भारतीय दंड संहिता की धारा 188 (Section 188 of the Indian Penal Code)




भारतीय दंड संहिता अथवा इंडियन पैनल कोड (आईपीसी )धारा 188 के अंतर्गत लोक सेवक द्वारा सम्यक् रूप से प्रख्यापित आदेश की अवज्ञा - जो कोई यह जानते हुए कि वह ऐसे लोक सेवक द्वारा प्रख्यापित किसी आदेश से, जो ऐसे आदेश को प्रख्यापित करने के लिए विधिपूर्ण सशक्त है, कोई कार्य करने से विरत रहने के लिए या अपने कब्जे में की, या अपने प्रबन्धाधीन, किसी सम्पत्ति के बारे में कोई विशेष व्यवस्था करने के लिए निर्दिष्ट किया गया है, ऐसे निदेश की अवज्ञा करेगा, यदि ऐसी अवज्ञा विधिपूर्वक नियोजित किन्हीं व्यक्तियों को बाधा, क्षोभ या क्षति अथवा बाधा, क्षोभ या क्षति की जोखिम, कारित करे या कारित करने की प्रवृति रखती हो, तो वह सादा कारावास से, जिसकी अवधि एक मास तक की हो सकेगी, या जुर्माने से, जो दो सौ रूपये तक का हो सकेगा, या दोनो से दण्डित किया जाएगा; और यदि ऐसी अवज्ञा मानव-जीवन, स्वास्थ्य, या क्षेम को संकट कारित करे, कारित करने की प्रवृत्ति रखती हो, या बल्वा या दंगा कारित करती हो, या कारित करने की प्रवृत्ति रखती हो, तो वह दोनों में से किसी भाँति के कारावास से, जिसकी अवधि छः मास तक की हो सकेगी या जुर्माने से, जो एक हजार रूपये तक का हो सकेगा, या दोनों से, दण्डित किया जाएगा।
स्पष्टीकरण - यह आवश्यक नहीं है कि अपराध का आशय अपहानि उत्पन्न करने का हो या उसके ध्यान में यह हो कि अवज्ञा करने से अपहानि होना सम्भाव्य है। यह पर्याप्त है कि जिस आदेश की वह अवज्ञा करता है, उस आदेश का उसे ज्ञान है और यह भी ज्ञान है कि उसके अवज्ञा करने से अपहानि उत्पन्न होनी सम्भाव्य है।
  1. धारा 188  किसी लोक सेवक द्वारा वैध रूप से प्रख्यापित (जारी) किसी आदेश की अवज्ञा करने वाले कार्य  को  दण्डनीय  अपराध  उद्घोषित  करती  है।  धारा  188 अन्तर्गत  उपबन्धित  अपराध  के  लिए निम्नलिखित बातों का होना अपेक्षित है -
    • लोक सेवक का वह आदेश वैध हो,
    • लोक सेवक द्वारा वह आदेश वैध रूप से जारी किया गया हो,
    • लोक सेवक उस आदेश को जारी करने के लिए सक्षम हो,
    • अभियुक्त को आदेश के बारे में जानकारी हो,
    • अभियुक्त व्यक्ति ने उक्त आदेश की अवज्ञा की हो,
    • ऐसी अवज्ञा किसी विधिपूर्ण नियोजित व्यक्ति के लिए बाधा, क्लेश या हानि पैदा करती थी अथवा पैदा करने की प्रवृति रखती थी तथा मानव जीवन के स्वास्थ्य और सुरक्षा के लिए संकट पैदा करती थी।
  2. केवल आदेशों में धारा की प्रयोज्यता - भारतीय दण्ड संहिता की धारा 188 केवल ऐसे आदेशों के उल्लंघन के प्रति लागू होती है जो सार्वजनिक उद्देश्य की पूर्ति के लिए जारी किए जाते हैं। इसलिए यदि कोई व्यक्ति की अस्थायी आदेश या उल्लंघन कर ता है तो वह इस धारा के अन्तर्गत दण्डित नहीं किया जा सकता है।
  3. आदेश का गलत होना - जहाँ पर किसी व्यक्ति को संहिता की धारा 188 के अन्तर्गत अभियोजित किया जाता है वहाँ पर वह अपने पक्ष में यह बचाव प्रस्तुत कर सकता है कि लोक सेवक द्वारा जारी किया गया आदेश गुणदोष के आधार पर त्रुटिपूर्ण था।
  4. लोक सेवक के आदेश की अवज्ञा - एक मामले में यह निर्णित किया गया कि दण्ड संहिता की धारा 188 को लागू होने के लिए यह आवश्यक है कि अभियुक्त को उस देश की जानकारी अवश्य हो जिसकी उसने अवज्ञा की है।
    जहाँ पर कोई व्यक्ति दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 145 के अधीन कुर्क की गई अपनी फसल को इस कुर्की के आदेश को जानते हुए भी काट लेता है वहां पर वह दण्ड संहिता की धारा 188 के अधीन दोषी होगा।
    एक मामले में यह निर्णित किया गया है कि किसी विधि विरूद्ध जमाव को तितर-बितर होने के लिए दिये गए आदेश की अवज्ञा दण्ड संहिता की धारा 188 के अधीन दण्डनीय है।
  5. धारा का लागू होना - एक मामले में यह निर्णित किया गया है कि दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 155 के अधीन कर्फ्यू आदेश की अवज्ञा भारतीय दण्ड संहिता की धारा 188 के अधीन दण्डनीय अपराध है। राज्य बनाम जयंती लाल, 1975 कि.ल.ज. 661 गुज.। दण्ड संहिता की धारा 188 लोक सेवकों द्वारा सार्वजनिक उद्देश्य के लिए जारी किए गए आदेशों के प्रति लागू होती है।
    दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 155 के अन्तर्गत कर्फयू आर्डर की अवहेलना एक गौण अपराध होनेके कारण दंड संहिता की धारा 188 के अधीन दंडनीय है, अतः दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 144 के अन्तर्गत जारी किया गया निषेधात्मक आदेश की अवहेलना के लिए देखते ही गोली मार देने का कार्यपालिका निदेश दंड संहिता की धारा 188 एवं संविध्ाान के अनुच्छेद 20 (1) एंव 21 के शक्ति वाहय्होगा।
 कलम 188: IPC Section 188 in Marathi
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बाजीराव पेशवा विश्व इतिहास का एक मात्र अपराजित योद्धा



बाजीराव पेशवा विश्व इतिहास का एक मात्र अपराजित योद्धा 
Bajirao Mastani Story In Hindi

मराठा साम्राज्य के प्रधानमंत्रियों को पेशवा कहते थे। ये राजा के सलाहकार परिषद अष्टप्रधान के सबसे प्रमुख होते थे। राजा के बाद इन्हीं का स्थान आता था।

पेशवा बाजीराव (1721-1761) मराठा साम्राज्य के शासक थे। बाजीराव, शिवाजी महाराज के पौत्र शाहूजी महाराज के पेशवा (प्रधान) थे। इनके पिता श्री बालाजी विश्वनाथ पेशवा भी शाहूजी महाराज के पेशवा थे। बचपन से बाजीराव को घुड़सवारी करना, तीरंदाजी, तलवार भाला, बनेठी, लाठी आदि चलाने का शौक था। 13-14 वर्ष की खेलने की आयु में बाजीराव अपने पिताजी के साथ घूमते थे। उनके साथ घूमते हुए वह दरबारी चालों व रीतिरिवाजों को आत्मसात करते रहते थे। यह क्रम 19-20 वर्ष की आयु तक चलता रहा। जब बाजीराव के पिताश्री का अचानक निधन हो गया तब मात्र बीस वर्ष की आयु के बाजीराव को शाहूजी महाराज ने पेशवा बना दिया। पेशवा बनने के बाद अगले बीस वर्षों तक बाजीराव मराठा साम्राज्य को बढ़ाते रहे। इसके लिए उन्हें अपने अपराजित योद्धा- बाजीराव पेशवा दुश्मनों से लगातार लड़ाईयाँ करना पड़ी। अपनी वीरता, अपनी नेतृत्व क्षमता व कौशल युद्ध योजना द्वारा यह वीर हर लड़ाई को जीतता गया। विश्व इतिहास में बाजीराव पेशवा ऐसा अकेला योद्धा माना जाता है जो कभी नहीं हारा। छत्रपति शिवाजी महाराज की तरह वह बहुत कुशल घुड़सवार था। घोड़े पर बैठे-बैठे भाला चलाना, बनेठी घुमाना, बंदूक चलाना उनके बाएँ हाथ का खेल था। घोड़े पर बैठकर बाजीराव के भाले की फेंक इतनी जबरदस्त होती थी कि सामने वाला घुड़सवार अपने घोड़े सहित घायल हो जाता था।

बाजीराव ने अपने कुशल युद्ध नेतृत्व से छत्रपति शिवाजी महाराज द्वारा स्थापित किये हुए मराठा साम्राज्य की सीमाओं का उत्तर भारत में भी विस्तार किया। ‘तीव्र गति से युद्ध करना, यह उनके युद्ध-कौशल्य का महत्त्वपूर्ण भाग था। इस समय भारत की जनता मुगलों के साथ-साथ अंग्रेजों व पुर्तगालियों के अत्याचारों से त्रस्त हो चुकी थी। ये भारत के देवस्थान तोड़ते, जबरन धर्म परिवर्तन करते, महिलाओं व बच्चों को मारते व भयंकर शोषण करते थे। ऐसे में बाजीराव पेशवा ने उत्तर भारत से लेकर दक्षिण भारत तक ऐसी विजय पताका फहराई कि चारों ओर उनके नाम का डंका बजने लगा। लोग उन्हें शिवाजी का अवतार मानने लगे। बाजीराव में शिवाजी महाराज जैसी ही वीरता व पराक्रम था तो वैसा ही उच्च चरित्र भी था। जब छत्रसाल बुंदेला दिल्ली की सेना के सामने हतबल हो गये, तब उन्होंने बाजीराव से सहायता मांगी। बाजीराव ने वहां भी अपनी तलवार की गरिमा बनाए रखी। उनका उपकार चुकाने के लिए छत्रसाल बुंदेला ने 3 लाख मीट्रिक टन वार्षिक उत्पन्न करनेवाला भूभाग बाजीराव को भेंट दिया। इसके साथ ही अपनी अनेक पत्नियों में से एक पत्नी की कन्या ‘मस्तानी’ से उनका विवाह कराया।



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गर्म पानी पीना एक औषधि



Drinking Hot Water is a Medicine
  Drinking Hot Water is a Medicine
 
ठण्डे पेय तथा फ्रीज में रखा अथवा बर्फ वाला पानी स्वास्थ्य के लिये हानिकारक होता है। स्वस्थ अवस्था में हमारे शरीर का तापक्रम 98.4 डिग्री फारहनाइट यानि 37 डिग्री सेन्टीग्रेड के लगभग होता है। जिस प्रकार बिजली के उपकरण एयर कंडीशनर, कू लर आदि चलाने से बिजली खर्च होती है। उसी प्रकार ठण्डे पेय पीने अथवा खाने से शरीर को अपना तापक्रम नियन्त्रित रखने के लिये अपनी संचित ऊर्जा व्यर्थ में खर्च करनी पड़ती है। अतः पानी यथा संभव शरीर के तापक्रम के आसपास तापक्रम जैसा पीना चाहिये।
आजकल सामूहिक भो जों में भोजन के पश्चात् आइसक्रीम और ठण्डे पेय पीने का जो प्रचलन है, वह स्वास्थ्य के लिये बहुत हानिकारक होता है। गर्मी स्वयं एक प्रकार की ऊर्जा है और शारीरिक गतिविधियों में उसका व्यय होता है। अतः जब कभी हम थकान अथवा कमजोरी का अनुभव करते हैं तब गरम पीने योग्य पानी पीने से शरीर में स्फूर्तिआती है। जिन व्यक्तियों को लगातार अधिक बोलने का अर्थात् भाषण अथवा प्रवचन देने का कार्य पड़ता है, जब वे थकान अनुभव करें, तब ऐसा पानी पीने से पुनः ऊर्जा का प्रवाह सक्रिय होता है। लम्बी तपस्या करने वालों के लिये ऐसा पानी विशेष उपयोगी होता है, जिससे शक्ति का संचार होता है।
गरम पानी सर्दी संबंधी रोगों में क्षीण ऊर्जा को पुनः प्राप्त करने का सरलतम उपाय होता हैं। साधारणतया रोजाना पानी को उबालकर पीनेसे उसमें रोगाणुओं और संक्रामक तत्त्वों की संभावना नहीं रहती। अतः ऐसा पानी स्वास्थ्य के लिये अधिक उपयोगी होता है। खाली पेट गर्म पानी पीनेसे अम्लपित्त जनित हृदय की जलन और खट्टी डकारें आना दूर हो जाता है। गर्म जल सुखी खांसी की प्रभावशाली औषधि है।सहनीय एक गिलास गर्म जल में थोड़ा सेंधा नमक डालकर पीने से कफ पतला हो जाता है और अंत में खांसी का वेग बहुत कम हो जाता है। खाली पेट दो गिलास गर्म पानी पीने से मूत्र का अवरोध दूर होता है। जिनके मूत्र पीला अथवा लाल हो, मूत्र नली में जलन हो, उनको पीने योग्य गर्मजल पीना चाहिए।



