राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) को अन्दर से जानो



 राष्ट्रवाद के प्रकाश पुंज राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) को अन्दर से जानो

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) को कुछ लोग श्रद्धा भाव से देखते हैं, तो कुछ भय और विरोध से। अधिकांश शहरी हिन्दू होंगे कभी न कभी संघ की शाखा में जा चुके हैं। फिर भी संघ के बारे में भ्रम अधिक हैं, जिसके दो प्रमुख कारण हैं। पहला तो विरोधियों द्वारा योजनाबद्ध रीति से फैलाया गया मायाजाल, तथा दूसरा संघ द्वारा प्रसिद्धि से दूर रहने की नीति, पर अब संघ ने अपने प्रचारतंत्र को ठीक किया है। फिर भी यह निश्चित है कि संघ को केवल पत्र-पत्रिकाओं में पढ़कर नहीं समझा जा सकता, इसके लिए तो उसके पास आना होगा।
राष्ट्रवाद के प्रकाश पुंज राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) को अन्दर से जानो 
स्थापना एवं उद्देश्यः संघ की स्थापना 1925 की विजयादशमी पर प्रसिद्ध क्रान्तिकारी एवं स्वतंत्रता सेनानी डा0 केशव बलिराम हेडगेवार ने की थी। उनका मत था कि अंग्रेजों के चले जाने से ही भारत की दुर्दशा समाप्त नहीं होगी। इसके लिए राष्ट्रहित को सर्वोपरि मानने वाले हिन्दू युवकों को टोली हर गांव-शहर में खड़ी करनी होगी। इसीलिए उन्होंने संघ की स्थापना की। 'राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ' का अर्थ हैः अपनी इच्छा से राष्ट्र की सेवा करने वाले लोगों का समूह। ऐसे ही हिन्दू का अर्थ है भारत को अपना सर्वस्व मानने वाला व्यक्ति, चाहे उसकी पूजा पद्धति कुछ भी हो।
शाखाः संघ का प्रमुख आधार है, शाखा। स्वयंसेवक किसी भी मैदान में प्रतिदिन सुबह-शाम अथवा रात्रि में एक घंटे के लिए आकर अपनी आयु व क्षमता के अनुसार सामूहिक रूप से कुछ शारीरिक व बौद्धिक कार्यक्रम करते हैं। इसे ही शाखा कहते हैं।

स्वयंसेवकः शाखा में आने वाले को ‘स्वयंसेवक‘ कहा जाता है, चाहे उसकी आयु, जाति, आर्थिक या शैक्षणिक स्थिति कुछ भी हो। सरसंघचालक से लेकर किसी गांव या बस्ती की शाखा पर आने वाला कक्षा चार-पांच में पढ़ने वाला छात्र, सब पहले स्वयंसेवक हैं, बाद में कुछ और। स्वयंसेवक का अर्थ है- 'अपनी इच्छा से राष्ट्र की सेवा में लगा रहने वाला।'

कार्यक्रमः एक घंटे की शाखा में प्रायः 40-50 मिनट शारीरिक कार्यक्रम होते हैं। अनेक स्थानों पर एक ही शाखा में अलग-अलग आयु-वर्ग के स्वयंसेवक आते हैं, वहां उनकी अवस्था के अनुसार दो-तीन ‘गण‘ बना दिये जाते हैं। बाल-किशोर एवं युवा स्वयंसेवक मुख्यतः खेल, नियुद्ध, दंड संचालन, सूर्य नमस्कार आदि करते हैं। शाखा के अन्तिम 14-20 मिनट में संस्कारप्रद मानसिक कार्यक्रम होते हैं। इनमें देशभक्तिपूर्ण गीत का गायन, सामायिक विषय पर चर्चा, किसी महापुरूष के वाक्य, श्लोक या सुभाषित का स्मरण एवं उनका विश्लेषण, प्रश्नोत्तर आदि प्रमुख हैं।

भगवाध्वज एवं प्रार्थनाः संघ ने अपने गुरू-स्थान पर भारतीय संस्कृति के प्रतीक परमपवित्र भगवाध्वज को रखा है। संघ की शाखा तथा अन्य सभी गतिविधियां इसकी छत्रछाया में ही सम्पन्न होती हैं। कार्यक्रमों की समाप्ति भगवाध्वज के सम्मुख खड़े होकर प्रार्थना के बाद होती है। यह संस्कृत में भारतमाता की वंदना है, जो ‘नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमे‘ से प्रारम्भ होकर ‘भारतमाता की जय‘ पर समाप्त होती है।
भगवा ध्वज

अन्य कार्यक्रमः शाखा के अतिरिक्त समय में भी संस्कार जगाने तथा गुणसंवर्धन करने वाले अनेक कार्यक्रम होते हैं। जैसे- सहभोजः इसमें सब स्वयंसेवक अपने-अपने घर से भोजन लाते हैं। सबका भोजन एक स्थान पर मिला दिया जाता है। कुछ देर तक गीत-कविता, अंत्याक्षरी-प्रश्नमंच आदि मनोरंजक एवं ज्ञानवर्द्धक कार्यक्रमों के बाद सब एक साथ बैठकर भोजन करते हैं, किसके घर का भोजन किसने किया, यह पता ही नहीं लगता। परस्पर स्नेह तथा समरसता जाग्रत करने में यह कार्यक्रम अतुलनीय है।

