विष्णु प्रभाकर: व्यक्तित्व और कृतित्व

विष्णु प्रभाकर का जन्म 21 जून 1912 ई0 में पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मुजफ्फर नगर जिले में एक छोटे से कस्बे ‘मीरापुर’ में हुआ था। अग्रवाल जाति की एक शाखा ‘राजवंश’ अग्रवाल से इनका सम्बन्ध था। साम्प्रदायिक सौहार्द, सांस्कृतिक क्रियाकलाप, मावे का पेड़ और रामलीला नाटक के लिए उनका कस्बा मशहूर था। उनके कस्बे के चारों ओर मन्दिर और तालाब थे। बचपन में विष्णु जी रामलीला नाटक बड़े चाव से देखने जाते थे, उनके परिवार के सदस्य नाटक में अभिनव भी किया करते थे। विभिन्न त्यौहारों के अवसर पर होने वाली सांस्कृतिक कार्यक्रमों में धार्मिक सौहार्द देखते ही बनता था, जिसका प्रभाव बचपन में ही विष्णु जी पर पड़ने लगा था।


प्रत्येक व्यक्ति को अपनी जन्मभूमि से बेहद लगाव और प्रेम होता है, विष्णु जी को भी अपनी जन्मभूमि से बेहद लगाव और प्रेम था। विष्णु प्रभाकर अपनी जन्मभूमि में 12 वर्ष तक रहे और इन 12 वर्षों में ही उनके महान व्यक्तित्व की नींव पड़ी। विष्णु जी के पिता का नाम दुर्गाप्रसाद और माता का नाम महादेवी था, उनके पिताजी स्वभाव से बड़े धार्मिक थे, सनातन धर्म में आस्था रखते थे, पूजा-पाठ का कोई अंत नहीं था, तम्बाकू, की छोटी सी दुकान थी, परन्तु दुकान से ज्यादा पूजा-पाठ में उनका मन लगा रहता था। इनकी माँ महादेवी जिसे परिवार वाले प्यार से ‘माधो’ या ‘महादेई’ कहकर पुकारते थे। पिता के विपरीत ज्यादा पढ़ी लिखी सुशिक्षित और आदर्शवादी महिला थीं। पूरे गाँव में इनकी माँ ही एक-मात्र ज्यादा पढ़ी लिखी थी, जिसके कारण विष्णु जी को ज्यादा संस्कार अपनी माँ से ही मिल सका। पिता की तुलना में माँ को ही ज्यादा विष्णु जी के भविष्य की चिन्ता लगी रहती थी।उनकी माँ घर-गृहस्थी में भी परिपक्व थीं। विष्णु जी का परिवार संयुक्त परिवार था। एक ही छत के नीचे सारा परिवार रहता था। इनके पिताजी कई भाई बहन थे। परिवार बड़ा होने से सभी सदस्य एक दूसरे के सुख दुःख में भी भागीदार थे। परस्पर मानवता, संस्कृति तथा नैतिकता आदि मूल्य उनके परिवार की आधारशिला थे। दादा-दादी, माता-पिता, चाचा-चाची आदि से विष्णु जी को पूरा-पूरा सहयोग प्यार और अपनत्व तो मिला परन्तु माँ और छोटे चाचा विश्वम्भर सहाय से उन्हें बहुत अधिक प्रेम और आशीर्वाद मिला जिसने उनके भविष्य को निर्धारित करने में मुख्य भूमिका अदा की।
विष्णु जी को परिवार में अपने छोटे चाचा विश्वम्भर सहाय से बेहद लगाव रहा। उनकी माँ के बाद में चाचा ही परिवार में पढ़े लिखे थे और साथ ही साथ धन अर्जित करने में भी अधिक सक्षम थे। परिवार में उनके छोटे चाचा ही एक मात्र समृद्धि के आधार थे। विष्णु जी कहते हैं- ‘‘मेरे चाचा परिवार में सबसे अधिक प्रतिभाशाली और अर्जन की विद्या में सबसे अधिक निष्णात थे। मेरे पिता अत्यंत कर्मकाण्डी और अर्जन की विद्या में एकदम शून्य थे। उनके चाचा में देशभक्ति की भावना भी कूट-कूट कर भरी थी। विष्णु जी हमेशा अपने छोटे चाचा के साथ काँग्रेस की सभाओं में जाया करते थे। छोटे चाचा के सान्निध्य में रहकर विष्णु जी ने देश भक्ति का पहला पाठ सीखा था-‘‘स्वाधीनता संग्राम के प्रथम चरण में अक्सर मैं उन्हीं के साथ काँग्रेस की सभाओं में जाया करता था। उन्हीं के पास मैंने देशभक्ति का पहला पाठ पढ़ा था।’’ निःसंदेह विष्णु जी को अपने माँ और छोटे चाचा से जो प्यार और आशीर्वाद मिला उसने विष्णु जी के जीवन को एक नया आयाम दिया। उनके परिवार के गौरव स्तम्भ उनके चाचा प्लेग की महामारी में चल बसे। छोटे चाचा की मृत्यु ने विष्णु जी को झकझोर कर रखा दिया था। अब तक जिस घर-परिवार को छोटे चाचा का ही सहारा था, वे विष्णु जी के कंधों पर आ गया। लेकिन संयुक्त परिवार में रहकर जो प्यार, स्नेह और प्रेरणा विष्णु जी को मिलती रही उसने उनके महान व्यक्तित्व को निखारने में अहम भूमिका अदा की।
विष्णु प्रभाकर की आरम्भिक शिक्षा ‘मीरापुर’ की एक छोटी सी पाठशाला से आरम्भ हुई। बचपन में विष्णु जी को पढ़ने का बहुत शौक था और ये शौक उन्हें अपने पिताजी के तम्बाकू के दुकान पर बैठने से शुरू हुआ है। दुकान में रखे ढेर सारे टोकरों में एक टोकरा किताबों से भरा रहता था। किसी भी बच्चे को शिक्षित करने में माँ की भूमिका अहम होती हैं, क्योंकि बच्चे का पहला विद्यालय माँ ही होती है। विष्णु जी के सम्बन्ध में ठीक ऐसा ही है। माँ पढ़ी-लिखी थीं। स्वाभाविक है विष्णु जी पर उनका ही प्रभाव पड़ा था-‘‘मेरी माँ पढ़ी लिखी थीं। दहेज में बहुत सी चीजों के साथ-साथ किताबों से भरा एक बक्सा भी वे ले आई थीं। हिन्दी-उर्दू दोनों लिपियों में लिखी किताबें थीं उसमें। माँ ने बताया था कि उन किताबों से खलते-खेलते और फाड़ते-फाड़ते ही हम भाईयों का विद्यारम्भ संस्कार हुआ था।’’
