भीष्म द्वादशी की पौराणिक कथा
भीष्म द्वादशी के बारे में प्रचलित एवं पौराणिक कथा के अनुसार राजा शांतनु की रानी गंगा ने देवव्रत नामक पुत्र को जन्म दिया और उसके जन्म के बाद गंगा शांतनु को छोड़कर चली जाती हैं, क्योंकि उन्होंने ऐसा वचन दिया था। शांतनु गंगा के वियोग में दुखी रहने लगते हैं। परंतु कुछ समय बीतने के बाद शांतनु गंगा नदी पार करने के लिए मत्स्यगंधा नाम की कन्या की नाव में बैठते हैं और उसके रूप-सौंदर्य पर मोहित हो जाते हैं।
राजा शांतनु कन्या के पिता के पास जाकर उनकी कन्या के साथ विवाह करने का प्रस्ताव रखते हैं। परंतु मत्स्यगंधा के पिता राजा शांतनु के समक्ष एक शर्त रखते हैं कि उनकी पुत्री को होने वाली संतान ही हस्तिनापुर राज्य की उत्तराधिकारी बनेगी, तभी यह विवाह हो सकता है। यही (मत्स्य गंधा) आगे चलकर सत्यवती नाम से प्रसिद्ध हुई।
राजा शांतनु यह शर्त मानने से इनकार करते हैं, लेकिन वे चिंतित रहने लगते हैं। देवव्रत को जब पिता की चिंता का कारण मालूम पड़ता है तो वह अपने पिता के समक्ष आजीवन अविवाहित रहने का संकल्प लेते हैं। पुत्र की इस प्रतिज्ञा को सुनकर राजा शांतनु उन्हें इच्छा मृत्यु का वरदान देते हैं। इस प्रतिज्ञा के कारण ही देवव्रत, भीष्म पितामह के नाम से प्रसिद्ध हुए।
जब महाभारत का युद्ध होता है तो भीष्म पितामह कौरवों की तरफ से युद्ध लड़ रहे होते हैं और भीष्म पितामह के युद्ध कौशल से कौरव जीतने लगते हैं, तब भगवान श्रीकृष्ण एक चाल चलते हैं और शिखंडी को युद्ध में उनके समक्ष खड़ा कर देते हैं। अपनी प्रतिज्ञा अनुसार शिखंडी पर शस्त्र न उठाने के कारण भीष्म युद्ध क्षेत्र में अपने शस्त्र त्याग देते हैं। जिससे अन्य योद्धा अवसर पाते ही उन पर तीरों की बौछार शुरू कर देते हैं। महाभारत के इस महान योद्धा ने शर शय्या पर शयन किया।
इसलिए कहा जाता है कि सूर्य दक्षिणायन होने के कारण शास्त्रीय मतानुसार भीष्म ने अपने प्राण नहीं त्यागे और सूर्य के उत्तरायण होने पर अपने नश्वर शरीर का त्याग किया। उन्होंने अष्टमी को अपने प्राण त्याग दिए थे। उनके पूजन के लिए माघ मास की द्वादशी तिथि निश्चित की गई है, इसलिए इस तिथि को भीष्म द्वादशी कहा जाता है। भगवान ने यह व्रत भीष्म पितामह को बताया था और उन्होंने इस व्रत का पालन किया था, जिससे इसका नाम भीष्म द्वादशी पडा। यह व्रत एकादशी के ठीक दूसरे दिन द्वादशी को किया जाता है। यह व्रत समस्त बीमारियों को मिटाता है। इस उपवास से समस्त पापों का नाश होकर मनुष्य को अमोघ फल की प्राप्ति होती है।
भीष्म द्वादशी व्रत का महत्व
माघ माह के शुक्ल पक्ष की द्वादशी तिथि को भीष्म द्वादशी के नाम से जाना जाता है। इस द्वादशी को गोविंद द्वादशी भी कहते हैं। इस व्रत को करने वालों को संतान की प्राप्ति होकर समस्त धन-धान्य, सौभाग्य का सुख मिलता है। पद्म पुराण में माघ मास के महात्म्य का वर्णन करते हुए कहा गया है कि पूजा करने से भी भगवान श्री हरि को उतनी प्रसन्नता नहीं होती, जितनी कि माघ महीने में स्नान मात्र से होती है। इसलिए सभी पापों से मुक्ति और भगवान वासुदेव की प्रीति प्राप्त करने के लिए प्रत्येक मनुष्य को माघ स्नान करना चाहिए। इस दिन सुबह