पाण्डेय बेचन शर्मा 'उग्र' का जन्म विक्रमी संवत् 1957, (सन् 1900) पौष शुक्ल अष्टमी की रात साढ़े आठ बजे उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर जिले की चुना तहसील के सद्दूपुर नामक मुहल्ले में श्री बैजनाथ पाण्डेय कौशिक गोत्रोत्पन्न सरयू-पारीण ब्राह्मण के घर हुआ। इनके पिता श्री बैजनाथ पाण्डेय बड़े तेजस्वी, सतोगुणी, वैष्णव हृदय के थे। उनकी आजीविका दूसरों के घरों में पूजा-पाठ द्वारा ही चलती थी। पूर्वजों के कारण जो सम्मानित प्रतिष्ठा थी, उसके कारण इनका गाँव में सभी लोग आदर करते थे। " 'उग्र' के प्रपितामह सुदर्शन पाण्डेय सिद्धपुरूष थे, जिनके सिद्धिबल से प्रभावित होकर काशी नरेश ने उन्हें 108 बीघे भूमि, जिसमें चार कुएँ और दो आम के बाग थे, दान में दी थी। इनके पितामह हरसू पाण्डेय एक राजा के यहाँ राजपुरोहित थे।" इनकी माता का नाम जयकली था। वे परम उग्र, कराल, क्षत्राणी स्वभाव की थी, परम क्रोधिनी होने के साथ वे भोली भी कम न थीं। वे परिश्रमी भी बहुत थीं। अतः उग्र को यह उग्रता अपनी माँ से ही संस्कार रूप में प्राप्त हुई थी।
'उग्र' के बहन-भाइयों की संख्या एक दर्जन तक पहुँची परन्तु उनमें अधिकतर उत्पन्न होते ही अथवा वर्ष-दो वर्ष के होते-होते ईश्वर के प्यारे हो गए। पहले भाइयों के नाम उमाचरण, देवीचरण, श्रीचरण, श्यामचरण, रामचरण आदि थे। बच्चों की अकाल मृत्यु से भयभीत होने के कारण, 'उग्र' के जन्म पर थाली तक न बजाई गई और जन्मते ही इन्हें बेच दिया गया। स्वयं उपन्यासकार उग्र ने कहा है - "सो, जन्मते ही मुझे यारों ने बेच डाला, और किसी कीमत पर ? महज टके पर एक। उसका भी गुड़ मँगाकर मेरी माँ ने खा लिया था। अपने पहले उस टके में से एक छदाम भी नहीं पड़ा था, जो मेरे जीवन का संपूर्ण दाम था।" उग्र का बेचन नाम जन्मते ही बिकने का सूचक है। यह नाम उत्तर भारत के पूर्वी जिलों में चलने वाला नाम है, अहीरों, कोरियों आदि निम्न वर्गीय जातियों में प्रचलित है। ब्राह्मण वंश मेंजन्म लेने पर भी इनके परिवार वालों ने यह मन्द नाम इन्हें प्रदान किया, जिससे ये अकाल मृत्यु का ग्रास न बनें। "यह नाम तिलस्मी गंडा बना और 67 वर्ष तक ये जीवन संग्राम के योद्धा बने रहे, काल को इनका मन्द नाम पसन्द न आया और ये उसका ग्रास बनने से बचते रहे।"
उग्र के आरम्भिक जीवन, व्यक्तित्व और साहित्य पर उनके बड़े तथा मंझले भाइयों का बहुत कुछ प्रभाव पड़ा। बालक बेचन केवल दो वर्ष छः माह के थे कि उनके पिता जी का देहान्त हो गया। उनके मंझले भाई पितामरण के कुछ ही दिन के अन्दर बड़े भाई तथा भाभी से लड़कर अयोध्या भाग गए और साधु बनकर मण्डलियों में अभिनय करने लगे। बड़े भाई ने अपनी पत्नी और माता के आभूषण जुआ-यज्ञ में स्वाहा कर दिए, घर के बरतन-भांडों तक को बेच डाला। इस सम्बन्ध में वे लिखते हैं - "जब भी मेरे घर में जुआ जमता, भाई की आज्ञा से दरवाजे पर बैठकर मैं गली के दोनों नाके ताड़ता रहता, कि पुलिस वाले तो नहीं आ रहे हैं। जरूर इस ड्यूटी के बदले पैसा-दो-पैसा मुझे भी किसी परिचित जुआरी से मिलता रहा होगा।" उग्र के बड़े भाई घोर पियक्कड़ तथा वेश्यागामी थे। उनका प्रभाव बालक बेचन के संस्कारों पर इतना अधिक पड़ा कि वे अपने जीवन तथा साहित्य में इन बुराइयों को प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से उतारे बिना न रहे। इनका जन्म एक ऐसे परिवार में हुआ, जहाँ निर्धनता ने अपना साम्राज्य स्थापित कर रखा था। आय के साधन अति सीमित थे, उससे पेट भर भोजन भी नहीं मिलता था। बड़ी कठिनाई से यदि प्रातः भोजन मिलता तो रात्रि को व्रत रखना पड़ता। ऐसी स्थिति में उसकी शिक्षा-दीक्षा का सवाल ही नहीं उठता। आँख खोलते ही जीवन-ग्रन्थ का जो पृष्ठ उसे देखने को मिला, वह शिक्षा-दीक्षा को चैपट करने वाला था। उसी से वह नरक की ओर अधिक आकर्षित हुआ और उसकी खोज में दूर, बहुत दूर तक चला गया। उसका साहित्यिक दृष्टिकोण भी घोर यथार्थवादी बना। नरक बुरा होने पर भी उसका प्रिय जीवन-संगी बन गया। "इस प्रकार कथाकार ब्राह्मण-वंश में जन्म लेकर भी ब्राह्मण-ब्राह्मणियों की अपेक्षा शूद्र-शूद्राणियों की ओर अधिक आकृष्ट रहा और शूद्र, खानाबदोश एवं बंजारे अपने अंग से प्रतीत होते रहे।"
जिस समय बालक को वात्सल्य, समुचित शिक्षा और नैतिक वातावरण की आवश्यकता होती है, उस समय 'उग्र' इसमें नितान्त रहित होकर अभावों और विपन्नताओं का जीवन व्यतीत कर रहे थे। "जीवन को स्वर्ग और नरक दोनों ही का सम्मिश्रण कहा जाए तो मैंने नरक के आकर्षक सिरे से जीवन दर्शन आरम्भ किया और बहुत देर, बहुत दूर तक उसी राह चलता रहा। इस बीच में स्वर्ग की केवल सुनता ही रहा मैं।" 'उग्र' के ये शब्द उनके बचपन का यथार्थ चित्रण उपस्थित करते हैं। उनके साहित्य में नाटकीयता का जो अपूर्व सौष्ठव मिलता है, उसका मूलस्त्रोत उनका वह जीवन है, जिसमें वह रामलीला मण्डलियों के साथ वर्षों घूमते रहे और समय-समय पर कई प्रकार का अभिनय भी करते रहे। इनके दो बड़े भाई पहले से ही रामलीला में अभिनय करते थे।