प्रारम्भ में उन्हें गाँव के ही पाठशाला में दाखिल करवा दिया गया। उन दिनों पाठशाला जाने से पहले बच्चे का पट्टी-पूजन संस्कार करवाया जाता था। विष्णु जी का जब पाठशाला जाने का समय आया तो इनका भी ‘पट्टी-पूजन’, ‘संस्कार’ करवाया गया इस प्रकार कुछ दिनों तक विष्णु जी गाँव की ही पाठशाला में पढ़ते रहे। पाठशाला की पढ़ाई से अभिभावक संतुष्ट नहीं हुए और उनका प्रवेश सरकारी प्राइमरी स्कूल में करवा दिया गया। यहाँ पर विष्णु जी ने 4 वर्ष तक शिक्षा ग्रहण की। इसी स्कूल में तीसरी श्रेणी तक आते-आते विष्णु जी लगभग सभी विषयों से भली-भाँति परिचित हो गए। गणित जैसे विषयों के प्रश्न स्वयं हल करने लग गए। गाँव में आगे की पढ़ाई की व्यवस्था अच्छी न होने के कारण आगे पढ़ने के लिए उन्हें मामा के पास हिसार भेज दिया गया। हिसार में विष्णु जी का दाखिला (सी0ए0वी0 स्कूल) अर्थात् ‘चन्दूलाल एंग्लो वैदिक स्कूल’ में छठी कक्षा में करवा दिया गया और छठी कक्षा से लेकर मैट्रिक तक विष्णु जी ने इसी स्कूल में पढ़ाई की। मैट्रिक करने के बाद विष्णु जी ने इस स्कूल को छोड़ दिया। मैट्रिक पास करने के बाद विष्णु जी ने नौकरी करनी शुरू कर दी जिससे घर की आर्थिक स्थिति में कुछ सुधार भी आने लगा, लेकिन आगे पढ़ने का शौक विष्णु जी ने नहीं छोड़ा। विष्णु जी लगातार उच्च-शिक्षा के लिए प्रयत्न कर रहे थे। एक तरफ नौकरी करने की विवशता और दूसरी तरफ उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए संघर्ष विष्णु जी के मन मस्तिष्क पर गहरा प्रभाव डाल रहे थे।
आखिरकार सन् 1930 ई0 में उन्होंने ‘हिन्दी प्रभाकर’ की परीक्षा दी उन दिनों पंजाब विश्वविद्यालय में ये परीक्षा देने पर नियमित इण्टर और बी0ए0 की परीक्षा दी जा सकती थी। प्रभाकर की परीक्षा में विष्णु जी ने पूरे पंजाब में दूसरा स्थान प्राप्त किया। सन् 1944 ई0 में 32 वर्ष की अवस्था में विष्णु जी ने बी0ए0 की डिग्री प्राप्त की और आगे चलकर स्वतंत्र रूप से लेखन कार्य में जुट गए जो उनका लक्ष्य था। अपने शैक्षणिक जीवन में विष्णु जी ने जो उतार-चढ़ाव देखे उसने कहीं न कहीं उनके व्यक्तित्व को भी प्रभावित किया। अपने शैक्षणिक जीवन में उन्होंने बहुत कुछ खोया और बहुत कुछ पाया भी। एक तरफ जहाँ उन्हें अपना गाँव छोड़ना पड़ा तो वहीं हिसार आने के बाद उनके जीवन को एक नई दिशा मिली, यद्यपि विष्णु जी को लेखक बनने की प्रेरणा हिसार में रहकर ही मिली थी। 12 वर्ष तक अपने जन्म स्थान में और 20 वर्ष तक हिसार (पंजाब) में रहकर जितना अनुभव उन्हें मिला उसका प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष प्रभाव उनकी लेखनी पर भी पड़ा।
30 मई, 1938 ई0 को विष्णु जी का विवाह सुशीला नाम की कन्या के साथ हुआ जो स्वभाव से विनम्र, कोमल और सुशील थीं। सुशीला विष्णु जी के जीवन में नयी आशाओं और आकांक्षाओं की किरणें लेकर आईं। पत्नी के आ जाने से विष्णु जी के लेखन कार्य को बल मिला विवाह के बाद विष्णु जी के जीवन में जितने भी उतार-चढ़ाव आए पत्नी सुशीला ने उन्हें सहारा दिया और उनके मनोबल को बढ़ाया। एक पत्नी के रूप में सुशीला ने विष्णु जी को हमेशा प्रेरित किया। 8 जनवरी, 1980 ई0 को उनकी पत्नी का देहांत हो गया। लेकिन विष्णु जी के लेखन में उनकी पत्नी की भूमिका रहीं क्योंकि वे अपने जीवन काल में ही विष्णु जी से ‘आवारा मसीहा’ जैसी कालजयी जीवनी लिखवा गईं और मृत्यु के बाद ‘कोई तो’ और ‘अर्द्धनारीश्वर’ उपन्यास। उनकी पत्नी सुशीला संयुक्त परिवार से नहीं आई थीं, लेकिन फिर भी अपने स्वभाव से एक संयुक्त परिवार को संभाला और एक आदर्श पत्नी, माँ, बहू और सबसे महत्त्वपूर्ण एक आदर्श स्त्री की भूमिका भी निभाई और इस दुनिया से चल बसीं, परन्तु जाते-जाते उन्होंने विष्णु जी को एक महान लेखक बनने का रास्ता अवश्य दिखा दिया।
मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण करते ही विष्णु जी सीधे ‘गवर्नमेन्ट कैटल फार्म’ के कार्यालय में दफ्तरी के पद पर काम करने लग गए। 1929 ई0 से लेकर 1944 ई0 तक वह इधर-उधर की सरकारी नौकरी रहते रहे लेकिन देश भक्ति का जुनून उन पर ऐसा सवार था कि उनको कभी सरकारी नौकरी रास ही नहीं आयी लेकिन घर की आर्थिक परिस्थितियाँ अच्छी नहीं होने के कारण विष्णु जी को नौकरी करनी पड़ी। हिसार में 15 वर्ष तक नौकरी करने के बाद विष्णु जी दिल्ली चले आए और वहाँ 1944 ई0 से लेकर 1946 ई0 तक उन्होंने ‘भारतीय आयुर्वेद महामण्डल’ नामक संस्था में कार्य किया, लेकिन उनका मन तो लेखक बनने की दिशा में  लगा हुआ था तो वह नौकरी कैसे करते। अतः वहाँ भी त्यागपत्र देकर उन्होंने नौकरी छोड़ दी और कुछ न कुछ लिखते रहे। आगे चलकर सन् 1955 ई0 में ‘आल इण्डिया रेडिया’ में 700 रू0 के मासिक आय पर उन्हें प्रोड्यूसर के पद पर नौकरी मिली लेकिन विष्णु जी तो सदैव दासता से मुक्ति चाहते थे। इसलिए दो वर्ष कार्य करने के बाद उन्होंने नौकरी छोड़ दी और स्वतंत्र रूप से लेखनी में लग गए।
