अवैध देह व्यापार से संबंधी कानून (The Illegal prostitution Related Law)



अनैतिक व्यापार निवारण अधिनियम (Immoral Traffic Prevention Act) 1956
अनैतिक व्यापार निवारण अधिनियम (Immoral Traffic Prevention Act) 1956
अनैतिक व्यापार निवारण अधिनियम (Immoral Traffic Prevention Act) 1956

परिभाषा
वेश्यावृत्ति का अर्थ-किसी भी व्यक्ति का अर्थिक लाभ के लिये लैंगिक शोषण करने का वेश्यावृत्ति कहते हैं।
वेश्यागृह का अर्थ
किसी मकान, कमरे, वाहन या स्थान से या उसके किसी भाग से है, जिसमें किसी अन्य व्यक्ति के लाभ के लिये किसी का लैंगिक शोषण या दुरूपयोग किया जाय या दो या दो से अधिक महिलाओं के द्वारा अपने आपसी लाभ के लिय वेश्यावृत्ति की जाती है।
अनैतिक व्यापार निवारण अधिनियम के अंतर्गत निम्नलिखित कार्य अपराध हैं
  1. कोई व्यक्ति जो वेश्यागृह को चलाता है, उसका प्रबंध करता है या उसके रखने में और प्रबंध में मदद करता है तो उसे 3 साल तक का कठोर करावास व 2000 रूपये का जुर्माना होगा। यदि वह व्यक्ति दुबारा इस अपराध का दोषी पाया जाता है तो उसको कम से कम 2 साल व अधिक से अधिक 5 साल का कठोर कारावास व 2000 रूपये जुर्माना होगा।
  2. कोई व्यक्ति जो किसी मकान या स्थान का मालिक, किरायेदार, भारसाधक, एजेंट है उसे वेश्यागृह के लिये प्रयोग करता है या उसे यह जानकारी है कि ऐसे किसी स्थान या उसके किसी भाग को वेश्यागृह के लिये प्रयोग में लाया जायेगा या वह अपनी इच्छा से ऐसे किसी स्थान या उसके किसी भाग को वेश्यागृह के रूप मे प्रयोग करने के लिएा भागीदारी देता है तो ऐसे व्यक्ति को 2 साल तक की जेल व 2000 रूपये का जुर्माना हो सकता है यदि वह दुबारा इस अपराध का दोषी पाया जाता है तो उसको 5 साल का कठोर कारावास व जुर्माने से दंडित किया जा सकता है।
वेश्यावृत्ति के कमाई पर रहना
कोई भी 18 साल की उम्र से अधिक व्यक्ति अगर किसी वेश्या की कमाई पर रह रहा है तो ऐसे व्यक्ति को 2 साल की जेल या 1000 रूपये का जुर्माना हो सकता है या दोनों।
अगर कोई व्यक्ति किसी बच्चे या नाबलिग द्वारा की गई वेश्यावृत्ति की कमाई पर रहता है तो ऐसे व्यक्ति को कम से कम 7 साल व अधिक से अधिक 10 सला की जेल हो सकती है।
कोई भी व्यक्ति जो 18 साल से अधिक उम्र का है: 
  1. वेश्या के साथ उसके संगत में रहता है या
  2. वेश्या की गतिविधियों पर अपना अधिकार, निर्देष, या प्रभाव इस प्रकार डालता है जिससे यह मालूम होता है कि वह वेश्यावृत्ति मे सहायता, प्रोत्साहन, या मजबूर करता है या
  3. जो व्यक्ति दलाल का काम करता है तो मान कर चला जायेगा जब तक इसके विपरीत सिद्ध न हो जायें कि ऐसे व्यक्ति वेश्यावृत्ति के कमाई पर रह रहे हैं।
    वेश्यावृत्ति के लिये किसी व्यक्ति को लान, फुसलाना या लेने की चेष्टा करना
    1. किसी व्यक्ति को उसकी सहमति, या सहमति के बिना वेश्यावृत्ति के लिये लाता है लाने की कोशिश करता है या
    2. किसी व्यक्ति को एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाने के लिए फुसलाता है, ताकि वह उससे वेश्यावृत्ति करवा सके तो ऐसे व्यक्ति को कम से कम 3 साल व अधिक से अधिक 7 साल के कठोर कारावास व 2000 रूपये के जुर्माने के दंडित किया जा सकता है और यह अपराध किसी व्यक्ति की सहमति के विरूद्ध किया जाता है तो दोषी व्यक्ति को 7 साल की जेल जो अधिकतक 14 साल तक की हो सकतीर है दंडित किया जा सकता है और अगर यह अपराध किसी बच्चे के विरूद्ध किया जाता है तो दोषी को कम से कम से 7 साल की जेल और उम्र कैद भी हो सकती है।
      वेश्यागृह में किसी व्यक्ति को रोकना
      1. वेश्यागृह में रोकता है
      2. किसी स्थान पर किसी व्यक्ति को किसी के साथ जो कि उसका पति या पत्नी नहीं है संभोग करने के लिये रोकना है तो ऐसे व्यक्ति को कम से कम 7 साल की जेल जो कि 10 साल या उम्र कैद तक हो सकती है और जुर्माने से दंडित किया जा सकता है।
        अगर कोई व्यक्ति किसी बच्चे के साथ वेश्यागृह में पाया जाता है तो वह दोषी तब माना जायेगा जब तक इसके विपरीत सिद्ध नहीं हो जाता।
        अगर बच्चे या 18 वर्ष से कम उम्र का व्यक्ति वेश्यागृह में पाया जाता है और उसकी चिकित्सकीय जाँच के बाद यह सिद्ध होता है, कि उसका लैंगिक शोषण हुआ है तो यह माना जायेगा कि ऐसे व्यक्ति को वेश्यावृत्ति करवाने के लिये रखा गया है या उसका लैंगिक शोषण आर्थिक लाभ के लिये किया जा रहा है।
        अगर कोई व्यक्ति किसी महिला या लड़की का
        1. सामान जैसे गहने, कपड़े, पैसे या अन्य सम्पति आदि अपने पास रखता है। या
        2. उसको डराता है कि वह उसके विरूद्ध कोई कानूनी कार्यवाही शुरू करेगा अगर वह अपने साथ गहने, कपड़े, पैसे या अन्य सम्पत्ति जो कि ऐसे व्यक्ति द्वारा महिला या लड़की को उधार या आपूर्ति के रूप में या फिर ऐसे व्यक्ति के निर्देष में दी गई हो ले जायेगी। तो यह माना जायेगा कि ऐसे व्यक्ति ने महिला या लड़की को वेश्यागृह में या ऐसी जगह रोका है जहाँ वह महिला या लड़की को संभोग के लिये मजबूर कर सके।
          सार्वजनिक स्थानों या उसके आस-पास वेश्यावृत्ति करना
          यदि कोई व्यक्ति जो वेश्यावृत्ति करता है या करवाता है ऐसे स्थानों पर-
          1. जो राज्य सरकार ने चिन्हित किये हों, या
          2. जो कि 200 मीटर के अन्दर किसी सार्वजनिक पूजा स्थल, शिक्षाण संस्थान, छात्रावास, अस्पताल, परिचर्यागृह या ऐसा कोई भी सार्वजनिक स्थान जिसको पुलिस आयुक्त या मैजिस्ट्रेट द्वारा अधिसूचित किया गया हो - तो ऐसे व्यक्ति को 3 महीने तक का कारावास हो सकता है।
          कोई व्यक्ति यदि किसी बच्चे से ऐसा अपराध करवाता है तो उसको कम से कम 7 साल या अधिक से अधिक उम्र कैद या 10 साल तक की जेल हो सकती है तथा जुर्माने से भी दंडित किया जा सकता है।

          अगर कोई व्यक्ति जो -
          ऐसे सार्वजनिक स्थानों का प्रबंधक है वेश्याओं को व्यापार करने व वहाँ रूकने देता है।
          1. कोई किरायेदार, दखलदार, या देखभाल करने वाला व्यक्ति वेश्यावृत्ति के लिये ऐसे स्थानों के प्रयोग की अनुमति देता है।
          2. किसी स्थान का मालिक, ऐजेंट ऐसे स्थानों को वेश्यावृत्ति के लिये किराये पर देता है तो -
            1. वह तीन महीने की कारावास और 200 रूपये के जुर्माने से या दोनों से दंडित किया जा सकता है।
            2. यदि वह व्यक्ति फिर ऐसे अपराध का दोषी पाया जाता है, तो वह 6 महीने की जेल और 200 रूपये के जुर्माने से द.डित किया जा सकता है।
            3. अगर ऐसा अपराध किसी होटल में किया जाता है तो उस होटल का लाइसेंस रद्द कर दिया जायेगा।
          वेश्यावृत्ति के लिये किसी को फुसलाना या याचना करना
          अगर कोई व्यक्ति सार्वजनिक स्थानों पर किसी व्यक्ति को किसी घर या मकान से इशारे, आवाज अपने आप को दिखाकर किसी खिड़की या बालकनी से वेश्यावृत्ति के लिये आर्कषित, फुसलाता या विनती करता है या छेड़छाड़ आवारागर्दी या इस प्रकार का कार्य करता है, जिससे वहाँ पर रहने वाले या आने जाने वालों को बाधा या परेशानी होती है तो उसको 6 महीने की जेल और 500 के जुर्माने से या दोनों से दंडित किया जा सकता है।
          अगर वह फिर से यह अपराध करता है तो उसके 1 साल की जेल और 500 रू0 जुर्माने से दंडित किया जा सकता है।
          अगर यह अपराध कोई पुरूष करता है तो वह कम से कम 7 दिन तथा अधिक से अधिक 3 महीने की जेल से दंडित किया जा सकता है।

          अपने संरक्षण में रहने वाल व्यक्ति को फुसलाना
          यदि कोई व्यक्ति अपने संरक्षण, देखभाल में रहने वाल किसी व्यक्ति को वेश्यावृत्ति के लिए फुसलाता है, उकसाता है या सहायता करता है तो वह कम से कम 7 साल की जेल जो कि उम्र की कैद या 10 साल तक की हो सकती है जेल व जुर्माने से दंडित किया जा सकता है।

          सुधार संस्था में भेजने का आदेश
          सार्वजनिक स्थानों, या उनके आस-पास वेश्यावृत्ति करना या वेश्यावृत्ति के लिये किसी को फुसलाना या याचना करने के संबंध में दोषी महिला को उसकी शारीरिक या मानसिक स्थिति के आधार पर न्यायालय उसको सुधार संस्था में भी भेजने का आदेश दे सकता है। सुधार संस्था में कम से कम दो साल व अधिक से अधिक पांच साल के लिये भेजा जा सकता है।

          विशेष पुलिस अधिकारी एवं सलाहकार बाड़ी
          राज्य सरकार इस अधिनियम के अंतर्गत अपराधों के संबंध में विशेष पुलिस अधिकारियों को नियुक्ति करेगी। सरकार कुछ महिला सहायक पुलिस अधिकारियों की भी नियुक्ति कर सकती है।

          इस अधिनियम के अंदर दिये गये सभी अपराध संज्ञेय हैं:
          इस अधिनियम के अन्दर दिये गये अपराध के दोषी व्यक्ति को विशेष पुलिस अधिकारी, या उसके निर्देष से बिना वारंट के गिरफ्तार किया जा सकता है।

          तलाशी लेना
          विशेष पुलिस अधिकारी या दुव्र्यापार पुलिस अधिकारी बिना वारंट के किसी स्थान की तलाशी तब ले सकते हैं, जब उनके साथ उस स्थान के दो या दो से अधिक सम्मानित व्यक्तियों जिसमें कम से कम एक महिला भी साथ हो।
          वहाँ पर मिलने वाले व्यक्ति को मैजिस्ट्रेट के सामने पेश किया जायेगा। ऐसे व्यक्ति की आयु, लैंगिक शोषण, यौन संबंधी बीमारियों की जानकारी के लिये चिकित्सी जाँच करायी जायेगी।
          ऐसे स्थानों पर मिलने वाल महिलायें या लड़कियों से, महिला पुलिस अधिकारी ही पूछताछ कर सकती है।

          वेश्यागृह से छुडाना
          अगर मैजिस्ट्रेट को किसी पुलिस अधिकारी या राज्य सरकार द्वारा नियुक्ति किसी व्यक्ति से सूचना मिलती है कि कोई व्यक्ति वेश्यावृत्ति कर रहा है या करवा रहा है तो वह पुलिस अधिकारी (जो इंस्पेक्टर के श्रेणी से उच्च का होगा) उस स्थान की तलाशी लेने और वहाँ मिलने वाले लोगों को उसके सामने पेश करने को कह सकता है।
          वेश्यागृह को बन्द करना
          मजिस्ट्रेटको पुलिस से या किसी अन्य व्यक्ति से सूचना मिलती है, कि कोई घर, मकान, स्थान आदि सार्वजनिक स्थान के 200 मीटर के भीतर वेश्यावृत्ति के लिये प्रयोग किया जा रहा है तो वह उस जगह के मालिक, किरायेदार, एजेंट या जो उस स्थान की देखभाल कर रहा है उसे नोटिस देगा कि वह 7 दिन के अन्दर जवाब दें कि क्यों न स्थान को अनैतिक काम के लिये प्रयोग किये जाने वाला घोषित किया जाये।
          संबंधित पक्ष को सुनने के बाद यदि यह लगता है कि वहाँ पर वेश्यावृत्ति हो रही है, तो मजिस्टेªट 7 दिन के अंदर उसको खाली करने या उसके अनुमति के बिना किराये पर न देने का आदेश दे सकता है।

          संरक्षण गृह में रखने के लिये आवेदन
          कोई व्यक्ति जो वेश्यावृत्ति करता है या जिससे वेश्यावृत्ति कराई जाती है वह मैजिस्ट्रेट से संरक्षण गृह में रखने या न्यायालय से सुरक्षा के लिये आवेदन कर सकता है।

          वेश्याओं को किसी स्थान से हटाना
          मैजिस्ट्रेट को सूचना मिलने पर यदि यह लगता है कि उसके क्षेत्राधिकार में कोई वेश्या रह रही है, तो वह उसको वहाँ से हटने या फिर उस स्थान पर न आने का आदेश दे सकता है।
          विशेष न्यायालयों की स्थापना
          इस अधिनियम के अंतर्गत किये गये अपराधों के लिये राज्य सरकार व केन्द्र सरकार विशेष न्यायालय की स्थापना भी कर सकती है। भारतीय द.ड संहिता के अंतर्गत भी महिलाओं एवं बच्चो को बेचने व खरीदने पर प्रतिबंध लगाने के लिए प्रावधान बनाये गये हैं।
          18 साल के कम उम्र के लड़की को गैर कानूनी संभोग के लिये फुसलाना (धारा-366-क)
          यदि कोई व्यक्ति किसी 18 से कम उम्र की लड़की को फुसलाता है किसी स्थान से जाने को या कोई कार्य करने को यह जानते हुये कि उसके साथ अन्य व्यक्ति द्वारा गैर कानूनी संभोग किया जायेगा या उसके लिये मजबूर किया जायेगा तो ऐसे व्यक्ति को 10 साल तक की जेल व जुर्माने से दंडित किया जायेगा।
          महिला की लज्जाशीलता भंग करने के आशय से आपराधिक बल का प्रयोग करना या हमला (धारा - 354)
          जो कोई किसी स्त्री की लज्जा भंग करने के आशय से या यह संभाव्य जानते हुए कि एतद् द्वारा वह उसकी लज्जा भंग करेगा, उस स्त्री पर हमला करेगा या आपराधिक बल का प्रयोग करेगा वह 2 वर्ष के कारावास और जुर्माने से और दोनों से दंडित किया जा सकता है।
          विदेश से लड़की का आयात करना (धारा - 366 -ख)
          अगर कोई व्यक्ति किसी 21 साल से कम उम्र की लड़की को विदेश या जम्मू-कश्मीर से लाता है, यह जानते हुये कि उसके साथ गैर कानूनी संभोग किया जायेगा या उसके लिये उसे मजबूर किया जायेगा तो ऐसे व्यक्ति को 10 साल तक की जेल ओर जुर्माने से दंडित किया जा सकता है।