अपने पिता की मृत्यु के पश्चात् 'उग्र' विजयदशमी के अवसर पर होने वाली रामलीला में कोई न कोई भूमिका निभाया करते थे। भाई के कहने पर इन्होंने एक-दो बार सीता का अभिनय किया। जब 'उग्र' के भाई अयोध्या की रामलीला मण्डली में थे, तब उन्होंने इनको बनारस की मण्डली में अपने किसी मित्र के संरक्षण में छोड़ दिया। इस समय इनकी अवस्था आठ या नौ वर्ष की थी। कुछ समय पश्चात् इनके भाई ने इन्हें अयोध्या की मण्डली में बुला लिया। यहाँ इन्हें आठ-दस रूपये मासिक पर लक्ष्मण और जानकी का अभिनय करने का काम दिया गया। रामलीला के विभिन्न पात्रों के संवाद कंठस्थ करने के अतिरिक्त वे एक वैरागी पखावजी से संगीत भी सीखा करते थे। रामलीला के दिनों में ही 'उग्र' का परिचय श्रीरामचरितमानस् से हुआ और इन्हीं दिनों में ही इन्होंने सुलझे हुए साधुओं को निष्ठापूर्वक रामायण का पारायण करते हुए देखा। 'उग्र' का रामायण-अनुराग इतना प्रगाढ़ हुआ कि इस ग्रन्थ के विविध अंश इन्होंने कंठस्थ कर लिए। "रामलीला मण्डलियों से सम्बन्धित जीवन का यदि कोई सुखद प्रभाव 'उग्र' पर पड़ा तो वह यह था कि उनका जीवन दर्शन रामायण में वर्णित आदर्शों से पर्याप्त रूप से प्रभावित हुआ।" वे राम, तुलसी और तुलसी की कृतियों, विशेषकर रामचरितमानस् और विनय पत्रिका के अनन्य प्रशंसक बन गए। इन रचनाओं के अनेक उद्धरण उनकी कृतियों में यत्र-तत्र दृष्टिगोचर होते हैं।
बेचन पाण्डेय को रामलीलाओं की ओर प्रेरित करने वाली घरेलू परिस्थितियाँ ही थी, परन्तु समयानुसार इनकी अपनी चित्तवृत्तियाँ भी इस कार्य में रमने लगीं और ये विभिन्न रामलीला-मण्डलियों में भरत, लक्ष्मण, सीता आदि के अभिनय बड़े मनोयोग से करते रहे। 'उग्र' अपने दूसरे भाई के साथ महन्त राममनोहर दास की रामलीला मण्डली में कार्य करने लगे। इस मण्डली में इन्होंने अलीगढ़, दलीपपुर, फैजाबादा, प्रतापगढ़, मेरठ, दिल्ली, कटनी आदि स्थानों का भ्रमण किया। "विभिन्न स्थानों में लक्ष्मण और सीता की भूमिका करते और सहस्र जनों से अपने पैरों की अर्चना करवाते।" उस समय लोग ऐसी धार्मिक भूमिकाएँ करने वालों को ही भगवान् समझ बैठते थे, लेकिन वे रामलीला मण्डली के सदस्यों से परिचित नहीं थे। परन्तु 24 घण्टे इस मण्डली में रहने वाले 'उग्र' ने जो-जो कुकृत्य देखे, उसका वर्णन अपने अधिकतर उपन्यासों में कर चुके हैं। जब इनकी आयु 11-12 वर्ष के लगभग थी तो ये मण्डली के विलास-जाल के कुप्रभाव में आने लगे। महन्त राम मनोहरदास की राम मण्डली पाप लोलुप कार्यों में लिप्त थी। "महन्त किसी न किसी लड़के पर रीझकर उसी के साथ रात्रि व्यतीत करते।" बेचन शर्मा इन कुकृत्यों से बचे रहे, क्योंकि वे अपने दो हट्टे-कट्टे भाइयों के संरक्षण में थे। 'अपनी खबर' में उग्र ने लिखा है - "लीलाधारी लोग स्वरूपों के साथ अनैतिक कार्य भी अवसर मिलने पर किया करते थे। मण्डली के अन्य लोग जैसे अधिकारी, भण्डारी, श्रृंगारी और लीलाधारी भी इन छोकरों के साथ ऐसा दुव्र्यवहार करते।" उग्र अपने विषय में लिखते हैं - "अपने तेजस्वी भाइयों के कारण ये मेरा कुछ न बिगाड़ सके।" राम मनोहर दास की मण्डली पाप कृत्यों से भरी पड़ी थी। इस राम मण्डली में 'उग्र' का पहला और अंतिम प्रेम पनपा। ये एक सत्रह वर्षीया सुन्दरी अभिरामा श्यामा पर मोहित हो गए। वह विवाहिता थी और रामलीला देखने के लिए प्रायः आती थी। उग्र स्टेज पर अपनी भूमिका निभाते हुए इन्हें निहारा करते थे। इनका प्रेम वासना न होकर केवल भावनात्मक था, लेकिन राममनोहर मण्डली ने इस सुन्दरी के साथ व्यभिचार करके इसे यौन रोग से ग्रसित कर दिया। संयोगवश उन्हीं दिनों उसका पति आ गया और उसे समझते देर न लगी। पति ने उत्तेजित होकर उसका अंग-अंग दाग दिया और वह चिकित्सालय में लाई जाने पर भी बच न सकी, उसने दम तोड़ दिया। इस घटना का आतंक उग्र में मानसपटल पर ऐसा पड़ा कि इनकी प्रत्येक कहानी एवम् उपन्यास में नारी की भूमिका में श्यामा की प्रतिछाया दिखाई पड़ती है। इस दुःखद प्रसंग के बारे में उग्र ने स्वयं लिखा है - "मेरा प्रथम और अन्तिम प्रेम भी वही था।" 12 वर्ष की आयु में घटी इस घटना ने उग्र की विचारधारा को नया मोड़ दिया। रामलीला मण्डली से इनका जी उचाट हो गया और वापिस चुनार आ गए।
चुनार आने के पश्चात् उनके पुत्रहीन चाचा ने उन्हें विधिवत् गोद लिया। 14 वर्ष की आयु में ये चुनार के चर्च स्कूल में तृतीय श्रेणी में पढ़ने लगे। अभी ये छठी कक्षा में पहुँचे ही थे कि इनकी चाची ने एक सुन्दर बालक को जन्म दिया, जिससे इनके चाचा-चाची के प्यार में कटुता आ गई। विधि-विरहित दत्तक पुत्र बनने के कारण उसे पुनः कठोर धरती पर पटक दिया गया। उसके चाचा-चाची परिवार सहित काशी चले गए और उसे पुनः कसाई समान क्रूर बड़े भाई के चरणों में आना पड़ा। शिक्षा, खान-पान आदि की कठिनाइयाँ उसे सताने लगीं और वह विचित्र संकट में फस गया। इन्हें जो उग्रता अपनी माता के संस्कारों के रूप में प्राप्त हुई थी, उसी ने विद्यार्थी जीवन तथा साहित्यिक जीवन में विस्तार पाया। छठी कक्षा में अध्ययन करते समय वह उग्रता प्रथम बार एक भयानक रूप में प्रस्फुटित हुई। "उनके एक अध्यापक थे मौलवी लियाकत अली, जो उर्दू-फारसी आदि पढ़ाया करते थे। मौलवी के विचार हिन्दू-विरोधी थे और अध्यापन के समय वे ऐसी बातें कह जाया करते थे, जिनसे हिन्दू विद्यार्थियों की भावनाओं को ठेस पहुँचती थी।" एक दिन मौलवी ने विद्यार्थियों से कहा - "हिन्दुओं के देवता मेरे पाजामें में बंद रहते हैं।" यह सुनकर अनके हिन्दू-छात्रों में विद्रोह की अग्नि भड़क उठी। सभी ने इन मौलवी को सबक सिखाने की ठानी। लेकिन पहल कौन करे ? उग्र पढ़ने से बचना चाहते थे, इसलिए यह मुसीबत अपने ऊपर ले ली और प्रिसिंपल को तार अपने नाम से भिजवा दिया - "मौलवी लियाकत अली, मिशन टीचर, इन्सल्ट्स अवर रिलीजयस फीलिंग्स, नो सैटिस्फैक्टरी इन्क्वायरी बेचन पाण्डे।" तार पाते ही मुख्याध्यापक तुरन्त स्कूल पहुँचे, लेकिन भय से उस दिन उग्र अनुपस्थित रहे, जिसके कारण इनका नाम स्कूल से काट दिया गया और मौलवी की भी कठोर भत्र्सना की गई। इस प्रकार चुनार के स्कूल से इनकी शिक्षा खत्म हो गई।