नौकरी करते समय ही नवम्बर 1931 ई0 में ‘हिन्दी मिलाप’ नामक पत्रिका में उनकी पहली कहानी ‘दिवाली के दिन’ छपी जिसे विष्णु जी ने प्रेम बंधु उपनाम से लिखा था। अब तक विष्णु जी की लेखनी मन्द गति से ही चल रही थी परन्तु 1934 तक आते-आते उनमें गति और गम्भीरता दोनों आने लगीं और इसी वर्ष उन्होंने ‘प्रभाकर’ की परीक्षा भी उत्तीर्ण कर लिया उन्हीं के शब्दों में-‘‘मैं प्रभाकर की परीक्षा सन् 1934 ई0 में ही पास कर सका लिखने का काम भी गंभीरता से इसी वर्ष शुरू हुआ।’’
एक सृजनकर्ता के रूप में विष्णु जी पहले जिन दो महान कथा शिल्पियों से प्रभावित हुए उनमें प्रेमचन्द और शरत्चन्द जी का नाम आता है। इन दो महान कथा शिल्पियों का विष्णु जी के लेखन को प्रभावित करने में बड़ी महत्त्वपूर्ण भूमिका रही। इसके साथ ही साथ रविन्द्रनाथ ठाकुर, बंकिमचन्द तथा जयश्ंाकर प्रसाद जैसे महान लेखकों से भी विष्णु जी को लिखने की प्रेरणा लगातार मिलती रही। 1936 ई0 में ‘हंस’ पत्रिका से जुड़ने के बाद हिन्दी जगत के प्रसिद्ध लेखकों से उनका परिचय होने लगा जिनमें अज्ञेय, जैनेन्द, प्रेमचन्द आदि उनके प्रिय लेखकों की सूची में शामिल होने लगे। सन् 1938 ई0 से लेकर 1943 ई0 के मध्य विष्णु जी की कई कहानियाँ प्रकाशित हुई जिनमें-‘छाती के भीतर’, ‘मन ग्रन्थियाँ’, ‘उलझन’, ‘अन्र्तचेतन’, ‘तजरबे’, ‘ये उलझने’, ‘बाहर भीतर’, ‘द्वन्द्व’, ‘अन्दर झांको’, ‘मकड़ी का जाला’, बुज़दिल, ‘कितनी झूठ’ आदि प्रमुख हैं। विष्णु जी की ये कहानियाँ साहित्यकारों और आलोचकों को बहुत पसंद आयी और इस तरह 1938 से 1943 ई0 तक आते-आते हिन्दी जगत के लगभग सभी महत्वपूर्ण साहित्यकारों से उनका परिचय हो गया।
विष्णु प्रभाकर गाँधीवादी विचारधारा से बहुत अधिक प्रभाावित थे। इसका कारण यह है कि विष्णु जी ने जब लिखना शुरू किया तो पूरे देश में गाँधी जी छाए हुए थे। स्वाधीनता आंदोलन चरम पर था। देशभक्ति की भावना जोरों पर थीं, ऐसे में विष्णु जी की लेखनी भी प्रभावित हुए बिना न रह सकीं। आगे चलकर विष्णु जी कई नामचीन संस्थाओं से जुड़ते चले गए, जिससे कि एक महान लेखक के रूप में उनकी पहचान बनी। एक साहित्यकार के रूप में विष्णु जी को जहाँ प्रेमचन्द, जैनेन्द्र, अज्ञेय, सियारामशरण गुप्त, उपेन्द्रनाथ अश्क, चन्द्रगुप्त विद्यालंकार, नगेन्द्र, यशपाल, हजारी प्रसाद द्विवेदी, जैसे साहित्यकारों से प्रेरणा मिली, तो दूसरी ओर बाबू शरत्चन्द्र जी से इतने प्रभावित हुए कि अपने जीवन के 14 वर्ष ‘शरत्चन्द्र’ की जीवनी लिखने में लगा दिये जिसके परिणाम स्वरूप ‘आवारा मसीहा’ जैसी कालजयी कृति की रचना संभव हो सकी। व्यक्तित्व का निर्माण कर्म से होता है, कर्म संस्कार से प्रभावित होते हैं, और संस्कार घर-परिवार से मिलता है। व्यक्तित्व को प्रभावित करने में बचपन में मिलने वाले संस्कार का बहुत महत्त्व होता है। विष्णु जी के व्यक्तित्व को प्रभावित करने में घर-परिवार के साथ-साथ देश दुनिया में घट रही तत्कालीन परिस्थितियाँ भी महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करती हैं।
7 वर्ष की आयु में ही उनके भीतर देश-भक्ति की भावना जागने लगी। जलियांवाला बाग, रौलेट एक्ट, खिलाफत आंदोलन आदि घटनाएँ उसी अवस्था में चेतना में समा रहे थे। काँग्रेस की सभाओं में अपने चाचा के साथ जाने से देश भक्ति की भावना और प्रबल होने लगी। खद्दर पहनने का शौक बचपन में ऐसा जगा कि पूरे जीवन भर खद्दर को स्वयं से अलग न कर सके। गाँधीवादी विचारधारा बचपन में ही मस्तिष्क में छा चुकी थी। छुआ-छूत, जाति-पाति, ऊँच-नीच आदि के प्रति घृणा बचपन से ही मन को कचोट रहे थे। 17 वर्ष की आयु तक आते-आते देशभक्ति की भावना चरम पर पहुँचने लगी। देश के प्रति दीवानगी इस कदर बढ़ने लगी कि विष्णु जी ने निश्चय कर लिया कि वे स्वाधीनता संग्रााम में भाग लेकर रहेंगे और यदि ऐसा सम्भव न हुआ तो परोक्ष रूप से देश के लिए जो भी सेवा करनी होगी वो करेंगे। उन्हीं के शब्दों में-‘‘मैंने निश्चय किया था कि अगर मैं सीधे स्वाधीनता संग्राम में भाग नहीं ले सकता तो परोक्ष रूप से जो कुछ हो सकेगा वह मैं करूँगा। बहुत सोच-समझकर मैंने चार प्रतिज्ञायें ली-1. खद्दर पहनूँगा, 2. हिन्दू-मुस्लिम एकता के लिए प्रयत्न करूँगा, 3. छूतछात की लानत मिटाने के लिए जो कुछ हो सकेगा करूँगा, और 4. हिन्दी के प्रचार और प्रसार के लिए प्रयत्न करूँगा।’’ इस तरह माता-पिता से मिले संस्कार चाचा से मिली देशभक्ति, पत्नी से मिली प्रेरणा और देश में घट रही तत्कालीन घटनाओं ने विष्णु जी के व्यक्तित्व को निर्मित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की।