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सूर्य नमस्कार की स्थितियों में विभिन्न आसनों का समावेष एवं उसके लाभ



सूर्य नमस्कार की बारह स्थितियों में विभिन्न आसनों का समावेष एवं लाभ सूर्य नमस्कार की स्थितियों में किंचित अलग-अलग मतों के अनुसार परिवर्तन माना गया है फिर भी एकरूपता की दृष्टि से सर्वमान्य 12 स्थितियों के आसनों का वर्णन एवं उनसे पृथक-पृथक प्राप्त लाभ का वर्णन किया जा रहा है। यहाँ यह भी निवेदन है कि हम जिस भी ध्यान एवं पूजा पद्धति का मानते हैं, उनका भी स्मरण कर सूर्य नमस्कार का अभ्यास स्वास्थ्य की दृष्टि से कर सकते हैं।
सूर्य नमस्कार की बारह स्थितियों में विभिन्न आसनों का समावेष एवं उसके लाभ

स्थिति क्रमांक 1. दक्षासन
इस विधि में विश्राम से दक्ष की स्थिति में आते हैं। दक्ष में हाथ की उंगलियाँ खुली लेकिन परस्पर सीधी मिली हुई, दोनों घुटनें मिले हुए तथा कंधे सीधे एवं हाथ नीचे की ओर लटकते हुये सीधे खींचे रहें। हथेलियाँ खुली हुई एवं जंघा से सटी हुई रहे।
लाभ
  1. त्वचा और कमर के रोग दूर होते हैं, पीठ सशक्त बनती है और पैरों में नया जोश आता है।
  2. दृष्टि नासिकाग्र पर केन्द्रित होने से मन का निरोध होता है।
  3. चेहरा तेजस्वी बनता है ।
  4. विद्यार्थियों के लिए स्वास्थ्य प्राप्ति एवं व्यंिक्तत्त्व विकास का यह एक अत्यंत सरल उपाय है।
  5. एकाग्रचित्त होकर ध्यान करने से आत्म विश्वास में वृद्धि होती है।
स्थिति क्रमांक 2 नमस्कारासन ( प्रणामासन ) -
  1. दक्ष - हाथ की उंगलिया सीधी खुली हुई।
  2. पैर के अंगुठे परस्पर जोड़कर समस्थिति में खड़े रहें।
  3. हाथ नमस्कार की स्थिति में । शरीर का भार दोनों पैरों पर समानरूप से बटा हुआ।
  4. एड़ियाँ और पैर के अंगुठे परस्पर सटे हो।
  5. पैरों की सब उंगलियाँ ऊपर उठाना जिससे उंगलियों के पीछे की गद्दियाँ तथा एड़ियाँ पूरी तरह जमीन पर हो।
  6. पहले दोनों पैरों की कनिष्ठिकाएं जमीन पर रखना । दोनों पैरों के कनिष्ठिकाधार पूरी तरह जमीन पर हो। बाद में अन्य उंगलियाँ भी जमीन पर रखना। इस स्थिति में दोनों तलुवों की कमानियां ऊपर उठी हुई रहेगी।
  7. घुटनों की कटोरियां को ऊपर तानना, घुटने के पीछे का भाग तथ जंघा के पीछे की मांसपेशियां ऊपर तनी हुई।
  8. मलद्वारा का संकोच करते हुए नितम्बों को सिकोड़कर कड़ा करना।
  9. पेट अंदर, सीना व पसलियां ऊपर उठी हुई।
  10. हथेलियाँ नमस्कार की स्थिति में एक दूसरे को दबाती हुई, दोनों अंगूठे के पर्व सूर्यचक्र (वक्षमध्य ) पर तथा दोनों प्रकोष्ठ जमीन से समानान्तर।
  11. कंधे पीछे की ओर, सिर संतुलित, गर्दन सीधी, दृष्टि सामने एवं सूर्य नमस्कार का मंत्र बोलना।
लाभ -
  1. गले के रोग मिटते हैं और स्वर अच्छा होता है।
  2. पैरों में रक्त गतिशील बनता है और व्यक्ति की चलने की शक्ति बढ़ती है। मेरूदण्ड में लचीलापन आता है।
स्थिति क्रमांक 3 - ऊध्र्वासन/ हस्त उत्तानासन
  1. दोनों हाथ तिरछे ऊपर उठाकर सीधे तानना। कोहनी में मोड़ न हो इसलिए भुजा को अंदर से तनाव देना।
  2. कमर से ऊपर का भाग पीछे मोड़ना।
  3. सिर पीछे लटकाना तथा दोनों हाथों के तनाव को बनाये रखते हुए हथेलियों को आपस में मिलाना। हाथों को कानों से लगाने का प्रयत्न नहीं करना है। दृष्टि करमूल पर स्थिर रहेगी। करमूल को दबाकर पीछे खींचना।
  4. घुटने न मुड़े इसके लिए पंजों व पैर की गद्दियों को जमीन पर दबाना आवश्यक है।
लाभ - दोनों कंधों और अन्न नली को पोषण मिलता है तथा इनसे संबंधित रोग मिटते हैं, नेत्र शक्ति (दृष्टि)

बढ़ती है तथा शरीर की लम्बाई बढ़ती है।
स्थिति क्रमांक 4 - ( हस्तपादासन )
  1. क्रमांक 3 में आयी पीठ की वक्रता को वैसी ही बनाये रखते हुए ऊरूसंधि से सामने झुकना प्रारंभ करना।
  2. नितम्बों को ऊपर की दिशा में घुमाना।
  3. ऊरूसंधि के ऊपर के हिस्से से क्रमशः स्पर्श करते हुए पेट को जंघा के ऊपर के भाग से और छाती को जंघा के निचले भाग से सटाते हुए अंत में माथे को घुटने के नीचे पैरों से लगाना। दोनों हथेलियाँ पंजों के पार्श्व में पूरी तरह जमीन पर इस तरह रखी हुई कि पैरों और हाथों की उंगलियाँ एक सीध में हों। पीठ का गड्डा बना रहे, उसकी कूबड न निकले।
लाभ -
  1. उदर (पेट) के रोगों का नाश करता है, सीने को बलिष्ठ बनाता है। हाथ भी बलिष्ठ बनते हैं और शरीर सुन्दर व दर्शनीय बनता है। उदर का मोटापा (तोंद) कम होता है।
  2. पैरों की ऊंगलियों के रोग मिटाकर अशक्तों को नई शक्ति प्रदान करता है।
स्थिति क्रमांक 5 - एकपाद प्रसरणासन/ अष्वसंचालनासन
  1. बायां पैर सीधे पीछे ले जाना । घुटना जमीन से लगाना।
  2. दाहिनें पैर की एड़ी को जमीन पर दबाना और दाहिने घुटने को जितना आगे ला सके लाना। एड़ी के ऊपर की नस में तनाव का अनुभव होना चाहिए। 
  3. दाहिना कंधा दाहिनी जंघा से सटा हुआ, सिर ऊपर की ओर। बांयी जंघा के आगे के भाग में तनाव अनुभव होना चाहिए। इस स्थिति में हाथों की कोहनियों को मोड़ना आवश्यक है। दृष्टि सामने की ओर।
  4. बांए पैर का पंजा मुड़ना चाहिए।
  5. कमर को नीचे की ओर दबाना।
लाभ -
  1. इस स्थिति में छोटी आँत पर दबाव पड़ता है, वीर्यवाहिनी नसें खीचती हैं अतः कमजोरी का नाश होता है।
  2. धातु क्षीणता में लाभ होता है।
  3. गले के रोग स्वर भेद, चुल्लिकाग्रंथि (थाइराइड), तुण्डीकेरी ( टोन्सिल) मिटते हैं।
स्थिति क्रमांक 6 - द्विपाद प्रसरणासन/ चतुरंग दण्डासन:
  1. बायें पैर का घुटना सीधा करना।
  2. दाहिना पैर पीछे ले जाकर बायें पैर से मिलाना। घुटनों को तानकर सिर से पैर तक शरीर को एक सरल रेखा में रखना। दण्ड की सहायता से यह देखना कि पूरा शरीर एक सीध में है या नहीं। दोनों हाथ सीधे। दृष्टि शरीर से समकोण बनाती हुई।
लाभ -
  1. हाथ-पैरों में विशेषतः घुटनों का दर्द मिटता है।
  2. मोटी कमर को पतली बनाता है।
  3. उदर (पेट) के रोगों के लिए यह स्थिति राम-बाण है।
स्थिति क्रमांक 7 - साष्टांग प्रणिपातासन:
  1. दानों हाथों को कोहनी से मोड़कर पूरे शरीर को जमीन के समानान्तर करना।
  2. दोनों पैरों के अंगूठे व एड़ियाँ मिली हुई।
  3. सीना और घुटनें जमीन से लगाना।
  4. दोनों कंधों को पीठ की ओर उठाकर एक दूसरे के निकट लाना। जिससे सीना नीचे उभर आए व जमीन में लगे। माथा जमीन से लगाना किंतु नाक जमीन से नहीं लगनी चाहिए।
लाभ -
  1. ये आसन हाथ को बलिष्ठ बनाता है।
  2. यदि स्त्रियाँ सगर्भावस्था के पूर्व यह व्यायाम करें तो पयःपान करने वाले बच्चे (दूध पीत बच्चे) बाल रोगों से बच सकते हैं।
स्थिति क्रमांक 8 - ( ऊध्र्वमुखष्वानासन/भुजंगासन ):
  1. दोनों एड़ियाँ साथ में व घुटने एक दूसरे के पास ।
  2. शरीर को आगे बढ़ाकर हाथों को कोहनियों से सीधे करते हुए सीने को ऊपर उठाना कमर व नाभि को हाथों के बीच में लाने का प्रयत्न करना। दोनों घुटनें जमीन से स्पर्श करते हुए। सिर पीछे की ओर दोनों कंधे पीछे की ओर खींचे हुए।
लाभ -
  1. निस्तेजस्विता दूर करके शरीर में तेज लाता हैं और आँखों का तेज बढ़ाता है।
  2. रज-वीर्य के सभी प्रकार के दोषों को मिटाता है।
  3. स्त्रियों के मासिक धर्म कीे अनियमितता दूर करता है।
  4. रक्त परिभ्रमण ठीक होने से मुख की कान्ति और शोभा में वृद्धि होती है।
स्थिति क्रमांक 9 - अधोमुखष्वानासान/ पर्वतासन:
  1. शरीर पीछे खींचकर नितम्बों को अधिक से अधिक ऊपर उठाना ।
  2.  एड़ियाँ जमीन पर टिकाना और दबाना किन्तु इसके लिए पैरों को आगे नहीं लाना चाहिए। शरीर को पीछे ले जाना चाहिए।
  3. घुटनों के पीछे के भाग को तानना।
  4. हाथ सीधे और पीठ दबी हुई, कंधों के बीच में पीठ पर गड्ढा बनेगा।
  5. सिर नीचे लटका हुआ।
लाभ -
  1. सन्धिवात, पक्षाघात तथा अपानवायु के रोगों में लाभदायक है।
  2. पैरों में अश्व के समान बल उत्पन्न होता है।
स्थिति क्रमांक 10 - एक पाद प्रसरणासन/ अष्वसंचालनासन:
  1. बायां पैर को पीछे से आगे दोनों हथेलियों के मध्य लाना। बायें पैर का अंगूठा तथा दोनों हाथों के अंगूठे अर्थात् तीनों अंगूठे एक सीध में पृथ्वी पर स्थापित करें।
  2. दाहिने पैर का घुटना, अंगुलियाँ एवं अंगूठा सीधा पृथ्वी को स्पर्श करता हुआ रहे।
  3. बायां कंधा बायीं जंघा से सटा हुआ, सिर ऊपर की ओर। बायीं जंघा के आगे के भाग में तनाव अनुभव होना चाहिए। इस स्थिति में हाथों की कोहनियों को मोड़ना आवश्यक है। दृष्टि सामने की ओर।
  4. बांए पैर का पंजा मुड़ना चाहिए।
  5. कमर के नीचे की ओर दबाना।
लाभ -
  1. पूर्व की स्थिति क्रमांक पंचमवत् सारे लाभ प्राप्त होते हैं।
स्थिति क्रमांक 11 - हस्तपादासन
  1. क्रमांक 4 में आयी पीठ की वक्रता को वैसी ही बनाये रखते हुए उरूसंधि के सामने झुकना प्रारंभ करना।
  2. नितम्बों को ऊपर की दिशा में घुमाना।
  3. उरूसंधि के ऊपर के हिस्से से क्रमशः स्पर्श करते हुए पेट को जंघा के ऊपर के भाग से और छाती को जंघा के निचले भाग से सटाते हुए अंत में माथे को घुटने के नीचे पैरों से लगाना। दोनों हथेलियां पंजों के पार्श्व में पूरी तरह जमीन पर इस तरह रखी हुई कि पैरो और हाथों की उंगलियां एक सीध में हो। पीठ का गड्डा बना रहे, उसकी कूबड़ न निकले।
लाभ - पूर्व की स्थिति क्रमांक चतुर्थवत् लाभ प्राप्त होते हैं।

