बाबा नागार्जुन की काव्य-यात्रा एवं काव्य-भूमि



नागार्जुन की काव्य-यात्रा
प्रख्यात कवि-कथाकार के रूप में चर्चित नागार्जुन का पूरा नाम श्री वैद्यनाथ मिश्र 'यात्री', 'नागार्जुन' है। 1911 ई0 की ज्येष्ठ पूर्णिमा को जन्मे नागार्जुन का मूल निवास स्थान तरौनी, जिला दरभंगा, बिहार है। परंपरागत प्राचीन पद्धति से संस्कृत की शिक्षा ग्रहण की। सुविख्यात प्रगतिशील कवि-कथाकार स्वभाव से आवेगशील लेकिन गंभीर भी थे। ये राजनीति और जनता के मुक्ति-संघर्षों में सक्रिय और रचनात्मक हिस्सेदारी के प्रति सजग थे। हिन्दी के अतिरिक्त मैथिली, संस्कृत और बँगला में भी आपने उपयोगी काव्य-रचना प्रस्तुत किया है। संस्कृत और मैथिली में ये 'यात्री' नाम से कविताएं लिखते थे।
कालिदास और नागार्जुन, दोनों महाकवि इस देश के अद्भुत घुमक्कड़ कवि हैं। तुंग हिमालय के कंधों पर छोटी-बड़ी कई झीलें देखकर दोनों यात्री कवियों ने निज के ही उन्माद गीत लिखें हैं। प्रकृति के कवि या तो जीवन से क्षेत्रन्यास ले लेते हैं या व्यक्तिवाद के हित में ललित लोकायतन बनाकर जन-जीवन से ही दूर हो जाते हैं। सोजे वतन के प्रेमचन्द और नागार्जुन, किसान भारतवर्ष के ऐसे अनूठे रचनाकार हैं जो व्यापक और ठोस दबी हुई दूब का रूपक बन चुके हैं। मैथिलि काव्य-संग्रह 'पत्रहीन नग्न गाछ' के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। हिन्दी कविता के लिए मध्य प्रदेश शासन द्वारा 'मैथिली शरण गुप्त' सम्मान और सम्पूर्ण साहित्य साधना के लिए उत्तर प्रदेश शासन द्वारा 'भारत-भारती' पुरस्कार एवं बिहार सरकार के शिखर सम्मान से सम्मानित किया गया।

नागार्जुन की कविताओं को पढ़-सुन कर कोई भी सहज की आजादी के आर-पार के भारतीय जन-इतिहास से परिचित हो सकता है। ये इस देश की मनुष्यों की सम्पूर्ण गतिविधि में शरीक रचनाएँ हैं। एक ऐसे रचनाकार की रचनाएँ जो हमेशा अपने समय, उस समय के बीच घटती राष्ट्रीय, सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक घटनाओं और हादसों के रू-ब-रू खड़ा है। उनकी नज़र से कोई चीज़ छूटती नहीं।

युगधारा- 'युगधारा' नागार्जुन जी का पहला काव्य संकलन है। 'निराला' जी की 'अनामिका' जिस तरह आधुनिक कविता का श्रेष्ठतम संकलन है, उसी तरह नागार्जुन जी की 'युगधारा' पक्षधर कविता का आधार निर्मित करने वाला विशिष्ट संकलन रहा है। निराला और नागार्जुन, दोनों किसान और नारी की मुक्ति की प्रगतिशील भूमिका पर जोर देने वाले महाकवि हैं। दोनों महाकवियों ने देश के 'तुच्छ से तुच्छ जन' की जीवनी पर कहानी, काव्य रूपक और गीत लिखे हैं। दोनों महाकवि कभी साधारण जनों से अहलाद नहीं हुए।

'प्रकाशचन्द्र गुप्त' ने 'युगधारा' संग्रह के संबंध में लिखा है कि-"नागार्जुन नई पीढ़ी के कवियों में अपना विशेष स्थान रखते हैं। 'नागार्जुन' और 'सुमन' के समान कवियों का विकास हिन्दी कविता के भविष्य का निर्णायक होगा। नागार्जुन दो शैलियों में कविता करते रहे हैं, एक शैली संस्कृत की पदावली से मोह रखती है, दूसरी में वह जन-गीतों की परंपरा अपनाते हैं। युगधारा में पहली श्रेणी की कविताएँ ही अधिक है, किन्तु दोनों शैलियों के बीच कोई सुस्पष्ट रेखा भी नहीं है।

यह कविताएँ काफी लोकप्रिय हो चुकी हैं। इन्हें एक स्थान पर एकत्र पाकर पाठक कृतज्ञ होंगे। नागार्जुन ने जन-ज्वाला को अपने काव्य का आभूषण बनाया है। उनकी रचनाएँ जन-संघर्षों को बल देती हैं। हमें आशा है कि इस संग्रह का हिन्दी में अभूतपूर्व स्वागत होगा, और नागार्जुन की वाणी की शक्ति दिन-दूनी रात चौगुनी बढ़ती। हिन्दी कविता और जनता की अभिलाषाओं-आकांक्षाओं दोनों के लिए यह शुभ होगा।"

'रवि ठाकुर' कविता में नागार्जुन, रवीन्द्रनाथ टैगोर से यह आशीष मांगते हैं: 'मन मेरा स्थिर हो। नहीं लौटूँ, चिर चलूँ, कैसा भी तिमिर हो। प्रलोभन में पड़कर बदलूँ नहीं रुख।' यही आज तक की प्रगतिशील कविता की उद्बोधन दृष्टि रही है। 'पक्षधर' कविता और 'युगधारा' आज की कविता का पर्यायवाची दस्तावेज बन चुका है। हिन्दी में युगधारा और नागार्जुन मानवीय इतिहास के आधार-स्तम्भ हैं। हिन्दी की जातीय चेतना, यूरोप, एशिया, अमरीका या अफ्रीका यानि तीसरी दुनिया की जनता के सर्वाधिकार की कविता है। नागार्जुन अपराजेय किसान कवि हैं। युगधारा उसी जनकवि का प्रथम संकलन है।

"इस संकलन में आई रचनाओं के सम्बन्ध में कुछ सूचनाएँ अति आवश्यक हैं- सन् 1943 तक कवि 'यात्री' नाम से लिखते रहें। 'रवि ठाकुर' और 'बादल को घिरते देखा है' रचना के साथ रचयिता का यही नाम छपा था। उसके बाद यात्री का नाम हम मैथिली-साहित्य में कवि और कथाकार के तौर पर अब भी पाते हैं। नागार्जुन का नाम हिन्दी जगत में और 'यात्री' का नाम मैथिली-जगत में प्रख्यात है-दोनों वास्तव में एक ही व्यक्ति की अभिधाएँ हैं।"

प्रत्यक्ष राजनीति की वामपक्षी प्रवृत्तियों ने नागार्जुन को जनसाधारण से संयुक्त कर दिया फिर वह आसान से आसान भाषा में लिखने लगे। फिर भी मुक्तवृक्त और अतुकान्त शैलियों को उन्होंने तिलांजलि नहीं दे दी। दोहा, चौपाई, रोला, छप्पय, नचारी, सोहर और पद्यबद्ध कथक शैली अभिव्यक्ति के लिए वह कोई भी लोकप्रिय छन्द अपनाने को तैयार रहते हैं। खेद की बात है कि इस प्रकार की कोई रचना इस संकलन में नहीं प्रकाशित है।

शोषित और पीड़ित वर्गों के प्रति कवि की सहानुभूति कृत्रिम नहीं है। नितांत दरिद्र कुल में जन्म हुआ। गरीबी के कारण स्कूल-कालेज का मुँह नहीं देखा। मूर्ख रह जाने की विभीशिका ने संस्कृत पढ़ने के विकल्प को स्वीकार करने के लिए बाध्य किया। आज भी आपका कोई निश्चित काम नहीं है। फिर फटीचरी ही मानो नागार्जुन की जीवन-सहचरी है। अपनी मैथिली रचनाओं के कुछ रूपान्तर वह इस संकलन में डालना चाहते थे, परन्तु पुस्तक का कलेवर ज्यादा न फूलाने का हमारा मनोभाव जानकर कवि इस ओर से निर्लिप्त हो गयें हैं। दूसरे संकलन में उनकी मैथिली रचनाओं का रूपान्तर पर्याप्त मात्रा में संकलित है।

इस संकलन की कोई भी रचना अप्रकाशित नहीं हैं, समय-समय पर पत्र-पत्रिकाओं ने इन्हें छापा है। इनमें से कुछ रचनाएँ बार-बार पूरी की पूरी उद्धृत की जाती रही है। (बादल को घिरते देखा है, रवि ठाकुर आदि); गांधी जी की हत्या के अगले ही रोज प्रकाशित 'तर्पण' को अठारह पत्र-पत्रिकाओं ने अपने आप छापा था, 'शपथ' को ग्यारह पत्र-पत्रिकाओं ने पूर्णतः या अंशतः छापा था। साम्प्रदायिकता के खिलाफ कवि की यह उद्दीप्त ललकार बिहार सरकार बर्दाश्त नहीं कर सकी थी। गांधी की मृत्यु के संबंध में नागार्जुन की चार रचनाएँ (तर्पण, मत क्षमा करो, गोडसे, शपथ) प्रकाशित हुई थी।

इस संग्रह की प्रारम्भिक कविता 'जन-वंदना' में उन्होंने आम जन-जीवन का गुणगान करते हुए यह उद्घोषित करना चाह रहे हैं कि जनता में असीम शक्तियां निवास करती हैं जिसे पहचानने की आवश्यकता है-
हे कोटिशीर्ष हे कोटिबाहु हे कोटिचरण!
युग की लक्ष्मी भव की विभूति कर रहीं तुम्हारा
स्वयं वरण
तुम महिमामंडित परंपराओं के वाहन
तुम साधारण तुम निर्विशेष। 
'भिक्षुणी' कविता में नारी जीवन के अन्तद्र्वन्द्व को बड़ी सहजता लेकिन मार्मिकता के साथ नागार्जुन ने प्रस्तुत किया है। बौद्ध धर्म के प्रभाव से परिपूर्ण इस कविता में उन्होंने तत्कालीन परिवेश और और महिलाओं की स्थिति का तार्किक वर्णन किया है। वे लिखते हैं-
"बैठ गई भिक्षुणी टेक कर घुटने
तीन बार उसने
सादर प्रणाम किया
झुक-झुक अमिताभ को
फिर उठ खड़ी हुई, चारों ओर देखा
हतप्रभ-सी, मानो शिशिर-शशिलेखा।"

इसी क्रम में आपकी 'पाषाणी' कविता का उल्लेख मिलता है, जहाँ महर्षि गौतम के श्राप से अभिशप्त उनकी पत्नी अहिल्या का कारुणिक वर्णन मिलता है-
"गौतम-दार, अहल्या मेरा नाम
यहीं-कहीं होंगे मुनि भी हे राम!
दिया उन्होंने मुझको यह अभिशापः
"परनर दूशित, पुंश्चली, तेरी देह,
हो जाये निस्पंद, कुलिश-पाशाण!"

