मुहावरे और लोकोक्तियाँ (Idioms and Proverbs)



हिंदी मुहावरे और लोकोक्तियाँ
विश्व की सभी भाषाओं में लोकोक्तियों का प्रचलन है। प्रत्येक समाज में प्रचलित लोकोक्तियाँ अलिखित कानून के रूप में मानी गई हैं। मनुष्य अपनी बात को और अधिक प्रभावपूर्ण बनाने के लिए इनका प्रयोग करता है।लोकोक्ति शब्द लोक+उक्ति के योग से निर्मित हुआ है। लोक में पीढ़ियों से प्रचलित इन उक्तियों में अनुभव का सार एवं व्यावहारिक नीति का निचोड़ होता है। अनेक लोकोक्तियों के निर्माण में किसी घटना विशेष का विशेष योगदान होता है और उसी कोटि की स्थिति परिस्थिति के समय उस लोकोक्ति का प्रयोग स्थिति या अवस्था के स्पष्टीकरण हेतु किया जाता है, जो उस सम्प्रदाय या समाज को सहर्ष स्वीकार्य होता है। मुहावरा एक ऐसा वाक्यांश होता है जिसके प्रयोग से अभिव्यक्ति-कौशल में अभिवृद्धि होती है। प्रायः मुहावरे के अंत में क्रिया का सामान्य रूप प्रयुक्त होता है। जैसे - i. नाकों चने चबाना , ii. दाँतों तले उँगली दबाना।

अंतर: लोकोक्ति का अपर नाम ‘कहावत’ भी है। लोकोक्ति जहाँ अपने आप में पूर्ण होती है और प्रायः प्रयोग में एक वाक्य के रूप में ही प्रयुक्त होती है, जबकि मुहावरा वाक्यांश मात्र होता है। लोकोक्ति का रूप प्रायः एक सा ही रहता है, जब कि मुहावरे के स्वरूप में लिंग, वचन एवं काल के अनुसार परिवर्तन अपेक्षित होता है।