स्थिति क्रमांक 12 - नमस्कारासन/प्रणामासन
  1. इस आसन की स्थिति एवं लाभ पूर्ववत् स्थिति क्रमांक 2 के अनुसार होते हैं।
विशेष - इस प्रकार बारह स्थितियों में सूर्य नमस्कार का एक चक्र होता हैं पुनः मंत्रोच्चारण सहित सूर्य नमस्कार की विधि प्रारम्भ करते हैं। इस बार स्थिति क्रमांक 5 एकपाद प्रसराणासन में बांये के स्थान पर दाहिना पैर पीछे ले जाते हैं तथा स्थिति क्रमांक 10 में एक पाद प्रसराणासन में भी दाहिनें पैर को पीछे से आगे लाते हैं। इस प्रकार क्रमशः पैर बदल कर 24 स्थितियों में सूर्य नमस्कार का एक पूर्ण चक्र होता है। विशेष बात यह है कि जो पैर स्थिति क्रमांक 5 पीछे जायेगा वही पैर स्थिति क्रमांक 10 में आगे आयेगा।
 
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International Yoga Day - 21 June



अंतरराष्ट्रीय योग दिवस 21 जून को मनाया जाता है। यह दिन वर्ष का सबसे लम्बा दिन होता है और योग भी मनुष्य को दीर्घ जीवन प्रदान करता है। पहली बार यह दिवस 21 जून 2015 को मनाया गया, जिसकी पहल भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 27 सितम्बर 2014 को संयुक्त राष्ट्र महासभा में अपने भाषण से की थी जिसमें उन्होंने कहा -
"योग भारत की प्राचीन परंपरा का एक अमूल्य उपहार है यह दिमाग और शरीर की एकता का प्रतीक है; मनुष्य और प्रकृति के बीच सामंजस्य है; विचार, संयम और पूर्ति प्रदान करने वाला है तथा स्वास्थ्य और भलाई के लिए एक समग्र दृष्टिकोण को भी प्रदान करने वाला है। यह व्यायाम के बारे में नहीं है, लेकिन अपने भीतर एकता की भावना, दुनिया और प्रकृति की खोज के विषय में है। हमारी बदलती जीवन- शैली में यह चेतना बनकर, हमें जलवायु परिवर्तन से निपटने में मदद कर सकता है। तो आयें एक अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस को गोद लेने की दिशा में काम करते हैं।" —नरेंद्र मोदी, संयुक्त राष्ट्र महासभा
जिसके बाद 21 जून को " अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस" घोषित किया गया। 11 दिसम्बर 2014 को संयुक्त राष्ट्र में 177 सदस्यों द्वारा 21 जून को " अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस" को मनाने के प्रस्ताव को मंजूरी मिली। प्रधानमंत्री मोदी के इस प्रस्ताव को 90 दिन के अंदर पूर्ण बहुमत से पारित किया गया, जो संयुक्त राष्ट्र संघ में किसी दिवस प्रस्ताव के लिए सबसे कम समय है।

'अंतरराष्ट्रीय योग दिवस' को मनाये जाने की पहल भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 27 सितम्बर , 2014 को ' संयुक्त राष्ट्र महासभा ' में अपने भाषण में रखकर की थी, जिसके बाद ' 21 जून' को 'अंतरराष्ट्रीय योग दिवस' घोषित किया गया। 11 दिसम्बर, 2014 को संयुक्त राष्ट्र में 193 सदस्यों द्वारा 21 जून को 'अंतरराष्ट्रीय योग दिवस' को मनाने के प्रस्ताव को मंजूरी मिली। प्रधानमंत्री मोदी के इस प्रस्ताव को 90 दिन के अंदर पूर्ण बहुमत से पारित किया गया, जो संयुक्त राष्ट्र संघ में किसी दिवस प्रस्ताव के लिए सबसे कम समय है।

प्रधानमंत्री मोदी के प्रस्ताव का 175 देशों ने समर्थन किया था। 'संयुक्त राष्ट्र महासभा' के अध्यक्ष सैम के. कुटेसा का कहना था कि- "इतने देशों के इस प्रस्ताव को समर्थन देने से साफ है कि लोग योग के फायदों के प्रति आकर्षित हो रहे हैं।" 'संयुक्त राष्ट्र महासभा' में अपने पहले भाषण में नरेन्द्र मोदी जी ने कहा था कि- "भारत के लिए प्रकृति का सम्मान अध्यात्म का अनिवार्य हिस्सा है।" प्रधानमंत्री मोदी ने इसे विश्व स्तर पर आने की बात कही थी।

योग दिवस 21 जून ही क्यों 
21 जून पूरे कैलेंडर वर्ष का सबसे लम्बा दिन है। प्रकृति, सूर्य और उसका तेज इस दिन सबसे अधिक प्रभावी रहता है। बेंगलुरू में 2011 में पहली बार दुनिया के अग्रणी योग गुरुओं ने मिलकर इस दिन 'विश्व योग दिवस' मनाने पर सहमति जताई थी।

इस दिन को किसी व्यक्ति विशेष को ध्यान में रखकर नहीं, बल्कि प्रकृति को ध्यान में रखकर चुना गया है। संयुक्त राष्ट्र में भारत के लिए पिछले सात सालों के दौरान यह इस तरह का दूसरा सम्मान है। इससे पहले यूपीए सरकार की पहल पर वर्ष 2007 में संयुक्त राष्ट्र ने महात्मा गाँधी के जन्मदिन यानि ' 2 अक्टूबर' को ' अंतरराष्ट्रीय अहिंसा दिवस ' के तौर पर घोषित किया था।

प्राचीन आध्यात्मिक पद्धति योग 5,000 साल पुरानी भारतीय शारीरिक मानसिक और आध्यात्मिक पद्धति है, जिसका लक्ष्य मानव शरीर और मस्तिष्क में सकारात्मक परिवर्तन लाना है।


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बालमुकुन्द अष्टकम balamukund astakam



balamukund astakam

करारविन्देन पदारविन्दं मुखारविन्दे विनिवेशयन्तं
वटस्य पत्रस्य पुटे शयानं बालं मुकुन्दं मनसा स्मरामि ||
karAravindena padAravindam mukhAravinde viniveshayantam
vaTasya patrasya puTe shayAnam bAlam mukundam manasA smarAmi 

संहृत्य लोकान्-वटपत्रमध्ये शयनं-आद्यन्तविहीन रूपम्
सर्वेश्र्वरम् सर्वहितावतारं बालं मुकुन्दं मनसा स्मरामि ||
samhrutya lokAn-vaTapatramadhye shayanam-AdyantavihIna rUpam
sarveshwaram sarvahitAvatAram  bAlam mukundam manasA smarAmi 

इन्दीवर-श्यामल-कोमलाङ्गं इन्द्रादि-देवार्चित-पादपद्मं
संतानकल्प-द्रुममं-आश्रितानां बालं मुकुन्दं मनसा स्मरामि ||
indIra-shyAmala-komalAngam indrAdi-devArchita-pAdapadmam
santAnakalpa-drumam-AshritAnAm bAlam mukundam manasA smarAmi  

लम्बालकं लंबित-हारयष्टिं शृङ्गारलीलाङ्कित-दन्तपङ्क्तिं
बिम्बाधरं चारुविशाल-नेत्रं   बालं मुकुन्दं मनसा स्मरामि ||
lambAlakam lambita-hArayaShTim shrungAra-leelAnkita-dantapanktim
bimbAdharam chAruvishAla-netram bAlam mukundam manasA smarAmi  

  शिक्ये निधायाद्य-पयोदधीनि बहिर्गतायं व्रजनायिकायां
भुक्त्वा यथेष्टं कपटेन सुप्तं बालं मुकुन्दं मनसा स्मरामि ||
 shikye nidhAyAdya-payodadhIni bahirgatAyam vrajanAyikAyAm
bhuktvA yatheShTam kapaTena suptam bAlam mukundam manasA smarAmi  

कलिन्दजान्त-स्थितकालियस्य फणाग्ररङ्गे नटनप्रियन्तं
तत्पुच्छहस्तं शरदिन्दुवक्त्रं बालं मुकुन्दं मनसा स्मरामि ||
kalindajAnta-sthitakAliyasya phaNAgrarange naTanapriyantam
tatpucchahastam sharadinduvaktram  bAlam mukundam manasA smarAmi  

उलूखले बद्धं-उदारशौर्यम् उत्तुङ्ग-युग्मार्जुन-भन्गलीलं
उत्पुल्ल-पद्मायत-चारुनेत्रं बालं मुकुन्दं मनसा स्मरामि ||
ulUkhale baddham-udArashauryam uttunga-yugmArjuna-bhangaleelam
utpulla-padmAyata-chArunetram bAlam mukundam manasA smarAmi  

आलोक्य मातुर्मुखमादरेण स्तन्यं पिबन्तं सरसीरुहाक्षं
सच्चिन्मयं देवं-अनन्तरूपं  बालं मुकुन्दं मनसा स्मरामि ||
 Alokya mAturmukhamAdareNa stanyam pibantam sarasIruhAksham
 sacchinmayam devam-anantarUpam bAlam mukundam manasA smarAmi 


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।।सूर्य उपासना।। - कथा वाचन



कृष्णपुत्र साम्ब ने सूर्य उपासना कर सूर्य को प्रसन्न किया


एक बार की बात है कि रघुवंश में जन्मे राजा बृहदबल ने राजगुरु वशिष्ट से पूछा-"गुरुदेव ! क्या कोई ऐसा देवता है जिसकी पूजा अर्चना करके मोक्ष प्राप्त करके जन्म-मरण के चक्र से छुटकारा प्राप्त किया जा सके ? राजगुरु वशिष्ठ मुस्करा दिये
" मैं जानना चाहता हूँ, गुरुदेव !" राजा बृहदबल ने अपने प्रश्न को स्पष्ट करते हुए आगे कहा-" देवताओं का भी देवता कौन है ? पितरों का भी पितर कौन है ? मैं उसके विषय में जानना चाहता हूँ , जिसके ऊपर कोई न हो। मैं उस परब्रह्म सनातन का ज्ञान करना चाहता हूँ। मुझे उस स्वर्ग की अभिलाषा नहीं है, जहाँ पर जाकर पुन: संसार चक्र में आकर फंसना होता है अत: हे गुरुदेव! आप मुझ पर अपने ज्ञान की अमृत वर्षा करते हुए बताएँ कि यह स्थावर जंगम किससे जन्मता है और किसमें इसका विलय हो जाता है ?"
राजगुरु वशिष्ठ ने कहा-"रघुवंश नरेश! आपने एक ऐसा रहस्य जानना चाहा है जो कि स्वयं प्रकट है परन्तु खेद की बात यह है कि कोई उसे जानता या समझता नहीं। आपने जग कल्याण के हेतु यह प्रश्न किया है अत: मैं इस विषय में स्पष्ट बात करना चाहता हूँ और वह यह है कि जो सूर्य उदय होकर संसार को अंधकार से मुक्त करता है वही पूर्णरुपेण आदि और अनादि है। इसके ऊपर कोई भी नहीं है। यही शाश्वत तथा अव्यय है यही जगत का नाथ है यही जगत का कर्म साक्षी है। रात में उत्पन्न होने वाले सभी जड जंगम इसी से उत्पन्न होते और समय पाकर इसी में विलीन हो जाते हैं। सूर्य ही धाता है, सूर्य ही विधाता है। यह अग्रजन्मा तथा भूत भावन है। ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश भी यही है। सूर्य प्रतिदिन अक्षय मण्डल में स्थित रहता है। यही देवताओं का देव तथा पितरों का पिता है। इसी की पूजा अर्चना से ऐसा मोक्ष प्राप्त होता है जिससे कि पुन: आवागमन में फंसना नही पडता। इसी से जगत का शुभारम्भ हुआ है और इसी में विलीन हो जायेगा।"
राजा बृहदबल ने पूछा-" आपके स्पष्टीकरण से यही समझ सका हूँ कि सूर्य ही सर्वेश्वर है "
"आपने ठीक समझा।" वशिष्ठ ने कहा।
राजगुरु वशिष्ट की बात को भलिभाँति समझ लेने के बाद राजा बृहदबल ने पूछा-"क्या कोई ऐसा स्थान है जहाँ पर इनका पूजन करने से स्वयं ही पूजन स्वीकार करते हैं? जिसे इनका आद्य स्थान कहा जाए?"
वशिष्ठ जी ने कहा-"रघुवंश नरेश! एक नदी जिसका नाम चन्द्रभागा है, के तट पर साम्ब नगर बसा हुआ है, जहाँ पर भगवान सूर्य नित्य विराजते हैं और यहीं पर पूर्ण विधि से की गई पूजा को भगवान सूर्य स्वयं ग्रहण करते हैं।"
राजा बृहदबल ने पूछा-"केवल इसी स्थान का महत्त्व क्यों है? कृपया स्पष्ट करें।"
राजगुरु वशिष्ट बोले-"अदिति के बारह पुत्र हुए थे जिन्हें कि द्वादश आदित्य कहा जाता है।" इन द्वादश आदित्यों में दसवें आदि विष्णु नामक अदिति के पुत्र हैं। इन्हीं विष्णु ने वासुदेव के घर कृष्ण अवतार लिया है तथा इन्हीं कृष्ण के पुत्र साम्ब हुए हैं । एक बार कृष्ण अपने साथ ब्रह्मा के मानस पुत्र नारद जी को लेकर द्वारका में आये। देवऋषि नारद को देखकर सभी उनका स्वागत सत्कार करने लगे पर राजकुमार साम्ब अभाग्यवश उनकी अवहेलना करता रहा। इस कारण नारद को क्रोध आ गया और उन्होंने मन ही मन एक योजना बना ली। विदा होते समय नारद ने कृष्ण को बताया "तुम्हारे पुत्र साम्ब का रुप और यौवन इतना अधिक आ गया है कि तुम्हारी सोलह हजार रानियाँ भी उसे देखकर विचलित हो जाती हैं।"
"इस बात पर कृष्ण ने विश्वास न किया और बात आई गई हो गयी। कुछ कालोपरान्त नारद पुन: द्वारका में आ गये। इस समय कृष्ण सुरम्य रैवतक पर्वत पर एक उद्यान में अपनी रानियों के साथ क्रीडा कर रहे थे। सभी ने भरपूर श्रृंगार कर रखा था और कुछ ने काम क्रीडार्थ वस्त्र त्याग रखे थे और मधुर सुरासव पिया तथा पिलाया जा रहा था। यह समझकर के सभी नशे में बेसुध हैं, नारद ने अपनी योजना को कार्यरुप दिया। वह साम्ब के पास जाकर बोले कि रैवतक पर्वत पर स्थित तुम्हारे पिता तुम्हें बुला रहे हैं।
"यह बात सुनकर साम्ब तुरन्त ही वहाँ पर पहुँच गया और पिता कृष्ण को प्रणाम करके खडा हो गया। इस मदहोशी की स्थिति में साम्ब को अतुल रुप यौवन सम्पन्न देख कर उसके प्रति कई रानियाँ कामुक हो विचलित हो उठीं। ऐसे ही वातावरण में नारद ने प्रवेश किया। इन्हें देखकर रानियाँ जिस स्थिति में थीं, वैसे ही आदरभाव में खडी हो गयीं। अपनी रानियों को नग्न एवं किसी परपुरुष के सामने ऐसी स्थिति में देखकर कृष्ण को क्रोध आ गया और इसी क्रोध में उन्होनें रानियों को श्राप देते हुए कहा-"हे रानियों! तुम्हें इस दशा में देखकर तथा परपुरुष में आसक्त देखकर श्राप देता हूँ कि तम्हें पति सुख न मिलेगा, स्वर्ग न मिलेगा तथा डाकुओं के ही सम्पर्क में रह सकोगी(इस श्राप से केवल रुक्मिणी, सत्यभामा और जांबवती ही मुक्त रह सकी थी।)। इसके बाद कृष्ण ने साम्ब को भी श्राप देते हुए कहा- साम्ब! तुम्हारे जिस अनन्त यौवन को देखकर ये रानियाँ विचलित हुई हैं, यह कोढ से नष्ट हो जायेगा।"
इस श्राप के प्रभाव से साम्ब की देह गलने लगी तब वह नारद से इस श्राप से मुक्त होने का उपाय पूछने लगा। देव ऋषि नारद से इस श्राप से मुक्त होने का उपाय पूछने लगा। देवऋषि नारद ने तब उसे सूर्य की उपासना करने को कहा।
हे रघुवंश नरेश बृहदबल! राजगुरु समझाते हुए बोले-"कृष्ण से श्राप प्राप्त होने पर रानियों को स्वर्ग न मिल सका और वे भटकने लगीं। पंचनद प्रदेश में इन्हें अर्जुन से छीनकर डाकू ले गये। देवऋषि नारद से उपाय जानकर कृष्णपुत्र साम्ब ने सूर्य उपासना कर सूर्य को प्रसन्न किया, जिससे उसका कोढ समाप्त हो गया और वह पुन: स्वस्थ सबल हो गया। जहाँ साम्ब को श्राप से मुक्ति मिली थी, वहीं साम्ब नगर है और वहीं पर साम्ब ने सूर्य का एक मन्दिर भी बनवाया।"
इस प्रकार राजा बृहदबल ने राजगुरु वशिष्ट से आदित्य के विषय में जानकर सूर्य उपासना की और परम मोक्ष को प्राप्त हुए।