          वेश्यावृत्ति आदि के लिय बच्चों को बेचना (धारा - 372)

          अगर कोई व्यक्ति किसी 18 साल से कम उम्र के बच्चे को वेश्यावृत्ति या गैरकानूनी संभोग या किसी कानून के विरूद्ध ओर दुराचारी काम में लाये जाने या उपयोग किये जाने के लिये उसको बेचता है या भाड़े पर देता है, तो ऐसे व्यक्ति को 10 साल तक की जेल ओर जुर्माने से दंडित किया जा सकता है।
          यदि कोई व्यक्ति किसी 18 साल की कम उम्र की लड़की को किसी वेश्या या किसी व्यक्ति को, जो वेश्यागृह चलाता हो या उसका प्रबंध करता हो, बेचता है, भाडे़ पर देता है तो यह माना जायेगा कि उस व्यक्ति ने लड़की की वेश्यावृत्ति के लिये बेचा है, जब तक के लिये इसके विपरित साबित न हो जाये।
          वेश्यावृत्ति आदि के लिये बच्चों को खरीदना (धारा - 373)
          अगर कोई व्यक्ति किसी 18 साल से कम उम्र के बच्चों को वेश्यावृत्ति या गैर कानूनी संभोग, या किसी कानून के विरूद्ध और दुराचारिक काम में लाये जाने या उपयोग किये जाने के लिये उसको खरीदता है या भाडे़ पर देता है तो ऐसे व्यक्ति को 10 साल तक की जेल और जुर्माने से भी दंडित किया जा सकता है।
          न्यायालों के देह व्यापार से संबंधित निर्णय:
          1. उच्चतम न्यायालय ने गौरव जैन बनाम भारत संघ में कहा है कि वेश्यावृत्ति एक अपराध है। लेकिन जो महिलाओं देह व्यापार करती है उनको दोषी कम और पीडि़त ज्यादा माना जायेगा। न्यायालय ने यह भी कहा कि ऐसी परिस्थितियों में रहने वाली महिलाओं एवं उसके बच्चों को पढ़ायी के अवसर और आर्थिक सहायता भी दी जानी चाहिये तथा उनको समाज की मुख्य धारा से जोड़ने के लिये उनकी शादियाँ भी करवानी चाहिये जिससे बाल देह व्यापार में कमी हो सके।
          2. उच्चतम न्यायालय ने प.न. कृष्णलाल बनाम केरल राज्य में कहा कि राज्य के पास यह शक्ति है कि वह कोई भी व्यापार या व्यवसाय जो गैर कानूनी, अनैतिक या समाज के लिये हानिकारक है उस पर रोक लगा सकती है।
            बलात्संग/बलात्कार (धारा - 376)
            कोई पुरूष एतस्मिसन् पश्चात् अपवादित दशा के सिवाय किसी स्त्री के साथ निम्नलिखित छह भाँति की परिस्थितियों में से किसी परिस्थिति में मैथुन करता है, वह पुरूष बलात्संग/बलात्कार करता है यहा कहा जाता है:-
            1. उस स्त्री की इच्छा के विरूद्ध।
            2. उस स्त्री की की सम्मति कि बिना।
            3. तीसरा - उस स्त्री की सम्मति, उसे या ऐसे किसी व्यक्ति को, जिससे वह हितबद्ध है, मृत्यु या उपहित के भय में डालकर अभिप्राप्त की गई है।
            4. उस स्त्री की सम्मति से जबकि वह पुरूष यह जानता है कि वह उस स्त्री का पति नहीं है और उस स्त्री ने सम्मति इसलिए दी है कि वह ऐसा पुरूष है जिससे वह विधिपूर्वक विवाहित है या विवाहित होने का विश्वस करती है।
            5. उस स्त्री की सम्मति से, जबकि ऐसी सम्मति देने के समय वह विकृतचित या मतता के कारण या उस पुरूष द्वारा व्यक्तिगत रूप में या किसी अन्य व्यक्ति के माध्यम से कोई सम्मति देती है, प्रकृति और परिणामों को समझने में असमर्थ है।
            6. उस स्त्री की सम्पति से या बिना सम्मति के, जबकि वह सोलह वर्ष से कम आयु की है।
            स्पष्टीकरण : बलात्संग के अपराध के लिए आवश्यक मैथुन गठित करने के लिए प्रवेशन पर्याप्त है।
            अपवाद : पुरूष का अपनी पत्नी के साथ मैथुन बलात्संग नहीं है कि जबकि पत्नी पन्द्रह वर्ष से कम आयु की नहीं है।
              अप्राकृतिक इंद्रीय भोग (धारा - 377)
              जो कोई किसी पुरूष, स्त्री या जीव जन्तु के साथ प्रकृति की व्यवस्था के विरूद्ध स्वेच्छया इन्द्रीय भोग करेगा, वह आजीवन कारावास से या दोनों में से किसी भांति के कारावास जिसकी अवधि 10 वर्ष तक की हो सकेगी और जुर्माने से या दोनों से दंडित किया जा सकता है।
              मानहानि (धारा- 499/500)
              जो कोई बोले गये या पढ़े जाने के लिये आषयित शब्दों द्वारा या संकेत द्वारा या दृष्य रूपणों द्वारा किसी व्यक्ति के बारे में कोई लांछन इस आशय से लगता है या प्रकाशित करता है कि ऐसे लांछन से ऐसे व्यक्ति की ख्याति को अपहानि की जाये या यह जानते हुए या विश्वास करने का कारण रखते हुए लगाता या प्रकाशित करता है कि ऐसे लांछन से ऐसे व्यक्ति की ख्याति की अपहानि होगी, अपवादित दशाओ को छोड़कर मानहानि करता है तो वह 2 वर्ष तक के साधारण कारावास या जुर्माने से या दोनों से दंडित किया जा सकता है।
              शब्द, अंग विक्षेप या कार्य जो किसी स्त्री की लज्जा का अनादर करने के लिए आशयित हैं (धारा - 509)
              जो कोई किसी स्त्री की लज्जा का अनादर करने के आशय से कोई शब्द कहेगा, कोई ध्वनि या अंग विक्षेप करेगा या कोई वस्तु प्रदर्षित करेगा, इस आशय से की ऐसी स्त्री द्वारा ऐसा शब्द या ध्वनि सुनी जाये या ऐसा अंग विक्षेप या वस्तु देखी जाये अथवा ऐसी स्त्री की एकंातता का अतिक्रमण करेगा, वह सादा कारावास से जिसकी अवधि 1 वर्ष तक की हो सकेगी या जुर्माने से या दोनों से दंडित किया जा सकता है।
              भारतीय विधि और कानून पर आधारित महत्वपूर्ण लेख


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              हिन्दु उत्तराधिकार अधिनियम (Hindu Succession Act) 1956



              समाजिक सुधार और हिन्दू महिलाओं को पूर्ण अधिकार दिलाने की दिषा में 9 सितम्बर, 2005 का दिन एक विषेष महत्व रखेगा। इस दिन से एक अधिनियम जिसका नाम है ‘‘हिन्दु उतराधिकार (संशोधन) अधिनियम 2005’’ अस्तित्व में आ गया है। जिसके अन्तर्गत हिन्दू महिलाओं को पुरूषों के बराबर पूर्ण अधिकार दिया गया है। क्योंकि यह नया अधिनियम हिन्दू समाज की अभी तक की प्रचलित मान्यताओं के एकदम विपरीत है और इससे हिन्दू महिलाओं को सम्पति में नए अधिकार प्राप्त हुए हैं इसलिए इस संशोधन के द्वारा हिन्दू महिलओं के अधिकारों मे जो परिवर्तन किए गए है, उसका वर्णन इस लेख में नीचे किया जा रहा है। 
              हिन्दू महिला संयुक्त परिवार में जन्म से ही सहभागी 
              इस नये संशोधन कानून से हिन्दू उतराधिकार कानून 1956 की धारा-6 के स्थान पर एक नई धारा स्थानापन्न की गई है, जिसके अनुसार 9 सितम्बर 2005 से हर हिन्दू पुत्री जन्म से ही संयुक्त परिवार में पुत्र के बराबर भागीदार गिनी जायेगी और उसे संयुक्त परिवार की सम्पति में पुत्र के बराबर अधिकार रहेगा। इसके साथ-साथ पुत्र के बराबर ही उस सम्पति में जो देनदारियाँ होगी। उनमें भी वह सहभागिनी होगी। लेकिन यदि किसी संयुक्त परिवार का विभाजन 20 दिसम्बर 2004 से पहले हो गया है, अर्थात जो पुराने हिन्दू कानून के अन्तर्गत हो गया है, जिसके अन्तर्गत पुत्रियों को संयुक्त परिवार की सम्पति में कोई अधिकार नहीं था तो ऐसा विभाजन रदद नहीं किया जाएगा। परन्तु 9 सितम्बर, 2005 से हिन्दू परिवार के विभाजन में जो हक पुत्र को प्राप्त होगा, वही हक पुत्री को भी प्राप्त रहेगा और उसे उतना ही हिस्सा दिया जाएगा जैसे कि पुत्र को दिया जाएगा जैसे कि पुत्र को दिया जाता है। इसी प्रकार यदि किसी पुत्री का देहान्त पहले हो जाता है जो संयुक्त परिवार के विभाजन के समय जीवित थी और जिस प्रकार दिंवगत पुत्र की सम्पति उसके पुत्रों और उसके उत्तराधिकारियों में बांटी जाती है, उसी प्रकार दिवगंत पुत्री के उतराधिकारीयों में भी वह सम्पति बांटी जाएगी।
              संशोधन के पश्चात निम्न बातें प्रमुख हैं: 
              1. वसीयत का अधिकार - हिन्दू महिला को संयुक्त परिवार की सम्पति में अपने हिस्से को अपनी वसीयत के अनुसार बांटने का पूरा हक रहेगा। इस प्रकार एक हिन्दू महिला की मृत्यु के समय संयुक्त परिवार की सम्पति का विभाजन उसी प्रकार होगा जैसे वह मृत्यु के दिन जीवित थी और उसका जो भी हिस्सा उस समय बनता था वही उसके उतराधिकारीयों में विभाजित होगा जैसे कि पुत्र का होता है।
              2. बुजुर्गो के ऋण हेतू हिन्दू जिम्मेदार नहीं - अब नये कानून के पश्चात कोई भी न्यायालय किसी भी पुत्र, पौत्र या प्रपौत्र के विरूद्ध कोई फैसला नहीं करेगी, केवल इसलिए कि ऐसा पुत्र आदि का एक पवित्र कर्तव्य था, कि वह अपने पिता के ऋणों को चुकाये। यदि कोई ऋण 9 सितम्बर 2005 से पूर्व पिता आदि ने लिया है तो पूर्व कानून के अनुसार कोई भी लेनदार पुत्र, या प्रपौत्र के खिलाफ कोर्ट में मुकद्दमा कर सकता है, जैसे कि यह नया संशोधन कानून पास ही नहीं हुआ हो।
              3. हिन्दु महिलाओं को मकान विभाजन का अधिकार - अब हिन्दू महिला संयुक्त परिवार के रिहायषी मकान का विभाजन मांग सकती है।
              4. कृषि भूमि का विभाजन हिन्दू महिला द्वारा संभव - हिन्दू उतराधिकार अधिनियम 1956 की धारा 4(2) समाप्त कर दी गई है, जिसका असर यह होगा कि 9 सितम्बर 2005 से यदि हिन्दू महिलाओं को कृषि भूमि में उत्तराधिकार के रूप में कोई हक मिलेगा तो उसे कृषि भूमि के विभाजन का पूरा हक रहेगा, जैसे कि एक पुत्र को रहता है।
              5. हिन्दू विधवाओं को पुनर्विवाह पर उत्तराधिकार की असुविधा नहीं - इस नये संशोधन अधिनियम के अनुसार हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 की धारा 24 को समाप्त कर दिया गया है, जिससे पूर्व दिवंगत पुत्र की विधवा स्त्री आदि या पूर्व दिवंगत पुत्र के दिवंगत पुत्र या भाई की विधवा को पुनर्विवाह पर सम्पति उत्ताधिकार का अधिकार नहीं मिलता था। अब ऐसी विधवा को उसके पुनर्विवाह के पश्चात भी अपने पिता या संयुक्त परिवार की सम्पति में पुत्र केबराबर हिस्सा प्राप्त करने का पूरा अधिकार रहेगा।
              भारतीय विधि और कानून पर आधारित महत्वपूर्ण लेख


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              भक्ति आन्दोलन में कबीर का योगदान



              भक्ति आन्दोलन वह आंदोलन है जिसमें भागवत धर्म के प्रचार और प्रसार के परिणामस्वरूप भक्ति आन्दोलन का सूत्रपात हुआ। भक्ति आन्दोलन ने जन सामान्य को सम्मान पूर्वक जीने का रास्ता दिखाया, आत्मगौरव का भाव जगाया और जीवन के प्रति सकारात्मक आस्था पूर्ण दृष्टिकोण विकसित किया। देश की अखण्डता और समस्त देशवासियों के कल्याण तथा मानव के समान अधिकारों को अभिव्यक्ति दी। भक्ति आन्दोलन के सम्बन्ध में शिव कुमार मिश्र लिखते हैं - "यह भक्ति आन्दोलन, सच पूछा जाए तो अपने समय की राजनीतिक, धार्मिक और सामाजिक परिस्थितियों की अनिवार्य देन था। वह युग जीवन की ऐतिहासिक माँग बनकर आया। इस तथ्य का अनुमान महज इस बात से लगाया जा सकता है कि इससे न केवल अपने समय की राजनीतिक, धार्मिक, सामाजिक जड़ता को तोड़ा, चली आती हुई सांस्कृतिक जीवन की धारा के साथ विजेताओं की नई संस्कृति को घुलाते-मिलाते हुए पहली बार जाति, धर्म, वर्ग, वर्ण आदि से निरपेक्ष एक मानव धर्म तथा एक मानव संस्कृति की परिकल्पना सामने रखी। इसने शताब्दियों से कुंठित और अपमानित देश के करोड़ों-करोड़ साधारण जनों के लिए उनकी सामाजिक मुक्ति तथा आध्यात्मिकता के द्वार भी उन्मुक्त कर दिए, समाज तथा धर्म के ठेकेदारों ने जिन्हें उनके लिए कब का बन्द कर रखा था। इस आधार पर यदि यह कहा जाए कि एक स्तर पर यह भक्ति-आन्दोलन रूढि़ग्रस्त धर्म तथा उसके द्वारा अभिशप्त एक अनैतिक और अमानवीय समाज व्यवस्था के प्रति सामान्य जन के सात्विक शेष तथा उसकी दुर्दम जिजीविषा की भावात्मक अभिव्यक्ति था, तो अतिशयोक्ति न होगी।"