कृतित्व
बहुमुखी प्रतिभा के धनी विष्णु प्रभाकर जी का हिन्दी साहित्य में महत्त्वपूर्ण योगदान है विष्णु प्रभाकर बहुमुखी प्रतिभा के धनी हैं। एक रचनाकार के रूप में वे नाटक, कहानी, उपन्यास, एकांकी और कथा साहित्य में तो अपनी पहचान बनाते ही हैं, साहित्य की अन्य विधाओं-संस्मरण, जीवनी, आत्मकथा, निबंध, यात्रा वृत्तान्त, बाल-साहित्य, लघु कथा आदि के क्षेत्र में भी अपनी योग्यता का लोहा मनवाते हैं। विष्णु प्रभाकर जी अपनी रचनाओं में‘मानवीय मूल्य’ की रक्षा और स्थापना करते हुए दिखायी देते हैं। उनका सरल स्वभाव, आदर्शवादी और गाँधीवादी विचारधारा उनकी कृतियों को गरिमामयी बनाती है। विष्णु जी के कृतित्व पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है। जिसके अन्तर्गत उनके कथा साहित्य, निबन्ध, नाटक, एकांकी की तो चर्चा की ही गयी है, गद्य की अन्य विधाओं जैसे-संस्मरण, आत्मकथा, जीवनी, रेखाचित्र, लघु कथा तथा बाल साहित्य आदि का परिचयात्मक विवरण प्रस्तुत किया गया है-