नागार्जुन की कविता 'चन्दना' एक प्रकार की कथात्मक कविता का उदाहरण प्रस्तुत करती है। ऐतिहासिक पृष्ठभूमि, नारी की दयनीय स्थिति, नारी के उत्थान के प्रति प्रयास, सामान्य और संभ्रांत का भाव यही विशेषताएँ इस कविता को ऊपर उठाती हैं। बच्चों के खरीद-भरोख, दास-प्रथा, और बालश्रम जैसी कुप्रथाओं का चित्रण इस कविता में सर्वत्र देखने को मिलता है। यहाँ एक अन्य समस्या भी दृष्टिगत है कि महिलाएँ ही महिलाओं की सबसे बड़ी शत्रु शाबित होती हैं। चन्दना के पालन-पोशण को लेकर धनावह सेठ बड़े उत्साहित और आशावान हैं, उसे अपनी पुत्री सदृश देखते हैं, लेकिन सेठानी को इसमें छल और भावी आशंका दिखाई देती है-
"ऊँट का आरोही
ले गया लड़की को
हाट में बेचने
सबल स्वस्थ सुन्दर फुर्तीले स्वामिभक्त
बिकते थे जहाँ हजारों दास-दासीजन
सुस्मित प्रिय-दर्शन
आठ-नौ बरस की
कुमारी बसुमति
देखते ही उसको तत्क्षण खरीद लिया
धनावह सेठ ने मुँह माँगे दाम पर
ले जाकर घर में सेठानी को सौंप दिया।"
खिचड़ी विप्लव देखा हमने- प्रस्तुत संग्रह में उनकी आठवें दशक में लिखी कविताएँ संकलित हैं। यह आठवाँ दशक हमारे देश के इतिहास में व्यापक हलचलों, आन्दोलनों, टकरावों, सत्ता-परिवर्तनों, दमन और जुर्म और उनके प्रतिरोधों के महत्त्वपूर्ण साल रहें हैं। इस सबका नागार्जुन से बेहतर गवाह कौन हो सकता है क्योंकि वे स्वयं इस सबके बीच रहे। इन कविताओं में यह सम्पूर्ण इतिहास एक नए रचनात्मक तेवर में मूर्त हुआ है। ये कविताएँ स्वयं में भारतीय जन-मन में हो रही सुगबुगाहट का दस्तावेज भी हैं तो आन्दोलन की ललकार भी, संघर्ष के बीच की लय और ताल भी हैं तो स्थापित व्यवस्था पर आक्रमण भी और साथ ही विकल्प में उभरती राजनीति से मोहभंग भी। लेकिन इस सबसे बड़ी और महत्त्वपूर्ण जो बात है वह यह कि ये कविताएँ आम शोषित-पीड़ित-उपेक्षित जन-गण के पक्ष में लिखी गई हैं- वस्तु और रूप सब कुछ का चुनाव उसी के तहत हुआ है। 
 "नागार्जुन संपूर्ण क्रांति में शामिल हुए- जयप्रकाश नारायण और रेणु के साथ, लालू यादव से उनकी प्रगाढ़ता उसी समय हुई होगी। आपातकाल में जेल गये। फिर छूट आये। संपूर्ण क्रांति से मोहभंग हुआ। मोहभंग क्यों हुआ, संपूर्ण क्रांति के समर्थक दलों का वर्ग-चरित्र क्या था? इस सबका प्रभाव नागार्जुन पर जेल में पड़ा होगा। उस दौर में लिखी कविताओं के संकलन का नाम है-खिचड़ी विप्लव।" 
 इस संग्रह की एक प्रसिद्ध कविता 'जयप्रकाश पर पड़ी लाठियाँ लोकतंत्र की' उस समय के समाजवादी नेता जयप्रकाश नारायण पर केन्द्रित है जिसमें कवि ने बड़ी बेबाकी से तत्कालीन परिस्थितियों का यथार्थ वर्णन किया है-
एक और गांधी की हत्या होगी अब क्या?
बर्बरता के भोग चढे़गा योगी अब क्या?
पोल खुल गयी शासक दल के महामंत्र की!
जयप्रकाश पर पड़ी लाठियाँ लोकतन्त्र की!
नागार्जुन के व्यक्तित्व और कृतित्व पर प्रकाश डालते हुए विश्वनाथ त्रिपाठी जी कहते हैं-"नागार्जुन का कृतित्व ही नहीं उनका व्यक्तित्व भी कालजयी है। नागार्जुन बुजुर्गों के साथ बुजुर्ग, जवानों के साथ जवान और बच्चों के साथ बच्चे हैं। जिन लोगों ने उन्हें महिलाओं के साथ घुल-मिलकर बातें करते देखा है वे लिस्ट को और आगे बढ़ायेंगे। अपनी एक कविता में वह कालिदास से जवाब-तलब करते हैं-'कालिदास सच-सच बतलाना....' उनका जीवन अनुभव व्यापक है। कबीरदास की भाँति वह अनेक परस्पर विरोधी प्रवृतियों के समुच्चय हैं। जीवन के प्रति गहरी आसक्ति है। तीव्र सौन्दर्यानुभूति के रचनाकार हैं और इसीलिए गहरी घृणा और तिलमिला देने वाले व्यंग्य के सहज कवि। यह सहजता जटिल अंतर्वस्तु का रूप है।" 
 नागार्जुन की कविता उस तीन-चैथाई हिन्दुस्तान से संबंधित है जो राष्ट्रीय उत्पादन और विकास की रीढ़ कहा जा सकता है। पर इस देश में कुछ लोग ऐसे हैं जो पूँजी के बल पर सारे राष्ट्र के भविष्य और वर्तमान पर कुण्डली मार कर बैठ गए हैं। 'धन कुबेरों' की यह जमात भी नागार्जुन की कविताओं में अक्सर दिखाई दे जाती है। इन्हीं की बदौलत समाज में तिकड़म, शोषण, भ्रष्टाचार और प्रदर्शन का नंगा नाच होता है। धर्म और राजनीति इन्हीं के घर दूल्हा-दुल्हन की तरह ब्याहे जाते हैं। विदिशा लायंस क्लब में उदास मन से कविता-पाठ के लिए जाते हुए रास्ते में बाबा ने कहा था-"जानते हो यह लायंस, रोटरी क्लबें क्या हैं? समाज-सेवा तो सिर्फ बहाना मात्र है। वस्तुतः यह धनपतियों और सरकारी अफसरों के विवाह-मण्डप हैं। विदेशों की चमक-दमक दिखाने के झरोखें हैं।" 
"नागार्जुन की कविता का प्रथम संसार यही है। गाँव-देश की धरती, वातावरण, पेड़-पौधे, रीति-रिवाज, बोल-चाल सबसे उनका निकट का रिश्ता है। यात्री होने के बावजूद वे सबको याद रखते हैं। बाहर से जितने बौने और क्षीण से दिखते हैं भीतर से उतने ही ऊँचे और भाव-सम्पन्न हैं। उनकी ऊँचाइयाँ देखनी हो तो उन्हें कविता के बीच पाना होगा। कविता ऊध्र्वगामी है। उसे साधारण चित्त की यात्रा नहीं कहा जा सकता। इस उदारता में सारी धरती समा जाती है। छायावादी कविता अपनी ऊँचाइयों पर पहुँचते ही दिव्य हो जाती है। नागार्जुन की कविता फिर भी पार्थिव बनी रहती है। वह घनघोर लोकधर्मी है। लोक के प्रति उनकी निश्ठा इतनी प्रखर है कि कला और कलागत सौन्दर्य की दुनिया भी कभी-कभी पीछे छूट जाती है।" 
 नागार्जुन की कविता जहाँ भी इन धनकुबेरों को देखती हैं, फट पड़ती हैं। उनका उपहास करती हैं, उन पर फब्तियाँ कसती हैं। 'यह उन्मत्त प्रदर्शन', 'पैसा चहक रहा है', 'बोला ढाकुरिया का पानी', 'प्लीज एक्सक्यूज मी' और 'करने आए हैं चहल-कदमी' जैसी कविताएँ इसी वैभव-संसार के रंग-ढंग, रीति-नीति और जीवन-शैली का उद्घाटन करती हैं। 
 मैथिली में भी नागार्जुन की कविताओं का 'टोन' वही है जो हिन्दी में। उन दिनों देश आजाद हो चुका था और नेताओं के चरित्र भी खुलने लगे थे। सेठ-साहुकारों, महाजनों की बन आयी थी। बड़े-बड़े देशी उद्योगपति और धन्नासेठ दोनों हाथों अपना घर भरने में लग गये थे। 'रामराज' कविता में कवि ने लिखा-
"रामजाज में अबकी रावण नंगा होकर नाचा है
सूरत शक्ल वही है भैय्या बदला केवल ढाँचा है
नेताओं की नीयत बदली फिर तो अपने ही हाथों
धरती माता के गालों पर कस कर पड़ा तमाचा है।"
सन् 1951 में कुछ दिनों के लिए नागार्जुन ने वर्धा की 'राष्ट्रभाषा प्रचार समिति' में भी काम किया और अपनी आदत के मुताबिक जल्दी ही वापस लौट आए। इलाहाबाद में रहकर स्वतंत्र रूप से अनुवाद और लेखन कार्य की कोशिश की। इस बीच नागार्जुन उपन्यासों पर भी हाथ आजमाने लगे थे। 'बलचनमा' पहले मैथिली में लिख डाला था पर वहाँ उसका कोई बाजार नहीं था। सो बरसों तक धरा रहा। धीरे-धीरे कवि ने खुद उसे हिन्दी में लिखा यह सोचते हुए कि "मैथिली माँ है, मगर उससे पेट नहीं भरता। हिन्दी पेट भरता है, इसीलिए उसे अपना कलेजा नोचकर चढ़ा देता हूँ।" 
इन्हीं दिनों नागार्जुन ने काफी बाल साहित्य लिखा और गुजराती-बंगला उपन्यासों के अनुवाद की ओर बढ़े। संस्कृत के 'मेघदूत' का अनुवाद मुक्त वृत्त में किया जो धारावाहिक रूप से साप्ताहिक हिन्दुस्तान में छपा। गीत-गोविन्द का अनुवाद किया। शरदचन्द के उपन्यासों में ब्राह्मण की बेटी, देहाती दुनिया और अन्य कई कृतियों का अनुवाद कार्य किया। 
 