मुहावरे एवं लोकोक्तियाँ
मुहावरे व लोकोक्तियाँ
मुहावरे व लोकोक्तियाँ
मुहावरे
मुहावरे हमारी तीव्र हृदयानुभूति को अभिव्यक्त करने में सहायक होते हैं। इनका जन्म आम लोगों के बीच होता है। लोक-जीवन में प्रयुक्त भाषा में इनका उपयोग बड़े ही सहज रूप में होता है। इनके प्रयोग से भाषा को प्रभावशाली, मनमोहक तथा प्रवाहमयी बनाने में सहायता मिलती है। सदियों से इनका प्रयोग होता आया है और आज इनके अस्तित्व को भाषा से अलग नहीं किया जा सकता। यह कहना निश्चित रूप से गलत नहीं होगा कि मुहावरों के बिना भाषा अप्राकृतिक तथा निर्जीव जान पड़ती है। इनका प्रयोग आज हमारी भाषा अौर विचारों की अभिव्यक्ति का एक अभिन्न तथा महत्वपूर्ण अंग बन गया है। यही नहीं इन्होेंने हमारी भाषा को गहराई दी है तथा उसमें सरलता तथा सरसता भी उत्पन्न की है। यह मात्र सुशिक्षित या विद्वान लोगों की ही धरोहर नहीं है, इसका प्रयोग अशिक्षित तथा अनपढ़ लोगों ने भी किया है। इस प्रकार ये वैज्ञानिक युग की देन नहीं है। इनका प्रयोग तो उस समय से होने लगा, जिस समय मनुष्य ने अपने भावों को अभिव्यक्ति देने का प्रयास किया था।
  1. अपना उल्लू सीधा करना : स्वार्थ सिद्ध करना
  2. अपनी खिचड़ी अलग पकाना: सबसे अलग रहना
  3. अपने मुँह मियाँ मिट्ठू बनना: अपनी प्रशंसा स्वयं करना
  4. अपने पाँव पर कुल्हाड़ी मारना: स्वयं को हानि पहुँचाना
  5. अपने पैरो पर खड़े होना : आत्मनिर्भर होना
  6. अक्ल पर पत्थर पड़ना : बुद्धि भ्रष्ट होना
  7. अक्ल के पीछे लट्ठ लेकर फिरना : मूर्खता प्रदर्शित करना
  8. अँगूठा दिखाना : कोई वस्तु देने या काम करने से इनकार करना
  9. अंधे की लकड़ी होना : एकमात्र सहारा
  10. अच्छे दिन आना : भाग्य खुलना
  11. अंग-अंग फूले न समाना : बहुत खुशी होना
  12. अंगारों पर पैर रखना : साहस पूर्ण खतरे में उतरना
  13. आँख का तारा होना: बहुत प्यारा
  14. आँखें बिछाना: अत्यन्त प्रेम पूर्वक स्वागत करना
  15. आँखें खुलना : वास्तविकता का बोध होना
  16. आँखों से गिरना: आदर कम होना
  17. आँखों में धूल झोंकना : धोखा देना
  18. आँख दिखाना: क्रोध करना/डराना
  19. आटे दाल का भाव मालूम होना : बड़ी कठिनाई में पड़ना
  20. आग बबूला होना : बहुत गुस्सा होना
  21. आग से खेलना : जानबूझकर मुसीबत मोल लेना
  22. आग में घी डालना: क्रोध भड़काना
  23. आँच न आने देना : हानि या कष्ट न होने देना
  24. आड़े हाथों लेना : खरी-खरी सुनाना
  25. आनाकानी करना : टालमटोल करना
  26. आँचल पसारना : याचना करना
  27. आस्तीन का साँप होना : कपटी मित्र
  28. आकाश के तारे तोड़ना : असंभव कार्य करना
  29. आसमान से बातें करना: बहुत ऊँचा होना
  30. आकाश सिर पर उठाना: बहुत शोर करना
  31. आकाश पाताल एक करना : कठिन प्रयत्न करना
  32. आँख का काँटा होना : बुरा लगना
  33. आँसू पीकर रह जाना : भीतर ही भीतर दुखी होना
  34. आठ-आठ आँसू गिराना: पश्चाताप करना
  35. इधर-उधर की हाँकना : बेमतलब की बातें करना
  36. इतिश्री होना : समाप्त होना
  37. इस हाथ लेना उस हाथ देना: हिसाब-किताब साफ करना
  38. ईद का चाँद होना: बहुत दिनों बाद दिखाई देना
  39. ईंट से ईंट बजाना: नष्ट कर देना
  40. ईंट का जवाब पत्थर से देना : कड़ाई से पेश आना
  41. आँसू पोंछना : सांत्वना देना
  42. आँखें तरेरना : क्रोध से देखना
  43. आकाश टूट पड़ना: अचानक विपत्ति आना
  44. आग लगने पर कुआँ खोदना: ऐन मौके पर उपाय करना
  45. उंगली उठाना: निंदा करना/लांछन लगाना
  46. उन्नीस-बीस का फर्क होना : मामूली फर्क होना
  47. उल्टी गंगा बहाना : प्रचलन के विपरीत कार्य करना
  48. उड़ती चिड़िया पहचानना : बहुत अनुभवी होना
  49. उल्लू बनाना : मूर्ख बनाना
  50. उँगली पर नचाना : वश में करना
  51. उल्लू सीधा करना : अपना स्वार्थ देखना
  52. एक और एक ग्यारह होना : एकता में शक्ति होना
  53. एक लाठी से हाँकना : सबसे एक जैसा व्यवहार करना
  54. एक आँख से देखना : समदृष्टि होना/भेदभाव न करना
  55. एड़ी चोटी का जोर लगाना : बहुत कोशिश करना
  56. एक ही थाली के चट्टे-बट्टे होना : एक प्रवृत्ति के होना
  57. ओखली में सिर देना : जानबूझकर विपत्ति में फँसना
  58. ओढ़ लेना : जिम्मेदारी लेना
  59. और का और होना: एकदम बदल जाना
  60. औने-पौने बेचना : हानि उठाकर बेचना
  61. औघट घाट चलना: सही रास्ते पर न चलना
  62. कंचन बरसना: चारों ओर खूब धन मिलना
  63. काट खाना : सूने पन का अनुभव
  64. किस्मत ठोकना : भाग्य को कोसना
  65. कंठ का हार होना: प्रिय बनना
  66. काम में हाथ डालना : काम शुरू करना
  67. कूप मण्डूक होना : अल्पज्ञ होना
  68. कुएं में भाँग पड़ना: सब की बुद्धि मारी जाना
  69. कन्नी काटना: आँख बचाकर खिसक जाना
  70. कसौटी पर कसना: परीक्षण करना
  71. कलेजा मुँह को आना : व्याकुल होना/बहुत परेशान होना
  72. कलेजा ठंडा होना: संतुष्ट होना
  73. काम आना : युद्ध में मारा जाना
  74. कान खाना : शोर करना/परेशान करना
  75. कान भरना : चुगली करना
  76. कान में तेल डालना : शिक्षा पर ध्यान न देना/अनसुना करना
  77. कफन सिर पर बाँधना : लड़ने मरने को तैयार होना
  78. किं कर्तव्य विमूढ़ होना : कोई निर्णय न कर पाना
  79. कमर कसना : तैयार होना
  80. कोल्हू का बैल होना : हर समय श्रम करने वाला
  81. कलेजा टूक-टूक होना : दुःख पहुँचना
  82. कान कतरना : बहुत चतुराई दिखाना
  83. काम तमाम कर देना : मार देना
  84. कीचड़ उछालना : कलंक लगाना/नीचा दिखाना
  85. कंधे से कंधा मिलाकर चलना : साथ देना
  86. कच्चा-चिट्ठा खोलना : भेद खोलना
  87. कौड़ी के मोल बिकना : बहुत सस्ता होना
  88. कान का कच्चा होना : जल्दी बहकावे में आना
  89. कान पर जूँ न रेंगना : कोई असर न होना
  90. खून खौलना : गुस्सा आना
  91. खून के घूँट पीना : गुस्सा मन में दबा लेना
  92. खून पसीना एक करना: बहुत मेहनत करना
  93. खाक छानना: भटकना/काफी खोज करना
  94. खेत रहना : युद्ध में मारे जाना
  95. खाक में मिलना : बर्बाद होना
  96. खाक में मिलाना : बर्बाद करना
  97. खून-सूखना : भयभीत होना
  98. कठपुतली की तरह नाचना : किसी के वश में होना
  99. कब्र में पाँव लटकना : मौत के करीब होना
  100. कलम तोड़ना: अत्यधिक मर्मस्पर्शी रचना करना
  101. कलेजा छलनी करना : ताने मारना/व्यंग्य करना
  102. कलेजा थामकर रह जाना : असह्य बात सहन कर रह जाना
  103. कलेजे का टुकड़ा होना: अत्यंत प्रिय/आत्मिक होना
  104. कागज की नाव होना : क्षणभंगुर
  105. कागजी घोड़े दौड़ाना : केवल कागजी कार्यवाही करना
  106. कानों कान खबर न होना : किसी को पता न चलना
  107. कुत्ते की मौत मरना : बुरी दशा में प्राणांत होना
  108. कमर टूटना : सहारा न रहना
  109. कान भरना : किसी के विरूद्ध शिकायत करते रहना
  110. किसी का घर जलाकर अपना हाथ सेंकना: अपने छोटे से स्वार्थ के लिए दूसरों को हानि पहुँचाना
  111. कटे पर नमक छिड़कना: दुखी को और अधिक दुखी करना
  112. गुदड़ी का लाल होना : छुपा रुस्तम/गरीब किन्तु गुणवान
  113. गड़े मुर्दे उखाड़ना : बीती बातें छेड़ना
  114. गले पड़ना : जबरन आश्रय लेना
  115. गंगा नहाना : दायित्व से मुक्ति पाना
  116. गिरगिट की तरह रंग बदलना : अवसरवादी होना/निश्चय बदलना
  117. गुड़ गोबर होना : काम बिगड़ना
  118. गुड़ गोबर करना : काम बिगाड़ना। किया कराया नष्ट करना
  119. गुलछर्रे उड़ाना : मौज उड़ाना
  120. गाल बजाना : अपनी प्रशंसा करना
  121. गागर में सागर भरना : थोड़े में बहुत कुछ कह देना
  122. गांठ में कुछ न होना : पैसा पास न होना
  123. गला काटना : लोभ में पड़कर हानि पहुँचाना
  124. गर्दन पर छुरी फेरना : अत्याचार करना
  125. घाट-घाट का पानी पीना : स्थान-स्थान का अनुभव होना
  126. घाव पर नमक छिड़कना : दुखी को और दुखी करना
  127. घड़ों पानी पड़ना : बहुत लज्जित होना
  128. घी के दीये जलाना : बहुत खुश होना/खुशियाँ मनाना
  129. घर फूँक कर तमाशा देखना: अपना लुटाकर भी मौज करना/अपने नुकसान पर प्रसन्न होना
  130. घर सिर पर उठाना : बहुत शोर करना
  131. घोड़े बेचकर सोना : निश्चिंत होना
  132. घुटने टेक देना : हार मान लेना
  133. चादर के बाहर पैर पसारना : आय से अधिक व्यय करना
  134. चंगुल में फँसना : किसी के काबू में होना
  135. चोली दामन का साथ होना : घनिष्ठ सम्बन्ध होना
  136. चेहरे पर हवाइयाँ उड़ना : घबरा जाना
  137. चिकनी चुपड़ी बातें करना : चापलूसी करना/कपट व धोखा
  138. चुल्लू भर पानी में डूब मरना : बहुत शर्मिन्दा होना
  139. चिकना घड़ा होना : अत्यन्त बेशर्म
  140. चूड़ियाँ पहनना : कायरता दिखाना
  141. चकमा देना : धोखा देना
  142. चौपट करना : पूर्ण रूप से नष्ट करना
  143. चारों खाने चित्त होना : बुरी तरह हारना
  144. चैन की बंसी बजाना : आराम से रहना
  145. चूना लगाना : धोखा देकर ठगना
  146. चार चाँद लगाना : शोभा बढ़ाना
  147. चम्पत होना : गायब होना
  148. छठी का दूध याद आना : बड़ी मुसीबत में फंसना
  149. छाती ठोकना: उत्साहित होना
  150. छप्पर फाड़कर देना: बिना परिश्रम देना
  151. छाती पर मूँग दलना : बहुत परेशान करना
  152. छोटे मुँह बड़ी बात करना : अपनी हैसियत से ज्यादा बात करना
  153. छाती पर साँप लोटना : अत्यन्त ईर्ष्या करना
  154. छक्के छुड़ाना: पैर उखाड़ देना/बेहाल करना
  155. छाती पर पत्थर रखना : हृदय कठोर करना
  156. जले पर नमक छिड़कना : दुःखी का दुःख बढ़ाना
  157. जान हथेली पर रखना : मरने की परवाह न करना
  158. जमीन पर पैर न पड़ना: बहुत गर्व करना
  159. जान में जान आना: धीरज बँधाना/मुसीबत से छुटकारा पाना
  160. जबानी जमा खर्च करना : गप्पें लड़ाना
  161. जबान पर लगाम लगाना : बहुत कम बोलना
  162. जहर का घूँट पीना : कड़वी बात सुनकर सहन कर लेना
  163. जीती मक्खी निगलना : जानबूझकर बेईमानी करना
  164. जान पर खेलना : साहस पूर्ण कार्य करना
  165. जूता चाटना : चापलूसी करना
  166. जहर उगलना: कड़वी बात कहना
  167. झख मारना : समय नष्ट करना
  168. झगड़ा मोल लेना : विवाद में जानबूझकर पड़ना
  169. जी तोड़ कर काम करना : बहुत मेहनत करना
  170. जी भर आना: दया उमड़ना/चित्त में दुख होना
  171. टोपी उछालना : अपमानित करना
  172. टेढ़ी-खीर होना : कठिन काम
  173. टका सा जवाब देना : साफ इनकार करना
  174. टेक निभाना : वचन पूरा करना
  175. टट्टी की आड़ में शिकार खेलना : छिपकर षड्यंत्र रचना
  176. टाट उलट देना : दिवाला निकाल देना
  177. टाँग अड़ाना : व्यर्थ दखल देना
  178. ठगा सा रह जाना: किंकर्त्तव्य विमूढ़ होना/विस्मित रह जाना
  179. ठकुर सुहाती बातें करना : चापलूसी करना
  180. ठिकाने लगाना : नष्ट कर देना
  181. डूबते को तिनके का सहारा देना: मुसीबत में थोड़ी सहायता भी लाभप्रद
  182. डकार जाना : हड़प लेना/हजम कर जाना
  183. डींग हाँकना : झूठी बड़ाई करना
  184. डूब मरना : शर्म से झुक जाना
  185. डेढ़ चावल की खिचड़ी पकाना: अपना मत अलग ही रखना
  186. डंका बजना : प्रभाव होना
  187. ढिंढोरा पीटना: प्रचार करना/सूचना देना
  188. ढोल में पोल होना: थोथा या सारहीन
  189. ढोल पीटना : अत्यधिक प्रचार करना
  190. तलवे चाटना : खुशामद करना
  191. तिल का ताड़ करना : छोटी सी बात को बहुत बढ़ा देना
  192. तूती बोलना : खूब प्रभाव होना
  193. तोते उड़ जाना : घबरा जाना
  194. तेवर चढ़ाना : नाराज होना/त्यौरी बदलना
  195. तलवार के घाट उतारना : मार डालना
  196. तिलांजलि देना : त्याग देना/छोड़ देना
  197. तितर-बितर होना : अलग-अलग होना
  198. तारे गिनना : बेचैनी में रात काटना
  199. तीन तेरह करना : तितर-बितर करना
  200. थूक कर चाटना : अपने वचन से मुकरना
  201. थैली खोलना: जी खोल कर खर्च करना
  202. थू-थू करना : घृणा प्रकट करना
  203. दूध का दूध पानी का पानी करना : ठीक न्याय करना
  204. दौड़ धूप करना : खूब प्रयत्न करना
  205. दाँत खट्टे करना : परेशान करना/हरा देना
  206. दाने-दाने को तरसना : बहुत गरीब होना
  207. दाल में काला होना : छल/कपट होना/संदेहपूर्ण होना
  208. दीया लेकर ढूँढना : अच्छी तरह खोजना
  209. दुम दबाकर भागना: डर कर भाग जाना
  210. दाल गलना : काम बनना
  211. दिन में तारे दिखाई देना : घबरा जाना
  212. दाँतों तले उँगली दबाना: आश्चर्यचकित होना
  213. दो-दो हाथ करना: द्वन्द्व युद्ध/अंतिम निर्णय हेतु तैयार होना
  214. दो टूक जवाब देना : स्पष्ट कहना
  215. दिन-रात एक करना : खूब परिश्रम करना
  216. द्रोपदी का चीर होना : अनन्त/अन्त हीन
  217. दिमाग आसमान पर चढ़ना : अत्यधिक गर्व होना
  218. दाँत काटी रोटी होना : अत्यधिक स्नेह होना
  219. दोनों हाथों में लड्डू होना : सर्वत्र लाभ ही लाभ होना
  220. दूसरे के कंधे पर रखकर बंदूक चलाना: दूसरे को माध्यम बनाकर काम करना
  221. दिल छोटा करना : दुखी होना, निराश होना
  222. दिन फिरना : अच्छा समय आना
  223. धूप में बाल सुखाना : अनुभवहीन होना
  224. धाक जमाना : रोब जमाना/प्रभाव जमाना
  225. धूल में मिलाना : नष्ट करना
  226. धरती पर पाँव न पड़ना: फूला न समाना अभिमानी होना
  227. धूल फाँकना : दर-दर की ठोकरें खाना
  228. धज्जियां उड़ाना : दुर्गति करना, कड़ा विरोध करना
  229. बरस पड़ना : बहुत क्रोधित होकर उल्टी-सीधी सुनाना
  230. नमक मिर्च लगाना : बात को आकर्षक बनाकर कहना
  231. नानी याद आना : बड़ी कठिनाई में पड़ना घबरा जाना
  232. निन्यानवे के फेर में पड़ना : धन इकट्ठा करने की चिन्ता में रहना
  233. नाम कमाना : प्रसिद्ध होना
  234. नौ दो ग्यारह होना: भाग जाना
  235. नीला-पीला होना : क्रोध करना
  236. नाक रगड़ना : दीनता प्रदर्शित करना, खुशामद करना
  237. नाक में दम करना: बहुत परेशान करना
  238. नाक भौंह सिकोड़ना: घृणा करना
  239. नाकों चने चबाना : खूब परेशान करना
  240. नाक कटना : बदनामी होना
  241. नुक्ताचीनी करना : दोष निकालना
  242. नाक रख लेना : इज्जत बचाना
  243. नाम निशान तक न बचना : पूर्ण रूप से नष्ट हो जाना
  244. नचा देना : बहुत परेशान कर देना
  245. नींव की ईंट होना: प्रमुख आधार होना
  246. पानी मरना : किसी की तुलना में निकृष्ट ठहरना
  247. पैर पटकना : खूब कोशिश करना
  248. पगड़ी उछालना : बेइज्जत करना
  249. पेट पालना : जीवन निर्वाह करना
  250. पहाड़ टूट पड़ना : बहुत मुसीबत आना
  251. पानी पीकर जात पूछना: काम करके फिर जानकारी लेना
  252. पेट में दाढ़ी होना : लड़कपन में बहुत चतुर होना/घाघ होना
  253. पैरों तले से जमीन खिसकना : बहुत घबरा जाना, अचानक परेशानी आना
  254. पापड़ बेलना : कड़ी मेहनत करना, विषम परिस्थितियों से गुजरना
  255. प्राण हथेली पर रखना : जान देने के लिये तैयार रहना
  256. पिंड छुड़ाना : पीछा छुड़ाना या बचना
  257. पानी पानी होना : लज्जित होना
  258. पेट में चूहे कूदना : तेज भूख लगना
  259. पाँचों उँगलियाँ घी में होना : सब ओर से लाभ होना
  260. पीठ ठोकना : शाबाशी देना, हिम्मत बँधाना
  261. फूँक फूँक कर कदम रखना : सावधानी पूर्वक कार्य करना
  262. फूटी आँखों न सुहाना : बिल्कुल पसंद न होना
  263. फूला न समाना : अत्यधिक खुश होना
  264. पट्टी पढ़ाना : बहका देना, उल्टी राय देना
  265. पेट काटना : बहुत कंजूसी करना
  266. पानीदार होना: इज्जतदार होना
  267. पाँवों में बेड़ी पड़ जाना: बंधन में बंध जाना
  268. बाँह पकड़ना : सहायता करना/सहारा देना
  269. बीड़ा उठाना : कठिन कार्य करने का उत्तरदायित्व लेना
  270. बाल की खाल निकालना : नुक्ताचीनी करना
  271. बात बनाना : बहाना करना
  272. बाँसों उछलना : अत्यधिक प्रसन्न होना
  273. बाल बाँका न होना: कुछ भी नुकसान न होना
  274. बाज न आना: आदत न छोड़ना
  275. बगलें झाँकना: इधर-उधर देखना/निरुत्तर होना/जवाब न दे सकना।
  276. बायें हाथ का खेल होना : सरल कार्य
  277. बल्लियों उछलना : अत्यधिक प्रसन्न होना
  278. बछिया का ताऊ होना : महामूर्ख
  279. भौंह चढ़ाना : क्रुद्ध होना
  280. भूत सवार होना : हठ पकड़ना/काम करने की धुन लगना
  281. भीगी बिल्ली बनना: डरपोक होना
  282. भाड़ झोंकना : तुच्छ कार्य करना/व्यर्थ समय गुजारना
  283. भरी थाली को लात मारना : जीविकोपार्जन के साधन ठुकरा देना
  284. भैंस के आगे बीन बजाना : मूर्ख के समक्ष बुद्धिमानी की बातें करना व्यर्थ
  285. बाल-बाल बचना : कुछ भी हानि न होना
  286. बाछें खिल जाना : आश्चर्यजनक हर्ष
  287. मन खट्टा होना : मन फिर जाना/जी उचाट होना
  288. मन के लड्डू खाना : कोरी कल्पनाएँ करना
  289. मंत्र न लगना : कोई उपाय काम न आना
  290. मुँह में पानी भर आना : इच्छा होना/जी ललचाना
  291. मुँह में लगाम न लगाना: अनियंत्रित बातें करना
  292. मुट्ठी गर्म करना : रिश्वत देना, लेना
  293. मुँह की खाना : हार जाना/हार मानना
  294. मक्खियाँ मारना : बेकार भटकना/बैठना
  295. मक्खी चूस होना : बहुत कंजूस होना
  296. मुँह पर हवाइयाँ उड़ना : चेहरा फक पड़ जाना
  297. मन मसोस कर रह जाना : इच्छा को रोकना
  298. मुँह काला करना : कलंकित होना
  299. मुँह की खाना : बातों में हारना/अपमानित होना
  300. मुँह तोड़ जवाब देना : कठोर शब्दों में कहना
  301. मन मारना : उदास होना/इच्छाओं पर नियंत्रण
  302. मुँह मोड़ना : ध्यान न देना
  303. रंग में भंग होना : मजा किरकिरा होना/बाधा होना
  304. राई का पहाड़ बनाना : बात को बढ़ा-चढ़ा देना
  305. रंगा-सियार होना : ढोंगी/धोखेबाज
  306. रोम-रोम खिल उठना : प्रसन्न होना
  307. रोंगटे खड़े होना : डर से रोमांचित होना
  308. रफू चक्कर होना : भाग जाना
  309. रंग दिखाना/जमाना : प्रभाव जमाना
  310. रंगे हाथों पकड़ना : अपराध करते हुए पकड़े जाना
  311. लकीर का फकीर होना: परम्परावादी होना/ अंधानुकरण करना
  312. लोहे के चने चबाना : बहुत कठिन कार्य करना/संघर्ष करना
  313. लाल-पीला होना : क्रोधित होना
  314. लोहा मानना : बहादुरी स्वीकार करना
  315. लहू का घूँट पीना: अपमान सहन करना
  316. लोहा बजाना: शस्त्रों से युद्ध करना
  317. लुटिया डुबो देना : काम बिगाड़ देना
  318. लोहा लेना : युद्ध करना/मुकाबला करना
  319. लहू-पसीना एक करना: कठिन परिश्रम करना
  320. लंबा हाथ मारना : धोखा धड़ी से पैसे बनाना
  321. विष उगलना: किसी के खिलाफ बुरी बात कहना
  322. शहद लगाकर चाटना : तुच्छ वस्तु को महत्व देना
  323. शैतान के कान कतरना : बहुत चतुर होना
  324. समझ पर पत्थर पड़ना : अक्ल मारी जाना
  325. सिर धुनना : पछताना/चिन्ता करना
  326. सिर हथेली पर रखना : मृत्यु की चिन्ता न करना
  327. सिर उठाना : विद्रोह करना
  328. सितारा चमकना : भाग्यशाली होना
  329. सूरज को दीपक दिखाना : अत्यधिक प्रसिद्ध व्यक्ति का परिचय देना
  330. सब्ज बाग दिखाना: लोभ देकर बहकाना/लालच देकर धोखा देना
  331. सिर पर कफ़न बाँधना : मरने को प्रस्तुत रहना
  332. सिर से बला टालना : मुसीबत से पीछा छुड़ाना
  333. सिर आँखों पर रखना : आदर सहित आज्ञा मानना
  334. सोने की चिड़िया हाथ से निकलना: लाभ पूर्ण वस्तु से वंचित रहना
  335. सिक्का जमाना : प्रभाव डालना/प्रभुत्व स्थापित करना
  336. सोने की चिड़िया होना : बहुत धनवान होना
  337. साँप छछूंदर की गति होना: दुविधा में पड़ना
  338. सीधे मुँह बात तक न करना: बहुत इतराना
  339. सोने में सुगंध होना : एक गुण में और गुण मिलना
  340. सौ-सौ घड़े पानी पड़ना : अत्यंत लज्जित होना
  341. सिर-मूंडना : ठगना
  342. हवा से बातें करना: बहुत तेज दौड़ना
  343. हाथ धोकर पीछे पड़ना: बुरी तरह पीछे पड़ना
  344. हाथ तंग होना : धन की कमी या दिक्कत होना
  345. होम करते हाथ जलना : भलाई करने में नुकसान होना
  346. होंठ चबाना : क्रोध प्रकट करना
  347. हवाई किले बनाना: थोथी कल्पना करना
  348. हवा हो जाना : भाग जाना
  349. हाथ पाव मारना : प्रयत्न करना
  350. हथियार डाल देना: हार मान लेना/आत्मसमर्पण करना
  351. हाथ पर हाथ धर कर बैठना : निष्क्रिय बनना/बेकार बैठे रहना
  352. हवा के घोड़ों पर सवार होना: बहुत जल्दी में होना
  353. हवा का रूख देखना : समय की गति पहचान कर काम करना
  354. हाथ के तोते उड़ जाना: भौचक्का रह जाना/होश गँवाना
  355. हाथ पाँव फूलना : घबरा जाना। विपत्ति में पड़ना
  356. हाथ पैर मारना : मेहनत करना/प्रयत्न करना
  357. हाथ साफ करना : ठगना/माल मारना
  358. हुक्का पानी बंद करना : बिरादरी से बाहर करना
  359. हथेली पर सरसों जमाना : जल्दबाजी करना
  360. हाथ खींचना : साथ न देना/मदद बंद करना/सहायता बंद करना
  361. हाथ धो बैठना : गंवा देना
  362. हाथ पीले करना : विवाह करना
  363. श्री गणेश करना : आरम्भ करना
लोकोक्तियाँ
मुहावरों की तरह ही लोकोक्ति भी मानव जाति के अनुभवों की सुन्दर अभिव्यक्ति है। ये मानव स्वभाव और व्यवहार कौशल के सिक्के के रूप में प्रचलित होती है और वर्तमान पीढ़ी को पूर्वजों से उत्तराधिकार के रूप में प्राप्त होती है। इनका प्रयोग सर्वत्र होता है। यह कम आश्चर्य की बात नहीं कि शहरों की अपेक्षा गांव में रहने वाले लाेगों के बीच इनका प्रयोग प्रचुर मात्रा में होता है। लोक साहित्य में कहावतों का अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान है। इनका सम्बन्ध किसी व्यक्ति विशेष से नहीं होता अथवा ये किसी व्यक्ति विशेष की संपत्ति नहीं है। कहावत लोक से सम्बन्धित हैं इसलिए इसका नाम लोकोक्ति भी है। यह लोक की संपत्ति है।
किसी कामचोर पेटू लड़के के बारे में प्रश्नोत्तर रूप में प्रचलित यह कहावत देखिए: कहावत देखिए:
‘‘नाम क्या है?’
‘‘शक्करपारा।’’
‘‘रोटी कितनी खाए?’’
‘‘दस-बारह।’’
‘‘पानी कितना पीए?’’
‘‘मटका सारा।’’
‘‘काम करने को?’’
‘‘मैं लड़का बेचारा।’’
कामचोर लोगों के लिए कैसा मजेदार व्यंग्य भरा है इस कहावत में। इस प्रकार कहावत अपने में स्वतंत्र अस्तित्व रखने वाली, सारगर्भित, संक्षिप्त एवं चटपटी उक्ति है, जिसका प्रयोग किसी को शिक्षा व चेतावनी देना या उपालंभ व व्यंग्य कसने के लिए होता है। कुछ प्रसिद्ध लोकोक्तियाँ निम्न है :-
  1. अपना रख, पराया चख : अपना बचाकर दूसरों का माल हड़प करना
  2. अपनी करनी पार उतरनी : स्वयं का परिश्रम ही काम आता है।
  3. अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता : अकेला व्यक्ति शक्तिहीन होता है।
  4. अधजल गगरी छलकत जाय : ओछा आदमी अधिक इतराता है।
  5. अंधों में काना राजा : मूर्खों में कम ज्ञान वाला भी आदर पाता है।
  6. अंधे के हाथ बटेर लगना : अयोग्य व्यक्ति को बिना परिश्रम संयोग से अच्छी वस्तु मिलना।
  7. अंधा पीसे कुत्ता खाय : मूर्खों की मेहनत का लाभ अन्य उठाते हैं। असावधानी से अयोग्य को लाभ।
  8. अब पछताये होत क्या, जब चिड़िया चुग गई खेत : अवसर निकल जाने पर पछताने से कोई लाभ नहीं।
  9. अंधे के आगे रोवै अपने नैना खावैं : निर्दय व्यक्ति या अयोग्य व्यक्ति से सहानुभूति की अपेक्षा करना व्यर्थ है।
  10. अपनी गली में कुत्ता भी शेर होता है : अपने क्षेत्र में कमजोर भी बलवान बन जाता है।
  11. अंधेर नगरी चौपट राजा : प्रशासन की अयोग्यता से सर्वत्र अराजकता आ जाना।
  12. अन्धा क्या चाहे दो आँखें : बिना प्रयास वांछित वस्तु का मिल जाना।
  13. अक्ल बड़ी या भैंस : शारीरिक बल से बुद्धि बल श्रेष्ठ होता है।
  14. अपना हाथ जगन्नाथ : अपना काम अपने ही हाथों ठीक रहता है।
  15. अपनी-अपनी ढपली सबका अपना-अपना राग : तालमेल का अभाव/अलग-अलग मत होना/एकमत का अभाव
  16. अंधा बांटे रेवड़ी फिर-फिर अपनों को देय : स्वार्थी व्यक्ति अधिकार पाकर अपने लोगों की सहायता करता है।
  17. अंत भला तो सब भला: कार्य का अन्तिम चरण ही महत्त्वपूर्ण होता है।
  18. आ बैल मुझे मार: जानबूझकर मुसीबत में फंसना
  19. आम के आम गुठली के दाम : हर प्रकार का लाभ/एक काम से दो लाभ
  20. आँख का अंधा नाम नयन सुख : गुणों के विपरीत नाम होना।
  21. आगे कुआँ पीछे खाई : दोनों/सब ओर से विपत्ति में फँसना
  22. आप भला जग भला : अपने अच्छे व्यवहार से सब जगह आदर मिलता है।
  23. आये थे हरिभजन को ओटन लगे कपास: उद्देश्य से भटक जाना/श्रेष्ठ काम करने की बजाय तुच्छ कार्य करना/कार्य विशेष की उपेक्षा कर किसी अन्य कार्य में लग जाना।
  24. आधा तीतर आधा बटेर: अनमेल मिश्रण/बेमेल चीजें जिनमें सामंजस्य का अभाव हो।
  25. इन तिलों में तेल नहीं : किसी लाभ की आशा न होना।
  26. आठ कनौजिए नौ चूल्हे: फूट होना।
  27. उल्टा चोर कोतवाल को डांटे : अपना अपराध न मानना और पूछने वाले को ही दोषी ठहराना।
  28. उल्टे बाँस बरेली को : विपरीत कार्य या आचरण करना
  29. ऊधो का न लेना, न माधो का देना : किसी से कोई मतलब न रखना/सबसे अलग।
  30. ऊँची दुकान फीका पकवान : वास्तविकता से अधिक दिखावा। दिखावा ही दिखावा। केवल बाहरी दिखावा।
  31. ऊँट के मुँह में जीरा : आवश्यकता की नगण्य पूर्ति
  32. ओखली में सिर दिया तो : जब दृढ़ निश्चय कर लिया तो मूसल का क्या डर बाधाओं से क्या घबराना
  33. ऊँट किस करवट बैठता है : परिणाम में अनिश्चितता होना।
  34. एक पंथ दो काज : एक काम से दोहरा लाभ/एक तरकीब से दो कार्य करना/एक साधन से दो कार्य करना।
  35. एक अनार सौ बीमार : वस्तु कम, चाहने वाले अधिक/एक स्थान के लिये सैकड़ों प्रत्याशी
  36. एक मछली सारा तालाब गंदा कर देती है : एक की बुराई से साथी भी बदनाम होते हैं।
  37. एक म्यान में दो तलवारें नहीं समा सकतीं : दो प्रशासक एक ही जगह एक साथ शासन नहीं कर सकते।
  38. एक हाथ से ताली नहीं बजती: लड़ाई का कारण दोनों पक्ष होते हैं।
  39. एक तो करेला दूजे नीम चढ़ा : बुरे से और अधिक बुरा होना/एक बुराई के साथ दूसरी बुराई का जुड़ जाना।
  40. कागज की नाव नहीं चलती : बेईमानी से किसी कार्य में सफलता नहीं मिलती।
  41. काला अक्षर भैंस बराबर: बिल्कुल निरक्षर होना।
  42. कंगाली में आटा गीला : संकट पर संकट आना।
  43. कोयले की दलाली में हाथ काले : बुरे काम का परिणाम भी बुरा होता है/ दुष्टों की संगति से कलंकित होते हैं।
  44. का वर्षा जब कृषि सुखानी : अवसर बीत जाने पर साधन की प्राप्ति बेकार है।
  45. कहीं की ईंट कहीं का रोड़ा भानुमति ने कुनबा जोड़ा : अलग-अलग स्वभाव वालों को एक जगह एकत्र करना/इधर-उधर से सामग्री जुटा कर कोई निकृष्ट वस्तु का निर्माण करना।
  46. कभी नाव गाड़ी पर कभी गाड़ी नाव पर : एक-दूसरे के काम आना परिस्थितियाँ बदलती रहती हैं।
  47. काबुल में क्या गधे नहीं होते : मूर्ख सब जगह मिलते हैं।
  48. कहने पर कुम्हार गधे पर नहीं चढ़ता : कहने से जिद्दी व्यक्ति काम नहीं करता।
  49. कोउ नृप होउ हमें का हानि : अपने काम से मतलब रखना।
  50. कौवा चला हंस की चाल, भूल गया अपनी भी चाल : दूसरों के अनधिकार अनुकरण से अपने रीति रिवाज भूल जाना।
  51. कभी घी घना तो कभी मुट्ठी चना : परिस्थितियाँ सदा एक सी नहीं रहतीं।
  52. करले सो काम भजले सो राम: एक निष्ठ होकर कर्म और भक्ति करना
  53. काज परै कछु और है, काज कछु और सरै : दुनिया बड़ी स्वार्थी है काम निकाल कर मुँह फेर लेते हैं।
  54. खोदा पहाड़ निकली चुहिया : अधिक परिश्रम से कम लाभ होना
  55. खरबूजे को देखकर खरबूजा रंग बदलता है : स्पर्धा वश काम करना/साथी को देखकर दूसरा साथी भी वैसा ही व्यवहार करता है।
  56. खग जाने खग ही की भाषा : मूर्ख व्यक्ति मूर्ख की बात समझता है।
  57. खिसियानी बिल्ली खम्भा खोंसे: शक्तिशाली पर वश न चलने के कारण कमजोर पर क्रोध करना
  58. गागर में सागर भरना : थोड़े में बहुत कुछ कह देना
  59. गुरु तो गुड़ रहे चेले शक्कर हो गये : चेले का गुरु से अधिक ज्ञानवान होना
  60. गवाह चुस्त मुद्दई सुस्त : स्वयं की अपेक्षा दूसरों का उसके लिए अधिक प्रयत्नशील होना
  61. गुड़ खाएं और गुलगुलों से परहेज : झूठा ढोंग रचना
  62. गाँव का जोगी जोगना, आन गाँव का सिद्ध : अपने स्थान पर सम्मान नहीं होता।
  63. गरीब तेरे तीन नाम-झूठा, पापी, बेईमान : गरीब पर ही सदैव दोष मढ़े जाते हैं। निर्धनता सदैव अपमानित होती है।
  64. गुड़ दिये मरे तो जहर क्यों दे: प्रेम से कार्य हो जाये तो फिर दंड क्यों ।
  65. गंगा गये गंगादास जमुना गये जमुनादास: अवसरवादी होना
  66. गोद में छोरा शहर में ढिंढोरा : पास की वस्तु को दूर खोजना
  67. गरजते बादल बरसते नहीं : कहने वाले (शोर मचाने वाले) कुछ करते नहीं
  68. गुरु कीजै जान, पानी पीवै छान : अच्छी तरह समझ बूझकर काम करना
  69. घर-घर मिट्टी के चूल्हे हैं : सबकी एक सी स्थिति का होना/सभी समान रूप से खोखले हैं।
  70. घोड़ा घास से दोस्ती करे तो क्या खाये : मजदूरी लेने में संकोच कैसा ?
  71. घर का भेदी लंका ढाहे : घरेलू शत्रु प्रबल होता है।
  72. घर की मुर्गी दाल बराबर : अधिक परिचय से सम्मान कम/घरेलू साधनों का मूल्यहीन होना
  73. घर बैठे गंगा आना : बिना प्रयत्न के लाभ, सफलता मिलना
  74. घर में नहीं दाने बुढ़िया चली भुनाने : झूठा दिखावा करना
  75. घर आये नाग न पूजे, बाँबी उसकी पूजन जाय : अवसर का लाभ न उठाकर खोज में जाना
  76. घर का जोगी जोगना, आन गाँव का सिद्ध : विद्वान का अपने घर की अपेक्षा बाहर अधिक सम्मान/परिचित की अपेक्षा अपरिचित का विशेष आदर
  77. चमड़ी जाय पर दमड़ी न जाए: बहुत कंजूस होना
  78. चलती का नाम गाड़ी : काम का चलते रहना/बनी बात के सब साथी होते हैं।
  79. चंदन की चुटकी भली गाड़ी : अच्छी वस्तु तो थोड़ी भी भली
  80. चार दिन की चाँदनी फिर : सुख का समय थोड़ा ही अँधेरी रात होता है।
  81. चिकने घड़े पर पानी नहीं ठहरता : निर्लज्ज पर किसी बात का असर नहीं होता।
  82. चिराग तले अँधेरा : दूसरों को उपदेश देना स्वयं अज्ञान में रहना
  83. चींटी के पर निकलना : बुरा समय आने से पूर्व बुद्धि का, नष्ट होना
  84. चील के घोंसले में मांस कहाँ?: भूखे के घर भोजन मिलना असंभव होता है
  85. चुपड़ी और दो-दो : लाभ में लाभ होना
  86. चोरी का माल मोरी में : बुरी कमाई बुरे कार्यों में नष्ट होती है
  87. चोर की दाढ़ी में तिनका : अपराधी का सशंकित होना अपराध के कार्यों से दोष प्रकट हो जाता है।
  88. चोर-चोर मौसेरे भाई : दुष्ट लोग प्रायः एक जैसे होते हैं एक से स्वभाव वाले लोगों में मित्रता होना
  89. छछूंदर के सिर में चमेली का तेल : अयोग्य व्यक्ति के पास अच्छी वस्तु होना
  90. छोटे मुँह बड़ी बात : हैसियत से अधिक बातें करना
  91. जहाँ काम आवै सुई का करै तरवारि : छोटी वस्तु से जहाँ काम निकलता है वहाँ बड़ी वस्तु का उपयोग नहीं होता है।
  92. जल में रहकर मगर से बैर : बड़े आश्रयदाता से दुश्मनी ठीक नहीं
  93. जब तक साँस तब तक आस : जीवन पर्यन्त आशान्वित रहना
  94. जंगल में मोर नाचा किसने देखा : दूसरों के सामने उपस्थित होने पर ही गुणों की कद्र होती है। गुणों का प्रदर्शन उपयुक्त स्थान पर।
  95. जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी : मातृभूमि का महत्त्व स्वर्ग से भी बढ़कर है।
  96. जहाँ मुर्गा नहीं बोलता वहाँ क्या सवेरा नहीं होता : किसी के बिना कोई काम नहीं रुकता नहीं है।
  97. जहाँ न पहुँचे रवि वहाँ पहुँचे कवि : कवि दूर की बात सोचता है सीमातीत कल्पना करना
  98. जाके पैर न फटी बिवाई, सो क्या जाने पीर पराई : जिसने कभी दुःख नहीं देखा वह दूसरों का दुःख क्या अनुभव करे
  99. जाकी रही भावना जैसी, हरि मूरत देखी तिन तैसी : भावानुकूल(प्राप्ति का होना) औरों को देखना
  100. जान बची और लाखों पाये : प्राण सबसे प्रिय होते हैं।
  101. जाको राखे साइयाँ मारि सके न कोय : ईश्वर रक्षक हो तो फिर डर किसका, कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता।
  102. जिस थाली में खाया उसी में छेद करना : विश्वासघात करना। भलाई करने वाले का ही बुरा करना। कृतघ्न होना
  103. जिसकी लाठी उसकी भैंस : शक्तिशाली की विजय होती है
  104. जिन खोजा तिन पाइया : प्रयत्न करने वाले को सफलता/गहरे पानी पैठ लाभ अवश्य मिलता है।
  105. जो ताको काँटा बुवै ताहि बोय तू फूल भी : अपना बुरा करने वालों के साथ भलाई का व्यवहार करो
  106. जादू वही जो सिर चढ़कर बोलेः उपाय वही अच्छा जो कारगर हो
  107. झटपट की घानी आधा तेल : जल्दबाजी का काम खराब हीआधा पानी होता है।
  108. झूठ कहे सो लड्डू खाए साँच कहे सो मारा जाय : आजकल झूठे का बोल बाला है।
  109. जैसी बहे बयार पीठ तब वैसी दीजै : समय अनुसार कार्य करना।
  110. टके का सौदा नौ टका विदाई: साधारण वस्तु हेतु खर्च अधिक
  111. टेढ़ी उंगली किये बिना घी नहीं निकलता : सीधेपन से काम नहीं (चलता) निकलता।
  112. टके की हांडी गई पर कुत्ते की जात पहचान ली : थोड़ा नुकसान उठाकर धोखेबाज को पहचानना।
  113. डूबते को तिनके का सहारा : संकट में थोड़ी सहायता भी लाभप्रद/पर्याप्त होती है।
  114. ढाक के तीन पात : सदा एक सी स्थिति बने रहना
  115. ढोल में पोल : बड़े-बड़े भी अन्धेर करते हैं।
  116. तीन लोक से मथुरा न्यारी : सबसे अलग विचार बनाये रखना
  117. तीर नहीं तो तुक्का ही सही : पूरा नहीं तो जो कुछ मिल जाये उसी में संतोष करना।
  118. तू डाल-डाल मैं पात-पात : चालाक से चालाकी से पेश आना/ एक से बढ़कर एक चालाक होना
  119. तेल देखो तेल की धार देखो : नया अनुभव करना धैर्य के साथ सोच समझ कर कार्य करो परिणाम की प्रतीक्षा करो।
  120. तेली का तेल जले मशालची का दिल जले : खर्च कोई करे बुरा किसी और को ही लगे।
  121. तन पर नहीं लत्ता पान खाये अलबत्ता : अभावग्रस्त होने पर भी ठाठ से रहना/झूठा दिखावा करना।
  122. तीन बुलाए तेरह आये : अनियंत्रित व्यक्ति का आना।
  123. तीन कनौजिये तेरह चूल्हे : व्यर्थ की नुक्ताचीनी करना। ढोंग करना।
  124. थोथा चना बाजे घना : गुणहीन व्यक्ति अधिक डींगेंमारता है/आडम्बर करता है।
  125. दूध का दूध पानी का पानी : सही सही न्याय करना।
  126. दमड़ी की हांडी भी ठोक बजाकर लेते हैं : छोटी चीज को भी देखभाल कर लेते हैं।
  127. दान की बछिया के दाँत नहीं गिने जाते : मुफ्त की वस्तु के गुण नहीं देखे जाते।
  128. दाल भात में मूसलचंद : किसी के कार्य में व्यर्थ में दखल देना।
  129. दुविधा में दोनों गये माया मिली न राम : संदेह की स्थिति में कुछ भी हाथ नहीं लगना।
  130. दूध का जला छाछ को फूँक फूँक कर पीता है : एक बार धोखा खाया व्यक्ति दुबारा सावधानी बरतता है।
  131. दूर के ढोल सुहावने लगते हैं : दूरवर्ती वस्तुएँ अच्छी मालूम होती हैं /दूर से ही वस्तु का अच्छा लगना पास आने पर वास्तविकता का पता लगना
  132. दैव दैव आलसी पुकारा : आलसी व्यक्ति भाग्यवादी होता है / आलसी व्यक्ति किस्मत के सहारे होता है।
  133. धोबी का कुत्ता घर का न घाट का : किधर का भी न रहना न इधर का न उधर का
  134. न नौ मन तेल होगा और न राधा नाचेगी : ऐसी अनहोनी शर्त रखना जो पूरी न हो सके/बहाने बनाना।
  135. न रहेगा बाँस न बजेगी बाँसुरी: झगड़े को जड़ से ही नष्ट करना
  136. नक्कारखाने में तूती की आवाज : अराजकता में सुनवाई न होना/बड़ों के समक्ष छोटों की कोई पूछ नहीं।
  137. न सावन सूखा न भादो हरा : सदैव एक सी तंग हालत रहना
  138. नाच न जाने आँगन टेढ़ा : अपना दोष दूसरों पर मढ़ना/अपनी अयोग्यता को छिपाने हेतु दूसरों में दोष ढूंढना।
  139. नाम बड़े और दर्शन खोटे : बड़ों में बड़प्पन न होना गुण कम किन्तु प्रशंसा अधिक।
  140. नीम हकीम खतरे जान, नीम मुल्ला खतरे ईमान : अधकचरे ज्ञान वाला अनुभवहीन व्यक्ति अधिक हानिकारक होता है।
  141. नेकी और पूछ-पूछ : भलाई करने में भला पूछना क्या?
  142. नेकी कर कुए में डाल : भलाई कर भूल जाना चाहिए।
  143. नौ नगद, न तेरह उधार: भविष्य की बड़ी आशा से तत्काल का थोड़ा लाभ अच्छा/व्यापार में उधार की अपेक्षा नगद को महत्व देना।
  144. नौ दिन चले अढ़ाई कोस : बहुत धीमी गति से कार्य का होना
  145. नौ सौ चूहे खाय बिल्ली हज को चली : बहुत पाप करके पश्चाताप करने का ढोंग करना
  146. पढ़े पर गुने नहीं: अनुभवहीन होना।
  147. पढ़े फारसी बेचे तेल, देखो यह विधना का खेल : शिक्षित होते हुए भी दुर्भाग्य से निम्न कार्य करना।
  148. पराधीन सपनेहु सुख नाहीं : परतंत्र व्यक्ति कभी सुखी नहीं होता।
  149. पाँचों उँगलियाँ बराबर नहीं होती : सभी समान नहीं हो सकते।
  150. प्रभुता पाय काहि मद नाहीं : अधिकार प्राप्ति पर किसे गर्व नहीं होता।
  151. पानी में रहकर मगर से बैर : शक्तिशाली आश्रयदाता से वैर करना।
  152. प्यादे से फरजी भयो टेढ़ो-टेढ़ो जाय : छोटा आदमी बड़े पद पर पहुँचकर इतराकर चलता है।
  153. फटा मन और फटा दूध फिर : एक बार मतभेद होने पर पुनःनहीं मिलता। मेल नहीं हो सकता।
  154. बारह बरस में घूरे के दिन भी फिरते हैं : कभी न कभी सबका भाग्योदय होता है।
  155. बंदर क्या जाने अदरक का स्वाद : मूर्ख को गुण की परख न होना। अज्ञानी किसी के महत्व को आँक नहीं सकता।
  156. बद अच्छा, बदनाम बुरा: कलंकित होना बुरा होने से भी बुरा है।
  157. बकरे की माँ कब तक खैर मनायेगी : जब संकट आना ही है तो उससे कब तक बचा जा सकता है
  158. बावन तोले पाव रत्ती : बिल्कुल ठीक या सही सही होना
  159. बाप न मारी मेंढकी बेटा तीरंदाज : बहुत अधिक बातूनी या गप्पी होना
  160. बाँबी में हाथ तू डाल मंत्र मैं पढूँ स्वयं : खतरे का कार्य दूसरों को सौंपकर अलग रहना।
  161. बापू भला न भैया, सबसे बड़ा रुपया : आजकल पैसा ही सब कुछ है।
  162. बिल्ली के भाग छींका टूटना : संयोग से किसी कार्य का अच्छा होना/अनायास अप्रत्याशित वस्तु की प्राप्ति होना।
  163. बिन माँगे मोती मिले माँगे : भाग्य से स्वतः मिलता है इच्छा मिले न भीख से नहीं।
  164. बिना रोए माँ भी दूध नहीं पिलाती: प्रयत्न के बिना कोई कार्य नहीं होता।
  165. बैठे से बेगार भली : खाली बैठे रहने से तो किसी का कुछ काम करना अच्छा।
  166. बोया पेड़ बबूल का आम : बुरे कर्म कर अच्छे फल की कहाँ से खाए इच्छा करना व्यर्थ है।
  167. भई गति सांप छछूंदर जैसी : दुविधा में पड़ना।
  168. भूल गये राग रंग भूल गये छकड़ी तीन चीज याद रही नोन, तेल, लकड़ी : गृहस्थी के जंजाल में फंसना
  169. भूखे भजन न होय गोपाला : भूख लगने पर कुछ भी अच्छा नहीं लगता।
  170. भागते भूत की लंगोटी भली : हाथ पड़े सोई लेना जो बच जाए उसी से संतुष्टि/कुछ नहीं से जो कुछ भी मिल जाए वह अच्छा।
  171. भैंस के आगे बीन बजाये भैंस खड़ी पगुराय : मूर्ख को उपदेश देना व्यर्थ है।
  172. बिच्छू का मंत्र न जाने साँप के बिल में हाथ डाले : योग्यता के अभाव में उलझनदार काम करने का बीड़ा उठा लेना।
  173. मन चंगा तो कठौती में गंगा : मन पवित्र तो घर में तीर्थ है।
  174. मरता क्या न करता : मुसीबत में गलत कार्य करने को भी तैयार होना पड़ता है।
  175. मानो तो देव नहीं तो पत्थर : विश्वास फलदायक होता है।
  176. मान न मान मैं तेरा मेहमान : जबरदस्ती गले पड़ना।
  177. मार के आगे भूत भागता है : दण्ड से सभी भयभीत होते हैं।
  178. मियाँ बीबी राजी तो क्या करेगा काजी ? : यदि आपस में प्रेम है तो तीसरा क्या कर सकता है ?
  179. मुख में राम बगल में छुरी : ऊपर से मित्रता अन्दर शत्रुता धोखेबाजी करना।
  180. मेरी बिल्ली मुझसे ही म्याऊँ : आश्रयदाता का ही विरोध करना
  181. मेंढकी को जुकाम होना: नीच आदमियों द्वारा नखरे करना।
  182. मन के हारे हार है मन के जीते जीत: हतोत्साहित होने पर असफलता व उत्साह पूर्वक कार्य करने से जीत होती है।
  183. यथा राजा तथा प्रजा : जैसा स्वामी वैसा सेवक
  184. यथा नाम तथा गुण : नाम के अनुसार गुण का होना।
  185. यह मुँह और मसूर की दाल : योग्यता से अधिक पाने की इच्छा करना
  186. मुफ्त का चंदन, घिस मेरे नंदन: मुफ्त में मिली वस्तु का दुरुपयोग करना।
  187. रस्सी जल गयी पर ऐंठन गई: सर्वनाश होने पर भी घमंड बने रहना/टेकन छोड़ना।
  188. रंग में भंग पड़ना : आनन्द में बाधा उत्पन्न होना।
  189. राम नाम जपना, पराया माल अपना : मक्कारी करना।
  190. रोग का घर खांसी, झगड़े का घर हाँसी : हँसी मजाक झगड़े का कारण बन जाती है।
  191. रोज कुआ खोदना रोज पानी पीना: प्रतिदिन कमाकर खाना रोज कमाना रोज खा जाना।
  192. लकड़ी के बल बन्दरी नाचे : भयवश ही कार्य संभव है।
  193. लम्बा टीका मधुरी बानी: पाखण्डी हमेशा दगाबाज होते हैं। दगेबाजी की यही निशानी
  194. लातों के भूत बातों से नहीं मानते : नीच व्यक्ति दण्ड से/भय से कार्य करते हैं कहने से नहीं।
  195. लोहे को लोहा ही काटता है : बुराई को बुराई से ही जीता जाता है।
  196. वक्त पड़े जब जानिये को बैरी को मीत: विपत्ति/अवसर पर ही शत्रु व मित्र की पहचान होती है।
  197. विधि कर लिखा को मेटन हारा : भाग्य को कोई बदल नहीं सकता।
  198. विनाश काले विपरीत बुद्धि : विपत्ति आने पर बुद्धि भी नष्ट हो जाती है।
  199. शबरी के बेर : प्रेममय तुच्छ भेंट
  200. शक्कर खोर को शक्कर मिल ही जाती है : जरूरतमंद को उसकी वस्तु सुलभ हो ही जाती है
  201. शुभस्य शीघ्रम : शुभ कार्य में शीघ्रता करनी चाहिए।
  202. शठे शाठ्यं समाचरेत् : दुष्ट के साथ दुष्टता का व्यवहार करना चाहिये।
  203. साँच को आँच नहीं : सच्चा व्यक्ति कभी डरता नहीं।
  204. सब धान बाईस पसेरी : अविवेकी लोगों की दृष्टि में गुणी और मूर्ख सभी व्यक्ति बराबर होते हैं।
  205. सब दिन होत न एक समान : जीवन में सुख-दुःख आते रहते हैं, क्योंकि समय परिवर्तनशील होता है।
  206. सैयां भये कोतवाल अब काहे का डर : अपनों के उच्च पद पर होने से बुरे कार्य बे हिचक करना।
  207. समरथ को नहीं दोष गुसाईं : गलती होने पर भी सामर्थ्यवान को कोई कुछ नहीं कहता।
  208. सावन सूखा न भादो हरा : सदैव एक सी स्थिति बने रहना।
  209. साँप मर जाये और लाठी न टूटे : सुविधापूर्वक कार्य होना/बिना हानि के कार्य का बन जाना।
  210. सावन के अंधे को हरा ही सूझता है: अपने समान सभी कोहरा समझना।
  211. सीधी उंगली घी नहीं निकलता: सीधेपन से कोई कार्य नहीं होता
  212. सिर मुंडाते ही ओले पड़ना : कार्य प्रारम्भ करते ही बाधा उत्पन्न होना।
  213. सोने में सुगंध : अच्छे में और अच्छा।
  214. सौ सुनार की एक लोहार की : सैकड़ों छोटे उपायों से एक बड़ा उपाय अच्छा।
  215. सूप बोले तो बोले छलनी भी बोले : दोषी का बोलना ठीक नहीं।
  216. हथेली पर दही नहीं जमता : हर कार्य के होने में समय लगता है
  217. हथेली पर सरसों नहीं उगती : कार्य के अनुसार समय भी लगता है।
  218. हल्दी लगे न फिटकरी रंग : आसानी से काम बन जाना चोखा आ जाय कम खर्च में अच्छा कार्य।
  219. हाथ कंगन को आरसी क्या : प्रत्यक्ष को प्रमाण की आवश्यकता क्या ?
  220. हाथी के दाँत खाने के और दिखाने के और : कपट पूर्ण व्यवहार/कहे कुछ करो कुछ/कथनी व करनी में अंतर।
  221. होनहार बिरवान के होत चीकने पात : महान व्यक्तियों के लक्षण बचपन मेंही नजर आ जाते हैं।
  222. हाथ सुमरिनी बगल कतरनी : कपट पूर्ण व्यवहार करना।

