संस्कृत साहित्य के प्रथम महाकवि वाल्मीकि हैं, इसलिए उन्हें आदिकवि भी कहते हैं। महर्षि च्यवन की परम्परा में वाल्मीकि ऋषि थे। उनका स्थान तत्कालीन महर्षियों में सर्वोच्च था। वाल्मीकि की लोक-कल्याण भावना अपरिमित थी। इसी भावना से प्रेरित होकर उन्होंने लोक-पथ प्रषस्त बनाने के उद्देष्य से रामायण की रचना की थी। विचारणा की जिस उदात्त पृष्ठभूमि पर राम-कथा प्रतिष्ठित की गई है, उसका उद्भव आदिकवि के हृदय से हुआ। उनके व्यक्तित्व का विकास वैदिक ऋषियों के समान हुआ था। समग्र भारत के वनों, पवन, पर्वतोपनद, सभ्यता और संस्कृति का प्रत्यक्ष ज्ञान उन्हें था। रामायण के अनुसार वाल्मीकि की वाणी कभी असत्य नहीं हो सकती थी। महर्षि भावितात्मा थे, उनकी बुद्धि उदार थी।
महर्षि वाल्मीकि के द्विज होने, उनके आरम्भिक जीवन से ही सद्कार्य में निरत होने विषयक तथ्यों को लेकर इतना विविधतापूर्ण साहित्य उपलब्ध होता है कि मतामत का निर्धारण कर पाना प्रायः असम्भव-सा जान पड़ता है। कोई इन्हें भृगु वंशीय, कोई प्राचेतस, कोई शूद्रा का पति, कोई साहसिक आदि निकृष्ट कर्म करने वाला सिद्ध करने का प्रयास करते हैं। अतः यदि महर्षि वाल्मीकि के काल-निर्धारण से पूर्व (के साथ) ही इन अनेकतः मूलक मगर विरोधी बातों का दिग्दर्षन कर लिया जाए तो अप्रासंगिक अथवा अनुचित न होगा। इस पुराण तथा मध्यकालीन आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं के साहित्य में प्रचलित रामाख्यान या रामायणों के कारण हैं।
महर्षि वाल्मीकि के द्विज होने, उनके आरम्भिक जीवन से ही सद्कार्य में निरत होने विषयक तथ्यों को लेकर इतना विविधतापूर्ण साहित्य उपलब्ध होता है कि मतामत का निर्धारण कर पाना प्रायः असम्भव-सा जान पड़ता है। कोई इन्हें भृगु वंशीय, कोई प्राचेतस, कोई शूद्रा का पति, कोई साहसिक आदि निकृष्ट कर्म करने वाला सिद्ध करने का प्रयास करते हैं। अतः यदि महर्षि वाल्मीकि के काल-निर्धारण से पूर्व (के साथ) ही इन अनेकतः मूलक मगर विरोधी बातों का दिग्दर्षन कर लिया जाए तो अप्रासंगिक अथवा अनुचित न होगा। इस पुराण तथा मध्यकालीन आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं के साहित्य में प्रचलित रामाख्यान या रामायणों के कारण हैं।
महर्षि
वाल्मीकि के दस्यु जीवन का सर्वप्रथम उल्लेख स्कन्द पुराण के वैष्णव
खण्ड आवन्त्य खण्ड, प्रभासखण्ड तथा नागर खण्ड में हैं। वहां उनके जीवन
की कुछ कथाओं में इन्हें आरम्भिक जीवन में दस्यु दिखलाया गया है दूसरी ओर,
राम-नाम के प्रभाव से इन्हें एक ऋषि के रूप में रामायण का कर्ता दर्शाया
गया है। वैष्णव खण्ड के अतिरिक्त अन्य खण्डों में महर्षि
वाल्मीकि को ब्राह्मण -पुत्र कहा गया है, परन्तु वैष्णव खण्ड में
इनकी उत्पति एक शैलूषी से दिखाई गई है।
महर्षि
कष्यप और अदिति के नवम पुत्र वरुण (आदित्य) से इनका जन्म हुआ। इनकी
माता चर्षणी और भाई भृगु थे। वरुण का नाम प्रचेत भी है। महर्षि वाल्मीकि
के सम्बन्ध में भ्रान्ति फैलाने का श्रेय मुख्यतः तथा कथित रामायणों को