नागार्जुन की काव्य-भूमि 
नागार्जुन का लेखन श्रमिक जनता की ओर से किया गया वह अश्वमेघ है जिसमें जड़ पुरातनता और वृद्ध जर्जर सामन्तवाद को आहुति दी जाकर जनवादी चेतना की दिग्विजय की घोषणा की गई है। गरीब ब्राह्मण परिवार का यह औघड़ शब्दकर्मी 'ब्रह्मपिचाश' की तरह न अपनी आत्मचेतन विशिष्टता की उधेड़बुन में पड़ा है, न ही अपने को अद्वितीय और असाधारण मानते हुए पंक्ति-समर्पण की कृपालु मुद्रा ही अपना रहा है। टेलीप्रिंटर की तरह जो जनता के मनोभावों के प्रत्येक क्षण को टंकित करता रहा, जिसने अपनी व्यक्ति पीड़ा को छिपाए रखा और लोक के सुख-दुख को ही परम सत्य समझा, उसी का नाम नागार्जुन है।
लोक की पीड़ा और सामाजिक क्षोभ ही उसके लेखन के प्रधान अनुभव हैं। पीड़ित मानवता को शोषण और अनाचार के खिलाफ खड़ी करके वह एक प्रतिरोधक मोर्चाबंदी करता है। नकली समाजवाद और छद्म वामपंथ के उस वातावरण में वह ऐसा कैसे कर सका इसका सबसे बड़ा कारण उसका भारतीय जनता से गहरा सम्पर्क है। सारे प्रगतिशीलों में जो कवि भारतीय जनता के चूल्हे-चैके तक पहुँचा हुआ है वह वही है। उसको पढ़ते हुए हम अपनी जनता के सीधे सम्पर्क में आते हैं। उसकी सारी जानकारी कानों सुनी नहीं आँखों देखी है। प्रतीक, उपमान और मुहावरे तक जनता से लिए गये हैं। वह किताबों के जरिये जनता को नहीं जानता। जनता के बीच रहकर अपने शब्द की परीक्षा करता है।
साहित्य और राजनीति की मोटी-मोटी किताबें पढ़कर जो लोग प्रगतिशीलता की तलाश यहाँ करेंगे उन्हें कोफ्त भी होगी और निराशा भी। किन्तु जो ठेठ जीवन-शैली की खोज करते हुए इधर आएँगें। उनके हाथ बहुत कुछ लगेगा। वे यहाँ उत्साह और उमंग से परिपूर्ण संघर्ष भी पा सकेंगे और चाँदनी रातों को आम के बगीचों में होने वाला स्वस्थ्य अभिसार भी। प्रगतिशीलता अगर सिर्फ राजनीतिक दृष्टि नहीं है तो उसकी सर्वतोमुखी प्रतिष्ठा का साहित्य नागार्जुन जैसे विज्ञ लोग ही लिख सकें हैं।
प्रकृति, नारी, सौन्दर्य, यौवन और प्रणय के अनुभव भी यहाँ हमें मिलते हैं। पर इसे पढ़ते हुए हमारी दृष्टि लोलुपता के अंजन से अंजित होने के बजाय स्वस्थ रस-बोध से तृप्त हो उठेंगी। सौन्दर्य की एक समग्रदर्शी कवि भावना हमारी चेतना को क्षुद्र आकर्षणों से ऊपर उठाकर भारतीय सौन्दर्य बोध के उन उच्चतम शिखरों की ओर ले जाएँगी जहाँ रूप की ऊपरी पर्त गुण और स्वभाव की गहरी और बारीक छननी में छनकर सहज संतुलित और मर्यादित हो उठती हैं।
नागार्जुन नये और पुराने समस्त प्रगतिशीलों में सबसे अधिक संवेदनशील लोकोन्मुख कवि रहे हैं। भारतीय आबादी के जितने स्तरों और रूपों का पता उन्हें है, उतना इस युग में शायद किसी दूसरे को नहीं। दरिद्र किन्तु ब्राह्मण परिवार के सदस्य होने के नाते अपने युग के सामंतों जागीरदारों से लेकर मध्य जातियों और गरीबी की रेखा को परिभाषित करने वाली जातियों के संपर्क की भी सुविधा उन्हें मिली। काशी की विद्वान मंडली, पंडे-पुरोहितों ने उन्हें इसलिए आत्मीयता दी कि वे दरभंगा के मैथिल पं. वैद्यनाथ मिश्र हैं और परम्परागत अर्थों में साहित्याचार्य भी। इसी काशी में नागार्जुन गरीब छात्रों, विधवाओं और उन रिक्शा-इक्का वालों के भी संपर्क में आए जो सामंती और पूंजीवादी समाज की व्यवस्था के शिकार रहें है।
यात्री एवं साहित्यकार और सबसे बड़ी बात की एक संवेदनशील रचनाकार के नाते भी नागार्जुन का एक पाँव कस्बों में ही रहा है तथा दूसरा महानगरों में। महानगर उन्हें लुभा नहीं पाता और कस्बा उन्हें निराश नहीं करता। महानगरों में वे कनाट प्लेस और चैरंगी के बजाय उन सीलन भरी बस्तियों में रहते थे, जहाँ आज छोटे-मोटे दुकानदार, ट्यूशनिस्ट अध्यापक, विज्ञापन की खोज में आती-जाती रोजगार खोजती युवतियाँ, कल-कारखानों में काम करने वाला मजदूर, आफिस में माथापच्ची करने वाले बाबू रहा करते थे। नागार्जुन यहाँ एक सदस्य की हैसियत से आते-जाते रहते थे। पटना, इलाहाबाद, 'सागर', विदिशा या तरौनी गाँव या फिर केदारनाथ अग्रवाल का बाँदा, सब उनके आकर्षण के केन्द्र रहें हैं। घुमंतू स्वभाव ही उन्हें श्रीलंका और तिब्बत भी ले गया। वहीं उन्हें एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति तक, एक अनुभव से दूसरे अनुभव तक भी ले जाती हैं। इसीलिए जन-जीवन की जितनी पकड़ नागार्जुन को है, उतनी केदारनाथ और त्रिलोचन को भी नहीं।
शोषित और पीड़ित वर्गों के प्रति कवि की सहानुभूति कृतिम नहीं है। नितांत दरिद्र कुल में जन्म हुआ। गरीबी के कारण स्कूल-कालेज का मुँह नहीं देखा। मूर्ख रह जाने की विभीशिका ने संस्कृत पढ़ने के विकल्प को स्वीकार करने के लिए बाध्य किया। आज भी आपका कोई निश्चित काम नहीं है। फिर फटीचरी ही मानो नागार्जुन की जीवन-सहचरी है। अपनी मैथिली रचनाओं के कुछ रूपान्तर वह इस संकलन में डालना चाहते थे, परन्तु पुस्तक का कलेवर ज्यादा न फूलाने का हमारा मनोभाव जानकर कवि इस ओर से निर्लिप्त हो गयें हैं। दूसरे संकलन में उनकी मैथिली रचनाओं का रूपान्तर पर्याप्त मात्रा में संकलित है।
नागार्जुन के व्यक्तित्व और कृतित्व पर प्रकाश डालते हुए विश्वनाथ त्रिपाठी जी कहते हैं ''नागार्जुन का कृतित्व ही नहीं उनका व्यक्तित्व भी कालजयी है। नागार्जुन बुजुर्गों के साथ बुजुर्ग, जवानों के साथ जवान और बच्चों के साथ बच्चे हैं। जिन लोगों ने उन्हें महिलाओं के साथ घुल-मिलकर बातें करते देखा है वे लिस्ट को और आगे बढ़ायेंगे। अपनी एक कविता में वह कालिदास से जवाब-तलब करते हैं-'कालिदास सच-सच बतलाना....' उनका जीवन अनुभव व्यापक है। कबीरदास की भाँति वह अनेक परस्पर विरोधी प्रवृतियों के समुच्चय हैं। जीवन के प्रति गहरी आसक्ति है। तीव्र सौन्दर्यानुभूति के रचनाकार हैं और इसीलिए गहरी घृणा और तिलमिला देने वाले व्यंग्य के सहज कवि। यह सहजता जटिल अंतर्वस्तु का रूप है।''
नागार्जुन एवं उनकी कविता के संबंध में डा. रामस्वरूप चतुर्वेदी जी ने अपने 'हिन्दी साहित्य और संवेदना का विकास' में लिखते हैं-''प्रगतिवादी कवियों में नागार्जुन बहुचर्चित हैं। स्वाधीनता संग्राम के दिनों में जैसे अनेक प्रकार के राष्ट्रगान, प्रभाती और उद्बोधन-गीत मुखर शैली में लिखे गए थे वैसे ही स्वतंत्र भारत के विविध आंदोलनो के लिए गीत और कविताएँ नागार्जुन ने लिखी हैं। उन गानों में निष्ठा अधिक थी, इन कविताओं में व्यंग्य अधिक है जो सटीक तुकों के प्रयोग से और पैना हो जाता है। आंदोलनो के वैविध्य और बदलते स्वरूप से कवि की आस्था में भी परिवर्तन आते गए हैं-गांधी, माक्र्स, विनोबा, जयप्रकाश अलग-अलग समयों में कवि के नायक रहें। इन आंदोलन मूलक कविताओं के अतिरिक्त सामान्य जन-जीवन को अंकित करने वाली कुछ कोमल और कुछ तीखी रचनाएँ भी नागार्जुन ने लिखी हैं, जो एक प्रकार से आधुनिक हिन्दी कविता में प्रगतिवाद का रेखांकन माना जा सकता है।''
नागार्जुन की कविताओं को पढ़-सुन कर कोई भी सहज की आजादी के आर-पार के भारतीय जन-इतिहास से परिचित हो सकता है। ये इस देश की मनुष्यों की सम्पूर्ण गतिविधि में शरीक रचनाएँ हैं। एक ऐसे रचनाकार की रचनाएँ जो हमेशा अपने समय, उस समय के बीच घटती सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक घटनाओं और हादसों के रू-ब-रू खड़ा है। उनकी नजर से कोई चीज़ छूटती नहीं।
नागार्जुन मुकम्मिल कवि हैं, जीवन की समग्रता के कवि, बेहद गहरे राग के कवि हैं। आदमी और आदमीयत की उच्चतर भावनाओं के चितेरे। भाषा और रचना-शिल्प के वैविध्य में भी नागार्जुन की कविता मानक कविता है। इतनी जीवंत, अनेकरूपा, व्यंजक भाषा, छंदों की जितनी समृद्ध दुनिया उनके काव्यलोक में है, अन्यत्र कम ही मिलेगी। आधुनिक कवियों में एक निराला ही नागार्जुन की कवि प्रतिभा के बरक्स अपनी छाप मन पर छोड़ते हैं। जनकवि तो वे हैं ही-जनधर्मिता की मिसाल है उनकी कविता।


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निबंध जी- 4 देश



जी- 4 चार राज्यों भारत, जर्मनी, जापान, तथा ब्राजील का संगठन है। यह एक मात्र उद्देश्य के लिए बनाया गया है और यह उद्देश्य है - संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद् में चारों राज्यों द्वारा स्थायी स्थान प्राप्त करना इस उद्देश्य की प्राप्ति हेतु चारों राज्यों ने अपनी घोषणा द्वारा एक दूसरे देशों के इस दावेदारी का समर्थन किया है। यह संगठन 2004 में आस्तित्व में आया। जी-4 के देशों ने सुरक्षा परिषद् में स्थायी सीट की औपचारिक रुप से दावेदारी संयुक्त राज्य के महासभा के 59वे सत्र के आरम्भ में 22 सितम्बर 2004 को संयुक्त रुप में पेश की। इस दावेदारी को पेश करते हुए इन देशों ने संयुक्त रुप से यह कहा कि अब संयुक्त राष्ट्र संघ की निर्णय प्रक्रिया को अधिक पारदर्शी तथा प्रतिनिधित्वपूर्ण बनाने का समय आ गया है। पिछले 50 वर्षों में दुनिया में आए बदलावों के कारण वर्तमान चुनौतियों और खतरों से निपटने हेतु संयुक्त राष्ट्र संघ में बुनियादी परिवर्तन आवश्यक है। 1945 के बाद से अब तक संयुक्त राष्ट्र में चार गुना सदस्यता वृद्धि हुई है, अतः सुरक्षा परिषद् में भी अस्थायी और स्थायी सदस्य बढ़ाए जाने चाहिए।
निबंध जी- 4 देश