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विजयसार की लकड़ी से मधुमेह का आयुर्वेदिक इलाज



विजयसार की लकड़ी है यह हमारे भारत में मध्य प्रदेश से लेकर पूरे दक्षिण भारत मे पाई जाती है। यह हल्का लाल रंग से गहरे लाल रंग का होता है और यह एक दवा के रूप मे प्रयोग मे लाई जाती है जो मधुमेह रोगियों के लिये काफी प्रभावी है।


 

विजयसार को ना केवल आयुर्वेद बल्कि आधुनिक चिकित्सा विज्ञान भी डायबिटीज में बहुत उपयोगी मानता है इसके लिए विजयसार की लकड़ी से बने गिलास में रात में पानी भर कर रख दिया जाता है सुबह भूखे पेट इस पानी को पी लिया जाता है विजयसार की लकड़ी में पाये जाने वाले तत्व रक्त में इन्सुलिन के स्राव को बढ़ाने में सहायता करते हैं।

विजयसार की लकड़ी के टुकड़े बाजार से ले आए, जिसमे घुन ना लगा हो। इसे सूखे कपड़े से साफ कर ले। अगर टुकड़े बड़े है तो उन्हे तोड़ कर छोटे- छोटे- 1/4 -1/2 सेंटीमीटर या और भी छोटे टुकड़े बना ले।फिर आप एक मिट्टी का बर्तन ले और इस लकड़ी के छोटे छोटे टुकड़े लगभग पच्चीस ग्राम रात को दो कप या एक गिलास पानी में डाल दे। सुबह तक पानी का रंग लाल गहरा हो जाएगा ये पानी आप खाली पेट छानकर पी ले और दुबारा आप उसी लकड़ी को उतने ही पानी में डाल दे शाम को इस पानी को उबाल कर छान ले। फिर इसे ठंडा होने पर पी ले। इसकी मात्रा रोग के अनुसार घटा या बढ़ा भी सकते है अगर आप अग्रेजी दवा का प्रयोग कर रहे है तो एक दम न बंद करे बस धीरे -धीरे कम करते जाए अगर आप इंस्युलीन के इंजेक्शन प्रयोग करते है वह 1 सप्ताह बाद इंजेक्शन की मात्रा कम कर दे। हर सप्ताह मे इंस्युलीन की मात्रा 2-3 यूनिट कम कर दे। विजयसार की लकड़ी में पाये जाने वाले तत्व रक्त में इन्सुलिन के स्राव को बढ़ाने में सहायता करते हैं।

औषधीय गुण

  1. अम्ल-पित्त में भी लाभ देता है।
  2. इसके नियमित सेवन से जोड़ों की कड़- कड़ बंद होती है, अस्थियाँ मजबूत होती है।
  3. उच्च रक्त-चाप को नियन्त्रित करने में सहायता करता है।
  4. जोडों के दर्द में लाभ देता है।
  5. त्वचा के कई रोगों, जैसे खाज-खुजली, बार-2 फोडे-फिंसी होते हों, उनमें भी लाभ देता है।
  6. प्रमेह (धातु रोग) में भी अचूक है।
  7. मधुमेह को नियन्त्रित करने में सहायता करता है।
  8. शरीर में बधी हुई चर्बी को कम करके, वजन और मोटापे को भी कम करने में सहायक है।
  9. हाथ-पैरों के कम्पन में भी बहुत लाभदायक है।


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कड़ी पत्ता (Curry Leaves or Kadi Patta) के स्वास्थ्य लाभ के औषधीय गुण



कड़ी पत्ता (Curry Leaves or Kadi Patta) प्रायः भारत के हर भग और हर घर में पाया जाने वाला पौधा है। इसे मीठी नीम भी कहा जाता है। इसे सभी प्रकार के भोजन में तड़के के रूप में खाने का स्वाद बढ़ाने के लिए किया जाता है। कड़ी पत्‍ता या फिर जिसको हम मीठी नीम के नाम से भी जानते हैं, भोजन में डालने वाली सबसे अहम सामग्री मानी जाती है। यह खास तौर पर साउथ इंडिया में काफी पसंद किया जाता है। अक्‍सर लोग इसे अपनी सब्‍जियों और दाल में पड़ा देख, हाथों से उठा कर दूर कर देते हैं। पर आपको ऐसा नहीं करना चाहिये। कड़ी पत्‍ते में कई मेडिकल प्रोपर्टी छुपी हुई हैं। यह हमारे भोजन को आसानी से हजम करता है और अगर इसे मठ्ठे में हींग और कुडी़ पत्‍ते को मिला कर पीया जाए तो भोजन आसानी से हजम हो जाता है।लेकिन कन्नड़ भाषा में इसे काला नीम कहा जाता है। कड़ी पत्ता ना केवल खाने का जयका बढ़ता है, बल्कि सेहत के लिए भी बहुत फायदेमंद है। इससे मधुमेह, लिवर जैसी बड़ी बीमारिया भी दूर होने लगती है। आप शायद नहीं जानते होंगे लेकिन जो लोग अपना वजन कम करना चाहते है, उनके लिए भी यह फायदेमंद है। दक्षिण भारत और पश्चिमी-तट के राज्यों में कई तरह के व्यंजन में इसकी पत्तियों का उपयोग बहुतायत किया जाता है। इसका उपयोग आयुर्वेद में जड़ी-बूटी के रूप में किया जाता है। इसमें कई तरह के औषधीय गुण जैसे ऐंटी-डायबिटीक, ऐंटीऑक्सीडेंट, ऐंटीमाइक्रोबियल पाये जाते है। कड़ी पत्ते के सेवन से दस्त में फायदा मिलता है, इससे पाचन तंत्र सुधरता है आदि। मधुमेह के रोगियों के लिए तो यह बहुत ही ज्यादा फायदेमंद है। कढ़ी पत्ता लम्बे और स्वस्थ बालों के लिए भी बहुत लाभप्रद माना जाता है।
Curry Leaves or Kadi Patta
पाचन में लाभदायक
कड़ी पत्ते अक्सर खाने में अच्छे नहीं लगते है, लेकिन अगर आप इसके सही फायदों का लाभ उठाना चाहते है, तो खाने के साथ इसके पत्ते को भी खाए इससे आपकी पाचन क्रिया सही रहती है।

Curry Leaves or Kadi Patta
गर्मी में ठंडक पहुँचाये
गर्मियों में अक्सर पेट में जलन और दर्द होने की समस्या होने लगती है, तो उसके लिए आपको कुछ नहीं करना है बस जो छाछ की लस्सी आप पीते है, उसमे आपको कड़ी पत्ते डालकर सेवन करना है, इससे आपको पेट में जल्द ही ठंडक महसूस होने लगेगी।
Curry Leaves or Kadi Patta
दस्त की समस्या से निजाद
कड़ी पत्ते में एन्टी बैक्टिरीयल और एन्टी-इन्फ्लैमटोरी गुण मौजूद होते है। जिसके चलते यह पेट में होने वाली गड़बड़ियों से राहत दिलाते है। इसमें मौजूद अन्य गुण “माइल्ड लैक्सटिव”, दस्त से राहत दिलाने में मददगार है। दस्त होने पर कड़ी पत्ते को क्रश करके बटरमिल्क के साथ दिन में तीन बार लेने से राहत मिलती है।
कड़ी पत्ते से घटाए वजन
आम तौर पर लोग खाने में जायका बढ़ाने के लिए कड़ी पत्ता का इस्तेमाल करते हैं लेकिन दुख की बात यह है कि लोग इसको फेंक देते हैं। आपको पता नहीं कड़ी पत्ता खाने से त्वचा, बाल और स्वास्थ्य को कितने फायदे मिलते हैं! कड़ी पत्ता ब्लड-शुगर लेवल को कम करने में सहायता करता है जो मधुमेह रोगियों के लिए भी बहुत फायदेमंद साबित होता है। यहाँ तक लीवर को स्वस्थ रखने के लिए कड़ी पत्ता का जूस पिया जाता है,जो लीवर के लिए लाभकारी होता है। यह तो कड़ी पत्ते के फायदों के बारे में बता रहे हैं लेकिन आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि कड़ी पत्ता से वजन को भी आसानी से घटाया जा सकता है। इन पत्तों के सेवन से आपके शरीर का जमा फैट निकल जाता है और इसमें जो फाइबर होता है वह शरीर से विषाक्त पदार्थों या टॉक्सिन को निकाल देता है। इसका रेचक (laxative) गुण खाने को जल्दी हजम करवाता है, विशेषकर जब आप बदहजमी महसूस करते हैं। कैराली आयुर्वेदिक ग्रुप की गीता रमेश ने अपने किताब ‘ द आयुर्वेदिक कुकबूक’ में कहा है कि हर दिन कड़ी पत्ता खाने से वजन घटता है और कोलेस्ट्रॉल कम होता है। इसलिए अगली बार आप प्लेट में कड़ी पत्ता न छोड़कर चबाकर खाएं और आसानी से वजन घटायें।
तनाव दूर करने को भोजन में शामिल करे कड़ी पत्ते
भोजन में इसको नियमित रूप से शामिल करेंगे उतना आपका तनाव और दूर होगा, सिर्फ यही नहीं इससे आपके बालों को काला होने में भी मदद मिलेगी।
मधुमेह/डायबिटीज रोगियों के लिए लाभदायक
मधुमेह रोगियों के लिए भी कड़ी पत्ते बेहद फायदेमंद है, कड़ी पत्ते को रोजाना सुबह उठकर 3 महीने तक लगतार सेवन करने से आपको फायदा मिलेगा, सिर्फ यही नहीं मधुमेह से होने वाला मोटापे को दूर करने में भी यह मदद करता है।