              Dhan Dhan Jai Satguru Kabir Ji Maharaj

              इन परिस्थितियों में कबीर के आविर्भाव को रेखांकित करते हुए शिव कुमार मिश्र लिखते हैंः  "समझौते का रास्ता छोड़कर विद्रोह का रास्ता अपनाते हुए निर्गुण भक्ति की जो धारा भक्ति-आन्दोलन की स्रोतस्वनी से फूटी कबीर उसकी सबसे ऊँची लहर के साथ सामने आए। समझौता उनकी प्रकृति में नहीं था। विद्रोह और क्रांति की ज्वाला उनकी रग-रग में व्याप्त थी सिर पर कफन बाँधकर, अपना घर फूंककर वे अलख जगाने निकले थे। उन्हें समझौता परस्तों की नहीं, अपना घर फूंक कर साथ चलने वालों की जरूरत थी वे लुकाठी लिए सरे बाजार गुहार लगा रहे थे।"

               कबीरा खड़ा बाजार में लिए लुकाठी हाथ।
              जो घर जारे आपना चले हमारे साथ।।

              भक्ति आन्दोलन के व्यापक पटल पर कबीर का मूल्यांकन और उनका योगदान रेखांकित करने के लिए हमें कबीर को अन्दर से देखना-परखना होगा, क्योंकि कबीर ऊपर से एक नजर में जो दिखाते हैं उससे कहीं अधिक वो हैं। कबीर को केवल दार्शनिक, निर्गुण ब्रह्म के प्रतिपादक, समाज सुधारक, हिन्दू-मुस्लिम एकता और समन्वय के पुरोधा तथा एक संत के रूप में देखना कबीर के साथ अन्याय करना होगा।

              कबीर का मूल्यांकन उन "मूल्यों" के आधार पर करना चाहिए जिन्हें विकसित और पल्लवित करने के लिए उन्होंने अपना जीवन समर्पित कर दिया। उस वैचारिक पृष्ठभूमि के आधार पर करना चाहिए जिसके आधार वे अकेले इतना जबर्दस्त विद्रोह कर सके। तमाम सामन्तीय जीवन प्रणाली और पुरोहिती दंभ क े विरुद्ध जन सामान्य की प्रतिष्ठा और आत्मसम्मान की घोषणा कर सके। सदियों से अनुप्राणित उस कठोर जमीन को तोड़ने और एक नई उर्वर जमीन को बनाने के प्रयास के आधार पर करना चाहिए जिसे उन्होंने अपने रक्त के आँसुओ से सींचा।

              सोई आँसू साजणां, सोई लोक बिडाहिं।
              जे लोइण लोई चुवैं, तो जाणो हेत हियाहिं।।

              कबीर का मूल्यांकन उनकी इस करुणा के आधार पर करना चाहिए जो समस्त मानवता के प्रति थी। चुपचाप खा-पीकर चैन से सोने वाले इस संसार की सदियों की इस नींद पर, इस जड़ता पर अन्याय को चुपचाप सहने की आदत पर और भविष्य के प्रति उदासीनता की सोच पर कबीर रात-रात भर जागते हैं और आँसू बहाते हैं।

              सुखिया सब संसार है, खावे औ सोवे।
              दुखिया दास कबीर है, जागै औ रोवे।।

              यहाँ कबीर जाग रहे हैं और रो रहे हैं शेष सब खा रहे हैं और सो रहे हैं। कबीर का यह जागना और रोना बहुत महत्वपूर्ण है। वास्तव में कबीर देश के सांस्कृतिक नवजागरण के अग्रदूत थे। डॉ. रामविलास शर्मा ने भक्ति युग को प्रथम नव-जागरण की संज्ञा दी है। कबीर इस नवजागरण के पुरोधा थे। कबीर ने अपने समय में जिस युग सत्य का साक्षात्कार किया था उसे देखकर कबीर जैसा संवेदनशील निष्ठावान व्यक्ति रो ही सकता है। कबीर के विद्रोही होने का एक कारण यह रुदन भी है।

              कबीर अहंकार से मुक्ति में मानव-जीवन की बृहत्तर सार्थकता देखते हैं। अहं से मुक्ति उनकी प्रखर विचारधारा से जुड़ा प्रश्न है, चूँकि मध्यकालीन समाज अहं परिचालित था। वर्ग-भेद आधारित जहाँ अमीर-गरीब का अंतर है, धर्म और जाति का अंतर है। सामन्तीय-पुरोहितवाद ने अपने को सुरक्षित करने के लिए मानव-मानव के बीच कई दीवारें खड़ी कीं। इसलिए कबीर कहते हैं- अपने से बाहर निकलो, सीमाओं का अतिक्रमण कर व्यापक समाज में पहुंचा जहाँ उच्चतर मानव मूल्यों की प्रतिष्ठा है:

              हद चले सो मानवा, बेहद चले सो साध।
              हद बेहद दोऊ तजे, ताकर मता अगाध।।

              सहजता और सहिष्णुता जैसे मानवीय मूल्य अहं के साथ नहीं चल सकते। इन मूल्यों के अभाव में न ईश्वर मिल सकता और न सांसारिक सुख। कबीर के यहाँ "राम" ईश्वरत्व की अपेक्षा उच्चतर मूल्य-समुच्च के प्रतीक हैं। कबीर ‘राम’यानि मानवीय मूल्यों को पाने का जो रास्ता बताते हैं वह है प्रेम का। कबीर के यहाँ प्रेम भी एक जीवन मूल्य के रूप में प्रतिपादित है:

              पोथी पढि़ जग मुआ, पण्डित भया न कोय।
              ढाई आखर प्रेम का, पढ़ै सो पण्डित होय।।

              इस प्रेम की अर्थ व्यंजना गहरी है और इसका आधार ईमानदार संवेदन है जो आचार-विचार की मत्रैी के लिए आवश्यक है। कबीर प्रेम को कई तरह से परिभाषित करते हैं:

              कबीर यह घर प्रेम का, खाला का घर नाहिं।
              सीस उतारे भुईं धरे, सो घर पैठे आहिं।।


              प्रेम के घर में बैठने के लिए जो शर्त है वह प्रेम को उस जीवन मूल्य के रूप में प्रतिष्ठित करती है जिसके बिना जीवन चल नहीं सकता। सीस काटकर जमीन पर रखने की क्षमता हो तो प्रेम को पा सकते हो।

              प्रेम न खेतो नीपजै, प्रेम न हाट बिकाय।
              राजा-परजा जिस रुचै, सिर दे सौ ले जाय।।

              प्रेम के मार्ग में सम्पूर्ण समर्पण की बात कबीर बार-बार करते हैं, यह बात ध्यान देने लायक है। सम्पूर्ण भक्ति काव्य में ही नहीं हिन्दी साहित्य में बहुत कम कविताओं में प्रेम के लिए सिर काट कर रखने की शर्त मिलेगी। भक्ति काव्य में अन्य कवियों ने प्रेम में प्रिय के प्रति समर्पण की बात तो चित्रित की है, परन्तु प्रेम के लिए दुर्दम शर्त सिर्फ कबीर ही रख सकते थे। इसका कारण था यहाँ यह प्रेम व्यक्तिगत भावना या किसी एक के प्रति तरल भावनात्मक अनुभूति मात्र नहीं है। यहाँ तो वह एक ऐसी विचारधारा है, एक ऐसा दृष्टिकोण है, एक ऐसा सूत्र है जिसके आधार पर ही मानव-मानव कहा जा सकता है। आपस में मनुष्य सत्य को लेकर जी सकता है। कबीर ने एक ऐसे देश की कल्पना की जहां मनुष्य मात्र समानता के सिद्धांत पर जिये जहाँ कोई ऊंच-नीच, भेदभाव कोई विषमता और विश्रृंखलतायें न होंः

              अवधू, बेगम देश हमारा
              राजा रंक फकीर-बादशाह, सबसे कहौं पुकारा।
              जो तुम चाहो परम पद को, बसिहों देस हमारा।।

              कबीर का यह आध्यात्मिक देश उच्चतम मानव मूल्यों का देश है। सामाजिक स्तर पर जहाँ व्यक्ति का सामाजिक चेतना में पर्यवसान होना ही मानवीय मूल्यों का प्रतीक है।

              व्यक्ति के माध्यम से कबीर ने कुछ बड़ी सामाजिक-सांस्कृतिक चिंताएँ कीं और इस दृष्टि से वे अपनी अनगढ़ता में भी कुछ मूल्य स्थापनाएँ कर सके, जिसे हम उनका विशिष्ट योगदान कह सकते हैं। कबीर भक्ति काव्य की उस परम्परा के सबसे प्रखर स्वर हैं, जिसका आरंभ सिद्ध-नाथ साहित्य से हुआ। साधारण सामान्य वर्ग से आए इन कवियों ने अपने समय-समाज के प्रति तीव्र असंतोष व्यक्त किया और उन्होंने सामाजिक संस्कृति पर बल देते हुए, मध्यकाल के लिए एक नए मानववादी विकल्प का संकेत दिया।

              कबीर का सीधा आग्रह सरल जीवन पर है। सारे आडम्बर ताम-झाम से मुक्त, सामंती-पुरोहितवादी अलंकरण का निषेध। उन्होंने उन छोटी जातियों को विशेष रूप से सम्बोधित किया जिनकी कोई सामाजिक, आर्थिक पहचान नहीं थी। उन्होंने वे सामान्य विषय चुने जो मध्यकाल में उनके समक्ष मौजूद थे। वे मूलभूत प्रश्न थे - जातिवाद, पुरोहितवाद, आडम्बर, हर प्रकार का भ्रष्टाचार और शोषण-उत्पीड़न और सबसे महत्वपूर्ण जन सामान्य की प्रतिष्ठा और आत्म-सम्मान। इस प्रकार कबीर का यथार्थ ऊपर-ऊपर नहीं तैरता वे प्रश्नों की गहराई में उतरते हैं और एक संवेदनशील विचारक के रूप में सामने आते हैं।

              समय का यथार्थ महत्वपूर्ण रचना की अनिवार्यता है कबीर अपने युग सत्य से सबसे अधिक गहराई से जुड़े प्रतीत होते हैं। यह भोगा हुआ यथार्थ है जिसे वे अपनी विद्रोही वाणी में अभिव्यक्त करते हैं। उनका सर्वाधिक आक्रोश सामंतवाद में नए पनपे सम्प्रदायवाद, वर्ग-विभेद और दो मँहुेपन के प्रति व्यक्त हुआ है।

              कबीर मानवीय संवेदना के प्रत्येक स्पंदन से परिचित थे। पण्डितों, मुल्लाओं और अछूतों के कर्मकाण्ड और पाखण्ड उनके लिए ‘आँखों देखी’ प्रमाण थे। पहले से चले आ रहे बाह्याचारों से सामाजिक जड़ता का विकास हो रहा था। इ सीलिए मनुष्य को मनुष्य समझने और उसे संवेद्य बनाने की सार्थक चेष्टा कबीर का सबसे बड़ा योगदान है।

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              ॥ मंगलाचरण - सुन्दरकाण्ड ॥



               ॥ मंगलाचरण - सुन्दरकाण्ड ॥
               शान्तं शाश्वतमप्रमेयमनघं निर्वाणशान्तिप्रदं
              ब्रह्माशम्भुफणीन्द्रसेव्यमनिशं वेदान्तवेद्यं विभुम्‌।
              रामाख्यं जगदीश्वरं सुरगुरुं मायामनुष्यं हरिं
              वन्देऽहं करुणाकरं रघुवरं भूपालचूडामणिम्‌॥1॥
              भावार्थ:-शान्त, सनातन, अप्रमेय (प्रमाणों से परे), निष्पाप, मोक्षरूप परमशान्ति देने वाले, ब्रह्मा, शम्भु और शेषजी से निरंतर सेवित, वेदान्त के द्वारा जानने योग्य, सर्वव्यापक, देवताओं में सबसे बड़े, माया से मनुष्य रूप में दिखने वाले, समस्त पापों को हरने वाले, करुणा की खान, रघुकुल में श्रेष्ठ तथा राजाओं के शिरोमणि राम कहलाने वाले जगदीश्वर की मैं वंदना करता हूँ॥1॥

              नान्या स्पृहा रघुपते हृदयेऽस्मदीये
              सत्यं वदामि च भवानखिलान्तरात्मा।
              भक्तिं प्रयच्छ रघुपुंगव निर्भरां मे
              कामादिदोषरहितं कुरु मानसं च॥2॥
              भावार्थ:-हे रघुनाथजी! मैं सत्य कहता हूँ और फिर आप सबके अंतरात्मा ही हैं (सब जानते ही हैं) कि मेरे हृदय में दूसरी कोई इच्छा नहीं है। हे रघुकुलश्रेष्ठ! मुझे अपनी निर्भरा (पूर्ण) भक्ति दीजिए और मेरे मन को काम आदि दोषों से रहित कीजिए॥2॥

              अतुलितबलधामं हेमशैलाभदेहं
              दनुजवनकृशानुं ज्ञानिनामग्रगण्यम्‌।
              सकलगुणनिधानं वानराणामधीशं
              रघुपतिप्रियभक्तं वातजातं नमामि॥3॥
              भावार्थ:-अतुल बल के धाम, सोने के पर्वत (सुमेरु) के समान कान्तियुक्त शरीर वाले, दैत्य रूपी वन (को ध्वंस करने) के लिए अग्नि रूप, ज्ञानियों में अग्रगण्य, संपूर्ण गुणों के निधान, वानरों के स्वामी, श्री रघुनाथजी के प्रिय भक्त पवनपुत्र श्री हनुमान्‌जी को मैं प्रणाम करता हूँ॥3॥


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              कबीर दास जी का परिचय एवं उनके काव्य की विशेषताएँ



              कबीर दास जी का परिचय एवं उनके काव्य की विशेषताएँ 
              Introduction of Kabir Das ji and the Characteristics of his Poetry

              कबीर दास का जीवन परिचय
              कबीर संतमत के प्रवर्तक और संत काव्य के सर्वश्रेष्ठ कवि है। विलक्षण के धनी और समाज - सुधारक संत कबीर हिन्दी साहित्य में अपना विशिष्ट स्थान रखते हैं। इनके समान सशक्त और क्रांतिकारी कोई अन्य कवि हिन्दी साहित्य में दिखाई नहीं पड़ता है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने कबीर दास के काव्य और व्यक्तित्व का आकलन करते हुए लिखा है - कबीर की उक्तियों में कहीं - कहीं विलक्षण प्रभाव और चमत्कार है। प्रतिभा उनमें बडी प्रखर थी, इसमें संदेह नहीं। कबीर की विलक्षण प्रतिभा पर आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लिखा है - हिन्दी साहित्य के हजार वर्षो के इतिहास में कबीर जैसा व्यक्तित्व लेकर लेखक उत्पन्न नहीं हुआ। भाषा पर कबीर का जबरदस्त अधिकार था। वे वाणी के डिक्टेटर थे। उनके संत रूप के साथ ही उनका कविरूप बराबर चलता रहता है।
              PIYF Rishikesh India salute to nobel sage Kabīr (c. 1440 – c. 1518) was a mystic poet and saint of India,
              कबीर की जन्मतिथि के सम्बन्ध में कई मत प्रचलित है, पर अधिक मान्य मत - डॉ. श्यामसुन्दर दास और आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का है। इन विद्वानों ने कबीर का जन्म (कबीर दास जयंती) सम्वत् 1456 वि. (सन् 1389 ई.) माना है। इनके जन्म के सम्बध में कहा जाता है कि कबीर काशी की एक ब्राह्मणी विधवा की संतान थे। समाज के डर से ब्राह्मणों ने अपने नवजात पुत्र को एक तालाब के किनारे छोड़ दिया था, जो नीरु जुलाहे और उसकी पत्नी नीमा को जलाशय के पास प्राप्त हुआ। विद्वानों के मतानुसार कबीर का अवसान मगहर में सम्वत् 1575 वि.(सन् 1518 ई.) में है।
              Dhan Dhan Jai Satguru Kabir Ji Maharaj
              कबीर की जितनी भी रचनाएं मिलती हैं उनके शिष्यों ने इन्हे बीजक नामक ग्रंथ में संकलित किया है। इसी बीजक के तीन भाग हैं - साख, शबर और रमैनी । साखी में संग्रहित साखियों की संख्या 809 है। सबद के अंतर्गत 350 पद संकलित है। साखी शब्द का प्रयोग कबीर ने संसार की समस्याओं को सुलझाने के लिए किया है। सबद कबीर के गेय पद है। रमैनी के ईश्वर सम्बन्धी, शरीर एवं आत्मा उद्धार सम्बन्धी विचारों का संकलन है। कबीर के निर्गुण भक्ति मार्ग के अनुयायी थे और वैष्णव भक्त थे। रामानंद से शिष्यत्व ग्रहण करने के कारण कबीर के हृदय में वैष्णवों के लिए अत्यधिक आदर था। कबीर ने धार्मिक पाखण्डों, सामाजिक कुरीतियों, अनाचारों, पारस्परिक विरोधों आदि को दूर करने का सराहनीय कार्य किया है। कबीर की भाषा में सरलता एवं सादगी है, उसमें नूतन प्रकाश देने की अद्भुत शक्ति है। उनका साहित्य जन-जीवन को उन्नत बनाने वाला, मानवतावाद का पोषाक, विश्व -बन्धुत्व की भावना जाग्रत करने वाला है। इसी कारण हिन्दी सन्त काव्यधारा में उनका स्थान सर्वश्रेष्ठ माना जाता है।
              Kabir Dohas
               


              कबीर काव्य की विशेषताएँ
              कबीर की काव्यगत विशेषताओं का वर्णन कीजिए 3000 शब्दों में -भारतीय इतिहास में एक महत्वपूर्ण घटना के रूप में भक्ति आन्दोलन को देखा-परखा जाता है। यह इतिहास की महत्वपूर्ण घटना निम्नलिखित विशेषताओं के कारण है:- 
              जनता की एकता की स्वीकृति -भक्ति आन्दोलन ने अपने धार्मिक विचारों के बावजूद जनता की एकता को स्वीकार किया। यह स्वीकृति वैचारिक और व्यावहारिक दोनों आधारों पर है। रामानन्द की शिष्य परम्परा में कबीर, रैदास, दादू, तुकाराम तथा तुलसी समान रूप से स्वीकृत हैं, तथा मीरा ने अपने गुरु के रूप में रैदास को स्वीकार किया यह भी एक मिसाल है। दूसरे कबीर कहते हैं- "ना मैं हिन्दू ना मुसलमान" और तुलसी जब भील-भीलनी, किरात जैसी जंगली जातियों को राम के द्वारा स्वीकार और सम्मानित करवाते हैं तो इसी एकता की बात करते हैं। 

              ईश्वर के समक्ष सबकी समानता -भक्ति आन्दोलन का यह एक ऐसा वैचारिक आधार है जिसके माध्यम से वह ऊँच-नीच एवं जाति और वर्ण-भेद के आधार पर विभाजित मानवता की समानता को एक नैतिक और मजबूत आधार प्रदान करते हैं। समाज में व्याप्त असमानताओं का आधार भी ईश्वर की भक्ति को बनाया गया था- भक्ति संतों ने उन्हीं के हथियारों से उन पर वार किया और कहा कि- 'ब्रह्म' के अंश सभी जीव हैं तो फिर यह विषमता क्यों? कि किसी को ईश्वर उपासना का सम्पूर्ण अधिकार और किसी को बिल्कुल नहीं, इतना ही नहीं इसी आधार पर समाज को रहन-सहन, खान-पान, छुआछूत एवं आर्थिक विषमताओं से विभाजित किया गया था। भक्तों ने चाहे वे निर्गुण हों चाहे सगुण सभी ने ईश्वर के समक्ष मानव मात्र की समानता को एक स्वर से स्वीकार किया।

              जाति-प्रथा का विरोध -'जाति प्रथा' समाज की एक ऐसी बुराई थी जिसके चलते समाज के एक बड़े वर्ग को मनुष्यत्व के बाहर का दर्जा मिला हुआ था। 'अछूत', 'शूद्र', 'अन्त्यज', 'निम्नतम' श्रेणी के मनुष्यों का ऐसा समूह था जिसे मनुष्यत्व की मूलभूत पहचान भी प्राप्त नहीं थी। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य वर्ग में भी जातिगत श्रेष्ठता और सामाजिक व्यवस्था में उच्च श्रेणी के लिए संघर्ष होते रहते थे। भक्ति संतों ने मनुष्यता के इस अभिशाप से मुक्ति की लड़ाई पूरी ताकत से लड़ी। कबीर जब "ना हिन्दू ना मुसलमान" की बात करते हों या किसी जाति विशेष के विशिष्ट अधिकारों पर चोट करते हों जो उन्हें जातिगत आधार पर मिले हों तो वे वास्तव में जाति प्रथा की इसी वैचारिक धरातल को तोड़ना चाहते हैं। 'जाति' विशेष का विरोध या जाति को खत्म करने की बात नहीं की गई, बल्कि 'जाति' और 'धर्म' के तालमेल से उत्पन्न मानवीय विषमताओं और ह्रासमान जीवन मूल्यों को पुनः प्रतिष्ठित करने के लिए जाति के आधार मिले विशेषाधिकारों को खत्म करने की बात भक्ति आन्दोलन ने उठाई।
              जाति प्रथा के आधार पर ईश्वर की उपासना का जो विशेष अधिकार ऊंची जाति वालों ने अपने पास रख रखा था और पुरोहित तथा क्षत्रियों की साँठ-गाँठ के आधार पर जिसे बलपूर्वक मनवाया जाता था। उसे तोड़ने का अथक प्रयास भी भक्ति आन्दोलन ने किया और कहा कि ईश्वर से तादात्म्य के लिए मनुष्य के सद्गुण - प्रेम, सहिष्णुता, पवित्र हृदय, सादा-सरल जीवन और ईश्वर के प्रति अगाध विश्वास आवश्यक है न कि उसकी ऊंची जाति या ऊँचा सामाजिक, राजनैतिक या आर्थिक आधार। 

              धर्मनिरपेक्षता/पंथनिपेक्षता - धर्मनिरपेक्षता का मतलब यह नहीं है कि व्यक्ति किसी धर्म-विशेष से कोई सम्बन्ध न रखे। बल्कि इसका अर्थ यह है कि अपने धर्म पर निष्ठा रखते हुए भी व्यक्ति दूसरे धर्मों का सम्मान करें तथा अपनी धार्मिक निष्ठा को दूसरे धर्मों में निष्ठा रखने वालों से जुड़ने में बाधा न बने। धर्मनिरपेक्षता एक जीवन मूल्य है जिसमें सहिष्णुता का गुण समाहित है। वर्ग, वर्ण, सम्प्रदाय तथा धर्मगत बन्धनों की अवहेलना करते हुए मनुष्य मात्र को ईश्वरोपासना का समान अधिकारी घोषित भक्ति आन्दोलन ने एक ऐसी धर्मनिरपेक्ष विचारधारा को जन्म दिया जो उस समय तो क्रांतिकारी थी ही आज भी इस विचारधारा को भारतीय समाज व्यावहारिक स्तर पर नहीं अपना पाया है। भक्ति आन्दोलन के सभी सूत्र धारों में यह जीवन-मूल्य कमोवेश पाया जाता है। कबीर ने तो मानो इस विचारधारा को जन-जन तक पहुंचाने का बीड़ा उठा रखा था। वे जानते थे कि इसे पाना आसान नहीं है, नहीं होगा तभी उन्होंने शर्त रखी जो अपना 'सर' काटकर रखने की क्षमता रखता हो या अपना उन्होंने फूंकने की क्षमता रखता हो वही कबीर की इस धर्मनिरपेक्ष विचारधारा के साथ चल सकता है। 
              कबीरा खड़ा बाजार में, लिए लुकाठी हाथ।
              जो घर जारे आपना, चले हमारे साथ।।
               
              जायसी इस विचारधारा को साहित्यिक स्तर पर अभिव्यक्त करते हैं। अपने मजहब के प्रति ईमानदारी रखते हुए भी उन्होंने दूसरे धर्म मतो को आदर दिया और जिसे मनुष्यता का सामान्य हृदय कहते हैं, या जिसे मनुष्यत्व की सामान्य भूमि कहते हैं, उस जमीन पर, जिससे भी मिलें, मनुष्य के नाते मिले, बिना किसी भेदभाव के।
              भारत के सांस्कृतिक इतिहास में पहली बार अंत्यजों और पीड़ित-शोषित वर्गों ने अपने संत दिए और इन संतों ने प्रथम बार साहसपूर्वक सम्पूर्ण आस्था और विश्वास से धर्म-जाति और वर्ण-सम्प्रदायगत बंधनों को तोड़ते हुए मानव धर्म तथा मानव संस्कृति का गान गाया। 

              सामाजिक उत्पीड़न और अंधविश्वासों का विरोध -भक्ति आन्दोलन ने एक लम्बी लड़ाई-अपने प्रारंभ से अंत तक-लड़ी वह थी, सामाजिक उत्पीड़न और जन सामान्य में व्याप्त अंधविश्वास के विरुद्ध। कबीर इस युद्ध के उद्घोषक थे। उन्होंने इसे स्वयं की स्वयं को दी हुई चुनौती के रूप में स्वीकार किया और अपने तरकश के सभी तीर चलाए, तुक्का नहीं लगाया। कहीं-कहीं तो ऐसा लगता है कि कबीर अकेले खड़े हैं सामने चुनौती झेलने वाला कोई नहीं पर लड़ाई किसी व्यक्ति या शासक के विरुद्ध नहीं थी। लड़ाई थी उस गलीच 'विचारधारा' और 'सोच' के विरुद्ध जिसके आधार पर सदियों से मानवता का शोषण किया जा रहा था उसे उत्पीड़ित किया जा रहा था और मनुष्य जिसे अपनी नियति मानकर जी रहा था। कबीर ने कहा कि "यह हमारी नियति नहीं, हमारा शोषण है, मानवता के प्रति अभिशाप है, किसी धर्म में इसका कोई आधार नहीं है।" नियति और धर्म के नाम पर थोपे गए अंधविश्वासों को उन्होंने धर्म और ईश्वर के आधार पर ही खण्डित किया और ज्ञान का प्रकाश प्रकाशित किया। इसी कारण उन्होंने सच्चे गुरू का महत्व प्रतिपादित किया - "आगे थे सतगुर मिल्या, दीया दीपक हाथ।"

              सूर और तुलसी ने भी सामाजिक उत्पीड़न के विरुद्ध आवाज उठाई है। तुलसी ने कई जगह तत्कालीन अर्थव्यवस्था का चित्र अंकित किया है तथा सामाजिक जीवन की विषमताओं को रेखांकित किया है। लगता है तुलसी स्वयं सामाजिक रूप से उत्पीड़ित रहे हैं। यह पंक्तियाँ इसका प्रमाण हैं।
              धूत कहौ अवधूत कहौ, रजपूत कहौ, जुलहा कहौ कोऊ,
              काहू की बेटी सो बेटा न ब्याहब, काहू की जाति बिगारिन सोऊ।
              तुलसी सरनाम गलुाम है राम को, जाको रुचै सो कहो कछु कोऊ,
              माँग के खइबौ, मसीत को सोइबो, लेबे को एक न देबे को दोऊ।

              या फिर सामाजिक जीवन का यह हृदय विदारक दृश्य: 
              खेती न किसान को, भिखारी को न भीख,
              बलि, बनिक को वाणिज न, चाकर को चाकरी।
              जीविका-विहीन लोग, सीद्यमान-सोच बस,
              कहैं एक-एकन सौ, कहाँ जाइ, का करी।। 

              भक्ति आन्दोलन की उपर्युक्त प्रमुख विशेषताओं के अलावा और भी कई विशेषताएं हैं- जैसे कि भक्ति आन्दोलन ने इस विचार पर जोर दिया कि भक्ति ही आराधना का उच्चतम स्वरूप है तथा बाह्याचारों, कर्मकाण्डों आदि की निंदा तथा भर्त्सना करना। भक्त कवि आन्तरिक पवित्रता और सहज भक्ति पर जोर देते थे। मानवीय यथार्थ को सर्वोपरि मानते हुए वर्गगत, जातिगत भेदभावों तथा धर्म के नाम पर किए जाने वाले उत्पीड़न का दृढ़ विरोध। सामन्तीय मूल्यों और पुरोहितवाद की सांठगांठ को और इनके द्वारा किए जाने वाले संयुक्त शोषण अत्याचारों का विरोध भी इसकी एक विशेषता थी। 'लोक संपृक्ति' इस आन्दोलन की एक उल्लेखनीय विशिष्टता है।

