था।
- भारत की आजादी के बाद उन्होंने विधानसभा (उत्तर प्रदेश) के प्रवक्ता के रूप में 13 वर्षों तक काम किया। इस दौरान 1937 से 1950 के लंबे कार्यकाल में कई बार विधानसभा को संबोधित किया था।
- भारत की राष्ट्रभाषा हिन्दी को प्रतिष्ठित करवाने में उनका खास योगदान माना जाता है तथा देश का सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार भी उन्हें दिया गया।
- भारत सरकार द्वारा सन् 1961 में 'भारत रत्न' की उपाधि से विभूषित किया गया। ऐसे महान कर्मयोगी, 'राजर्षि' के नाम से विख्यात, स्वतंत्रता सेनानी पुरुषोत्तम दास टंडन का 1 जुलाई 1962 को निधन हो गया।
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