उत्तर प्रदेश में महाधिवक्ता और अपर महाधिवक्ताओ कि नियुक्ति पर मन में कुछ प्रश्न उपजे है,
- क्या महाधिवक्ता और अपर महाधिवक्ताओ कि नियुक्ति वास्तव में सर्वोत्तम है और क्या वास्तव में नवनियुक्त 6 विकल्पों से अच्छे विकल्प संघ, भाजपा और अन्य अनुसांगिक सगठनों में उपलब्ध नहीं थे ?
- इन नियुक्ति के समय ग्राउंड लेबल (जमीनी स्तर) पर कार्यकर्ताओं और जिम्मेदार अधिकारीयों से राय ली गयी?
- इन नियुक्तियों में अधिवक्ताओं कि योग्यता, कार्य कुशलता, वरिष्ठता और कार्यकर्ताओं के मध्य लोकप्रियता आदि पैमानों पर गढ़ा गया?
मेरे इन प्रश्नों के उत्तर देना उपरी लोगो के लिए कठिन होगा, क्योकि ये
चयनित नाम उत्तम हो सकते है किन्तु यह सर्वोत्तम नहीं है इसलिए मैं
महाधिवक्ता सहित सभी नियुक्तियों निंदा और भर्त्सना करता हूँ, कोई भी चयन
निष्पक्ष नहीं रहा और न ही जनभावना के सम्मान में रख कर किया गया.. वास्तव
में यह नियुक्तियां बड़े बड़े राजनैतिक "घाघों" के दबाव में हुई है..
उत्तर प्रदेश में महाधिवक्ता और अपर महाधिवक्ता के चयन पर प्रश्न उठ रहा है कि 1 माह बाद खूब खोज बीन कर नियुक्ति भी हुई तो सिफारिशी लोगो की। उत्तर प्रदेश में आजादी के बाद पहले महाधिवक्ता स्व प्यारेलाल बनर्जी थे।
गोविन्द बल्लभ पन्त उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे। महाधिवक्ता से किसी
राय की जरूरत थी। महाधिवक्ता को पन्त जी ने इलाहबाद से लखनऊ बुलवाया।
बनर्जी साहब ने जो उत्तर दिया वह चकरा देने वाला था।
उन्होंने कहा कि मुवक्किल वकील के पास जाता है, न कि वकील मुवक्किल के पास। पन्त जी ने
निर्देश दिया कि चीफ सेक्रेटरी तुरंत इलाहाबाद जा कर महाधिवक्ता से विचार
विमर्श करें और चीफ सेक्रेटरी ने ऐसा ही किया। इसके बाद बनर्जी साहब ने
इस्तीफा दे दिया। वकालत के कार्य की dignity अर्थात सम्मान का बड़ा महत्व
है, बनर्जी साहब का यह कदम वकीलों के सम्मान के लिए एक नमूना मात्र है।
वर्तमान एक महाधिवक्ता मंत्री और विधायको की चरण वंदना करने से बाज नहीं
आयेगे।
महाधिवक्ता का पद तो
अब हर मुख्यमंत्री और राजनेताओं के पसंद का पद हो चुका है। जहाँ तक
काबिलियत की कोई कीमत नही है और कबीलीयत की परख तब होती है जब भी कोई
तकनिकी विधि का मामला होता है नियुक्त महाधिवक्ता और अपर महाधिवक्ता हाथ
खड़ेकर देते है और सरकार को सलाह और पैरवी के लिये मोटी फीस पर विशेष
अधिवक्ता नियुक्त करना पड़ता है, ऐसे कई मामले पिछली सपा सरकार मे आये थे जब
महाधिवक्ता विजय बहादुर 7 जजो की बेच के सामने बौने पड़ गये और सरकार को
विशेष वकील के रूप मे एसपी गुप्ता नियुक्त करना पड़ा और अन्य अपर
महाधिवक्ता भी सिर्फ मजे मारते रहे। सरकार को अपने द्वारा नियमित ढंग से
नियुक्त किये गए वकीलों पर भरोसा नहीं रहता।
प्रदेश की सरकार ठीक
काम करे इसका बहुत कुछ दारोमदार महाधिवक्ता का होता है। चाटुकारिता करने
वालो की ही नियुक्ति होगी तो महाधिवक्ता और अपर महाधिवक्ता पुरानी कहावत
चरित्रार्थ करेगे कि "काम के न काज के दुश्मन अनाज के"
Share:
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें