एक सच्चे गुरू के बिना परमात्मा की प्राप्ति संभव नहीं, एक सच्चे मार्गदर्शक के बिना जीवन की सही राह खोजना संभव नहीं। इन दोनों ही उलझनों से बिस्मिल जी को निकालने वाले थे उनके गुरू तथा मार्गदर्षक स्वामी सोमदेव जी महाराज। बिस्मिल जी ने भी अपने गुरू के उपदेशों तथा नियमों का सदैव दृढ़तापूर्वक पालन किया।
अपने गुरू के बताए गए नियमों में एक था ब्रह्मचर्य व्रत का पालन। बिस्मिल जी को ब्रह्मचर्य का ज्ञान तो मंदिर के पुजारी जी ने ही दे दिया था परंतु आर्य-समाज तथा स्वामी सोमदेव के संपर्क में आने पर बिस्मिल जी ने अखण्ड ब्रह्मचर्य की महिमा को समझा। बिस्मिल जी ने जब 'सत्यार्थ प्रकाश' का अध्ययन किया तब उन्होंने ब्रह्मचर्य के कठिन नियमों का पालन करना प्रारम्भ दिया था। बिस्मिल जी देश की तत्कालीन परिस्थितियों से दुःखी थे। देश की जनता विशेषकरयुवा वर्ग पश्चात जीवन शैली के प्रभाव के चलते अनियमित तथा अनैतिक जीवन जीने लगा था जिसमें मूल्यों तथा सच्चरित्रता का स्थान नगण्य रह गया था। बिस्मिल जी का मानना था कि ब्रह्मचर्य तथा अनुशासित जीवन देश के युवा वर्ग के लिए अतिआवश्यक है। इसलिए बिस्मिल जी देश की परिस्थितियाँ सुधारने के लिए देशवासियों को सर्वप्रथम स्वयं का जीवन सुधारने की बात कहते थे।
बिस्मिल जी देश की जनता तथा युवा वर्ग को विशेषता: स्वस्थ्य तथा नैतिक जीवन जीने की सलाह देते हुए लिखते हैं कि ''वर्तमान समय में इस देश की कुछ ऐसी दुर्दशा हो रही है कि जितने धनी तथा गणमान्य व्यक्ति हैं उनमें 99 प्रतिशत ऐसे हैं जो अपनी सन्तान-रूपी अमूल्य धन-राशि को अपने नौकर तथा नौकरानियों के हाथ में सौंप देते हैं। उनकी जैसी इच्छा हो, वे उन्हें बनावें। मध्यम श्रेणी के व्यक्ति भी अपने व्यवसाय तथा नौकरी इत्यादि में फंसे होने के कारण सन्तान की ओर अधिक ध्यान नहीं दे सकते। सस्ता कामचलाऊ नौकर या नौकरानी रखते हैं और उन्हीं पर बाल-बच्चों का भार सौंप देते हैं, ये नौकर बच्चों को नष्ट करते हैं। यदि कुछ भगवान की दया हो गई और बच्चे नौकर-नौकरानियों के हाथ से बच गए तो मोहल्ले की गन्दगी से बचना बड़ा कठिन है। रहे-सहे स्कूल में पहुँचकर पारंगत हो जाते हैं। कॉलिज पहुँचते-पहुँचते आजकल के नवयुवकों के सोलहों संस्कार हो जाते हैं। कॉलिज में पहुँचकर ये लोग समाचार-पत्रों में दिए औषधियों के विज्ञापन देख-देखकर दवाइयों को मँगा-मँगाकर धन नष्ट करना आरम्भ करते हैं। 