24 अक्टूबर 1945 के समय संयुक्त राष्ट्र का उद्भव महज 51 राज्यों के साथ हुआ था, जबकि आज यह सदस्य संख्या बढ़कर 193 तक जा पहुँची है। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् में भी अस्थायी सदस्य 1965 में 6 से बढ़ाकर 10 कर दिया गया था। संयुक्त राष्ट्र के स्थायी सदस्य देश संयुक्त राज्य अमेरिका, सोवियत संघ, चीन, फ्रांस तथा ब्रिटेन उस समय की महान शक्तियां थी। वही तकनीकी, अर्थव्यवस्था एवं अर्थव्यवस्था के आकार के रुप में भारत एवं ब्राजील भी विश्व में महत्वपूर्ण स्थान रखते है। आज इन देशों की मांग एवं मान्यता यही है कि उन्हें सुरक्षा परिषद् का स्थायी हिस्सा बनाकर ही संयुक्त राष्ट्र संघ की भूमिका वास्तविक एवं लोकतान्त्रिक आधार ले सकती है। जी-4 के सदस्य देश इस बात के लिए कृत संकल्प है कि उन्हें आज की विश्व व्यवस्था में अनुकूल एवं सम्मान जनक स्थान मिले।

जी-4 के द्वारा किये जा रहे प्रयासों में विभिन्न समस्याएं उभर कर सामने आयी है। राष्ट्रों की प्रतिस्पर्धा, आपसी तनावपूर्ण संबंध जी-4 के देशों की स्थायी सदस्यता के मार्ग में सबसे बडी़ बाधा है। जहाँ चीन, जापान की सदस्यता के खिलाफ है, वही इटली जर्मनी की सदस्यता के, पाकिस्तान भारत के सदस्यता के और अर्जेंटीना एवं अन्य अमेरिकी देश ब्राजील के सदस्यता के विरोध में उठ खड़े हुए हैं। अमेरिका एवं चीन इन राज्यों की स्थायी सदस्यता के पक्ष में नहीं है।


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कोरोना वायरस से न घबराएं, दिखाएं समझदारी, बरतें सावधानी



कोरोना वायरस के संबध में एहतियाती कदम ही सबसे बड़ा बचाव साबित हो सकता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) की एडवाइजरी के मुताबिक रोजमर्रा के जीवन में हम अगर हम छोटे-छोटे काम करते हैं, तो संक्रमण का खतरा काफी कम हो जाएगा।
  1. अक्सर हम अपनी नाक, मुंह और आंखों को बार-बार छूते रहते हैं, ऐसा न करें। हथेलियां कई सतहों को छूती हैं। ऐसे में उस पर वायरस होते हैं। दूषित हथेली से वायरस नाक, मुंह या आंखों के जरिए शरीर में जा सकता है।
  2. अगर आपको अस्पताल में रुकना पड़ रहा है तो कोशिश करें कि अपने खाने में दही का इस्तेमाल करें। दही में एसीडोफिलस नाम का बैक्टीरिया होता है जो कई तरह के वायरस को खत्म कर देता है।
  3. अगर आपको खांसी या जुकाम है, तो मास्क जरूर पहनें। बाहर निकलते वक्त आपके जरिए वायरस दूसरों में संक्रमित हो सकता है, इसलिए खास ख्याल रखें।
  4. अगर आपको बुखार, खांसी है या सांस लेने में परेशानी हो रही है तो तुरंत डॉक्टर से मिलें, कोशिश करें कि घर पर ही रहें। डॉक्टर से तुरंत संपर्क करने से बीमारी को शुरुआत में ही पकड़ा जा सकता है।
  5. अपने आसपास और घर की सफाई रखें। कपड़ों को अच्छी तरह से धोएं और कम से कम दो घंटे धूप में सुखाएं।
  6. अपने आसपास के लोगों के साथ कम से कम 3 फीट का फासला बनाए रखने की कोशिश करें, खासतौर से उस व्यक्ति से जिसे खांसी या जुकाम हो। जब कोई व्यक्ति खांसता है या छींकता है, तो हवा में वायरस फैल जाते हैं। अगर आप ज्यादा करीब रहेंगे तो सांस के रास्ते ये वायरस आपके शरीर में जा सकता है।
  7. अपने स्मार्टफोन को हफ्ते में एक बार डिसइंफेटिंग वाइप्स से साफ जरूर करें, ये वाइप्स फोन में ऊपरी भाग में रहने वाले सभी कीटाणुओं को खत्म कर देते हैं। हमारे हाथ में 24 घंटे रहने वाले स्मार्टफोन की स्क्रीन वायरस का बड़ा अड्डा है। स्क्रीन पर मेथिसिलिन रसिस्टेंट स्टेफाय्लोकोक्स औरीयास (एमआरएसए) नाम के जीवाणु होते हैं।
  8. अपने हाथों को कम से कम 20 सेकंड तक रगड़कर साबुन से धोएं।
  9. आइसक्रीम, कोल्डड्रिंक, बर्फ, बाजार की लस्सी, ठंडी छाछ और अन्य ठंडी वस्तुओं के सेवन से बचें।
  10. इस वायरस का आकार 400-500 माइक्रोन का है जो अन्य वायरस से बड़ा है।
  11. इस वायरस से बचाव के लिए मास्क का इस्तेमाल करें।
  12. कपूर, लौंग, इलाइची और जावित्री को पीसकर अपने साथ रखें और समय-समय पर उसे सूंघते रहें।
  13. कोरोनावायरस संक्रमित व्यक्ति से दूरी बनाकर रखें।
  14. गंदे हाथों से अपनी नाक और मुंह को न छुएं और न ही गंदे हाथों से कुछ खाएं।
  15. गर्म स्थान पर रहें क्योंकि यह वायरस 27 डिग्री तापमान पर मर जाता है।
  16. छींकते या खांसते वक्त नाक और मुंह को टिशू से ढंक लें और तुरंत बाद इस टिशू को डस्टबीन में फेंक दें। छींकने से निकलने वाले तरल पदार्थ में ढेरों वायरस होते हैं और ये तेजी से फैल सकते हैं।
  17. दिन में कई बार नियमित तौर पर साबुन और पानी से हाथ को कम से कम 20 सेकेंड तक धोएं, बैक्टीरिया मारने वाला अच्छा सेनेटाइजर का भी उपयोग कर सकते हैं। ऐसा करने से हाथों पर रहने वाले वायरस से छुटकारा मिल जाएगा।
  18. नमक के गर्म/गुनगुने पानी से गरारे करें, इससे वायरस फेफड़ों तक नही पहुंच पाएगा।
  19. प्रतिदिन प्राणायाम और सूर्यनमस्कार करें। इससे श्ववसन तंत्र और फेफड़े मजबूत होंगे।
  20. फ्रीज में रखी ठंडी वस्तुओं का सेवन बिल्कुल न करें।
  21. बाजार में मिलने वाले दूध से बने उत्पाद जैसे चीज, बटर, मायोनीज का सेवन न करें।
  22. बाथरूम की सफाई के वक्त शावर को जरूर साफ करें, इसे डिटॉल के पानी से धो सकते हैं। प्लास्टिक के पर्दों का प्रयोग बाथरूम में न करें। शॉवर में मैथालॉबेक्टर समेत कई कीटाणु पनपते हैं।
  23. यह वायरस धातु की सतह पर 12 घंटे, कपड़ों पर 9 घंटे, और हमारे हाथों तथा शरीर पर 10 मिनट तक जीवित रहता है।
  24. यह वायरस, खांसी, छींक, श्वास और छूने से एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में फैलता है।
  25. रोजाना तुलसी, लौंग, अदरक और हल्दी का गर्म दूध पिएं।
  26. लोगों से हाथ न मिलाएं और गले भी न मिलें। 5 फीट की दूरी से बात करें।
  27. विटामिन-सी युक्त फलों जैसे संतरे, मौसमी और आंवला खाएं। नींबू का इस्तेमाल भी जरूर करें।
  28. विमान में क्रू सदस्यों के हाथ से खाने का सामान लेने से पहले अपने हाथ को अच्छे से साफ कर लें, हवाई यात्रा में क्रू सदस्यों से कोरोनावायरस के फैलने का डर सबसे ज्यादा है।
  29. शाकाहारी और हमेशा ताजा भोजन खाएं। मांसाहार के सेवन से बचें।
  30. सर्दी, खांसी, कफ, बुखार होने वाले व्यक्ति को डॉक्टर के पास तुरंत जाने की सलाह दें।
  31. सार्वजनिक स्थलों और भीड़भाड़ वाले स्थानों पर जाने से बचें।
  32. हर 15 मिनट में कम से कम एक घूंट गुनगुना पानी पीते रहें।


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अस्थमा की समस्या को जड़ से खत्म करते हैं घरेलू उपचार



अस्थमा आजकल एक आम बीमारी होती जा रही हैं परन्तु ये काफी गंभीर स्वास्थ्य समस्या है। आज कल यह बच्चों काफी देखने को मिल रही है। जिस तरह से वातावरणीय प्रदूषण बदल रहा है, खान-पान में मिलावट आदि के चलते अस्थमा के मरीजों की संख्या में वृद्धि हो रही हैं। आजकल ये बीमारी बच्चों में अधिक फैल रही है।


अस्थमा क्या है?
अस्थमा को दमा भी कहते है यह श्वसन तंत्र या फेफड़ों से सम्बंधित बीमारी है। इसमें सांस की नली ब्लॉक या पतली हो जाती हैं जिसके कारण सांस लेना मुश्किल हो जाता है। इसके कारण छोटी-छोटी सांस लेनी पड़ती है, छाती में कसाव जैसा महसूस होता है, सांस फूलने लगता है, खाँसी आती है आदि। ये समस्या जुखाम, कोल्ड कफ के दौरान अधिक हो जाती है क्योंकि कफ से सांस की नली और संकरी हो जाती है। सुबह या रात में अकसर खाँसी का दौरा पड़ता है। यह बीमारी किसी को भी हो सकती है। अस्थमा किस प्रकार का है, कितना गंभीर है व्यक्ति से व्यक्ति अलग हो सकता है। कुछ लोगों को इससे अधिक समस्या नहीं होती है परन्तु कुछ को काफी परेशानियों का सामना करना पड़ता है। अस्थमा दो प्रकार की हो सकते है: विशिष्ट और गैर विशिष्ट, विशिष्ट प्रकार के अस्थमा के रोग में सांस लेने में समस्या एलर्जी के कारण होती है दूसरी तरफ गैर विशिष्ट अस्थमा एक्सरसाइज़, मौसम के प्रभाव या आनुवांशिक प्रवृत्ति के कारण होता है। अगर किसी को परिवार में आनुवांशिकता के तौर पर अस्थमा की बीमारी है तो इसके होने की संभावना अधिक हो जाती है। अस्थमा बीमारी का कोई इलाज नहीं है परन्तु इसके लक्षणों को नियंत्रित किया जा सकता है।

