हे महाराज! मैं उन्ही के आदेश से आपकी पुरी में आया हूँ। हे राजेन्द्र! हे अनघ! मैं मोक्ष का अभिलाषी हूँ, अतः जो कार्य मेरे लिये उचित हो, वह बताइये।
हे राजेन्द्र! तप, तीर्थ, व्रत, यज्ञ, स्वाध्याय, तीर्थसेवन और ज्ञान-इनमें से जो मोक्ष का साक्षात् साधन हो, वह मुझे बताइये।
जनक जी बोले-मोक्षमार्गावलम्बी विप्र को जो करना चाहिये, उसे सुनिये। उपनयन संस्कार के बाद सर्वप्रथम वेदशास्त्र का अध्ययन करने हेतु गुरू के सांनिध्य में रहना चाहिए। वहाँ वेद-वेदान्तों का अध्ययन करके दीक्षान्त, गुरूदक्षिणा देकर वापस लौटे विप्र को विवाह करके पत्नी के साथ गृहस्थी में रहना चाहिये। {गृहस्थाश्रम में रहते हुए} न्यायोपार्जित धन से सर्वदा सन्तुष्ट रहे और किसी से कोई आशा न रखे। पापों से मुक्त होकर अग्निहोत्र आदि कर्म करते हुए सत्यवचन बोले और मन, वचन, कर्म से सदा पवित्र रहे। पुत्र-पौत्र हो जाने पर {समयानुसार} वानप्रस्थ-आश्रम में रहे। वहाँ तपश्चर्याद्वारा काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह और मात्सर्य-इन छहों शत्रुओं पर विजय प्राप्त करके अपनी स्त्री रक्षा का भार पुत्र को सौंप देने के पश्चात्, वह धर्मात्मा सब अग्नियों का अपने में न्यायपूर्वक आधान कर ले और सांसारिक विषयों के भोग से शान्ति मिल जाने के बाद हृदय में विशुद्ध वैराग्य उत्पन्न होने पर चैथे आश्रम का आश्रय ले ले। विरक्त को ही संन्यास लेने का अधिकार है, अन्य किसी को नहीं- यह वेदवाक्य सर्वथा सत्य है, असत्य नहीं-ऐसा मेरा मानना है।
हे शुकदेवजी! वेदों में कुल अड़तालीस संस्कार कहे गये हैं। उनमें गृहस्थ के लिये चालीस संस्कार महात्माओं ने बताये हैं। मुमुक्षु के लिये शम, दम आदि आठ संस्कार कहे गये हैं। एक आश्रम से ही क्रमशः दूसरे आश्रम में जाना चाहिये, ऐसा शिष्टजनों का आदेश है।
शुकदेवजी-चित्त में वैराग्य और ज्ञान-विज्ञान उत्पन्न हो जाने पर अवश्य ही गृहस्थादि आश्रमों में रहना चाहिये अथवा वनों में।
जनकजी-हे मानद! इन्द्रियाँ बड़ी बलवान् होती हैं, वे वश में नही रहतीं। वे अपरिपक्व बुद्धिवाले मनुष्य के मन में नाना प्रकार के विकार उत्पन्न कर देती है।
यदि मनुष्य के मन में भोजन, शयन, सुख और पुत्र की इच्छा बनी रहे तो वह सन्यासी होकर भी इन विकारांे के उपस्थित होने पर क्या कर पायेगा।
वसनाओं का जाल बड़ा ही कठिन होता है, वह शीघ्र नही मिटता। इसलिये उसकी शान्ति के लिये मनुष्य को क्रम से उसका त्याग करना चाहिये।
ऊँचे स्थान पर सोने वाला मनुष्य ही नीचे गिरता है, नीचे सोनेवाला कभी नही गिरता। यदि सन्यास-ग्रहण कर लेने पर भ्रष्ट हो जाय तो पुनः वह कोई दूसरा मार्ग नही प्राप्त कर सकता।
