सुखदेव थापर का जन्म पंजाब के शहर लायलपुर में श्रीयुत् रामलाल थापर व श्रीमती रल्ली देवी के घर विक्रमी सम्वत १९६४ के फाल्गुन मास में शुक्ल पक्ष सप्तमी तदनुसार १५ मई १९०७ को अपरान्ह पौने ग्यारह बजे हुआ था। उनके जन्म से तीन महीने पहले ही पिता का देहान्त हो गया था। उसके बाद उनका लालन-पालन चाचा लाला अचिन्तराम के यहां होता रहा। उनके घर में आढ़त का काम होता था।
ऐसा लगता है कि राजनीति की ओर प्रवृत्ति सुखदेव को अपने चाचा से प्राप्त हुई। वह असहयोग आन्दोलन में जेल गए थे। सुखदेव अपने चाचा की बड़ी इज्जत करते थे और खादी की वर्दी और हथकड़ी पहने हुए चाचा का चित्रा सुखदेव की मेज पर रखा रहता था। सुखदेव स्वभाव में मुंहपफट और स्वतंत्र विचार के व्यक्ति थे। उनका रहन-सहन और वेश-भूषा सभी से यही प्रकट होता था। साथियों ने उनका नाम ‘विलेजर’ रख छोड़ा था। बहुत दिनों तक लोग यह समझ नहीं पाए कि दल में सुखदेव बड़ा साबित होगा या भगतसिंह। यहां तक कि शिव वर्मा का, जिन्होंने उन्हें बहुत नजदीक से देखा, यह कहना है-‘‘एक संगठन-कर्ता के नाते भगतसिंह की अपेक्षा सुखदेव मुझे कहीं अधिक जंचा’’। शिव वर्मा की यह धरणा इस कारण थी कि भगतसिंह दूर-दूर, ऊपर-ऊपर उड़ाने भरते थे और बड़ी-बड़ी बातें सोचते थे जबकि सुखदेव दल के और साथियों की छोटी-छोटी जरूरत पर विचार करते रहते थे। जिन छोटी दिखने वाली बातों की ओर भगतसिंह का ध्यान कभी भी नहीं जाता था, उन पर सुखदेव गहराई से सोचते रहते थे। शिव वर्मा की यह धारणा थी कि भगतसिंह पार्टी के राजनीतिक नेता थे और सुखदेव उसके संगठन-कर्ता थे।
लाहौर षड्यंत्र के जयदेव, सुखदेव के चचेरे भाई थे। यह एक विशेष द्रष्टव्य तथ्य है कि सुखदेव ने सांडर्स की हत्या में भाग नहीं लिया था फिर भी वह इतने महत्वपूर्ण व्यक्ति समझे गए कि उन्हें फांसी की सजा हुई। सुखदेव में विचारों की स्वतंत्रता इस हद तक थी कि कभी-कभी वह बहुत अजीब बात कर देते थे। ऐसा उन्होंने, बाद में अनशन के दौरान किया। जबरदस्ती नाक से दूध पिला दिया तो उन्होंने अनशन ही तोड़ दिया, फिर शुरू कर दिया और फिर तोड़ दिया। सुखदेव विचारों से किसी भी प्रकार भगतसिंह या अन्य साथियों से पीछे नहीं थे। उन्होंने फांसी से कुछ पहले गांधीजी के नाम एक पत्र लिखा था जिसमें कहा गया: ‘‘क्रांतिकारियों का ध्येय इस देश में सोशलिस्ट प्रजातन्त्र प्रणाली स्थापित करना है। इस ध्येय में संशोधन के लिए जरा भी गुंजाइश नहीं है। मेरा ख्याल है, आपकी भी यही धरणा न होगी कि क्रांतिकारी तर्कहीन होते हैं ओर उन्हें केवल विनाशकारी कार्यों में ही आनन्द आता है। हम आपको बतला देना चाहते हैं कि यथार्थ में बात इसके विपरीत है। वे प्रत्येक कदम आगे बढ़ाने से पहले अपने चारों ओर की परिस्थितियों पर विचार कर लेते हैं। उन्हें अपनी जिम्मेदारी का ज्ञान हर समय बना रहता है। वे अपने क्रांतिकारी विधान में रचनात्मक अंश की उपयोगिता को मुख्य स्थान देते हैं, यद्यपि मौजूदा परिस्थितयों में उन्हें केवल विनाशात्मकअंश की ओर ध्यान देना पड़ा। ‘‘................ वह दिन दूर नहीं है जबकि उनके (क्रांतिकारियों के) नेतृत्व में और उनके झण्डे के नीचे जन-समुदाय उनके समाजवादी प्रजातंत्रा के उच्च ध्येय की ओर बढ़ता हुआ दिखाई पड़ेगा।’’
इसी पत्र में एक अन्य स्थान पर अपनी फांसी की सजा के बारे में उन्होंने लिखा, ‘‘लाहौर षड्यंत्र के तीन राजबन्दी, जिन्हें फांसी देने का हुक्म हुआ है और जिन्होंने संयोगवश देश में बहुत बड़ी ख्याति प्राप्त कर ली है, क्रांतिकारी दल के सब कुछ नहीं हैं। वास्तव में इनकी सजाओं को बदल देने से देश का उतना कल्याण न होगा, जितना इन्हें फांसी पर चढ़ा देने से होगा।’’
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