95 प्रतिशत की आँखें खराब हो जाती हैं। कुछ को शारीरिक दुर्बलता तथा कुछ को फैशन के विचार से ऐनक लगाने की बुरी आदत पड़ जाती है शायद ही कोई विद्यार्थी ऐसा हो जिसकी प्रेम कथा-कथाएं प्रचलित न हो। ऐसी अजीब-अजीब बातें सुनने में आती हैं कि जिनका उल्लेख करने से भी ग्लानि होती हैं। यदि कोई विद्यार्थी सच्चरित्र बनने का प्रयास भी करता है और स्कूल या कालिज में उसे कुछ अच्छी शिक्षा भी मिल जाती है, तो परिस्थितियाँ जिनमें उसे निर्वाह करना पड़ता है, उसे सुधरने नहीं देतीं। वे विचारते हैं कि थोड़ा सा आनन्द ले लें, यदि कुछ खराबी पैदा हो गई तो दवाई खाकर या पौष्टिक पदार्थों का सेवन करके दूर कर लेंगे। यह उनकी बड़ी भारी भूल है। दवाईयाँ कोई लाभ नहीं पहुँचाती। अण्डों का जूस, मछली के तेल, मांस आदि पदार्थ भी व्यर्थ सिद्ध होते हैं। सबसे आवश्यक बात चरित्र सुधारना ही होती है। विद्यार्थियों तथा उनके अध्यापकों को उचित है कि वे देश की दुर्दशा पर दया करें और अपने चरित्र को सुधारने का प्रयत्न करें। सार में ब्रह्मचर्य ही संसारी शक्तियों का मूल है। बिन ब्रह्मचर्य-व्रत पालन किए मनुष्य जीवन, नितांत शुष्क तथा नीरस प्रतीत होता है। संसार में जितने बड़े आदमी हैं, उनमें से अधिकतर ब्रह्मचर्य व्रत के प्रताप से बड़े बने और सैकड़ों-हजारों वर्ष बाद भी उनका यषगान करके मनुष्य अपने आपको कृतार्थ करते हैं। ब्रह्मचर्य की महिमा यदि जानना हो तो परषुराम, राम, लक्ष्मण, कृष्ण, भीष्म, ईसा, मेजिनीबंदा, रामकृष्ण, दयानन्द तथा राममूर्ति की जीवनियों का अध्ययन करो। जिन विद्यार्थियों को बाल्यावस्था में कुटेव की बान पड़ जाती है, या जो बुरी संगत में पड़कर अपना आचरण बिगाड़ लेते हैं और फिर अच्छी शिक्षा पाने पर आचरण सुधारने का प्रयत्न करते हैं, परन्तु सफल मनोरथा नहीं होते, उन्हें भी निराश नहीं होना चाहिए। मनुष्य-जीवन अभ्यासों का एक समूह है। मनुष्य के मन में भिन्न-भिन्न प्रकार के अनेक विचार तथा भाव उत्पन्न होते रहते हैं। क्रिया के बार-बार होने से उसमें एच्छिक भाव निकल जाता है और उसमें तात्कालिक प्रेरणा उत्पन्न हो जाती है। इन तात्कालिक प्रेरक क्रियाओं को, जो पुनरावृत्ति का फल है, 'अभ्यास' कहते हैं। मानवी चरित्र इन्हीं अभ्यासों द्वारा बनता है। अभ्यास से तात्पर्य आदत, स्वभाव, वान है। अभ्यास अच्छे और बुरे दोनों प्रकार के होते हैं। यदि हमारे मन में निरंतर अच्छे विचार उत्पन्न हों, तो उनका फल अच्छे अभ्यास होंगे और यदि बुरे विचार में लिप्त रहेंगे, तो निश्चय रूपेण अभ्यास बुरे होंगे। मन इच्छाओं का केन्द्र है। उन्हीं की पूर्ति के लिए मनुष्य को प्रयत्न करना पड़ता है।