असमय सफेद बालों को करें काला
करी पत्ते का एक गुच्छा ले कर उसे साफ पानी से धो लें और सूरज की धूप में तब तक सुखा लें, जब तक कि यह सूख कर कड़ा न हो जाए। फिर इसे पाउडर के रूप में पीस लें अब 200 एम एल नारियल के तेल में या फिर जैतून के तेल में लगभग 4 से 5 चम्मच कड़ी पत्ती मिक्स करके उबाल लें। दो मिनट के बाद आंच बंद कर के तेल को ठंडा होने के लिए रख दें। तेल को छान कर किसी एयर टाइट शीशी में भर कर रख लें। सोने से पहले रोज रात को यह तेल लगाएं और इससे अपने सिर की अच्छे से मसाज करें। अगर इस तेल को हल्की आंच पर गरम कर के लगाया जाए तो जल्दी असर दिखेगा। अगली सुबह सिर को नेचुरल शैंपू से धो लें। इसके आंवला ट्रीटमेंट को आप रोज या फिर हर दूसरे दिन आजमा सकते हैं। इससे आपको बहुत लाभ मिलेगा।
बालो के लिए भी फायदेमंद 
  • कड़ी पत्ते से बालो का गिरना भी कम किया जा सकता है, क्युकी इसमें विटामिन बी1, बी3 और बी9 मौजूद होता है, साथ ही इसमें आयरन, फ़ॉस्फ़ोरोस और कैल्शियम भी मौजूद होता है, जिसका सेवन करने से आपके बाल घने लम्बे और मजबूत बनते है। इसके अलावा यह आपके बालो में होने वाले डैंड्रफ को भी खत्म करता है। कड़ी पत्ते के तेल से भी आप अपने बालो की देखबाल अच्छे से कर सकते है, इसका तेल बनाने के लिए कड़ी पत्तो को धो ले, और धोने के बाद इसे धुप में सूखने के लिए रख दे जब तक की यह कड़क ना हो जाये, फिर इसे पीस ले अब इस पाउडर को 200 एम एल नारियल के तेल में अच्छी तरह मिलाने के बाद एक उकाली लेले। ठंडा होने के बाद एक शीशी में भर के रोजाना बालो में मसाज करे, इससे आपके बालो में जल्द ही फायदा मिलेगा। 
  • हफ्ते में दो बार जरूर लगाएं असमय सफेद होते हुए बालों को रोकने का आयुर्वेदिक उपचार प्रयोग करने का सही तरीका है कि आप इस तेल को हफ्ते में एक या दो बार जरूर लगाएं। अपनी उंगलियों को सिर पर हल्के-हल्के घुमाते हुए सिर पर तेल फैलाएं। सिर धोने से 40 मिनट पहले यह तेल लगाएं। इस विधि से यह तेल सफेद हो रहे बालों को काला करने में मदद करेगा। आंवला एक प्राकृतिक डाई के रूप में पुराने जमाने की महिलाओं द्वारा प्रयोग किया जाता था।
कड़ी पत्ते से मिलने वाले अन्य लाभ इन्हे भी जाने
  • मतली और अपच जैसी समस्या के लिए कड़ी पत्ते का उपयोग बहुत लाभकारी होता है। इसको तैयार करने के लिए कड़ी पत्ते का रस ले कर उसमें नींबू निचोड़ और उसमें थोड़ी सी चीनी मिलाकर प्रयोग करें।
  • अगर आप अपने बढ़ते हुए वजन से परेशान हैं और कोई उपाय नहीं सूझ रहा है। तो रोज कुछ पत्तियां कड़ी नीम की चबाएं। इससे आपको अवश्य फायदा होगा।
  • कड़ी पत्ता हमारी आंखों की ज्योति बढ़ाने में भी काफी फायदेमंद है। साथ ही यह भी माना जाता है कि यह कैटरैक्ट जैसी भयंकर बीमारी को भी दूर करती है।
  • अगर आपके बाल झड़ रहे हों या फिर अचानक सफेद होने लग गए हों तो कड़ी पत्ता जरूर खाएं। अगर आपको कड़ी पत्ता समूचा नहीं अच्छा लगता तो बाजार से उसका पाउडर खरीद लें और फिर उसे अपने भोजन में डाल कर खाएं।
  • इसके साथ ही आप चाहें तो अपने हेयर ऑयल में ही कड़ी के पत्ते को उबाल लें। इस हेयर टॉनिक को लगाने से आपके बालों की जितनी भी समस्या होगी वह सब दूर हो जाएगी।
  • अगर डायबिटीज रोगी कड़ी के पत्ते को रोज सुबह तीन महीने तक लगातार खाएं तो फायदा होगा। इसके अलावा अगर डायबिटीज मोटापे की वजह से हुआ है, तो कड़ी पत्ता मोटापे को कम कर के मधुमेह को भी दूर कर सकता है।
  • सिर्फ कड़ी पत्ता ही नहीं बल्कि इसकी जड़ भी काफी उपयोगी होती है। जिन लोगों की किडनी में दर्द रहता है, वह अगर इसका रस पिएं तो उन्हें अवश्य फायदा होगा।
  • यह बालो को काला करने के साथ ही सफेद होने से और झड़ने से भी रोकता है।
  • इसके पत्तों का पेस्ट बनाकर बालों में लगाने से जुओं से छुटकारा मिलता है।
  • वजन कम करने के लिए रोजाना कुछ मीठी नीम की पत्तियां चबाना फायदेमंद होता है।
  • कड़ी पत्ते में एंटी ओक्सीडेंट होते है जो और केंसर कोशिकाओं को बढ़ने नहीं देते है।
  • कड़ी पत्ते पेन्क्रीआज़ के बीटा सेल्स को एक्टिवेट करके मधुमेह को नियंत्रित करने में मदद करते है।
  • इसके हरे पत्ते में शरीर के लिए फायदेमंद तत्व आयरन, कॉपर, जिंक, कैल्शियम, विटामिन ए और बी, अमीनो एसिड, फोलिक एसिड आदि मौजूद होते है।
  • कड़ी पत्ते का सेवन कोलेस्ट्रोल को कम करने में मददगार है।
  • यह इन्फेक्शन से लड़ने में मदद करता है।
  • कड़ी पत्ते किडनी के लिए लाभकारी होते है।
  • कड़ी पत्ते से बाल झड़ने की समस्या भी कम होती है।
  • कड़ी पत्ते आँखों की ज्योति बढ़ाने के लिए फायदेमंद होता है।
  • इसका सेवन डायरिया, डिसेंट्री, पाइल्स, पाचन आदि में असरदारी है।
  • कड़ी पत्ते के पेस्ट को जले और कटे स्थान पर लगाने से लाभ मिलता है।
  • आँखों की बीमारियों में लाभकारी है कड़ी के पत्ते, यह नेत्र ज्योति को भी बढाता है।
  • कड़ी पत्ते को आवले के तेल में मिलाने से यह बालो में टॉनिक का काम करता है।
  • यदि जहरीले कीड़े ने काट लिया हो तो इसके फलों के रस को नींबू के रस के साथ मिलाकर लगाने से लाभ मिलता है।
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“राष्ट्राय स्वाहा, इदं राष्ट्राय इदं न मम” के उलट चलते अपने लोग



“राष्ट्राय स्वाहा, इदं राष्ट्राय इदं न मम” मंत्र के प्रणेता श्री गुरूजी गोलवलकर को 19 फरवरी को उनकी जयंती पर शत् शत् नमन।

“राष्ट्राय स्वाहा, इदं राष्ट्राय इदं न मम” पूज्य श्री गुरूजी का राष्‍ट्र को समर्पित यह मंत्र आज के समय में संघ और अनुषांगिक संगठनों के नीति-निर्देशकों द्वारा हृदय से अंगीकार किया जा रहा है या सिर्फ स्‍वयंसेवकों और कार्यकर्ताओं के लिये ही उपदेश मात्र ही है।

संघ और अनुषांगिक संगठनों की परिपाटी हमेशा से यह सीख देती रही है कि “तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा” अर्थात त्याग पूर्वक भोग करो। क्या आज के परिवेश में संघ और अनुषांगिक संगठनों के लोग जो कि जिम्मेदार संगठन और सरकारी पदों परिस्थिति है उनके द्वारा इन मंत्रों को आत्मसात किया जा रहा है?

कहा जाता है कि अच्छे समय में अर्जित लाभ का संकलन विपरीत काल की निधि होती है। आज के समय में जो निधियां राष्ट्र के लिये संकलित होनी चाहिये ताकि विपरीत काल में संगठन उसका सही समायोजन राष्ट्रहित में कर सके किंतु यह प्रक्रिया न स्थापित होकर सिर्फ स्‍वान्‍त: सुखाय की परियोजना का क्रियान्वयन होगा जिसमे व्यक्ति विशेष द्वारा अपने लिए कार्य किया जा रहा है।

कही न कही अपने संगठन में कुछ ऐसे दोष आ रहे है हम हम और परायों में उस समय अंतर करना भूल है। जब हम सत्ता में होते है तो सत्ता में लाने वाले शिवाजी और महाराणा प्रताप कार्यकर्ताओं को भूल जाते है और जयचंद और मीर जाफर जैसों को ज्यादा प्रासंगिक स्वीकार कर लेते है। उनकी व्यक्ति विशेष की चाटुकारिता के पुरस्कार स्वरूप सरकारी पदों से भी नवाज दिया जाता है किंतु ऐसे में समय में संगठन सत्ता के शीर्ष पर पहुंचने वाला शिवाजी और महाराणा प्रताप जैसे कार्यकर्ताओं के बारे में भूल जाता है कि उनके घर में रोटी बन रही है या नहीं और शिवाजी और महाराणा प्रताप जैसे कार्यकर्ता तब याद आते है जब सत्ता काल बीत जाता है और चाटुकारिता करने वाले लोग फिर से लाभ पाने के लिए नये रैन बसेरा चुन लेते है।

ऐसे लोग विपरीत समय में अपनी विचारधारा के विपरीत ही नजर आएंगे और संगठन की स्थिति उस टिड्डा और चींटी की कहानी के टिड्डे की भांति होगी जो सुख के दिनों में ऐश किया और विपरीत काल में भूखे मर गया।


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हेमचन्द्र विक्रमादित्य - एक विस्मृत हिंदु सम्राट A Forgotten Hindu Emperor Maharaja Hemchandra Vikramaditya