लोकोक्ति और मुहावरे में अंतर Muhavre Aur Lokokti Men Antar
मुहावरे की तरह लोकोक्ति भी लोक से उत्पन्न लोक की संपत्ति है। लोकोक्ति और मुहावरे में सबसे बड़ा अंतर यह है -
  • मुहावरे वाक्यांश हैं, तो कहावतें (लोकोक्ति) सम्पूर्ण वाक्य।
  • मुहावरों का प्रयोग स्वतंत्र रूप से नहीं किया जा सकता। इसके विपरीत कहावतों का प्रयोग स्वतंत्र रूप में होता है।
  • मुहावरे का प्रयोग भाषा को बल देने के लिए होता है, तो कहावतों का प्रयोग किसी घटना विशेष पर किया जाता है।
  • मुहावरे के प्रयोग के फलस्वरूप भाषा समृद्ध होती है, तो कहावतों के प्रयोग से फल प्राप्त होने की आशा की जाती है।
मुहावरे और लोकोक्ति में कोई साम्य है तो इतना कि दोनों की उत्पत्ति लोक से होती है। दोनों हमारी लोक-संस्कृति के परिचायक हैं। दोनों का प्रयोग भाषा में सजीवता और सरसता लाने के लिए होता है। दोनों के अर्थ सामान्य से भिन्न और लाक्षणिक होते हैं।


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अलंकार (Alankar) का अर्थ तथा भेद और उदाहरण



अलंकार (Alankar) का अर्थ तथा भेद और उदाहरण 
अलंकार शब्द का शाब्दिक अर्थ होता है ‘आभूषण’ यानी गहने, किन्तु शब्द निर्माण के आधार पर अलंकार शब्द ‘अलम्’ और ‘कार’ दो शब्दों के योग से बना है। ‘अलम्’ का अर्थ है ‘शोभा’ तथा ‘कार’ का अर्थ हैं ‘करने वाला’। अर्थात् काव्य की शोभा बढ़ाने वाले तथा उसके शब्दों एवं अर्थों की सुन्दरता में वृद्धि करके चमत्कार उत्पन्न करने वाले कारकों को अलंकार कहते हैं। आचार्य केशव ने काव्य में अलंकारों के महत्त्व को प्रतिपादित करते हुए कहा कि-
जदपि सुजाति सुलक्षणी, सुबरन सरस सुवृत्त।
भूषण बिनु न बिराजही, कविता, वनिता मित्त।।
वास्तव में अलंकारों से काव्य रुचिप्रद और पठनीय बनता है, भाषा में गुणवत्ता और प्राणवत्ता बढ़ जाती है, कविता में अभिव्यक्ति की स्पष्टता व प्रभावोत्पादकता आने से कविता संप्रेषणीय बन जाती है। अलंकार के मुख्यतः दो भेद माने जाते हैंः शब्दालंकार और अर्थालंकार

शब्दालंकार:
काव्य में जब चमत्कार प्रधानतः शब्द में होता है, अर्थात् जहाँ शब्दों के प्रयोग से ही सौन्दर्य में वृद्धि होती है। काव्य में प्रयुक्त शब्द को बदल कर उसका पर्याय रख देने से अर्थ न बदलते हुए भी उसका चमत्कार नष्ट हो जाता है, वहाँ शब्दालंकार होता है। अनुप्रास, यमक, श्लेष, वक्रोक्ति आदि शब्दालंकार के भेद हैं।

1.अनुप्रास: काव्य में जब एक वर्ण से प्रारम्भ होने वाले शब्दों की रसानुकूल दो या दो से अधिक बार आवृत्ति होती है, वहाँ अनुप्रास अलंकार होता है। जैसे-
भगवान भक्तों की भयंकर भूरि भीति भगाइये।
******
तरनि-तनूजा तट तमाल तरुवर बहु छाये।
******
गंधी गंध गुलाब को, गंवई गाहक कौन ?