              कबीर की रचनाओं का संकलन/कबीर की रचनाएँ
              कबीर की वाणी का संग्रह `बीजक' के नाम से प्रसिद्ध है। इसके तीन भाग हैं-
              1. रमैनी
              2. सबद
              3. साखी
              कबीरदास का साहित्यिक परिचय
              कबीर दास की भाषा और शैली
              कबीर दास ने बोलचाल की भाषा का ही प्रयोग किया है। भाषा पर कबीर का जबरदस्त अधिकार था। वे वाणी के डिक्टेटर थे। जिस बात को उन्होंने जिस रूप में प्रकट करना चाहा है, उसे उसी रूप में कहलवा लिया– बन गया है तो सीधे–सीधे, नहीं दरेरा देकर। भाषा कुछ कबीर के सामने लाचार–सी नज़र आती है। उसमें मानो ऐसी हिम्मत ही नहीं है कि इस लापरवाह फक्कड़ की किसी फरमाइश को नहीं कर सके और अकह कहानी को रूप देकर मनोग्राही बना देने की तो जैसी ताकत कबीर की भाषा में है वैसी बहुत ही कम लेखकों में पाई जाती है।
              असीम–अनंत ब्रह्मानन्द में आत्मा का साक्षी भूत होकर मिलना कुछ वाणी के अगोचर, पकड़ में न आ सकने वाली ही बात है। पर 'बेहद्दी मैदान में रहा कबीरा' में न केवल उस गंभीर निगूढ़ तत्त्व को मूर्तिमान कर दिया गया है, बल्कि अपनी फक्कड़ाना प्रकृति की मुहर भी मार दी गई है। वाणी के ऐसे बादशाह को साहित्य–रसिक काव्यानंद का आस्वादन कराने वाला समझें तो उन्हें दोष नहीं दिया जा सकता। फिर व्यंग्य करने में और चुटकी लेने में भी कबीर अपना प्रतिद्वंद्वी नहीं जानते। पंडित और काजी, अवधू और जोगिया, मुल्ला और मौलवी सभी उनके व्यंग्य से तिलमिला जाते थे। अत्यन्त सीधी भाषा में वे ऐसी चोट करते हैं कि खाने वाले केवल धूल झाड़ के चल देने के सिवा और कोई रास्ता नहीं पाता।
              कबीर की रचनाओं में अनेक भाषाओं के शब्द मिलते हैं यथा - अरबी, फ़ारसी, पंजाबी, बुन्देलखंडी, ब्रजभाषा, खड़ीबोली आदि के शब्द मिलते हैं इसलिए इनकी भाषा को 'पंचमेल खिचड़ी' या 'सधुक्कड़ी' भाषा कहा जाता है। प्रसंग क्रम से इसमें कबीरदास की भाषा और शैली समझाने के कार्य से कभी–कभी आगे बढ़ने का साहस किया गया है। जो वाणी के अगोचर हैं, उसे वाणी के द्वारा अभिव्यक्त करने की चेष्टा की गई है; जो मन और बुद्धि की पहुँच से परे हैं; उसे बुद्धि के बल पर समझने की कोशिश की गई है; जो देश और काल की सीमा के परे हैं, उसे दो–चार–दस पृष्ठों में बाँध डालने की साहसिकता दिखाई गई है।
              कहते हैं, समस्त पुराण और महाभारतीय संहिता लिखने के बाद व्यासदेव में अत्यंत अनुताप के साथ कहा था कि 'हे अधिल विश्व के गुरुदेव, आपका कोई रूप नहीं है, फिर भी मैंने ध्यान के द्वारा इन ग्रंथों में रूप की कल्पना की है; आप अनिर्वचनीय हैं, व्याख्या करके आपके स्वरूप को समझा सकना सम्भव नहीं है, फिर भी मैंने स्तुति के द्वारा व्याख्या करने की कोशिश की है। वाणी के द्वारा प्रकाश करने का प्रयास किया है। तुम समस्त–भुवन–व्याप्त हो, इस ब्रह्मांण्ड के प्रत्येक अणु–परमाणु में तुम भिने हुए हो, तथापि तीर्थ–यात्रादि विधान से उस व्यापत्व को खंडित किया है।

              कबीर दास जी के दोहे अर्थ सहित


              Kabir Das Ji Ke Dohe - कबीर दास जी के दोहे

              बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय,
              जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय।
              अर्थ : जब मैं इस संसार में बुराई खोजने चला तो मुझे कोई बुरा न मिला। जब मैंने अपने मन में झाँक कर देखा तो पाया कि मुझसे बुरा कोई नहीं है।

              पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय,
              ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।
              अर्थ : बड़ी बड़ी पुस्तकें पढ़ कर संसार में कितने ही लोग मृत्यु के द्वार पहुँच गए, पर सभी विद्वान न हो सके। कबीर मानते हैं कि यदि कोई प्रेम या प्यार के केवल ढाई अक्षर ही अच्छी तरह पढ़ ले, अर्थात प्यार का वास्तविक रूप पहचान ले तो वही सच्चा ज्ञानी होगा।

              साधु ऐसा चाहिए, जैसा सूप सुभाय,
              सार-सार को गहि रहै, थोथा देई उड़ाय।
              अर्थ : इस संसार में ऐसे सज्जनों की जरूरत है जैसे अनाज साफ़ करने वाला सूप होता है। जो सार्थक को बचा लेंगे और निरर्थक को उड़ा देंगे।

              तिनका कबहुँ ना निन्दिये, जो पाँवन तर होय,
              कबहुँ उड़ी आँखिन पड़े, तो पीर घनेरी होय।
              अर्थ : कबीर कहते हैं कि एक छोटे से तिनके की भी कभी निंदा न करो जो तुम्हारे पांवों के नीचे दब जाता है। यदि कभी वह तिनका उड़कर आँख में आ गिरे तो कितनी गहरी पीड़ा होती है।

              धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय,
              माली सींचे सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय।
              अर्थ : मन में धीरज रखने से सब कुछ होता है। अगर कोई माली किसी पेड़ को सौ घड़े पानी से सींचने लगे तब भी फल तो ऋतु आने पर ही लगेगा।

              माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर,
              कर का मनका डार दे, मन का मनका फेर।
              अर्थ : कोई व्यक्ति लम्बे समय तक हाथ में लेकर मोती की माला तो घुमाता है, पर उसके मन का भाव नहीं बदलता, उसके मन की हलचल शांत नहीं होती। कबीर की ऐसे व्यक्ति को सलाह है कि हाथ की इस माला को फेरना छोड़ कर मन के मोतियों को बदलो या फेरो।

              जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिये ज्ञान,
              मोल करो तरवार का, पड़ा रहन दो म्यान।
              अर्थ : सज्जन की जाति न पूछ कर उसके ज्ञान को समझना चाहिए। तलवार का मूल्य होता है न कि उसकी मयान का – उसे ढकने वाले खोल का।

              दोस पराए देखि करि, चला हसन्त हसन्त,
              अपने याद न आवई, जिनका आदि न अंत।
              अर्थ : यह मनुष्य का स्वभाव है कि जब वह दूसरों के दोष देख कर हंसता है, तब उसे अपने दोष याद नहीं आते जिनका न आदि है न अंत।

              जिन खोजा तिन पाइया, गहरे पानी पैठ,
              मैं बपुरा बूडन डरा, रहा किनारे बैठ
              अर्थ : जो प्रयत्न करते हैं, वे कुछ न कुछ वैसे ही पा ही लेते हैं जैसे कोई मेहनत करने वाला गोताखोर गहरे पानी में जाता है और कुछ ले कर आता है। लेकिन कुछ बेचारे लोग ऐसे भी होते हैं जो डूबने के भय से किनारे पर ही बैठे रह जाते हैं और कुछ नहीं पाते।

              बोली एक अनमोल है, जो कोई बोलै जानि,
              हिये तराजू तौलि के, तब मुख बाहर आनि।
              अर्थ : यदि कोई सही तरीके से बोलना जानता है तो उसे पता है कि वाणी एक अमूल्य रत्न है। इसलिए वह ह्रदय के तराजू में तोलकर ही उसे मुंह से बाहर आने देता है।

              अति का भला न बोलना, अति की भली न चूप,
              अति का भला न बरसना, अति की भली न धूप।
              अर्थ : न तो अधिक बोलना अच्छा है, न ही जरूरत से ज्यादा चुप रहना ही ठीक है। जैसे बहुत अधिक वर्षा भी अच्छी नहीं और बहुत अधिक धूप भी अच्छी नहीं है।

              निंदक नियरे राखिए, ऑंगन कुटी छवाय,
              बिन पानी, साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय।
              अर्थ : जो हमारी निंदा करता है, उसे अपने अधिकाधिक पास ही रखना चाहिए। वह तो बिना साबुन और पानी के हमारी कमियां बता कर हमारे स्वभाव को साफ़ करता है।

              दुर्लभ मानुष जन्म है, देह न बारम्बार,
              तरुवर ज्यों पत्ता झड़े, बहुरि न लागे डार।

              अर्थ : इस संसार में मनुष्य का जन्म मुश्किल से मिलता है। यह मानव शरीर उसी तरह बार-बार नहीं मिलता जैसे वृक्ष से पत्ता झड़ जाए तो दोबारा डाल पर नहीं लगता।

              कबीरा खड़ा बाज़ार में, मांगे सबकी खैर,
              ना काहू से दोस्ती,न काहू से बैर।
              अर्थ : इस संसार में आकर कबीर अपने जीवन में बस यही चाहते हैं कि सबका भला हो और संसार में यदि किसी से दोस्ती नहीं तो दुश्मनी भी न हो !

              हिन्दू कहें मोहि राम पियारा, तुर्क कहें रहमाना,
              आपस में दोउ लड़ी-लड़ी मुए, मरम न कोउ जाना।
              अर्थ : कबीर कहते हैं कि हिन्दू राम के भक्त हैं और तुर्क (मुस्लिम) को रहमान प्यारा है। इसी बात पर दोनों लड़-लड़ कर मौत के मुंह में जा पहुंचे, तब भी दोनों में से कोई सच को न जान पाया।

              कहत सुनत सब दिन गए, उरझि न सुरझ्या मन
              कही कबीर चेत्या नहीं, अजहूँ सो पहला दिन
              अर्थ : कहते सुनते सब दिन निकल गए, पर यह मन उलझ कर न सुलझ पाया। कबीर कहते हैं कि अब भी यह मन होश में नहीं आता। आज भी इसकी अवस्था पहले दिन के समान ही है। 

              कबीर लहरि समंद की, मोती बिखरे आई।
              बगुला भेद न जानई, हंसा चुनी-चुनी खाई।
              अर्थ : कबीर कहते हैं कि समुद्र की लहर में मोती आकर बिखर गए। बगुला उनका भेद नहीं जानता, परन्तु हंस उन्हें चुन-चुन कर खा रहा है। इसका अर्थ यह है कि किसी भी वस्तु का महत्व जानकार ही जानता है।

              जब गुण को गाहक मिले, तब गुण लाख बिकाई।
              जब गुण को गाहक नहीं, तब कौड़ी बदले जाई।
              अर्थ : कबीर कहते हैं कि जब गुण को परखने वाला गाहक मिल जाता है तो गुण की कीमत होती है। पर जब ऐसा गाहक नहीं मिलता, तब गुण कौड़ी के भाव चला जाता है।

              कबीर कहा गरबियो, काल गहे कर केस।
              ना जाने कहाँ मारिसी, कै घर कै परदेस।
              अर्थ : कबीर कहते हैं कि हे मानव ! तू क्या गर्व करता है? काल अपने हाथों में तेरे केश पकड़े हुए है। मालूम नहीं, वह घर या परदेश में, कहाँ पर तुझे मार डाले।

              पानी केरा बुदबुदा, अस मानुस की जात।
              एक दिना छिप जाएगा,ज्यों तारा परभात।
              अर्थ : कबीर का कथन है कि जैसे पानी के बुलबुले, इसी प्रकार मनुष्य का शरीर क्षणभंगुर है।जैसे प्रभात होते ही तारे छिप जाते हैं, वैसे ही ये देह भी एक दिन नष्ट हो जाएगी।

              हाड़ जलै ज्यूं लाकड़ी, केस जलै ज्यूं घास।
              सब तन जलता देखि करि, भया कबीर उदास।
              अर्थ : यह नश्वर मानव देह अंत समय में लकड़ी की तरह जलती है और केश घास की तरह जल उठते हैं। सम्पूर्ण शरीर को इस तरह जलता देख, इस अंत पर कबीर का मन उदासी से भर जाता है।

              जो उग्या सो अन्तबै, फूल्या सो कुमलाहीं।
              जो चिनिया सो ढही पड़े, जो आया सो जाहीं।
              अर्थ : इस संसार का नियम यही है कि जो उदय हुआ है,वह अस्त होगा। जो विकसित हुआ है वह मुरझा जाएगा। जो चिना गया है वह गिर पड़ेगा और जो आया है वह जाएगा।

              झूठे सुख को सुख कहे, मानत है मन मोद।
              खलक चबैना काल का, कुछ मुंह में कुछ गोद।
              अर्थ : कबीर कहते हैं कि अरे जीव ! तू झूठे सुख को सुख कहता है और मन में प्रसन्न होता है? देख यह सारा संसार मृत्यु के लिए उस भोजन के समान है, जो कुछ तो उसके मुंह में है और कुछ गोद में खाने के लिए रखा है।

              ऐसा कोई ना मिले, हमको दे उपदेस।
              भौ सागर में डूबता, कर गहि काढै केस।
              अर्थ : कबीर संसारी जनों के लिए दुखित होते हुए कहते हैं कि इन्हें कोई ऐसा पथप्रदर्शक न मिला जो उपदेश देता और संसार सागर में डूबते हुए इन प्राणियों को अपने हाथों से केश पकड़ कर निकाल लेता।

              संत ना छाडै संतई, जो कोटिक मिले असंत,
              चन्दन भुवंगा बैठिया, तऊ सीतलता न तजंत।
              अर्थ : सज्जन को चाहे करोड़ों दुष्ट पुरुष मिलें फिर भी वह अपने भले स्वभाव को नहीं छोड़ता। चन्दन के पेड़ से सांप लिपटे रहते हैं, पर वह अपनी शीतलता नहीं छोड़ता।

              कबीर तन पंछी भया, जहां मन तहां उडी जाइ।
              जो जैसी संगती कर, सो तैसा ही फल पाइ।
              अर्थ :कबीर कहते हैं कि संसारी व्यक्ति का शरीर पक्षी बन गया है और जहां उसका मन होता है, शरीर उड़कर वहीं पहुँच जाता है। सच है कि जो जैसा साथ करता है, वह वैसा ही फल पाता है।

              तन को जोगी सब करें, मन को बिरला कोई।
              सब सिद्धि सहजे पाइए, जे मन जोगी होइ।
              अर्थ : शरीर में भगवे वस्त्र धारण करना सरल है, पर मन को योगी बनाना बिरले ही व्यक्तियों का काम है य़दि मन योगी हो जाए तो सारी सिद्धियाँ सहज ही प्राप्त हो जाती हैं।

              कबीर सो धन संचे, जो आगे को होय।
              सीस चढ़ाए पोटली, ले जात न देख्यो कोय।
              अर्थ : कबीर कहते हैं कि उस धन को इकट्ठा करो जो भविष्य में काम आए। सर पर धन की गठरी बाँध कर ले जाते तो किसी को नहीं देखा।

              माया मुई न मन मुआ, मरी मरी गया सरीर।
              आसा त्रिसना न मुई, यों कही गए कबीर ।
              अर्थ : कबीर कहते हैं कि संसार में रहते हुए न माया मरती है न मन। शरीर न जाने कितनी बार मर चुका पर मनुष्य की आशा और तृष्णा कभी नहीं मरती, कबीर ऐसा कई बार कह चुके हैं।