कहानी
विष्णु जी की पहली कहानी ‘दिवाली के दिन’ शीर्षक से सन् 1931 ई0 में ‘हिन्दी मिलाप’ नामक पत्रिका में छपी थी। यह विष्णु जी का प्रयास मात्र ही था। इस छोटे से प्रयास ने विष्णु जी के लिए आगे का मार्ग प्रशस्त कर दिया।सरकारी नौकर होने के कारण यह कहानी उन्‍होने ‘प्रेमबन्धु’ के नाम से लिखी थी और वह नवम्बर 1931 के ‘हिन्दी मिलाप’ के किसी रविवारीय संस्करण में प्रकाशित हुई थी।
सन् 1934 ई0 तक आते-आते विष्णु जी की रचनाओं में गम्भीरता आने लगी। ‘अलंकार’, ‘युगान्तर’, ‘प्रताप’, ‘आर्यमित्र’, ‘अभ्युदय’, हंस आदि पत्रिकाओं में उनकी कहानियाँ छपनी शुरू हो र्गइं। सन् 1939 ई0 से लेकर 1943 ई0 तक विष्णु जी की कुछ कहानियाँ काफी चर्चित र्हुइं जिनमें-‘मन ग्रन्थियाँ’, ‘छाती के भीतर’, ‘उलझन में’, ‘अन्दर झाँकों’, ‘कितनी झूठ’, ‘ये उलझने’, ‘तज़रबे’, ‘बाहर भीतर’, ‘मकड़ी का जाला’, ‘बुज़दिल’, ‘अन्तर्चेतन’, ‘द्वन्द्व’ आदि हैं। विष्णु जी ने 300 से अधिक कहानियाँ लिखी हैं जो निम्नलिखित संग्रहों में प्रकाशित हुईं- 1. आदि और अन्त (1945), 2. रहमान का बेटा (1947), 3. ज़िदगी के थपेड़े (1952), 4. संघर्ष के बाद (1968), 5. सफर के साथी (1960), 6. खण्डित पूजा (1960), 7. साँचे और कला (1962), 8. धरती अब भी घूम रही है (1970), 9. मेरी प्रिय कहानियाँ (1970), 10. पुल टूटने से पहले (1977), 11. मेरा वतन (1980), 12. खिलौने (1981), 13. मेरी कथा यात्रा (1984), 14. एक और कुन्ती (1985), 15. जिन्दगी एक रिहर्सल (1986), 16. एक आसमान के नीचे (1989), 17. मेरी प्रेम कहानियाँ (1991), 18. चर्चित कहानियाँ (1993), 19. कफ्र्यू और आदमी (1994), 20. आखिर क्यों (1998), 21. मैं नारी हूँ (दो खण्डों में) (2001), 22. जीवन का एक और नाम (2002), 23. सम्पूर्ण कहानियाँ (आठ भागों में) (2002), 24. ईश्वर का चेहरा (2003) और 25. मेरा बेटा (2005)
इन संग्रहों में संकलित 300 से ज्यादा कहानियाँ हैं, जो भाव और भाषा शैली की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण कहीं जा सकतीं हैं, जिनमें युग-विशेष की झाँकियों का यथार्थ चित्रण स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होता है।

