किसी भी व्यक्ति, संगठन या समूह के लिए सिद्धांत और विचारधारा का होना उतना ही महत्वपूर्ण है जितना कि इनके द्वरा श्रोताओं व सदस्यों को दिए गये भाषणों व उद्बोधनों में इनका विद्यमान होना..
कल लखनऊ में अधिवक्ता परिषद उत्तर प्रदेश के रजत जयंती वर्ष समारोह लखनऊ में था, कार्यक्रम में चर्चा का विषय "भारतीय सविधान में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता आंतरिक सुरक्षा के संबध में" मुझे लगा कि कार्यक्रम में उक्त विषय कही खो गया था न्यायमूर्ति शाही और न्यायमूर्ति चौहान ही सिर्फ कुछ हद तक नपे तुले शब्दों पर इस पर बोल पाए. इस कार्यक्रम के परिपेक्ष में मैं कुछ बात कहना चाहूँगा..
- मुख्य अतिथि/वक्ता और इस विषय के मंत्री होने के बावजूद राजनाथ जी ने इस पर कोई बात नहीं की, यहाँ तक लोगो ने इस बात पर हूटिंग भी की जब राजनाथ जी ने कहा की मुझे नहीं लगता अब कोई बात कहने को बची है तो दर्शक दीर्धा से आवाज आई कि मंत्री जी अभी विषय पर चर्चा बाकी है..
- अधिवक्ता परिषद् की तरफ से राष्ट्रीय संरक्षक लाल बहादुर जी, सस्थापक महामंत्री रमेश कुमार जी, प्रदेश अध्यक्ष शशि प्रकाश सिंह जी और प्रदेश महामंत्री चरण सिंह त्यागी ने भी कार्यक्रम की विषयवस्तु संबधित कोई बात और चर्चा प्रस्तुत नहीं की. यह जरूर है कि स्वाभिमान के साथ लाल बहादुर जी विषय से हट कर संविधान पर चर्चा जरूर और श्रोताओं को सम्मोहित किया मुझे कहने में कोई शिकयत नहीं कि लाल बहादुर जी को मंच पर यह बात कहने से रोकने की असफ़ल कोशिश की गयी किंतु लाल बहादुर जी के कद के आगे उन्हें कोई रोक नहीं सका और उन्होंने अपनी पूरी बात रखी..
- सिद्धांत और विचारधारा के संरक्षकों पर सबसे बड़ा प्रश्न यह उठता है कि जब प्रस्तवित विषय पर परिषद के पदाधिकारियों की कोई तैयारी नहीं है तो ऐसे विषय पर चर्चा आयोजित कर प्रदेश भर से भीड़ बुलाने की आवश्यकता और औचित्य क्या है? ऐसे विषय को रख कर उस पर चर्चा न करना कही न कही हम अपने उन कार्यकताओं को ठगने का प्रयास करते है जो सैकड़ो किमी की यात्रा करके लखनऊ पहुचे थे.
- मैंने कई बार महसूस किया है कि प्रासंगिक विषयों पर कोई चर्चा नहीं होती और सिवाय महिमामंडन और महिमामंडन के प्रतिफल की इच्छा के राष्ट्रवादी वैचारिक संगठनों के लिए ऐसे कार्यक्रमों का औचित्य क्या? किसी भी वैचारिक संस्था के कार्यक्रम की सफलता की पैमाना भीड़ नहीं होती है, अपितु लगनशील विचारवान 4 कार्यकर्ता होते है जो संस्था की के सिद्धांतों और विचारधारा के ध्वजवाहक होते है. इतिहास राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को आगे बढ़ाने वाले कोई भीड़ नहीं अपितु पूज्य डॉ. साहब के प्रारम्भिक 5 स्वयसेवक थे उन्होंने संघ को आगे ले गए और उसे विशालकाय वट वृक्ष बनाया. भीड़ विचारधारा का नहीं अपितु अराजकता का पर्याय होती है.
- एक बात यह देखने में आया कि कार्यक्रम में पहुचने वाले अधिवक्ता परिषद् के बाहरी सदस्यों जिसमे काफ़ी महिलाये भी थी, जो काफ़ी 400-500 किमी की यात्रा करके आई थी उनकी शिकायत थी कि उनके ठहरने की व्यवस्था नहीं थी. परिषद की तरफ से के सफ़ेद पत्रक कार्यकर्ताओ को दिया गया था जिसमे सूचना थी कि किसी कार्यकर्ताओ के लिए ठहरने की व्यवस्था नहीं की गयी है. वास्तव में प्रदेश स्तर के किसी भी कार्यक्रम में जिसका समापन शाम 6 बजे के बाद हो रहा हो उसमे उन कार्यकर्ताओ के ठहरने की व्यवस्था होनी चाहिए थे जिन्होंने अपने आने की सूचना देनी ही चाहिए थी. अगर ऐसा था तो कम से कम कार्यक्रम स्थल के आस-पास के कुछ होटलों की सूची तो दे देनी चाहिए थी. ताकि जो व्यक्ति इतनी दूर दूर से आया उसे आवास के लिए भटकना तो नहीं पड़ता. कार्यक्रम स्थल पर ऐसा कोई मंच नहीं था जहाँ पर प्रदेश के अन्य हिस्सों से आने वाले अधिवक्ताओं जानकारी पंजीकृत की जाती जिससे कम से कम यह आकडे तो रहते कि कौन अधिवक्ता कार्यकर्ता कहाँ से आया है.