              मन हीं मनोरथ छांड़ी दे, तेरा किया न होई।
              पानी में घिव निकसे, तो रूखा खाए न कोई।
              अर्थ : मनुष्य मात्र को समझाते हुए कबीर कहते हैं कि मन की इच्छाएं छोड़ दो, उन्हें तुम अपने बूते पर पूर्ण नहीं कर सकते। यदि पानी से घी निकल आए, तो रूखी रोटी कोई न खाएगा।

              तन को जोगी सब करें, मन को बिरला कोई।
              सब सिद्धि सहजे पाइए, जे मन जोगी होइ।
              अर्थ: शरीर में भगवे वस्त्र धारण करना सरल है, पर मन को योगी बनाना विरले ही व्यक्तियों का काम है यदि मन योगी हो जाए तो सारी सिद्धियां सहज ही प्राप्त हो जाती हैं।


              कबीर सो धन संचे, जो आगे को होय।
              सीस चढ़ाए पोटली, ले जात न देख्यो कोय।
              अर्थ: कबीर कहते हैं कि उस धन को इकट्ठा करो जो भविष्य में काम आए। सर पर धन की गठरी बाँध कर ले जाते तो किसी को नहीं देखा।

              माया मुई न मन मुआ, मरी मरी गया सरीर।
              आसा त्रिसना न मुई, यों कही गए कबीर ।
              अर्थ: कबीर कहते हैं कि संसार में रहते हुए न माया मरती है न मन। शरीर न जाने कितनी बार मर चुका पर मनुष्य की आशा और तृष्णा कभी नहीं मरती, कबीर ऐसा कई बार कह चुके हैं।

              मन हीं मनोरथ छांड़ी दे, तेरा किया न होई।
              पानी में घिव निकसे, तो रूखा खाए न कोई।
              अर्थ: मनुष्य मात्र को समझाते हुए कबीर कहते हैं कि मन की इच्छाएं छोड़ दो , उन्हें तुम अपने बूते पर पूर्ण नहीं कर सकते। यदि पानी से घी निकल आए, तो रूखी रोटी कोई न खाएगा।

              जब मैं था तब हरी नहीं, अब हरी है मैं नाही ।
              सब अँधियारा मिट गया, दीपक देखा माही ।।
              अर्थ: जब मैं अपने अहंकार में डूबा था – तब प्रभु को न देख पाता था – लेकिन जब गुरु ने ज्ञान का दीपक मेरे भीतर प्रकाशित किया तब अज्ञान का सब अंधकार मिट गया – ज्ञान की ज्योति से अहंकार जाता रहा और ज्ञान के आलोक में प्रभु को पाया।
              दुर्लभ मानुष जन्म है, देह न बारम्बार,
              तरुवर ज्यों पत्ता झड़े, बहुरि न लागे डार।
              अर्थ: इस संसार में मनुष्य का जन्म मुश्किल से मिलता है। यह मानव शरीर उसी तरह बार-बार नहीं मिलता जैसे वृक्ष से पत्ता झड़ जाए तो दोबारा डाल पर नहीं लगता।

              कबीरा खड़ा बाज़ार में, मांगे सबकी खैर,
              ना काहू से दोस्ती,न काहू से बैर।
              अर्थ: इस संसार में आकर कबीर अपने जीवन में बस यही चाहते हैं कि सबका भला हो और संसार में यदि किसी से दोस्ती नहीं तो दुश्मनी भी न हो !
               
              हिन्दू कहें मोहि राम पियारा, तुर्क कहें रहमाना,
              आपस में दोउ लड़ी-लड़ी मुए, मरम न कोउ जाना
              अर्थ: कबीर कहते हैं कि हिन्दू राम के भक्त हैं और तुर्क (मुस्लिम) को रहमान प्यारा है। इसी बात पर दोनों लड़-लड़ कर मौत के मुंह में जा पहुंचे, तब भी दोनों में से कोई सच को न जान पाया।

               कबीर दास की फोटो
              “LAAGA CHUNRI MEIN DAAG ..OR MY VEIL GOT STAINED " IS A PHILOSOPHICAL CONCEPT KABIR  
               
               

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              आयुर्वेद में सर्वोच्च स्थान पर विराजमान हरड़



              हरड़ का महत्व


              • एक हरड़ का नित्य सेवन लम्बी आयु देता है और कहा भी गया है कि' माँ कभी नाराज हो सकती है परन्तु हरड नहीं।
              • दो बड़ी हरड (या 3 से 4 ग्राम हरड चूर्ण) को घी में भूनकर नियमित सेवन करने से व घी पीने से शरीर में बल चिरस्थायी होता है ।
              • हरड का प्रमुख कार्य है तत्वों को हटा कर हर एक अंग के दोषों को निकाल कर उन्हें शोधित कर उनकी गतिशीलता को बढ़ाना है।
              • यह दस्त से पेट के शोधन के बाद दस्त रोकती है।
              • हरड़ दांतों से चबाकर खाने से भूख बढ़ती है।
              • हरद भूनकर खाने से तीनों दोषों को ठीक करती है।
              • हरड़ पीसकर खाने से रेचक होती है।
              • भोजन के साथ खाने से बुद्धि और बल बढ़ाती है।
              • अधिक पसीना आना , पुरानी सर्दी खांसी , पुराने घाव भरने में लाभकारी।
              • मुहांसों पर इसे पीसकर कर लगाने से लाभ होता है।
              • हरड का मुरब्बा दस्त बंद कर भूख बढ़ता है।

              ऋतु अनुसार हरड सेवन-विधि :
              निम्न द्रव्य दिये गये अनुपात में मिलाकर प्रात: हरीतकी (हरड) का निरंतर सेवन करने से श्रेष्ठ रसायन के रूप में सभी प्रकार के रोगों से रक्षा करती है और धातुओं को पुष्ट करती है । पेट, आँख, अच्छी नींद, तनाव मुक्ति, जोड़ों के दर्द, मोटापे आदि के लिये इसे उपयोगी पाया गया है, पर पारम्परिक चिकित्सक इसे पूरे शरीर को मजबूत करने वाला उपाय मानते है।
              एक फल ले और उसे रात भर एक कटोरी पानी में भिगो दे। सुबह खाली पेट पानी पीये और फल को फेंक दें। यह सरल सा दिखने वाला प्रयोग बहुत प्रभावी है। यह ताउम्र रोगों से बचाता है। वैसे विदेशों में किये गये अनुसंधान हर्रा के बुढापा रोकने की क्षमता को पहले ही साबित कर चुके हैं। यह प्रयोग लगातार 3 महीने ही करें . 3 महीने के बाद 15 दिनों का अवकाश ले फिर इस प्रयोग को शुरू कर दें.
              शिशिर - हरड़ + पीपर (8 भाग : 1 भाग)
              वसंत - हरड + शहद (समभाग)
              ग्रीष्म - हरड़ + गुड ( समभाग)
              वर्षा - हरड़ + सैंधव (8 भाग : 1 भाग)
              शरद - हरड़ + मिश्री (2 भाग : 1 भाग)
              हेमंत - हरड + सौंठ (4 भाग : 1 भाग)


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              अन्याय के प्रतिकार के योद्धा शहीद भगत सिंह



              क्रांतिकारी युग पुरुष भगत सिंह का स्वतंत्रता आंदोलन में दिया गया बलिदान क्रांति का अमर प्रतीक है, जो युगों-युगों तक देश की माटी से जुड़े सपूतों को नई दिशा एवं उत्साह देता रहेगा, उन्होंने अपने खून से स्वतंत्रता के वृक्ष को सींचकर देश को जो मजबूती एवं ताजगी दी है भला उसे कौन भुला सकता है? उनका अनुपम बलिदान इतिहास की अमूल्य धरोहर है, भगत सिंह का जन्म ऐसे सिख परिवार में हुआ था जिस परिवार की दो-दो पीढि़याँ स्वतंत्रता के लिए खून बहा चुकी थीं, जो टूट गए परन्तु झुके नहीं, गुलामी की जंजीरों को तोड़ फेकने का संकल्प जिनकी हर सांस में भरा था।
              Shaheed Bhagat Singh
              28 सितम्बर 1907 में जन्मे भगत सिंह के पिता सरदार किशन सिंह, लोकमान्य गंगाधर तिलक के स्वतंत्रता आंदोलन के सक्रिय सहयोगी थे। क्रांतिकारी परिवार में जन्म लेने के कारण भगत सिंह को बचपन से ही संघर्ष एवं अन्याय के खिलाफ आवाज बुलंद करने का संस्कार मिला था। तीसरी कक्षा में पहुँचते-पहुँचते भगत सिंह उस क्रांति की परिभाषा समझने लगे थे जिसके कारण उनके चाचा सरदार अजीत सिंह विदेशों में भटक रहे थे और अपने देश नहीं लौट सकते थे, वे अपनी चाची श्रीमती हुक्म कौर को कहते-चाची आँसू पोछ ले, मैं अंग्रेजों से बदला लूँगा एवं अपने देश से अंग्रेजों को बाहर निकाल कर चैन से बैठूँगा, एक बालक की ऐसी क्रांतिकारी बातों को सुनकर वह अपने गोद में उसे समेट लेती, मात्रा चौथी कक्षा में उन्होंने सरदार अजीत सिंह, सूफी अम्बिका प्रसाद, लाला हरदयाल की लिखी सैकड़ों पुस्तकों को पढ़ लिया था। इस अध्ययन से भगत सिंह की बुद्धि का बहुत विकास हुआ। उम्र के हिसाब से वे अभी बालक ही थे, परन्तु बातचीत, विचार एवं चाल-ढाल से वे काफी बड़ी-बड़ी बातें बहुत आत्मविश्वास से किया करते थे। जन्म से सिख होते हुए भी भगत सिंह के दादा सरदार अर्जुन सिंह आर्य समाजी सिद्धांतों में विश्वास रखते थे, इसलिए उन्होंने अपने दोनों पोतों का यज्ञोपवीत संस्कार करवाया और उसी दिन यह संकल्प लिया कि " मैं इस यज्ञ वेदी पर खड़े होकर अपने दोनों वंशधरों को देश के लिए अर्पित करता हूँ।" उन्होंने नई पीढ़ी में जन्में दो नन्हें सेनानियों को देश की बलिवेदी के लिए तैयार कर दिया। इसके बाद उनके मन में अंग्रेजों के प्रति विद्रोह की भावना वक्त के साथ और पुख्ता होती गई।
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              1919 में जब महात्मा गाँधी ने भारत की राजनीति में प्रवेश कर असहयोग आन्दोलन प्रारम्भ किया उस समय भगत सिंह सातवीं कक्षा के विद्यार्थी थे। 13 अप्रैल 1919 को अमृतसर के जलियाँवाला बाग के भीषण हत्याकाण्ड ने भगत सिंह को अंदर तक झंकझोर दिया। उन्होंने जलियाँवाला बाग पहुँचकर निर्दोष, निहत्थी जनता के खून से सनी मिट्टी को अपने माथे से लगाया एवं एक शीशी में उस मिट्टी को भरकर काफी रात गए घर लौटे - उनकी छोटी बहन अमर कौर बोली - वीर जी, आज इतनी देर क्यों कर दी? भगत सिंह उदास थे, धीरे से वे, खून में सनी वह मिट्टी अपनी बहन की हथेली पर रखकर बोले - अंग्रेजों ने निर्दोषों के खून बहाये हैं, इस खून सनी मिट्टी की कसम मैं उनका खून भी इसी मिट्टी में मिलाकर ही दम लूँगा। उन्होंने यह बात अच्छी तरह समझ ली थी कि अहिंसा का मार्ग देश को आजादी नहीं दिला सकता, इसके लिए बहुत से बलिदान देने होंगे। धीरे-धीरे उनका सम्पर्क प्रो. जयचन्द्र विद्यालंकार से हुआ, जिनका सम्बंध बंगाल के क्रांतिकारियों से था। प्रो. विद्यालंकार के सम्पर्क के बाद उनका चरित्र और विकसित हुआ। वहीं उनकी मुलाकात विख्यात क्रांतिकारी शचीन्द्रनाथ सान्याल से हुई और भगत सिंह क्रांतिकारी दल में सम्मिलित हो गए।
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              1923 में जब भगत सिंह नेशनल कालेज में पढ़ रहे थे तब उनके घर में उनकी शादी की चर्चा होने लगी, तो उन्होंने अपने पिताजी को पत्र लिखा- मेरी जिन्दगी आजाद-ए- हिन्द के लिए है, मुझे आपने यज्ञोपवीत के समय देश के लिए समर्पित कर दिया था। मैं आपकी इस प्रतिज्ञा को पूरा कर रहा हूँ। उम्मीद है मुझे माफ़ कर देंगे और वे घर छोड़कर कानपुर चले गए। वहाँ का काम उन दिनों योगेश चन्द्र चटर्जी देख रहे थे। बटुकेश्वर दत्त, अजय घोष और विजय कुमार सिन्हा जैसे क्रांतिकारियों से उनका परिचय वहीं हुआ। बाद में श्री गणेश शंकर विद्यार्थी के "प्रताप" नामक अखबार के सम्पादक विभाग में "बलवंत सिंह" के नाम से लिखने लगे। बाद में भगत सिंह कानपुर से लाहौर लौट आये और पूरी शक्ति से "नौजवान भारत सभा" की स्थापना की। इस काम में उनके साथी थे भगवतीचरण। भगत सिंह का विचार था कि जनता को अपने साथ लिए बिना सशस्त्र क्रांति के लिए किए गए प्रयत्न सफल नहीं हो सकते।
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              29 जुलाई 1927 को उन्हें काकोरी केस के सिलसिले में गिरफ्तार कर लिया गया। उन्हें 15 दिन तक लाहौर के किले में रखा गया, फिर उन्हें पोस्टल जेल भेज दिया गया। कुछ सप्ताह बाद वे जेल से मुक्त कर दिए गए। नवम्बर 1928 में चाँद पत्रिका का "फांसी" अंक प्रकाशित हुआ जिसमें "विप्लव यज्ञ की आहुतियाँ" के शीर्षक से क्रांतिकारियों पर बहुत से लेख भगत सिंह ने लिखे। भारत में शासन सुधरों के विषय में सुझाव देने के लिए लार्ड साइमन की अध्यक्षता में एक कमीशन नियुक्त किया गया। 3 फरवरी 1928 को जब कमीशन मुम्बई पहुँचा तब तक भगत सिंह के नेतृत्व में एक सशक्त क्रांतिकारी दल का गठन हो चुका था। स्टेशन पर उतरते ही कमीशन को काले झण्डे दिखाने एवं "साइमन वापस जाओ" के नारे लगाने की योजना थी। भगत सिंह के साथ लाला लाजपत राय भी इसका विरोध कर रहे थे। अंग्रेज पुलिस ने लाजपत राय को बुरी तरह पीटा। चोट लगने के बाद भी उन्होंने जोरदार भाषण देते हुए कहा- "मैं घोषणा करता हूँ कि मुझे जो चोट लगी है वह भारत में अंग्रेजी राज के लिए कफन की कील साबित होगी।"
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              इस घटना के बाद 17 नवम्बर 1928 को लालाजी की मृत्यु हो गई। इस घटना के प्रमुख दोषी असिस्टेण्ट पुलिस सुप्रीटेण्डेंट मिस्टर साण्डर्स को बाद में गोली मारने के आरोप में पुलिस चन्द्रशेखर आजाद, भगत सिंह, राजगुरु और जयगोपाल आदि क्रांतिकारियों को पकड़ने हेतु कुत्ते की तरह पीछे पड़ गई थी, भगत सिंह के मन में आग भड़क रही थी। उन्होंने दिल्ली के केन्द्रीय असेम्बली में बम फेकने का निर्णय कर लिया। देश की आजादी के लिए संघर्ष करने वाले इन वीरों का हर क्षण किसी योजना में लगा हुआ था। असेम्बली में बम फेकने की बात भगत सिंह ने की थी, वे इसके लिए तैयार थे। 7 अप्रैल 1929 को वाइसराय के निर्णय की घोषणा असेम्बली में सुनाई जाने वाली थी। भगत सिंह के साथ बटुकेश्वर दत्त भी थे। भगत सिंह ने असेम्बली में बम फेंक दिया, पुलिस ने दोनों को गिरफ्रतार कर लिया। दिल्ली में 4 जून 1929 को मुकदमे की सुनवाई सेशन जज मिस्टर मिडलटन की अदालत में आरम्भ हुई। न्यायालय में भगत सिंह से पूछा गया कि क्रांति से वे क्या समझते हैं? उन्होंने कहा- क्रांति में घातक संघर्षों का अनिवार्य स्थान नहीं है न उसमें व्यक्तिगत बदला लेने की गुंजाइश है। क्रांति बम और पिस्तौल की संस्कृति नहीं है। क्रांति से हमारा प्रयोजन है कि अन्याय पर आधारित वर्तमान व्यवस्था में परिवर्तन होना चाहिए।
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              असेम्बली बम काण्ड का मुकदमा दिल्ली में चला था जहाँ भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त को यूरोपीय वार्ड में रखा गया था। 12 जून 1929 को उनको आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई। भगत सिंह को लाहौर सेन्ट्रल जेल में रखा गया जहाँ उन्होंने भूख हड़ताल शुरू कर दी थी। दुनिया भर के मुकदमों के इतिहास में लाहौर षड्यंत्र केस ही ऐसा केस था जिसमें न अभियुक्त उपस्थित हुए न उनके गवाह और न वकील ही, परन्तु अदालत ने फैसला दे दिया जिसके तहत भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को सजा सुनाई गई।
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              फांसी की सजा सुनाने के बाद भी भगत सिंह जेल में अध्ययन करते रहते। चाल्र्स डिकिन्स उनका प्रिय लेखक था। गोर्की, उमर खैयाम, एंजिल्स आस्कर वाइल्ड, जार्ज बनार्ड शा के साहित्य का उन्होंने गहराई से अध्ययन किया। इध्र क्रांतिकारी दल भी एक के बाद एक धमाके करने में जुटा रहा। बंगाल के महान क्रांतिकारी श्री सूर्यसेन के नेतृत्व में चटगाँव शस्त्रागार लूटा गया। बम के द्वारा रेलगाड़ी उड़ाने का प्रयास क्रांतिकारी यशपाल ने किया। नवयुवक हरिकृष्ण ने पंजाब के गवर्नर पर गोली चलाई। भगत सिंह को फांसी की सजा से बचाने के लिए हस्ताक्षर आन्दोलन पूरे देश भर में चला। महाराजा बीकानेर ने वाइसराय से प्रार्थना की एवं इंग्लैण्ड की पार्लयामेण्ट में उनके सदस्यों ने भी तर्क दिए कि वे भगत सिंह की जीवन रक्षा करें, परन्तु सब व्यर्थ रहा।
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              3 मार्च 1931 को भगत सिंह अपने परिवार वालों से अंतिम बार मिले। उस दिन उनके दो छोटे भाई कुलवीर सिंह एवं कुलतार सिंह भी थे। भगत सिंह को अपने जीवन के प्रति कोई मोह नहीं था। उनके रक्त की एक-एक बूंद मातृभूमि के लिए थी। 23 मार्च 1931 की सुबह लाहौर जेल के चीफ वार्डन चतुर सिंह द्वारा फांसी की पूर्ण व्यवस्था हेतु निर्देश दिया गया। उसे जब मालूम हुआ कि भगत सिंह की जिन्दगी के कुछ ही घण्टे बाकी हैं तो वह बोला - आप अंतिम समय गुरुवाणी का पाठ कर लो "वाहे गुरु" का नाम ले लो। भगत सिंह जोर से हंस पड़े। बोले - इसलिए कि सामने मौत है, मैं बुज़दिल नहीं, जो डरकर परमात्मा को पुकारुँ। तभी एक जेल अधिकारी कहा - सरदार जी, फांसी लगाने का हुक्म आ गया है आप तैयार हो जायें। भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव तीनों अपनी-अपनी कोठरियों से बाहर आ गए, भगत सिंह बीच में थे। सुखदेव व राजगुरू दायें-बायें। क्षण भर के लिए तीनों रुके फिर चल पड़े फांसी के तख्ते पर भगत सिंह गा रहे थे - "दिल से निकलेगी न मर कर भी उलफत मेरी मिट्टी से भी खुश्बू-ए-वतन आएगी"
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              वार्डन ने आगे बढ़कर फांसी घर का काला दरवाजा खोला। तीनों ने अपना-अपना फंदा पकड़ा और उसे चूमकर अपने ही हाथ से गले में डाल दिया। जल्लाद डबडबाती आंखों एवं कंपकपाते हाथों से चरखी घुमाया तखता गिरा और तीनों वीर भारत माता की सेवा में अर्पित हो गए।

