सन् 1905 में बंग भंग आंदोलन प्रारंभ होने के साथ ही बंगाल सचिव लाइल का यह आदेश लागू हो गया कि जो भी वंदेमातरम का उद्घोष करेगा उसे कोड़े लगाए जाएंगे, जुर्माना होगा और स्कूल से निकाल दिया जाएगा। इसके बाद स्थिति यह हो गई कि ढाका के एक स्कूल में छात्रों से पांच सौ बार लिखवाया गया- वंदेमातरम् कहना सबसे बड़ा पाप हैं पर अधिकतर छात्र लिखते थे- वंदेमातरम् कहना सबसे बड़ा धर्म है। कोलकाता में नेशनल कालेज के एक छात्र सुशील सेन को वंदेमातरम् कहने पर पंद्रह बेंत मारने की सजा मिली और उसके अगले दिन स्टेटसमैन अखबार ने लिखा कि प्रत्येक बेंत की मार पर सुशील सेन के मुख से एक ही नारा निकलता था- वंदेमातरम्। तब काली प्रसन्न जैसे कवि गा उठे-
बेंत मेरे कि मां भुलाबि। आमरा कि माएर सेई छेले
मोदेर जीवन जाय जेन चले वंदेमातरम् बोले।
अर्थात बेंत मारकर क्या मां को भुलाएगा, क्या हम मां की ऐसी संतान हैं? वंदेमातरम् बोलते हुए हमारा जीवन भले ही चला जाए पर वंदेमातरम् बोलेंगे।
इसकी गूंज सात समुद्र पार करके लंदन की धरती पर पहुंची, जहां मदन लाल ढींगरा ने अपना अंतिम वक्तव्य वंदेमातरम् के साथ ही पूरा किया। उसने कहा- भारत वर्ष की धरती को एक ही बात सीखनी है कि कैसे मरना है और यह स्वयं मरकर ही सीखा जा सकता है। इसलिए मैं मर रहा हूँ-वंदेमातरम्।
आखिर क्या है वंदेमातरम् जिसकी चोट अंग्रेज की छाती पर गोली से भी गहरी होती थी। बंगाल के बंकिम चंद्र ने अपने उपन्यास‘आनंद मठ’ में भारत माता को मानो साकार रूप ही दे दिया। बंकिम ने एक वक्तव्य में कहा था- मेरा आनंद मठ कभी सारे देश में एक सच्चाई के रूप में प्रकट होगा। भारत के स्वतंत्रता संग्राम का एक मात्र जयघोष वंदेमातरम् था।
हम नहीं जानते कि भारत सरकार के गणित का आधार क्या है पर हमारी सरकार की इच्छा है कि वर्ष 2007 को वंदेमातरम् की शताब्दी के रूप में मनाया जाए। वैसे सारा देश एक बार 1996 में वंदेमातरम् की शताब्दी मना चुका है। वर्ष 1882 में श्री बंकिम चंद्र के आनंद मठ उपन्यास का प्रकाशन हुआ। यह गीत उसी का भारतग है। फिर 1896 में पहली बार यह गीत कोलकाता में श्री बाल गंगाधर तिलक की उपस्थिति में कांग्रेस के अधिवेशन में गाया गया और स्वयं श्री टैगोर ने इस गीत का गायन किया। कांग्रेस के नेतृत्व में चल रही सरकार को यह भी याद नहीं कि इसके अनुसार सन 1996 वंदेमातरम का सौवां वर्ष था। 7 अगस्त 1905 का दिन तो भुलाया ही नहीं जा सकता, जब बंग-भंग आंदोलन के विरोध में पूरा बंगाल ही गरज उठा था और कोलकाता के कालेज चैक में पचास हजार से भी ज्यादा भारत के बेटे-बेटियां वंदेमारतम् कहकर स्वतंत्रता के लिए बलिपथ पर चल पड़े । इन्हीं दिनों मैडम भीका जी कामा ने एमस्र्डम में वंदेमातरम् वाला भारत का ध्वज फहराया। फिर भी भारत सरकार 2007 को ही शताब्दी मना रही है।