है जिनका निर्माण शिव-पूजा की प्रतिद्वन्द्वता में रामोपसना को
उसके ऊपर प्रतिष्ठित करना था। इन रामायणों के लेखकों ने प्रायः यह सिद्ध
करने का प्रयत्न किया कि राम, राम-नाम पतितातिपतित का भी उद्धार
कर सकता है और इसके उद्धरण के रूप में महर्षि वाल्मीकि को प्रस्तुत
करना उन्हें सरल लगा क्योंकि एक तो वे राम-कथा के प्रणेता थे,
दूसरे ऋषि के रूप में वैदिक और औपनिषदिक साहित्य में उनका उल्लेख न मिलने
के कारण उनके उक्त कथन को खण्डित करने के लिये अवकाश भी न था।
पुराणों
की तालिका के अनुसार महाभारत युद्ध से उन्हें करीब तीन सौ वर्ष पूर्व होना
चाहिये। महाभारत का समय सम्भवतः जैसा कि आगे प्रतिपादित किया गया है, 1450
ई. पू. के आसपास है। इस गणना के अनुसार रामायण का समय 1750 ई. पू. के लगभग
होना चाहिये। डॉ. राधा कुमुद मुखर्जी के अनुसार महाभारत कालीन कुरूक्षेत्र
का समय सामान्यतः 1485 या 1425 वर्ष ई. पू. स्थिर होता है। इस
प्रकार महर्षि वाल्मीकि के विषय में वाह्य विचार प्रस्तुत करते हैं और उनका
व्यक्तित्व अस्पष्ट ही रह जाता है। यह विचारणीय है।
आदिकवि वाल्मीकि के जीवन-चरित्र व उनके व्यक्तित्व के विषय में अनेक किंवदंतियाँ प्रचलित हैं, जिनकी सत्यता प्रमाणित नहीं है, विष्णुपुराण के अनुसार वाल्मीकि भृगुवंषी ऋषि थे तथा वे वैवस्वत मन्वन्तर में होने वाले 24वें व्यास थे। एक अन्य प्रमाण के अनुसार चैबीसवें व्यास वाल्मीकि का मूल नाम ‘ऋक्ष’ था, वे वैदिक ऋषि थे, जिन्होंने महाभारत काल से लगभग 2000 वर्ष पूर्व आदिकाव्य रामायण की रचना की। लोक में प्रचलित एक जनश्रुति के अनुसार वाल्मीकि प्रारम्भिक जीवन में ‘लुटेरे’ या ‘डाकू’ थे। अध्यात्म रामायण के अनुसार वाल्मीकि का नाम ‘रत्नाकर’ था। वे यात्रियों को लूटा करते थे। सप्तर्शियों या नारद मुनि के उपदेश से उन्होंने दस्युवृत्ति का परित्याग किया। कुछ लोग मानते हैं कि वे जाति से चाण्डाल थे। इसी आधार पर ‘हरिजन’ वाल्मीकि को अपना पूर्वज मानते हैं। परन्तु ये बातें निराधार प्रतीत होती हैं। इतिहास पुराण के अनुसार वाल्मीकि प्रचेता (वरुण) के वंष में उत्पन्न हुए थे और च्यवन भार्गव के पुत्र थे। प्रसिद्ध बौद्धकवि अश्वघोष ने लिखा है कि जिस पद्य का निर्माण च्यवन ऋषि न कर सके उसका निर्माण उनके पुत्र ने किया -
वाल्मीकिरादौ च ससर्ज पद्यं।
जग्रन्थ यन्न च्यवनो महर्शिः।।
महाभारत वनपर्व में उल्लेख है कि च्यवन तप करते हुए ‘वल्मीकि’ हो गया - ‘स वल्मीकोऽभवदृशिः’ च्वयन वाल्मीकि का पुत्र वाल्मीकि कहलाया। मूलनाम उसका ‘ऋक्ष’ था। महाभारत में ‘रामायण’ और वाल्मीकि का स्पष्टत: अनेकबार उल्लेख हुआ है। रामायण का एक श्लोक भी द्रोणपर्व में उद्धृत है- -‘अपि चायं पुरा गीतः ष्लोको वाल्मीकिना भुवि’। कहा जाता है कि वाल्मीकि को सप्तऋषियों ने धार्मिक जीवन की दीक्षा दी थी। उन्होंने बहुत समय तक निरन्तर समाधि लगाई। जब वे अपनी समाधि से उठे तो उनके चारों ओर दीमकों ने ‘बमी’(बाँबी) बना ली थी और वे उससे