श्रीलाल शुक्ल हिन्दी व्यंग्य तथा कथा साहित्य के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर है। "उनका जन्म लखनऊ के मोहनलाल कस्ब के निकटवर्ती ग्राम अतरौली में 31 दिसम्बर, 1925 को एक सुसंस्कृत और विपन्न कृषक परिवार में हुआ। पितामह पं. गदाधर प्रसाद शुकुल, हिन्दी, उर्दू एवं संस्कृत का व्यवहारिक ज्ञान रखते थे तथा कसरत और संगीत का उन्हें शौक था। "उन्होंने अपने पुत्र को श्लोंकों तथा हिन्दी कविताओं का बचपन में ही मुक्तदान दिया। इसी के फलस्वरूप हाई स्कूल तक आते-आते जब श्रीलाल शुक्ल ने संस्कृत बोलने का अभ्यास प्रारम्भ किया तो व्याकरण में भले ही कमजोरी अनुभव हुई हो अभिव्यक्ति की कमजोरी अनुभव न हुई।" शुक्ल जी का बचपन गरीबों की गलियों में बीता। वहाँ के बच्चों के साथ खेलकर, गाँव के आस-पास की खेतों और जंगलों में घूमकर उन्होंने अपना बचपन व्यतीत किया था। गाँव में अलग-अलग जाति के लोग रहते थे। उन सब के अपने-अपने आचार-विचार भी थे। शुक्ल जी के पिता एक किसान थे। गरीब परिवार के बावजूद उनके परिवार में पठन-पाठन की परम्परा बनी रही। जीवन के उत्तरार्द्ध में अपने बड़े पुत्र पर निर्भर रहते हुए सन् 1945 में इनके पिता की मृत्यु हो गई। माँ साधनहीन होते हुए भी उदारमना तथा उत्साही प्रवृत्ति की थी। सन् 1960 में अपने कनिष्ठ पुत्र भवानी शंकर शुक्ल के पास अल्मोड़ा में उनका निधन हुआ।
दो भाईयों तथा दो बहनों के बीच श्रीलाल शुक्ल का बाल्यकाल बीता। परिवार का बोझ सिर पर आ जाने के कारण उनके अग्रज पं. शीतलासहाय शुकुल को हाई स्कूल उत्तीर्ण होते हुए कानपुर जाकर नौकरी करनी पड़ी। श्रीलाल शुक्ल की प्रारम्भिक शिक्षा पास के मोहनलालगंज में हुई। परिश्रमी, कुशाग्र बुद्धि तथा साहित्यिक रूचि सम्पन्न उनके एक चचेरे चाचा पं. चन्द्रमौलि शुकुल संस्कृत, हिन्दी, उर्दू, फारसी तथा अंग्रेजी के प्रकाण्ड विद्वान थे। उन्होंने हिन्दी में विविध विषयक अनेक पुस्तकें लिखी। जब वह ग्रीष्मावकाश में गाँव आते, तो उनके पास उच्च कोटि की पुस्तकों को भण्डार होता था। साहित्य-जगत् से श्रीलाल शुक्ल का परिचय इन्हीं पुस्तकों के माध्यम से हुआ। उन्हीं के शब्दों में "पर उनकी (चाचा की) सम्पन्नता में मेरे मतलब की चीज़ सिर्फ उनकी किताबें और पत्रिकाएँ थीं। वह हमारे लिए 'चाँद', 'माधुरी', 'सुधा', 'सरस्वती', 'गंगा', 'हंस', 'सुकवि', 'काव्य', 'कलाधर' आदि पढ़ने का मौका था। मैंने प्रेमचन्द और प्रसाद की कई पुस्तकं,े जो उन्हें सादर भेंट की गई थीं, आठवीं पास करने के पहले ही पढ़ी थीं, उन साहित्यिकों के हस्ताक्षरों को बार-बार गौर से देखा था। नागरी-प्रचारिणी सभा और गंगा-पुस्तक माला आदि के नवीनतम प्रकाशन मैंने 1939-40 तक पढ़ लिये। उनमें वृन्दावन लाल वर्मा और निराला की कृतियाँ भी थी।"