स्नानादि से निवृत्त होकर व्रत का संकल्प लें। भगवान विष्णु जी की केले के पत्ते, पंच मृत, सुपारी, पान, तिल, मौली, रोली, कुमकुम, फल आदि से पूजन करें। पूजन के लिए दूध, शहद, केला, गंगाजल, तुलसी पत्ता, मेवा मिलाकर पंचामृत का प्रसाद बनाकर भगवान को भोग लगाएं तथा भीष्म द्वादशी की कथा सुनें अथवा पढ़ें। इस दिन विष्णु जी के साथ देवी लक्ष्मी का पूजन तथा स्तुति करें और पूजन के पश्चात चरणामृत एवं प्रसाद का वितरण करें। ब्राह्मणों को भोजन कराकर दान में दक्षिणा एवं तिल अवश्य दें। ब्राह्मण भोजन के बाद ही स्वयं भोजन करें। इस दिन 'ॐ नमो भगवते वासुदेवाय नमः' का जाप किया जाना चाहिए। इस दिन भगवान विष्णु के साथ मां लक्ष्मी की आराधना करनी चाहिए ताकि यह व्रत सफल हो सकें।
पूजा विधि
- भीष्म द्वादशी की सुबह स्नान आदि करने के बाद व्रत का संकल्प लें।
- भगवान की पूजा में केले के पत्ते व फल, पंच मृत, सुपारी, पान, तिल, मौली, रोली, कुमकुम, दूर्वा का उपयोग करें।
- पूजा के लिए दूध, शहद केला, गंगाजल, तुलसी पत्ता, मेवा मिलाकर पंचामृत तैयार कर प्रसाद बनाएं व इसका भोग भगवान को लगाएं।
- इसके बाद भीष्म द्वादशी की कथा सुनें।
- देवी लक्ष्मी समेत अन्य देवों की स्तुति करें तथा पूजा समाप्त होने पर चरणामृत एवं प्रसाद का वितरण करें।
- ब्राह्मणों को भोजन कराएं व दक्षिणा दें।
- ब्राह्मणों को भोजन कराने के बाद ही स्वयं भोजन करें और सम्पूर्ण घर-परिवार सहित अपने कल्याण धर्म, अर्थ, मोक्ष की कामना करें।
भीष्म द्वादशी के व्रत से होती से संतान की उन्नति और मिलता है सौभाग्य
पितामह भीष्म महाभारत के एक प्रमुख पात्र थे। भीष्म का बचपन में नाम देवव्रत था और वो राजा शांतनु की रानी गंगा के सुपुत्र थे। देवव्रत के जन्म के साथ ही उनकी माता उनको छोड़कर चली गई थी। इस कारण महाराज शांतनु हमेशा दुखी रहते थे। तभी महाराज शांतनु एक मत्स्यगंधा नाम की कन्या को दिल दे बैठे। महाराज शांतनु ने मत्स्यगंधा के पिता के सामने उससे विवाह का प्रस्ताव रखा। तब मत्स्यगंधा के पिता ने कहा कि विवाह इसी शर्त पर होगा कि मत्स्यगंधा की संतान हस्तिनापुर राज्य के सिंहासन पर बैठेगी। शांतनु ने ऐसा वचन देने से इंकार कर दिया, लेकिन मत्स्यगंधा उनके दिल में बसी हुई थी इसलिए वो उसको लेकर परेशान रहने लगे। देवव्रत को जब पिता की इस चिंता का पता चला तो उन्होंने अपने पिता के सामने आजीवन अविवाहित रहने का संकल्प ले लिया। पुत्र के इस तरह से प्रतिज्ञा लेने पर पिता शांतनु ने उनको इच्छा-मृत्यु का वरदान दिया। देवव्रत आगे चलकर भीष्म के नाम से प्रसिद्ध हुए।
मान्यता
मान्यता है कि भीष्म द्वादशी का व्रत करने से सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं। भीष्म द्वादशी पर भगवान विष्णु के साथ मां लक्ष्मी की आराधना करें। ब्राह्मणों को भोजन कराएं व सामर्थ्य के अनुसार दक्षिणा दें। इस दिन स्नान-दान करने से सुख-सौभाग्य, धन-संतान की प्राप्ति होती है। ब्राह्मणों को भोजन कराने के बाद ही स्वयं भोजन करें। इस उपवास से समस्त पापों का नाश होता है। भीष्म द्वादशी का उपवास संतोष प्रदान करता है।
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