अस्थमा होने का कारण
  1. अधिक मात्रा में जंक फूड खाने के कारण
  2. आनुवांशिकता के कारण
  3. घर में पालतू जानवर का होना
  4. घर में या उसके आसपास धूल का होना
  5. ज्यादा नमक खाने के कारण
  6. तनाव या भय के कारण
  7. धूम्रपान
  8. वायु प्रदूषण
  9. सर्दी के मौसम में अधिक ठंड होने के कारण
  10. सर्दी, फ्लू ब्रोंकाइटिस और साइनसाइटिस का संक्रमणआदि

अस्थमा के लक्षण - यह रोग अचानक से शुरू हो सकता है इसके शुरू होने के लक्षण इस प्रकार हैं:
  1. उल्टी का होना
  2. खांसी, छींक या सर्दी जैसी एलर्जी
  3. बैचेनी जैसा महसूस होना
  4. सांस लेते वक्त घरघराहट जैसी आवाज का आना
  5. सिर का भारी होना और थकावट लगना
  6. सीने में खिचाव या जकड़न का महसूस होना आदि
 घरेलू उपचार
  1. 100 ग्राम दूध में लहसुन की पांच कलियां धीमी आँच पर उबाकर इनका हर रोज दिन में दो बार सेवन करने से दमे में काफी फायदा मिलता है।
  2. 2-3 सूखे अंजीर को पीसकर रात भर पानी मे भिगोकर सुबह खाली पेट खाएं। इससे श्वास नली में जमा बलगम ढीला होकर बाहर निकलता है, स्थाई रूप से आराम प्राप्त होता है।
  3. 250 ग्राम पानी में मुट्ठी भर सहजन की पत्तियां मिलाकर उसे 5 मिनट तक उबालें। फिर ठंडा होने पर उसमें चुटकी भर नमक, काली मिर्च और नीबू रस मिलाएं, इस सूप का रोज सेवन करें लाभ मिलेगा।
  4. 4-5 लौंग को 150 ग्राम पानी में 5 मिनट तक उबालें। इस मिश्रण को छानकर इसमें एक चम्मच शुद्ध शहद मिलाकर गरम-गरम पी लें। रोज दो से तीन बार यह काढ़ा पीने से निश्चित रूप से लाभ मिलता है।
  5. अस्थमा और ब्रोंकाइटिस को नियंत्रित करने में तुलसी औरकरेले का रस भी काफी मददकरता है। तुलसी कीकरीब 15 पत्तियों को लेकर एक सामान्य आकार केकरेले के साथ कुचल लें और इसे अस्थमा से पीड़ित व्यक्ति को प्रतिदिन रात में सोने से पहले दें, शीघ्र ही फायदा होगा।
  6. अस्थमा का दौरा पड़ने पर गर्म पानी में तुलसी के 5 से 10 पत्ते मिलाएं और सेवन करें। इससे सांस लेने में आसानी होती है। इसी प्रकार तुलसी का रस, अदरक रस और शहद का समान मिश्रण प्रतिदिन एक चम्मच के हिसाब से लेना अस्थमा में आराम मिलता है।
  7. आंवला दमा रोग में बहुत लाभदायक है। एक चम्मच आंवले के रस मे दो चम्मच शहद मिलाकर पीने से फेफडे़ ताकतवर बनते हैं।
  8. एक गिलास पानी में एक चम्मच लहसुन का रस मिलाएं और इसे 3 महीने तक दिन में दो बार प्रत्येक दिन लगातार दें तो अस्थमा और रक्त से जुड़े विकारों में काफी राहत मिलती है।
  9. एक चम्मच मेथीदाने को एक कप पानी में उबालें। ठंडा होने पर उसमें अदरक का एक चम्मच ताजा रस और स्वादानुसार शहद मिलाएं। सुबह-शाम नियमित रूप से इसका सेवन करने से निश्चित ही बहुत लाभ मिलता है।
  10. एक चम्मच हल्दी एक गिलास गर्म दूध में मिलाकर पीने से दमा काबू में रहता है। हल्दी के एंटीऑक्सीडेंट गुण के कारण एलर्जी भी नियंत्रण में रहती है।
  11. एक चम्मच हल्दी को दो चम्मच शहद में मिलाकर चाट लें दमा का दौरा तुरंत काबू में आ जाएगा।
  12. एक पके केले में चाकू से लंबाई में चीरा लगाकर उसमें एक चौथाई छोटा चम्मच महीन पिसी काली मिर्च भर दें। फिर उसे 2-3 घंटे बाद हल्की आँच में छिलके सहित भून लें। ठंडा होने पर केले का छिलका निकालकर केला खा लें। एक माह में ही दमें में खूब लाभ होगा।
  13. गर्म पानी में अजवाइन डालकर स्टीम लेने से भी दमे को नियंत्रित करने में राहत मिलती है।
  14. तुलसी के 10-15 पत्ते पानी से साफकर लें फिर उन पर काली मिर्च का पावडर बुरककर खाने से दमा में आराम मिलता है।
  15. तुलसी के पत्तों को अच्छी तरह से साफकर उनमें पिसी काली मिर्च डालकर खाने के साथ देने से दमा नियंत्रण में रहता है।
  16. तुलसी के पत्तों को पानी में पीसकर इसमें दो चम्मच शहद मिलाकर सेवन करने से दमा रोग में शीघ्र लाभ मिलता है।
  17. दमे मे खाँसी होने पर पहाडी नमक सरसों के तेल मे मिलाकर छाती पर मालिश करने से तुरंत आराम मिलता है।
  18. मेथी की पत्तियों का ताजा रस, अदरक और शहद को धीमी आंच पर कुछ देर गर्मकरके रोगी को पिलाने से अस्थमा रोग में काफी आराम मिलता है।
  19. लहसुन की दो पिसी कलियां और अदरक की गरम चाय पीने से भी अस्थमा नियंत्रित रहता है। इस चाय का सुबह-शाम करना चाहिए।

विशेष : किसी भी औषधि के प्रयोग से पूर्व विशेषज्ञ से परामर्श अवश्य लें।


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भारत के संविधान के अनुच्छेद 163 अंतर्गत मुख्यमंत्री की नियुक्ति



मुख्यमंत्री भारतीय राज्य की कार्यपालिका का वास्तविक प्रधान होता है। वह राज्य विधानसभा का नेता होता है। किसी भी राज्य के मुख्यमंत्री की नियुक्ति उस प्रदेश के राज्यपाल के द्वारा संविधान के अनुच्छेद 163 के तहत की जाती है। 
संविधान के अनुच्छेद 164 यह प्रावधान करता है कि मुख्यमंत्री की नियुक्ति राज्यपाल करेगा। विधानसभा चुनावों में पार्टी के एक बहुमत प्राप्त नेता को राज्य के मुख्यमंत्री के रूप में नियुक्त किया जाता है। राज्यपाल के पास नाममात्र का कार्यकारी अधिकार है, लेकिन वास्तविक कार्यकारी अधिकार मुख्यमंत्री के पास है। हालांकि राज्यपाल द्वारा प्राप्त विवेकाधीन शक्तियाँ राज्य प्रशासन में मुख्यमंत्री की शक्ति, अधिकार, प्रभाव, प्रतिष्ठा और भूमिका को कुछ हद तक कम कर देती हैं। एक व्यक्ति जो राज्य विधानसभा का सदस्य नहीं है, उसे छह महीने के लिये मुख्यमंत्री के रूप में नियुक्त किया जा सकता है, उस समय सीमा के भीतर उसे राज्य विधानसभा की सदस्यता ग्रहण करनी होगी, ऐसा न करने पर उसे मुख्यमंत्री पद का त्याग करना होता है। मुख्यमंत्री का कार्यकाल निश्चित नहीं होता है और वह राज्यपाल के प्रसादपर्यंत पद धारण करता है। राज्यपाल द्वारा उसे तब तक बर्खास्त नहीं किया जा सकता जब तक कि विधानसभा में बहुमत प्राप्त होता है। यदि वह विधानसभा में विश्वास मत खो देता है तो उसे त्यागपत्र दे देना चाहिये अन्यथा राज्यपाल उसे बर्खास्त कर सकता है।
राज्यपाल मुख्यमंत्री की नियुक्ति राज्य विधानसभा चुनाव के बाद करता है या फिर तब करता है, जब मुख्यमंत्री के त्यागपत्र देने के कारण या बर्ख़ास्त कर दिये जाने के कारण उसका पद रिक्त हो जाता है। यदि विधानसभा चुनाव में किसी एक ही दल को विधानसभा में बहुमत प्राप्त हो जाता है और उस दल का कोई निर्वाचित नेता हो, तब उसे मुख्यमंत्री पद पर नियुक्त करना राज्यपाल की संवैधानिक बाध्यता होती है। यदि मुख्यमंत्री अपने दल के आन्तरिक मतभेदों के कारण त्यागपत्र देता है, तो उस दल के नये निर्वाचित नेता को मुख्यमंत्री पद पर नियुक्त किया जाता है। चुनाव में किसी पक्ष के बहुमत प्राप्त न करने की स्थिति में या मुख्यमंत्री की बर्ख़ास्तगी की स्थिति में राज्यपाल अपने विवेक से मुख्यमंत्री की नियुक्ति करता है और उसे नियत समय के अन्दर विधानसभा में बहुमत साबित करने का निर्देश देते है। संविधान के अनुच्छेद 167 के तहत राज्यों के मुख्यमंत्री, राज्यपाल और मंत्रियों की राज्य परिषद के बीच एक कड़ी के रूप में कार्य करता है।

भारत के संविधान के अंतर्गत - मुख्यमंत्री

मुख्यमंत्री होने की योग्यता - मुख्यमंत्री पद के लिए संविधान में कोई योग्यता निर्धारित नहीं है, जो भी व्यक्ति राज्य विधान सभा अथवा विधान परिषद की सदस्यता रखने की योग्यता रखता है वह मुख्यमंत्री बन सकता है। राज्य विधानसभा का सदस्य न होने वाला व्यक्ति भी मुख्यमंत्री पद पर नियुक्त किया जा सकता है, लेकिन इसके लिए आवश्यक है कि वह 6 मास के अन्तर्गत राज्य विधानसभा का सदस्य निर्वाचित हो जाये। उच्चतम न्यायालय के निर्णय के अनुसार किसी सजा प्राप्त व्यक्ति को मुख्यमंत्री पद के लिए अयोग्य माना जाएगा।