जिस प्रकार चींटी वृक्ष की जड़ से चढ़कर शाखा पर चढ़ जाती है और वहाँ से फिर धीरे-धीरे सुखपूर्वक पैरों से चलकर फलतक पहुँच जाती है। विघ्न-शंका के भय से कोई पक्षी बड़ी तीव्र गति से आसमान में उड़ता है और परिणामतः थक जाता है, किंतु चींटी सुखपूर्वक विश्राम ले-लेकर अपने अभीष्ट स्थानपर पहुँच जाती है।
मन अत्यन्त प्रबल है; यह अजितेन्द्रिय पुरूषों के द्वारा सर्वथा अजेय है। इसलिये आश्रमों के अनुक्रम से ही इसे क्रमशः जीतने का प्रयत्न करना चाहिये।
गृहस्थ-आश्रम में रहते हुए भी जो शान्त, बुद्धिमान् एवं आत्मज्ञानी होता है, वह न तो प्रसन्न होता है और न खेद करता है। वह हानि-लाभ में समान भाव रखता है।
जो पुरूष शास्त्र प्रतिपादित कर्म करता हुआ, सभी प्रकार की चिन्ताओं से मुक्त रहता हुआ आत्मचिन्तन से सन्तुष्ट रहता है; वह निःसन्देह मुक्त हो जाता है।
हे अनघ! देखिये, मैं राजकार्य करता हुआ भी जीवन मुक्त हूँ मैं अपने इच्छानुसार सब काम करता हूँ, किन्तु मुझे शोक या हर्ष कुछ भी नही होता।
जिस प्रकार मैं अनेक भोगों को भोगता हुआ तथा अनेक कार्यो को करता हुआ भी अनासक्त हूँ, उसी प्रकार हे अनघ! आप भी मुक्त हो जाइये।
ऐसा कहा भी जाता है कि जो यह दृश्य जगत् दिखायी देता है, उसके द्वारा अदृश्य आत्मा कैसे बन्धन में आ सकता है? पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु एवं आकाश-ये पंचमहाभूत और गन्ध, रस, रूप, स्पर्श एवं शब्द-ये उनके गुण दृश्य कहलाते हैं।
आत्मा अनुमानगम्य है और कभी भी प्रत्यक्ष नहीं होता। ऐसी स्थिति में है ब्रह्मन्! वह निरंजन एवं निर्विकार आत्मा भला बन्धन में कैसे पड़ सकता है? हे द्विज! मन ही महान् सुख-दुःख का कारण है, इसी के निर्मल होने पर सब कुछ निर्मल हो जाता है।
सभी तीर्थों में घूमते हुए वहाँ बार-बार स्नान करके भी यदि मन निर्मल नही हुआ तो वह सब व्यर्थ हो जाता है। हे परन्तप! बन्धन तथा मोक्ष का कारण न यह देह है, न जीवात्मा है और न ये इन्द्रियाँ ही हैं, अपितु मन ही मनुष्यों के बन्धन एवं मुक्ति का कारण है।
आत्मा तो सदा ही शुद्ध तथा मुक्त है, वह कभी बँधता नही है। अतः बन्धन और मोक्ष तो मन के भीतर हैं, मन की शान्ति से ही शान्ति है।
शत्रुता, मित्रता या उदासीनता के सभी भेदभाव भी मनमें ही रहते हैं। इसलिये एकात्मभाव होने पर यह भेदभाव नहीं रहता; यह तो द्वैतभाव से ही उत्पन्न होता है।
’मैं जीव सदा ही ब्रह्म हूँ-इस विषय में और विचार करने की आवश्यकता ही नही है। भेदबुद्धि तो संसार में आसक्त रहने पर ही होती है।
हे महाभाग! बन्धन का मुख्य कारण अविद्या ही है। इस अविद्या को दूर करने वाली विद्या है। इसलिये ज्ञानी पुरूषों को चाहिये कि वे सदा विद्या तथा अविद्या का अनुसन्धान पूर्वक अनुशीलन किया करें।
जिस प्रकार धूप के बिना छाया के सुख का अनुभव नही होता, उसी प्रकार अविद्या के बिना विद्या का अनुभव नही किया जा सकता।