पुनः उग्र काशी की शरण में गए। इन्होंने यहीं पढ़़ने की प्रार्थना की। चाचा ने इन पर कृपा करके इन्हें बनारस के विख्यात हिन्दू कालिजिएट स्कूल की छठी कक्षा में प्रवेश दिलवा दिया। प्रधान अध्यापक काली प्रसन्न चक्रवर्ती की इन पर असीम कृपा थी, जिनकी शरण में इन्होंने छठी, सातवं कक्षा उत्र्तीर्ण की, (इन पर) लेकिन इनके चाचा ने इन्हें अपने से अलग कर दिया। तब काली प्रसन्न चक्रवर्ती ने काशी के बाबू शिवप्रसाद जी के नाम एक पत्र लिखकर भेजा, जिसमें उग्र की शिक्षा, खान-पान, रहने की निःशुल्क व्यवस्था हो गई। एक वर्ष तक ये सभी सुविधाओं को प्राप्त करते रहे, लेकिन अपने उग्र स्वभाव को न बदल सके, जिसके कारण दुबारा इनकी शिक्षा रूक गई। ये वार्षिक परीक्षा में फेल हो गए और वापिस चुनार आ गए। इनकी शिक्षा यहीं तक सीमित थी।
उग्र जी के उग्र स्वभाव को सर्वाधिक उत्तेजना उनके बड़े भाई के अनुचित एवं अनैतिक आचरण ने ही दी, वह उस कसाई के समान थे जो कभी सन्तुष्ट नहीं होता। इसी से बेचन को अपना घर संसार का सबसे बड़ा कारावास लगता था। बड़े भैया की अनुपस्थिति में दस रूपए का नोट हाथ लगते ही ये धोती-कमीज पहने एक अंगोछा लिए घर से भागकर कलकत्ता चले गए। कलकत्ता जिन विश्वनाथ त्रिपाठी (पड़ोसी भाई) से मिलना था, वे चुनार के लिए रवाना हो चुके थे। एक सप्ताह के बाद श्री विश्वनाथ कलकत्ता आ गए। उन्हीं की कृपा से इन्हें आरव्म्एलव्म् बर्मन कम्पनी में एक रूपया प्रतिदिन की नौकरी मिली। अभी महीना खत्म भी न हुआ था कि बड़े भाई का चुनार पहुँचने के लिए पत्र आ गया और इन्हें बिना सूचना दिए चुनार जाना पड़ा। जिसके कारण इन्हें पूरे महीने का वेतन भी न मिला। यह इनके जीवन की पहली और अन्तिम नौकरी थी। चुनार आकर इन्होंने साहित्य सृजन को अपना लक्ष्य बनाया। आरव्म्एलव्म् बर्मन कम्पनी में नौकरी करते वक्त इनका राजनीतिज्ञों से भी वास्ता पड़ता था। घुमक्कड़ प्रवृत्ति होने के कारण इन्होंने कटु यथार्थ देखे और अनुभव किए। ये वाराणसी, कलकत्ता, बम्बई, इन्दौर, दिल्ली आदि महानगरों में घूमे। स्वस्थ एवम् अस्वस्थ जीवन को अपनी रचनाओं में प्रतिपादित किया।
"बेचन की पहली रचना 'धु्रवधारणा' नामक खण्डकाव्य थी।" पाण्डुलिपि का संशोधन लाला भगवानदीन ने किया। 'अपनी खबर' आत्मकथा में उग्र लिखते हैं, "मुझमें यदि कुछ प्रतिभा थी तो उसे लालाजी के मात्र आशीर्वाद का पोष प्राप्त हुआ। पढ़ा वह मुझे न पाये।" "दूसरी कृति थी 'महात्मा ईसा' जिसका संशोधन लालाजी ने किया और पुनर्वाचन प्रेमचन्द ने।" इस युग के साहित्यकारों में ईष्र्या की भावना न होकर सद्भावना थी, जिसके तहत ये एक-दूसरे की सहायता करते रहते। उग्र को भी अनेक साहित्यकारों ने सराहा एवं इनकी भूरि-भूरि प्रशंसा की। अपनी आत्मकथा में 'उग्र' लिखते हैं - "पहले सौ में से सौ साहित्यकार ऐसे होते थे जो कहीं जरा भी प्रतिभा जरा भी प्रसाद देखते ही उसका यथोचित आदर करते थे। आज जैसे वह चली ही गई है।" उग्र का साहित्यिक जीवन सन् 1920 से प्रारम्भ होता है। इन्होंने शहीद मैक्स्विनी पर एक लम्बी कविता लिखी, जो कि 'आज' में प्रकाशित हुई। 'आज' में प्रकाशित होने वाली यह पहली कविता थी। इसके कुछ दिन पश्चात ही 'उग्र' की पहली कहानी 'गांधी आश्रम' आज में छपी। 'आज' में कार्यरत बाबूराव विष्णु पराड़कर जी ने उग्र के लेखन कार्य को हर प्रकार से प्रोत्साहित किया। "पराड़कर जी के विषय में भी उग्र कह चुके हैं कि उनकी साहित्य के प्रति रूचि जगाने में पराड़कर जी की अहम भूमिका रही है।" कई वर्षों तक लिखते रहने से इनकी लेखनी में परिपक्वता आ गई थी। 'आज' के द्वारा ही इन्हें बनारस एवं सम्पूर्ण उत्तरप्रदेश में ख्याति प्राप्त हुई।
सन् 1921 से उग्र का साहित्यिक एवं पत्रकारिता का जीवन प्रारम्भ हुआ। इनके जीवन में गांधी जी के व्यक्तित्व का प्रभाव दिखता है। उग्र ने अनेक बार गांधी के भाषणों को सुना और इन से प्रभावित भी हुए। अपनी रचनाओं में देश की विभिन्न समस्याओं के समाधान के लिए गांधीवादी सुझावों का प्रतिपादन किया। इनके लिए सन् 1927 से 29 तक के वर्ष विवादास्पद, कोलाहलकारी रहे। इन्हीं वर्षों में ये 'मतवाला' के साथ जुड़े एवम् कुछ विवादास्पद रचनाओं का निर्माण भी इसी वर्ष हुआ। जैसे 'चाॅकलेट', 'दिल्ली का दलाल', 'बुधुआ की बेटी' आदि। इसमें चाॅकलेट कहानी संग्रह पर जितना बवंडर उठा, शायद इतना किसी और साहित्यिक रचना पर हुआ हो। चाॅकलेट के विरूद्ध 'घासलेट आन्दोलन' चला। महात्मा गांधी ने 'चाॅकलेट' को अनेक बार पढ़ा एवम् सराहा, लेकिन आलोचकों ने इन्हें मानसिक पीड़ा पहुँचाई, जिससे ये विरक्त हो गए। उग्र के शब्दों में - "मैंने सोचा - परे करो इस हिन्दी को। चरने दो उन्हें, चरा रही है मेरी चर्चा, चलो बम्बई चलो।"
