भगवान के प्राकट्य के बाद अयोध्या-फैजाबाद के अतिरिक्त सिटी मजिस्ट्रेट (प्रथम श्रेणी) श्री मार्कण्डेय सिंह ने स्वयं प्रेरणा से (Suo-moto)भीतरी आंगन वाले परिसर को 29 दिसम्बर, 1949 को अपने एक आदेश द्वारा अपराध प्रक्रिया संहिता की धारा 145 के अन्तर्गत कुर्क कर लिया। परन्तु अपने आदेश में किसी हिन्दू या मुसलमान का नामोेल्लेख नहीं किया अपितु लिखा कि अयोध्या के मोहल्ला रामकोट में बाबरी मस्जिद/राम जन्मभूमि में पूजा तथा मालिकाना हक पर विवाद है। यह विषय अत्यन्त नाजुक और गम्भीर है अतः मैं विवाद के निपटारे तक इस भवन के कुर्की के आदेश देता हूँ और आदेश दिया जाता है कि ''सभी सम्बंधित पक्ष भवन के अधिकार के सम्बन्ध में अपने लिखित वक्तव्य दे।'' भीतरी आंगन में स्थित तीन गुम्बदों वाले ढांचे को सिटी मजिस्ट्रेट ने नगरपालिका अध्यक्ष श्री प्रियदत्त राम के अधिकार में सौंपकर प्रियदत्त राम को रिसीवर घोषित कर दिया। यह भी आदेश दिया कि रिसीवर महोदय इस सम्पत्ति के प्रबन्ध की व्यवस्था की स्कीम प्रस्तुत करेंगे। रिसीवर बाबू प्रियदत्त राम ने बीच वाले गुम्बद के नीचे रखे भगवान रामलला की पूजा अर्चना तथा प्रबन्ध व्यवस्था की लिखित योजना प्रस्तुत की, जो स्वीकार की गई। और इस प्रकार भगवान की पूजा-अर्चना निर्बाध प्रारम्भ हो गई। 23 दिसम्बर, 1949 की प्रातःकाल से ही भक्तगण दरवाजे के बाहर कीर्तन करने बैठ गए जो 6 दिसम्बर, 1992 तक रात और दिन अखण्ड रूप से चलता रहा।
मुकदमों का विवरण
पहला मुकदमायह मुकदमा (नियमित वाद क्रमांक 2/1950) एक दर्शनार्थी भक्त गोपाल सिंह विशारद (उत्तर प्रदेश के तत्कालीन जिला गोण्डा, वर्तमान जिला बलरामपुर के निवासी तथा हिन्दू महासभा, गोण्डा जिलाध्यक्ष) ने 16 जनवरी, 1950 ई. को सिविल जज, फैजाबाद की अदालत में दायर किया था। गोपाल सिंह विशारद 14 जनवरी, 1950 को जब भगवान के दर्शन करने श्रीराम जन्मभूमि जा रहे थे, तब पुलिस ने उनको रोका, पुलिस अन्य दर्शनार्थियों को भी रोक रही थी। 16 जनवरी, 1950 को ही गोपाल सिंह विशारद ने जिला अदालत में अपना वाद प्रस्तुत करके अदालत से प्रार्थना की कि-''प्रतिवादीगणों के विरुद्ध स्थायी व सतत् निषेधात्मक आदेश जारी किया जाए ताकि प्रतिवादी स्थान जन्मभूमि से भगवान रामचन्द्र आदि की विराजमान मूर्तियों को उस स्थान से जहाँ वे हैं, कभी न हटावें तथा उसके प्रवेश द्वार व अन्य आने-जाने के मार्ग बन्द न करे और पूजा-दर्शन में किसी प्रकार की विघ्न-बाधा न डाले।'' (An injunction restraining the defendants from removing the idols installed in the building and from closing the entrance and passage or from interfering with the Puja and Darshan.)
अदालत ने सभी प्रतिवादियों को नोटिस देने केआदेश दिए, तब तक के लिए 16 जनवरी, 1950 को ही गोपाल सिंह विशारद के पक्ष में अन्तरिम आदेश जारी कर दिया। भक्तों के लिए पूजा-अर्चना चालू हो गई। सिविल जज ने ही 3 मार्च, 1951 को अपने अन्तरिम आदेश की पुष्टि कर दी। मुस्लिम समाज के कुछ लोग इस आदेश के विरुद्ध इलाहाबाद उच्च न्यायालय में चले गए। मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति मूथम व न्यायमूर्ति रघुवर दयाल की पीठ ने 26 अप्रैल, 1955 को अपने आदेश के द्वारा सिविल जज के आदेश को पुष्ट कर दिया। ढाँचे के अन्दर निर्बाध पूजा-अर्चना का अधिकार सुरक्षित हो गया। इसी आदेश के आधार पर आज तक रामलला की पूजा-अर्चना हो रही है।
दूसरा मुकदमा