उपयुर्क्त उदाहरणों में क्रमशः भ, त, ‘ग’ वर्ण से प्रारम्भ होने वाले शब्दों की पुनरावृत्ति हुई है।

छेकानुप्रास, वृत्यनुप्रास, श्रुत्यनुप्रास, अन्त्यनुप्रास, लाटानुप्रास आदि अनुप्रास के उपभेद हैं।

2. यमक: काव्य में जब कोई शब्द दो या दो से अधिक बार आये तथा प्रत्येक बार उसका अर्थ भिन्न हो, वहाँ यमक अलंकार होता है। यथा-
कनक कनक तें सौगुनी, मादकता अधिकाय।
या खाये बौराय जग, वा पाये बौराय।।
यहाँ ‘कनक’ शब्द दो बार प्रयुक्त हुआ है जिसमें पहले में कनक ‘सोना’ तथा दूसरे में ‘धतूरा’ के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। अन्य उदाहरण-
गुनी गुनी सब के कहे, निगुनी गुनी न होत।
सुन्यौ कहुँ तरु अरक तें, अरक समानु उदोत।।
******
ऊँचे घोर मन्दर के अन्दर रहन वारी।
ऊँचे घोर मन्दर के अन्दर रहाती हैं।
******
तीन बेर खाती थी, वे तीन बेर खाती हैं।

3. श्लेष: जब काव्य में प्रयुक्त किसी शब्द के प्रसंगानुसार एक से अधिक अर्थ हों, वहाँ श्लेष अलंकार होता है। जैसे-
‘पानी गये न ऊबरे, मोती मानुष चून’
यहाँ ‘पानी’ शब्द का मोती के संदर्भ में अर्थ है चमक, मनुष्य के संदर्भ में ‘इज्जत’ तथा चून(आटा) के संदर्भ में जल।
‘सुबरण को ढूँढत फिरत, कवि, व्यभिचारी चोर।’
यहाँ ‘सुबरण’ में श्लेष है। सुबरण का कवि के संदर्भ में सुवर्ण (अक्षर), व्यभिचारी के संदर्भ में ‘सुन्दर रूप’ तथा चोर के संदर्भ में ‘सोना’ अर्थ है।

अर्थालंकार:
काव्य में जहाँ अलंकार का सौन्दर्य अर्थ में निहित हो, वहाँ अर्थालंकार होता है। इन अलंकारों में काव्य में प्रयुक्त किसी शब्द के स्थान पर उसका पर्याय या समानार्थी शब्द रखने पर भी चमत्कार बना रहता है। उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, अतिशयोक्ति, अन्योक्ति, सन्देह, भ्रान्तिमान, विभावना, विरोधाभास, दृष्टान्त आदि अर्थालंकार हैं।

1. उपमा: काव्य में जब दो भिन्न व्यक्ति, वस्तु के विशेष गुण, आकृति, भाव, रंग, रूप आदि को लेकर समानता बतलाई जाती है अर्थात् उपमेय और उपमान में समानता बतलाई जाती है, वहाँ उपमा अलंकार होता है। ‘सागर सा गंभीर हृदय हो’ उपमा के चार अंग होते हैं-
I. उपमेय: वर्णनीय व्यक्ति या वस्तु यानी जिसकी समानता अन्य किसी से बतलाई जाती है। उक्त उदाहरण में‘हृदय’ के बारे में कहा गया है अतः ‘हृदय’ उपमेय है।
II. उपमान: जिस वस्तु के साथ उपमेय की समानता बतलाई जाती है उसे उपमान कहते हैं । उक्त उदाहरण में ‘हृदय’ की समानता सागर से की गई है। अतः यहाँ‘सागर’ उपमान है।
III. समान धर्म: उपमेय और उपमान में समान रूप से पाये जाने वाले गुण को ‘समान धर्म’ कहते हैं। उक्त उदाहरण में हृदय व सागर में ‘गम्भीरता’ को लेकर समानता बतलाई गई है, अतः ‘गम्भीर’ शब्द समान धर्म है।
IV. वाचक शब्द: जिन शब्दों के द्वारा उपमेय और उपमान को समान धर्म के साथ जोड़ा जाता है उसे ‘वाचक शब्द’ कहते हैं। उक्त उदाहरण में‘सा’ शब्द द्वारा उपमान तथा उपमेय के समान धर्म को बतलाया गया है । अतः ‘सा’ शब्द वाचक शब्द है। अन्य उदाहरण-

I. पीपर पात सरिस मन डोला।
II.कोटि कुलिस सम वचन तुम्हारा। पहले उदाहरण में उपमेय (मन), उपमान (पीपर पात), समान धर्म (डोला) तथा वाचक शब्द(सरिस) उपमा के चारों अंगों का प्रयोग हुआ है अतः इसे पूणोर्पमा कहते हैं जबकि दूसरे उदाहरण में उपमेय (वचन), उपमान (कोटि कुलिस) तथा वाचक शब्द (सम) का प्रयोग हुआ है यहाँ समान धर्म प्रयुक्त नहीं हुआ है अतः इसे लुप्तोपमा कहा जाता है। क्योंकि इसमें उपमा के चारों अंगों का समावेश नहीं है।

2. रूपक: काव्य में जब उपमेय में उपमान का निषेध रहित अर्थात् अभेद आरोप किया जाता है अर्थात् उपमेय और उपमान दोनों को एक रूप मान लिया जाता है वहाँ रूपक अलंकार होता है। इसका विश्लेषण करने पर उपमेय उपमान के मध्य ‘रूपी’ वाचक शब्द आता है।‘अम्बर-पनघट में डुबो रही तारा-घट ऊषा-नागरी’ उक्त उदाहरण में तीन स्थलों पर रूपक अलंकार का ”प्रयोग हुआ है। यथा ‘अम्बर-पनघट’, तारा-घट, एवं ‘ऊषा-नागरी’।
1. अम्बर रूपी पनघट।
2. तारा रूपी घट।
3. ऊषा रूपी नागरी।
चरण-कमल बन्दौं हरि राई

3. उत्प्रेक्षा: काव्य में जब उपमेय में उपमान की संभावना की जाती है तथा संभावना हेतु जनु, मनु, जानो, मानो आदि में से किसी वाचक शब्द का प्रयोग किया जाता है, वहाँ उत्प्रेक्षाअलंकार होता है। जैसे-
सोहत ओढ़े पीत-पट, स्याम सलोने गात।
मनों नीलमणि सैल पर, आतप पर्यो प्रभात।।

पीताम्बर धारी श्री कृष्ण हेतु कवि बिहारी संभावना व्यक्त करते हुए कहते हैं कि पीत-पट ओढ़े कृष्ण ऐसे प्रतीत हो रहे हैं मानों नीलमणि पर्वत पर प्रातः काल का आतप (धूप) शोभायमान हो। अन्य उदाहरण देखिए-
लता भवन ते प्रगट भे, तेहि अवसर दोउ भाई।
निकसे जनु जुग विमल विधु जलद पटल विलगाई।।
**************
मोर मुकुट की चन्द्रकनि, त्यों राजत नन्दनन्द।
मनु ससि सेखर को अकस, किए सेखर सतचन्द।।

यमक और श्लेष में अन्तर: यमक अलंकार में किसी शब्द की आवृत्ति दो या दो से अधिक बार होती है तथा प्रत्येकबार उसका अर्थ भिन्न होता है, जबकि श्लेष अलंकार में किसी एक ही शब्द के प्रसंगानुसार एक से अधिक अर्थ होते हैं।उदाहरण जैसे-
यमक: कनक कनक ते सौ गुनी, मादकता अधिकाय।
श्लेष - पानी गये न ऊबरे, मोती मानुस चून।
उपमा और रूपक: उपमा अलंकार में किसी बात को लेकर उपमेय एवं उपमान में समानता बतलाई जाती है जबकि रूपक में उपमेय उपमान का अभेद आरोप किया जाता है जैसे उदाहरण-
उपमा - पीपर पात सरिस मन डोला।
रूपक - चरण-कमल बन्दौं हरि राई।।


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उत्तर प्रदेश है जहाँ समाजवाद की आड़ में एक और "यादव सिंह" पल रहा है



मैंने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री श्री Akhilesh Yadav​ को पिछले साल समाज कल्याण विभाग एक कर्मचारी के विरुद्ध अपने पद का दुरुपयोग कर आय से अधिक करोड़ो की सम्पत्ति अर्जित करने और 3 सरकारी भूखंडो के कब्जे की शिकायत की थी. 


ऐसी ही शिकायते आवश्यक कार्यवाही हेतु आयुक्त समाज कल्याण उत्तर प्रदेश, मंडल आयुक्त इलाहाबाद, जिलाधिकारी प्रतापगढ़, उपनिदेशक समाज कल्याण इलाहाबाद मंडल को समय समय पर की.

इन शिकायतों के संबध में पिछले साल नवम्बर में ही जिला समाज कल्याण अधिकारी Praveen Singh​ मुझे फोन किया और पूछा कि आपने कोई हमारे विभाग के किसी कर्मचारी के खिलाफ कोई शिकायत की है ?
इस पर मैंने कहा - हाँ, और मेरे पास आपके कर्मचारी के विरुद्ध भष्टाचार से अर्जित सम्पतियों और लाखो-करोड़ो  रूपये की सरकारी भूमि के कब्जे का पूरा प्रमाण है और कुछ प्रमाण मैंने अपनी शिकयतों के साथ संलग्न किया है और यदि आप जब मैं प्रस्तुत कर सकता हूँ. इस पर प्रतापगढ़ के समाज कल्याण अधिकारी श्री प्रवीन सिंह ने कहा कि मैं इस भ्रष्ट कर्मचारी पर अवश्य कार्यवाही करूँगा और आपको जो मदद होगी लूँगा.  मैंने भी उनको पूरा सर्पोर्ट करने का आश्वासन दिया.

2-3 माह बीत जाने के बाद भी प्रतापगढ़ के समाज कल्याण अधिकारी श्री प्रवीन सिंह ने मुझसे कोई संपर्क नही किया अपितु सूत्रों से पता चला कि भ्रष्टाचारी कर्मचारी के समक्ष नाम भी उजागिर कर दिया जो की गोपनीयता के सिद्धांत का उल्लघन भी है.

फिर मैंने एक दिन प्रतापगढ़ के समाज कल्याण अधिकारी श्री प्रवीन सिंह को फोन किया और  से मिलने का समय माँगा और जो समय उन्होंने दिया उस समय पर जब इलाहाबाद से  उनके ऑफिस में गया तो वे अपने कक्ष में उपस्थित नहीं थे. जब फोन किया तो उन्होंने बताया कि मैं डीएम साहब के साथ मीटिंग में हूँ मिल नही पाउँगा.

फिर अगले दिन उनके दफ्तर में मैंने अचानक पहुँच कर उनको पकड़ लिया और उनको विषय वस्तु से अवगत कराया कि मैं भष्टाचार के प्रकरण में बात करने के लिए आया हूँ..

मुझे बैठाकर फोन मिलाया और संबधित कर्मचारी को बनावटी लहजे में हडकाया और उसे बता दिए कि इलाहाबाद वाले वकील साहब आये जो तुम्हारे प्रकरण में शिकायत किये है और इसके 5 मिनट के अंदर ही भष्टाचारी कर्मचारी का पुत्र उनके ऑफिस में आ गया.

समाज कल्याण अधिकारी श्री प्रवीन सिंह ने मध्यस्ता कर अनैतिक तरीके से सुलह का प्रयास किया. जब मेरे द्वारा कहा गया कि मेरी शिकायत को व्यक्तिगत अपितु एक राज्य वेतन भोगी कर्मचारी के विरुद्ध भ्रष्टाचार से अधिक धन अर्जन एवं 3 सरकारी भूमियों के कब्जे के संबध में है और उक्त कर्मचारी का आचरण राजद्रोह का है. इसके बाद भी समाज कल्याण अधिकारी ने शिकायत वापसी की भरपूर कोशिश की किन्तु मैंने इंकार कर वहां से चल दिया. इसके बाद मैंने प्रवीन सिंह के कृत्य की शिकायत मुख्यमंत्री Akhilesh Yadav​ मंडलायुक्त इलाहाबाद और उप-निदेशक समाज कल्याण इलाहाबाद मंडल से की..

इसके बाद मैंने कई बार फोन पर समाज कल्याण अधिकारी श्री प्रवीन सिंह से कार्यवाही की स्थिति जाननी चाही किंतु उनका रवैया नकारात्मक ही मिला. अपितु मुझे यह भी सुनने को मिला कि उक्त कर्मचारी मुझे गाली दे कर जान से मारने की धमकी भी दे रहा था और कह रहा था कि मैंने 5 लाख रूपये फेक के समाज कल्याण अधिकारी को खरीद लिया है मेरे खिलाफ कोई भी शिकायत कर लो मेरा कोई कुछ बिगाड़ सकता है. मैंने पैसे पानी की तरह बहा कर जांच बंद करवा दी है.

5 लाख रूपये के प्रकरण की बात जब मेरे संज्ञान में आई तो मुझे एहसास हो गया है की समाज कल्याण विभाग की नसों में भ्रष्टाचार दौड़ रहा है और भ्रष्टाचार के जनक समाज कल्याण अधिकारी श्री प्रवीन सिंह है और उन्होंने जाँच कार्यवाही इसलिए रोक दी कि उनको भी कार्यवाही रोकने का पारिश्रमिक मिल चूका है.

इस प्रकरण के बाद मुझे एह्साह हो गया कि अखिलेश यादव से कमजोर मुख्यमंत्री और कोई नहीं हो सकता है. जिसके आदेश की क़द्र 5 लाख रूपये के लिए सेकेण्ड क्लास समाज कल्याण अधिकारी श्री प्रवीन सिंह जैसे लोग भी नही करते है. फिर मैंने 2 RTI समाज कल्याण ऑफिस प्रतापगढ़ भेजी जिसके सूचनाअधिकारी स्वयं भ्रष्टाचार की प्रतिमूर्ति समाज कल्याण अधिकारी श्री प्रवीन सिंह है जिन्होंने नियत समय बीत जाने के बाद भी कोई सूचना नही दी. इसके पश्चात मैंने अपील अधिकारी डॉ मंजू श्रीवास्तव उप-निदेशक समाज कल्याण के पास अपील की और अपील अधिकारी डॉ मंजू श्रीवास्तव उप-निदेशक समाज कल्याण ने समाज कल्याण अधिकारी श्री प्रवीन सिंह को निर्देशित किया कि नियत समय में सूचना उपलब्ध कराइ जाये किंतु भ्रष्टाचार की प्रतिमूर्ति समाज कल्याण अधिकारी श्री प्रवीन सिंह अपने अधिकारी के आदेश के बाद भी टस से मस नही हुए और नियत समय बीत जाने के बाद प्रवीन सिंह ने कोई सूचना उपलब्ध नहीं करवाई और न ही सूचना देने से इंकार किया. समाज कल्याण अधिकारी श्री प्रवीन सिंह के कृत्य से यह पता 5 लाख रूपये की रिश्वत का इतना असर होता है कि वो अपने अधिकारी के आदेश को भी मानने से इंकार कर देता है.

अब इस मामले में न्यायिक कार्यवाही के सिवाय अब कोई चारा नहीं बचा है और इसकी मैं पूरी तैयारी कर रहा हूँ क्योकि उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री भी काफी कमजोर साबित हुए जो अपने ही आदेश का अनुपालन अपने ही अधिकारी से नहीं करवा पाए और तो और उस अधिकारी से कोई जवाबदेही भी नहीं ले पाए. ऐसा अधिकारी जो रिश्वत के मद में अपने वरिष्ठ अधिकारी के आदेश का भी धज्जियां उड़ा रहा है. यह उत्तर प्रदेश है जहाँ समाजवादी शासन में  प्रवीन सिंह के रूप में एक और यादव सिंह पल रहा है..

(भ्रष्टाचार के विरुद्ध उठी आवाज का साथ दे और पोस्ट शेयर करें)


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राष्ट्रीय आंदोलन का उदय एवं उसके कारण




भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन का उदय 19 वीं शताब्दी की एक प्रमुख घटना थी मैकडोनाल्ड के शब्दों में, ‘‘भारतीय राष्ट्रवाद राजनीतिक मॉडलों का नहीं अपितु इससे बहुत कुछ अधिक रहा है। यह एक ऐतिहासिक परंपरा का पुनरुज्जीवन है, एक राष्ट्र की आत्मा की मुक्ति है।‘‘ भारत के राष्ट्रीय आंदोलन के उदय के पीछे एक नहीं अपितु अनेक कारण रहे जिनमें से कुछ प्रमुख इस प्रकार हैं-
  1. 1857 का स्वतंत्रता संग्राम:- 1857 का स्वतंत्रता संग्राम भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम माना जाता है। उसे अधिकांश ब्रिटिश लेखकों ने सैनिक विद्रोह की संज्ञा दी है जो उचित नहीं है। यह सैनिक विद्रोह नहीं बल्कि स्वतंत्रता प्राप्ति हेतु भारतीयों का प्रथम जन-विद्रोह था। इस आंदोलन को दबाने के लिये अंग्रेजों ने अत्यधिक अमानवीयता से काम किया जिसका वर्णन करते हुये सर चार्ल्स डिस्के ने अपनी पुस्तक ग्रेटर इंडिया में लिखा है- ‘ अंग्रेजों ने अपने कैदियों की हत्या बिना न्यायिक कार्यवाही के इस ढंग से कर दी जो सभी भारतीयों की दृष्टि में पाश्विकता की चरम सीमा थी..........दमन के दौरान गाँव जला दिये गये। निर्दोष ग्रामीणों का वह कत्लेआम किया गया कि उससे मुहम्मद तुगलक भी शरमा जायेगा ।“ यह सत्य है कि योग्य नेतृत्व का अभाव, संचार एवं सैन्य व्यवस्था की कमी, तालमेल का अभाव जैसी कमियों के कारण यह आंदोलन सफल भले ही न हो पाया हो पर आंदोलन को दबाने में अंग्रेजों ने जिस अमानवीयता का परिचय दिया उससे भारतीय जनता भयभीत होने के स्थान पर स्वतंत्रता प्राप्ति हेतु और अधिक कटिबद्ध हो गयी।
  2. पश्चात शिक्षा का प्रभाव:- पश्चात शिक्षा से भी भारतीय राष्ट्रवाद को बल मिला क्योंकि शिक्षित होने के पश्चात भारतीयों को अन्य देशों के नागरिकों की तुलना में अपनी दीनता-हीनता का आभास हुआ और वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि इसका प्रमुख कारण है विदेशियों का उनके ऊपर शासन। यद्यपि लार्ड मैकाले ने भारत में अंग्रेजी शिक्षा को लागू करवाने हेतु इसलिये बल दिया ताकि उसे शासन व्यवस्था में कम वेतन पर क्लर्क प्राप्त हो सकें। अर्थात ऐसे व्यक्ति जो खून और वर्ण से तो भारतीय हो किंतु रूचि, विचार,शब्द और बुद्धि से अंग्रेज हों।
    मैकाले इस बात से भी भली भांति परिचित था कि अंग्रेजी शिक्षा का ज्ञान प्राप्त करने के पश्चात भारतीय ब्रिटिश लोकतांत्रिक शासन पद्धति की माँग करेंगे। इसलिए उसने 1833 में कहा था-‘‘ अंग्रेजी इतिहास में वह गर्व का दिन होगा जब पश्चात ज्ञान में शिक्षित होकर भारतीय पश्चात संस्थानों की माँग करेंगे।’’ इस अंग्रेजी शिक्षा का भारतीयों पर मिला जुला प्रभाव हुआ। यह प्रभाव बुरा इस अर्थ में था कि अनेक भारतीय अपनी सभ्यता, संस्कृति, भाषा रीति-रिवाज और परम्पराओं को भूलकर अंग्रेजी सभ्यता और संस्कृति का गुणगान करने लगे इसके विपरीत भारतीयों को इस शिक्षा व्यवस्था से अनेक-नेक लाभ हुए। अंग्रेजी के प्रचार प्रसार से भारत के बाहर बसे लोगों के बीच भाषा की एकता स्थापित हो गयी इसके अतिरिक्त उन्हें मिल, मिल्टन तथा बर्क जैसे महान व्यक्तियों के विचारों का ज्ञान हुआ। उनमें स्वतंत्रता, लोकतंत्र और राष्ट्रीयता की भावना जाग्रत हुई। इसे अपने लिए वे आवश्यक मानने लगे। भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में पश्चिमी शिक्षा के प्रभाव की चर्चा करते हुए ए.आर.देसाई ने लिखा है ‘‘ शिक्षित भारतीयों ने अमरीका, इटली और आयरलैंड के स्वतंत्रता संग्रामों के संबंध में पढ़ा। उन्होंने ऐसे लेखकों की रचनाओं का अनुशीलन किया जिन्होंने व्यक्तिगत और राष्ट्रीय स्वाधीनता के सिद्धांतों का प्रचार किया है। ये शिक्षित भारतीय भारत के राष्ट्रीय आंदोलन के राजनीतिक और बौद्धिक नेता हो गये।
    पश्चात शिक्षा का स्पष्ट प्रभाव 1885 के भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के प्रथम अधिवेशन में दृष्टिगोचर हुआ जहाँ अंग्रेजी भाषा के द्वारा ही भारत के विभिन्न क्षेत्रों के लोगों ने एक दूसरे के विचारों को समझा। राजा राममोहन राय, गोपाल कृष्ण गोखले, दादा भाई नौरोजी, व्योमेश चन्द्र बनर्जी आदि इस अंग्रेजी शिक्षा की ही देन थे। इन्होंने देश को स्वतंत्र कराने में महती भूमिका अदा की । अंग्रेजी शिक्षा प्राप्ति के पश्चात जब भारतीय ब्रिटेन एवं अन्य देशों के भ्रमण पर गये तो वहाँ की व्यवस्था देखकर अवाक रह गये। तत्पश्चात उन्होंने अपने लिए भी स्वशासन की मांग की। इस दृष्टि से डॉ. जकारिया का यह कथन सत्य है कि ‘‘अंग्रेजों ने 125 वर्ष पूर्व शिक्षा का जो कार्य आरम्भ किया उससे अधिक हितकर और कोई कार्य उन्होंने भारत वर्ष में नहीं किया।’’
  3. राजनीतिक एकता:- भारत प्राचीन एवं मध्यकाल में सांस्कृतिक दृष्टि से एक था पर यह एकता सर्वथा अस्थिर थी अशोक, समुद्र गुप्त, अकबर एवं औरंगज़ेब ने भारत के एक बड़े भाग पर अपना प्रभुत्व स्थापित किया पर वे उसे स्थिर नहीं रख सके। प्रो. विपिन चन्द्र ने इसे स्वीकार करते हुये अपनी पुस्तक‘‘ भारत का स्वतंत्रता संघर्ष’’ में लिखा है। ‘‘........दादा भाई नौरोजी, सुरेंद्रनाथ बनर्जी और तिलक से लेकर गांधीजी और जवाहरलाल नेहरू तक राष्ट्रीय नेताओं ने स्वीकार किया कि भारत पूरी तरह से सुसंगठित राष्ट्र नहीं है। यह एक ऐसा राष्ट्र है जो बनने की प्रक्रिया में है।“ भारत में राजनीतिक एकता स्थापित करने में अंग्रेज बड़े सहायक सिद्ध हुए। अंग्रेजों ने भारत में शासन की एकता स्थापित करके उसे एक राजनीतिक इकाई का रूप दिया।  यातायात के साधनों के विकास के फलस्वरूप देश के विभिन्न कोनों के लोग सुविधा पूर्वक एक दूसरे के संपर्क में आए जिससे उनकी स्थानीय भक्ति का स्थान राष्ट्रीय भक्ति ने ले लिया। हालांकि अंग्रेजों ने भारत में यातायात का विकास अत्यधिक आर्थिक दोहन एवं सेना के सुदृढ़ीकरण के उद्देश्य से किया था पर जैसा कि जवाहर लाल नेहरू का कथन है ‘‘ब्रिटिश शासन द्वारा स्थापित भारत की राजनीतिक एकता सामान्य एकता की अधीनता थी लेकिन उसने सामान्य राष्ट्रीयता की एकता को जन्म दिया’’ इस प्रकार एकता की भावना ने राष्ट्रीयता के विकास की भावना का मार्ग प्रशस्त किया।
  4. सामाजिक एवं धार्मिक आंदोलन:- राष्ट्रीय भावना की उत्पत्ति में 19 वीं शताब्दी के सामाजिक एवं धार्मिक आंदोलनों का मुख्य स्थान है। राजा राममोहन राय एवं ब्रह्म समाज, स्वामी दयानंद सरस्वती एवं आर्य समाज, स्वामी विवेकानंद एवं रामकृष्ण मिशन, श्रीमती एनी बेसेन्ट एवं थियोसोफिकल सोसाइटी ने अपने विचारों एवं आंदोलनों के माध्यम से भारतीय जनता को यह स्वदेश दिया कि उनका धर्म एवं संस्कृति श्रेष्ठ है। इन विचारों ने भारतीयों को उनके धर्म एवं समाज में व्याप्त दोषों और कुरीतियों के प्रति आगाह किया। इसका परिणाम यह हुआ कि समाज में व्याप्त सती-प्रथा, विधवा-विवाह तथा बाल-विवाह जैसी कुरीतियों के विरूद्ध जनमत तैयार हुआ, जिससे इन पर रोक लग सकी। इन सुधार आंदोलनों के परिणाम स्वरूप सामाजिक कुरीतियों एवं अन्धविश्वासों का विनाश होने से भारतीयों में नवजागरण का सूत्रपात हुआ और नवोत्साह से वे देश की स्वतंत्रता प्राप्ति हेतु प्रयास करने लगे।
  5. शिक्षित भारतीयों में असंतोष:- पश्चात शिक्षा के फलस्वरूप भारतीयों में एक नवीन शिक्षित वर्ग का उदय हुआ जो शासन व्यवस्था में भागीदार बनने हेतु उद्यत था। परन्तु 1833 के अधिनियम एवं 1850 के ब्रिटिश सम्राज्ञी की इस स्पष्ट घोषणा के बावजूद कि भारतीयों को वर्ण, जाति, भाषा या धर्म आदि के आधार पर कोई पद प्रदान करने से वंचित नहीं किया जायेगा, शिक्षित भारतीयों को उच्च पदों से दूर रखने की हर संभव कोशिश की जाती रही। इससे शिक्षित भारतीय असंतुष्ट हो गये। अंग्रेजों की इस कथनी और करनी का अंतर अनेक भारतीयों को प्रतिष्ठित ‘भारतीय नागरिक सेवा ञ परीक्षा उत्तीर्ण करने के पश्चात उन्हें सेवा का अवसर न देना या किसी छोटी सी गलती के फलस्वरूप उन्हें नौकरी के लिए अयोग्य घोषित कर देना ऐसी ही घटनाएं थी। अरविन्द घोष को परीक्षा उत्तीर्ण करने के पश्चात घुड़सवारी में प्रवीण न होने का आरोप लगाकर नौकरी से वंचित कर दिया गया। जब 1877 में इसी प्रतियोगी परीक्षा हेतु परीक्षार्थियों की न्यूनतम आयु 21 वर्ष से घटाकर 19 कर दी गई तो शिक्षित भारतीय नवयुवकों में अत्यधिक अंसतोष फैला क्योंकि योग्यता रखते हुये भी उन्हें उच्च पदों से वंचित रखने की यह एक चाल थी। ब्रिटिश शासन के इस अवांछनीय कदम से भारतीय नवयुवक राष्ट्रीय आन्दोलन हेतु कटिबद्ध हो गये। ब्रिटिश शासन के इस कदम का विरोध करने के लिये सुरेन्द्र नाथ बनर्जी ने भारत का दौरा किया और जनता को इन अन्यायों का विरोध करने के लिये प्रेरित किया। भारत की इन शिकायतों को ब्रिटिश सरकार के समक्ष रखने हेतु लाल मोहन घोष को इंग्लैंड भेजा गया। इस प्रकार इस आंदोलन ने राष्ट्रीय जाग्रति फैलाने में अपना योगदान दिया।
  6. भारत का आर्थिक शोषण:- अंग्रेज भारत में व्यापार करने के उद्देश्य से आये थे और यहाँ के शासकों की कमजोरी का फायदा उठाकर वे राजनीतिक क्षेत्र में भी सर्वेसर्वा बन गये। राजनीतिक क्षेत्र पर नियंत्रण स्थापित होने से उन्हें भारत का आर्थिक शोषण करने में भी सरलता हुई। अंग्रेजों के इस आर्थिक शोषण से भारत के उद्योगों एवं कृषि का नाश तो हुआ ही साथ ही व्यापार पर भी विपरीत प्रभाव पड़ा। प्रतिबंधों के बावजूद भारतीय अखबारों से देशभक्ति और स्वतंत्रता प्राप्ति की धारा फूटती थी। अखबारों पर अंग्रेजों का कितना दबाब था और इसके लिये ’स्वराज’ द्वारा अपने लिये प्रकाशित संपादक के विज्ञापन का उल्लेख भर करना पर्याप्त होगा । इस विज्ञापन के अनुसार, ‘‘चाहिए स्वराज के लिये एक संपादक, वेतन दो सूखी रोटियाँ, एक ग्लास ठंडा पानी और हर सम्पादकीय के लिये दस साल जेल । “ब्रिटिश बर्बरता का जबाब अपनी कलम के माध्यम से देने वालों में प्रमुख समाचार पत्र थे-हिन्दू पैट्रियाट, अमृत बाजार पत्रिका, इंडियन मिरर, बंगालीसोम, प्रकाश,संजीवनी एडवोकेट, आजाद, हिन्दुस्तानी, रास गोफ्तार, पयामे आजादी, नेटिव ओपेनियन, इंदु प्रकाश, मराठा, केसरी, हिन्दू,स्वदेश मिलन, आंध्रप्रकाशिका, केरल पत्रिका, ट्रिब्यून कोहेनूर आदि। इन अखबारों की भूमिका का उल्लेख करते हुए डा. धर्मवीर भारती कहते हैं-‘‘स्वतंत्रता संग्राम में पत्रकारिता की परंपरा और भी परवान चढ़ती गयी। वह चाहे क्रांतिकारियों का सशस्त्र आंदोलन हो या गाँधीजी का सत्याग्रह, ये अखबार उनके माध्यम थे। जन जागरण के अग्रदूत थे, रोज जमानत माँगी जाती थी रोज-रोज पुलिस छापे मारती थी। संपादक का एक पाँव जेल में रहता था।“ इन समाचार पत्रों के अतिरिक्त अनेक लेखकों ने अपनी लेखनी के माध्यम से भारतीयों में राष्ट्रीयता की भावना भरी। इनमें बंकिमचंन्द्र की ‘आनंदमठ‘ और उनका गीत ‘वन्दे मातरम्‘ विशेष उल्लेखनीय है। इसके अतिरिक्त मधुसूदन दा ने बंगाली में, भारतेन्दु हरीशचंद्र, माखनलाल चतुर्वेदी एव मैथिलीषरण गुप्त ने हिन्दी में, चिपलूणकर ने मराठी में, भारती ने तमिल में तथा अन्य लेखकों ने राष्ट्रीयता की भावना से ओत-प्रोत श्रेष्ठ साहित्य का सृजन करके राष्ट्रीय आंदोलन में जोश भरा। भारतेन्दु हरिष्चन्द्र ने अपने प्रसिद्ध नाटक ‘भारत-दुर्दशा‘ (1876) में भारत की दुर्दशा का मार्मिक चित्रण किया है। ’कवि वचन सुधा’ में उन्होंने अनुरोध किया है कि भारतीयों! अब किसी हाल में भारत का धन विदेशों में मत जाने दो। इन सबके आधार पर प्रो0 विपिन चन्द्र के इस कथन को स्वीकार करने में तनिक भी संशय नहीं रह जाता कि ‘‘ प्रेस ही वह मुख्य माध्यम थी जिसके जरिए राष्ट्रवादी विचारधारा वाले भारतीयों ने देशभक्ति के सन्देश और आधुनिक आर्थिक, सामाजिक तथा राजनीतिक विचारों को प्रसारित किया और अखिल भारतीय चेतना का सृजन किया।“
  7. विदेशों से सम्पर्क:- अंग्रेजों द्वारा शिक्षा को प्रोत्साहन दिये जाने का एक सुखद परिणाम यह हुआ कि भारतीयों का विदेशों से संपर्क स्थापित हुआ। यह बात अलग है कि यह विदेश भ्रमण शिक्षा, नौकरी एवं भ्रमण जैसे कई उद्देश्यों के तहत होता था। परन्तु सभी भारतीयों ने वहाँ जाकर स्थानीय लोकतांत्रिक विचारों, सिद्धांतों एवं संस्थाओं का अध्ययन किया और उनके व्यावहारिक पक्षों से भी अवगत हुए। फलस्वरूप उन्हें स्वतंत्रता, समानता और प्रजातंत्र के विषय में जानकारी हुई। श्री गुरूमुख निहाल सिंह लिखते हैं कि-‘‘ इंग्लैंड में उन्हें स्वतंत्र राजनीतिक संस्थाओं की कार्य विधि का गहरा ज्ञान प्राप्त हो जाता था। वे स्वतंत्रता और स्वाधीनता का मूल्य समझ जाते थे तथा उनके मन में जगी हुई दासता की मनोवृत्ति घट जाती थी।“ इस प्रकार भारतीयों का विदेश भ्रमण उनकी स्वतंत्रता प्राप्ति में सहायक बना।
  8. विदेशी घटनाओं का सकारात्मक प्रभाव:- इसी समय विदेशों में कई घटनाएं घटी जिसने भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन पर सकारात्मक प्रभाव पड़ा। इन घटनाओं में इंग्लैंड में सुधार कानूनों का पारित होना, अमेरिका में दास प्रथा समाप्त होना, फ्रांस में तृतीय गणतंत्र की स्थापना, इटली, जर्मनी, रोमानिया तथा सर्विया के राजनीतिक आंदोलन शामिल थे। इन आंदोलनों से भारतीयों को प्रेरणा मिली और उनके अंदर एक विश्वास जागा कि वे भी अंग्रेजों के खिलाफ एक सफल आंदोलन चलाकर उन्हें भारत से खदेड़ सकते हैं। आर. सी. मजूमदार के शब्दों में ‘‘ भारतीय सीमा से बाहर घटित इन घटनाओं ने स्वभावतः भारतीय राष्ट्रवाद की धारा को प्रभावित किया ।“
  9. सामाजिक परिवर्तन:- पश्चात संस्कृति एवं आधुनिक शिक्षा नीति से परिचित होने के पश्चात भारतीय समाज में भी काफी परिवर्तन हुए। पश्चात प्रभाव एवं ब्रिटिश शासन द्वारा लागू सुधारों के फलस्वरूप भारतीयों के दिमाग में पुरानी कुरीतियों एवं अन्ध विश्वासों का स्थान एक नये प्रकाश ने ले लिया और अब वे हर बात को विज्ञान की कसौटी पर परखने लगे। सती प्रथा की समाप्ति, स्त्रियों एवं समाज के अन्य वर्गों के प्रति नया दृष्टिकोण, बाल विवाह का विरोध जैसे सुधारात्मक कार्यों से भारतीय समाज के कदम भी आधुनिकीकरण की दिशा में बढ़ चले। इससे समाज में एक नयी चेतना उत्पन्न हुई जिसने राष्ट्रीय चेतना को मजबूत किया। इन सुधारों में सामाजिक एवं धार्मिक संगठनों का भी प्रमुख हाथ रहा है। जिसे स्वीकार करते हुए डा0 अनिल सील कहते है,‘‘ धर्मनिरपेक्ष राजनीतिक विचारधारा के पनपने के पहले ही इन सभाओं द्वारा शिक्षित भारतीयों को राष्ट्रीय आधार पर सोचने और संगठित होने की आदत पड़ी।“
  10. जापान द्वारा रूस की पराजय:- 1940 के युद्ध में जब एशिया के एक छोटे से देश जापान ने यूरोप के एक बड़े देश रूस को पराजित किया तो भारतीयों के नैतिक साहस में भरपूर वृद्धि हुई। क्योंकि उस समय यूरोपीय राष्ट्र अजेय समझे जाते थे और इस सोच के चलते एशियाई देशों के नागरिक स्वयं को हीन समझते थे। इस युद्ध ने एक तरफ यूरोपीय जातियों के दम्भ को तोड़ा तो दूसरी ओर एशिया के लोगों को उनकी क्षमता का भान कराया। भारतीयों के लिए भी अपनी क्षमता और साहस में वृद्धि करने का यह अच्छा साधन सिद्ध हुआ। शासकों का जातीय अहंकार:-अंग्रेज सदैव स्वयं को श्रेष्ठ एवं भारतीयों को निम्न जाति का समझकर व्यवहार करते थे जिससे भारत के लोगों में राष्ट्रीय भावना का विकास हुआ। 1957 के विद्रोह के बाद तो अंग्रेज भारतीयों को ‘आधे वनमानुष आधे जंगली कहने लगे इससे दोनों के मध्य कटुता बढ़ी। भारतीयों के प्रति अंग्रेजों द्वारा अपनायी गयी इन नीतियों का कारण बताते हुए मि. गैरेट लिखते हैं-‘‘ उन्होंने अपने लिये एक विचित्र व्यवहार नीति अपनाई, जिसके तीन महत्वपूर्ण सिद्धांत थे, प्रथम यह है कि एक यूरोपियन का जीवन अनेक भारतीयों के जीवन के बराबर है। द्वितीय प्राच्य देशवासियों पर केवल भय के आधार पर ही शासन किया जा सकता है। तृतीय वे यहाँ लोक हित के लिये नहीं ‘वरन अपने निजी लाभ एवं ऐश्वर्य के लिये आये हैं। “ अंग्रेजों की इस निम्न कोटि की सोच का परिणाम यह हुआ कि भारतीयों के स्वाभिमान एवं आत्मसम्मान पर आये दिन आक्रमण होने लगे। भारतीयों को जान से मार देने पर भी किसी कठोर दण्ड की व्यवस्था नहीं थी, बल्कि वे सस्ते में ही छूट जाया करते थे। जातीय अहंकार का एक उदाहरण जी0ओ0 टेवेलियन के इस कथन में भी है, ‘‘कचहरी में उनके एक भी साक्ष्य का वजन असंख्य हिन्दुओं के साक्ष्य से अधिक होता है। यह ऐसी परिस्थिति है, जो एक बेईमान और लोभी अंग्रेज के हाथों में सत्ता का एक भयंकर उपकरण रख देती है। “अंग्रेजों के इस जातीय अहंकार के कारण भारतीयो के साथ उनके सम्बंघ बद से बदतर होते गये।
  11. लार्ड लिटन की दमनकारी नीति:- लिटन सन् 1876-80 के दौरान भारत का वायसराय था। उसके शासनकाल में कई ऐसी घटनाएँ हुई जिनसे भारतीय राष्ट्रवाद को बल प्राप्त हुआ। प्रो0 विपिन चन्द्र के शब्दों में, ’‘उन्नीसवीं शताब्दी के आठवें दशक तक यह स्पष्ट हो गया था कि भारतीय राजनीतिक रंगमंच पर एक प्रमुख शक्ति के रूप में आने के लिये भारतीय राष्ट्रवाद ने पर्याप्त ताकत का संवेग प्राप्त कर लिया है पर लार्ड लिटन के प्रतिक्रियावादी शासन ने उसे स्पष्ट स्वरूप प्रदान किया। “लिटन के शासनकाल में ब्रिटेन से आने वाले कपड़ों पर से आयात कर को हटा दिया गया इससे भारतीय कपड़ा उद्योग पर बुरा असर पड़ा। अफ़ग़ानिस्तान के साथ एवं एवं लम्बे युद्ध ने भी ब्रिटिश शासन के प्रति भारतीयों की नाराजगी बढ़ायी क्योंकि इस युद्ध में भारतीय धन के अपव्यय से रुष्ट थे। इन सबसे बढ़कर सन् 1877 में दिल्ली के दरबार का आयोजन भारतीयों को अपने जले पर नमक छिड़कने के समान लगा। जिस समय यह आयोजन हुआ उसी समय दक्षिण भारत में भीषण अकाल पड़ा था। उस समय ब्रिटिश सरकार द्वारा राहत उपाय करने के स्थान पर ऐसे आयोजन करना जिनका उद्देश्य महारानी विक्टोरिया को ‘ भारत की सम्राज्ञी ‘ घोषित करना था, भारतीयों के गले नहीं उतरा। अंग्रेजों के इस कृत्य की आलोचना में भारतीयों का साथ समाचार पत्रों ने भी दिया। एक समाचार पत्र की टिप्पणी थी-‘‘ जब रोम जल रहा था तब नीरो बाँसुरी बजा रहा था ।‘‘ भारत के जन आंदोलन को समाप्त करने के उद्देश्य से ’वर्नाकुलर प्रेस एक्ट’ एवं शस्त्र कानून’ पारित किये गये पर इतिहास गवाह है कि इन कानूनों ने भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन के बिखराव में नहीं बल्कि उसे संगठित करने में सहायता पहुँचायी। जातीय अहंकार की सोच से प्रभावित होकर अंग्रेजों ने शस्त्र कानून’ पारित किया जिसके अनुसार बिना लाइसेंस के भारतीय शस्त्र नहीं रख सकते थे पर अंग्रेजों पर इस तरह का कोई बन्धन नहीं था। सुरेंद्र नाथ बनर्जी के शब्दों में, ’’इस अधिनियम ने हमारे माथे पर जातीय हीनता की छाप लगा दी थी। “ इण्डियन सिविल सर्विस की परीक्षा के उम्मीदवारों की आयु 21 वर्ष से घटाकर 19 वर्ष करने के कृत्य से अंग्रेजों ने शिक्षित भारतीयों के एक बड़े वर्ग को अपने विरोधियों की जमात में खड़ा कर दिया था। इस प्रकार लिटन के कार्यों ने ब्रिटिश शासन के पतन को अवश्यम्भावी बना दिया। सुरेन्द्र नाथ बनर्जी का यह कथन ठीक है कि, ‘‘लार्ड लिटन के प्रतिक्रियावादी प्रशासन ने जनता को उसकी उदासीनता के दृष्टिकोण से जगाया है और जनजीवन को आगे बढ़ने की प्रेरणा दी है। राजनीतिक प्रगति के उद्भव में बहुधा खराब शासक आशीर्वाद होते हैं। वे समुदाय को जगाने में मदद करते हैं। जिसमें वर्षों का आंदोलन भी असफल हो जाता हैं। “
  12. इलबर्ट बिल पर विवाद:- इलवर्ट बिल के विवाद से कम से कम भारतीयों को एक बात तो स्पष्ट हो गयी कि अब बिना संगठित आंदोलन के कुछ होने वाला नहीं है इलबर्ट बिल लार्ड रिवन के शासनकाल में तत्कालीन विधि सदस्य मि.इल्बर्ट ने रखा था जिसमें भारतीय मजिस्ट्रेटों एवं जजों को अंग्रेजों के मुकदमे की सुनवाई और दण्ड देने के अधिकार का प्रस्ताव था पर अंग्रेजों का जातीय अहंकार यहाँ भी आड़े आया अंग्रेज इस बात की कल्पना करके सहर उठे कि काली चमड़ी वाले भारतीय अदालत में उन्हें खड़ा करके दंडित करेंगे। इस स्थिति से बचने के लिए अंग्रेजों ने आंदोलन किया। फलस्वरूप बिल संशोधित हो गया अब यह प्रावधान किया गया कि भारतीय जज अंग्रेजों के मुकदमे की सुनवाई उसी जूरी की सहायता से कर सकते है जिसके कम से कम आधे सदस्य अंग्रेज हों। इस संबंध में हेनरी काटन ने कहा,‘‘ इस विधेयक और इसके विरोध में किये गये आंदोलन ने भारतीय राष्ट्रीयता पर जो प्रभाव डाला वह प्रभाव विधेयक के मूल रूप में पारित होने पर कभी नहीं हो सकता था।“ उपर्युक्त सभी कारण भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन को पुष्पित और पल्लवित करने में सहायक रहे, इस बात से कोई भी इन्कार नहीं कर सकता है। यह बात अवश्य है कि इनमें से कुछ ने सीधे सीधे राष्ट्रवादी भावना को उभारा तो कुछ ने ऐसी परिस्थितियाँ उपस्थित की जिनमें इन भावनाओं को विकसित होने का सुअवसर मिल सका। अंग्रेजों ने भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन को जितना दबाने की कोशिश की वह उतना ही उग्र से उग्रतर होता गया। इस आंदोलन को अखिल भारतीय बनाने में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का बहुत बड़ा योगदान था ।


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इस्लाम की आस्था और वन्देमातरम्, कितना उचितऔर कितना अनुचित?