हेमू का पूरा नाम सम्राट हेमचन्द्र विक्रमादित्य है। हेमू इतिहास के भुला दिए गए उन चुनिन्दा महानायकों में शामिल है जिन्होंने इतिहास का रुख पलट कर रख दिया और हेमू ने बिलकुल अनजान से घर में जन्म लेकर, हिंदुस्तान के तख़्त पर राज किया। हेमू अपार पराक्रम एवं लगातार अपराजित रहने की वजह से उसे विक्रमादित्य की उपाधि दी गयी। नि:संदेह हेमू अथवा सम्राट हेमचन्द्र विक्रमादित्य दिल्ली के सिंहासन पर बैठे अंतिम हिन्दू सम्राट थे। उन्होंने अति साधारण परिवार में जन्म लेकर भारत की स्वतंत्रता के लिए शानदार कार्य किया था। उन्होंने भारत को एक शक्तिशाली हिन्दू राष्ट्र बनाने के लिए अत्यंत साहसी तथा पराक्रमपूर्ण विजय प्राप्त की थीं। सम्राट हेमचन्द्र वह महान न्यायवादी थे जिन्होंने भारत का भविष्य बदलने के लिए मृत्युपर्यंत भरसक प्रयत्न किए।वे एक प्रतिभाशाली शासक, एक सफल सेनानायक, एक चतुर राजनीतिज्ञ तथा दूर-द्रष्टा कूटनीतिज्ञ थे। समस्त पठानों तथा तत्कालीन मुगल शासकों -बाबर तथा हुंमायूं के काल तक एक भी हिन्दू इतने ऊंचे पद पर नहीं पहुंचा था। हेमचन्द्र भारतीय इतिहास में सर्वश्रेष्ठ स्वतंत्रता सेनानी थे, जिन्होंने विदेशी शासन के विरुद्ध देश के लिए अपना बलिदान दिया।
A Forgotten Hindu Emperor Maharaja Hemchandra Vikramaditya
हेमू का जन्म सन् 1501 में राजस्थान के अलवर जिले के मछेरी नामक एक गांव में रायपूर्णदास के यहां हुआ था। इनके पिता पुरोहिताई का कार्य करते थे किन्तु बाद में मुगलों के द्वारा पुरोहितो को परेशान करने की वजह से रेवारी (हरियाणा) में आ कर नमक का व्यवसाय करने लगे। 'हेमू' (हेमचन्द्र) की शिक्षा रिवाडी में आरम्भ हुई। उन्होंने संस्कृत, हिन्दी, फारसी, अरबी तथा गणित के अतिरिक्त घुड़सवारी में भी महारत हासिल की। समय के साथ साथ हेमू ने पिता के नये व्यवसाय में अपना योगदान देना शुरू किया। काफी कम उम्र से ही हेमू, शेर शाह सूरी के लश्कर को अनाज एवं पोटेशियम नाइट्रेट (गन पाउडर हेतु) उपलब्ध करने के व्यवसाय में पिताजी के साथ हो लिए थे। सन 1540 में शेरशाह सूरी ने हुमायूं को हरा कर काबुल लौट जाने को विवश कर दिया था। हेमू ने उसी वक़्त रेवाड़ी में धातु से विभिन्न तरह के हथियार बनाने के काम की नींव रखी, जो आज भी रेवाड़ी में ब्रास, कॉपर, स्टील के बर्तन के आदि बनाने के काम के रूप में जारी है।| जब 22 मई, 1545 में शेरशाह सूरी की मृत्यु हुई, तब तक हेमू ने अपने प्रभाव का अच्छा खासा विस्तार कर लिया था। यही कारण है कि शेरशाह सूरी की मृत्यु के बाद जब उसका पुत्र इस्लामशाह दिल्ली की गद्दी पर बैठा तो उसने हेमू की योग्यता को पहचान कर उन्हें शंगाही बाजार अर्थात दिल्ली में 'बाजार अधीक्षक' नियुक्त किया। कुछ समय बाद बाजार अधीक्षक के साथ-साथ हेमू को आंतरिक सुरक्षा का मुख्य अधिकारी भी नियुक्त कर दिया और उनके पद को वजीर के पद के समान मान्यता दी।
हेमचन्द्र विक्रमादित्य - एक विस्मृत हिंदु सम्राट
1545 में इस्लाम शाह की मृत्यु के बाद उसके 12 साल के पुत्र फ़िरोज़ शाह को उसी के चाचा के पुत्र आदिल शाह सूरी ने मार कर गद्दी हथिया ली। आदिल ने हेमू को अपना वजीर नियुक्त किया। आदिल अय्याश और शराबी था।।। कुल मिला कर पूरी तरह अफगानी सेना का नेतृत्व हेमू के हाथ में आ गया था। हेमू का सेना के भीतर जम के विरोध भी हुआ, पर हेमू अपने सारे प्रतिद्वंदियों को एक एक कर हराता चला गया। उस समय तक हेमू की अफगान सैनिक जिनमें से अधिकतर का जन्म भारत में ही हुआ था। अपने आप को भारत का रहवासी मानने लग गए थे और वे मुगल शासकों को विदेशी मानते थे, इसी वजह से हेमू हिन्दू एवं अफगान दोनों में काफी लोकप्रिय हो गया था। हुमायु ने जब वापस हमला कर शेर शाह सूरी के भाई को परास्त किया तब हेमू बंगाल में था। हेमू ने तब दिल्ली की तरफ रुख किया और रास्ते में बंगाल, बिहार उत्तर प्रदेश एवं मध्य प्रदेश की कई रियासतों को फ़तेह किया। आगरा में मुगलों के सेना नायक इस्कंदर खान उज्बेग को जब पता चला की हेमू उनकी तरफ आ रहा है तो वह बिना युद्ध किये ही मैदान छोड़ कर भाग गया ,इसके बाद हेमू ने 22 युद्ध जीते और दिल्ली सल्तनत का सम्राट बना। हेमू ने अपने जीवन काल में एक भी युद्ध नहीं हारा, पानीपत की लडाई में उसकी मृत्यु हुई जो उसका आखरी युद्ध था। अक्टूबर 6, 1556 में हेमू ने तरदी बेग खान (मुग़ल) को हारा कर दिल्ली पर विजय हासिल की।
Purana killa were hemu crowned as emperor of India
हेमू का किला
सन 1553 में हेमू के जीवन में एक बड़ा उत्कर्ष कारी मोड़ आया। इस्लाम शाह की मृत्यु के बाद आदिलशाह दिल्ली की गद्दी पर बैठा। आदिलशाह एक घोर विलासी शराबी और लम्पट शासक था। उसे अपने विरुद्ध बढ़ते विद्रोही को दबाने और राजस्व वसूली के लिए हेमू जैसे विश्वस्त परामर्शदाता और कुशल प्रशासक की आवश्यकता थी। उसने हेमू को ग्वालियर के किले में न केवल अपना प्रधानमंत्री बनाया वरन अफगान फौज का मुखिया भी नियुक्त कर दिया। अब तो राज्य प्रशासन का समस्त कार्य हेमू के हाथ में आ गया और व्यवहारिक रूप में वह ही राज्य का सर्वेसर्वा बन गए। शासन की बागडोर हाथों में आते ही हेमू ने टैक्स न चुकाने वाले विद्रोही अफगान सामंतों को बुरी तरह से कुचल डाला। इब्राहिम खान, सुल्तान मुहम्मद खान, ताज कर्रानी, रख खान नूरानी जैसे अनेक प्रबल विद्रोहियों को युद्ध में परास्त किया और एक-एक कर उन सभी को मौत के घाट उतार दिया। हेमू ने छप्परघटा के युद्ध में बंगाल के सूबेदार मुहम्मद शाह को मौत के घाट उतारा व बंगाल के विशाल राज्य पर कब्जा कर अपने गवर्नर शाहबाज खां को नियुक्त किया। इस बीच आदिल शाह का मानसिक संतुलन बिगड़ गया और हेमू व्यवहारिक रूप से बादशाह माने जाने लगे। उन्हे हिंदू तथा अफगान सभी सेनापतियों का भारी समर्थन प्राप्त था। हेमू जिन दिनों बंगाल में विद्रोह को कुचलने में लगे थे। उनकी अनुपस्थिति का लाभ उठाकर जुलाई 1555 में हुमायुं ने पंजाब, दिल्ली और आगरा पर पुन: अपना अधिकार कर लिया।
 
इसके 6 माह बाद ही हुमायूं का देहांत हो गया और उसका नाबालिग पुत्र अकबर उसका उत्तराधिकारी बना। हेमू ने इसे अनुकूल अवसर जानकार मुगलों को परास्त करके और दिल्ली पर अपना एकछत्र शासन करने के स्वर्णिम अवसर के रूप में देखा। वह एक विशाल सेना को लेकर बंगाल से वर्तमान बिहार, पूर्वी उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश को रौंदते हुए दिल्ली की ओर चल पड़े। उनके रण कौशल के आगे मुगल फौजदारी में भगदड़ मच गई। आगरा सूबे का मुगल कमांडर इस्कंदर खान उजबेक तो बिना लड़े ही आगरा छोड़कर भाग गया। हेमू ने इटावा, कालपी, बयाना आदि सूबों पर बड़ी सरलता से कब्जा कर वर्तमान उत्तर प्रदेश के मध्य एवं पश्चिमी भागो पर अपना नियंत्रण स्थापित कर लिया। अब दिल्ली की बारी थी। 6 अक्टूबर 1956 को तुगलकाबाद के पास मात्र एक दिन की लड़ाई में हेमू ने अकबर की फौजों को हराकर दिल्ली को फतह कर लिया। पुराने किले में जो प्रगति मैदान के सामने है अफगान तथा राजपूत सेना नायकों के सानिध्य में पूर्ण धार्मिक विधि विधान में राज्याभिषेक कराया। 7 अक्तूबर, 1556 को भारतीय इतिहास का वह विजय दिवस आया जब दिल्ली के सिंहासन पर सैकड़ों वर्षों की गुलामी तथा अधीनता के बाद हिन्दू साम्राज्य की स्थापना हुई। विश्व प्रसिद्ध इतिहासकार डा. आर.सी. मजूमदार ने इसे भारत के इतिहास के मुस्लिम शासन की अद्वितीय घटना बताया। वस्तुत: यह महान घटना, समूचे एशिया में दिल दहलाने वाली थी। आश्चर्य तो यह है कि मुस्लिम चाटुकार दरबारी इतिहासकारों तथा लेखकों से न्यायोचित प्रशंसा की अपेक्षा तो नहीं थी, बल्कि विश्व में निष्पक्षता तथा नैतिकता का ढोल पीटने वाले, किसी भी ब्रिटिश इतिहासकार ने हेमचन्द्र की वीरता एवं शौर्य के बारे में एक भी शब्द नहीं लिखा। संभवत: इससे उनका भारत पर राज करने का भावी स्वप्न पूरा न होता। वस्तुत: यह किसी भी भारतीय के लिए, जो भारत भूमि को पुण्य भूमि मातृभूमि मानता हो, अत्यंत गौरव का दिवस था।
 
हेमचन्द्र का राज्याभिषेक भी भारतीय इतिहास की अद्वितीय घटना थी। भारत के प्राचीन गौरवमयी इतिहास से परिपूर्ण पुराने किले (पांडवों के किले) में हिन्दू रीति-रिवाजों के अनुसार राज्याभिषेक था। अफगान तथा राजपूत सेना को सुसज्जित किया गया। सिंहासन पर एक सुन्दर छतरी लगाई गई। हेमचन्द्र ने भारत के शत्रुओं पर विजय के रूप में 'शकारि' विजेता की भांति 'विक्रमादित्य' की उपाधि धारण की। नए सिक्के गढ़े गए। राज्याभिषेक की सर्वोच्च विशेषता सम्राट हेमचन्द्र विक्रमादित्य की घोषणाएं थीं जो आज भी किसी भी प्रबुद्ध शासक के लिए मार्गदर्शक हो सकती हैं। सम्राट ने पहली घोषणा की, कि भविष्य में गोहत्या पर प्रतिबंध होगा तथा आज्ञा न मानने वाले का सिर काट लिया जाएगा। उन्होंने शताब्दियों से विदेशी शासन की गुलामी में जकड़े भारत को मुक्त कराकर हेमचंद्र विक्रमादित्य की उपाधि धारण की व उत्तर भारत में दक्षिण भारत में स्थापित विजयनगर साम्राज्य की तर्ज पर हिंदू राज की स्थापना की। इस अवसर पर हेमू ने अपने चित्रों वाले सिक्के ढलवाए सेना का प्रभावी पुनर्गठन किया और बिना किसी अफगान सेना नायक को हटाए हिंदू अधिकारियों को नियुक्त किया। अपने कौशल, साहस और पराक्रम के बल पर अब हेमू हेमचंद विक्रमादित्य के नाम से देश की शासन सत्ता के सर्वोच्च शिखर पर आसीन थे। अब्बुल फजल के अनुसार दिल्ली विजय के बाद हेमू काबुल पर आक्रमण करने की योजना बना रहे थे।
 
उधर अकबर अपने सेनापतियों की सलाह पर हेमू की बढ़ती शक्ति से डर कर काबुल लौट जाने की तैयारी में था कि उसके संरक्षक बैरम खां ने एक और मौका लेने की जिद की। दोनों ओर युद्ध की तैयारियां जोरों पर थी। हेमू एक विशाल सेना लेकर दिल्ली से पानीपत के लिए निकले। 5 नवम्बर 1556 को पानीपत के मैदान में दोनों सेनाएं आमने-सामने आ डटी। भय और सुरक्षा के विचार से अकबर और बैरम खां ने स्वयं इस युद्ध में भाग नहीं लिया और वे दोनों युद्ध क्षेत्र से 8-10 मील की दूरी पर, सौंधापुर गांव के कैंप में रहे किंतु हेमू ने स्वयं अपनी सेना का नेतृत्व किया। भयंकर युद्ध मे प्रारंभिक सफलताओं से ऐसा लगा कि मुगल सेना शीघ्र ही मैदान से भाग जाएगी लेकिन दुर्भाग्यवश एक तीर अचानक हाथी पर बैठे हेमू की आंख में लग गया। तीर निकाल कर हेमू ने लड़ाई जारी रखा। तीर लगने के कारण हेमू बेहोश हो गए। हेमचन्द्र का सर अकबर ने खुद काटा और अकबर को गाजी की उपाधि मिली । हेमू का कटा सिर अफगानिस्तान स्थित काबुल भेजा गया जहां उसे एक किले के बाहर लटका दिया गया। जबकि उनका धड़ दिल्ली के पुराने किले के सामने जहां उनका राज्यभिषेक हुआ था, लटका दिया गया। इस प्रकार एक असाधारण व्यक्तित्व के धनी, भारत सम्राट की गौरवपूर्ण जीवन यात्रा पूरी हुई।
 
बैरम खान ने सैनिकों के सशस्त्र दल को हेमचन्द्र के अस्सी वर्षीय पिता के पास भेजा। उन को मुसलमान होने अथवा कत्ल होने का विकल्प दिया गया। वृद्ध पिता ने गर्व से उत्तर दिया कि 'जिन देवों की अस्सी वर्ष तक पूजा अर्चना की है उन्हें कुछ वर्ष और जीने के लोभ में नहीं त्यागूंगा'। उत्तर के साथ ही उन्हे कत्ल कर दिया गया था। दिल्ली पहुँच कर अकबर ने 'कत्लेआम' करवाया ताकि लोगों में भय का संचार हो और वह दोबारा विद्रोह का साहस ना कर सकें। कटे हुये सिरों के मीनार खडे किये गये। पानीपत के युद्ध संग्रहालय में इस संदर्भ का एक चित्र आज भी हिंदुओं की दुर्दशा के स्मारक के रूप में सुरक्षित है किन्तु हिन्दू समाज के लिये शर्म का विषय तो यह है कि हिन्दू सम्राट हेमचन्द्र विक्रमादित्य द्वितीय का स्मृति चिन्ह भारत की राजधानी दिल्ली या हरियाणा में कहीं नहीं है।