श्रीलाल शुक्ल में सृजनात्मकता के बीज बचपन से ही थे, जिन्हें गाँव के साहित्यिक माहौल में पनपने का अवसर मिला। शिक्षा और साहित्य के प्रति उनमें अदम्य आग्रह रहा है। 12-13 वर्ष की अवस्था में उन्होंने धनाक्षरी-सवैये लिखना प्रारम्भ कर दिए। वह कवि-सम्मेलनों में भी जाने लगे। कुछ कहानियाँ, अलोचनात्मक निबन्ध, उपन्यास भी लिखे। उन्होंने मिडिल मोहनलालगंज से, हाई स्कूल कान्यकुब्ज वोकेशनल काॅलिज, लखनऊ से इन्टरमीडिएट कान्यकुब्ज काॅलिज कानपुर से किया।
1945 में इन्टरमीडिएट परीक्षा उत्तीर्ण कर उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय में बी.एड. में प्रवेश लिया। अब तक पद्य के प्रति उनका आकर्षण समाप्त हो गया था। उन्होंने कहानियाँ लिखना प्रारम्भ किया। इलाहाबाद में वह केशवचन्द्र वर्मा, धर्मवीर भारती, विजयदेव नारायण साही, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना, गिरीधर गोपाल, जगदीश गुप्त जैसे उभरते साहित्यकारों के सम्पर्क में आये। विपन्नता के कारण एम.ए. और कानून की पढ़ाई छोड़नी पड़ी। कुछ समय तक उन्होंने कान्यकुब्ज वोकेशनल इंटर काॅलिल, लखनऊ में अध्यापन कार्य किया।
इसी बीच उनका विवाह कानपुर के एक सुसंस्कृत परिवार में हो गया। उनका पारिवारिक जीवन सुखी रहा। उनकी तीन पुत्रियाँ (रेखा, मधुलिका, विनीता) तथा एक पुत्र आशुतोष है। सभी सुखी जीवन व्यतीत कर रहे हैं। अपनी पत्नी की देखभाल में उन्होंने कोई कमी नहीं की। रवीन्द्र कालिया के शब्दों में "श्रीलाल जी एक शिशु की तरह गिरिजा की देखभाल करते।" अपने परिवार के प्रति अपनी आस्था उन्होंने कभी छिपायी नहीं। रचना के तीव्र क्षणों में अपने मकान को वह परिवारवालों के लिए छोड़कर अकेले रह लिया करते थे। पत्नी के बीमार हो जाने के बाद वे उदास हो गये। रवीन्द्र कालिया ने इसके बारे में लिखा है "श्रीलाल जी के साथ बितायी एक दोपहर तो भुलाए नहीं भूलती। गिरिजा जी एकदम असहाय, असमर्थ और चेतनाशून्य हो चुकी थी। श्रीलाल जी पूर्ण समर्पण के साथ उनकी तीमारदारी में मशगुल थे।" वे एक ऐसे जिम्मेदार गृहस्थ भी हैं जो जीवनभर सैर-सपाटे और पत्नी के साथ बाहर निकलने में रूचि रखते हैं। वे एक ऐसे जिम्मेदार गृहस्थ भी हैं जो जीवन भर सैर-सपाटे और पत्नी के साथ बाहर निकलने में रूचि रखते थे। पत्नी के बीमार होने के बाद उन्होंने जीवन की मस्ती, उत्साह, आराम सब कुछ छोड़ दिये। "इस समय श्रीलाल जी न लेखक थे, न आराम पसन्द अवकाश प्राप्त अधिकारी, वह मात्र पति थे, प्रेमी थे, दोस्त थे। पास ही मेज़ पर कई दिनों के समाचार-पत्र और पत्रिकाएँ पड़ी थी। लगता था, समाचार पत्रों की तह भी नहीं खुली। एक कोने में लावारिस सी डाक पड़ी थी।" इस तरह एक उन्मुक्त, उत्साहप्रिय, आराम तलब व्यक्ति अपनी पत्नी के लिए पूर्णरूप से समर्पित हो जाते हैं। रवीन्द्र वर्मा के अनुसार-"एक ठेठ भारतीय की तरह उनकी पत्नी उनके लिए एक जीवन मूल्य थी।" उनकी पत्नी उनके साथ ही साहित्य का अध्ययन भी करती थी और उसे संगीत में भी रूचि थी।