पहले मुकदमे के ठीक समान प्रार्थना के साथ दूसरा मुकदमा (नियमित वाद क्रमांक 25/1950) अयोध्या निवासी रामानन्द सम्प्रदाय के एक साधु परमहंस रामचन्द्रदास जी महाराज (परमहंस जी के साथ प्रतिवादि भयंकर विशेषण लगाया जाता था, कालान्तर में वे श्रीराम जन्मभूमि न्यास के कार्याध्यक्ष तथा श्री पंच रामानन्दीय दिगम्बर अनी अखाड़ा के श्रीमहंत बने) ने 5 दिसम्बर, 1950 को सिविल जज, फैजाबाद की अदालत में ही दायर किया और गोपाल सिंह विशारद के मुकदमे के प्रतिवादियों को इस मुकदमें में भी परमहंस जी ने प्रतिवादी बनाया। अदालत ने गोपाल सिंह विशारद को दी गई सुविधा परमहंस जी को भी प्रदान की। पहला और दूसरा अर्थात दोनों मुकदमें एक दूसरे के साथ सामूहिक सुनवाई के लिए जोड़ दिए गए। उपर्युक्त दोनों मुकदमों में सिविल जज, फैजाबाद के द्वारा 3 मार्च, 1951 को स्थायी स्थगनादेश हो जाने के पश्चात सिटी मजिस्ट्रेट ने 30 जुलाई, 1953 को अपने एक आदेश के द्वारा अपराध प्रक्रिया संहिता की धारा 145 के अन्तर्गत की गई कार्यवाही को बन्द कर दिया परन्तु मजिस्ट्रेट केद्वारा नियुक्त किए गए रिसीवर को भगवान की दर्शन-पूजा का प्रबन्ध एवं उस ढांचे की देखभाल का अधिकार बना रहा। (विशेष नोट: परमहंस जी ने अपना यह मुकदमा वर्ष 1992 में वापस ले लिया।)
तीसरा मुकदमा
उपर्युक्त दोनों मुकदमों में अभी कोई विधिक प्रक्रिया प्रारम्भ नहीं हुई थी, वे लम्बित (Pending) ही थे कि तीसरा मुकदमा (नियमित वाद क्रमांक 26/1959) पंच रामानन्दी निर्मोही अखाड़ा ने अपने महंत के माध्यम से 17 दिसम्बर, 1959 को दायर किया और अपने वादपत्र में बिन्दु क्रमांक 14 में उन्होंने अदालत से राहत माँगी कि ''जन्मभूमि मन्दिर के प्रबन्धन तथा सुपुर्दगी से रिसीवर को हटाकर उपर्युक्त कार्य वादी निर्मोही अखाड़े को सौंपने के पक्ष में आदेश जारी किया जाए।''
चौथा मुकदमा
यह मुकदमा (नियमित वाद क्रमांक 12/1961) उत्तर प्रदेश सुन्नी मुस्लिम वक्फ बोर्ड की ओर से 18 दिसम्बर, 1961 को जिला अदालत, फैजाबाद में दायर करके निम्नलिखित राहत की माँग की -
- वादपत्र के साथ नत्थी किए गए नक्शे में ए.बी.सी.डी. अक्षरों से दिखाई गई सम्पत्ति को सार्वजनिक मस्जिद घोषित किया जाए, जिसे सामान्यतया बाबरी मस्जिद कहा जाता है तथा उसके सटी हुई भूमि को कब्रिस्तान घोषित किया जाए।
- यदि अदालत की राय में इसका कब्जा दिलाना सही समाधान नजर आता है तो ढांचे के भीतर रखी मूर्ति और अन्य पूजा वस्तअुों को हटाकर उसका कब्जा दिलाने का आदेश भी दिया जाए।
- रिसीवर को आदेश दिया जाए कि वह अनधिकृत रूप से खड़े किए गए निर्माण को हटाकर वह सम्पत्ति वादी सुन्नी वक्फ बोर्ड को सौंप दे। (विशेष नोट: 23 फरवरी, 1996 को सुन्नी मुस्लिम वक्फ बोर्ड के लिखित आवेदन देकर कब्रिस्तान की माँग को वापस ले लिया, जिसे उच्च न्यायालय ने स्वीकार कर लिया।)
श्रीराम जन्मभूमि पर भीतरी और बाहरी आंगन के बीच की उत्तर दक्षिण दिशा वाली दीवार के दरवाजे में लगे ताले को खुलवाने के लिए रामजानकी रथों के माध्यम से जन जागरण का निर्णय सन्तों ने लिया। व्यापक जन जागरण हुआ। फैजाबाद के एक अधिवक्ता श्री उमेश चन्द पाण्डेय ने जनवरी, 1986 में सिविल जज, फैजाबाद की अदालत में ताले को अवैध मानते हुए उसे हटाए जाने की मांग की। अधिवक्ता उमेश चन्द पाण्डेय ने अदालत को कहा कि शान्ति व्यवस्था के नाम पर ताला लगाया गया है जबकि ताले का शान्ति व्यवस्था से कोई सम्बन्ध नहीं है। तत्कालीन जिला न्यायाधीश श्री के. एम. पाण्डेय ने तत्कालीन प्रशासन से पूछा कि ताला हटाने पर शान्ति व्यवस्था बनाई रखी जा सकती है क्या ? प्रशासन का उत्तर सकारात्मक था, परिणामस्वरूप न्यायाधीश महोदय ने उसी दिन आधे घण्टे में ताला हटा देने का आदेश दिया। 1 फरवरी, 1986 को सायंकाल 4.30 बजे ताला खोल दिया गया। ताला खोले जाने के इस आदेश के विरुद्ध भी कुछ मुस्लिम व्यक्ति उच्च न्यायालय में गए। न्यायालय ने यह प्रार्थना पत्र सुरक्षित कर लिया और 31 जुलाई, 2010 तक उसका फैसला नहीं हुआ है। 1992 की घटना के बाद तो अब यह आवेदन ही निरर्थक हो गया है।
पाँचवां मुकदमा
इलाहाबाद उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश श्री देवकीनन्दन अग्रवाल ने रामलला विराजमान को स्वयं वादी बनाते हुए तथा उस स्थान को देवता तुल्य मानकर वादी बनाते हुए, दोनों वादियों की ओर से 1 जुलाई, 1989 को जिला अदालत में अपना मुकदमा (नियमित वाद क्रमांक 236/1989) दायर किया और अपने वादपत्र के पैराग्राफ 39 में अदालत से माँग की कि-