              शहीद भगत सिंह के क्रांतिकारी विचार  Shaheed Bhagat Singh Quotes In Hindi
              1. अगर बहरों को अपनी बात सुनानी है तो आवाज़ को जोरदार होना होगा. जब हमने बम फेंका तो हमारा उद्देश्य किसी को मारना नहीं था। हमने अंग्रेजी हुकूमत पर बम गिराया था। अंग्रेजों को भारत छोड़ना और उसे आजाद करना चाहिए।'
              2. 'आम तौर पर लोग चीजें जैसी हैं उसी के अभ्यस्त हो जाते हैं। बदलाव के विचार से ही उनकी कंपकंपी छूटने लगती है। इसी निष्क्रियता की भावना को क्रांतिकारी भावना से बदलने की दरकार है।'
              3. इंसानों को तो मारा जा सकता है, पर उनके विचारों को नहीं।
              4. इस कदर वाकिफ है मेरी कलम मेरे जज़्बातों से, अगर मैं इश्क़ लिखना भी चाहूँ तो इंक़लाब लिख जाता हूँ।
              5. किसी को ‘क्रांति’ शब्द की व्याख्या शाब्दिक अर्थ में नहीं की जा सकती , जो लोग इस शब्द का उपयोग या दुरुपयोग करते हैं उनके फायदे के हिसाब से इसे अलग अलग अर्थ और अभिप्राय दिए जाते हैं।
              6. क्रांति की तलवारें तो सिर्फ विचारों की शान से तेज की जाती हैं।
              7. क्रांति में अनिवार्य रूप से संघर्ष शामिल नहीं था। यह बम और पिस्तौल का मत नहीं था।
              8. जिंदगी तो सिर्फ अपने कंधों पर जी जाती है, दूसरों के कंधे पर तो सिर्फ जनाजे उठाए जाते हैं।
              9. जो भी व्यक्ति विकास के लिए खड़ा है, उसे हर एक रुढ़िवादी चीज की आलोचना करनी होगी, उसमें अविश्वास करना होगा, तथा उसे चुनौती देनी होगी।।
              10. देशभक्त को अक्सर सभी लोग पागल समझते हैं।
              11. निष्ठुर आलोचना और स्वतंत्र विचार यह क्रांतिकारी सोच के दो अहम् लक्षण हैं।
              12. निष्‍ठुर आलोचना और स्‍वतंत्र विचार, ये दोनों क्रांतिकारी सोच के दो अहम लक्षण हैं।
              13. प्रेमी पागल और कवि एक ही चीज से बने होते हैं और देशभक्‍तों को अक्‍सर लोग पागल कहते हैं।
              14. बम और पिस्तौल से क्रांति नहीं आती, क्रांति की तलवार विचारों की सान पर तेज होती है।
              15. बुराई इसलिए नहीं बढ़ रही है कि बुरे लोग बढ़ गए है बल्कि बुराई इसलिए बढ़ रही है क्योंकि बुराई सहन करने वाले लोग बढ़ गये है।
              16. मुझे कभी भी अपनी रक्षा करने की कोई इच्छा नहीं थी, और कभी भी मैंने इसके बारे में गंभीरता से नहीं सोचा।
              17. मेरा एक ही धर्म है, और वो है देश की सेवा करना।
              18. मेरे सीने में जो जख्म है वो जख्म नहीं फूलो के गुच्छे है, हमें तो पागल ही रहने दो हम पागल ही अच्छे है।
              19. मैं अभी भी किसी भी बचाव की पेशकश के पक्ष में नहीं हूं। यहां तक कि अगर अदालत ने मेरे सह-अभियुक्तों द्वारा बचाव, आदि के बारे में प्रस्तुत की गई याचिका को स्वीकार कर लिया है, तो मैंने अपना बचाव नहीं किया।
              20. मैं एक इंसान हूँ। वो हर बात मुझे प्रभावित करती है जो इंसानियत को प्रभावित करे।
              21. मैं एक ऐसा पागल हूं, जो जेल में भी आजाद है।।
              22. यदि बहरों को सुनना है तो आवाज को बहुत जोरदार होना होगा. जब हमने बम गिराया तो हमारा उद्देश्य किसी को हानि पहुंचना नही था। हमने अंग्रेजी हुकूमत पर बम गिराया था उन्हें यह आवाज़ सुननी थी कि अंग्रेज़ों को भारत छोड़ना चाहिए और उसे आजाद करना चाहिये।
              23. राख का हर एक कण मेरी गर्मी से गतिमान है, मैं एक ऐसा पागल हूँ जो जेल में भी आजाद हैं।
              24. राख का हर एक कण, मेरी गर्मी से गतिमान है।
              25. विद्रोह कोई क्रांति नहीं है। यह अंततः उस अंत तक ले जा सकता है।
              26. 'वे मुझे कत्ल कर सकते हैं, मेरे विचारों को नहीं, वे मेरे शरीर को कुचल सकते हैं लेकिन मेरे जज्बे को नहीं।'
              27. वो हर व्यक्ति जो विकास के लिए खड़ा है, उसे हर एक रुढ़िवादी चीज की आलोचना करनी होगी, उसके प्रति अविश्वास करना होगा और उसे चुनोती देनी होगी।
              28. व्‍यक्तियों को कुचलकर भी आप उनके विचार नहीं मार सकते हैं।
              29. सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है, देखना है ज़ोर कितना बाजु-ए-कातिल में है।
              30. स्वतंत्रता हर इंसान का कभी न ख़त्म होने वाला जन्म सिद्ध अधिकार है।
              31. हमारे देश के सभी राजनैतिक आंदोलनों ने, जो हमारे आधुनिक इतिहास में कोई महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है, उस उपलब्धि की आदर्श में कमी थी जिसका उन्होंने उद्देश्य रखा था। क्रांतिकारी आंदोलन कोई अपवाद नहीं है।
              32. हमें यह स्पष्ट करना चाहिए कि क्रांति का मतलब केवल उथल-पुथल या एक प्रकार का संघर्ष नहीं है। क्रांति आवश्यक रूप से मौजूदा मामलों (यानी, शासन) के पूर्ण विनाश के बाद नए और बेहतर रूप से अनुकूलित आधार पर समाज के व्यवस्थित पुनर्निर्माण के कार्यक्रम का अर्थ है।



              Shaheed Bhagat Singh 


               

              शहीद भगत सिंह के वास्तविक और दुर्लभ चित्र Original and Rare Photo of Bhagat Singh





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              संगठन कर्ता क्रन्तिकारी शहीद सुखदेव



              सुखदेव थापर का जन्म पंजाब के शहर लायलपुर में श्रीयुत् रामलाल थापर व श्रीमती रल्ली देवी के घर विक्रमी सम्वत १९६४ के फाल्गुन मास में शुक्ल पक्ष सप्तमी तदनुसार १५ मई १९०७ को अपरान्ह पौने ग्यारह बजे हुआ था। उनके जन्म से तीन महीने पहले ही पिता का देहान्त हो गया था। उसके बाद उनका लालन-पालन चाचा लाला अचिन्तराम के यहां होता रहा। उनके घर में आढ़त का काम होता था।
              संगठन कर्ता क्रन्तिकारी शहीद सुखदेव
              ऐसा लगता है कि राजनीति की ओर प्रवृत्ति सुखदेव को अपने चाचा से प्राप्त हुई। वह असहयोग आन्दोलन में जेल गए थे। सुखदेव अपने चाचा की बड़ी इज्जत करते थे और खादी की वर्दी और हथकड़ी पहने हुए चाचा का चित्रा सुखदेव की मेज पर रखा रहता था। सुखदेव स्वभाव में मुंहपफट और स्वतंत्र विचार के व्यक्ति थे। उनका रहन-सहन और वेश-भूषा सभी से यही प्रकट होता था। साथियों ने उनका नाम ‘विलेजर’ रख छोड़ा था। बहुत दिनों तक लोग यह समझ नहीं पाए कि दल में सुखदेव बड़ा साबित होगा या भगतसिंह। यहां तक कि शिव वर्मा का, जिन्होंने उन्हें बहुत नजदीक से देखा, यह कहना है-‘‘एक संगठन-कर्ता के नाते भगतसिंह की अपेक्षा सुखदेव मुझे कहीं अधिक जंचा’’। शिव वर्मा की यह धरणा इस कारण थी कि भगतसिंह दूर-दूर, ऊपर-ऊपर उड़ाने भरते थे और बड़ी-बड़ी बातें सोचते थे जबकि सुखदेव दल के और साथियों की छोटी-छोटी जरूरत पर विचार करते रहते थे। जिन छोटी दिखने वाली बातों की ओर भगतसिंह का ध्यान कभी भी नहीं जाता था, उन पर सुखदेव गहराई से सोचते रहते थे। शिव वर्मा की यह धारणा थी कि भगतसिंह पार्टी के राजनीतिक नेता थे और सुखदेव उसके संगठन-कर्ता थे।
              संगठन कर्ता क्रन्तिकारी शहीद सुखदेव
              लाहौर षड्यंत्र के जयदेव, सुखदेव के चचेरे भाई थे। यह एक विशेष द्रष्टव्य तथ्य है कि सुखदेव ने सांडर्स की हत्या में भाग नहीं लिया था फिर भी वह इतने महत्वपूर्ण व्यक्ति समझे गए कि उन्हें फांसी की सजा हुई। सुखदेव में विचारों की स्वतंत्रता इस हद तक थी कि कभी-कभी वह बहुत अजीब बात कर देते थे। ऐसा उन्होंने, बाद में अनशन के दौरान किया। जबरदस्ती नाक से दूध पिला दिया तो उन्होंने अनशन ही तोड़ दिया, फिर शुरू कर दिया और फिर तोड़ दिया। सुखदेव विचारों से किसी भी प्रकार भगतसिंह या अन्य साथियों से पीछे नहीं थे। उन्होंने फांसी से कुछ पहले गांधीजी के नाम एक पत्र लिखा था जिसमें कहा गया: ‘‘क्रांतिकारियों का ध्येय इस देश में सोशलिस्ट प्रजातन्त्र प्रणाली स्थापित करना है। इस ध्येय में संशोधन के लिए जरा भी गुंजाइश नहीं है। मेरा ख्याल है, आपकी भी यही धरणा न होगी कि क्रांतिकारी तर्कहीन होते हैं ओर उन्हें केवल विनाशकारी कार्यों में ही आनन्द आता है। हम आपको बतला देना चाहते हैं कि यथार्थ में बात इसके विपरीत है। वे प्रत्येक कदम आगे बढ़ाने से पहले अपने चारों ओर की परिस्थितियों पर विचार कर लेते हैं। उन्हें अपनी जिम्मेदारी का ज्ञान हर समय बना रहता है। वे अपने क्रांतिकारी विधान में रचनात्मक अंश की उपयोगिता को मुख्य स्थान देते हैं, यद्यपि मौजूदा परिस्थितयों में उन्हें केवल विनाशात्मकअंश की ओर ध्यान देना पड़ा। ‘‘................ वह दिन दूर नहीं है जबकि उनके (क्रांतिकारियों के) नेतृत्व में और उनके झण्डे के नीचे जन-समुदाय उनके समाजवादी प्रजातंत्रा के उच्च ध्येय की ओर बढ़ता हुआ दिखाई पड़ेगा।’’