मुख्यमंत्री के कर्तव्य तथा अधिकार - मुख्यमंत्री के कर्तव्य तथा अधिकार निम्नलिखित हैं–
  • वह राज्य के शासन का वास्तविक अध्यक्ष है और इस रूप में वह अपने मंत्रियों तथा संसदीय सचिवों के चयन, उनके विभागों के वितरण तथा पदमुक्ति और लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष तथा अन्य सदस्यों एवं महाधिवक्ता और अन्य महत्वपूर्ण पदाधिकारियों की नियुक्ति के लिए राज्यपाल को परामर्श देता है।
  • मुख्यमंत्री परिषद की बैठक की अध्यक्षता करता है तथा सामूहिक उत्तरदायित्व के सिद्धांत का पालन करता है। यदि मंत्रिपरिषद का कोई सदस्य मंत्रिपरिषद की नीतियों से भिन्न मत रखता है, तो मुख्यमंत्री उसे त्यागपत्र देने के लिए कहता है या राज्यपाल उसे बर्खास्त करने की सिफारिश कर सकता है।
  • यदि मंत्रिपरिषद के किसी सदस्य ने किसी विषय पर अकेले निर्णय लिया है, तो राज्यपाल के कहने पर उस निर्णय को मंत्रिपरिषद के समक्ष विचारार्थ रख सकता है।
  • राज्य में असैनिक पदाधिकारियों के स्थानांतरण के आदेश मुख्यमंत्री के आदेश पर जारी किये जाते हैं तथा वह राज्य की नीति से संबंधित विषयों के सम्बन्ध में निर्णय करता है।
  • वह राज्यपाल को राज्य के प्रशासन तथा विधायन सम्बन्धी सभी प्रस्तावों की जानकारी देता है।
  • वह राज्यपाल को विधानसभा भंग करने की सलाह देता है।
  • वह राष्ट्रीय विकास परिषद में राज्य का प्रतिनिधित्व करता है।
  • वह (मुख्यमंत्री) एक मंत्री के रूप में किसी भी व्यक्ति को नियुक्त करने के लिए राज्यपाल को सलाह दे सकता है। केवल मुख्यमंत्री की सलाह के अनुसार ही राज्यपाल मंत्रियों की नियुक्ति करते हैं।
  • वह आवश्यकता के अनुसार कभी भी मंत्रियों और विभागों के बीच आवंटन और फेरबदल कर सकता है।
  • वह मंत्री को इस्तीफा देने के लिए कह सकता है, अगर वह (मंत्री) इस्तीफा नहीं देता है तो मुख्यमंत्री उसे बर्खास्त करने के लिए राज्यपाल को सलाह दे सकते हैं।
  • वह सभी मंत्रियों का निर्देशन, मार्गदर्शन देने के साथ- साथ सभी गतिविधियों को नियंत्रित करता है।
  • अपने अनुसार अपने मंत्रिपरिषद की नियुक्ति के साथ से ही वह उसके इस्तीफा देने या मौत की स्थिति में ही पूरी मंत्रिपरिषद को भंग किया जा सकता है।
मुख्यमंत्री का राज्यपाल से संबंध - भारत के संविधान के अनुच्छेद 167 के तहत राज्यों के मुख्यमंत्री राज्यपाल और मंत्रियों की राज्य परिषद के बीच एक कड़ी के रूप में कार्य करता है। राज्यपाल से संबंधित कार्य निम्न प्रकार हैं:
  • मुख्यमंत्री राज्यपाल से राज्य के प्रशासन से संबंधित मंत्रियों की परिषद के सभी निर्णयों पर संवाद करते हैं।
  • जब कभी भी राज्यपाल प्रशासन के बारे में लिये गये निर्णयों से संबंधित कोई भी जानकारी मांगते हैं तो तब मुख्यमंत्री को उस जानकारी को राज्यपाल को प्रदान करना या करवाना होता है।
  • जब एक निर्णय कैबिनेट के विचार के बिना लिया गया है तो तब राज्यपाल मंत्रियों की परिषद के विचार के लिए पूछ सकते हैं।
  • मुख्यमंत्री महत्वपूर्ण अधिकारियों की नियुक्ति के संबंध में जैसे- अटॉर्नी जनरल, राज्य लोक सेवा आयोग (अध्यक्ष और सदस्य), राज्य निर्वाचन आयोग आदि के बारे में राज्यपाल के साथ सलाह मशविरा करते हैं।
  • सरकार की एक मंत्रिमंडल के रूप में अंतत: मुख्यमंत्री ही मतदाताओं के लिए जिम्मेदार होता है। हालांकि वह राज्य का मुखिया होता है लेकिन उसे राज्यपाल को प्रोत्साहित करने और चेतावनी देने के लिए मदद करने हेतु गवर्नर के साथ " सही परामर्श किया जाने वाले नियम" (सरकारिया आयोग की सिफारिश के अनुसार) का पालन करना पड़ता है।
मुख्यमंत्री का राज्य विधायिका से संबंध-
  • उसके द्वारा घोषित की गयी सभी नीतियों को सदन के पटल पर रखना होता है।
  • वह राज्यपाल को विधान सभा भंग करने की सिफारिश करता है।
  • वह समय- समय पर राज्य विधान सभा के सत्र के आयोजन और स्थगन के बारे में राज्यपाल को सलाह देता है।
पद विमुक्ति - सामान्यत: मुख्यमंत्री अपने पद पर तब तक बना रहता है, जब तक उसे विधानसभा का विश्वास मत प्राप्त रहता है। अत: जैसे ही उसका विधानसभा में बहुमत समाप्त हो जाता है, उसे त्यागपत्र दे देना चाहिए। यदि वह त्यागपत्र नहीं देता है, तो राज्यपाल उसे बर्खास्त कर सकता है। इसके अतिरिक्त मुख्यमंत्री निम्नलिखित स्थितियों में बर्खास्त किया जा सकता है–
  1. यदि राज्यपाल मुख्यमंत्री को विधानसभा का अधिवेशन बुलाने तथा उसमें बहुमत सिद्ध करने की सलाह दे और यदि राज्यपाल के द्वारा निर्धारित अवधि के भीतर मुख्यमंत्री विधानसभा का अधिवेशन बुलाने के लिए तैयार नहीं हो, तो राज्यपाल मुख्यमंत्री को बर्खास्त कर सकता है।
  2. यदि राज्यपाल अनुच्छेद 356 के अधीन राष्ट्रपति को यह रिपोर्ट दे कि राज्य का शासन संविधान के अनुसार नहीं चलाया जा सकता या राष्ट्रपति को अन्य स्रोतों यह समाधान हो जाए कि शासन संविधान के प्रावधानों के अनुसार नहीं चलाया जा सकता, तो राष्ट्रपति मुख्यमंत्री को बर्खास्त करके राज्य का शासन चलाने का निर्देश राज्यपाल को दे सकता है।
  3. जब मुख्यमंत्री के विरुद्ध राज्य विधानसभा में प्रस्ताव पारित हो जाए और मुख्यमंत्री त्यागपत्र देने से इन्कार कर दे, तब राज्यपाल मुख्यमंत्री को बर्खास्त कर सकता है।
मंत्रिपरिषद का गठन - मंत्रिपरिषद का गठन राज्यपाल के द्वारा किया जाता है। राज्यपाल मुख्यमंत्री की नियुक्ति करता है और मुख्यमंत्री की सलाह पर वह मंत्रिपरिषद के अन्य सदस्यों की नियुक्ति करता है। मंत्रिपरिषद में सामान्यतः: उन्हीं व्यक्तियों को शामिल किया जा सकता है, जो राज्य विधानसभा या राज्य विधान परिषद के सदस्य हों, लेकिन विशेष परिस्थिति में मंत्रिपरिषद में ऐसे व्यक्तियों को भी शामिल किया जा सकता है, जो राज्य विधानसभा या विधान परिषद का सदस्य न हो। इस प्रकार नियुक्त किये गये मंत्रिपरिषद के सदस्य को विधानसभा या विधान परिषद का सदस्य 6 माह के अन्दर बनना आवश्यक है। यदि 6 माह के अन्दर वह विधानसभा या विधान परिषद का सदस्य नहीं बन जाता है, तो उसके पद ग्रहण की तिथि से 6 माह की समाप्ति पर स्वत: उसका मंत्री पद रहना समाप्त हो जाता है। परन्तु संविधान में यह व्यवस्था नहीं दी गयी है कि ऐसा व्यक्ति इस्तीफा देकर पुन: मंत्रिपरिषद का सदस्य बन सकता है या नहीं। सरकार ने इस अस्पष्ट प्रावधान का लाभ उठाते हुए उस व्यक्ति को पुन: मंत्रिपरिषद में शामिल कर लेते थे। अब 16 अगस्त, 2001 को सर्वोच्च न्यायालय ने एक महत्त्वपूर्ण निर्णय देते हुए व्यवस्था दी कि विधायिका का सदस्य निर्वाचित हुए बिना कोई व्यक्ति छह महीने से अधिक मंत्री पद धारण नहीं कर सकता। यदि इस व्यक्ति को छह महीने के बाद विधायिका के उसी सत्र में मंत्री पद पर दोबारा बहाल किया जाता है तो आवश्यक है कि वह चुनाव जीत कर सदन का सदस्य बने। यदि मंत्री पद पर आसीन गैर निर्वाचित व्यक्ति दिये गये छह महीने की अवधि में चुनाव जीतने में असफल रहता है और उस व्यक्ति को दुबारा मंत्री पद पर बहाल किया जाता है तो यह संविधान के 164(1) और 164(4) की योजना और भावना पर आघात होगा।

मंत्रिपरिषद का आकार - प्रारम्भ में संविधान में यह निर्धारित नहीं था कि राज्य मंत्रिपरिषद का आकार क्या होगा। इसका निर्धारण मुख्यमंत्री अपने विवेक से करता था। परन्तु 91वे संविधान संशोधन अधिनियम, 2004 के अनुसार यह निर्धारित कर दिया गया है कि राज्य मंत्रिपरिषद में मुख्यमंत्री सहित मंत्रियों की कुल संख्या राज्य विधानसभा के कुल सदस्य संख्या के 15 प्रतिशत अधिक नहीं होगी अर्थात किसी राज्य की विधानसभा सदस्य संख्या 100 है तो उस प्रदेश में मुख्यमंत्री सहित 15 मंत्री हो सकते है।मंत्रिपरिषद की पदावधि - मंत्रिपरिषद तब तक कार्यरत रहता है, जब तक मुख्यमंत्री पद पर रहता है। मुख्यमंत्री के त्यागपत्र देने या बर्खास्त होने से मंत्रिपरिषद का स्वत: ही विघटन हो जाता है।


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वाहन पर भारतीय तिरंगा फहराने की अनुमति कौन से व्यक्तियों को है?