जब इनका साहित्य से जी उचाट हो गया, तब ये फिल्मी दुनिया से जुड़ गए और सन् 1930 से 1938 तक फिल्मों में लेखन का कार्य करते रहे। फिल्मी निर्माता, निर्देशक इनके पास आते और इनसे कहानी, संवाद, गीत लिखवा ले जाते। "राम विलास, सजीव मूर्ति, पतित पावन, अहिल्योद्धार, राधामोहन, जन्म के लाल आदि चित्र इन्हीं की लेखनी से उतरे थे।" सिनेमा जगत् में रहते हुए इन्होंने कहानी, संवाद, गीत लेखक की हैसियत से जीवनयापन किया। जीवन के कटु सत्य एवम् सिनेमा जगत् के घृणित कृत्य और खोखलेपन को इन्होंने बड़ी निकटता से देखा। साहित्य के प्रति पुनः इनका रूझान सन् 1938 में जागृत हुआ, जब ये इन्दौर में थे। वहाँ रहकर इन्होंने अपनी रचनाओं द्वारा सामाजिक, धार्मिक, राजनैतिक जीवन की विद्रूपताओं का यथार्थ चित्रण प्रस्तुत किया। जितने साल ये फिल्मी दुनिया में रहे, उतने साल ये साहित्यिक दुनिया से कटे रहे। यह हिन्दी का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा। सन् 1929 से 38 के बीच इनके दो उपन्यास 'शराबी' और 'सरकार तुम्हारी आँखों में' मिले। सन् 1945 में वे पुनः बम्बई चले गए और भारत स्वतन्त्र होने तक वहीं रहे। सन् 1950-53 तक ये कलकत्ता रहे एवम् अनेक घृणित कृत्य देखे। इन्होंने अपने उपन्यासों में कलकत्ता को 'भोग भरी रखेली' भी कहा है। जब इनका मन यहाँ से भी उचाट हो गया, तब ये दिल्ली चले गए और यहाँ आकर 'कढ़ी में कोयला' और 'फागुन के दिन चार' उपन्यास लिखे।
सन् 1953 में जब ये दिल्ली आए थे, तब ये पंजाबी बस्ती सब्जी मण्डी में रहे। उग्र अपनी रचनाओं के स्वयं प्रकाशक भी बने। इन्होंने 'उग्र प्रकाशन' की स्थापना की और इस सम्बन्ध में अपनी कटु अनुमूर्तियों को बताते हुए कहा - "ये पंक्तियाँ लिखते समय मेरी उम्र 54 वर्ष चार महीने और चार दिन है। मैं तो ठीठ या निर्लज्ज या क्रूर या उग्र होने से अभी भी तगड़ा हूँ, नहीं तो मेरे बराबर वाले अनेक मित्र न जाने कभी के निज कर्मानुसार नरक या स्वर्ग की राह लग गए, लेकिन मैं आपसे पूछूँ कि इस अर्थ युग में, ऐसी आर्थिक दुव्र्यवस्था में मेरे जैसे कटु-कषाय उग्र यदि दिनों के लिए, खुदा न करें, बीमार पड़ जाए या कलम घिसकर चना चबेना जुटाने में असमर्थ हो जाए तो क्या होगा ? ...अस्तु अब सिवा इसके कि मैं सारी पुस्तकें स्वयं छाप लूँ और ब्रिक्री का प्रबन्ध करूँ। मेरे लिए दूसरा कोई चारा नहीं।" सन् 1957 से ये यमुना पार कृष्णनगर में रहने लगे। वहाँ इन्होंने 'हिन्दी पंच' पत्र का सम्पादन किया। 23 मार्च 1967 को प्रातः 3 बजे इन्होंने अपने जीवन की अन्तिम साँस ली। उग्र पुरानी पीढ़ी के विशिष्ट लेखक रहे एवम् अपनी कलम के माध्यम से समाज के गले-सड़े रूप को चित्रित किया। ये जीवन भर उपेक्षित रहे। अन्तिम समय में भी इन्हें उपेक्षा ही मिली। डाॅव्म् प्रभाकर माचवे के कथनानुसार - "उनके शव के साथ बीस-पच्चीस साहित्यकार, मुहल्ले के थोड़े से लोग एवं नए-पुराने कुछ ही पत्रकार उपस्थित थे। विश्वविद्यालय, हड़ताली अखबारों आदि से कोई न गया। यह कैसी दिल्ली है ? पैंतीस लाख में दो तिहाई तो हिन्दी भाषी होंगे और शमशान में पच्चीस-तीस लेखक, चार प्रकाशक और उतने ही लोग।"
उग्र ने साहित्य की अनेक विधाएँ - कहानियाँ, उपन्यास, एकांकी नाटक, संस्मरण, लिखकर हिन्दी साहित्य को भी सम्पन्न किया। जिनका संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है -
कहानियाँ
एकांकी - 'राम करै सौ होय'।
कविता - इनकी कविताओं के नाम 'कंचन घट', 'चन्द्रोदय', 'राष्ट्रीय गान', 'चमकीली चर्चाएँ', 'पर घूँघट का टार', 'साघ', 'साहित्य' और 'मृत्यु गीत' है। उपर्युक्त रचनाओं में से अधिकांश अभी तक उपलब्ध नहीं है क्योंकि इनकी अनेक रचनाओं पर ब्रिटिश सरकार ने प्रतिबंध लगा दिया था।
संस्मरण: व्यक्तिगत, यह चरित्र-चित्रणों का एक संग्रह है। इसमें 13 स्कैच संकलित हैं- 1. शिवोह्म-शिवोउहम्, 2. मैं और भगवतीचरण वर्मा, 3. होशियार पागल, 4. आदरणीय श्री कृष्ण दत्त पालीवाल, 5. काटजू और कल्चर,
6. सिंहल विजय, 7. नौ वर्ष बाद मैं संयुक्त प्रदेश में, 8. बम्बई बनाम बनारस, 9. हमारा पीड़ित पत्रकार, 10. देवालय और वेश्यालय, 11. पायल झनक-झनक बाजे, 12. बनारस फिर से बसे तो बेहतर और 13. प्रदर्शनी
आत्मकथा: अपनी खबर, जीवन के कड़वे मीठे अनुभवों को इन्होंने बहुत ही सुन्दर ढंग से प्रस्तुत किया है।
आलोचना - इन्होंने पं. रामनरेश त्रिपाठी रचित 'तुलसीदास और उनकी कविता', 'डाॅ. श्यामसुन्दर दास कृत 'मेरी आत्मकहानी', भारती भंडार द्वारा प्रकाशित 'ईरान के सूफी कवि', 'दिनकर आदि पर निर्भीक व कटु आलोचनाएँ लिखी हैं।
उग्र के उपन्यासों का सर्वेक्षण - सन् 1923 से 1963 तक उग्र ने हिन्दी जगत् को उपन्यास साहित्य प्रदान कर समृद्ध किया। इन्होंने दस उपन्यास 'चन्द हसीनों के खुतूत', 'दिल्ली का दलाल', 'बुधुआ की बेटी', 'शराबी', 'सरकार तुम्हारी आँखों में', 'घण्टा', 'जी जी जी', 'कढ़ी में कोयला', 'फागुन के दिन चार', 'जुहू' लिखे। ग्यारहवां अधूरा उपन्यास 'गंगा माता' है।