भारत के मानव संसाधन मंत्री अर्जुन सिंह ने यह घोषण की कि सभी स्कूलों में वंदेमातरम गाया जाए और साथ ही सांप्रदायिक शक्तियों के आगे घुटने टेकते हुए यह भी कह दिया कि जो इसे नहीं गाना चाहता, न गाए। अफसोस तो यह है कि देश के गृह राज्य मंत्री श्री जायसवाल भी राष्ट्रीय गान के गौरव का सम्मान रक्षण नहीं कर पाए। कौन नहीं जानता कि बंग-भंग में धर्म, संप्रदाय, जाति का भेद भुलाकर वंदेमातरम के साथ ही अंग्रेजों से लोहा लिया गया था और अब एक शाही इमाम के विरोध को पूरे मुस्लिम समाज का विरोध मानकर सरकार ने यह निंदनीय-लज्जाजनक आदेश दिया है।
प्रसिद्ध लेखक एवं क्रांतिकारी हेम चंद ने कहा था- पहले हम इस बात को समझ नहीं पाए थे कि वंदेमातरम गीत में इतनी शक्ति और भारतव छिपा है। अरविंद ने सत्य ही कहा था कि वंदेमातरम् के साथ सारा देश देशभक्ति को ही धर्म मानने लगा है। यह मंत्र भारत में ही नहीं सारे विश्व में फैल गया। 7 अगस्त 1905 को जब बंग भंग के विरोध में पचास हजार देशभक्त कोलकाता में इकट्ठे हुए तो अचानक ही एक स्वर गूंजा- वंदेमातरम और इसके साथ ही वंदेमातरम् क्रांति का प्रतीक बन गया। इस आंदोलन के मुख्य नेता सुरेंन्द्र नाथ बनर्जी ने कहा हमारे अंतर्मन की भारतवनाएं वंदेमातरम् के भारतव के साथ जुड़ जानी चाहिए।
आज स्वतंत्रता के साठवें वर्ष में वंदेमातरम् गीत गाना सांप्रदायिक माना जाने लगा है। जिस वंदेमातरम् के साथ क्रांतिकारी देशभक्त हंसते-हंसते फांसी पर चढ़ जाते थे उसे ही स्वतंत्र भारत की सरकार एक संप्रदाय विशेष को न गाने की छूट दे रही है। दुर्भारतग्य से भारत के विभारतजन के साथ ही वंदेमातरम् का भी विभारतजन कर दिया गया। स्वतंत्र भारत के कुछ नेताओं को इस गीत के प्रथम भारतग में तो देशभक्ति दिखाई देती है, पर पिछले हिस्से में सांप्रदायिकता लगती है। आखिर क्या बुरा लिखा है इसमें? भारत की संतान भारत मां से यही तो कहती है न कि भारत मां तू ही मेरी भुजाओं की शक्ति है, तू ही मेरे हृदय की भक्ति है, तू धरनी है, भरनी है, सुंदर जल और सुंदर फल फूलों वाली है, तेरे करोड़ों बच्चे हैं, फिर तू कमजोर कैसी? हमें याद रखना होगा कि 15 अगस्त 1947 की सुबह आकाशवाणी से प्रसारित होने वाला पहला गीत वंदेमातरम था, जो पंडित ओंकार नाथ ने पूरा गाया था।
आज तो भारत स्वतंत्र है, पर जिस समय वंदेमातरम कहना अपराध माना जाता था उस समय राष्ट्र के महान नेता सुरेंद्र नाथ बनर्जी, विपिन चंद्र पाल, अरविंद घोष वंदेमातरम के बैज सीने में लगाकर निकलते थे। अमृत बाजार पत्रिका के संपादक मोतीलाल घोष ने सिंह गर्जना करते हुए कहा था- चाहे सिर चला जाए मैं वंदेमातरम गाऊंगा। वीर सावरकर ने 1908 में इंग्लैंड में वंदेमातरम गुंजाया। मार्च 1907 को युगांतर दैनिक ने यह लिखा कि वंदेमातरम की गूंज ने शत्रु की हिम्मत छीन ली है, वे अब परास्त हो रहे हैं और भारत मां मुस्कुरा रही है। डा. हेगेवार बचपन से ही राष्ट्रभक्ति में रंगे हुए थे। नागपुर के नील सिटी स्कूल में पढ़ते समय उन्होंने सारे स्कूल में ही वंदेमातरम का जयघोष करवा दिया और दंडित हुए। वाराणसी की जेल में जब चंद्रशेखर आजाद को कोड़े मारे गए, तब भी वह वंदेमातरम ही बोलते रहे। 