उपन्यास
विष्णु प्रभाकर जी एक उपन्यासकार के रूप में भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं और हिन्दी साहित्य में अपने सात उपन्यासों के माध्यम से अपनी उपस्थिति दर्ज करवाते हैं। उनके उपन्यासों का उल्लेख इस प्रकार किया जा सकता है- 1. निशिकान्त (1955), 2. तट के बंधन (1955), 3. स्वप्नमयी (1956), 4. दर्पण का व्यक्ति (1968), 5. कोई तो (1980), 6. अर्द्धनारीश्वर (1992) (साहित्य अकादमी से सम्मानित) व 7. संकल्प (1993)

नाटक
विष्णु जी ने कई प्रकार के नाटक लिखे हैं जैसे-मनोवैज्ञानिक, ऐतिहासिक, सांस्कृतिक तथा सामाजिक आदि। इन नाटकों की भावभूमि यथार्थ से गहरा सम्बन्ध रखती है। घटनाएँ इनके नाटकों में अहम होती है जो पाठकों को यथार्थ के धरातल पर ले जाकर भाव बोध कराती हैं।विष्णु जी ने अपनी रचनाओं में उन्हीं विषय को आधार बनाया है जिससे वह प्रभावित हुए हैं। यही वजह है कि उनके नाटकों में भारतीय समाज और संस्कृति तथा मानवीय जीवन की विविध झांकियाँ स्पष्ट रूप से दिखायी देती हैं। विष्णु जी के लगभग 14 नाट्य संकलन है जिनमें उनके नाटक संकलित हैं , जो इस प्रकार हैं- 1. नव प्रभात (1951), 2. समाधि (1952), 3. डाॅक्टर (1961), 4. गान्धार की भिक्षुणी (1961), 5. युगे-युगे क्रान्ति (1969), 6. टूटते परिवेश (1974), 7. कुहासा और किरण (1975), 8. टगर (1977)
9. बन्दिनी (1979), 10. अब और नहीं (1981), 11. सत्ता के आर-पार (1981), 12. श्वेत कमल (1984), 13. केरल का क्रांतिकारी (1987) व 14. सूरदास (1997)

रेडियो नाटक
विष्णु प्रभाकर जी ने 200 से अधिक रेडियो नाटक लिखे हैं। उनके रेडियो रूपकों में तत्कालीन समसामयिक समस्याओं का यथार्थ चित्रण देखा जा सकता है। विष्णु जी ने रेडियों के लिए बहुत लिखा। छोटे-छोटे अंकों में उनके रूपक आकाशवाणी से प्रसारित होते थे। 1947 ई0 से 1957 तक उन्होंने रेडियो रूपकों का सृजन किया। ‘वीर पूजा’, ‘पूर्णाहुति’, ‘संस्कार और भावना’, ‘ऊँचा पर्वत गहरा सागर’, ‘मीना कहाँ है’, ‘मुरब्बी’, ‘सड़क’, ‘अशोक’, ‘दस बजे रात’, ‘दो किनारे’, ‘बदलते परिवेश’, ‘विषम रेखा’, ‘जहाँ दया पाप है’, ‘धुँआ’, ‘नहीं नहीं नहीं’, ‘साँप और सीढ़ी’, ‘संस्कार और भावना’, ‘मैं भी मानव हूँ’, ‘शरीर का मोल’, ‘डरे हुए लोग’, ‘लिपस्टिक की मुस्कान’, ‘ धनिया’, ‘नव प्रभात’, ‘सर्वोदय’, ‘शतरंज के मोहरे’, ‘रक्त चंदन’, ‘क्रान्ति का शंखनाद’, ‘मर्यादा’, ‘प्रतिशोध’, ‘यश के दावेदार’, ‘गाँधी जी का सपना’, ‘कमल और कैक्टस’, ‘दो किनारे’, ‘सीमा रेखा’, ‘समाजवादी बनो’, ‘रसोईघर में प्रजातंत्र’, ‘सवेरा’, ‘जज का फैसला’ आदि उनके प्रमुख रेडियो नाटक हैं। विष्णु प्रभाकर जी को एक सफल रेडियो नाटककार कहा जा सकता है-‘‘विष्णु जी के बहुआयामी कृतित्व में से उनका रेडियो नाटक साहित्य सर्वोत्कृष्ट है।

एकांकी
विष्णु जी ने अपना पहला एकांकी ‘हत्या के बाद’ शीर्षक से लिखा था। विष्णु जी का पहला एकांकी संग्रह 1947 में प्रकाशित हुआ था। उनके एकांकी संग्रह इस प्रकार हैं- 1. इंसान और अन्य एकांकी (1947), 2. स्वाधीनता संग्राम (1950), 3. प्रकाश और परछाई (1956), 4. अशोक तथा अन्य एकांकी (1956), 5. बारह एकांकी (1958), 6. दस बजे रात (1959), 7. ये रेखाएं ये दायरे (1963), 8. ऊँचा पर्वत गहरा सागर (1966), 9. मेरे प्रिय एकांकी (1970), 10. मेरे श्रेष्ठ एकांकी (1971), 11. तीसरा आदमी (1974), 12. अब और नहीं (1981), 13. डरे हुए लोग (1978), 14. नए एकांकी (1978), 15. मैं भी मानव हूँ (1982), 16. दृष्टि की खोज (1983), 17. मैं तुम्हें क्षमा करूँगा (1986) व 18. अभया (1987)

निबन्ध संग्रह
विष्णु जी ने कुछ निबन्धों की भी रचना की है। उनके निबन्ध संग्रहों के नाम इस प्रकार हैं- 1. जन समाज और संस्कृति (1981), 2. क्या खोया क्या पाया (1982), 3. कलाकार का सत्य (1991), 4. मेरे साक्षात्कार (1995) व 5. गाँधी समय समाज और संस्कृति (2003) विष्णु प्रभाकर के निबन्ध संग्रहों में संग्रहीत सभी निबन्धों को विचारात्मक निबन्ध कहा जा सकता है। इन निबन्धों में विष्णु जी ने समाज, संस्कृति और मानवीय संवेदनाओं पर विचार व्यक्त किया है।