- यह घोषणा की जाए कि अयोध्या में श्रीराम जन्मभूमि का सम्पूर्ण परिसर श्रीरामलला विराजमान का है।
- प्रतिवादियों के विरुद्ध स्थायी स्थगनादेश जारी करके कोई व्यवधान खड़ा करने से या कोई आपत्ति करने से या अयोध्या में श्रीराम जन्मभूमि पर नये मन्दिर के निर्माण में कोई बाधा खड़ी करने से रोका जाए।
इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ ने अपने आदेश दिनांक 10 जुलाई, 1989 के द्वारा प्रथम चार मुकदमें मौलिक व सामूहिक सुनवाई के लिए उच्च न्यायालय में स्थानान्तरित करा लिए।
5 फरवरी, 1992 को परमहंस रामचन्द्रदास जी महाराज ने अपना मुकदमा लिखित रूप में उच्च न्यायालय से वापस ले लिया।
5 फरवरी, 1992 को ही अपने आदेश के द्वारा उच्च न्यायालय ने वादी रामलला विराजमान का मुकदमा क्रमांक 236/1989 भी अन्य मुकदमों के साथ सामूहिक सुनवाई के लिए उच्च न्यायालय में मंगवा लिया और इस प्रकार सामूहिक सुनवाई के लिए केवल चार मुकदमें शेष रहे। चारों मुकदमों को नये क्रमांक दिए गए-
- गोपाल सिंह विशारद का वाद क्रमांक 2/1950 ------- O.O.S.-1/198
- निर्मोही अखाड़ा का वाद क्रमांक 26/1959 --------- O.O.S.-3/1989
- मुस्लिम सुन्नी वक्फ बोर्ड का वाद क्रमांक 12/1961 ---- O.O.S.-4/1989
- वादी रामलला विराजमान का वाद क्रमांक 236/1989 --- O.O.S.-5/1989 (O.O.S. means - Other Original Suit)
6 दिसम्बर, 1992 की घटना से हम सब परिचित हैं। घटना के पश्चात अयोध्या नगर में कफ्र्यू लग गया। पुजारी तथा जनता द्वारा भगवान के दर्शन-पूजन बन्द हो गए। इस अवस्था में लखनऊ उच्च न्यायालय के अधिवक्ता श्री हरिशंकर जैन ने भगवान की रूकी हुई पूजा-अर्चना-भोग को पुनः प्रारम्भ किए जाने की मांग के साथ अपना प्रार्थना पत्र उच्च न्यायालय में प्रस्तुत कर दिया। न्यायमूर्ति हरिनाथ तिलहरी ने 01 जनवरी, 1993 को भगवान के राग-भोग, पूजा-अर्चना का आदेश कर दिया। आदेश में कहा गया कि ''भगवान के दर्शन ठीक से हो सके, ऐसी व्यवस्था की जानी चाहिए। साथ ही साथ आँधी, तूफान, वर्षा, शीत व हवा से भगवान की रक्षा की व्यवस्था की जानी चाहिए।'' इस आदेश के बाद पूजा-अर्चना पनुः प्रारम्भ हो गई, जो आज तक जारी है। प्रतिदिन हजारों लोग दर्शन करते हैं। मेला काल में यह संख्या कई गुना बढ़ जाती है।
भारत सरकार द्वारा अधिग्रहण एवं राष्ट्रपति महोदय का विशेष प्रश्न
27 दिसम्बर, 1992 को भारत सरकार ने एक प्रस्ताव के द्वारा निर्णय लिया कि श्रीराम जन्मभूमि के भीतरी एवं बाहरी आंगन सहित इसके चारों ओर की लगभग 70 एकड़ भूमि को एक अध्यादेश द्वारा अधिग्रहीत किया जाएगा और साथ ही साथ संविधान की धारा 143ए के अन्तर्गत तत्कालीन महामहिम राष्ट्रपति महोदय के माध्यम से एक प्रश्न- ''कि क्या विवादित स्थल पर 1528 ई0 के पहले कोई हिन्दू मन्दिर था, जिसे गिराकर तथाकथित विवादित ढाँचा खड़ा किया गया ?'' पर सर्वोच्च न्यायालय से राय ली जाएगी। 7 जनवरी, 1993 को अध्यादेश जारी हुआ और सरकार ने अपने पर्वू निर्णय केअनुसार समस्त भूमि का अधिग्रहण कर लिया। भूमि अधिग्रहण एवं राष्ट्रपति महोदय डाॅ0 शंकरदयाल शर्मा की ओर से सर्वोच्च न्यायालय को संविधान की धारा 143ए के अन्तर्गत भेजे गए प्रश्न के कारण विवादित परिसर से सम्बंधित चारों वाद स्वतः समाप्त हो गए। इस अधिग्रहण अध्यादेश ने 3 अप्रैल, 1993 को संसदीय कानून (एक्ट नं0 33/1993) का स्वरूप ले लिया।अधिग्रहण अध्यादेश और राष्ट्रपति महोदय के प्रश्न की वैधानिकता पर आपत्ति उठाते हुए सर्वोच्च न्यायालय में याचिकाएं दायर हुईं। सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश श्री वैंकटचलैया जी की अध्यक्षता में 5 न्यायाधीशों- न्यायमूर्ति जे. एस. वर्मा, न्यायमूर्ति जी. एन. रे, न्यायमूर्ति ए. एम. अहमदी तथा न्यायमूर्ति एस. पी. भरूचा की पीठ बनी। इस पीठ में भारत सरकार द्वारा किए गए अधिग्रहण अध्यादेश तथा राष्ट्रपति महोदय के प्रश्न पर विस्तारपूर्वक सुनवाई हुई।