 वाहन पर भारतीय तिरंगा फहराने की अनुमति कौन से व्यक्तियों को है?
भारत का राष्ट्रीय ध्वज हमारे राष्ट्रीय गौरव का प्रतीक है। भारतीय राष्ट्रीय ध्वज,भारत की जनता को एहसास दिलाता है कि वे एक संप्रभु देश के नागरिक है। भारत के हर व्यक्ति को अपनी कार पर राष्ट्रीय ध्वज तिरंगा फहराने की अनुमति नहीं है। भारत में केवल कुछ गणमान्य व्यक्तियों को ही ऐसा करने की अनुमति है। भारतीय ध्वज संहिता, 2002 के अंतर्गत उन गणमान्य व्यक्तियों रखा गया है जो कि अपनी कारों पर राष्ट्रीय ध्वज फहरा सकते हैं। गणमान्य व्यक्तियों की सूची इस प्रकार है-
  1. भारत के राष्ट्रपति
  2. भारत के उपराष्ट्रपति
  3. गवर्नर और लेफ्टिनेंट गवर्नर्स
  4. विदेशों में भारतीय मिशन के प्रमुख
  5. प्रधानमंत्री और अन्य कैबिनेट मंत्री
  6. संघ के राज्य मंत्री और उप मंत्री
  7. राज्य का मुख्यमंत्री और राज्य और संघ शासित प्रदेशों के अन्य कैबिनेट मंत्री
  8. राज्य सरकार में राज्य मंत्री और राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के उप मंत्री
  9. लोकसभा के अध्यक्ष
  10. राज्य सभा के उपाध्यक्ष
  11. लोक सभा के उपाध्यक्ष
  12. राज्यों में विधान परिषदों के अध्यक्ष
  13. राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में विधान सभाओं के अध्यक्ष
  14. राज्यों विधान परिषदों के उपाध्यक्ष
  15. राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में विधान सभा के उपाध्यक्ष
  16. भारत के मुख्य न्यायाधीश
  17. सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश
  18. उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीश
  19. उच्च न्यायालयों के न्यायाधीश


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घनानंद का जीवन परिचय, रचनाएँ एवं साहित्यिक विशेषताएं



घनानंद का जीवन परिचय, रचनाएँ एवं साहित्यिक विशेषताएँ
Ghanananda's Biography, Compositions and Literary features
घनानंद का जीवन परिचय, रचनाएँ एवं साहित्यिक विशेषताएं
जीवन परिचय - Biography
घनानंद रीतिकाल की रीतिमुक्त स्वच्छंद काव्यधारा के सुप्रसिद्ध कवि है। आचार्य शुक्ल के मतानुसार इनका जन्म संवत् 1746 में दिल्ली में हुआ था और संवत 1817 में वृंदावन में इनका देहावसान हुआ। ये दिल्ली के रहने वाले एक कायस्थ थे और सम्राट मुहम्मद शाह बादशाह के मीर मुंशी थे। महाकवि घनानंद के विभिन्न नामों के प्रति विद्वानों में मतैक्य नहीं है। ये नाम निम्नलिखित हैं- घन आनन्द, ’आनन्द घन या आनन्दघन अथवा आनंद के घन,’ आनन्द निधान तथा आनन्द।’ यह तीनों एक ही व्यक्ति के नाम हैं या अलग-अलग व्यक्ति के, यह प्रश्न विवाद का है। आनंद निधान नाम के लिये निम्नलिखित उदाहरण प्रस्तुत हैं :-
वहै मुसक्यानि, वहै मृदु बतरानि, वहै,
लड़कीली बानि उर ते अरति है।
वहै गति लैन, औ बजावनि ललित बैन,
वहै छैलताई न छिनक बिसरति है।
आनंदनिधान प्रान प्रीतम सुजान जू की,
सुधि सब-भौतिन सो बेसुधि करती है।। 
घनानन्द के समय को लेकर भी विवाद है। शिव सिंह सरोज सेंगर के मत से घनानन्द का समय सम्वत् 1617 है। वे आनन्दघन नाम को मानकर यह समय निर्धारित करते हैं। जनश्रुति एवं विद्वानों के आधार पर यह कहा जाता है कि घनानंद जी का जन्म सम्वत् 1746 के आस पास हुआ था। कतिपय विद्वान इनका जन्म सम्वत् 1715, 1630, तथा 1683 मानते हैं। आज इनका जन्म सम्वत् 1746 सप्रमाण स्वीकार गया है, अन्य तीनों ही जन्म सम्वत् संदिग्ध हैं, आपका जन्म स्थान दिल्ली के आस पास हुआ था या दिल्ली में ही स्वीकारा जा सकता है। अधिकांश विद्वान इस मत के समर्थक हैं। कुछेक विद्वान इनके जन्म स्थान को वृन्दावन एवं बुलंद शहर के पास का मानते हैं। आपका जन्म भटनागर कायस्थ परिवार में हुआ, आपकी शिक्षा फारसी भाषा के द्वारा शुरू हुई थी, बचपन से ही आपकी रुचि विद्या अध्ययन की ओर विशेष थी। जनश्रुति के आधार पर आप अबुल फजल के शिष्य माने जाते हैं। इन्होंने अपनी असाधारण प्रतिभा एवं बुद्धि से शीघ्र ही फारसी का अच्छा ज्ञान अर्जित कर लिया था। इसके बाद आप सम्राट मुहम्मदशाह ’रंगीले’के मीर मुंशी पद पर नियुक्त हो गए थे। आपने अपनी आकर्षक बुद्धि एवं प्रतिभा संपन्नता के निदान स्वरूप शीघ्र प्रोन्नति पा ली थी। और आप धीरे-धीरे सम्राट के ’खास कलम’ अर्थात् प्राइवेट सेक्रेटरी, हो गए। घनानंद की मृत्यु के बारे में विद्वानों के दो प्रकार के मत है। प्रथम मत के अनुसार नादिर शाह के आक्रमण के समय मथुरा में सैनिकों द्वारा घनानंद की मृत्यु हुई, किंतु इस मत का खंडन इस आधार पर हो जाता है कि नादिर शाह द्वारा किया गया क़त्ले आम दिल्ली में हुआ था न कि मथुरा में। दूसरे इस आक्रमण और घनानंद की मृत्यु के समय में ही अंतर है। द्वितीय मत ही अब मान्य है, वह यह की संवत् 1817 (सन् 1660 ई.) में अब्दुल शाह दुर्रानी ने जब दूसरी बार मथुरा में कत्लेआम किया था इसी में घनानंद की मृत्यु हुई।
घनानंद का संयोग श्रृंगार वर्णन
रीतिकालीन काव्य धारा का प्रधान तत्व भक्ति नहीं प्रेम की अभिव्यंजना है। यह प्रेम कहीं मांसल है तो कहीं मानसिक और आध्यात्मिक भी है। घनानंद हिन्दी के सर्वोत्कृष्ट स्वच्छन्द प्रेमी कवि है और इनका श्रृंगार वर्णन प्रेम की मानसिक अनुभूति को गहराई और तीव्रता से अभिव्यक्त करता है। इनकी प्रेम व्यंजना में इतनी आकुलता, इतनी व्यथा एवं इतनी पीड़ा है कि कठोर से कठोर श्रोता एवं पाठक भी द्रवित हो जाते हैं और उसमें संयोग-सुख की इतनी मादकता एवं उल्लास भावना भी भरी हुई है कि सहृद्यों को आनंद विभोर कर देती है। इनकी प्रेमानुभूति में आत्मानुभूति का सर्वाधिक योग है। एक विद्वान के अनुसार - "श्रृंगार का स्थायी भाव रति है। यही स्थायी रति है। यही स्थायी भाव और स्थायी भावों में श्रेष्ठ माना जाता है। मनोविज्ञान के दृष्टिकोण से श्रृंगार जीवन का आधे से भी अधिक पक्ष है, इसका विकार सर्व जाति सुलभ, तीव्र, हृदय-स्पर्शी व स्वाभाविक है। रुद्रट तो इसकी सर्व व्याप्ति आवाल वृद्ध में पाते हैं। प्रेम ही मानव-हृदय की मूल-भावना है जो कि श्रृंगार रस का मूलाधार है। संस्कृति के विकास का इसी प्रेम का प्रतिफल है।
श्रृंगार रस के नायक व नायिका आलम्बन हैं, इस निश्चित बात को अन्य रसों में ही नहीं पाया जा सकता है। रति भाव मनुष्य के हृदय में उस परिपक्व अवस्था में है जो किचित आश्रय से उद्दीप्त हो उठता है। नायक व नायिका के परस्पर प्रेम का परिणाम श्रृंगार रस का परिपाक होना है। श्रृंगार-रस ऐसा रस है जो मानव के अंग प्रति अंग में निहित है। निस्संदेह प्रेम का साम्राज्य असीम है।'' वे आगे लिखते हैं -"घनानन्द ने श्रृंगार के दोनों पक्ष संयोग व वियोग की बाह्म व आंतरिक मनोवृत्तियों का सूक्ष्म व हृदय ग्राही वर्णन किया। कृष्ण को नायक, राधा को नायिका तथा सखियों को आपने अपने काव्य का आलम्बन व प्रमुख पात्र बनाया। इनके राधा-कृष्ण व सखियां युवा हैं। 'सुजान' शब्द जो कहीं कृष्ण तो कहीं राधा के संबोधन में आप काम में लाये हैं। यह सकारण है क्योंकि आपका तन-मन शरीरी चर्म अस्थि सुजान वेश्या के प्रति आसक्त था और जब आप 'रंगीले' के दरबार में उससे अपमानित हुए और प्रेम प्रेम न पा सका तो उसी शरीर चमं-अस्थि को जो हृदय में पहले ही समा चुका था काव्य का चोला पहना कर मूर्ति रूप में खड़ा किया-उन सुखद-सुन्दर स्मृतियों को जिनकी रूपलिष्ठा में मन स्वयं की विस्मृति कर बैठा था और जिससे आज हृदय विलकता, रोता व तड़पता, और उस हृदय-वेधक तड़फन को वृन्दावन की कुंज गलियन में धूम फिर कर उसे ऊँचे स्वर से गाया-वही इनका संयोगी व वियोगी काव्य है। और उसी नाम को 'प्रभु' मान आपने, आह्वान किया।'' घनानन्द के प्रेम वर्णन के विस्तार के लिए यह आवश्यक है कि जाता है वे पंक्तियाँ प्रस्तुत की जाएं जो इस बात की पुष्टि करते हों। निम्नलिखित पंक्तियों में इस बात का स्पष्टीकरण हो जाता है, यथा-
आनन्द के घन, लागें अचंभो पपीहा पुकार ते क्यों अर सेंये।
प्रीति पगी अंखियानि दिखाय के हाय अनीत सु दीठ छिपैये।।
क्यों हंसि हर्यो हियरा, अरुक्यौं हित के चित चाह बढ़ाई।
काहे को बोलि सुधासने बँननि, चँननि मँन-निसन चढ़ाई।।
सो सुध मोहिय मैं घन आनन्द सालति क्यों हूं कढ़ै न कढ़ाई।
मीत सुजान अनीति की पाटी, इतै पै न जानियै कौने पढ़ाई।।
घन आनन्द कौन अनोखी दसा कहा मो जिय की गति कौं परसै।।
जिय नेकु बिचारि कै देहु बताय हहा पिय दूर ते याय गहौं। 
इन पंक्तियों से यह प्रमाणित होता है कि घनानन्द का लौकिक प्रेम आध्यात्मिक प्रेम से श्रेष्ठ प्रतीत होता है। उनके प्रेम की स्थिति यह है कि व्यक्ति स्वच्छन्द प्रेम के रस में निमग्न रहते हैं जो अभीप्सित होता है वह गा उठते हैं। उनकी प्रेमानुभूति को निम्न प्रकार से विभक्त किया गया है। उनके प्रेम वर्णन की निम्नलिखित विशेषताएँ थीं -
इहलौकिक प्रेम -
रीतिकालीन प्रेम का आधार लौकिक सुख और आनंद का अनुभव करना था। संपूर्ण रीतिकालीन कवि नायिका के दैहिक सौन्दर्य के वर्णन और रसपान में आकंठ डूबे थे। इस भौतिकता के प्रति जब कभी उनके अंदर अपराध बोध पैदा होता था तो उसे कृष्ण और राधा के प्रेम में तब्दील कर देते थे। परन्तु घनानंद के प्रेम का मूलाधार विशुद्ध भौतिक जीवन था और सुजान नामक वेश्या के प्रेम में वे पागल थे। उसके प्रति घनानंद को तीव्र अनुराग था। उनका यही लौकिक प्रेम उस वेश्या के कपट, छल एवं निष्ठुर व्यवहार के कारण अलौकिकता में परिणत हो गया था, उनकी इस अलौकिकता का मूलाधार लौकिक प्रेम ही है, लौकिक वासना नहीं हैं, जिसने घनानंद को 'महानेही' बना दिया था, प्रेम के महोदधि में निमग्न कर दिया था, चाह के रंग में भिगो दिया था। इसलिए घनानंद के इस काव्य में वही लौकिक प्रेम हिलोरें ले रहा है-