वनविहारः इसमें सब स्वयंसेवक अपने नगर-गांव से दूर जाकर खेलकूद आदि के बाद ‘सहभोज‘ करते हैं। कभी-कभी वहीं भोजन बनाते हैं या फिर सब आपस में शुल्क एकत्र कर कुछ खानपान सामग्री मंगा लेते हैं।

शिविरः प्रायः दो-तीन दिन के शिविर बाल एवं तरूण विद्यार्थियों, व्यावसायियों, अवकाश प्राप्त स्वयंसेवकों के लिए अलग-अलग होते हैं। इनमें विभिन्न प्रकार की शारीरिक-मानसिक प्रतियोगिताओं द्वारा स्वयंसेवक की प्रतिभा को उभारने का प्रयास किया जाता है। शिविर में सब तरह की आर्थिक एवं सामाजिक स्थिति वाले स्वयंसेवक आते हैं, पर सब एक साथ भूमि पर सोते, खाते-पीते तथा खेलते हैं। इनमें भाग लेने के लिए गणवेश, किराया, भोजन शुल्क आदि सब अपनी जेब से भरते हैं।

गणवेशः शाखा में तो स्वयंसेवक किसी भी निक्कर में आ सकता है, पर कुछ कार्यक्रमों में गणवेश अनिवार्य होता है। इसमें पूरी बांहों की एक जेब वाली सफेद कमीज, खाकी निकर, चमड़े की लाल पेटी का हुआ करता था अब सिंथेटिक की पेटी का उपयोग होने लगा है, खाकी मोजे, चमड़े या प्लास्टिक के काले फीते वाले जूते तथा काली टोपी होती है। प्रायः ऐसे कार्यक्रमों में कंधे तक की लाठी भी सब लाते हैं।

प्रशिक्षण वर्गः समय-समय पर नये कार्यकर्ताओं के प्रशिक्षण हेतु वर्गों का आयोजन होता है। एक सप्ताह के वर्ग को ‘प्राथमिक शिक्षा वर्ग‘ कहते हैं, इनका आयोजन दोे-तीन जिलों को मिलाकर किया जाता है। तीन सप्ताह के वर्ग के ‘संघ शिक्षा वर्ग‘ कहते हैं। ये प्रायः 20-25 जिलों के बीच मई-जून के अवकाश में होता है। प्रथम और द्वितीय वर्ष के संघ शिक्षा वर्ग अपने प्रान्त में ही होते हैं, जबकि ‘तृतीय वर्ष‘ का वर्ग पूरे देश का एक साथ नागपुर में होता है, इसकी अवधि एक मास की होती है।

संगठन संरचना:
संघ की संगठनात्मक रचना हिन्दू परिवार जैसी है। एक शाखा के क्षेत्र को तीन-चार भागों में बांट देते हैं, जिसे ‘गट‘ तथा इसके प्रमुख को ‘गटनायक‘ कहते हैं, यह संघ की पहली इकाई है। शाखा के शारीरिक कार्यक्रमों को कराने के लिए 15-20 स्वयंसेवकों की कई टोलियां बनाते हैं, इन्हें ‘गण‘ तथा इनके प्रमुख को ‘गणशिक्षक‘ कहते हैं। शाखा लगाने वाला ‘मुख्यशिक्षक‘ तथा उनके ऊपर ‘कार्यवाह‘ होता है। नगर की तीन-चार शाखाओं या ग्रामीण क्षेत्र में न्यायपंचायत को कार्य देखने वाले को ‘मंडल कार्यवाह‘ तथा इसी प्रकार ‘नगर कार्यवाह‘ या ग्रामीण क्षेत्र में खंड, तहसील और जिला कार्यवाह होते हैं। नगर, खंड, तहसील तथा इसके ऊपर के स्तर पर ‘संघचालक‘ भी होते हैं, इनकी भूमिका परिवार के मुखिया जैसी, जबकि कार्यवाह की भूमिका मुख्य कर्ताधर्ता की होती है। जिला तथा उससे ऊपर के संघचालकों का प्रति तीन वर्ष बाद चुनाव होता है। ये अन्य प्रतिनिधियों के साथ मिलकर ‘सरकार्यवाह‘ को चुनते हैं। वर्तमान सरकार्यवाह श्री भैया जी जोशी हैं। ‘सरसंघचालक‘ की भूमिका परिवार के मुखिया की भांति ‘मार्गदर्शक एवं परामर्शदाता‘ की होती है, प्रायः संघचालक प्रमुख कार्यकर्ताओं के परामर्श से इनका मनोनयन करते हैं, वर्तमान में श्री मोहन जी भगवत पर यह दायित्व है। संघचालक तथा कार्यवाह के साथ खंड से लेकर अ0भा0 स्तर तक शारीरिक, बौद्धिक, सेवा तथा व्यवस्था प्रमुखों की टोली होती है। जिले में एक प्रचार प्रमुख भी होता हैं ये सब परस्पर विचार-विमर्श से अपने क्षेत्र के कार्य को गति एवं स्थायित्व प्रदान करते हैं।

