काला पानी जाने वाले जहाज पर डकैत और खूनी लोगों के साथ सावरकर जी को क अँधेरे कमरे में रखा गया। सौ से अधिक लोग वही एक कमरें मे कैद थे। सभी के स्वच्छतागृह की व्यवस्था नहीं थी। जिस कोने में मल का ड्राम भरा था उसी के पास सावरकर जी को बिस्तर डालना पड़ा। दुर्गन्ध के कारण उनकी नींद हराम हो गई। उनकी बेचैनी देखकर एक घुटा हुआ कैदी उनसे बोला.. बड़े भैया हम लोगों को इसकी आदत सी पड़ गई है। आप उस कोने मे सोइये.. वहाँ भीड़ जरूर है पर गन्दगी नहीं है... यह मैं सो जाता हूँ.. आप मेरी जगह जाइये।
उसकी इस बात को सुनकर सावरकर जी बड़े प्रभावित हुए और बोल उठे... धन्यवाद ! सभी को नाक है और नाक है तो बदबू तो आयेगी ही। आपको भी परेशानी होगी। अब तो मुझे भी काले पानी की सजा भुगतनी है तो मुझे भी ऐसी बातों की आदत करनी ही पड़ेगी.. और यह कह कर यात्रा के अंत तक सावरकर जी वही रहे।
इस प्रेरक प्रसंग से हमें यह शिक्षा मिलती है कि कोई कैसा भी हो.. उच्च वर्गीय या मध्यमवर्गीय सभी को एक समान समझना चाहिये... परिस्थितियाँ कैसी भी हो हमें परिस्थिति के अनुसार ही आपने को ढालना चाहिये।
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