बाहर निकले थे। वे अयोध्या के समीप ही गंगा नदी के किनारे रहते थे। राम अपने वनवास के समय सर्वप्रथम उनके ही आश्रम पर पहुचे थे। (द्रष्टव्य रामायण, अयोध्याकांड, सर्ग 56), उन्हें राम के जीवन की विशेष घटनाओं का ज्ञान था। वे उनके उदात्त गुणों से बहुत प्रभावित थे। एक दिन वे अपने आश्रम पर आए हुए नारद ऋषि से मिले और उनसे आदर्श पुरुष का जीवनचरित पूछा। उत्तर में नारद ने राम के जीवन का वर्णन किया। यह ज्ञात होता है कि वाल्मीकि राम के जीवन के विषय में प्रामाणिक और निश्चित विवरण ज्ञात करना चाहते थे। नारद से मिलने के बाद उनका ध्यान राम की ओर ही केन्द्रित हो गया और वे इसी अवस्था में अपने आश्रम के समीप बहने वाली तमसा नदी के तट पर गए। मार्ग में उन्होंने देखा कि एक व्याध ने क्रौंच पक्षी को मार दिया है। क्रौंची अपने पति एवं प्रिय के वियोग में बहुत दुखित होकर रो रही थी। यह देखकर वाल्मीकि ऋषि का हृदय द्रवित हो गया और उन्होंने व्याध को शाप दिया कि वह बहुत काल तक दुःखित रहे। उनका यह करुणाजन्य शाप पद्य रूप में परिणत होकर प्रकट हुआ, जो कि निम्न रूप में है -
मा निशाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः।
यत्क्रौञ्चमिथुनादेकमवधीः काममोहितम्।।
वे पूजा करके अपने आश्रम को लौटे। तत्पश्चात् ब्रह्मा उनके सामने आए। उन्होंने आशीर्वाद और आदेश भी दिया कि वे राम को शक्ति प्रदान की कि वह राम के वर्तमान भूत और भविष्यत् जीवन को साक्षात् देख सकेंगे। ब्रह्मा के जाने के पश्चात् वाल्मीकि ने काव्य की रचना प्रारम्भ की, जिसको आगे चलकर ‘रामायण’ के नाम से पुकारा गया।
कुछ लोग महर्षि वाल्मीकि को निम्न जाति का बतलाते हैं। पर ‘वाल्मीकि रामायण’ तथा अध्यात्मरामायण में इन्होंने स्वयं अपने को प्रचेता का पुत्र कहा है। मनुस्मृति में प्रचेता को वशिष्ठ, नारद, पुलस्त्य कवि आदि का भाई लिखा है। स्कन्दपुराण के वैशाखमहात्म्य में इन्हें जन्मान्तर का व्याध बतलाया है। इससे सिद्ध है कि जन्मान्तर में ये व्याध थे। व्याध जन्म के पहले भी ‘स्तम्भ’ नाम के श्रीवत्सगोत्रीय ब्राह्मण थे। व्याध जन्म में ‘शङ्ख’ ऋषि के सत्सङ्ग से राम नामके जप से ये दूसरे जन्म में ‘अग्नि शर्मा’ (मतान्तर से रत्नाकर) हुए, वहाँ भी व्याधों के सङ्ग से कुछ दिन प्राक्तन संस्कारवश व्याधकर्म में लगे फिर सप्तऋषियों के सत्सङ्ग से ‘मरा-मरा’ जप कर - बाँबी पड़ने से वाल्मीकि नाम से ख्यात हुए और बाल्मीकि-रामायण की रचना की।
इस प्रकार हम यह कह सकते हैं कि भले ही वाल्मीकि का स्थितिकाल तथा उनकी कृति का रचनाकाल विवादास्पद हो और अभी तक सही-सही ढंग से आँका भी न गया हो। किन्तु उनकी रचना ‘रामायणम्’ का संस्कृत काव्य जगत् में सर्वोच्च स्थान है। यह वह रचना है जिसने अनेकानेक षैलियों में रामचरित लिखने की प्रेरणा परवर्ती कवियों को दी। इससे प्रेरणा प्राप्तकर अनेक कवियों ने संस्कृत साहित्य जगत में सफल कविकर्म प्रस्तुत किए हैं।
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