भारत सरकार ने अधिग्रहण का उद्देश्य संसद में गृहमंत्री के माध्यम से 9 मार्च, 1993 को प्रस्तुत किया था। अधिग्रहण का उद्देश्य सर्वोच्च न्यायालय के सामने प्रस्तुत किया गया, वह निम्न प्रकार है -
अधिग्रहण के उद्देश्यों और कारणों का कथन
अयोध्या में भूतपूर्व राम जन्मभूमि बाबरी मस्जिद संरचना के सम्बन्ध में चिरकालीन विवाद रहा है। जिसके कारण समय-समय पर साम्प्रदायिक तनाव और हिंसा हुई और अन्ततः 6 दिसम्बर, 1992 को विवादास्पद संरचना का विनाश हुआ। इसके पश्चात ही व्यापक साम्प्रदायिक हिंसा हुई जिसके परिणामस्वरूप देश के विभिन्न भागों में बड़ी संख्या में मृत्यु, क्षति और सम्पत्ति का विनाश हुआ। इस प्रकार उक्त विवाद ने देश में लोक व्यवस्था बनाए रखने और विभिन्न समुदायों के बीच सामंजस्य को प्रभावित किया। चूंकि भारत के लोगों के बीच साम्प्रदायिक सामंजस्य और सामान्य भ्रातृत्व की भावना आवश्यक है। अतः यह आवश्यक समझा गया कि ऐसा कम्पलेक्स स्थापित करने के लिए, जिसे योजनाबद्ध रीति से स्थापित किया जा सके और जहाँ एक राम मन्दिर, एक मस्जिद, तीर्थ यात्रियों के लिए सुख-सुविधाएं, एक पुस्तकालय, संग्रहालय और अन्य समुचित सुविधाएं स्थापित की जा सकें, विवादास्पद संरचना स्थल और उससे संलग्न समुचित भूमि का अर्जन किया जाए। एस. बी. चैहान नई दिल्ली 9 मार्च, 1993
भारत सरकार ने फरवरी, 1993 में श्वेत पत्र भी जारी किया और इसे सर्वोच्च न्यायालय में प्रस्तुत किया। श्वेत पत्र के अध्याय 2 पृष्ठ 14 पर लिखित पैराग्राफ 2.3 नीचे लिखे अनुसार है- 2.3 ''इस विवाद का सौहार्दपूर्ण समाधान खोजने के लिए की गई बातचीत के दौरान जो एक मुद्दा उभर कर सामने आया वह यह था: क्या जिस स्थान पर विवादास्पद ढांचा है वहाँ पर एक हिन्दू मन्दिर था और क्या इसे मस्जिद के निर्माण के लिए बाबर के आदेशों पर ढहा दिया गया था। मुस्लिम संगठनों और कुछ प्रमुख इतिहासकारों की ओर से यह कहा गया था कि इन दोनों मन्तव्यों में से किसी के भी पक्ष में कोई साक्ष्य नहीं है। कुछ मुस्लिम नेताओं द्वारा यह भी कहा गया था कि यदि ये मन्तव्य सिद्ध हो जाते हैं तो मुस्लिम स्वेच्छापूर्वक इस विवादास्पद पूजा स्थल को हिन्दुओं को सौंप देंगे। स्वाभाविक है कि विश्व हिन्दू परिषद और आॅल इण्डिया बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी के बीच बातचीत में यह एक केन्द्रीय मुद्दा बन गया।''
राष्ट्रपति महोदय के द्वारा संविधान की धारा 143ए के अन्तर्गत पूछे गए प्रश्न के सम्बन्ध में भारत सरकार का विचार एवं उद्देश्य और अधिक स्पष्ट किए जाने की मांग सर्वोच्च न्यायालय की पूर्ण पीठ ने भारत सरकार से की। भारत सरकार के तत्कालीन साॅलिसीटर जनरल श्री दीपांकर पी. गुप्ता ने दिनांक 14 सितम्बर, 1994 को भारत सरकार की नीति को स्पष्ट करते हुए अपना लिखित वक्तव्य सर्वोच्च न्यायालय के सम्मुख प्रस्तुत किया। वक्तव्य का अन्तिम पैराग्राफ क्रमांक 5 निम्न प्रकार है - भारत सरकार के तत्कालीन साॅलिसीटर जनरल दीपांकर पी. गुप्ता के लिखित वक्तव्य (14 सितम्बर, 1994) के अन्तिम पैराग्राफ का हिन्दी सारांश ''यदि वार्तालाप से समाधान के प्रयास सफल नहीं होते हैं तो भारत सरकार सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दी गई राय के आधार पर समाधान लागू करने के लिए वचनबद्ध है। इस सम्बन्ध में सरकार की कार्यवाही दोनों समुदायों के प्रति एक जैसी होगी। यदि न्यायालय को प्रस्तुत किए गए प्रश्न का उत्तर सकारात्मक होता है अर्थात ढहा दिए गए ढांचे के निर्माण के पूर्व उस स्थान पर एक हिन्दू मन्दिर/भवन था तो सरकार हिन्दू समुदाय की भावनाओं के अनुरुप कार्य करेगी। इसके विपरीत यदि प्रश्न का उत्तर नकारात्मक है अर्थात वहाँ पहले कोई हिन्दू मन्दिर/भवन नहीं था तो भारत सरकार मुस्लिम समुदाय की भावनाओं के अनुरुप व्यवहार करेगी।''