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स्वास्थ्य रक्षक नींबू के फायदे और नुकसान



नीबू में ए, बी और सी विटामिनों की भरपूर मात्रा है-विटामिन ए अगर एक भाग है तो विटामिन बी दो भाग और विटामिन सी तीन भाग। इसमें -पोटेशियम, लोहा, सोडियम, मैगनेशियम, तांबा, फास्फोरस और क्लोरीन तत्त्व तो हैं ही, प्रोटीन, वसा और कार्बोज भी पर्याप्त मात्रा में हैं। विटामिन सी से भरपूर नीबू शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने के साथ ही एंटी आक्सीडेंट का काम भी करता है और कोलेस्ट्राल भी कम करता है। नीबू में मौजूद विटामिन सी और पोटेशियम घुलनशील होते हैं।
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नींबू पानी पीने के फायदे
  1. गर्म पानी में नींबू का रस रात्रि में लेने से कब्ज दूर होती है।
  2. चक्कर और उल्टी आने पर नींबू के ऊपर नमक और हल्की सी काली मिर्च बुरक कर चूसने से लाभ मिलता है।
  3. नींबू कई फायदों से भरपूर होता है। नींबू हमारे शरीर के पीएच लेवल को सही स्तर पर बनाए रखने में मददगार होता है। वहीं नींबू में आयरन, मैग्नीशियम, फास्फोरस, कैल्शियम, पोटैशियम और जिंक जैसे मिनरल होते हैं, जो शरीर की अलग-अलग जरूरतों को पूरा करते हैं। इसके साथ ही नींबू के सेवन से किडनी स्टोन बनने के खतरे को भी कम किया जा सकता है।
  4. नींबू का रस पानी में मिलाकर गर्मियों में पीने से गर्मी शांत होती है।
  5. नींबू का रस पूरे शरीर की सफाई करता है और पेट के कीड़ों को भी मारता है।
  6. नींबू की पत्तियां चूसने से हिचकी बंद हो जाती है।
  7. नींबू के रस में अदरक का रस मिलाकर और थोड़ी सी शक्कर मिलाकर पीने से पेट दर्द में राहत मिलती है।
  8. नींबू के रस में काली मिर्च, धनिया और भुना हुआ जीरा मिलाकर सेवन करने से पेट के विकार दूर होते हैं।
  9. नींबू के रस में सेंधा नमक मिलाकर कुछ दिन नियमित पीने से पथरी गल जाती है।
  10. नींबू के रस से दूध फाड़कर पनीर बनाया जाए तो पनीर अधिक पौष्टिक होता है।
  11. नींबू के सेवन से शुगर को नियंत्रित किया जा सकता है और इसमें मौजूद विटामिन सी शरीर की इम्यूनिटी को भी बढ़ाने में सहायक है। नींबू के सेवन से शरीर को रिहाइड्रेट भी किया जा सकता है। वहीं इससे मसूड़ों से संबंधित समस्याओं से भी राहत पाई जा सकती है।
  12. नींबू दांतों की भी सुरक्षा करता है। नींबू के रस में थोड़ा सा नमक और दो बूंदें सरसों के तेल मिलाकर दांतों पर रगड़ने से दांत चमकदार होते हैं।
  13. नींबू में थियामिन, नयासिन, रिबोफ्लोविन, विटामिन बी- 6, विटामिन ई और फोलेट जैसे विटामिन्स मौजूद होते हैं। इन विटामिन्स की मदद से कब्ज, किडनी, खराब गला और मसूड़ों से जुड़ी परेशानियों से निजात मिलती है।
  14. नींबू में ब्लड प्रेशर, डिप्रेशन और लिवर के लिए काफी अच्छा होता है।
  15. नींबू शरीर के पाचनतंत्र को ठीक बनाए रखता है और रोग प्रतिरोधक क्षमता भी मजबूत करने में मदद करता है। वहीं नींबू विटामिन सी का अच्छा स्त्रोत है।
  16. नींबू स्वास्थ्य के लिए काफी सेहत फायदेमंद रहता है। नींबू में कई तरह के पोषक तत्व मौजूद होते हैं, जो शरीर को स्वस्थ बनाए रखने में मदद करते हैं।
  17. पीलिया के रोगियों को नींबू का रस, पानी और शक्कर मिला कर देने से लाभ होता है।
  18. भोजनोपरान्त नींबू का टुकड़ा चूसने से पाचन क्रिया में मदद मिलती है।
  19. विटामिन सी की प्रचुरता के कारण गुर्दें, आंतें और फेफड़े ठीक ठाक रहते हैं।
  20. सब्जियों और दालों पर नींबू निचोड़ कर खाने से सब्जियों के स्वाद और पोषकता में वृध्दि होती है।
  21. स्वस्थ व्यक्ति भी नियमित नींबू का सेवन करता रहे तो रोगों से लड़ने की क्षमता बढ़ती है।
  22. हृदय रोग और उच्च रक्तचाप के रोगियों को दिन में तीन बार नींबू पानी पीना लाभदायक है।
 
नींबू पानी पीने के कुछ नुकसान - नींबू निश्चित रूप से गुणकारी फल है, लेकिन इसके कुछ दुष्प्रभावों को नकारा नहीं जा सकता है जो निम्न है- 
  1. अगर आप बहुत ज़्यादा नींबू का रस पीते हैं तो आपका पेट खराब हो सकता है, क्योंकि खाने को पचाने वाले एसिड की मात्रा ज़्यादा होने से पेट में दर्द और जलन की समस्या बढ़ जाती है। इसलिए नींबू के रस का ज़्यादा सेवन न करें।
  2. एक रिसर्च के मुताबिक, नींबू पानी में मौजूद एसिड टूथ एनमल को कमजोर बना देता है। नींबू में सिट्रस एसिड होता है जो दांतों की सबसे बाहरी परत को नुकसान पहुंचाता है। इसलिए बहुत ज़्यादा नींबू पानी का सेवन नहीं करना चाहिए।
  3. जिन लोगों को गैस या एसिडिटी की समस्या है उन्हें नींबू पानी नहीं पीना चाहिए, क्योंकि नींबू पानी पीने से पाचन क्रिया प्रभावित होती है और इससे एसिडिटी और गैस की समस्या और बढ़ सकती है।
  4. ज़्यादा नींबू पानी पीने से सीने में जलन की भी शिकायत हो सकती है। दरअसल, नींबू में मौजूद एसिड की वजह से ऐसा होता है। एसोफेगस और पेट जब सही तरीके से काम नहीं करता है और पेट से निकलने वाला एसिड वापस एसोफेगस में आ जाता है तो सीने में जलन होने लगती है ऐसे में आपको एसिड युक्त चीज़ों का सेवन नहीं करना चाहिए।
  5. नींबू पानी के ज़्यादा सेवन से माइग्रेन भी हो सकता है। जिन लोगों को अस्थमा की समस्या है यदि वो नींबू पानी का सेवन करते हैं तो उनकी समस्या और बढ़ सकती है।
  6. नींबू में विटामिन सी की भरपूर मात्रा होती है, लेकिन क्या आप जानते हैं कि यदि शरीर में ज़रूरत से ज़्यादा विटामिन सी हो जाए तो यह आयरन को भी ज़्यादा अवशोषण करती है और आयरन की अधिक मात्रा शरीर के लिए हानिकारक साबित होती है।
  7. बहुत ज़्यादा नींबू पानी पीने से हड्ड‍ियां कमजोर हो जाती हैं, क्योंकि नींबू में मौजूद एसिड का हड्डियों पर बुरा प्रभाव पड़ता है, इसलिए बेहतर होगा कि आप डॉक्टर से सलाह कर लें कि एक दिन में कितना नींबू पानी पीना चाहिए।
  8. यदि वज़न घटाने के लिए बहुत ज़्यादा ही गुनगुने पानी में नींबू मिलाकर पी रहे हैं तो आपको बार-बार पेशाब लगने की समस्या हो सकती है। बार-बार पेशाब जाने से शरीर में पानी की कमी हो जातती है। इतना ही नहीं नींबू-पानी के ज्यादा सेवन से पोटैशियम की कमी भी हो सकती है।


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भगवान परशुराम जयंती Bhagwan Parshuram Jayanti



महर्षि भृगु के पुत्र ऋचिक का विवाह राजा गाधि की पुत्री सत्यवती से हुआ था। विवाह के बाद सत्यवती ने अपने ससुर महर्षि भृगु से अपने व अपनी माता के लिए पुत्र की याचना की। तब महर्षि भृगु ने सत्यवती को दो फल दिए और कहा कि ऋतु स्नान के बाद तुम गूलर के वृक्ष का तथा तुम्हारी माता पीपल के वृक्ष का आलिंगन करने के बाद ये फल खा लेना। किंतु सत्यवती व उनकी मां ने भूलवश इस काम में गलती कर दी। यह बात महर्षि भृगु को पता चल गई। तब उन्होंने सत्यवती से कहा कि तूने गलत वृक्ष का आलिंगन किया है। इसलिए तेरा पुत्र ब्राह्मण होने पर भी क्षत्रिय गुणों वाला रहेगा और तेरी माता का पुत्र क्षत्रिय होने पर भी ब्राह्मणों की तरह आचरण करेगा। तब सत्यवती ने महर्षि भृगु से प्रार्थना की कि मेरा पुत्र क्षत्रिय गुणों वाला न हो भले ही मेरा पौत्र (पुत्र का पुत्र) ऐसा हो। महर्षि भृगु ने कहा कि ऐसा ही होगा। कुछ समय बाद जमदग्नि मुनि ने सत्यवती के गर्भ से जन्म लिया। इनका आचरण ऋषियों के समान ही था। इनका विवाह रेणुका से हुआ। मुनि जमदग्रि के चार पुत्र हुए। उनमें से परशुराम चौथे थे। इस प्रकार एक भूल के कारण भगवान परशुराम का स्वभाव क्षत्रियों के समान था।
राजा प्रसेनजित की पुत्री रेणुका और भृगुवंशीय जमदग्नि के पुत्र विष्णु के अवतार परशुराम शिव के परम भक्त थे। इन्हें शिव से विशेष परशु (कुल्हाड़ी) प्राप्त हुआ था। इनका नाम तो राम था किन्तु शंकर द्वारा प्रदत अमोघ परशु को सदैव धारण किए रहने के कारण ये परशुराम कहलाते थे। विष्णु के दस अवतारों में से छठा अवतार, जो वामन एवं रामचन्द्र के मध्य में हैं गिने जाते हैं। जमदग्नि के पुत्र होने के कारण ये जामदग्न्य भी कहे जाते हैं। इनका जन्म अक्षय तृतीय (वैशाख शुक्ल पक्ष तृतीय तिथि) को हुआ था। अतः इस दिन व्रत करने व उत्सव मनाने की प्रथा है। परम्परा के अनुसार इन्होंने क्षत्रियों का अनेक बार विनाश किया। क्षत्रियों के अहंकारपूर्ण दमन से विश्व को मुक्ति दिलाने के लिए इनका जन्म हुआ था।
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उनकी माता जल का कलश भरने के लिए नदी पर गई। वहां गंधर्व चित्ररथ अप्सराओं के साथ जलक्रीड़ा कर रहा था। उसे देखने में रेणुका इतनी तन्मय हो गई कि जल लाने में विलंब हो गया तथा यज्ञ का समय व्यतीत हो गया। उसकी मानसिक स्थिति समझकर जमदग्नि ने क्रोध के आवेश में बारी-बारी से अपने चारों बेटों को मां की हत्या करने का आदेश दिया। किन्तु परशुराम के अतिरिक्त कोई भी ऐसा करने के लिए तैयार नहीं हुआ। पिता के कहने से परशुराम ने माता का शीश काट डाला। पिता के प्रसन्न होने पर उन्होने परशुराम को वर मांगने को कहा तो उन्होंने चार वरदान मांगे। 1. माता पुनर्जीवित हो जाएं, 2. उन्हें मरने की स्मृति न रहे, 3. भाई चेतना युक्त हो जाएं और 4. मां परमायु हो। जमदग्नि ने उन्हें चारों वरदान दे दिए।
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दुर्वासा की भांति ये भी अपने क्रोधी स्वभाव के लिए विख्यात हैं । एक बार कार्तवीर्य ने परशुराम की अनुपस्थिति में आश्रम उजाड़ डाला था जिससे परशुराम ने क्रोधित हो उसकी सहस्त्र भुजाओं को काट डाला। कार्तवीर्य के सम्बन्धियों ने प्रतिशोध की भावना से परशुराम के पिता जमदग्नि का वध कर दिया। इस पर परशुराम ने 21 बार पृथ्वी को क्षत्रिय-विहीन कर दिया। अंत में पितरों की आकाशवाणी सुनकर उन्होंने क्षत्रियों से युद्ध करना छोड़कर तपस्या की ओर ध्यान लगाया।
रामावतार में श्री रामचन्द्र द्वारा शिव का धनुष तोड़ने पर ये क्रुद्ध होकर आए थे। इन्हेांने परीक्षा के लिए उनका धनुष श्री रामचन्द्र जी को दिया था। जब श्री रामचन्द्र जी ने धनुष चढ़ा दिया तो परशुराम समझ गए कि रामचंद्र विष्णु के अवतार हैं। इसलिए उनकी वन्दना करके वे तपस्या करने चले गए। परशुराम ने अपने जीवनकाल में अनेक यज्ञ किए। यज्ञ करने के लिए उन्होंने बत्तीस हाथ ऊँची सोने की वेदी बनवाई थी। महर्षि कश्यप ने दक्षिण में पृथ्वी सहित उस वेदी को ले लिया तथा फिर परशुराम से पृथ्वी छोड़कर चले जाने के लिए कहा। परशुराम ने समुद्र से पीछे हटकर गिरिश्रेष्ठ महेन्द्र पर निवास किया।
रामजी का पराक्रम सुनकर वे अयोध्या गए और राजा दशरथ ने उनके स्वागतार्थ रामचन्द्र को भेजा। उन्हें देखते ही परशुराम ने उनके पराक्रम की परीक्षा लेनी चाही। अतः उन्हें क्षत्रिय संहारक दिव्य धनुष की प्रत्यंचा चढ़ाने के लिए कहा। राम के ऐसा कर लेने पर उन्हें धनुष पर एक दिव्य बाण चढ़ाकर दिखाने के लिए कहा। राम ने वह बाण चढ़ाकर परशुराम के तेज पर छोड़ दिया। बाण उनके तेज को छीनकर पुनः राम के पास लौट आया। रामजी ने परशुराम को दिव्य दृष्टि दी। जिससे उन्होंने राम के यथार्थ स्वरूप के दर्शन किए। परशुराम एक वर्ष तक लज्ज्ति, तेजहीन तथा अभिमानशून्य होकर तपस्या में लगे रहे। तद्न्तर पितरों से प्रेरणा पाकर उन्होंने वधूसर नामक नदी के तीर्थ पर स्नान करके अपना तेज पुनः प्राप्त किया।
परशुराम कुंड नामक तीर्थस्नान में पांच कुंड बने हुए हैं। परशुराम ने समस्त क्षत्रियों का संहार करके उन कुंडों की स्थापना की थी तथा अपने पितरों से वर प्राप्त किया था कि क्षत्रिय संहार के पाप से मुक्त हो जाएंगे।
जानापाव पहाड़ी का संक्षिप्त परिचय एवं धार्मिक एवं पौराणिक महत्व
इस स्थल को जानापाव कहने के बारे में जनश्रुति है। परशुराम के पिता ऋषि जमदग्नि ने परशुराम को अपनी माँ का सिर काटने का आदेश दिया था। उन्होंने यह कार्य करके पिता को कहा कि अब मुझे माँ जीवित चाहिए। तब ऋषि ने अपने कमण्डल से जल छींटा तो माँ में वापस जान आ गई थी। इसलिए इसका नाम जानापाव यानी जान वापस आना पड़ा। इन्दौर जिले की महू तहसील से करीब 20 किलोमीटर की दूरी पर विन्ध्याचल पर्वत की श्रृंखला में धार्मिक एवं पौराणिक महत्व का स्थान जानापाव स्थित है। जानापाव में भगवान परशुराम जी के पिता महर्षि जमदग्नि ने जनकेश्वर शिवलिंग की स्थापना कर अत्यन्त कठोर तपस्या की थी। तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शिवजी ने महर्षि जमदग्नि को वरदान स्वरूप समस्त कामनाओं की पूर्ति करने वाली कामधेनू गाय प्रदान की थी।
वर्षों पूर्व जानापाव पहाड़ी ज्वालामुखी का उद्गम स्थल था। ज्वालामुखी के लावे से ही मालवा क्षेत्रा में काली मिट्टी का फैलाव हुआ था। वर्तमान में यह बिन्दुजल कुण्ड के रूप में विद्यमान है। नदियों का उद्गम स्थलः जानापाव पहाड़ी की मुख्य विशेषता यह है कि यहाँ से सात नदियों का उद्गम हुआ है। इनमें से तीन नदियाँ चोरल, गम्भीर एवं चम्बल मुख्य हैं। शेष चार सहायक नदियाँ नखेरी, अजनार, कारम और जामली हैं।
प्रति वर्ष अक्षय तृतीया को जानापाव में भगवान परशुराम जी का जन्मोत्सव बडे़ पैमाने पर मनाया जाता है। साथ ही एक मेले का भी आयोजन किया जाता है। प्रति वर्ष नवरात्रि एवं भूतड़ी अमावस्या को भी मेले का आयोजन किया जाता है। ऐसी मान्यता है कि भूतड़ी अमावस्या को जानापाव के कुण्ड में स्नान करने से भूतप्रेत बाधा एवं समस्त शारीरिक रोगों का नाश होता है। अतः इस मेले में देश, प्रदेश के समस्त श्रद्धालु बड़ी संख्या में भाग लेते हैं।