सन् 1949 में उनका चयन पी.सी.एस. में हो गया। वर्ष 1973 में श्रीलाल शुक्ल की आई.ए.एस. में पदोन्नति हो गई। उत्तरप्रदेश शासन के अनके उच्च पदों पर कार्य करने के उपरान्त वह विशेष सचिव, चिकित्सा, एव स्वास्थ्य के पद से 30 जून, 1983 को सेवा मुक्त हो गए। उन्हें भिन्न-भिन्न जगहों पर काम करने का अवसर मिला था। जहाँ-जहाँ उन्होंने काम किया वहाँ के जनजीवन की खासियतों को समझने की कोशिश भी की है। नौकरी के क्षेत्र में वे समाजधर्मी एवं निष्ठावान थे। सरकारी अफसर के रूप में उन्हांेने प्रशासनिक क्षेत्र की समस्याओं को सुलझाने में विशेष क्षमता दिखाई है। उत्तरप्रदेश सिविल सर्विसेज में काम करते हएु उन्हें संघीय लोकसेवा आयोग में विशेष कार्याधिकारी के रूप में कार्य करने का अवसर मिला था। नौकरी के क्षेत्र में उन्हें कई अनुभव प्राप्त हुए है। बड़े-बड़े लोगों से मिलने तथा उनकी आदतों एवं चारित्रिक विशेषताओं को समझने का अवसर भी उन्हें प्राप्त हुआ था।
राजनीतिक परिस्थिति तथा प्रशासनिक क्षेत्र के बारे में गहराई से पढ़ने की कोशिश की। नौकरी के क्षेत्र में व्यस्त रहने पर भी वे एक अच्छे पाठक थे। वे नौकरशाह नहीं थे। वैसा दम्भ उनमें नहीं था। सरकारी फाइलों के बीच सालों तक रहने पर भी वे सच्चे, मनुष्य तथा मानवीयता के वक्ता बनकर रहे हैं। ममता कालिया ने लिखा है-'वे हिन्दी के एकमात्र ऐसे कथाकार हैं जिन्होंने खाकी रगं की सरकारी फाइलों की अटपटी जानकारी व शब्दावली से अपनी मौलिक रचनात्मक भाषा का अनुसन्धान किया है। पूर्णकालिक जिम्मेदार नौकरी में इतने घंटे (बरस) बिताकर, कई आदमी यांत्रिक और बेजान हो जाते हैं, उनमें से फाइलों की बू आने लगती है पर श्रीलालजी ने इन सीमाओं को अपना सामथ्र्य बनाया।" उत्तर प्रदेश शासन के अनेक उच्च पदों पर कार्य करने के उपरान्त वह विशेष सचिव, चिकित्सा एवं स्वास्थ्य के पद से 30 जून, 1983 को सेवामुक्त हो गए। उसके बाद वे निरन्तर लेखन में जुड़े रहे तत्पश्चात् 28 अक्टुबर 2011 को इनकी मृत्यु हो गई।
श्रीलाल शुक्ल में सृजनात्मकता के बीज बचपन से ही थे, जिन्हें गाँव के साहित्यिक माहौल में पनपने का अवसर मिला। शिक्षा और साहित्य के प्रति उनमें अदम्य आग्रह रहा है। 12-13 वर्ष की अवस्था में उन्होंने धनाक्षरी-सवैये लिखना प्रारम्भ कर दिए। वह कवि-सम्मेलनों में भी जाने लगे। कुछ कहानियाँ, अलोचनात्मक निबन्ध, उपन्यास भी लिखे। उन्होंने मिडिल मोहनलालगंज से, हाई स्कूल कान्यकुब्ज वोकेशनल काॅलिज, लखनऊ से इन्टरमीडिएट कान्यकुब्ज काॅलिज कानपुर से किया।
1945 में इन्टरमीडिएट परीक्षा उत्तीर्ण कर उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय में बी.एड. में प्रवेश लिया। अब तक पद्य के प्रति उनका आकर्षण समाप्त हो गया था। उन्होंने कहानियाँ लिखना प्रारम्भ किया। इलाहाबाद में वह केशवचन्द्र वर्मा, धर्मवीर भारती, विजयदेव नारायण साही, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना, गिरीधर गोपाल, जगदीश गुप्त जैसे उभरते साहित्यकारों के सम्पर्क में आये। विपन्नता के कारण एम.ए. और कानून की पढ़ाई छोड़नी पड़ी। कुछ समय तक उन्होंने कान्यकुब्ज वोकेशनल इंटर काॅलिल, लखनऊ में अध्यापन कार्य किया।