'उग्र' के बहन-भाइयों की संख्या एक दर्जन तक पहुँची परन्तु उनमें अधिकतर उत्पन्न होते ही अथवा वर्ष-दो वर्ष के होते-होते ईश्वर के प्यारे हो गए। पहले भाइयों के नाम उमाचरण, देवीचरण, श्रीचरण, श्यामचरण, रामचरण आदि थे। बच्चों की अकाल मृत्यु से भयभीत होने के कारण, 'उग्र' के जन्म पर थाली तक न बजाई गई और जन्मते ही इन्हें बेच दिया गया। स्वयं उपन्यासकार उग्र ने कहा है - "सो, जन्मते ही मुझे यारों ने बेच डाला, और किसी कीमत पर ? महज टके पर एक। उसका भी गुड़ मँगाकर मेरी माँ ने खा लिया था। अपने पहले उस टके में से एक छदाम भी नहीं पड़ा था, जो मेरे जीवन का संपूर्ण दाम था।" उग्र का बेचन नाम जन्मते ही बिकने का सूचक है। यह नाम उत्तर भारत के पूर्वी जिलों में चलने वाला नाम है, अहीरों, कोरियों आदि निम्न वर्गीय जातियों में प्रचलित है। ब्राह्मण वंश मेंजन्म लेने पर भी इनके परिवार वालों ने यह मन्द नाम इन्हें प्रदान किया, जिससे ये अकाल मृत्यु का ग्रास न बनें। "यह नाम तिलस्मी गंडा बना और 67 वर्ष तक ये जीवन संग्राम के योद्धा बने रहे, काल को इनका मन्द नाम पसन्द न आया और ये उसका ग्रास बनने से बचते रहे।"
उग्र के आरम्भिक जीवन, व्यक्तित्व और साहित्य पर उनके बड़े तथा मंझले भाइयों का बहुत कुछ प्रभाव पड़ा। बालक बेचन केवल दो वर्ष छः माह के थे कि उनके पिता जी का देहान्त हो गया। उनके मंझले भाई पितामरण के कुछ ही दिन के अन्दर बड़े भाई तथा भाभी से लड़कर अयोध्या भाग गए और साधु बनकर मण्डलियों में अभिनय करने लगे। बड़े भाई ने अपनी पत्नी और माता के आभूषण जुआ-यज्ञ में स्वाहा कर दिए, घर के बरतन-भांडों तक को बेच डाला। इस सम्बन्ध में वे लिखते हैं - "जब भी मेरे घर में जुआ जमता, भाई की आज्ञा से दरवाजे पर बैठकर मैं गली के दोनों नाके ताड़ता रहता, कि पुलिस वाले तो नहीं आ रहे हैं। जरूर इस ड्यूटी के बदले पैसा-दो-पैसा मुझे भी किसी परिचित जुआरी से मिलता रहा होगा।" उग्र के बड़े भाई घोर पियक्कड़ तथा वेश्यागामी थे। उनका प्रभाव बालक बेचन के संस्कारों पर इतना अधिक पड़ा कि वे अपने जीवन तथा साहित्य में इन बुराइयों को प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से उतारे बिना न रहे। इनका जन्म एक ऐसे परिवार में हुआ, जहाँ निर्धनता ने अपना साम्राज्य स्थापित कर रखा था। आय के साधन अति सीमित थे, उससे पेट भर भोजन भी नहीं मिलता था। बड़ी कठिनाई से यदि प्रातः भोजन मिलता तो रात्रि को व्रत रखना पड़ता। ऐसी स्थिति में उसकी शिक्षा-दीक्षा का सवाल ही नहीं उठता। आँख खोलते ही जीवन-ग्रन्थ का जो पृष्ठ उसे देखने को मिला, वह शिक्षा-दीक्षा को चैपट करने वाला था। उसी से वह नरक की ओर अधिक आकर्षित हुआ और उसकी खोज में दूर, बहुत दूर तक चला गया। उसका साहित्यिक दृष्टिकोण भी घोर यथार्थवादी बना। नरक बुरा होने पर भी उसका प्रिय जीवन-संगी बन गया। "इस प्रकार कथाकार ब्राह्मण-वंश में जन्म लेकर भी ब्राह्मण-ब्राह्मणियों की अपेक्षा शूद्र-शूद्राणियों की ओर अधिक आकृष्ट रहा और शूद्र, खानाबदोश एवं बंजारे अपने अंग से प्रतीत होते रहे।"
जिस समय बालक को वात्सल्य, समुचित शिक्षा और नैतिक वातावरण की आवश्यकता होती है, उस समय 'उग्र' इसमें नितान्त रहित होकर अभावों और विपन्नताओं का जीवन व्यतीत कर रहे थे। "जीवन को स्वर्ग और नरक दोनों ही का सम्मिश्रण कहा जाए तो मैंने नरक के आकर्षक सिरे से जीवन दर्शन आरम्भ किया और बहुत देर, बहुत दूर तक उसी राह चलता रहा। इस बीच में स्वर्ग की केवल सुनता ही रहा मैं।" 'उग्र' के ये शब्द उनके बचपन का यथार्थ चित्रण उपस्थित करते हैं। उनके साहित्य में नाटकीयता का जो अपूर्व सौष्ठव मिलता है, उसका मूलस्त्रोत उनका वह जीवन है, जिसमें वह रामलीला मण्डलियों के साथ वर्षों घूमते रहे और समय-समय पर कई प्रकार का अभिनय भी करते रहे। इनके दो बड़े भाई पहले से ही रामलीला में अभिनय करते थे।
अपने पिता की मृत्यु के पश्चात् 'उग्र' विजयदशमी के अवसर पर होने वाली रामलीला में कोई न कोई भूमिका निभाया करते थे। भाई के कहने पर इन्होंने एक-दो बार सीता का अभिनय किया। जब 'उग्र' के भाई अयोध्या की रामलीला मण्डली में थे, तब उन्होंने इनको बनारस की मण्डली में अपने किसी मित्र के संरक्षण में छोड़ दिया। इस समय इनकी अवस्था आठ या नौ वर्ष की थी। कुछ समय पश्चात् इनके भाई ने इन्हें अयोध्या की मण्डली में बुला लिया। यहाँ इन्हें आठ-दस रूपये मासिक पर लक्ष्मण और जानकी का अभिनय करने का काम दिया गया। रामलीला के विभिन्न पात्रों के संवाद कंठस्थ करने के अतिरिक्त वे एक वैरागी पखावजी से संगीत भी सीखा करते थे। रामलीला के दिनों में ही 'उग्र' का परिचय श्रीरामचरितमानस् से हुआ और इन्हीं दिनों में ही इन्होंने सुलझे हुए साधुओं को निष्ठापूर्वक रामायण का पारायण करते हुए देखा। 'उग्र' का रामायण-अनुराग इतना प्रगाढ़ हुआ कि इस ग्रन्थ के विविध अंश इन्होंने कंठस्थ कर लिए। "रामलीला मण्डलियों से सम्बन्धित जीवन का यदि कोई सुखद प्रभाव 'उग्र' पर पड़ा तो वह यह था कि उनका जीवन दर्शन रामायण में वर्णित आदर्शों से पर्याप्त रूप से प्रभावित हुआ।" वे राम, तुलसी और तुलसी की कृतियों, विशेषकर रामचरितमानस् और विनय पत्रिका के अनन्य प्रशंसक बन गए। इन रचनाओं के अनेक उद्धरण उनकी कृतियों में यत्र-तत्र दृष्टिगोचर होते हैं।