संस्मरण
विष्णु जी का संस्मरण साहित्य भी अत्यंत समृद्ध है, जिसका विवरण इस प्रकार है- 1. जाने अनजाने (1961), 2. कुछ शब्द कुछ रेखाएँ (1965), 3. मेरे हम सफर (1978), 4. यादों की तीर्थ यात्रा (1981), 5. हम इनके ऋणी हैं (1984), 6. समानान्तर रेखाएँ (1984), 7. राह चलते-चलते (1985), 8. शब्द और रेखाएँ (1989), 9. सृजन के सेतु (1989), 10. हमारे पथ प्रदर्शक (1991), 11. यादों की छांव में (1996), 12. मिलते रहें (1996), 13. उनके जाने के बाद (1998), 14. आकाश एक है (1998), 15. साहित्य के स्वप्न पुरुष (2003) व 16. मेरे संस्मरण

जीवनी
निःसंदेह हिन्दी साहित्य में विष्णु जी की ख्याति उनकी ‘आवारा मसीहा’ को लेकर हुई है। शरत् चन्द्र की जीवनी पर आधारित कृति ‘आवारा मसीहा’ को जितनी लोकप्रियता मिली उतनी हिन्दी की किसी दूसरी जीवनी को नहीं मिली।सन् 1974 में प्रकाशित इस जीवनी को लिखने में विष्णु प्रभाकर जी को 14 वर्ष लग गए। ‘आवारा मसीहा’ के लिए विष्णु जी को कई सारे पुरस्कार भी मिले जिनमें ‘सोवियत लैण्ड नेहरू’ पुरस्कार महत्त्वपूर्ण है। इस जीवनी के लिये सबसे पहला पुरस्कार उन्‍हे लेखकों की एक संस्था ‘राइटर्स यूनियन आफ इंडिया’ की ओर से जनवरी 76 में मिला।दूसरा पुरस्कार अप्रैल 76 में उत्तर प्रदेश शासन की ओर से मिला, उसके साथ 3,000 रुपए की धनराशि भी थी। पुरस्कार का नाम था ‘तुलसी पुरस्कार’। इसके बाद जो तीसरा पुरस्कार अनेक कारणों से महत्त्वपूर्ण था। 15 नवम्बर, 1976 को मुझे ‘सोवियत लैण्ड नेहरू पुरस्कार’ देने की घोषणा की गई। इस प्रकार इस जीवनी का जैसा भव्य स्वागत हुआ वैसा किसी दूसरे के हिस्से में नहीं आया। इस कृति का महत्व आज भी कम नहीं हुआ है। हिन्दी साहित्य में उसकी चमक बरकरार है। एक तरफ विष्णु जी जहाँ कथा साहित्य के क्षेत्र में अपनी योग्यता दर्ज करवाते हैं तो वहीं इस विधा में भी अपना लोहा मनवाते हैं। वैसे तो हिन्दी-साहित्य में और भी जीवनियाँ लिखी गयी हैं लेकिन जो प्रसिद्धि ‘आवारा मसीहा’ को मिली वैसी किसी और जीवनी के हिस्से में नहीं आयी। इसके अतिरिक्त विष्णु जी ने ‘सरदार वल्लभ भाई पटेल (1974)’, ‘अमर शहीद भगत सिंह (1976)’, ‘काका कालेलकर (1985)’ तथा ‘स्वामी दयानन्द सरस्वती (1989)’ की भी जीवनियाँ लिखी हैं।

यात्रा वृतांत
अपने जीवन में अनेक यात्रा करने वाले विष्णु प्रभाकर जी ने भारत की संस्कृति, सभ्यता तथा प्राकृतिक सुन्दरता को बहुत करीब से देखा है। आपने अपनी यात्रा से सम्बन्धित जो वृत्तान्त लिखे हैं वो भारतीय संस्कृति तथा प्राकृतिक सौंदर्य से साक्षात्कार कराता है- 1. गंगा जमुना के नैहर में (1964), 2. अभिमान और यात्रा (सं0) (1964) 3. हिमशिखरों की छाया में (1981) व 4. ज्योतिपुंज हिमालय (1982)