लगभग बीस महीने तक सर्वोच्च न्यायालय में राष्ट्रपति महोदय के प्रश्न तथा भारत सरकार द्वारा किए गए अधिग्रहण की वैधानिकता पर सुनवाई हुई। 24 अक्टूबर, 1994 को न्यायालय ने अपना निर्णय सुनाया। निर्णय बहुमत और अल्पमत में बंट गया। बहुमत का निर्णय न्यायमूर्ति जे. एस. वर्मा द्वारा सुनाया गया। जिसके पक्ष में मुख्य न्यायाधीश वैंकटचलैया तथा न्यायमूर्ति जी. एन. रे रहे। इसके विपरीत अल्पमत का निर्णय न्यायमूर्ति भरुचा द्वारा सुनाया गया। जिसके पक्ष में न्यायमूर्ति ए. एम. अहमदी रहे।
यह निर्णय सर्वोच्च न्यायालय में ''इस्माइल फारूखी बनाम भारत सरकार व अन्य'' (1994) 6 SCC के नाम से जाना जाता है तथा प्रकाशित हो चुका है। बहुमत का निर्णय 98 पृष्ठों में था तथा अल्पमत का निर्णय 42 पृष्ठों में था। दोनों ही निर्णयों में न्यायाधीशों ने, भारत सरकार द्वारा किए गए अधिग्रहण का उद्देश्य व कारण तथा श्वेत पत्र में मुस्लिमों के वचन तथा सोलिसीटर जनरल दीपांकर पी. गुप्ता द्वारा सरकार की ओर से दिए गए लिखित वक्तव्य को, अपनी भूमिका में ज्यों का त्यों लिखा।
अल्पमत निर्णय में भारत सरकार द्वारा किए गए अधिग्रहण को पूर्णतः रद्द कर दिया गया। साथ ही साथ महामहिम राष्ट्रपति महोदय के प्रश्न को अनुत्तरित वापस करते हुए कहा कि ''अधिग्रहण कानून एवं महामहिम राष्ट्रपति महोदय का यह प्रश्न एक समुदाय विशेष के पक्ष में तथा दूसरे के विपक्ष में है और इस प्रकार यह धर्मनिरपेक्षता के विरुद्ध है और असंवैधानिक है तथा यह प्रश्न कोई संवैधानिक उद्देश्य पूरा नहीं करता।''
सर्वोच्च न्यायालय की 5 न्यायाधीशों की पीठ के तीन न्यायाधीशों द्वारा 24 अक्टूबर, 1994 को सामूहिक रूप से सुनाए गए बहुमत के निर्णय 1994(6) एस. सी. सी. का सारांश-
- अधिग्रहण कानून की धारा 4(3) को असंवैधानिक व अमान्य घोषित करते हैं। इस धारा के अन्तर्गत यह प्रावधान था कि अधिग्रहीत क्षेत्र के अन्तर्गत आने वाली विवादित सम्पदा से सम्बंधित किसी भी न्यायालय में चलने वाले सभी प्रकार के वाद स्वतः समाप्त हो जाएंगे।
- धारा 4(3) को छोड़कर अधिग्रहण कानून की शेष सभी धाराओं को मान्य करते हुए उसे दी गई चुनौतियों को निरस्त किया जाता है।
- भारतवर्ष में लागू कानून के अन्तर्गत जो स्थान मन्दिर, गुरूद्वारा या अन्य किसी उपासना स्थल को प्राप्त है, ठीक उसी के बराबर और वसैी ही अधिकार भारत में चलने वाले मुस्लिम कानून के अन्तर्गत मस्जिद को है, उससे अधिक कदापि नहीं। अधिग्रहण किए जाने के सम्बन्ध में अन्य पूजा स्थलों की तुलना में मस्जिद को किसी विशेष रियायत की सुविधा प्राप्त नहीं है। मस्जिद इस्लाम का अनिवार्य अंग नहीं है, नमाज कहीं भी पढ़ी जा सकती है, यहाँ तक कि खुले में भी।
- विवादित परिसर (सामान्य रूप से जहाँ राम जन्मभूमि बाबरी ढांचा खड़ा था) से सम्बंधित सभी प्रकार के वाद अपने अन्तरिम आदेशों केसहित न्यायिक निपटारे के लिए पुनर्जीवित किए जाते हैं परन्तु सभी अन्तरिम आदेश अधिग्रहण कानून की धारा 7 के प्रकाश में संशोधित हो जाएंगे।
- विवादित परिसर के सम्बन्ध में केन्द्र सरकार की भूमिका संवैधानिक रिसीवर के दायित्व तक ही सीमित है। सरकार का कर्तव्य होगा कि वह अधिग्रहण कानून की धारा 7(2) के अनुसार उस स्थान की व्यवस्था और प्रशासन के साथ-साथ 7 जनवरी, 1993 वाली यथास्थिति भी बनाए रखे। सरकार का यह भी कर्तव्य होगा कि न्यायिक फैसला होने के पश्चात फैसले के अनुसार अधिग्रहण कानून की धारा 6 के अन्तर्गत विवादित परिसर सम्बंधित पक्ष को सौंप दे।
- कोई नया अन्तरिम आदेश देने का न्यायालय का अधिकार अधिग्रहण कानून की धारा 7 की परिधि से बाहर के क्षेत्र तक के लिए ही सीमित होगा, विवादित परिसर के लिए नहीं।
- विवादित परिसर से सटी हुई आसपास की भूमि का अधिग्रहण अपने में पूर्ण है और इसका प्रबन्ध व प्रशासन भी केन्द्रीय सरकार के पास धारा 7(1) के अनुसार तभी तक रहेगा जब तक की सरकार इस सटे हुए क्षेत्र को किसी अन्य अधिकृत व्यक्ति, व्यक्ति समूह या किसी न्यास के न्यासी को धारा 6 के अनुसार सौंप नहीं देती।