बेचन पाण्डेय को रामलीलाओं की ओर प्रेरित करने वाली घरेलू परिस्थितियाँ ही थी, परन्तु समयानुसार इनकी अपनी चित्तवृत्तियाँ भी इस कार्य में रमने लगीं और ये विभिन्न रामलीला-मण्डलियों में भरत, लक्ष्मण, सीता आदि के अभिनय बड़े मनोयोग से करते रहे। 'उग्र' अपने दूसरे भाई के साथ महन्त राममनोहर दास की रामलीला मण्डली में कार्य करने लगे। इस मण्डली में इन्होंने अलीगढ़, दलीपपुर, फैजाबादा, प्रतापगढ़, मेरठ, दिल्ली, कटनी आदि स्थानों का भ्रमण किया। "विभिन्न स्थानों में लक्ष्मण और सीता की भूमिका करते और सहस्र जनों से अपने पैरों की अर्चना करवाते।" उस समय लोग ऐसी धार्मिक भूमिकाएँ करने वालों को ही भगवान् समझ बैठते थे, लेकिन वे रामलीला मण्डली के सदस्यों से परिचित नहीं थे। परन्तु 24 घण्टे इस मण्डली में रहने वाले 'उग्र' ने जो-जो कुकृत्य देखे, उसका वर्णन अपने अधिकतर उपन्यासों में कर चुके हैं। जब इनकी आयु 11-12 वर्ष के लगभग थी तो ये मण्डली के विलास-जाल के कुप्रभाव में आने लगे। महन्त राम मनोहरदास की राम मण्डली पाप लोलुप कार्यों में लिप्त थी। "महन्त किसी न किसी लड़के पर रीझकर उसी के साथ रात्रि व्यतीत करते।" बेचन शर्मा इन कुकृत्यों से बचे रहे, क्योंकि वे अपने दो हट्टे-कट्टे भाइयों के संरक्षण में थे। 'अपनी खबर' में उग्र ने लिखा है - "लीलाधारी लोग स्वरूपों के साथ अनैतिक कार्य भी अवसर मिलने पर किया करते थे। मण्डली के अन्य लोग जैसे अधिकारी, भण्डारी, श्रृंगारी और लीलाधारी भी इन छोकरों के साथ ऐसा दुव्र्यवहार करते।" उग्र अपने विषय में लिखते हैं - "अपने तेजस्वी भाइयों के कारण ये मेरा कुछ न बिगाड़ सके।" राम मनोहर दास की मण्डली पाप कृत्यों से भरी पड़ी थी। इस राम मण्डली में 'उग्र' का पहला और अंतिम प्रेम पनपा। ये एक सत्रह वर्षीया सुन्दरी अभिरामा श्यामा पर मोहित हो गए। वह विवाहिता थी और रामलीला देखने के लिए प्रायः आती थी। उग्र स्टेज पर अपनी भूमिका निभाते हुए इन्हें निहारा करते थे। इनका प्रेम वासना न होकर केवल भावनात्मक था, लेकिन राममनोहर मण्डली ने इस सुन्दरी के साथ व्यभिचार करके इसे यौन रोग से ग्रसित कर दिया। संयोगवश उन्हीं दिनों उसका पति आ गया और उसे समझते देर न लगी। पति ने उत्तेजित होकर उसका अंग-अंग दाग दिया और वह चिकित्सालय में लाई जाने पर भी बच न सकी, उसने दम तोड़ दिया। इस घटना का आतंक उग्र में मानसपटल पर ऐसा पड़ा कि इनकी प्रत्येक कहानी एवम् उपन्यास में नारी की भूमिका में श्यामा की प्रतिछाया दिखाई पड़ती है। इस दुःखद प्रसंग के बारे में उग्र ने स्वयं लिखा है - "मेरा प्रथम और अन्तिम प्रेम भी वही था।" 12 वर्ष की आयु में घटी इस घटना ने उग्र की विचारधारा को नया मोड़ दिया। रामलीला मण्डली से इनका जी उचाट हो गया और वापिस चुनार आ गए।
चुनार आने के पश्चात् उनके पुत्रहीन चाचा ने उन्हें विधिवत् गोद लिया। 14 वर्ष की आयु में ये चुनार के चर्च स्कूल में तृतीय श्रेणी में पढ़ने लगे। अभी ये छठी कक्षा में पहुँचे ही थे कि इनकी चाची ने एक सुन्दर बालक को जन्म दिया, जिससे इनके चाचा-चाची के प्यार में कटुता आ गई। विधि-विरहित दत्तक पुत्र बनने के कारण उसे पुनः कठोर धरती पर पटक दिया गया। उसके चाचा-चाची परिवार सहित काशी चले गए और उसे पुनः कसाई समान क्रूर बड़े भाई के चरणों में आना पड़ा। शिक्षा, खान-पान आदि की कठिनाइयाँ उसे सताने लगीं और वह विचित्र संकट में फस गया। इन्हें जो उग्रता अपनी माता के संस्कारों के रूप में प्राप्त हुई थी, उसी ने विद्यार्थी जीवन तथा साहित्यिक जीवन में विस्तार पाया। छठी कक्षा में अध्ययन करते समय वह उग्रता प्रथम बार एक भयानक रूप में प्रस्फुटित हुई। "उनके एक अध्यापक थे मौलवी लियाकत अली, जो उर्दू-फारसी आदि पढ़ाया करते थे। मौलवी के विचार हिन्दू-विरोधी थे और अध्यापन के समय वे ऐसी बातें कह जाया करते थे, जिनसे हिन्दू विद्यार्थियों की भावनाओं को ठेस पहुँचती थी।" एक दिन मौलवी ने विद्यार्थियों से कहा - "हिन्दुओं के देवता मेरे पाजामें में बंद रहते हैं।" यह सुनकर अनके हिन्दू-छात्रों में विद्रोह की अग्नि भड़क उठी। सभी ने इन मौलवी को सबक सिखाने की ठानी। लेकिन पहल कौन करे ? उग्र पढ़ने से बचना चाहते थे, इसलिए यह मुसीबत अपने ऊपर ले ली और प्रिसिंपल को तार अपने नाम से भिजवा दिया - "मौलवी लियाकत अली, मिशन टीचर, इन्सल्ट्स अवर रिलीजयस फीलिंग्स, नो सैटिस्फैक्टरी इन्क्वायरी बेचन पाण्डे।" तार पाते ही मुख्याध्यापक तुरन्त स्कूल पहुँचे, लेकिन भय से उस दिन उग्र अनुपस्थित रहे, जिसके कारण इनका नाम स्कूल से काट दिया गया और मौलवी की भी कठोर भत्र्सना की गई। इस प्रकार चुनार के स्कूल से इनकी शिक्षा खत्म हो गई।
पुनः उग्र काशी की शरण में गए। इन्होंने यहीं पढ़़ने की प्रार्थना की। चाचा ने इन पर कृपा करके इन्हें बनारस के विख्यात हिन्दू कालिजिएट स्कूल की छठी कक्षा में प्रवेश दिलवा दिया। प्रधान अध्यापक काली प्रसन्न चक्रवर्ती की इन पर असीम कृपा थी, जिनकी शरण में इन्होंने छठी, सातवं कक्षा उत्र्तीर्ण की, (इन पर) लेकिन इनके चाचा ने इन्हें अपने से अलग कर दिया। तब काली प्रसन्न चक्रवर्ती ने काशी के बाबू शिवप्रसाद जी के नाम एक पत्र लिखकर भेजा, जिसमें उग्र की शिक्षा, खान-पान, रहने की निःशुल्क व्यवस्था हो गई। एक वर्ष तक ये सभी सुविधाओं को प्राप्त करते रहे, लेकिन अपने उग्र स्वभाव को न बदल सके, जिसके कारण दुबारा इनकी शिक्षा रूक गई। ये वार्षिक परीक्षा में फेल हो गए और वापिस चुनार आ गए। इनकी शिक्षा यहीं तक सीमित थी।