वन्देमातरम् को राष्ट्रगीत के रूप में अंगीकार किये जाने के सौ साल पूरे होने के उपलक्ष्य में चल रहे समापन समारोह के अवसर पर देशभर में शैक्षणिक संस्थानों में सात सितम्बर को सामूहिक वन्देमातरम् गाए जाने के सम्बंध में केन्द्र सरकार ने जो आदेश जारी किया है, उस के विरूद्ध कुछ अलगाववादी मुसलमानों ने बवाल मचा दिया है। इन तत्वों का यह कहना है कि यह गीत इस्लाम विरोधी है। अलगाववादी ताकतों का लक्ष्य 1905 में कुछ दूसरा था और लगता है आज भी दूसरा है। केवल राष्ट्रीय प्रवाह के विरूद्ध अपनी सोच को मान्यता दिलाना उनकी नियत है। नाम इस्लाम का है लेकिन काम राजनीति और कुटिल कूटनीति का है। इस्लाम के नाम पर आजादी से पहल और आजादी के बाद अनेक फतवे जारी हुए हैं। उन में वन्दे मातरम् का विरोधी भी उनका मुख्य लक्ष्य रहा है। सवाल यह उठता है कि वन्देमातरम् विरोधी जो ताकतें इस प्रकार की बातें कर रही है उनमें कितनी सच्चाई है उसका इस्लामी दृष्टिकोण से जायजा लेना अनिवार्य है। यदि ऐसा नहीं है तो फिर इन तत्वों के विरूद्ध कानूनी कार्यवाही होनी चाहिये। आतंकवाद को ताकत पहुचाने वाली ऐसी हरकतें सम्पूर्ण राष्ट्र के लिए घातक है अतएव उस पर गहराई से विचार होना चाहिये।

वन्देमातरम् की हर पंक्ति मां भारती का गुणगान करती है। न केवल वसुंधरा की प्रशंसा है बल्कि कवि एक जीती जागती देवी के रूप में भारत को प्रस्तुत कर रहा है। उसकी शक्ति क्या है और वह अपने शत्रु को किस प्रकार पराजित करने की क्षमता रखती है इसका रोमांचकारी वर्णन है। वन्देमातरम् केवल गीत नहीं बल्कि भारत के यथार्थ को प्रस्तुत करने वाला एक दस्तावेज है। भारत को पहचानने के लिये बंकिम अपनी मां को पहचाने का आह्वान कर रहे हैं। इसका सम्पूर्ण उद्देश्य अपने देश की धरती को स्वतंत्र करवाना है। इसलिये यहां जो भी सांस लेता है उसका यह धर्म है कि वह अपना सर्वस्व अर्पित कर दे।

कोई यह सवाल उठा सकता है कि भारत में कोई एक धर्म, एक जाति, एक आस्था के व्यक्ति नहीं है जो इस देश को माता के समान पूज्यनीय माने। एकेश्वरवादी इसके लिये कह सकते हैं कि यह हमारी आस्था और विचारधारा के विरूद्ध है। लेकिन जिस निर्गुण निराकार में उन्हें विश्वास है वह भी तो अपार शक्ति का मालिक है। किसी के गुण अथवा ताकत को स्वीकार करना या उस का आभास होना कोई एकेश्वरवाद के सिद्धांत को ठुकराना नहीं है।

वन्देमातरम् पर सबसे अधिक विरोध मुठ्ठीभर मुस्लिम बंधुओं को है। वे यह सवाल कर सकते हैं कि यहां तो इसका वर्णन कुछ इस प्रकार से किया जा रहा है कि मानो वह साक्षात देवी है और जिन अलंकारों का हम उपयोग कर रहे हैं वह केवल उसकी पूजा करने के समान है। जब इस बहस को शुरू करते हैं तो इस्लाम के सिद्धांतों पर वन्देमातरम् खरा उतरता है। क्या इस्लाम में मां को पूज्यनीय नहीं कहा गया है? पैगम्बर मोहम्मद साहब की हदीस है-- मां के पैर के नीचे स्वर्ग है’ यदि इस्लाम सगुण साकार के विरूद्ध है तो फिर मां और उसके पांव की कल्पना क्या किसी चित्र को हमारी आंखों के सामने नहीं उभारती। अपनी मां का तो शरीर है लेकिन वन्देमातरम् में जिस मां की वंदना की बात की जाती है उसका न तो शरीर है, न रंग है और न रूप है फिर उसे देवी के रूप में पूजने का सवाल कहां आता है? यहां तो केवल अलंकार है और विशेषण हैं इसलिये उसका आदर है। इस आदर को पूज्यनीय शब्द में व्यक्त किया जाए तो क्या उसकी पूजा किसी मूर्ति की पूजा के समान हो सकता है। भारत में जब बादशाहत का दौर था उस समय हर शहंशाह को ‘जिल्ले इलाही’ (उदाहरण के लिये मुगले आजम फिल्म) कहा जाता था। इस का अर्थ होता है ईश्वर का दिव्य प्रकाश। क्या यह शब्द किसी मूर्ति की प्रशंसा को प्रकट नहीं करता। यहां तो साक्षात् हाड़ मांस के आदमी के लिये इस शब्द का उपयोग किया जा रहा है। दूसरे शब्दों में इस शब्द के माध्यम से तो आप पत्थर या देश की ही नहीं अपितु एक इंसान को ईश्वर रूप में मान रहे हैं। इस तर्क के आधार पर तो तो यह कहना होगा कि वन्देमातरम् से अधिक इस्लाम के अनुयाइयों के लिये जिल्ले इलाही शब्द आपत्तिजनक होना चाहिये। यदि वे इसे विशेषण मानते हैं तो भारत के विशेषणों को स्वीकार करने में कोई हिचकिचाहट नहीं होनी चाहिये। व्यक्ति के चेहरे पर ईश्वरीय प्रकाश हो सकता है तो फिर किसी मां की प्रशंसा करने के लिये उसे सहस्त्र हाथों वाली भी कहा जा सकता है जो अपने बाहुबल से शत्रु का नाश करने वाली है। इस्लाम अपने झंडे में चांद और तारे को महत्व देता है। उस झंडे को सलामी दी जाती है। उस का राष्ट्रीय सम्मान होता है। ध्वज का अपमान करने वाले को दंडित किया जाता  है। क्या हरा रंग और यह चांद सितारे इस ब्रह्मांड के अंग नहीं है। यदि ध्वज को सलामी दी जा सकती है तो फिर धरती माता को प्रणाम क्यों नहीं किया जाता। यह प्रणाम ही तो इसकी वंदना है। इसलिये सलामी के रूप में आकाश के चांद तारे पूज्यनीय है तो फिर धरती की अन्य वस्तुओं को पूज्यनीय माने जाने से कैसे इंकार किया जा सकता है? भारतीय परिवेश में भक्ति प्रदर्शन का अर्थ पूजा होता है। पूजा इबादत का समानार्थी शब्द है इसे स्वीकार करना ही पड़ेगा। बंगला भाषा के अनेक मुसलमान कवि और लेखकों ने इंसान के बारे में वंदना शब्द का प्रयोग किया है। कोई भी बंगाली मुसलमान वंदना शब्द से परहेज नहीं करता। लेकिन उसे अरबी के माध्यम से प्रयोग किया जाएगा तो मुसलमान उस पर अवश्य आपत्ति उठाएगा। क्योंकि समय, काल और देश के अनुसार हर स्थान पर अपने-अपने शब्द हैं और उनका उपयोग भी अपने-अपने परिवेश में होता है।

प्रसिद्ध बंगाली विद्वान मौलाना अकरम खान साहब की मुख्य कृति ‘मोस्तापाचरित’ में पृष्ठ 1575 पर जहां अरब देश का भौगोलिक वर्णन किया है वहां वे लिखते हैं.... अर्थात कवि ने अरब को ‘मां’ कह कर सम्बोधित किया है।

देश को जब हम मां कहते हैं तब रूपक अर्थ में ही कहते हैं। देश को मां के रूप में सम्बोधन करने का मूल उद्देश्य है। यहां हम देश को ‘खुदा’ नहीं कहते। यदि हमारी मां को मां कह कर पुकारने में कोई दोष नहीं होता तो रूपक भाव से देश को मां कहने में भी कोई दोष नहीं हो सकता। देश भक्ति, देश-पूजा, देश वंदना, देश-मातृका एक ही प्रकार के विभिन्न शब्द हैं जो इस्लाम की दृष्टि में पूर्णतया मर्यादित हैं। इसलिये वंदेमातरम् गीत को गाना न तो ‘बुतपरस्ती’ है और न ही इस्लाम विरोधी।

देश को मां कहकर सम्बोधित करने की प्रथा अरबी और फारसी में बहुत पुरानी है। ‘उम्मुल कोरा’ (ग्राम्य जननी) उम्मुल मूमिनीन (मूमिनों की जननी) उम्मुल किताब (किताबों की जननी) यानी यह सभी मां के रूप में है तो फिर वन्देमातरम् शब्द का विरोध कितना हास्यास्पद है।

वन्देमातरम् यदि इसलिये आपत्तिजनक है क्योंकि इस में देश का गुणगान है तो फिर अरब भूखंड के अनेक देशों का भी उन के राष्ट्रगीत में वर्णन है। उजबिकिस्तान हो या फिर किरगिस्तान सभी स्थान पर उनके राष्ट्रगीत में उनके खेत, उनके पशु पक्षी और उन के नदी पहाड़ का सुन्दर वर्णन मिलता है। यमन अपने खच्चर को इसी प्रकार प्यार करता है जिस तरह से कोई हिन्दू गाय को। यमन के राष्ट्रगीत में कहा गया है कि खच्चर उसके जीवन की रेखा है। नंगे पर्वत दूर-दूर तक फैले हुए हैं जिनमें कोई स्थान पर झरने फूटते हुए दिखलाई पड़ते हैं। जिस तरह किसी माता के स्तन से ममता फूट रही हो। इजिप्ट के राष्ट्र गीत में तो लाल सागर, भूमध्य सागर और स्वेज का वर्णन पढ़ने को मिलता हैं नील नदी उनके लिये गंगा के समान पवित्र है। इजिप्टवासी की यह इच्छा है कि मरने के पश्चात स्वर्ग में भी उसे नील का पानी पीने को मिले। पिरामिड को अपनी शान और पुरखों की विरासत के रूप में अपने राष्ट्रगीत में याद करता है।

डाक्टर इकबाल ने अपनी कविता ‘नया शिवालय’ में लिखा है...... पत्थर की मूरतों में समझा है तू खुदा है.... खाके वतन का मुझको हर जर्रा देवता है। डाक्टर इकबाल केवल पत्थर से बनी मूर्तियों में ईश्वर का प्रतिबिम्ब नहीं देखते हैं उनके लिये तो सारे देश हिन्दुस्तान का हर कण देवता है। क्या वन्दे मातरम् का विरोध करने वाले यह कह सकते हैं कि इकबाल ने भारत को देवता कहकर इस्लाम विरोधी भावना व्यक्त की है? वन्दे मातरम् में भारत की हर वस्तु की प्रशंसा ही इस गीत की आत्मा है। पाकिस्तान में प्रथम राष्ट्र गीत मोहम्मद अली जिन्ना ने लाहौर के तत्कालीन प्रसिद्ध कवि जगन्नाथ प्रसाद आजाद से लिखवाया था। डेढ़ साल के बाद लियाकत ने उसे बदल दिया। राष्ट्रगीत पाकिस्तान में तीन बार बदला गया है। दुनिया के हर देश की जनता जब अपने देश के बखान करती है और उसे अपना ईमान मानती है तब ऐसी स्थिति में भारत की कोटि-कोटि जनता कलकल निनाद करते हुए वन्देमातरम् को अपने दिल की धडकने बनाए रखे तो इसमें किसी को आश्चर्य नहीं करना चाहिये। क्योंकि राष्ट्र की वंदना हमारा धर्म भी है, कर्म भी और जीवन का मर्म भी।

श्री मुजफ्फर हुसैन, प्रख्यात देशभक्त मुस्लिम पत्रकार
(महाशक्ति वंदेमातरम् समग्र - एक प्रयास वंदेमातरम् विशिष्ट लेख संकलन)


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सरफरोशी की तमन्ना का मंत्र बना वन्देमातरम्



सन् 1905 में बंग भंग आंदोलन प्रारंभ होने के साथ ही बंगाल सचिव लाइल का यह आदेश लागू हो गया कि जो भी वंदेमातरम का उद्घोष करेगा उसे कोड़े लगाए जाएंगे, जुर्माना होगा और स्कूल से निकाल दिया जाएगा। इसके बाद स्थिति यह हो गई कि ढाका के एक स्कूल में छात्रों से पांच सौ बार लिखवाया गया- वंदेमातरम् कहना सबसे बड़ा पाप हैं पर अधिकतर छात्र लिखते थे- वंदेमातरम् कहना सबसे बड़ा धर्म है। कोलकाता में नेशनल कालेज के एक छात्र सुशील सेन को वंदेमातरम् कहने पर पंद्रह बेंत मारने की सजा मिली और उसके अगले दिन स्टेटसमैन अखबार ने लिखा कि प्रत्येक बेंत की मार पर सुशील सेन के मुख से एक ही नारा निकलता था- वंदेमातरम्। तब काली प्रसन्न जैसे कवि गा उठे-
बेंत मेरे कि मां भुलाबि। आमरा कि माएर सेई छेले
मोदेर जीवन जाय जेन चले वंदेमातरम् बोले।
अर्थात बेंत मारकर क्या मां को भुलाएगा, क्या हम मां की ऐसी संतान हैं? वंदेमातरम् बोलते हुए हमारा जीवन भले ही चला जाए पर वंदेमातरम् बोलेंगे।

इसकी गूंज सात समुद्र पार करके लंदन की धरती पर पहुंची, जहां मदन लाल ढींगरा ने अपना अंतिम वक्तव्य वंदेमातरम् के साथ ही पूरा किया। उसने कहा- भारत वर्ष की धरती को एक ही बात सीखनी है कि कैसे मरना है और यह स्वयं मरकर ही सीखा जा सकता है। इसलिए मैं मर रहा हूँ-वंदेमातरम्।

आखिर क्या है वंदेमातरम् जिसकी चोट अंग्रेज की छाती पर गोली से भी गहरी होती थी। बंगाल के बंकिम चंद्र ने अपने उपन्यास‘आनंद मठ’ में भारत माता को मानो साकार रूप ही दे दिया। बंकिम ने एक वक्तव्य में कहा था- मेरा आनंद मठ कभी सारे देश में एक सच्चाई के रूप में प्रकट होगा। भारत के स्वतंत्रता संग्राम का एक मात्र जयघोष वंदेमातरम् था।

हम नहीं जानते कि भारत सरकार के गणित का आधार क्या है पर हमारी सरकार की इच्छा है कि वर्ष 2007 को वंदेमातरम् की शताब्दी के रूप में मनाया जाए। वैसे सारा देश एक बार 1996 में वंदेमातरम् की शताब्दी मना चुका है। वर्ष 1882 में श्री बंकिम चंद्र के आनंद मठ उपन्यास का प्रकाशन हुआ। यह गीत उसी का भारतग है। फिर 1896 में पहली बार यह गीत कोलकाता में श्री बाल गंगाधर तिलक की उपस्थिति में कांग्रेस के अधिवेशन में गाया गया और स्वयं श्री टैगोर ने इस गीत का गायन किया। कांग्रेस के नेतृत्व में चल रही सरकार को यह भी याद नहीं कि इसके अनुसार सन 1996 वंदेमातरम का सौवां वर्ष था। 7 अगस्त 1905 का दिन तो भुलाया ही नहीं जा सकता, जब बंग-भंग आंदोलन के विरोध में  पूरा बंगाल ही गरज उठा था और कोलकाता के कालेज चैक में पचास हजार से भी ज्यादा भारत के बेटे-बेटियां वंदेमारतम् कहकर स्वतंत्रता के लिए बलिपथ पर चल पड़े । इन्हीं दिनों मैडम भीका जी कामा ने एमस्र्डम में वंदेमातरम् वाला भारत का ध्वज फहराया। फिर भी भारत सरकार 2007 को ही शताब्दी मना रही है।

भारत के मानव संसाधन मंत्री अर्जुन सिंह ने यह घोषण की कि सभी स्कूलों में वंदेमातरम गाया जाए और साथ ही सांप्रदायिक शक्तियों के आगे घुटने टेकते हुए यह भी कह दिया कि जो इसे नहीं गाना चाहता, न गाए। अफसोस तो यह है कि देश के गृह राज्य मंत्री श्री जायसवाल भी राष्ट्रीय गान के गौरव का सम्मान रक्षण नहीं कर पाए। कौन नहीं जानता कि बंग-भंग में धर्म, संप्रदाय, जाति का भेद भुलाकर वंदेमातरम के साथ ही अंग्रेजों से लोहा लिया गया था और अब एक शाही इमाम के विरोध को पूरे मुस्लिम समाज का विरोध मानकर सरकार ने यह निंदनीय-लज्जाजनक आदेश दिया है।

प्रसिद्ध लेखक एवं क्रांतिकारी हेम चंद ने कहा था- पहले हम इस बात को समझ नहीं पाए थे कि वंदेमातरम गीत में इतनी शक्ति और भारतव छिपा है। अरविंद ने सत्य ही कहा था कि वंदेमातरम् के साथ सारा देश देशभक्ति को ही धर्म मानने लगा है। यह मंत्र भारत में ही नहीं सारे विश्व में फैल गया। 7 अगस्त 1905 को जब बंग भंग के विरोध में पचास हजार देशभक्त कोलकाता में इकट्ठे हुए तो अचानक ही एक स्वर गूंजा- वंदेमातरम और इसके साथ ही वंदेमातरम् क्रांति का प्रतीक बन गया। इस आंदोलन के मुख्य नेता सुरेंन्द्र नाथ बनर्जी ने कहा हमारे अंतर्मन की भारतवनाएं वंदेमातरम् के भारतव के साथ जुड़ जानी चाहिए।

आज स्वतंत्रता के साठवें वर्ष में वंदेमातरम् गीत गाना सांप्रदायिक माना जाने लगा है। जिस वंदेमातरम् के साथ क्रांतिकारी देशभक्त हंसते-हंसते फांसी पर चढ़ जाते थे उसे ही स्वतंत्र भारत की सरकार एक संप्रदाय विशेष को न गाने की छूट दे रही है। दुर्भारतग्य से भारत के विभारतजन के साथ ही वंदेमातरम् का भी विभारतजन कर दिया गया। स्वतंत्र भारत के कुछ नेताओं को इस गीत के प्रथम भारतग में तो देशभक्ति दिखाई देती है, पर पिछले हिस्से में सांप्रदायिकता लगती है। आखिर क्या बुरा लिखा है इसमें? भारत की संतान भारत मां से यही तो कहती है न कि भारत मां तू ही मेरी भुजाओं की शक्ति है, तू ही मेरे हृदय की भक्ति है, तू धरनी है, भरनी है, सुंदर जल और सुंदर फल फूलों वाली है, तेरे करोड़ों बच्चे हैं, फिर तू कमजोर कैसी? हमें याद रखना होगा कि 15 अगस्त 1947 की सुबह आकाशवाणी से प्रसारित होने वाला पहला गीत वंदेमातरम था, जो पंडित ओंकार नाथ ने पूरा गाया था।

आज तो भारत स्वतंत्र है, पर जिस समय वंदेमातरम कहना अपराध माना जाता था उस समय राष्ट्र के महान नेता सुरेंद्र नाथ बनर्जी, विपिन चंद्र पाल, अरविंद घोष वंदेमातरम के बैज सीने में लगाकर निकलते थे। अमृत बाजार पत्रिका के संपादक मोतीलाल घोष ने सिंह गर्जना करते हुए कहा था- चाहे सिर चला जाए मैं वंदेमातरम गाऊंगा। वीर सावरकर ने 1908 में इंग्लैंड में वंदेमातरम गुंजाया। मार्च 1907 को युगांतर दैनिक ने यह लिखा कि वंदेमातरम की गूंज ने शत्रु की हिम्मत छीन ली है, वे अब परास्त हो रहे हैं और भारत मां मुस्कुरा रही है। डा. हेगेवार बचपन से ही राष्ट्रभक्ति में रंगे हुए थे। नागपुर के नील सिटी स्कूल में पढ़ते समय उन्होंने सारे स्कूल में ही वंदेमातरम का जयघोष करवा दिया और दंडित हुए। वाराणसी की जेल में जब चंद्रशेखर आजाद को कोड़े मारे गए, तब भी वह वंदेमातरम ही बोलते रहे। 29 दिसंबर 1927 को जब अशफाख उल्ला खां को फांसी पर रबाया गया तब भी वह वंदेमातरम का नार ही लगाते रहे। कांग्रेस के काकीनाड़ा अधिवेशन में श्री विष्णु दिगंबर पालुसकर ने वंदेमातरम का गीत गाकर ही सम्मेलन का प्रारंभ करवाया।

कौन नहीं जानता कि स्वतंत्रता की बेदी पर प्राण देने वाले हरेक देशभक्त ने वंदेमातरम् से ही प्रेरणा ली थी। यह तो अंग्रेजों की कुटिल नीति थी, जिसने देश के हिंदू-मुसलमानों को अलग कर दिया। सच यह है कि बंग-भंग आंदोलन के समय मुस्लिम छात्र नेता लियाकत हुसैन कोलकाता के कालेज चैक में हर शाम को अपने साथियों सहित वंदेमातरम् के नारे लगाता और बेंत भी खाता था।

