तेजस्वी बलिदानी सिख गुरु तेगबहादुर



आज  से  कई  दशक  पहले  मैं दिल्ली में निवास के दौरान जब भी वहां के प्रसिद्ध गुरुद्वारा रकाबगंज के सामने से  निकलता  था  तब  दूसरे  अनेक श्रद्धालुओं की तरह सड़क से ही स्वतः आंखें झुक जातीं और उनके प्रति आदर से हाथ जोड़ लेता था। सिख गुरु तेग बहादुर  के  बलिदान  से  जुड़े  इस पवित्र स्थल के बारे में इससे अधिक जानने  का  मैंने  कभी  कोई  प्रयत्न नहीं  किया  था।  पर  हाल  में  जब मैंने  प्रसिद्ध  लेखक  व  साहित्यकार डॉ  किशोरीलाल  व्यास  ‘नीलकण्ठ’ का खालसा नाटक व उसकी भूमिका पढ़ी  तब  मैं  कुछ  ऐतिहासिक  तथ्यों को  जानकर  स्तब्ध  सा  रह  गया था।  नवं  सिख  गुरु  तेगबहादुर  के शीश कटने के बाद एक लखी शाह नाम का बंजारा था जो उनके धड़ को अंधेरे का लाभ उठाकर ले गया और अपनी रूई भरी बैलगाड़ी पर ही उसने शीश विहीन धड़ का संस्कार कर दिया था। जिस स्थान पर बंजारे ने गुरु जी का अंतिम संस्कार किया था वहीं पर यह गुरुद्वारा रकाबगंज निर्मित हुआ था। इस गुरुद्वारे  के  एक  विशाल  सभागृह  में जिसका  नाम  लखी  बंजारा  हाल  है, उसकी  स्मृति  को  भी  अक्षुण्ण  रखा गया है।
वीरता  और  शौर्यपूर्ण  सिखों  का पहले मुगलों और बाद में अंग्रेजों के साथ संघर्ष के इतिहास में अनेक लोमहर्षक प्रसंग  हुए  जिनका  वर्णन  किसी  भी देशवासी के हृदय को तेजस्वी गुरुओं को दी गई भयावह यातनाओं और उस समय हिन्दुओं को बचाने के लिए दिए गए बलिदानों के कारण द्रवित सकता है।

औरंगजेब आजीवन इस प्रयत्न में रहा  कि  सिखों  के  गुरु  यदि  इस्लाम कबूल कर लें तो सिखों का बड़ा समुदाय स्वयमेव  मुसलमान  बन  जायेगा।  पर सिखों  ने  पीढ़ी-दर-पीढ़ी  बलिदान देकर  औरंगजेब  की  आकांक्षाओं  को विफल  कर  दिया  था।  उनका  सारा इतिहास बलिदानों का इतिवृत्त रहा है जो कश्मीर के ब्राह्मणों पर औरंगजेब द्वारा अत्याचारों व सहस्रों की हत्या के साथ वस्तुतः शुरु होता है।

कहते हैं-जब मारे हुए ब्राह्मणों के जनेयू का वजन बारह सेर होता था तभी औरंगजेब खाना खाता था। अनेकों ने आत्महत्या  की,  पलायन  किया  या इस्लाम  कबूल  कर  लिया  था।  तब ब्राह्मणों का प्रतिनिधिमण्डल सिखों के नवं गुरु तेग बहादुर, जिन्हें वे तेजस्वी महापुरुष मानते थे कि शरण में पहुंचा जो  उस  समय  ध्यानावस्थित  थे  और स्वयं उस विकट परिस्थिति में बलिदान की  आवश्यकता  उस  मुगल  धर्म  को समाप्त करने के लिए हल बताने लगे ! सभी लोग हतप्रभ थे ! तभी दस वर्षीय गुरु गोविन्द सिंह जो वहां बैठे थे, कह उठे-पिताश्री इस समय आपसे बढ़कर तेजस्वी पुरुष कौन है ?

गुरु  तेगबहादुर  को  लगा  कि बालक की बात सच है और वे स्वयं औरंगजेब से मिलकर उसे समझाने के लिए प्रस्तुत हो गए। पण्डितों ने धैर्य की सांस ली जब गुरु तेगबहादुर अपने पांच शिष्यों के साथ दिल्ली के लिए निकल पडे़ जहां उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। उनके  नाम  थे-  भाई  मतिदास,  भाई दयाला, भाई सतिदास गुरुजी की आंखों के सामने एक-एक शिष्य को समाप्त किया गया ताकि उन्हें सदमा लगे। भाई मतीदास को एक बड़े आरे से चिरवाया गया, भाई दयाला को एक बड़ी देगची ने उबलते  पानी  में  फेंक  दिया,  भाई सतीदास को चारों ओर रूई में लपेटकर आग लगा दी गई। मरने के क्षण तक ये श्रद्धालु भक्त जपुजी, सुखमयी आदि का पाठ करते रहे। गुरुजी ने शांत होकर ये वीभत्स  दृश्य  देखे  और  अपना  धर्म बदलना नामंजूर कर दिया। तब दिल्ली के चांदनी चैक में सभी लोगों के समक्ष गुरुजी के वध का आदेश दिया गया। यह घटना 1675 ई0 की है जब गुरुजी की आयु 53 वर्ष की थी।

बीच बाजार में बिठाकर मौलवियों ने  गुरुजी  से  व्यंगपूर्ण  स्वर  में  कुछ चमत्कार  दिखाने  का  आग्रह  किया। गुरुजी ने कहा मैं कोई चमत्कारी पुरुष नहीं। गले में बंधी रस्सी को इंगित कर उन्होंने कहा--यही मेरा चमत्कार है। जल्लाद ने मौलवियों के आदेश पर एक ही झटके में तलवार से उनका सिर धड़ से  अलग  कर  दिया।  जब  दर्शकों  में हाहाकार मचा था, एक शिष्य ने अचानक जान जोखिम में डालकर गुरुजी का सिर लेकर गायब कर दिया। उस सिर को लेकर आनन्दपुर साहिब पहंुचा। गोविन्द सिंह  ने  उसका  दाह  संस्कार  किया। औरंगजेब की आज्ञा से ‘हिन्दू धर्म’ की ढाल  बने  गुरुजी  का  बलिदान  हुआ। आज दिल्ली में उसी स्थान पर शीशगंज गुरुद्वारा बना हुआ है।


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