घड़ी ने अभी-अभी नौका घण्टा बजाया था। हिरेन 'सुन्दरवन के बाघ' फिल्म देखने के बाद वापस अपने घर लौट रहा था। रॉयल बंगाल बाघों के अंचल में जाकर इस फिल्म का निर्माण किया गया था। हिरेन उस फिल्म के दृश्यों के बारे में सोचता हुआ चला जा रहा था। चलते-चलते वह सहसा चौंक गया। सामने सड़क पर एक सांप लेटा हुआ था। उस पर उसका पाँव पड़ते-पड़ते रह गया था। बड़े भाग्य से ही उसकी जान बच गयी थी। वह थोड़ा पीछे हटकर और भी अच्छी तरह सांप को देखने लगा। यह एक वैसा ही नाग लग रहा था, जैसा कि उसने कुछ दिनों पूर्व सँपेरे की टोकरी में देखा था।
हिरेन ने सांप से बचने के लिये बगल का एक दूसरा रास्ता पकड़ने की सोची। तभी उसने देखा कि एक व्यक्ति हाथ में टार्च लिये उस सांप की ओर ही चला जा रहा है।हिरेन चिल्लाया-'उधरसे मत जाओ, सड़क पर एक नाग लेटा है।'
वह व्यक्ति बोला-'डरो मत। मेरे साथ आओ। घण्टे भर पहले मैं इसी सड़क से होकर गया था। मैंने तुम्हारे साँप को देख लिया है। वह नाग नहीं, रस्सी का एक टुकड़ा मात्र है।' वह हीरेन को उस जगह ले गया। हिरेन ने टार्च से आलोकित सड़क को स्पष्ट रूपसे देखा तो उसे पता चला कि वहाँ कोई नाग नहीं, बल्कि एक रस्सी पड़ी है। दोनों खिलखिलाकर हँस पड़े। हिरेन का भय जा चुका था।
कभी-कभी हम एक वस्तु को कुछ दूसरा समझ बैठते हैं और इस कारण हम भ्रमित या भयभीत हो जाते हैं। वेदान्त की मतानुसार रस्सी में सर्प के भय के समान ही हमारे सुख-दुःख, हमारी समस्या, आशंका और चिन्ताएँ एक तरहके भ्रम पर आधारित होती हैं। मूलत: हम पूर्ण और आनन्दमय हैं, तथापि हम अपनेको श्मशान की ओर अग्रसर हो रहे एक लाचार मत्स्य प्राणी के रूपमें देखते हैं। हम लोग ऐसा व्यवहार करते हैं, मानो हमपर जादू कर दिया गया हो और इसीको वेदान्त में माया कहते हैं। जब मायाका जादू टूट जाता है, तब हमें अपने वास्तविक स्वरूपका ज्ञान होता है।
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