अब प्रश्न यह है कि जो वंदेमातरम् राष्ट्रभक्ति और राष्ट्रप्रेम का मंत्र बन गया था उसे स्वतंत्र भारत में सम्मान क्यों नहीं? बड़ी कठिनाई से वह दिन आया जब भारत सरकार ने स्कूलों में वंदेमातरम् गाने का संदेश दिया। आश्चर्य है कि राष्ट्रीय गीत गाने के लिए भी आदेश देना पड़ता है, पर साथ ही एक बार फिर विभारतजन कर दिया कि जो गाना चाहे वही गाए। जो लोग यह कहते हैं कि इस्लाम की धार्मिक मान्यताओं के अनुसार मां को प्रणाम नहीं किया जा सकता वह हजरत मुहम्मद साहब का यह वाक्य कैसे भूल गए कि दुनिया में अगर कही जन्नत है तो मां के चरणों में ही है और ए.आर.रहमान ने मां तुझे सलाम गाकर भारत संतान की रगों में एक नया जोश भर दिया। आश्चर्य यह है कि जहां जन-गण-मन के किसी अधिनायक की बात की गई है वह तो सबको स्वीकार है, पर जहां भारत भक्ति का स्वर है उस गीत को सांप्रदायिक कहा जाता है। अच्छा हो देश के यह तथाकथित धर्मनिरपेक्ष नेता अपनी आंखों से संकीर्ण राजनीति का चश्मा उतारकर अपनी आत्मा को जरा उनके नजदीक ले जाएं जो एक बार वंदेमातरम् कहने के लिए फांसी चढ़ते थे, कोड़े खाते थे, रक्त की नदी पर करके भी राष्ट्रीय ध्वज फहराना चाहते थे, तब उन्हें अहसास होगा कि वंदेमातरम् के साथ भारत की आत्मा जुड़ी है, सांप्रदायिकता नहीं। यह भारत भक्ति का मंत्र है, किसी संप्रदाय विशेष का नहीं। जो आज इस गीत को न गाने की छूट देते हैं हो सकता है कल को वे तुष्टीकरण करते हुए राष्ट्र के अन्य प्रतीकों का भी अपमान करने की छूट दे दें। अभी से सावधान होना होगा।
लक्ष्मी कांता चावला, प्रसिद्ध स्तंभकार
(महाशक्ति वंदेमातरम् समग्र - एक प्रयास वंदेमातरम् विशिष्ट लेख संकलन) 


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वंदेमातरम् - यानी मां तुझे सलाम



यह अफसोसजनक है कि राष्ट्रगीत वंदे मातरम् को लेकर मुल्क में फित्ने और फसाद फैलाने वाले सक्रिय हो गए हैं। मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने तय किया कि 7 सितंबर वंदे मातरम् का शताब्दी वर्ष है। इस मौके पर देश भर के स्कूलों में वंदे मातरम् का सार्वजनिक गान किया जाए। इस फैसले का विरोध दिल्ली की जामा मस्जिद के इमाम (वे स्वयं को शाही कहते हैं) अहमद बुखारी ने कर दिया। बुखारी के मन में राजनीतिक सपना है। वे मुसलमानों के नेता बनना चाहते हैं। बुखारी को देश के मुसलमानों से कोई समर्थन नहीं मिला। देश मुसलमान वंदे मातरम् गाते हैं। उसी तरह जैसे कि ‘जन गण मन’ गाते हैं। ‘जन गण मन’ कविन्द्र रवीन्द्र नाथ ठाकुर ने अंग्रेज शासक की स्तुति में लिखा था। बहरहाल जब ‘जन गण मन’ को आजाद भारत में राष्ट्र गान का दर्जा दे दिया गया तो देश के मुसलमान ने भी इसे कुबूल कर लिया। ‘सारे जहां से अच्छा, हिंदोस्तां हमारा’ एक रम्प और सांगीतिक गान था लेकिन एकाधिक कारणों से उसे राष्ट्रगीत या राष्ट्रगान का दर्जा नहीं मिल सका। इसके बावजूद कि कोई बाध्यता, अनिवार्यता नहीं है, राष्ट्रीय दिवसों पर ‘सारे जहां से अच्छा...’ जरूर गया जाता है। यह स्वतः स्फूर्त है। भारत का गुणगान करने वाले किसी भी गीत, गान या आह्वान देश के मुसलमान को कभी कोई एतराज नहीं रहा। आम मुसलमान अपनी गरीबी और फटेहाली के बावजूद भारत का गान करता है। सगर्व करता है। एतराज कभी कहीं से होता है तो वह व्यक्ति, नेता, मौलाना या इमाम विशेष का होता है। इस विरोध के राजनीतिक कारण हैं। राजनीति की लपलपाती लिप्साएं है। कभी इमाम बुखारी और कभी सैयद शहाबउद्दीन जैसे लोग मुसलमानों के स्वयं-भू नेता बन कर अलगाववादी बात करते रहे हैं। ऐसा करके वे अपनी राजनीति चमका पाते हैं या नहीं यह शोध का विषय है लेकिन देश के आम मुसलमान का बहुत भारी नुकसान जरूर कर देते हैं। आम मुसलमान तो ए.आर. रहमान की धुन पर आज भी यह गाने में कभी  कोई संकोच नहीं करता कि ‘मां, तुझे सलाम...’ इसमें एतराज की बात ही कहां हैै? धर्म या इस्लाम कहां आड़े आ गया? अपनी मां को सलाम नहीं करें तो और क्या करें? अपने मुल्क को, अपने वतन को, अपनी सरजमीन को मां कहने में किसे दिक्कत है? वंदे मातरम् का शाब्दिक अर्थ है मां, तुझे सलाम। इसमें एतराज लायक एक भी शब्द नहीं है? जिन्हें लगता है वे इस्लाम और उसकी गौरवपूर्ण परंपरा को नहीं समझते। इस्लामी परंपरा तो कहती है कि ‘हुब्बुल वतन मिनल ईमान‘ अर्थात राष्ट्र प्रेम ही मुसलमान का ईमान है। आजादी की पहली जंग 1857 में मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर की अगुवाई में ही लड़ी गई। फिर, महात्मा गांधी के नेतृत्व में बादशाह खान सरहदी गांधी खान अब्दुल गफ्फार खान, मौलाना अबुल कलाम आजाद, डॉ. जाकिर हुसैन, डॉ. सैयद महमूद, यूसुफ मेहर अली, सैफउद्दीन किचलू, एक लंबी परंपरा है भारत के लिए त्याग और समर्पण की। काकोरी कांड के शहीद अशफाक उल्लाह खान ने वंदे मातरम् गाते हुए ही फांसी के फंदे को चूमा। कर्नल शहनवाज खान, नेताजी सुभाष चंद्र बोस के विश्वस्त सहयोगी थे। पाकिस्तान के साथ युद्धों में कुर्बानी का शानदार सिलसिला है।


ब्रिगेडियर उस्मान, हवलदार अब्दुल हमीद से लेकर अभी कारगिल संघर्ष में मोहत काठात तक देशभक्ति और कुर्बानी की प्रेरक कथाएं हैं। इन्हें रचने वाला देश का आम मुसलमान भी है।

वंदे मातरम् हो या जन गण मन, आपत्ति आम मुसलमान को कभी नहीं रही। वह मामूली आदमी है। प्रायः शिक्षित नहीं है। अच्छी नौकरियों में भी नहीं है लेकिन ये सारी हकीकतें देश प्रेम के उसके पावन जज्बे को जर्रा भरी भी कम नहीं करतीं। साधारण मुसलमान अपनी ‘मातृभूमि’ से बेपनाह मोहब्बत करता है, अत्यंत निष्ठावान है और उसे अपने मुल्क के लिए दुश्मन की जान लेना और अपनी जान देना बखूबी आता है। अपने राष्ट्र प्रेम का प्रमाण पत्र उसे किसी से नहीं चाहिए।

राष्ट्रगीत को लेकर इने गिने लोगों की मुखालिफत को प्रचार बहुत मिला। बिना बात का बखेड़ा है क्योंकि बात में दम नहीं है। मुल्क के तराने को गाना अल्लाह की इबादत में कतई कोई खलल नहीं है। अल्लाह तो लाशरीकलहू (उसके साथ कोई शरीक नहीं) ही है और रहेगा। अल्लाह की जात में कोई शरीक नहीं। बहरहाल मुसलमानों का भी अपना समाज और मुल्क होता है। जनाबे सद्र एपीजे अब्दुल कलाम अगर चोटी के साइंटिस्ट हैं तो उनकी तारीफ होगी ही, मोहम्मद कैफ अच्छे फील्डर हैं तो तालियां बटोरेंगे ही, सानिया मिर्जा सफे अव्वल में हैं तो हैं, शाहरूख खान ने अदाकारी में झंडे गाड़े हैं तो उनके चाहने वाले उन्हें सलाम भी करेंगे। इसी तरह बंकिम चन्द्र चटर्जी का राष्ट्रगीत है। शायर अपने मुल्क की तारीफ ही तो कर रहा है। ऐसा करना उनका हक है और फर्ज भी। कवि यही तो कह रहा है कि सुजलाम, सुफलाम, मलयज शीतलाम। कवि ने मातृभूमि की स्तुति की। इसमें एतराज लायक क्या है। धर्म के विरोध में क्या है? जिन निहित स्वार्थी तत्वों को वंदे मातरम् काबिले एतराज लगता है वो अपनी नाउम्मीदी, खीझ और गुस्से में दो रोटी ज्यादा खाएं लेकिन इस प्यारे मुल्क के अमन-चैन और खुशगवार माहौल को खुदा के लिए नजर नहीं लगाएं। वंदे मातरम्।
शाहिद मिर्जा, लेखक राजस्थान पत्रिका के डिप्टी एडिटर हैं
(महाशक्ति वंदेमातरम् समग्र - एक प्रयास वंदेमातरम् विशिष्ट लेख संकलन) 


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वंदेमातरम के बहाने लोकतंत्र का मजाक



अंग्रेजों ने बंगाल का विभाजन 1905 में किया था और इसके खिलाफ जो मशहूर बंग-भंग आंदोलन हुआ था, उसमें भी वंदेमातरम् ही मुख्य गीत था। राष्ट्रीय स्वयं संघ के संस्थापक डाॅ. केशव बलिराम हेडगेवार को तो वंदेमातरम् आंदोलन में हिस्सा लेने के लिए ही नागपुर में स्कूल से निकाल दिया गया था और 1925 में उन्होंने संघ की स्थापना की।

आज कांग्रेस वंदेमातरम् को लेकर बहुत उत्साहित नहीं है। जाहिर है कि शरीयत आदि का जो हवाला इस महान गीत के खिलाफ दिया गया है उसे लेकर कांग्रेस को अपने अल्पसंख्यक वोट बैंक की काफी चिंता है। मगर यही कांग्रेस अगर वह आजादी के पहले वाली कांग्रेस की उत्तराधिकारी है तो 1915 के बाद अपना हर अधिवेशन वंदेमातरम् से शुरू करती रही है और आज तक करती है। नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने तो वंदेमातरम् को अपनी आजाद हिंद फौज का प्रयाण गीत बना दिया था और सिंगापुर में जो आजाद हिंद फौज रेडियो स्टेशन था वहां से उसका लगातार प्रसारण होता था।

14 अप्रैल 1906 को कोलकत्ता में वंदेमातरम् गाते हुए देशभक्तों का एक बड़ा जुलूस निकला था। इस जुलूस में महर्षि अरविंद भी थे जो आईसीएस की अपनी नौकरी छोड़़ कर देश और समाज की लड़ाई में शामिल हो गए थे। इस जुलूस पर लाठियां चली और महर्षि अरविंद भी घायल हुए। बाद में महर्षि ने खुद वंदेमातरम् का सांगीतिक अंग्रेजी अनुवाद किया। महर्षि ने अपनी पुस्तक महायोगी में लिखा है कि वंदेमातरम् से बड़ा राष्ट्रीयता का प्रतीक दूसरा नहीं हो सकता। बाकी सबको छोडि़ये, अंग्रेजों की रची किताब कैम्ब्रिज हिस्ट्री आॅफ इंडिया में भी लिखा है कि वंदेमातरम् संसार की महानतम साहित्यिक और राष्ट्रीय रचनाओं में से एक है। महात्मा गांधी की हर प्रार्थना सभा वंदेमातरम से शुरू होती थी।

आलोक तोमर, वरिष्ठ पत्रकार
(महाशक्ति वंदेमातरम् समग्र - एक प्रयास वंदेमातरम् विशिष्ट लेख संकलन) 


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राष्ट्रीय एकता का महामंत्र वन्देमातरम् के महत्वपूर्ण तथ्य



संसार के सर्वाधिक लोकप्रिय गीतों में से एक है वंदेमातरम्। सन् 2002 में बीबीसी द्वारा कराए गए एक सर्वे में यह जानकारी प्रकाश में आई। बी.बी.सी. ने सन् 2002 में अपनी 70वीं वर्षगांठ पर दुनिया के 155 देशों में इन्टरनेट पर यह सर्वे कराया था और संसार के दस सर्वश्रेष्ठ लोकप्रिय गीतों के बारे में लोगों से राय मांगी थी। लाखों लोगों ने इस सर्वे में हिस्सा लिया। बी.बी.सी. ने इस सर्वे के आधार पर ‘वन्दे मातरम्’ को विश्व के सर्वाधिक लोकप्रिय गीतों में दूसरा स्थान दिया। पहला नंबर आयरलैण्ड के राष्ट्रगीत ‘ए नेशन वन्स अगेन’ को मिला था।

राष्ट्र की जय चेतना का गान वन्देमातरम्।
राष्ट्रभक्ति प्रेरणा का गान वन्देमातरम्।।
राष्ट्रभक्ति के जीवन्त प्रतीक राष्ट्रगीत की रोचक गाथा निम्न प्रकार हैः
  • राष्ट्रगीत वन्देमातरम् के रचयिता श्री बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय का जन्म 26 जून सन् 1938 को बंगाल के नौहाटी जनपद के कांटालपाड़ा ग्राम में हुआ था। इनके पिताजी का नाम यादवचन्द्र चट्टोपाध्याय था।
  • बंकिमचन्द्र चटर्जी काफी मेधावी छात्र थे। स्नातक की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद 7 अगस्त सन् 1858 को उन्होंने सरकारी सेवा में यशोहर जिले के डिप्टी कलेक्टर के रूप में पद ग्रहण किया।
  • अंग्रेजी हुकुमत के रूप में भारतीयों के साथ सौतेला व्यवहार होने के कारण 30 वर्षों की सुदीर्घ सेवा के बावजूद उन्हें प्रोन्नति नहीं दी गयी। चट्टोपाध्याय ने अपने सेवा काल में ही फिरंगियो की भेदभावपूर्ण नीति के विरूद्ध अपने ओजपूर्ण आलेखो के द्वारा संर्घष का शंखनाद कर दिया था।
  • वन्देमातरम् गीत की रचना तो श्री बंकिमचन्द्र ने सन् 1874 ई. में ही कर दी थी किन्तु आम लोगों को इसकी विशेष जानकारी नही थी।
  • अप्रैल 1881 में बंगला पत्रिका ‘बंग दर्शन’ में इसके प्रथम प्रकाशन के बाद ही आम जनता का ध्यान इस गीत की ओर आकृष्ट हुआ।
  • सन् 1882 में श्री चटर्जी के सर्वाधिक चर्चित उपन्यास ‘आनन्दमठ’ के प्रकाशन के बाद तो इस गीत की धूम न सिर्फ शहरो-नगरों और गांवों में बल्कि मातृभूमि के प्रेम में पागल सन्यासियों के मुख से खंडहरों, पहाड़ों और जंगलों में भी सुनाई देने लगी तथा राष्ट्रीय भावनाओं को उत्पे्ररित करने का काम वन्देमातरम् के माध्यम से होने लगा। (हम सभी को ‘आनन्दमठ’ पढ़ना चाहिए)।
  • सन् 1896 में कलकत्ता में हुए कांग्रेस अधिवेशन में कविवर श्री रविन्द्रनाथ टैगोर ने इस गीत को सर्वप्रथम संगीतबद्ध कर गाया। इसके बाद तो इसका सर्वत्र प्रचार किया गया और फिर तो कांग्रेस अधिवेशनों का शुभारम्भ व समापन इसी गीत से होने लगा।
  • सितम्बर 1905 में लार्ड कर्जन ने जब बंगाल विभाजन की घोषणा ब्रिटिश सत्ता की राजधानी कलकत्ता में की तो बंगाल सहित पूरे देश में भूचाल सा आ गया और पूरा देश वन्देमातरम् के नारे से गूंज उठा। देशभक्तों की आस्था का शब्द वन्देमातरम्, लार्ड कर्जन की दृष्टि से राजद्रोह का प्रतीक बन गया तथा पूर्वी बंगाल में कर्जन के अधीनस्थ ले. गर्वनर फुलर ने वन्देमातरम् पर कानूनन प्रतिबंध लगा दिया। बाबू सुरेन्द्रनाथ बनर्जी के नेतृत्व में ‘बन्दी विरोधी समिति’ ने इसका विरोध करने का बीड़ा उठाया। इस प्रतिबंध ने आग में घी का काम किया और देखते ही देखते वन्देमातरम् देशभर में सर्वव्यापी हो गया, फिर तो अंग्रेजों के अत्याचार जितने बढ़ते थे उतनी ही तेजी से प्रतिकार भी होता था।
  • 14 अप्रैल 1906 को कांग्रेस का प्रान्तीय अधिवेशन बंगाल के बारीसाल में होना था। इसके पूर्व ही सरकार ने गांव-गांव में दीवारों पर पोस्टर चिपका कर घोषणा की कि जो भी व्यक्ति वन्देमातरम् गायेगा उसे दण्डित किया जायेगा। इसकी प्रतिक्रिया में युवकों ने अमृत बाजार पत्रिका के तत्कालीन सम्पादक मोतीलाल घोष के साथ न सिर्फ जुलूस निकाला बल्कि पूरे जोश के साथ वन्देमातरम् भी गाया। पुलिस ने प्रदर्शनकारियों पर बर्बतापूर्वक लाठी चार्ज किया जिसमें कई लोग बुरी तरह घायल हो गये।
  • बारीसाल के जुलूस पर सरकार के हिंसक हमले की पूरे देश में जबरदस्त प्रतिक्रिया हुई और सर्वत्र वन्देमातरम् का जयघोष सुनाई पड़ने लगा। परिणामस्वरूप लार्ड कर्जन को भारत छोड़कर स्वदेश वापस जाना पड़ा। 6 अगस्त 1906 को विपिन चन्द्र पाल ने अंग्रेजी में दैनिक ‘वन्देमातरम्’ का प्रकाशन प्रारम्भ किया। बाद में इसका संपादन श्री अरविन्द ने संभाला और उन्होंने लिखा कि बंग-वासी सत्य की साधना से रत थे, तभी किसी दिव्य क्षण में से किसी ने नारा दिया और असंख्य कंठों से राष्ट्रमंत्र वन्दे मातरम् मुखरित हो उठा।
  • भगिनी निवेदिता ने कलकत्ता कांग्रेस में वन्देमातरम् से अंकित राष्ट्रध्वज तैयार किया। लाला लाजपत राय ने 1920 में दिल्ली से हिन्दी में 1941 में मुम्बई से गुजराती में वन्देमातरम् अखबार निकाले फिर तो एक दूसरे का अभिवादन करते समय भी वन्देमातरम् का उद्घोष आरम्भ हो गया।
  • शहीद मदन लाल धींगरा को फांसी मिलने पर उनका बयान ‘आह्वान’ शीर्षक से डेली न्यूज में प्रकाशित हुआ जिसका अन्तिम शब्द था वन्देमारम्।
  • नासिक में वन्देमातरम् पर प्रतिबंध के विरूद्ध आवाज उठाने पर वामनराव खरे, बाबा सावरकर एवं नौ छात्र पकड़े गये, पुलिस की लाठियों को वन्देमातरम् की ढाल पर सहने वाले इन वीरों के तो मुकद्दमे का नाम ही वन्देमातरम् कांड पड़ गया।
  • राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक डा. केशव बलिराम हेडगेवार को वन्देमातरम् गाने के कारण ही उन्हें स्कूल से निकाल दिया गया था।
  • स्वातंत्र्य वीर विनायक दामोदर सावरकर को जिन लेखों के कारण काला पानी की सजा मिली, उनमें सबसे प्रमुख लेख वन्देमातरम् ही है। जो 1907 में मुम्बई से प्रकाशित होने वाले अखबार ‘बिहारी’ में छपा था।
  • किंगफोर्ड पर बम फेंककर उसे मारने का प्रयास करने वाले खुदीराम बोस की 11 अगस्त 1908 को फांसी दे दी गयी। उनकी शवयात्रा से लेकर शरीर चिता पर रखे जाने तक एक ही स्वर सुनाई पड़ता था ‘वन्देमातरम्’।
  • रामप्रसाद बिस्मिल 16 दिसम्बर 1927 को वन्देमातरम् का उद्घोष करते हुए ही फांसी के फंदे पर झूले थे।
  • 12 फरवरी सन् 1934 को वधशाला की ओर जाते हुए क्रांतिकारी सूर्य सेन के कंठ से वन्देमातरम् का स्वर ही गूंज रहा था। इस स्वर को रोकने के लिए पुलिस ने फांसी से पहले ही इस वीर पर लाठियों की बरसात की। उसी समय कारागार में भी इस नारे की गूंज शुरू हुई और राजबंदियों की पिटाई के बाद सूर्यसेन को अचेत अवस्था में ही फांसी दे दी गयी।
  • इतने बलिदानों के बाद भी कुछ देशद्रोही तत्व इस राष्ट्रगान का विरोध कर रहे थे। पहली बार वन्देमातरम् का विरोध 1923 के कांग्रेस के काकीनाड़ा अधिवेशन में मो. अली जिन्ना ने किया। इसके बाद तो मुसलमानों ने वन्देमातरम् के विरोध का रास्ता ही अपना लिया।
  • 1937 के मुसलिम लीग के अधिवेशन में जिन्ना ने मुसलमानों को वन्देमातरम् के बहिष्कार का आदेश दिया। इसके बाद कांग्रेस ने मुसलिम भावनाओं को तुष्ट करने की दृष्टि से वन्देमातरम् को खण्डित कर इसके पहले दो पदों को ही गाने की घोषणा कर दी। कांग्रेस की इसी तुष्टिकरण की नीति से मुसलिम कट्टरपंथियों के हौसले बढ़े और उन्होंने तब से लेकर आज तक वन्देमातरम् का विरोध बदस्तूर जारी रखा तथा कांग्रेस उसी नक्शेकदम पर चलते हुए आज भी वन्देमातरम् की शताब्दी मनाने में भी आनाकानी कर रही है तथा यूपीए सरकार के मानव संसाधन मंत्री श्री अर्जुन सिंह कह रहे हैं कि जिसकी मर्जी हो वह गाये या जिसकी मर्जी न हो व न गाये।
  • राष्ट्रभक्ति के जीवन्त प्रतीक के रूप में बंकिम बाबू ने जिस राष्ट्रगीत की रचना की थी उस वन्देमातरम् की शताब्दी न मनाने का पातकीय षडयंत्र आज इस देश में किया जा रहा है।
  • वन्देमातरम् भारत का राष्ट्रगीत है। इसकी रचना बंकिम चन्द्र चटर्जी ने सन् 1876 में की थी। यह उनकी पुस्तक आनंदमठ में प्रस्तुत है। ‘‘वन्देमातरम् जादुई शब्द है, जो लौहद्वार खोल देंगे, खजाने की दीवारें तोड़  देंगे।’’-रवीन्द्रनाथ ठाकुर (ग्लोरियस थाॅट्स आॅफ टैगोर पृ.- 165)
  • ‘‘मेरी सारी कृतियां गंगा में डुबो दो तो कोई हानि नहीं होगी, परन्तु यह एक शाश्वत महान गीत बचा रहेगा तो देश के हृदय में मैं जीता रहूंगा’’ -बंकिम चन्द्र चटजी
  • महात्मा गांधी जब दक्षिण अफ्रिका में थे तो वे वन्देमातरम् के बारे में सुना। वन्देमातरम् गीत से उनके मन में देशप्रेम जगा और इससे इतना प्रभावित हुए कि अपने पत्राचार में वे अंतिम वाक्य लिखने लगे- ‘मोहनदास की ओर से वन्देमातरम्।
  • विवेकानंद ने भगिनी निवेदिता को कहा कि ‘‘बंगाली अस्थियों से अतिशक्तिवान अस्त्र यह गीत निकाल कर बाहर लाएगा।’’
  • प्रसिद्ध क्रांतिकारी और विचारक अरविन्द ने ‘वन्देमातरम्’ समाचार पत्र निकाला।
  • 1896 में रवीन्द्र नाथ ठाकुर ने कोलकाता कांग्रेस में इसे गाया था।
  • प्रख्यात क्रांतिकारी विपिन चन्द्र पाल की दृष्टि में वन्देमातरम् ने केवल आर्थिक, राजनीतिक स्वतंत्रता की भावना ही नहीं दौड़ाई अपितु धर्म धारणा की अलौकिक राह दी है।
  • सुविख्यात क्रांतिकारी अशफाक उल्ला, रोशन और रामप्रसाद ने देश की आजादी के लिए फांसी के फंदे को चूमा। उन सभी के स्वर ‘वन्देमातरम्’ के थे।
  • देश की आजादी के बाद ‘वन्देमातरम्’ राष्ट्रगीत स्वीकार किया गया।
  • वन्देमातरम् का विरोध मुस्लिम लीग ने प्रारंभ  की।