29 दिसंबर 1927 को जब अशफाख उल्ला खां को फांसी पर रबाया गया तब भी वह वंदेमातरम का नार ही लगाते रहे। कांग्रेस के काकीनाड़ा अधिवेशन में श्री विष्णु दिगंबर पालुसकर ने वंदेमातरम का गीत गाकर ही सम्मेलन का प्रारंभ करवाया।
कौन नहीं जानता कि स्वतंत्रता की बेदी पर प्राण देने वाले हरेक देशभक्त ने वंदेमातरम् से ही प्रेरणा ली थी। यह तो अंग्रेजों की कुटिल नीति थी, जिसने देश के हिंदू-मुसलमानों को अलग कर दिया। सच यह है कि बंग-भंग आंदोलन के समय मुस्लिम छात्र नेता लियाकत हुसैन कोलकाता के कालेज चैक में हर शाम को अपने साथियों सहित वंदेमातरम् के नारे लगाता और बेंत भी खाता था।
अब प्रश्न यह है कि जो वंदेमातरम् राष्ट्रभक्ति और राष्ट्रप्रेम का मंत्र बन गया था उसे स्वतंत्र भारत में सम्मान क्यों नहीं? बड़ी कठिनाई से वह दिन आया जब भारत सरकार ने स्कूलों में वंदेमातरम् गाने का संदेश दिया। आश्चर्य है कि राष्ट्रीय गीत गाने के लिए भी आदेश देना पड़ता है, पर साथ ही एक बार फिर विभारतजन कर दिया कि जो गाना चाहे वही गाए। जो लोग यह कहते हैं कि इस्लाम की धार्मिक मान्यताओं के अनुसार मां को प्रणाम नहीं किया जा सकता वह हजरत मुहम्मद साहब का यह वाक्य कैसे भूल गए कि दुनिया में अगर कही जन्नत है तो मां के चरणों में ही है और ए.आर.रहमान ने मां तुझे सलाम गाकर भारत संतान की रगों में एक नया जोश भर दिया। आश्चर्य यह है कि जहां जन-गण-मन के किसी अधिनायक की बात की गई है वह तो सबको स्वीकार है, पर जहां भारत भक्ति का स्वर है उस गीत को सांप्रदायिक कहा जाता है। अच्छा हो देश के यह तथाकथित धर्मनिरपेक्ष नेता अपनी आंखों से संकीर्ण राजनीति का चश्मा उतारकर अपनी आत्मा को जरा उनके नजदीक ले जाएं जो एक बार वंदेमातरम् कहने के लिए फांसी चढ़ते थे, कोड़े खाते थे, रक्त की नदी पर करके भी राष्ट्रीय ध्वज फहराना चाहते थे, तब उन्हें अहसास होगा कि वंदेमातरम् के साथ भारत की आत्मा जुड़ी है, सांप्रदायिकता नहीं। यह भारत भक्ति का मंत्र है, किसी संप्रदाय विशेष का नहीं। जो आज इस गीत को न गाने की छूट देते हैं हो सकता है कल को वे तुष्टीकरण करते हुए राष्ट्र के अन्य प्रतीकों का भी अपमान करने की छूट दे दें। अभी से सावधान होना होगा।
लक्ष्मी कांता चावला, प्रसिद्ध स्तंभकार
(महाशक्ति वंदेमातरम् समग्र - एक प्रयास वंदेमातरम् विशिष्ट लेख संकलन)
(महाशक्ति वंदेमातरम् समग्र - एक प्रयास वंदेमातरम् विशिष्ट लेख संकलन)
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