अभ्यासों के बनने में पैतृक संस्कार अर्थात् माता-पिता के अभ्यासों के अनुकरण ही बच्चों के अभ्यास का सहायक होता है। दूसरे, जैसी परिस्थितियों में निवास होता है, वैसे ही अभ्यास भी पड़ते हैं। तीसरे, प्रयत्न से भी अभ्यासों का निर्माण होता है, यह शक्ति इतनी प्रबल हो सकती है कि इसके द्वारा मनुष्य पैतृक संसार तथा परिस्थितियों को भी जीत सकता है। हमारे जीवन का प्रत्येक कार्य अभ्यासों के अधीन है। यदि अभ्यासों द्वारा हमें कार्य में सुगमता न प्रतीत होती, तो हमारा जीवन बड़ा दुःखमय प्रतीत होता। लिखने का अभ्यास, वस्त्र पहनना, पठन-पाठन इत्यादि इनके प्रत्यक्ष उदाहरण हैं। यदि हमें प्रारंभिक समय की भाँति सदैव सावधानी से काम लेना हो, तो कितनी कठिनता प्रतीत हो। इसी प्रकार बालक का खड़ा होना और चलना भी है कि उस समय वह कितना कष्ट अनुभव करता है, किन्तु एक मनुष्य मीलों तक चला जाता है। बहुत लोग तो चलते-चलते नींद भी ले लेते हैं। जैसे जेल में बाहरी दीवार पर घड़ी में चाबी लगाने वाले, जिन्हें बराबर छः घंटे चलना होता है, वे बहुधा चलते-चलते सो लिया करते हैं।
मानसिक भावों को शुद्ध रखते हुए अन्तःकरण को उच्च विचारों में बल पूर्वक संलग्न करने का अभ्यास करने से अवश्य सफलता मिलेगी। प्रत्येक विद्यार्थी या नवयुवक को, जो कि ब्रह्मचर्य के पालन की इच्छा रखता है, उचित है कि अपनी दिनचर्या निश्चित करे। खान-पानादि का विशेष ध्यान रखे। महात्माओं के जीवन-चरित्र तथा चरित्र-संगठन सम्बन्धी पुस्तकों का अवलोकन करे। प्रेमालाप तथा उपन्यासों से समय नष्ट न करे। खाली समय अकेला न बैठे। जिस समय कोई बुरे विचार उत्पन्न हों, तुरन्त शीतल जल-पान कर घूमने लगे या किसी अपने से बड़े के पास जाकर बातचीत करने लगे। अश्लील ग
जलों, शेरों तथा गानों को न पढ़ें और न सुनें। स्त्रियों के दर्शन से बचता रहे। माता तथा बहन से भी एकान्त में न मिलें। सुन्दर सहपाठियों या अन्य विद्यार्थियों से स्पर्श तथा आलिंगन की भी आदत न डालें।"
बिस्मिल जी का जीवन उतार-चढ़ाव तथा संघर्षों भरा रहा। जहाँ कुछ अपनों का प्यार तथा समर्पण उन्हें मिला तो वहीं अपने कुछ मित्रों तथा सहयोगियों की उपेक्षा तथा विश्वासघात भी प्राप्त हुआ। देश की तात्कालिक दुर्दशा ने भी बिस्मिल जी के मन को उद्वेलित कर दिया था। मन की इन्हीं सब व्यथाओं को बिस्मिल जी ने अपनी कविताओं में शब्दों के माध्यम से व्यक्त किया। "बिस्मिल जी ने कविता की धारा में स्वयं को साधक पाया। 'मन की लहर' के आत्म-निवेदन में कहा है कि मेरा कई बार का अनुभव है, जब कभी मैं संसार की यातनाओं प्रेमवासियों तथा विश्वासघातियों की चालों से दुखित हुआ हूँ और बहुत ही निकट (संभव) था कि सर्वनाष कर लेता, किन्तु प्राण प्यारी रचनाओं ने ही मुझे धैर्य बंधाकर संसार यात्रा की कठिन राह चलने के लिए उत्साहित किया।" पं. रामप्रसाद बिस्मिल अद्वितीय कवि थे। वे 'बिस्मिल' उपनाम से कविता लिखा करते थे। "देश और समाज की दशा को देखकर ही शायद उन्होंने अपने नाम के सामने 'बिस्मिल' शब्द का प्रयोग किया। वे बहुत अच्छे शायर थे। 