परशुराम और सहस्रबाहु की कथा
राम चरितमानस में आया है कि ‘सहसबाहु सम सो रिपु मोरा’ का कई बार उल्लेख आया है। महिष्मती नगर के राजा सहस्त्रार्जुन क्षत्रिय समाज के हैहय वंश के राजा कार्तवीर्य और रानी कौशिक के पुत्र थे। सहस्त्रार्जुन का वास्तविक नाम अर्जुन था। उन्होने दत्तत्राई को प्रसन्न करने के लिए घोर तपस्या की। दत्तत्राई उसकी तपस्या से प्रसन्न हुए और उसे वरदान मांगने को कहा तो उसने दत्तत्राई से एक हजार हाथों का आशीर्वाद प्राप्त किया। इसके बाद उसका नाम अर्जुन से सहस्त्रार्जुन पड़ा। इसे सहस्त्राबाहू और राजा कार्तवीर्य पुत्र होने के कारण कार्तेयवीर भी कहा जाता है।
कहा जाता है महिष्मती सम्राट सहस्त्रार्जुन अपने घमंड में चूर होकर धर्म की सभी सीमाओं को लांघ चुका था। उसके अत्याचार व अनाचार से जनता त्रस्त हो चुकी थी। वेद-पुराण और धार्मिक ग्रंथों को मिथ्या बताकर ब्राह्मण का अपमान करना, ऋषियों के आश्रम को नष्ट करना, उनका अकारण वध करना, निरीह प्रजा पर निरंतर अत्याचार करना, यहाँ तक की उसने अपने मनोरंजन के लिए मद में चूर होकर अबला स्त्रियों के सतीत्व को भी नष्ट करना शुरू कर दिया था।
एक बार सहस्त्रार्जुन अपनी पूरी सेना के साथ झाड-जंगलों से पार करता हुआ जमदग्नि ऋषि के आश्रम में विश्राम करने के लिए पहुंचा। महर्षि जमदग्रि ने सहस्त्रार्जुन को आश्रम का मेहमान समझकर स्वागत सत्कार में कोई कसर नहीं छोड़ी। कहते हैं ऋषि जमदग्रि के पास देवराज इन्द्र से प्राप्त दिव्य गुणों वाली कामधेनु नामक अदभुत गाय थी। महर्षि ने उस गाय के मदद से कुछ ही पलों में देखते ही देखते पूरी सेना के भोजन का प्रबंध कर दिया। कामधेनु के ऐसे विलक्षण गुणों को देखकर सहस्त्रार्जुन को ऋषि के आगे अपना राजसी सुख कम लगने लगा। उसके मन में ऐसी अद्भुत गाय को पाने की लालसा जागी। उसने ऋषि जमदग्नि से कामधेनु को मांगा। किंतु ऋषि जमदग्नि ने कामधेनु को आश्रम के प्रबंधन और जीवन के भरण-पोषण का एकमात्र जरिया बताकर कामधेनु को देने से इंकार कर दिया। इस पर सहस्त्रार्जुन ने क्रोधित होकर ऋषि जमदग्नि के आश्रम को उजाड़ दिया और कामधेनु को ले जाने लगा। तभी कामधेनु सहस्त्रार्जुन के हाथों से छूट कर स्वर्ग की ओर चली गई।
जब परशुराम अपने आश्रम पहुंचे तब उनकी माता रेणुका ने उन्हें सारी बातें विस्तारपूर्वक बताई। परशुराम माता-पिता के अपमान और आश्रम को तहस नहस देखकर आवेशित हो गए। पराक्रमी परशुराम ने उसी वक्त दुराचारी सहस्त्रार्जुन और उसकी सेना का नाश करने का संकल्प लिया। परशुराम अपने परशु अस्त्र को साथ लेकर सहस्त्रार्जुन के नगर महिष्मतिपुरी पहुंचे। जहां सहस्त्रार्जुन और परशुराम का युद्ध हुआ। किंतु परशुराम के प्रचण्ड बल के आगे सहस्त्रार्जुन बौना साबित हुआ। भगवान परशुराम ने दुष्ट सहस्त्रार्जुन की हजारों भुजाएं और धड़ परशु से काटकर कर उसका वध कर दिया। सहस्त्रार्जुन के वध के बाद पिता के आदेश से इस वध का प्रायश्चित करने के लिए परशुराम तीर्थ यात्रा पर चले गए। तब मौका पाकर सहस्त्रार्जुन के पुत्रों ने अपने सहयोगी क्षत्रियों की मदद से तपस्यारत महर्षि जमदग्रि का उनके ही आश्रम में सिर काटकर उनका वध कर दिया। सहस्त्रार्जुन पुत्रों ने आश्रम के सभी ऋषियों का वध करते हुए, आश्रम को जला डाला। माता रेणुका ने सहायतावश पुत्र परशुराम को विलाप स्वर में पुकारा। जब परशुराम माता की पुकार सुनकर आश्रम पहुंचे तो माता को विलाप करते देखा और माता के समीप ही पिता का कटा सिर और उनके शरीर पर 21 घाव देखे। यह देखकर परशुराम बहुत क्रोधित हुए और उन्होंने शपथ ली कि वह हैहय वंश का ही सर्वनाश नहीं कर देंगे बल्कि उसके सहयोगी समस्त क्षत्रिय वंशों का 21 बार संहार कर भूमि को क्षत्रिय विहीन कर देंगे। पुराणों में उल्लेख है कि भगवान परशुराम ने अपने इस संकल्प को पूरा भी किया। पुराणों में उल्लेख है कि भगवान परशुराम ने 21 बार पृथ्वी को क्षत्रिय विहीन करके उनके रक्त से समन्तपंचक क्षेत्र के पाँच सरोवर को भर कर अपने संकल्प को पूरा किया। कहा जाता है की महर्षि ऋचीक ने स्वयं प्रकट होकर भगवान परशुराम को ऐसा घोर कृत्य करने से रोक दिया था तब जाकर किसी तरह क्षत्रियों का विनाश भूलोक पर रुका। तत्पश्चात भगवान परशुराम ने अपने पितरों के श्राद्ध क्रिया की एवं उनके आज्ञानुसार अश्वमेध और विश्वजीत यज्ञ किया।

अपने शिष्य भीष्म को नहीं कर सके पराजित
महाभारत के अनुसार महाराज शांतनु के पुत्र भीष्म ने भगवान परशुराम से ही अस्त्र-शस्त्र की विद्या प्राप्त की थी। एक बार भीष्म काशी में हो रहे स्वयंवर से काशीराज की पुत्रियों अंबा, अंबिका और बालिका को अपने छोटे भाई विचित्रवीर्य के लिए उठा लाए थे। तब अंबा ने भीष्म को बताया कि वह मन ही मन किसी और का अपना पति मान चुकी है तब भीष्म ने उसे ससम्मान छोड़ दिया, लेकिन हरण कर लिए जाने पर उसने अंबा को अस्वीकार कर दिया.. तब अंबा भीष्म के गुरु परशुराम के पास पहुंची और उन्हें अपनी व्यथा सुनाई। अंबा की बात सुनकर भगवान परशुराम ने भीष्म को उससे विवाह करने के लिए कहा, लेकिन ब्रह्मचारी होने के कारण भीष्म ने ऐसा करने से इनकार कर दिया। तब परशुराम और भीष्म में भीषण युद्ध हुआ और अंत में अपने पितरों की बात मानकर भगवान परशुराम ने अपने अस्त्र रख दिए। इस प्रकार इस युद्ध में न किसी की हार हुई न किसी की जीत

वाल्मीकि रामायण के अनुसार श्री राम से परशुराम भगवान से कोई विवाद नहीं हुआ था
गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित श्री रामचरित मानस में वर्णन है कि भगवान श्रीराम ने सीता स्वयंवर में शिव धनुष उठाया और प्रत्यंचा चढ़ाते समय वह टूट गया। धनुष टूटने की आवाज सुनकर भगवान परशुराम भी वहां आ गए। अपने आराध्य शिव का धनुष टूटा हुआ देखकर वे बहुत क्रोधित हुए और वहां उनका श्री राम व लक्ष्मण से विवाद भी हुआ। जबकि वाल्मीकि रामायण के अनुसार सीता से विवाह के बाद जब श्री राम पुन: अयोध्या लौट रहे थे। तब परशुराम वहां आए और उन्होंने श्रीराम से अपने धनुष पर बाण चढ़ाने के लिए कहा। श्रीराम ने बाण धनुष पर चढ़ा कर छोड़ दिया। यह देखकर परशुराम को भगवान श्रीराम के वास्तविक स्वरूप का ज्ञान हो गया और वे वहां से चले गए।

भगवान परशुराम की फोटो
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