गुणों में गुण, पंचभूतों में पंचभूत तथा इन्द्रियों के विषय में इन्द्रियाँ स्वयं रमण करती हैं; इसमें आत्मा का क्या दोष है।
हे पवित्रात्मन्! सबकी सुरक्षा के लिये वेदों में सब प्रकार से मर्यादा की व्यवस्था की गयी है। यदि ऐसा न होता तो नास्तिकों की भाँति सब धर्मों का नाश हो जाता। धर्म के नष्ट हो जाने पर सब नष्ट हो जायेगा और सब वर्णों की आचार-परम्परा का उल्लंघन हो जायेगा। इसलिये वेदोपदिष्ट मार्ग पर चलने वालों का कल्याण होता है।
शुकदेवजी-हे राजन्! आपने जो बात कही उसे सुनकर भी मेरा सन्देह बना हुआ है; वह किसी प्रकार भी दूर नही होता।
हे भूपते! वेदधर्मों में हिंसा का बाहुल्य है, उस हिंसा में अनेक प्रकार के अधर्म होते हैं। {ऐसी दशा में} वेदोक्त धर्म मुक्तिप्रद कैसे हो सकता है? हे राजन्! सोमरस-पान, पशुहिंसा और मांस-भक्षण तो स्पष्ट ही अनाचार है। सौत्रामणियज्ञ में तो प्रत्यक्षरूप से सुराग्रहण का वर्णन किया गया है। इसी प्रकार द्यूतक्रीड़ा एवं अन्य अनेक प्रकार के व्रत बताये गये है।
सुना जाता है कि प्राचीन काल में शशबिन्दु नाम के एक श्रेष्ठ राजा थे। वे बड़े धर्मात्मा, यज्ञपरायण, उदार एवं सत्यवादी थे। वे धर्मरूपी सेतु के रक्षक तथा कुमार्गगामी जनों के नियन्ता थे। उन्होने पुष्कल दक्षिणवाले अनेक यज्ञ सम्पादित किये थे।
{उन यज्ञों में} पशुओं के चर्म से विन्ध्यपर्वत के समान ऊँचा पर्वत-सा बन गया। मेघों के जल बरसाने से चर्मण्वती नाम की शुभ नदी बह चली।
वे राजा भी दिवंगत हो गये, किन्तु उनकी कीर्ति भूमण्डल पर अचल हो गयी। जब इस प्रकार के धर्मों का वर्णन वेद में है, तब हे राजन्! मेरी श्रद्धाबुद्धि उनमें नहीं है।
स्त्री में साथ भोग में पुरूष सुख प्राप्त करता है और उसके न मिलने पर वह बहुत दुःखी होता है तो ऐसी दशा में भला वह जीवन्मुक्त कैसे हो सकेगा?
जनकजी-यज्ञों में जो हिंसा दिखायी देती है, वह वास्तव में अहिंसा ही कही गयी है; क्योंकि जो हिंसा उपाधियोग से होती है वही हिंसा कहलाती है, अन्यथा नहीं-ऐसा शास्त्रों का निर्णय है।
जिस प्रकार {गीली} लकड़ी के संयोग से अग्नि से धुआँ निकलता है, उसके अभाव में उस अग्नि में धुआँ नही दिखायी देता, उसी प्रकार हे मुनिवर! वेदोक्त हिंसा को भी आप अहिंसा की समझिये। रागीजनों द्वारा की गयी हिंसा ही हिंसा है, किंतु अनासक्त जनों के लिये वह हिंसा नही कही गयी है।
जो कर्म राग, तथा अंहकार से रहित होकर किया जाता हो, उस कर्म को वैदिक विद्वान, मनीषीजन न किये हुए के समान ही कहते हैं।
हे द्विजश्रेष्ठ! रागी गृहस्थों के द्वारा यज्ञ में जो हिंसा होती है; वही हिंसा है। हे महाभाग! जो कर्म रागरहित तथा अहंकार शून्य होकर किया जाता है, वह जितात्मा मुमुक्षुजनों के लिये अहिंसा ही है।
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