उग्र जी के उग्र स्वभाव को सर्वाधिक उत्तेजना उनके बड़े भाई के अनुचित एवं अनैतिक आचरण ने ही दी, वह उस कसाई के समान थे जो कभी सन्तुष्ट नहीं होता। इसी से बेचन को अपना घर संसार का सबसे बड़ा कारावास लगता था। बड़े भैया की अनुपस्थिति में दस रूपए का नोट हाथ लगते ही ये धोती-कमीज पहने एक अंगोछा लिए घर से भागकर कलकत्ता चले गए। कलकत्ता जिन विश्वनाथ त्रिपाठी (पड़ोसी भाई) से मिलना था, वे चुनार के लिए रवाना हो चुके थे। एक सप्ताह के बाद श्री विश्वनाथ कलकत्ता आ गए। उन्हीं की कृपा से इन्हें आरव्म्एलव्म् बर्मन कम्पनी में एक रूपया प्रतिदिन की नौकरी मिली। अभी महीना खत्म भी न हुआ था कि बड़े भाई का चुनार पहुँचने के लिए पत्र आ गया और इन्हें बिना सूचना दिए चुनार जाना पड़ा। जिसके कारण इन्हें पूरे महीने का वेतन भी न मिला। यह इनके जीवन की पहली और अन्तिम नौकरी थी। चुनार आकर इन्होंने साहित्य सृजन को अपना लक्ष्य बनाया। आरव्म्एलव्म् बर्मन कम्पनी में नौकरी करते वक्त इनका राजनीतिज्ञों से भी वास्ता पड़ता था। घुमक्कड़ प्रवृत्ति होने के कारण इन्होंने कटु यथार्थ देखे और अनुभव किए। ये वाराणसी, कलकत्ता, बम्बई, इन्दौर, दिल्ली आदि महानगरों में घूमे। स्वस्थ एवम् अस्वस्थ जीवन को अपनी रचनाओं में प्रतिपादित किया।
"बेचन की पहली रचना 'धु्रवधारणा' नामक खण्डकाव्य थी।" पाण्डुलिपि का संशोधन लाला भगवानदीन ने किया। 'अपनी खबर' आत्मकथा में उग्र लिखते हैं, "मुझमें यदि कुछ प्रतिभा थी तो उसे लालाजी के मात्र आशीर्वाद का पोष प्राप्त हुआ। पढ़ा वह मुझे न पाये।" "दूसरी कृति थी 'महात्मा ईसा' जिसका संशोधन लालाजी ने किया और पुनर्वाचन प्रेमचन्द ने।" इस युग के साहित्यकारों में ईष्र्या की भावना न होकर सद्भावना थी, जिसके तहत ये एक-दूसरे की सहायता करते रहते। उग्र को भी अनेक साहित्यकारों ने सराहा एवं इनकी भूरि-भूरि प्रशंसा की। अपनी आत्मकथा में 'उग्र' लिखते हैं - "पहले सौ में से सौ साहित्यकार ऐसे होते थे जो कहीं जरा भी प्रतिभा जरा भी प्रसाद देखते ही उसका यथोचित आदर करते थे। आज जैसे वह चली ही गई है।" उग्र का साहित्यिक जीवन सन् 1920 से प्रारम्भ होता है। इन्होंने शहीद मैक्स्विनी पर एक लम्बी कविता लिखी, जो कि 'आज' में प्रकाशित हुई। 'आज' में प्रकाशित होने वाली यह पहली कविता थी। इसके कुछ दिन पश्चात ही 'उग्र' की पहली कहानी 'गांधी आश्रम' आज में छपी। 'आज' में कार्यरत बाबूराव विष्णु पराड़कर जी ने उग्र के लेखन कार्य को हर प्रकार से प्रोत्साहित किया। "पराड़कर जी के विषय में भी उग्र कह चुके हैं कि उनकी साहित्य के प्रति रूचि जगाने में पराड़कर जी की अहम भूमिका रही है।" कई वर्षों तक लिखते रहने से इनकी लेखनी में परिपक्वता आ गई थी। 'आज' के द्वारा ही इन्हें बनारस एवं सम्पूर्ण उत्तरप्रदेश में ख्याति प्राप्त हुई।
सन् 1921 से उग्र का साहित्यिक एवं पत्रकारिता का जीवन प्रारम्भ हुआ। इनके जीवन में गांधी जी के व्यक्तित्व का प्रभाव दिखता है। उग्र ने अनेक बार गांधी के भाषणों को सुना और इन से प्रभावित भी हुए। अपनी रचनाओं में देश की विभिन्न समस्याओं के समाधान के लिए गांधीवादी सुझावों का प्रतिपादन किया। इनके लिए सन् 1927 से 29 तक के वर्ष विवादास्पद, कोलाहलकारी रहे। इन्हीं वर्षों में ये 'मतवाला' के साथ जुड़े एवम् कुछ विवादास्पद रचनाओं का निर्माण भी इसी वर्ष हुआ। जैसे 'चाॅकलेट', 'दिल्ली का दलाल', 'बुधुआ की बेटी' आदि। इसमें चाॅकलेट कहानी संग्रह पर जितना बवंडर उठा, शायद इतना किसी और साहित्यिक रचना पर हुआ हो। चाॅकलेट के विरूद्ध 'घासलेट आन्दोलन' चला। महात्मा गांधी ने 'चाॅकलेट' को अनेक बार पढ़ा एवम् सराहा, लेकिन आलोचकों ने इन्हें मानसिक पीड़ा पहुँचाई, जिससे ये विरक्त हो गए। उग्र के शब्दों में - "मैंने सोचा - परे करो इस हिन्दी को। चरने दो उन्हें, चरा रही है मेरी चर्चा, चलो बम्बई चलो।"
जब इनका साहित्य से जी उचाट हो गया, तब ये फिल्मी दुनिया से जुड़ गए और सन् 1930 से 1938 तक फिल्मों में लेखन का कार्य करते रहे। फिल्मी निर्माता, निर्देशक इनके पास आते और इनसे कहानी, संवाद, गीत लिखवा ले जाते। "राम विलास, सजीव मूर्ति, पतित पावन, अहिल्योद्धार, राधामोहन, जन्म के लाल आदि चित्र इन्हीं की लेखनी से उतरे थे।" सिनेमा जगत् में रहते हुए इन्होंने कहानी, संवाद, गीत लेखक की हैसियत से जीवनयापन किया। जीवन के कटु सत्य एवम् सिनेमा जगत् के घृणित कृत्य और खोखलेपन को इन्होंने बड़ी निकटता से देखा। साहित्य के प्रति पुनः इनका रूझान सन् 1938 में जागृत हुआ, जब ये इन्दौर में थे। वहाँ रहकर इन्होंने अपनी रचनाओं द्वारा सामाजिक, धार्मिक, राजनैतिक जीवन की विद्रूपताओं का यथार्थ चित्रण प्रस्तुत किया। जितने साल ये फिल्मी दुनिया में रहे, उतने साल ये साहित्यिक दुनिया से कटे रहे। यह हिन्दी का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा। सन् 1929 से 38 के बीच इनके दो उपन्यास 'शराबी' और 'सरकार तुम्हारी आँखों में' मिले। सन् 1945 में वे पुनः बम्बई चले गए और भारत स्वतन्त्र होने तक वहीं रहे। सन् 1950-53 तक ये कलकत्ता रहे एवम् अनेक घृणित कृत्य देखे। इन्होंने अपने उपन्यासों में कलकत्ता को 'भोग भरी रखेली' भी कहा है। जब इनका मन यहाँ से भी उचाट हो गया, तब ये दिल्ली चले गए और यहाँ आकर 'कढ़ी में कोयला' और 'फागुन के दिन चार' उपन्यास लिखे।