इसी बीच उनका विवाह कानपुर के एक सुसंस्कृत परिवार में हो गया। उनका पारिवारिक जीवन सुखी रहा। उनकी तीन पुत्रियाँ (रेखा, मधुलिका, विनीता) तथा एक पुत्र आशुतोष है। सभी सुखी जीवन व्यतीत कर रहे हैं। अपनी पत्नी की देखभाल में उन्होंने कोई कमी नहीं की। रवीन्द्र कालिया के शब्दों में "श्रीलाल जी एक शिशु की तरह गिरिजा की देखभाल करते।" अपने परिवार के प्रति अपनी आस्था उन्होंने कभी छिपायी नहीं। रचना के तीव्र क्षणों में अपने मकान को वह परिवारवालों के लिए छोड़कर अकेले रह लिया करते थे। पत्नी के बीमार हो जाने के बाद वे उदास हो गये। रवीन्द्र कालिया ने इसके बारे में लिखा है "श्रीलाल जी के साथ बितायी एक दोपहर तो भुलाए नहीं भूलती। गिरिजा जी एकदम असहाय, असमर्थ और चेतनाशून्य हो चुकी थी। श्रीलाल जी पूर्ण समर्पण के साथ उनकी तीमारदारी में मशगुल थे।" वे एक ऐसे जिम्मेदार गृहस्थ भी हैं जो जीवनभर सैर-सपाटे और पत्नी के साथ बाहर निकलने में रूचि रखते हैं। वे एक ऐसे जिम्मेदार गृहस्थ भी हैं जो जीवन भर सैर-सपाटे और पत्नी के साथ बाहर निकलने में रूचि रखते थे। पत्नी के बीमार होने के बाद उन्होंने जीवन की मस्ती, उत्साह, आराम सब कुछ छोड़ दिये। "इस समय श्रीलाल जी न लेखक थे, न आराम पसन्द अवकाश प्राप्त अधिकारी, वह मात्र पति थे, प्रेमी थे, दोस्त थे। पास ही मेज़ पर कई दिनों के समाचार-पत्र और पत्रिकाएँ पड़ी थी। लगता था, समाचार पत्रों की तह भी नहीं खुली। एक कोने में लावारिस सी डाक पड़ी थी।" इस तरह एक उन्मुक्त, उत्साहप्रिय, आराम तलब व्यक्ति अपनी पत्नी के लिए पूर्णरूप से समर्पित हो जाते हैं। रवीन्द्र वर्मा के अनुसार-"एक ठेठ भारतीय की तरह उनकी पत्नी उनके लिए एक जीवन मूल्य थी।" उनकी पत्नी उनके साथ ही साहित्य का अध्ययन भी करती थी और उसे संगीत में भी रूचि थी।
सन् 1949 में उनका चयन पी.सी.एस. में हो गया। वर्ष 1973 में श्रीलाल शुक्ल की आई.ए.एस. में पदोन्नति हो गई। उत्तरप्रदेश शासन के अनके उच्च पदों पर कार्य करने के उपरान्त वह विशेष सचिव, चिकित्सा, एव स्वास्थ्य के पद से 30 जून, 1983 को सेवा मुक्त हो गए। उन्हें भिन्न-भिन्न जगहों पर काम करने का अवसर मिला था। जहाँ-जहाँ उन्होंने काम किया वहाँ के जनजीवन की खासियतों को समझने की कोशिश भी की है। नौकरी के क्षेत्र में वे समाजधर्मी एवं निष्ठावान थे। सरकारी अफसर के रूप में उन्हांेने प्रशासनिक क्षेत्र की समस्याओं को सुलझाने में विशेष क्षमता दिखाई है। उत्तरप्रदेश सिविल सर्विसेज में काम करते हएु उन्हें संघीय लोकसेवा आयोग में विशेष कार्याधिकारी के रूप में कार्य करने का अवसर मिला था। नौकरी के क्षेत्र में उन्हें कई अनुभव प्राप्त हुए है। बड़े-बड़े लोगों से मिलने तथा उनकी आदतों एवं चारित्रिक विशेषताओं को समझने का अवसर भी उन्हें प्राप्त हुआ था।
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