बाल्यावस्था में माधवदास जी की मुखाकृति देखकर एक अवधूत महात्मा ने उनके पिता से कहा था कि यह बालक कोई महान् दिव्यात्मा होगा। ये बचपन से ही बड़ी उदार वृत्ति के थे और दरवाजे पर आये भिक्षुक को निराश नहीं जाने देते थे। जब ये मात्र पाँच वर्ष के ही थे, तभी इनके पिता का देहांत हो गया था। अतः इनका पालन-पोषण इनकी माता ने ही हुआ। माता ने इन्हें अच्छा विद्याभ्यास तो कराया ही, एक राजपूत वीर के लायक शस्त्रास्त्र की योग्यता भी इन्हें बचपन में ही प्राप्त हो गयी थी ।
एक बार ये भ्रमण करते हुए अहमदाबाद के पास पहुँचे। वहाँ इन्होंने देखा कि कुछ मुसलमान ग्वालों से उनकी गायें छीनकर ले जा रहे हैं। ईद का त्यौहार था और हाकिम की आज्ञा थी, इसलिए कोई कुछ बोल भी नहीं सकता था। पचास मुसलमान सैनिकों की एक टुकड़ी गायों को घेर कर लेकर चल दी, मुसलमानी शासन में ग्वाले भला रोने के अतिरिक्त और कर ही क्या सकते थे? गाय रंभा रही थीं, चाबुक की मार खा रही थीं, उनकी आँखों से आँसुओं की धारा बह रही थी। यह सब माधवदास जी से देखा न गया। उनका राजपूती रक्त उबल पड़ा। वे तलवार लेकर उन पर टूट पड़े। एक तरफ अकेले माधवदास और दूसरी ओर पचास सैनिक! पर सिंह सिंह होता है, मांसलोभी सैकड़ों सियारों का झुंड उस की एक दहाड़ और भाग खड़ा होता है।
माधवदास में सत्साहस था, गौमाता के प्रति प्रेम था, उधर सैनिकों में था सत्ता का अभिमान। माधवदास ने उन यवन सिपाहियों को गाजर-मूली की तरह काटना प्रारम्भ किया। सिपाहियों की जान पर बन आयी। कुछ तो मारे गये और कुछ भाग गये। सिसोदिया वंश के उस वीर ने सब गायें छुड़ा ली और रोते हुए ग्वालों के सुपुर्द कर दी।
माता की प्रेरणा से माधवदास जी ने सद्गुरु की शरण ली। वे समर्थदास नामक एक योगी के शिष्य हो गये। संत माधव दास जी सच्चे संत थे, उनका अधिकांश समय तीर्थाटन में ही बीतता था। गौमाता के प्रति उनकी अद्भुत भक्ति थी। उन्होंने दिल्ली के शाही कसाई खाने के जल्लाद हाशम को अपने उपदेश से भगवान की भक्ति में लगा दिया। मुलतान के मुस्लिम सूबेदार ने उन्हें तरह तरह से प्रताड़नाएं देने की कोशिश की, परंतु माधवदास जी सिद्ध संत थे, वह उनका बाल भी बाँका न कर सका और अंत में उनके चरणों में गिरकर क्षमा याचना की और भविष्य में किसी को न सताने की कसम खाई।
वि० सं० 1652 में आप इस नश्वर शरीर को त्याग कर अविनाशी परब्रह्म प्रभु के स्वरूप में अवस्थित हो गये। धन्य हैं ऐसे संत रत्न और गौ भक्त माधवदास जी और धन्य है भारत-धरा ऐसे सपूत को प्राप्त करके।
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दिनेश
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