'बिस्मिल' का शाब्दिक अर्थ है 'घायल'। बिस्मिल देश की दुर्दशा, आपसी फूट, भारत-वासियों के गिरे हुए मनोबल को देखकर बिस्मिल (घायल) थे।" अपने दुखों को किसी से न कहने वाले बिस्मिल जी ने उन्हें कविताओं का स्वरूप दिया। बिस्मिल जी ने "लिखा है कि मैं कोई कवि नहीं और न कविताओं के कार्य को ही जानता हूँ- जिस युवा कवि के दिल में देश की आजादी के सपने थे, जिसने आजादी के लिए हाथों में रिवाल्वर के सिवाय कुछ नहीं पकड़ा हो उसी सपूत ने हल की मुठियाँ के साथ-साथ कलम के जादुई चमत्कार से अंग्रेजों के छक्के छुड़ा दिए। 'मन की लहर' रचना संग्रह में कवि श्री रामप्रसाद बिस्मिल जी ने 'आह्वान', 'आर्य क्यों दुःखी हैं,' 'युवा-सन्यास', 'धर्महित मरना', 'हकीकत के वचन', 'मेरी भावना', बलिदेवी का संदेश आदि रचनाओं में जहाँ देश भक्ति का संदेश दिया है, वहीं कवि बिस्मिल जी ने समाज की रूढ़िवादी परम्पराओं के विरूद्ध संघर्ष की चेतावनी दी है।" बिस्मिल जी ने अपनी कविताओं के माध्यम से राष्ट्रीय एकता तथा देशभक्ति का संदेश दिया। जैसा कि बिस्मिल जी ने इन पंक्तियों में लिखा था कि-
''मुरझा तन था निश्छल मन था, जीवन ही केवल वन था।
मुसलमान हिन्दू मन छोड़ा, बस निर्मल अपना-पन था।
मंदिर में था चाँद चमकता, मस्जिद में मुरली की तान,
मक्का हो चाहे वृदांवन, होते आपस में कुर्बान।।"
बिस्मिल जी ने 'मेरा जन्म', जीवित जोश, 'स्वाधीन कैदी', 'मेरी प्रतिज्ञा', 'मातृभूमि', 'मातृवन्दना', 'वियोग' इत्यादि रचनाओं में राष्ट्र प्रेम, जेल में बिताये यातना पूर्ण दिन तथा मातृभूमि के लिए शहीद की भावना व युवाओं के लिए संदेश है। जैसा कि उन्होंने लिखा है-
''तेरे ही काम आऊँ तेरा ही मंत्र गाऊं।
मन और देह तुझ पर बलिदान चढ़ाऊँ।।"
''बिस्मिल जी ने प्रकृति के प्राकृतिक सौन्दर्य ''फूल" कविता के माध्यम से अभिव्यक्त किया है। 'कफन', 'स्वतंत्र गाना', 'आहे-सर्द', मातम, 'कैदी बुल-बुल की फरियाद' आदि रचनाओं से क्रांति का शंख नाद परिलक्षित किया है। बिस्मिल जी ने देश की यातनापूर्ण जीवन को सरलतम शब्दों में व्यक्त किया है। ईश्वर विनय में बिस्मिल जी ने लिखा है-
बरसें हजारों बीती, दुःख सहते-सहते हमको,
क्या भाग्य में हमारे, बिल्कुल दया नहीं है।
हम गिर गये है इतने, हस्ती मिटी हमारी,
क्यों हाथ वह दया का, अब तक उठा नहीं है।
बिस्मिल जी ने संपूर्ण देश की स्थिति की प्रार्थना ईश्वर से की, उन्होंने ईष्वरवादी क्रांतिकारी पुरूष के रूप में लिखा है- ''क्या भाग्य में हमारे, ही एक बदी गुलामी, सदियों से जन्मभूमि, जो दुःख उठा रही है। उन्होंने 'भारत' मेरा कौल (प्रतिज्ञा) में लिखा है-
गुनहगारों में शामिल है, गुनाहों से नहीं वाकिफ,
सजा को जानते हैं हम,
खुदा जाने खता क्या है।