सन् 1953 में जब ये दिल्ली आए थे, तब ये पंजाबी बस्ती सब्जी मण्डी में रहे। उग्र अपनी रचनाओं के स्वयं प्रकाशक भी बने। इन्होंने 'उग्र प्रकाशन' की स्थापना की और इस सम्बन्ध में अपनी कटु अनुमूर्तियों को बताते हुए कहा - "ये पंक्तियाँ लिखते समय मेरी उम्र 54 वर्ष चार महीने और चार दिन है। मैं तो ठीठ या निर्लज्ज या क्रूर या उग्र होने से अभी भी तगड़ा हूँ, नहीं तो मेरे बराबर वाले अनेक मित्र न जाने कभी के निज कर्मानुसार नरक या स्वर्ग की राह लग गए, लेकिन मैं आपसे पूछूँ कि इस अर्थ युग में, ऐसी आर्थिक दुव्र्यवस्था में मेरे जैसे कटु-कषाय उग्र यदि दिनों के लिए, खुदा न करें, बीमार पड़ जाए या कलम घिसकर चना चबेना जुटाने में असमर्थ हो जाए तो क्या होगा ? ...अस्तु अब सिवा इसके कि मैं सारी पुस्तकें स्वयं छाप लूँ और ब्रिक्री का प्रबन्ध करूँ। मेरे लिए दूसरा कोई चारा नहीं।" सन् 1957 से ये यमुना पार कृष्णनगर में रहने लगे। वहाँ इन्होंने 'हिन्दी पंच' पत्र का सम्पादन किया। 23 मार्च 1967 को प्रातः 3 बजे इन्होंने अपने जीवन की अन्तिम साँस ली। उग्र पुरानी पीढ़ी के विशिष्ट लेखक रहे एवम् अपनी कलम के माध्यम से समाज के गले-सड़े रूप को चित्रित किया। ये जीवन भर उपेक्षित रहे। अन्तिम समय में भी इन्हें उपेक्षा ही मिली। डाॅव्म् प्रभाकर माचवे के कथनानुसार - "उनके शव के साथ बीस-पच्चीस साहित्यकार, मुहल्ले के थोड़े से लोग एवं नए-पुराने कुछ ही पत्रकार उपस्थित थे। विश्वविद्यालय, हड़ताली अखबारों आदि से कोई न गया। यह कैसी दिल्ली है ? पैंतीस लाख में दो तिहाई तो हिन्दी भाषी होंगे और शमशान में पच्चीस-तीस लेखक, चार प्रकाशक और उतने ही लोग।"
उग्र ने साहित्य की अनेक विधाएँ - कहानियाँ, उपन्यास, एकांकी नाटक, संस्मरण, लिखकर हिन्दी साहित्य को भी सम्पन्न किया। जिनका संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है -
कहानियाँ
- पोली इमारत - इसमें 'चूनरी के साथ', 'चैड़ा छुरा', 'उरूज', 'आजादी के आठ दिन पहले', 'मूर्खा', 'वीभत्स', 'जल्लाद', 'बदमाश', 'आँखों में आँसू', 'जुआरी', 'बाजरा', 'दूध के कार्ड', 'नौ हजार नौ सौ निन्यानवे', 'समाज के चरण', 'ब्राह्मण के चरण', 'ब्राह्मण द्रोही', 'घोड़े की जीवनी', 'पोली इमारत' बीस कहानियों को संग्रहीत किया गया है।
- चित्र-विचित्र - इसमें 'पिशाची', 'ब्लैक एण्ड व्हाइट', 'जब सारा आलम रोता है', 'मूसल ब्रह्म', 'गंगा गंगदत्त और गांगी', 'सोसायटी ऑफ डेविल्स', 'काने का ब्याह', 'मूर्खों का मीना बाजार', 'सनकी अमीर', 'प्राइवेट इंटरव्यू', 'न्यूल रील', 'कम्युनिस्ट दरवाजे पर', 'चित्र-विचित्र' नामक 13 कहानियाँ हैं।
- यह कंचन सी काया - इसमें 12 कहानियाँ हैं - 'कला का पुरस्कार', 'चाँदनी', 'मलंग', 'दितवारिया', 'प्रस्ताव स्वीकार', 'करूण कहानी', 'हत्यारा समाज', 'स्वदेश के लिए', 'संगीत समाधि', 'सुधारक' और 'कंचन सी काया।'
- कालकोठरी - इसमें चौदह कहानियां है - 'पंजाब की महारानी', 'देशद्रोह', 'रेन आफ टेरर', 'एक भीषण स्मृति', 'सिख सरदार', 'प्यारी पताका', 'पागल', 'कर्तव्य' और 'प्रेम', 'वीर कन्या', 'पत्रिका पताका', 'नादिरशाही', 'निहिलिस्ट', 'भीष्म संतोष' और 'काल कोठरी।
- ऐसी होली खेलो लाल - इसमें चैदह कहानियाँ है - 'उसकी माँ', 'टाम डिक, हैरी एण्ड कम्पनी लिमिटेड', 'मेरी माँ', 'दिल्ली की बात', 'दोजख नरक', 'ईश्वर द्रोही', 'खुदा के सामने', 'शाप', 'खुदाराम', 'नागा परसिंहदास', 'वह दिन', 'माँ कैसे मरी', 'जैतू में' और 'ऐसी होली खेलो लाल' आदि।
- मुक्ता - इस संग्रह में 'प्रार्थना', 'रिसर्च', 'भ्रम', 'मुक्ता', 'टीला और गड्ढा', 'दोजख की आग', 'नेता का स्थान', 'देशभक्त', 'रेशमी', 'लाइन पर', 'फुलझड़ी', 'आचार्य लाल बुझक्कड़', 'प्यारी तलवार', 'तीन कलाकारों की एक भूल', 'तब महाराजकुमारी को नींद आई', 'घूंघट के पट खोल री', 'अवतार' और 'महाराजाधिराज' आदि 18 कहानी हैं।
- चॉकलेट - 'हे सुकुमार', 'व्यभिचारी प्यार', 'जेल में', 'पालट', 'हम फिदाये लखनऊ', 'कमरिया नागिन सी बल खाये' और 'चॉकलेट चर्चा' आदि 8 कहानी है।
एकांकी - 'राम करै सौ होय'।
कविता - इनकी कविताओं के नाम 'कंचन घट', 'चन्द्रोदय', 'राष्ट्रीय गान', 'चमकीली चर्चाएँ', 'पर घूँघट का टार', 'साघ', 'साहित्य' और 'मृत्यु गीत' है। उपर्युक्त रचनाओं में से अधिकांश अभी तक उपलब्ध नहीं है क्योंकि इनकी अनेक रचनाओं पर ब्रिटिश सरकार ने प्रतिबंध लगा दिया था।
संस्मरण: व्यक्तिगत, यह चरित्र-चित्रणों का एक संग्रह है। इसमें 13 स्कैच संकलित हैं- 1. शिवोह्म-शिवोउहम्, 2. मैं और भगवतीचरण वर्मा, 3. होशियार पागल, 4. आदरणीय श्री कृष्ण दत्त पालीवाल, 5. काटजू और कल्चर,
6. सिंहल विजय, 7. नौ वर्ष बाद मैं संयुक्त प्रदेश में, 8. बम्बई बनाम बनारस, 9. हमारा पीड़ित पत्रकार, 10. देवालय और वेश्यालय, 11. पायल झनक-झनक बाजे, 12. बनारस फिर से बसे तो बेहतर और 13. प्रदर्शनी
आत्मकथा: अपनी खबर, जीवन के कड़वे मीठे अनुभवों को इन्होंने बहुत ही सुन्दर ढंग से प्रस्तुत किया है।
आलोचना - इन्होंने पं. रामनरेश त्रिपाठी रचित 'तुलसीदास और उनकी कविता', 'डाॅ. श्यामसुन्दर दास कृत 'मेरी आत्मकहानी', भारती भंडार द्वारा प्रकाशित 'ईरान के सूफी कवि', 'दिनकर आदि पर निर्भीक व कटु आलोचनाएँ लिखी हैं।
उग्र के उपन्यासों का सर्वेक्षण - सन् 1923 से 1963 तक उग्र ने हिन्दी जगत् को उपन्यास साहित्य प्रदान कर समृद्ध किया। इन्होंने दस उपन्यास 'चन्द हसीनों के खुतूत', 'दिल्ली का दलाल', 'बुधुआ की बेटी', 'शराबी', 'सरकार तुम्हारी आँखों में', 'घण्टा', 'जी जी जी', 'कढ़ी में कोयला', 'फागुन के दिन चार', 'जुहू' लिखे। ग्यारहवां अधूरा उपन्यास 'गंगा माता' है।
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