              इसी पत्र में एक अन्य स्थान पर अपनी फांसी की सजा के बारे में उन्होंने लिखा, ‘‘लाहौर षड्यंत्र के तीन राजबन्दी, जिन्हें फांसी देने का हुक्म हुआ है और जिन्होंने संयोगवश देश में बहुत बड़ी ख्याति प्राप्त कर ली है, क्रांतिकारी दल के सब कुछ नहीं हैं। वास्तव में इनकी सजाओं को बदल देने से देश का उतना कल्याण न होगा, जितना इन्हें फांसी पर चढ़ा देने से होगा।’’


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              हाथ और बाँह की सुन्दरता के लिए प्राकृतिक उपचार



               हाथो और बाँहों की सुन्दरता के लिए प्राकृतिक उपचार
              खूबसूरत हाथ
              • हाथ ज्यादा फटते हों तो थोड़ा-सा जामुन का सिरका रात को सोते समय हाथों पर लगाएं। सुबह हाथों को ताजे पानी से धो लें। यह उपाय प्रतिदिन करने से सप्ताह भर में ही आपके हाथ नाजुक-कोमल हो जायेंगे।
              • हाथों की झुर्रियां मिटाने के लिए आलू का रस हाथों पर मलें।
              • आधा नींबू काट लें। उस पर एक चम्मच चीनी रखकर हाथों की त्वचा पर तब तक रगड़ें, जब तक चीनी पूरी तरह घुल न जाए। इस उपचार से हाथों का खुरदरापन, कालापन तथा झुर्रियां दूर होती हैं।
              • हाथ ज्यादा खुरदरे हैं तो हाथों को कुछ देर तक गुनगुने पानी में रखें। फिर हाथों को सुखाकर बादाम का तेल लगाएं।
              • आध चम्मच नींबू के रस में एक चम्मच बेसन मिलाकर पानी की मदद से पेस्ट बना लें। हाथों को साबुन की बजाए इस पेस्ट से साफ करने से मैल तथा खुरदरापन समाप्त हो जाता है।
              • एक चम्मच शहद, एक चम्मच बादाम का तेल, दोनों को मिलाकर हाथों पर मलें। एक घंटे तक कोई काम न करें। इसके बाद हाथों को ताजे पानी से धे लें। प्रतिदिन ऐसा करते रहने से कड़े हाथ मुलायम हो जाते हैं और झुर्रियां भी दूर होती हैं।
              • एक चम्मच नींबू का रस, एक चम्मच ग्लिसरिन, एक चम्मच टमाटर का रस-तीनों को मिलाकर हाथों पर लगाएं। इससे हाथों की त्वचा का कालापन दूर होता है और त्वचा निखर उठती है।
              • हाथों पर समय उभर आई झुर्रियां दूर करने के लिए एक चम्मच जैतून का तेल मिलाकर हलका गरम कर इसकी मालिश धीरे-धीरे हाथों पर करें। झुर्रियां दूर होकर हाथ कोमल तथा सुंदर बनते हैं।
              हाथों की एक्सरसाइज
              • दोनों हाथों की मुट्ठियां बांध् लें। फिर उन्हें खोलकर उंगलियों को अधिक से अधिक फैलाएं। यह एक्सरसाइज 8-10 बार करें।
              • उंगलियों को तेजी से पफैलाएं, फिर आपस में चिपकाएं और सिकोड़ें। इसे 10-12 बार करें।
              • हाथ को किसी टेबल पर रखकर उंगलियों को हारमोनियम बजाने के समान चलाएं। इससे रक्त संचार बढ़ता है।
              सावधानी
              • हाथों को अधिक समय तक गीला न रखें। इससे हाथों त्वचा शुष्क एवं खुरदरी हो जाती है। रोजाना पौष्टिक आहार लें। गीले हाथों को पोंछकर कोई तेल या क्रीम लगाएं।
              सुंदर बांहें
              • कच्चे दूध् में थोड़ा-सा नमक और आध चम्मच गुलाब जल मिलाकर बांहों पर लगाएं। 30 मिनट के बाद बांहों को धे लें। इससे त्वचा साफ होती है।
              • एक चम्मच कच्चा दूध्, आध चम्मच नींबू का रस, दो चम्मच टमाटर का रस-इन तीनों को मिलाकर बांहों पर लगाएं। 30 मिनट के बाद ठंडे पानी से धेलें। बांहें कोमल बनती हैं।
              • एक चम्मच कच्चे आलू का रस, एक चम्मच खीरे के रस में मिलाकर बांहों पर लेप करें। इससे बांहों की झुर्रियां मिटती हैं।
              • धूप में बांहें काली हो जाने पर एक चम्मच खीरे का रस, एक चम्मच टमाटर का रस तथा 3-4 बूंद नींबू का रस - इन तीनों को मिलाकर बांहों पर लगाएं। एक घंटे के बाद पानी से धो लें। प्रतिदिन के प्रयोग से बांहें गोरी और कोमल हो जाती हैं।
              बांहों के एक्सरसाइज
              • बांहों की रोजाना मालिश करें। मालिश बांहों के लिए सबसे अच्छी एक्सरसाइज है। इससे नावश्यक चर्बी छंटती है मांसपेशियां मजबूत होती हैं तथा वे सुडौल हो जाती हैं।
              • बांहों को दिन में चार-पांच बार सामने की तरपफ झाड़ें। इससे रक्त संचार का संतुलन सही रहता है। 
              कोहनियों पर भी ध्यान दें
              • नींबू का छिलका रोजाना कुहनियों पर मलने से काली पड़ गयी कोहनियां साफ एवं चिकनी हो जाती हैं।
              • खुरदरी कोहनियां होने पर आधे नींबू पर चीनी रखकर रगड़ें। इससे वहां का मैल ठीक से साफ होकर कोहनी सुन्दर हो जाती है।
              • एक चम्मच नींबू का रस एक गिलास गुनगुने पानी में डालें। रफमाल को इस पानी में भिगोकर काली हुई कोहनियों पर रखें ताकि मैल फूल जाए। फिर रफमाल से धीरे-धीरे रगड़कर मैल साफ करें।
              महत्वपूर्ण लेख 


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              उच्च रक्तचाप के लिए घरेलू उपचार



              वर्तमान मनुष्य का जीवन बहुत संघर्षमय है और इस कारण उसके रहन-सहन और खान-पान में बहुत बदलाव आया है। फास्टफूड (जंकफूड) की संस्कृति ने मनुश्य के स्वास्थ्य पर बहुत प्रभाव डाला है। साथ ही साथ प्रतिस्पर्धाओ के इस दौर में हरेक मनुष्य कम या अधिक तनावग्रस्त रहने लगा है। आज वह न ही सुकून से खा पाता है और न चैन की नींद से पाता है। उच्च रक्तचाप भी इन्हीं सब बातों का परिणाम है। रक्त वाहिनियों में बहता हुआ रक्त इसकी दीवारों पर जो दबाव डालता है रक्तचाप कहलाता है। उच्च रक्तचाप में यह दबाव सामान्य से अधिक हो जाता है। स्वस्थ मनुष्य का सामान्य रक्तचापः एक स्वस्थ्य मनुष्य का आराम करते समय यदि रक्तचाप नापा जाय तो वह सामान्यतः 120/80 मि0 मि0 मर्करी या इसके आसपपास होगा। हर व्यक्ति में यह दबाव भिन्न-भिन्न हो सकता है। यहाँ पर 120 मि. मि0 प्रकुंचन (सिस्टोलिक) तथा 80 मि0 मि0 प्रसारण (डायस्टोलिक) रक्त दबाव है। उम्र के साथ यह रक्तचाप बढ़ता जाता है, क्योंकि उम्र बढ़ने के साथ रक्तवाहिनियों के लचीलेपन में कमी आती है।
              उच्च रक्तचाप के लिए घरेलू उपचार
              • बढ़ता है रक्तचाप
                मनुष्य का शरीर भी एक बहुत ही जटिल प्रकार की मशीन है। इसका ठीक से रख-रखाव रखना बहुत आवश्यक है। ऐसा न करने से शरीर में तरह-तरह की व्याधियाँ उत्पन्न हो जाती हें। शरीर को चुस्तदुरुस्त रखने के लिए हमें नियमित व्यायाम, पौष्टिक मगर संतुलित भोजन का सेवन, गहरी व पर्याप्त नींद लेने के साथ-साथ प्रसन्नचित व तनाव मुक्त रहना चाहिए, किन्तु अक्सर ऐसा हो नहीं पाता है। इसीलिए हम अस्वस्थ भी रहते है। रक्तचाप बढ़ने के निम्न प्रमुख कारण हैः
                • मधुमेह से पीडि़त होना
                • गुर्दे की बीमारियाँ
                • अत्यधिक मानसिक तनाव
                • लगातार कई दिनों तक ठीक से सो न पाना
                • हृदय की बीमारियाँ
                • रक्त नालिकाओं का लचीलापन कम हो जाना
                • उत्तेजक पदार्थ, सिगरेट, बीड़ी, तम्बाकू आदि का अधिक सेवन करना।
                • अधिक चाय का सेवन
                • अधिक मदिरापान करने से
                • भोजन में अधिक चिकनाई, मलाई व सूखे मेवे लेने से
                • शारीरिक परिश्रम बिल्कुल न करने से
                • अत्यधिक मानसिक श्रम
              • उच्च रक्तचाप के सामान्य लक्षण
                उच्च रक्तचाप से पीडि़त व्यक्ति में सामान्यतः निम्नलिखित लक्षण मिल सकते हैं।
                • सामान्य कमजोरी और चक्कर
                • बेचैनी रहना एवं किसी भी काम में मन न लगना।
                • सिर भारी-भारी सा रहना या सिर में तीव्र पीड़ा होना।
                • बहुत अधिक तनाव महसूस करना। नाक से रक्त बहना।
                • बिना वजह चिड़चिड़ाहट रहना।
                • बांहों और अंगुलियों में कम्पन।
                • अनिद्रा
                • हर समय एकांत में लेटे रहने का मन करना, किसी भी काम में मन न लगना।
              • प्राकृतिक उपचार भी हो सकते हें कारगार
                आजकल जरा-सा बीमार पड़ने पर मनुष्य अंधाधुंध दवाइयाँ लेने लगता है, परन्तु वह अपने आहार-विहार में कोई परिवर्तन नहीं करता। इसका परिणाम यह होता है कि कुछ समय बाद उन दवाइयों का प्रभाव घटता जाता है, जिसमें हमे दवाइयों की मात्रा बढ़ानी पड़ती है, दूसरे इन दवाइयों के दुष्परिणाम से शरीर में नई बीमारियाँ उत्पन्न होने लगती हैं। अंग्रेजी दवाइयों का यह बहुत बुरा अवगुण है। इसलिए दवाइयाँ शुरू करने से पहले प्राकृतिक उपचार पर विचार करना चाहिए। प्राकृतिक उपचार में उपवास,पथ्य-अपथ्य एवं जीवन शैली में बदलाव लाने पर बल दिया जाता है।
                • रक्त प्रवाह को शुद्ध रखने के लिए उच्च रक्तचाप के रोगियों को उपवास रखना चाहिए।
                • उपवास के दौरान रोगी को कच्ची सब्जियों व फलों का रस बिना नमक मिलाए दो-तीन बार लेना चाहिए।
                • रोगी को अपना खान-पान इस उपवास के बाद भी नियमित रखना चाहिए
                • वसायुक्त, मिर्चा मसाला युक्त, अति प्रोटीनयुक्त आहार नहीं लेना चाहिए।
                • नमक, मसाले और डिब्बाबंद आहार का पूर्ण परहेज करने से रक्तदाब शीघ्र ही सामान्य होने लगता है।
                • शराब, सिगरेट, बीड़ी और तम्बाकू तो उच्च रक्तचाप के रोगियों के लिए बहुत ही हानिकारक है, एकदम त्याग देना चाहिए।
                • अधिक नमक का सेवन गुर्दे को प्रभावित करता है, जिसके कारण गुर्दे की समस्याएं पैदा हो जाती हैं एवं रक्तप्रवाह में अषुद्धियाँ मिल जाती हैं, जिससे उच्च रक्तचाप रहने लगता है। इसलिए सामान्य व्यक्ति को भी नमक कम से कम लेना चाहिए।
                • दिन भर में 10-12 गिलास पानी पीना हमारे स्वास्थ्य के लिए अच्छा है। यह पानी सारे शरीर की गंदगी मूत्र द्वारा बाहर निकाल देता है। इसी प्रकार ष्शरीर के लिए कुनकुनी धूप भी आवश्यक है। इससे शरीर की रोगप्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है, जिससे मनुष्य अधिक स्वस्थ व चुस्त-दुरुस्त रहता है।
              • सबसे उत्तम आयुर्वेदिक उपचार
                आयुर्वेदिक औषधियाँ प्रकष्ति के सबसे करीब हैं। प्रायः इनके कोई भी दुष्परिणाम देखने को नहीं मिलते हैं। आयुर्वेदिक औषधियाँ रोगी को स्वाभाविक रूप से स्वस्थ बनाने का प्रयत्न करतीहैं। इनको लम्बे समय तक बिना किसी भय के लिया जा सकता है। उच्च रक्तचाप के लिए निम्नलिखित आयुर्वेदिक औषधियों का सेवन करना अच्छा रहता है।
                • जहर मोहरा खताई पिष्टी
                • राप्य भस्म
                • समीर-पन्नग रस
                • चन्द्रकला रस
                • चिन्तामणि रस
                • बालचन्द्र रस
                • रस राज रस
                • सर्पगंधा चूण योग
                • सर्पगंधाधन बटी आदि।
                महत्वपूर्ण लेख 


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