- आर्थिक क्षतिपूर्ति केवल उन्हीं भू-स्वामियों के लिए है जिनकी सम्पत्ति पूर्ण रूप से केन्द्रीय सरकार में निहित हो चुकी है और उनके स्वामित्व पर कोई विवाद ही नहीं है। केन्द्रीय सरकार को विवादित परिसर का रिसीवर इस दायित्व के साथ बनाया गया है कि वह न्यायिक फैसला होने तक यह स्थान इसके मालिक को वापिस कर देगा।
- विवादित परिसर से सटी हुई भूमि के जिन भू-स्वामियों ने अपनी भूमि अधिग्रहण पर आपत्तियाँ उठाई हैं वह इस समय विचारणीय नहीं हैं। यह निर्णय हो जाने के बाद कि विवाद के निपटारे के लिए ठीक-ठीक कितनी भूमि की आवश्यकता होगी, शेष बची हुई अतिरिक्त भूमि उनके भू-स्वामियों को लौटा दी जाए।
- विवाद के निपटारे के लिए आवश्यक भूखण्ड का ठीक-ठीक निर्धारण हो जाने के बाद शेष बची हुई भूमि को लगातार केन्द्रीय सरकार यदि अपने अधिकार में दबाकर रखती है तो उन-उन क्षेत्रों के भू-स्वामियों को अदालत में दी गई चुनौती याचिकाओं के नवीनीकरण की छूट होगी।
- महामहिम राष्ट्रपति द्वारा संविधान की धारा 143(1) के अन्तर्गत भेजे गए प्रश्न को हम अनावश्यक मानते हुए सम्मानपूर्वक राय देने से इन्कार करते हैं और वापस करते हैं।
मुकदमों का पुनर्जीवन व वापसी
सर्वोच्च न्यायालय की पीठ के बहुमत के निर्णय के परिणामस्वरूप विवादित श्रीराम जन्मभूमि/बाबरी मस्जिद परिसर से सम्बंधित चारों वाद, जो अधिग्रहण के कारण स्वतः समाप्त हो गए थे, फिर से पुनर्जीवित हो गए और वापस इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ को भेज दिए गए। लखनऊ पीठ में इन मुकदमों की सुनवाई के लिए पहले से ही तीन न्यायाधीशों की पूर्णपीठ बनी हुई थी।
ढांचा न रहने के तथा सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के प्रकाश में सभी पक्षकारों (वादी एवं प्रतिवादी) को अपने वाद में तथा मांगी गई प्रार्थना में संशोधन की छूट दी गई। संशोधन हुए भी, जैसे- सुन्नी वक्फ बोर्ड ने कब्रिस्तान की अपनी मांग को वापस ले लिया आदि। सभी वादों में पूर्व में निर्धारित हो चुके वाद बिन्दुओं में भी संशोधन हुए। गवाहों के मौखिक बयान एवं दूसरे पक्ष के वकीलों द्वारा प्रश्नोत्तर प्रारम्भ हुआ। सभी पक्षों ने अपने-अपने पक्ष में तथ्य प्रस्तुत किए। लगभग सभी पक्षों की ओर से अनुमानित 80 गवाह प्रस्तुत हुए। गवाहों में पुरातत्ववेत्ता, लिपिशास्त्री, प्राचीन भारतीय इतिहास, मुस्लिम शासनकाल के जानकार इतिहासकार, ब्रिटिश शासनकाल के जानकार इतिहासकार, भारतीय प्राचीन ग्रन्थों के विशेषज्ञ तथा तथ्यों के जानकार आदि सभी प्रकार के गवाह थे। गवाहियाँ लगभग 2006 ई0 के प्रारम्भ तक चलती रहीं।
इसी बीच मई, 2002 में उच्च न्यायालय की विशेष पीठ के तीनों न्यायाधीशों ने अयोध्या में विवादित परिसर और उसके आसपास का स्वयं जाकर निरीक्षण किया। तीनों न्यायाधीश भीषण गर्मी में लगभग दो घण्टे तक परिसर में घूमते रहे। अनेक प्रश्न उन्होंने जिला प्रशासन को लिखकर भेजे थे। विवादित परिसर में घूमते समय अपने सभी प्रश्नों का उत्तर उन्होंने जिला प्रशासन से मौखिक रूप में प्राप्त किया। अपने इस निरीक्षण पर उन्होंने कोई रिपोर्ट लिखी अथवा नहीं लिखी, यह ज्ञात नहीं हुआ। यदि न्यायमूर्तिगण अपने निरीक्षण पर कोई रिपोर्ट लिखते तो उसकी प्रतिलिपि सभी पक्षों को अवश्य मिलती। किसी पक्ष को कोई प्रति नहीं मिली, इसका यही अर्थ है कि उन्होंने निरीक्षण तो किया परन्तु अपने निरीक्षण पर कोई लिखित टिप्पणी अपने रिकार्ड में नहीं रखी।
1 अगस्त, 2002 को उच्च न्यायालय की पीठ ने एक अन्तरिम आदेश जारी कर सभी पक्षकारों से उनके सुझाव/विचार लिखित रूप में 15 दिन में मांगे। आदेश के प्रमुख अंश-
- सभी वादों में मौलिक वाद बिन्दु यह है कि क्या प्रश्नगत स्थान पर पहले कभी कोई हिन्दू मन्दिर अथवा हिन्दू धार्मिक भवन खड़ा था, जिसे तोड़कर उस स्थान पर तथाकथित बाबरी मस्जिद बनाई गई ?