जिस गीत के कारण सदियों से सुप्त देश जाग उठा और अर्धशताब्दी तक स्वतंत्रता संग्राम का प्रेरक बना रहा, जिस गीत के पीछे न जाने कितनी माताओं की गोद सूनी हो गई, कितनी स्त्रियों की मांग का सिन्दूर धुल गया। बंग-भंग आन्दोलन के समय जो गीत धरती से आकाश तक गूंज उठा, बंगाल की खाड़ी से निकलकर जिसकी लहरें इंग्लिश चैनल पारकर ब्रिटिश पार्लियामेंट तक पहुंच गई, जिस गीत के कारण बंगाल का विभाजन न हो सका, उसी गीत को अल्पसंख्यकों की तुष्टि के लिए खंडित किया गया। यहां तक कि उन्हें खुश करने के लिए हमारी मातृभूमि को भी खंडित किया गया। उसके बाद भी जनमानस को उद्वेलित करने वले इस गीत को प्रमुख राष्ट्रीय गीत के रूप में स्वीकार नहीं किया गया। जो गीत गंगा की तरह पवित्र, स्फटिक की तरह निर्मल और देवी की तरह प्रणम्य हैं उसी गीत को स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद दूध की मक्खी की तरह निकाल दिया गया। भारतीय राजनीति का यह निर्मम परिहास नहीं तो और क्या है? इसका निर्णय भारत के भावी पीढ़ियों को करना होगा।

(महाशक्ति वंदेमातरम् समग्र - एक प्रयास वंदेमातरम् विशिष्ट लेख संकलन) 


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कंप्यूटर पर हिन्दी भाषा लेखन के लिए आईटी टूल्स



भाषा, अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम है और मानव जीवन का अभिन्न अंग है। संप्रेषण के द्वारा ही मनुष्य सूचनाओं का आदान प्रदान एवं उसे संग्रहित करता है। सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक अथवा राजनीतिक कारणों से विभिन्न मानवी समूहों का आपस में संपर्क बन जाता है। गत शताब्दी में सूचना और संपर्क के क्षेत्र में अद्भुत प्रगति हुई है। सूचना प्रौद्योगिकी क्रांती ने ज्ञान के द्वार खोल दिये है। बुद्धि एवं भाषा के मिलाप से सूचना प्रौद्योगिकी के सहारे आर्थिक संपन्नता की ओर भारत अग्रसर हो रहा है। इलेक्ट्रानिक वाणिज्य के रूप में ई-कॉमर्स, इंटरनेट द्वारा डाक भेजना, ई-मेल द्वारा संभव हुआ है। ऑनलाईन सरकारी कामकाज विषयक ई-प्रशासन, ई-बैंकिंग द्वारा बैंक व्यवहार ऑनलाईन, शिक्षा सामग्री के लिए ई-एज्यूकेशन आदि माध्यम से सूचना प्रौद्योगिकी का विकास हो रहा है। सूचना प्रौद्योगिकी के बहु आयामी उपयोग के कारण विकास के नये द्वार खुल रहे हैं। भारत में सूचना प्रौद्योगिकी का क्षेत्र तेजी से विकसित हो रहा है। इस क्षेत्र में विभिन्न प्रयोगों का अनुसंधान करके विकास की गति को बढ़ाया गया है। सूचना प्रौद्योगिकी में सूचना, आँकडे़ (डेटा) तथा ज्ञान का आदान प्रदान मनुष्य जीवन के हर क्षेत्र में फैल गया है। हमारी आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, शैक्षणिक, व्यावसायिक तथ अन्य बहुत से क्षेत्रों में सूचना प्रौद्योगिकी का विकास दिखाई पड़ता है। इलेक्ट्रानिक तथा डिजीटल उपकरणों की सहायता से इस क्षेत्र में निरंतर प्रयोग हो रहें हैं। आर्थिक उदारतावाद के इस दौर के वैश्विक ग्राम (ग्लोबल विलेज) की संकल्पना संचार प्रौद्योगिकी के कारण सफल हुई है। इस नये युग में ई-कॉमर्स, ई-मेडीसिन, ई-एज्यूकेशन, ई-गवर्नंस, ई-बैंकिंग, ई-शॉपिंग आदि इलेक्ट्रानिक माध्यमों का विकास हो रहा है। सूचना प्रौद्योगिकी आज शक्ति एवं विकास का प्रतीक बनी है। कंप्यूटर युग के संचार साधनों में सूचना प्रौद्योगिकी के आगमन से हम सूचना समाज में प्रवेश कर रहे हैं। विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के इस अधिकतम देन के ज्ञान एवं इनका सार्थक उपयोग करते हुए, उनसे लाभान्वित होने की सभी को आवश्यकता है।
विकसित होने वाला क्षेत्र है। सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में आई क्रांति दूसरी औद्योगिक क्रांति मानी जा रही है। आधुनिक विज्ञान एंव प्रौद्योगिकी में इलेक्ट्रॉनिकी का महत्वपूर्ण स्थान है, इसे अंतरिक्ष, संचार, रक्षा, कृषि, विनिर्माण, मनोरंजन, रोजगार सृजन तथा राष्ट्रीय प्राथमिक्ताओं को तय करने में मुख्य भूमिका निभानी होती है। यदि राजभाषा हिन्दी को सम्मान देकर उपयोग में लाया जाएगा तो जन-जन तक दूर क्षेत्रों में किए जा रहे विकास कार्यो में जन-भागीदारी की जा सकेगी। सूचना प्रौद्योगिकी में हिन्दी का उपयोग करके इसको विश्वव्यापी स्तर पर अपनी भूमिका निभाने योग्य बनाने में राष्ट्रभाषा का महत्वपूर्ण कार्य कर सकती है। सूचना प्रौद्योगिकी में राष्ट्रभाषा का महत्व इसलिए भी बढ़ जाता है क्योंकि इसके द्वारा विस्तार की असीम संभावनाएं है तथा इसे उचित महत्व हमारी आस्था एंव अनुष्ठान से ही मिलना संभव है। इसी कड़ी में राजभाषा विभाग, गृह  मंत्रालय द्वारा भरसक प्रयत्न इस दिशा में किये जा रहे हैं, जैसे कि राजभाषा को बढ़ावा देने के लिए बहुत से टूल्स एवं साफ्टवेयर राजभाषा विभाग द्वारा विकसित किये गए हैं।

हिन्दी आई टी टूल्स का प्रयोग 

यूनिकोड को सक्रिय करना : कंप्यूटर पर हिन्दी के प्रयोग के लिए पहली आवश्यकता यूनिकोड को सक्रिय करने की होती है। यूनिकोड एनकोडिंग को सक्रिय करते ही कंप्यूटर किसी भी भाषा में काम करने के लिए सक्षम हो जाता है । यूनिकोड सक्रिय कैसे करें? कृपया देखें

कुंजीपटल / कीबोर्ड के विकल्प :
यूनिकोड को सक्रिय करने के बाद अपनी आवश्यकता के अनुसार कीबोर्ड के विकल्प का चयन कर, उसे इन्स्टाल करना होता है। मुख्यतः तीन विकल्प हैंः
1. इनस्क्रिप्ट कीबोर्ड
2. रेमिंग्टन कीबोर्ड
3. फोनेटिक कीबोर्ड

इनस्क्रिप्ट कीबोर्ड मानक कीबोर्ड है तथा यह सभी ओपेरेटिंग सिस्टम्स (विंडोज़, लिनिक्स, बोस, मैकबुक आदि) में पहले से ही उपलब्ध है। इसे भारतीय भाषाओं के लिए यूनिवर्सल कीबोर्ड भी कहा जा सकता है। इन्स्क्रिप्ट कीबोर्ड पर किसी एक भारतीय भाषा की टाइपिंग सीख लेने के बाद किसी भी भारतीय भाषा की टाइपिंग की जा सकती है क्योंकि सभी भारतीय भाषाओं के लिए इन्स्क्रिप्ट कीबोर्ड एक समान है। भाषा इण्डिया पर इंडिक  स्क्रिप्ट ट्यूटर  नाम से एक सॉफ्टवेयर उपलब्ध है जिसकी सहायता से इन्स्क्रिप्ट कीबोर्ड लेआउट सीखा जा सकता है। हिन्दी इन्स्क्रिप्ट टाइपिंग सीखने के लिए टीडीआईएल की साइट से निशुल्क हिन्दी इनस्क्रिप्ट टाइपिंग ट्यूटर डाउनलोड किया जा सकता है।
हिन्दी फोंट्स में  केवल यूनिकोड समर्थित फॉन्ट का ही प्रयोग अधिकृत है। इससे फाइलों के लेन-देन में समस्या नहीं होती है। माइक्रोसॉफ्ट तथा एप्पल ओएस वाले सिस्टम में पहले से ही यूनिकोड मंगल सहित कई देवनागरी यूनिकोड फॉन्ट उपलब्ध हैं। अतिरिक्त यूनिकोड समर्थित फोंट्स ILDC से डाउनलोड किये जा सकते हैं। कंप्यूटर पर हिन्दी के प्रयोग के लिए अनेक अन्य टूल्स भी उपलब्ध हैं।

फोनेटिक टूल्स
  • केवल अंग्रेजी अथवा रोमन लिपि में टाइपिंग का ज्ञान होने पर भी हिन्दी देवनागरी में टाइप करने के लिए फोनेटिक टूल्स का प्रयोग किया जा सकता है। इसके भी बहुत विकल्प हैं। माइक्रोसॉफ्ट का टूल डाउनलोड कर सकते हैं। (इसके लिए आपके कंप्यूटर में NET FRAMEWORK अर्थात डॉटनेट फिक्स 2.0 - 3.5 इंस्टाल होना जरूरी है।)
  • गूगल टूल डाउनलोड कर सकते हैं।

श्रुतलेखन (स्पीच टू टैक्स्ट टूल)
  • इस विधि में प्रयोक्ता माइक्रोफोन में बोलता है तथा कम्प्यूटर में मौजूद स्पीच टू टैक्स्ट प्रोग्राम उसे प्रोसैस कर पाठ/टैक्स्ट में बदलकर लिखता है। इस प्रकार का कार्य करने वाले सॉफ्टवेयर को श्रुतलेखन सॉफ्टवेयर कहते हैं। यह टूल राजभाषा विभाग की साइट पर उपलब्ध () है।
मंत्र-राजभाषा
  • मंत्र-राजभाषा एक मशीन साधित अनुवाद सिस्टम है, जो राजभाषा के प्रशासनिक, वित्तीय, कृषि, लघु उद्योग, सूचना प्रौद्योगिकी, स्वास्थ्य रक्षा, शिक्षा एवं बैंकिंग क्षेत्रों के दस्तावेजों का अंग्रेजी से हिन्दी में अनुवाद करता है। यह टूल राजभाषा विभाग की साइट पर उपलब्ध है।
ई-महाशब्दकोश
ई-महाशब्दकोश एक द्विभाषी-द्विआयामी उच्चारण शब्दकोश है। ई-महाशब्दकोश की विशेषताएं निम्न प्रकार हैंः-
  • देवनागरी लिपि यूनिकोड फोन्ट में
  • हिन्दी/अंग्रेजी शब्दों का उच्चारण
  • स्पष्ट प्रारूप, आसान व त्वरित शब्द खोज
  • अक्षर क्रम में शब्द सूची, सीधा शब्द खोज
  • अंग्रेजी/हिन्दी अक्षरों द्वारा शब्द खोज
  • स्पीच इंटरफेस के साथ हिन्दी शब्द का उच्चारण 
यह टूल राजभाषा विभाग की साइट पर उपलब्ध है। प्रयोग के लिए लिंक पर जाए। इन टूल्स के प्रयोग से राजभाषा को समझने व इसमें कार्य करने के लिए कितनी आसानी होगी, आप इसमें कार्य करने के बाद ही जान पाएंगे। 

सूचना क्रांति के इस दौर में चारों ओर तेजी से परिवर्तन हो रहा है, हर देश अपनी प्रगति की रफ्तार तेज और दुरुस्त करने में लगा हुआ है, जाहिर है कि इस रफ्तार से सूचना प्रौद्योगिकी के नए युग में सब कुछ पूर्ववत नहीं रहेगा अर्थात् बदलाव अवश्य आएगा और इससे स्वतः ही अंतराष्ट्रीय स्तर पर प्रतिस्पर्धा के दौर का सूत्रपात हो जाएगा, अब यदि प्रतिस्पर्धा की दौड़ में शामिल होना है और इससे डट कर मुकाबला करना है तो निःसंकोच आगे बढ़ना होगा। प्रौद्योगिकी के विकास में भाषा की अहम भूमिका को नज़रअंदाज नहीं किया जा सकता। हमारे देश के संदर्भ में स्वाभाविक है कि यहां की संपर्क भाषा, जन-भाषा हिन्दी की महत्ता से, उसकी उपयोगिता से, उससे संपर्क सूत्र की बहुलता से इंकार नहीं किया जा सकता। सूचना प्रौद्योगिकी के व्यापक प्रचार-प्रसार एंव जनाधार को बढ़ाने में हिन्दी भाषा की भूमिका एक पुल के समान है जो समाज विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी के दो हिस्सों को जोड़ने का कार्य कर सकती है।


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अमर शहीद चन्द्रशेखर आजाद



सऱफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है।
देखना है जोर कितना बाजुए कातिल में है।।
अदालत में आजाद से पूछा गया-तुम्हारा क्या नाम है?
आजाद ने उत्तर दिया-‘आजाद’।
मजिस्ट्रेट ने फिर पूछा-‘तुम्हारे पिता का क्या नाम है?
आजााद ने उत्तर दिया- ‘स्वतन्त्रता’।
मजिस्ट्रेट ने फिर पूछा-‘तुम्हारा निवास- स्थान कहाँ है?’
आजाद ने फिर उत्तर दिया- ‘कारागार में’। 
मजिस्ट्रेट आजााद के उत्तरों से क्रुद्ध हो उठा। उसने आजाद को पन्द्रह बेतों की सजा दी। जेल में आजाद पर बेत पड़ने लगे। उन पर बेंत पड़ते जाते थे, और वे बेंत पड़ने के साथ ही ‘वन्दे मातरम्’ और महात्मा गाँधीजी की जय बोलते जाते थे। बेतों की मार से आजाद के शरीर की चमड़ी उधड़ गई, वे बेहोश होकर गिर पड़े। पर जब तक वे होश में रहे, बराबर वन्दे मातरम् और ‘भारत माता की जय’ के नारों से आकाश गुंजाते रहा।
 
इस घटना से सारी काशी में आजाद की यश-गाथा फैल गई। वे एक वीर बालक के रूप में माने जाने लगे। 1928 ई. में भारत में ‘साइमन कमीशन’ का आगमन हुआ। कांग्रेस के निश्चयानुसार सारे भारत में कमीशन का बहिष्कार किया जाने लगा। लाहौर में भी लाखों लोग लाला लाजपत राय के नेतृतव में साइमन कमीशन का बहिष्कार करने के लिए स्टेशन के अहाते में एकत्र हुए।
एकत्रित भीड़ पर डण्डे पड़ने लगे। हजारों लोग पुलिस के डण्डों से आहत हो गए। स्वयं लाला लाजपतराय जी की छाती में भी पुलिस के डण्डे से चोटें लगीं। उसी चोट से उनका प्राणान्त हो गया। सारे भारत में पुलिस के इस अत्याचार के प्रति विक्षोभ की लहर दौर पड़ी। भगतसिंह, राजगुरु और आजाद उत्तेजित हो उठे। उन्होंने लाला जी की मृत्यु का बदला लेने के लिए एक साहसिक योजना बनाई। परिणाम स्वरूप 1928 ई. की 17 दिसम्बर को, लाहौर के पुलिस सुपरिटेंडेंट सण्डर्स को गोली से उड़ा दिया गया। सण्डर्स की हत्या के बाद ही वायसराय की ट्रेन को तार के बम से उड़ा देने का प्रयत्न किया गया। यद्यपि ट्रेन केा उड़ाने में सफलता न मिली, पर सरकारी क्षेत्र में सनसनी फैल गई। इस साहसिक कार्य में भी आजाद का प्रमुख हाथ था।
 
1931 ई. की 23 फरवरी का दिन था। इलाहाबाद में साथीक्रान्तिकारियों की एक गुप्त बैठक होने वाली थी। आजााद कम्पनीबाग में एक वृक्ष के नीचे एक व्यक्ति की प्रतीक्षा करने लगे। कहा जाता है कि जिस व्यक्ति से उन्हें कई हजार रुपये लेने थे, उस व्यक्ति ने विश्वासघात किया। उसने पुलिस सुपरिटेडेंट नाटबाबर को, आजाद की उपस्थितिकी सूचना दे दी। नाटबाबर शीघ्र ही पुलिस-दल के साथ उस पेड़ के पास जा पहुंचा। उन्हें चारों ओर से घेर लिया गया। नाटबाबर जब आजाद को बन्दी बनाने के लिए उनकी ओर चला, तो आजाद ने उस पर गोली चला दी। गोली नाटबाबर के हाथ में लगी। उसके हाथ का रिवाल्वर छूटकर गिर पड़ा। वह एक पेड़ के ओट में छिप गया। आजाद उस पर दनादन गोलियां चलाने लगे। आजाद की गोलियां पेड़ में धंस जाती थी, नाटबाबर बच जाता था। इसी समय एक पुलिस इन्सपेक्टर बिशेश्वर सिंह ने आजाद पर गोली चलाई। आजाद गिर गये और अपनी ही गोली से जीवन लीला समाप्त करअमर हो गये।
 
Chandrashekhar Azad Photo





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