''न" बिस्मिल हूँ मैं वाकिफ नहीं, रस्में शहादत से,
तादें अब तू ही जालिम, तड़पने की अदा क्या है।
उम्मीद मिल गई मिट्टी में
दर्द जब्त आखिर है
सदाऐं गैब (आकाशवाणी) बतलाऐं
मुझे हुक मैं, खुदा क्या है।
अमर शहीद रामप्रसाद बिस्मिल जी ने आप बीती; 'आहे-सर्द', 'बलिदान' शीर्षक रचनाओं में इधर हमारे उधर, 'हिन्दोस्तां हमारा', विश्वास के अन्त, 'मादरे हिन्द की आवाज' आदि रचनाओं में अत्याचार, उपद्रवी, राज्य सत्ता, ईष्र्या पर तीखी कलम लिखी है। अंग्रेजी हुक़ूमत को कोसा ही नहीं है बल्कि उनकी कलम ने लिखा है-
उन्हें मैंने दूध पिला दिया,
बसे आस्तीन के सांप वो,
कोई मेरे बच्चे को डस गया,
कोई मुझ पे जहर उगल गया।
उनकी कलम फिर गजल की तरफ बड़ी और उसमें उन्होंने दुखानंद, सच्ची प्रतिज्ञा, मौजूदा हालात, विश्वासघात, देश प्रेम, दर्दे दिल, नार ए गम, हिन्दोस्तां हमारा आदि गजलें लिखीं जो उस जमाने में प्रत्येक क्रांतिकारी की जुवां पर गुनगुनाती थी। जिसमें बिस्मिल जी ने समाज व देश की स्थिति का चिंतन पूरी निष्ठा व ईमानदारी से किया है-
'जो हवाऐं दहर बदल गईं तो,
जहां का रंग बदल गया'
जा दरख्वत फूल के फल गया"
झूठ जो चीज है उससे मोहब्बत कैसी,
खाक हो गये दम भर में वह सूरत कैसी,
न था मालूम वह जालिम, हमें इतना सतायेगा
फंसा कर दामें उल्फत में, हमें बन्दी बनायेगा।
छुड़ा करके वतन हमसे, बनायेगा हमें कैदी,
दिखाकर आवोदाने को, कफरा में हमको फंसायेगा,
बनाने को हमें कैदी, बनेगा बाग का माली,
छिपाकर शक्ल असली को, शक्ल दीगर दिखायेगा।
मझकर नातुर्बा हमको, करेगा इतनी जल्लादी।
जलाकर बालों पर सारे, हमें बिस्मिल बनायेगा।"
इस प्रकार बिस्मिल जी ने साहित्य जगत में अपने लेख व कविताओं के माध्यम से सोये हुए भारतीयों के आत्मसम्मान तथा पराधीनता के विरूद्ध जागरूकता की अलख जगाने का कार्य किया। साहित्य ही समाज का आईना होता है। बिस्मिल जी भारत के वासी तथा कवि व लेखक होने के अपने दोनों कर्तव्यों का निर्वाह किया। यही तत्कालीन समय की आवश्यकता थी। एक कवि व लेखक का अपने राष्ट्र तथा राष्ट्र वासियों के प्रति कुछ कर्तव्य होता है। बिस्मिल जी ने यह कर्तव्य भी निभाया तथा भारत माता के चरणों में प्राण त्याग कर भारत के सपूत होने का कर्तव्य पूर्ण किया। बिस्मिल जी 30 वर्ष जीवित रहे, छोटे से जीवन काल में इतना साहित्य व काव्य समाज को देना बड़ा मुश्किल कार्य है। अन्त में (बिस्मिल जी) आपका जन्म ज्येष्ठ शुक्ल निर्जला एकादशी और महाप्रयाण भी पौष कृष्ण एकादशी सोमवार को हुआ है। अतः आपका जन्म-मरण दोनों ही एकादशी की पवित्र तिथि को हुए हैं, जो बड़े-बड़े सन्त महात्माओं के लिए भी दुर्लभ हैं।
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