- अदालत ने अपने अन्तरिम आदेश में लिखा कि इसी प्रकार का वाद बिन्दु सुन्नी वक्फ बोर्ड के वाद ओ.ओ.एस.-4/1989 तथा रामलला विराजमान के वाद ओ.ओ.एस.- 5/1989 में भी बना है तथा महामहिम राष्ट्रपति महोदय ने भी संविधान की धारा 143 के अन्तर्गत सर्वोच्च न्यायालय की राय जानने के लिए न्यायालय के पास ऐसा ही प्रश्न भेजा था।
- पुरातत्व विज्ञान इस प्रश्न का उत्तर देने में सहायक हो सकता है। वर्तमानकाल में पुरातत्व विज्ञान उत्खनन के माध्यम से भूतकाल का इतिहास बारीकी से बता सकता है।
- यदि विवादित स्थल पर कभी कोई मन्दिर या धार्मिक भवन रहा होगा तब उत्खनन के माध्यम से उसकी नींव खोजी जा सकती है।
- उन्होंने यह भी लिखा कि उत्खनन के पूर्व हम पुरातत्व विभाग के माध्यम से राडार तरंगों द्वारा भूमि के नीचे की फोटोग्राफी कराएंगे।
उपर्युक्त अन्तरिम आदेश पर सभी पक्षों ने अपने विचार/सझुाव लिखित रूप मंे दिए। अन्ततः न्यायपीठ ने राडार सर्वे का आदेश दिया। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग ने राडार सर्वे का यह कार्य ''तोजो विकास इण्टरनेशनल प्राइवेट लिमिटेड'' को सौंपा। यह सर्वे 30 दिसम्बर, 2002 से 17 जनवरी, 2003 तक विवादित परिसर में सम्पन्न हुआ। लगभग 4000 वर्गमीटर क्षेत्र का तथा गहराई में 5.5 मीटर नीचे तक का राडार सर्वे किया गया, फोटो लिए गए। सर्वे रिपोर्ट देने वाले मुख्य भू-भौतिकी विशेषज्ञ कनाडा के थे। अपनी रिपोर्ट के निष्कर्ष भाग में उन्होंने लिखा कि ''राडार सर्वे के चित्रों मे अनेक विसंगतियाँ दिख रही हैं, जो प्राचीन भवन की रचना हो सकती है। इन विसंगतियों में स्तम्भ, नींव की दीवारें तथा फर्श और ये दूर-दूर तक फैली हुई हैं। तथापि इन विसंगतियों के सही स्वरूप की पुष्टि पुरातात्विक वैज्ञानिक उत्खनन के माध्यम से की जानी चाहिए।'' राडार सर्वे की यह रिपोर्ट 17 फरवरी, 2003 को उच्च न्यायालय की पीठ को सौंपी गई।
राडार सर्वे रिपोर्ट के निष्कर्ष के आधार पर उच्च न्यायालय ने 5 मार्च, 2003 को परुातात्विक उत्खनन का आदेश जारी किया। मार्च, 2003 से अगस्त, 2003 तक विवादित परिसर के चारों ओर उत्खनन हुआ। यह ध्यान रखा गया कि उत्खनन के दौरान रामलला विराजमान को कोई क्षति न पहुँचे और दर्शनार्थियों का मार्ग भी बन्द न हो। उत्खनन हुआ। सभी पक्षों के प्रतिनिधि स्वरूप उनके अधिवक्ता, पक्षकार स्वयं तथा पक्षकारों की ओर से नियुक्त अन्य कोई पुरातात्विक विशेषज्ञ यदि उत्खनन स्थान पर उपस्थित रहना चाहें तो उन्हें उच्च न्यायालय ने फोटो सहित अनुमति पत्र जारी किए। उत्खनन कार्य की पल-पल की वीडियोग्राफी हुई। आॅवजर्वर के रूप में दो अतिरिक्त जिला जज नियुक्त किए गए। दो भागों में रिपोर्ट बनी। भाग एक में लिखित वर्णन है तथा भाग दो में उत्खनन से प्राप्त वस्तुओं के चित्र हैं।
उत्खनन रिपोर्ट ने अपने निष्कर्ष भाग में स्पष्ट लिखा है कि उत्खनन से प्राप्त दीवारों, स्तम्भाधार, दीवारों में लगे नक्काशीदार पत्थर, शिव मन्दिर जैसी रचना को व अन्य प्राप्त वस्तुओं को देखकर निष्कर्ष निकलता है कि यहाँ कभी कोई हिन्दू मन्दिर रहा होगा। उत्खनन रिपोर्ट पर सुन्नी वक्फ बोर्ड की ओर से आपत्तियाँ लिखित रूप में की गईं। अनेक प्रकार के मौखिक आरोप लगाए गएं उत्खनन रिपोर्ट को रिकार्ड में लेना चाहिए अथवा नहीं इस पर बहस हुई। सुन्नी वक्फ बोर्ड की ओर से जाने-माने वरिष्ठ अधिवक्ता एवं राजनेता श्री सिद्धार्थ शंकर रे उपस्थित हुए। इसके विपरीत वादी गोपाल सिंह विशारद की ओर से सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ठ अधिवक्ता श्री कृष्णमणि ने रिपोर्ट को रिकार्ड में लिए जाने के लिए कानून प्रस्तुत किया। अन्ततः रिपोर्ट रिकार्ड का हिस्सा बनी। दोनों पक्षों की ओर से पुरातत्ववेत्ता मौखिक गवाह के रूप में प्रस्तुत हुए। पुरातत्ववेत्ताओं से दूसरे पक्ष के वकीलों ने जिरह की।
2006 ई0 से सिविल मुकदमें का अन्तिम चरण प्रारम्भ हो गया। अन्तिम चरण अर्थात् वकीलों के तर्क सुन्नी वक्फ बोर्ड के मुकदमे को प्रमुख वाद मान लिए जाने के कारण उनकी ओर से तर्क प्रारम्भ हुए।