- किसी भी संघठन या संस्था का मुख्य कार्यकारी अधिकारी संस्था का अध्यक्ष और महामंत्री (महा-सचिव) होते है, जो संस्था के कार्यों को अपने अन्य पदाधिकारियों के माध्यम से संचालित और सम्पादित करते है. मेरे अनुभव के आधार पर किसी संस्था की ओर से होने वाले किसी भी कार्यक्रम का आमंत्रण पत्र इन्ही दोनों के नाम से निर्गत किये जाते है या सम्पूर्ण कार्यकारिणी का जिक्र होता है. किंतु अधिवक्ता परिषद उत्तर प्रदेश की ओर से जो आमंत्रण पत्र निर्गत हुआ उस पर अध्यक्ष और महामंत्री के अतिरिक्ति संगठन मंत्री और कोषाध्यक्ष का नाम पदनाम सहित उल्लेखित था. अधिवक्ता परिषद उत्तर प्रदेश में 5 प्रदेश उपाध्यक्ष जो वरीयता क्रम में अध्यक्ष के बाद आते है और अन्य कार्यकारिणी सदस्य भी है. जब उपाध्यक्षों से गैरजरूरी कनिष्ठ पदाधिकारियों के नाम आमंत्रण पर आ सकते है तो उपाध्यक्षों और अन्य कार्यकारिणी सदस्यों के नाम आने पर क्या दिक्कते थे उसे सार्वजानिक करना चाहिए.
- बंगलौर के राष्ट्रीय अधिवेशन की अनियमितताओं पर लोगो ने बंगलौर में तो आपतियां दर्ज की ही थी और कल भी बंगलौर का राष्ट्रीय अधिवेशन पर कार्यकताओ ने कहा कि इस अधिवेशन से ख़राब राष्ट्रीय अधिवेशन अब तक नहीं हुआ. इस पर एक कार्यकता ने अधिवक्ता परिषद् का बचाव करते हुए कहा कि बाबा (श्रीश्री रविशंकर) ने 50 लाख रूपये लिए पर उन्होंने सुविधाए नहीं दी. ऐसे ही बगलोर में ख़बर उडी थी कि परिषद् ने राज्यसभा की सीट के एवज में फ्री में बाबा के संसाधन ले रहे है. अपने बचाव में किसी बड़े संत को बदनाम करना कहाँ तक उचित है क्या यह बाते बाबा के कानो में नहीं पहुची होगी. ऐसे में भविष्य में कौन देगा? किसी भी कार्य की सफलता या असफलता बाहरी के नहीं अपितु अपनों अच्छे बुरे काम पर निर्भर करती है. ऐसी बहुत सी बाते है जिसे कहना उचित नहीं है और पिछले 8-9 से कहा भी नहीं किंतु कभी कभी मौन तोडना आवश्यक होता है.
कार्यक्रम में और उसके पूर्व के कार्यक्रमों में हमेशा बताया गया कि अधिवक्ता परिषद् पूज्य दत्तोपंत ठेगडी जी के विचारों का संगठन है. उपरोक्त 7 बिन्दुओ पर जो भी बाते आई है वो कही भी पूज्य दत्तोपंत ठेगडी जी के विचारो के संगठन की नहीं प्रतीत होती है. आज के नीति निर्धरोको के द्वारा ठेगडी जी के विचारों को उपदेश देने के लिए सिर्फ जुबान पर उतारा जा रहा है नजरों और दिलो से तो तथाकथित लोग इसे दिल और नजरों से उतार ही चुके है. शुरू से सुनता आया हूँ कि अधिवक्ता परिषद कोई बीजेपी का समर्थन करने वाला कोई राजनैतिक संगठन नहीं है, ऐसा प्रयाग के झूसी में हुए प्रदेश अधिवेशन में मैंने सुना हूँ अब लगता है कि समय और सत्ता सबकुछ बदल देती है.
अधिवक्ता परिषद, विहिप, भारतीय मजदूर संघ आदि संगठन संघ के अनुसांगिक संगठन माने जाते है. वास्तव में संघ को आज आत्ममंथन करने की जरूरत है अपने आप पर भी और अपने अनुसांगिक संगठनो पर भी, सबसे बड़ी बात आज विचारधारा और शिद्धान्तों पर हम कितने खरे उतर रहे है. सत्ता भीड़ को आकर्षित करती है कार्यकताओं को नहीं..
वैसे जंगली चिड्डे, मैदानी खेतो पर तभी नज़र आते है जब खेतों पर फसल लहलहा रही होती है और जंगलियों को विचारधारा और शिद्धान्तो से क्या सरोकार?
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