बाल-साहित्य
विष्णु प्रभाकर बाल-रचनाकार भी हैं उन्हें बच्चों से बेहद स्नेह और लगाव रहा। इन्होने बच्चों के मनोरंजन के लिए कई सारे नाटक एकांकी तथा कहानियाँ आदि लिखे हैं। जो मनोरंजन के साथ-साथ उन्हें संदेश भी देते हैं। उनके बाल-साहित्य इस प्रकार है-‘मोटे लाल (1955)’, ‘कुन्ती के बेटे (1958)’, ‘दादा की कचहरी (1959)’, ‘रामू की होली (1959)’, ‘अभिनव एकांकी (1969)’, ‘अभिनव बाल एकांकी (1968)’, ‘एक देश एक हृदय (1971)’, ‘हड़ताल (1972)’, ‘जादू की गाय (1972)’, ‘नूतन बाल एकांकी (1975)’, ‘हीरे की पहचान (1976)’, ‘ऐसे-ऐसे (1978)’, ‘गुड़िया खो गई (1981)’, ‘बाल वर्ष जिन्दाबाद (1984)’, ‘गजनंद लाल के कारनामे (2000)’, ‘मोती किसके (2000)’, ‘दो मित्र (2000)’, ‘घमण्ड का फल (1973)’, ‘शरतचन्द का बचपन (1990)’, ‘पाप का घड़ा (1976)’, ‘प्रेरक बाल कथाएँ (2003)’।
इसके साथ ही साथ विष्णु जी ने-‘बापू की बातें (1954)’, ‘बन्द्री नाथ (1959)’, ‘कस्तूरबा गाँधी (1955)’, ‘हजरत उमर (1955)’, ‘सरल पंचतंत्र (1955)’, ‘बाजी प्रभु देश पाण्डे (1957)’, ‘हमारे पड़ोसी (1957)’, ‘मन के जीते जीत (1957)’, ‘हरूँउल रसीद (1957)’, ‘मुरब्बी (1957)’, ‘ऐसे थे सरदार (1957) ‘शंकराचार्य (1959)’, ‘कुम्हार की बेटी (1959)’, ‘बद्री नाथ (1959)’, ‘मानव अधिकार (1960)’, ‘यमुना की कहानी (1960)’, ‘रविन्द्र नाथ टैगोर (1961)’, ‘पहला सुख निरोगी काया (1963)’, ‘मैं अछूत हूँ (1968)’, ‘नागरिकता की ओर पंचायत राज रूपक (1959)’ आदि भी लिखे जो विविधा के अन्तर्गत आते हैं।

विभिन्न पुरस्कार एवं सम्मान
विष्णु जी को साहित्य जगत में कई महत्त्वपूर्ण पुरस्कारों से सम्मानित किया गया। एक तरफ ‘आवारा मसीहा’ के लिए जहाँ उन्हें ‘तुलसी पुरस्कार’ तथा ‘सोवियत लैण्ड पुरस्कार’ दिया गया तो वहीं ‘अर्द्धनारीश्वर’ उपन्यास के लिए ‘साहित्य अकादमी’ से सम्मानित किया गया जो विष्णु जी के ‘व्यक्तित्व और ‘कृतित्व’ की महानता का बोध कराता है। साहित्य जगत में उनके योगदान के लिए मिलने वाले पुरस्कारों की निम्न इस प्रकार है- 1. ‘‘इण्टर नेशनल ह्यूमनिस्ट अवार्ड, 2. पाब्लो नेरूदा, 3. सोवियत लैण्ड पुरस्कार, 4. तुलसी पुरस्कार, 5. सुर पुरस्कार, 6. राष्ट्रीय एकता पुरस्कार, 7. शब्द शिल्पी पुरस्कार, 8. भारतेन्दु हरिश्चन्द्र पुरस्कार, 9. साहित्य वाचस्पति, 10. साहित्यकार शिरोमणि, 11. मूर्तिदेवी पुरस्कार, 12. बेनीपुरी पुरस्कार, 13. शलाका सम्मान, 14. लघुकथा रत्न, 15. महाराष्ट्र भारती, 16. कॉफी हाउस सम्मान, 17. विशिष्ट सेवा सम्मान, 18. श्रेष्ठ कला आचार्य सम्मान, 19. मित्र रत्न, 20. हिन्दी भाषा साहित्यिक पुरस्कार, 21. साहित्य अकादमी पुरस्कार, 22. शरत पुरस्कार, 23. ताम्रपत्र, 24. महात्मा गांधी जीवन दर्शन एवं साहित्य सम्मान, 25. शरत् मेमोरियल मेडल, 26. राहुल सांकृत्यायन यायावरी पुरस्कार, 27. अनाम देवी सम्मान, 28. यशपाल जैन स्मृति पुरस्कार, 29. साहित्य मार्तण्ड, 30. राजेन्द्र बाबू शिखर सम्मान व 31. पद्म भूषण’’ है।
विष्णु प्रभाकर को इसके साथ-साथ न जाने कितने अनगिनत ‘सम्मान’, ‘पदक’ एवं पुरस्कारों से उन्हें नवाजा गया है। इसके अलावा साहित्य की विभिन्न संस्थाओं ने विष्णु प्रभाकर जी को आजीवन सदस्यता भी प्रदान की है। वे विश्व हिन्दी सम्मेलनों तथा भाषा शिक्षण संस्थाओं के प्रचार-प्रसार में विशेष प्रतिनिधि के तौर पर अपनी सदस्यता भी दर्ज करा चुके हैं। विष्णु जी का ‘कृतित्व’ बहुत विशाल व्यापक एवं समृद्ध है। इससे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि हिन्दी साहित्य में विष्णु प्रभाकर जी का स्थान कितना महत्त्वपूर्ण है। विष्णु जी ने जब कलम पकड़ा देश में स्वाधीनता आन्दोलन चरम पर था। आर्य समाज तथा गाँधीवादी विचारधारा से वे प्रभावित थे अतः इन विचारधाराओं का पूरा प्रभाव उनकी रचनाओं पर भी पड़ा।

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