क्या है आईपीसी की धारा 377
प्रकृति विरुद्ध अपराध के बारे में है जो यह बताती है कि जो कोई किसी पुरुष, स्त्री या जीव वस्तु के साथ प्रकृति की व्यवस्था के विरुद्ध स्वेच्छया इन्द्रिय-भोग करेगा, वह आजीवन कारावास से या दोनों में से किसी भांति के कारावास से जिसकी अवधि दस वर्ष तक की हो सकेगी, दण्डित किया जाएगा और जुर्माने से भी दण्डनीय होगा। यह अपराध संजेय अपराध की श्रेणी में आता है और गैरजमानती है।
हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में आईपीसी की धारा 377
2 जुलाई 2009 को एक संस्था नाज फाउंडेशन की याचिका पर सुनवाई करते हुए दिल्ली उच्च न्यायालय ने अपने फैसले में कहा था कि दो व्यस्क आपसी सहमति से एकांत में समलैंगिक संबंध बनाते है तो वह आईपीसी की धारा 377 के तहत अपराध नहीं माना जाएगा कोर्ट ने सभी नागरिकों को समानता के अधिकारों की बात की थी। इसके विपरीत 4 साल बाद ही सुप्रीम कोर्ट ने 11 दिसंबर 2013 को होमो सेक्सुअलिटी के मामले में दिए गए अपने ऐतिहासिक जजमेंट में समलैंगिकता मामले में उम्रकैद की सजा के प्रावधान के कानून को बहाल रखने का फैसला किया था। सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के उस फैसले को खारिज कर दिया था जिसमें दो बालिगो के आपसी सहमति से समलैंगिक संबंध को अपराध की श्रेणी से बाहर माना गया था। सुप्रीम कोर्ट ने कहा जबतक धारा 377 रहेगी तब तक समलैंगिक संबंध को वैध नहीं ठहराया जा सकता।
धारा 377 के पक्ष और विपक्ष मे संवाद
आईपीसी की धारा 377 का विरोध किसी खास जाति, वर्ग या धर्म के लोग कर रहे हैं बल्कि हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई सभी धर्मों के नेताओं ने न सिर्फ समलैंगिकता को एक गंभीर खतरा माना है, बल्कि भारत के धार्मिक, सांस्कृतिक, नैतिक और सामाजिक मूल्यों को नष्ट कर देने वाला भी बताया है। जहां कुछ स्वास्थ्य वैज्ञानिकों के अनुसार समलैंगिकता का उपचार संभव है, और इस उपचार पद्धति को रिपैरेटिव चिकित्सा कहा जाता है वहीं दूसरी तरफ कुछ डॉक्टर मानते हैं कि समलैंगिकता एक चिकित्सीय जरूरत है और इसे कतई अप्राकृतिक नहीं माना जा सकता है और यही तर्क धारा 377 के विरुद्ध सबसे मजबूत पहलू है। डॉक्टरों का कहना है कि समलैंगिकों को अक्सर पथभ्रष्ट के रूप में ब्रांडेड किया जाता है जबकि वे भी आम आदमी होते हैं और उन पर सामाजिक प्रतिबंध लगाने की जरूरत नहीं है।
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