1996 ई0 से उच्च न्यायालय में प्रारम्भ हुए मुकदमे में महत्वपूर्ण पहलू है, न्यायपीठ का बार-बार पुनर्गठन। किसी न किसी न्यायाधीश के सेवानिवृत्त होने के कारण न्यायपीठ का पुनर्गठन हुआ। तब तक सुनवाई रूक जाती थी। तर्क के दौरान ही न्यायपीठ का तीन बार पुनर्गठन हुआ। इसके कारण तर्क फिर से सुने जाते थे। सुन्नी वक्फ बोर्ड की ओर से अधिवक्ता श्री जफरयाब जिलानी को तीन बार अपने बात दोहरानी पड़ी। अन्तिम पुनर्गठन की परिस्थिति अगस्त, 2009 के अन्तिम सप्ताह में पैदा हुई जब पता लगा कि न्यायपीठ में 1996 से मुकदमे को सुन रहे न्यायाधीश सैयद रफात आलम साहब को मध्यप्रदेश में मुख्य न्यायाधीश का स्थान प्राप्त हो गया है। अगले दिन से ही न्यायपीठ ने अपना कार्य बन्द कर दिया। चार महीने बाद 20 दिसम्बर, 2009 को न्यायपीठ में न्यायमूर्ति एस. यू. खान की नियुक्ति हुई। उन्होंने 10 जनवरी, 2010 से कार्य पा्ररम्भ किया। जनवरी, 2010 के बाद प्रतिदिन अदालत बैठी। प्रतिदिन अर्थात एक महीने में लगभग 20 दिन और एक दिन में कम से कम साढ़े चार घण्टे की सुनवाई।
सुन्नी वक्फ बोर्ड के वाद में एक हिन्दू प्रतिवादी की ओर से कलकत्ता उच्च न्यायालय के वरिष्ठ अधिवक्ता श्री पी. एन. मिश्रा ने अप्रैल, 2010 में सुन्नी वक्फ बोर्ड के वाद के विरुद्ध अपने तर्क प्रभावी रूप से रखे। इनका सहयोग स्थानीय अधिवक्ता सुश्री रंजना अग्निहोत्री ने किया। हिन्दू पक्ष अदालत के सामने आना प्रारम्भ हो गया। सुन्नी वक्फ बोर्ड के मुकदमे के ही एक अन्य प्रतिवादी परमहंस रामचन्द्रदास की ओर से सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ठ अधिवक्ता श्री रविशंकर प्रसाद ने तर्क प्रस्तुत किए तथा एक और प्रतिवादी महंत धर्मदास की ओर से चेन्नई उच्च न्यायालय के वरिष्ठ अधिवक्ता श्री जी. राजगोपालन ने वक्फ बोर्ड के मुकदमे के विरुद्ध अपने तर्क रखे। इनका सहयोग लखनऊ के अधिवक्ता श्री राकेश पाण्डेय ने किया। (श्री राकेश पाण्डेय के पूज्य पिता जी ने ही जिला जज के रूप में श्रीरामजन्मभूमि के ताले को खोलने का आदेश फरवरी, 1986 में दिया था)। श्री रविशंकर प्रसाद का सहयोग अधिवक्तागण सर्वश्री भूपेन्द्र यादव, विक्रम बनर्जी, सौरभ समशेरी ने किया। वादी रामलला विराजमान के वाद क्रमांक 5/1989 की ओर से रामलला का पक्ष सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ठ अधिवक्ता श्री के. एन. भट्ट तथा फैजाबाद के अधिवक्ता श्री मदनमोहन पाण्डेय ने प्रस्तुत किया। कुछ अन्य वकील भी बोले। उनमें प्रमुख हैं- उच्च न्यायालय, लखनऊ के अधिवक्ता श्री हरिशंकर जैन तथा श्री अजय पाण्डेय एडवोकेट। इलाहाबाद उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश लखनऊ निवासी श्रद्धेय श्री कमलेश्वर नाथ जी का मुकदमें को तैयार कराने में किया गया योगदान विलक्षण है।
जब अदालत द्वारा सुन्नी वक्फ बोर्ड के अधिवक्ता को कहा गया कि वे अपने मुकदमे के विरुद्ध प्रस्तुत किए गए कानूनी तर्कों का जबाव दें तो उन्होंने कोई उत्तर नहीं दिया। अदालत ने लगभग सभी अधिवक्ताओं को अपनी बात कहने का अवसर दिया। 27 जुलाई, 2010 को सुनवाई समाप्त घोषित कर दी गई। न्यायाधीशों ने सभी पक्ष के वकीलों को क्रमिक रूप से अपने चैम्बर में बुलाकर मुकदमे के सम्बन्ध में विचारविमर्श किया। अन्ततः यह प्रक्रिया भी जुलाई के अन्त में पूरी हो गई। न्यायपीठ ने सभी पक्षों के सम्मुख यह स्पष्ट कर दिया था कि वे सितम्बर के तीसरे सप्ताह के आसपास अपना निर्णय सुनाएंगे और इसकी जानकारी पर्याप्त समय पहले सभी अधिवक्ताओं को दी जाएगी। अदालत ने अपने वचन का पालन किया। निर्णय सुनाने की तारीख 24 सितम्बर, 2010 सारे देश को 8 सितम्बर, 2010 को ही पता लग गया। निर्णय तो भविष्य के गर्भ में निहित है। यह भी सब मान रहे हैं कि असंतुष्ट पक्ष सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाएगा। मुकदमा गम्भीर है। सर्वोच्च न्यायालय को तो सुनना ही पड़ेगा। वहाँ क्या होगा? कितने वर्ष लगेंगे ? क्या आने वाले 25 वर्षों में भी फैसला हो पाएगा ? कुछ भी कहना कठिन है। हमें तो लगता है कि गेंद अन्ततः भारत सरकार के पाले में जाएगी।
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