प्रचारकः संघकार्य के विस्तार में प्रचारकों की बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका है। अनेक युवा स्वयंसेवक अपनी शिक्षा पूरी करने के बाद 2-3 वर्ष का समय देते हैं। इन्हीं ही ‘प्रचारक‘ कहते हैं। इनको कोई वेतन आदि नहीं मिलता, पर योगक्षेम की न्यूनतम आवश्यकताएं संगठन पूर्ण करता है। सामान्यतः प्रचारक स्वयंसेवक-परिवारों में ही भोजन करते हैं, निर्धारित समय के बाद ये घर लौटकर सामान्य कामकाज में लग जाते हैं। प्रचारक अपनी कार्य-अवधि में अविवाहित रहते हैं। अब बड़ी संख्या में अवकाश प्राप्त ‘वानप्रस्थी‘ कार्यकर्ता‘ भी पूरा समय देकर काम करने लगे हैं।

आर्थिक व्यवस्था : 
संघकार्य के संचालन में होने वाले सम्पूर्ण व्यय का आधार ‘श्री गुरूदक्षिणा‘ है। वर्ष में एक बार सब स्वयंसेवक अपनी शाखा के अनुसार एकत्र होकर कुछ राशि भगवद्ध्वज के सम्मुख अर्पण करते हैं। यह राशि एक लिफाफे में रखकर अर्पण की जाती है, जिससे किसी के मन में हीनता या बड़प्पन का भाव उत्पन्न न हो। उस शाखा के तीन-चार प्रमुख कार्यकर्ता इसका हिसाब रखते हैं। संघ के कार्यक्रम, कार्यालय की व्यवस्था, प्रचारकों के प्रवास... आदि इससे पूरे होते हैं।

संघ और सेवाकार्यः
स्वयंसेवक जिम्मेदार नागरिक होने के नाते समाजसेवा में स्वाभाविक रूप से लगे रहते हैं। गत 15-20 वर्ष से इन सेवाकार्य को व्यवस्थित रूप दिया गया है। हिन्दू समाज के उपेक्षित, वंचित एवं निर्धन वर्ग की सेवार्थ 50,000 से भी अधिक सेवाकेन्द्र चलाये जा रहे हैं। प्रतिवर्ष इनकी संख्या बढ़ रही है। इनके संचालन के लिए 'सेवा भारती' आदि अनेक पंजीकृत संस्थाएं हैं। शाखा के प्राप्त संस्कारों के कारण बाढ़, भूकम्प, तूफान, चक्रवात, दुर्घटना आदि प्राकृतिक या मानव निर्मित आपदाओं में स्वयंसेवक सेवाकार्य में सबसे आगे तथा सबसे देर तक लगे दिखायी देते हैं।

संघ और विविध कार्य :  स्वयंसेवकों में अपनी रूचि, प्रवृत्ति तथा सामाजिक आवश्यकता के अनुसार अनेक संगठन बनाये गये हैं। मजदूर-किसान, विद्यार्थी-नारी, धर्म-कला, शिक्षा-वनवासी, उपभोक्ता-सहकारिता, अर्थनीति-राजनीति, साहित्य-इतिहास...., अर्थात समाज के प्रायः सभी क्षेत्रों में स्वयंसेवक काम कर रहे हैं। इतना ही नहीं तो इन क्षेत्रों में काम करने वाले अन्य संगठनों से वे बहुत आगे भी हैं। इनका संविधान, कार्यविधि, अर्थव्यवस्था, कार्यालय आदि अलग होते हैं, फिर भी वैचारिक आधर पर ये संघ से जुड़े रहते हैं।

संघ का विरोध क्यों : एक सामाजिक संगठन होने के बावजूद अनेक लोग इसका विरोध करते हैं। मुख्यतः यह विरोध कम्युनिस्टों तथा कांग्रेस की ओर से होता है। कम्युनिस्टों के विरोध का आधार तो स्पष्ट है। कांग्रेस ने 1947 के बाद चाहा कि संघ उसकी युवा शाखा बन जाये, पर संघ ने यह स्वीकार नहीं किया। तब से नेहरू जी संघ के विरोधी बने गये। दूसरी ओर संघ ने अपनी बहुआयामी गतिविधियों से धर्मान्तरण को काफी मात्रा में रोका है तथा जो हिन्दू किसी कारण से धर्मान्तरित हो गये थे, उन्हें वापस लाने की प्रक्रिया भी तेजी से चलायी है। ईसाई तथा मुस्लिम संस्थाएं इस कारण संघ को शत्रु मानती हैं।

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1 टिप्पणी:

अखिलेश चौधरी ने कहा…

गणवेश में परिवर्तन हो चुका उसे इसमें लेख में बदलने की आवश्यकता है।