क्यों हंसि हेरि हियरा अरू क्यों हित कै चित्त चाह बढ़ाई।
वाहे को बोलि सुधासने बैननि चैननि मैन-निसैन चढ़ाई।।
सो सुधि यो हिय मैं घन आनन्द सालति क्यों हूँ, कढै न कढाई।
मीत सुजान अनीत की पाटी इतै पै न जानिये कौने पढाई।। 
निश्छल प्रेम की अभिव्यक्ति - लौकिक प्रेम विश्वास और निष्कपटता की मांग करता है। घनानंद ऐसे ही सच्चे प्रेमी थे। उनका प्रेम अपनी प्रेमिका के प्रति निश्चल और निष्कपट था। भले ही उनके प्रिय ने उनके साथ विश्वासघात किया, उन्हें दगा दी और उनका साथ नहीं दिया, किंतु वे एक निश्चल प्रेमी थे और प्रेम के पक्ष में निश्छलता एवं निष्कपटता को ही अत्यधिक महत्व देते थे। प्रेम की इसी निश्छलता को इस बहुत प्रसिद्ध पद में अभिव्यक्त करते हैं, इसमें प्रेम की सघन और मार्मिक परिभाषा प्रस्तुत की है। इस तरह की प्रेम की परिभाषा हिन्दी साहित्य में अन्यत्र उपलब्ध नहीं होती है-
अति सूधो सनेह कौ मारग है जहाँ नेकु सयानप बाँक नहीं।
तहाँ साँचे चलै तजि आपुनपो झिझके कपटी जे निसाँक नहीं।।
घन आनंद प्यारे सुजान सुनौ इत एक ते दूसरौ आक नहीं।
तुम कौन धौ पाटी पढे़ हो लला मन लेहु पै देहु छटांक नहीं।। 
घनानंद के प्रेम वर्णन में इस तरह आडम्बर हीनता एवं अकृत्रिमता इसलिए मिलती है क्योंकि वे स्वयं प्रेम के अनुभव में पके थे, विरह को उन्होंने झेला था। अन्य कवि सिर्फ कविता के लिए प्रेम का वर्णन करते हैं, जबकि घनानंद अपने जिये गए अनुभव को लिखते हैं। उनके प्रेम के बीच छल-कपट का तनिक भी स्थान नहीं था, क्योंकि घनानंद स्वाभाविक प्रेम के पुजारी थे, स्वच्छन्दता के भक्त थे और अपनी तरंग में आकर प्रेम का निरूपण करते थे। अपने इसी नैसर्गिक प्रेम की व्यंजना करते हुए तथा चन्द्रमा और चकोर के नैसर्गिक प्रेम को उदाहरण बताते हुए लिखते हैं-
चहौ अनचाहौ जना प्यारे पै आनन्दघन,
प्रीति-रीति विषम सु रोम-रोम रमी है।
मोहिं तुम एक, तुम्हें मो सम अनेक आहिंकहा
कछू चंदहिं चकोरन की कमी है।। 
घनानन्द का प्रेम कितना निश्छल था इसके लिए उनके काव्य में उदाहरणों की कमी नहीं है। वे प्रेम की गहराई को जितना अंदर महसूस करते थे, उतना ही काव्य में अभिव्यक्त करने में भी सक्षम थे।
पीड़ा की अनुभूति - प्रेम के दीवानों के लिए विरह की पीड़ा सबसे महत्वपूर्ण होती है। घनानंद सच्चे प्रेम के दीवाने थे। उनका प्रिय अपने प्रेमी की चिंता न करके निष्ठुरता, कठोरता एवं निर्दयता का ही व्यापार कर रहा था, तो. घनानंद अपने निष्ठुर एवं निर्दय प्रिय के हृदय में प्रेम उत्पन्न करने के लिए अपने को आशा की रस्सी से बांधकर भरोसे की शिला छाती पर रखकर अपने प्रेम रूपी सिन्धु में डूबने को तैयार थे, इसीलिए तो घनानंद लिखते हैं-
आसा-गुन बांधि कै भरोसो-सिल धरि छाती,
पूरे मन-सिन्धु में न बूढत सकाय हौं।
दीह दुख-दव हिय जारि उर अंतर,
निरंतर यों रोम-रोम त्रासनि नचाय हौं।। 
 सौन्दर्य प्रियता - प्रेम के मूल में सौन्दर्य चेतना होती है, चाहे वह प्रकृति प्रेम हो या व्यक्ति प्रेम। किसी के प्रति आकर्षण का प्रथम कारण उसके सौंदर्य से प्रभावित होना होता है। घनानंद के प्रेम का मूल कारण भी सुजान का अनिन्द सौन्दर्य था, जो कवि घनानंद के रोम-रोम में बसा हुआ था, क्योंकि वे उसकी सहज सुकुमारता, स्वाभाविकता, मधुरता एवं प्राकृतिक सुंदरता को देखकर ही उसके सच्चे प्रेमी बने थे। इसलिए घनानंद के हृदय में प्रेयसी सुजान की 'तिरछी चितौनि' 'चंचल विशाल नैन', 'धूमरे कटाछि', 'रसीली हॅसी','बडी-बडी' अंखियां', 'चीकने चिहुर', 'जोबन-गरूर-गरूबाई', 'रस-रासि-निकाई', 'नवजोबन की सुथराई', 'नेह-ओपी-अरूनाई', आदि। इसी कारण उनके हृदय में प्रिय के सौन्दर्य का अथाह सागर हिलौरें लेता रहता था। उन्होंने अपने प्रिय सुजान के इसी अनिन्द सौन्दर्य का बखान अपने काव्य में किया है -
स्याम घटा लिपही थिर बीज कि - सोहै अमाबस अंक उज्यारी।
धूम के पुंज मैं ज्वाल की माल-सी पै दृग-सीतलता-सुखकारी।।
के छाकि छायौ सिगांर निहारि सुजान-तिया-तन-दीपति प्यारी।
कैसी फबी घन आनन्द चोपनि सों पहिरी चुनि साॅवरी सारी।। 
प्रिय के सौन्दर्य की उपासना संयोग पर ही आधारित है। घनानंद ने इसीलिए संयोग-सुख के आनंद से प्रफुल्लित रोम-रोम का तथा अंग-अंग से फूटते हुए हर्षोल्लास का सजीव चित्रण किया है-

ललित उमंग बेली आलबाल अंतर ते,
आनंद के घन सींचा रोम रोम हवे चढ़ी।
आगम-उमाह-चाह छायी सु उछाइ रंग,
अंग-अंग फूलनि दुकूलिन पैर कढी।। 
विरहाकुलता- घनानंद प्रेम की पीर के कवि कहे जाते हैं। उनके जीवन में प्रेमी के संयोग के क्षण बहुत कम हैं, विरह की आग में ही अधिक जले हैं। इसलिए उनके काव्य का मूल स्वर विरहानुभूति है। घनानंद के प्रेम में जहां संयोग का हर्षोल्लास परिलक्षित होता है, वहाँ विरह का अथाह सागर हिलोरें लेता हुआ दिखाई देता है। उन्होंने प्रेम के संयोग पक्ष की अपेक्षा वियोग पक्ष का अधिक आतुरता, तल्लीनता एवं तीव्रता के साथ वर्णन किया है। सुजान का यह विरह घनानंद के लिए वरदान सिद्ध हुआ है और घनानंद ने भी अपनी विरहाकुलता का वर्णन करके सुजान एवं सुजान के प्रेम को अमर बना दिया है। इस प्रकार घनानंद का प्रेम स्थूल नहीं, अपितु सूक्ष्म है। उसमें अश्लीलता एवं कामवासना नहीं है, अपितु दिव्यता एवं पवित्रता है, क्योंकि घनानंद ने प्रेम के सभी पक्षों में शारीरिक सुख की अपेक्षा भावना द्वारा प्रिय का सानिध्य पाने की आकांक्षा प्रकट की है। इसी कारण घनानंद की प्रेमानुभूति अनिर्वचनीय है, वह प्रेमी की मूक पुकार है और पूर्णतया अनुभव गम्य है।
घनानंद का वियोग वर्णन
संयोग और वियोग प्रेम के दो छोर हैं। सच्चा प्रेमी इनके बीच अपने को पाता है कभी वह संयोग सुख में अपनी अनुभूति का तरोताजा करता है तो कभी वियोग में अपने प्रेम की परीक्षा के दौर से गुजरता है। इसीलिए वियोग को प्रेम की कसौटी है। जो प्रेमी इस कसौटी पर खरा उतरता है, वहीं सच्चा प्रेमी माना जाता है। प्रेम की सात्विकता और सघनता विरह में ही दिखाई देती है, जबकि संभोग प्रेम का सुखद रूप है। संयोग से प्रेमी वासना का शिकार बना रहता है, जबकि वियोग में वह वासना से ऊपर उठकर मानसिक स्थिति को प्राप्त कर लेता है। वियोग ही प्रेमी की दृढ़ता का परिचायक होता है। वियोग ही उसकी निष्ठा एवं उत्कंठा का द्योतक होता है, और वियोग ही एक प्रेमी की प्रिय के प्रति उत्कट चाह, तीव्र आकांक्षा, सुदृढ लालसा एवं उद्दाम आकुलता का अनुभावक होता है। घनानंद भी ऐसे ही वियोगी कवि है, जिनके हृदय में अपनी प्रेमिका 'सुजान' की उत्कट विरह भावना भरी हुई है।
रीतिकालीन काव्य में बिना वियोग श्रृंगार के संयोग का न तो पूर्ण-रूपेण आस्वाद ही प्राप्त होता है और न उसके मूल्यों का अंकन किया जा सकता है। प्रेम की आध्यात्मिक परिणति वियोग श्रृंगार द्वारा ही संभव है। विरह को काव्य की कसौटी माना जाता है। विरह एक ऐसा साधन है जिसके द्वारा मन शुद्ध हो जाता है, उसमें से शारीरिक वासनात्मकता समाप्त हो जाती है। प्रेम के मन से स्वार्थ भावना नष्ट हो जाती है। वियोगी कवि की भावना पहाड़ी जलप्रपात की तरह बह निकलती हें, और वही काव्य का रूप धारण कर पाठक के हृदय को स्पर्श कर उसे प्रेम की रसानुभूति कराती हैं। संयोग की मधुर स्मृतियां वियोगी के लिए बेचैन करती रहती हैं। घनानन्द का वियोग उनके हृदय की पीड़ा का प्रति फल है, उसमें पाठक के हृदय को स्पर्श करने की शक्ति है। वह अपनी सुध-बुध खो देता है। जब पाठक घनानन्द का काव्य पढ़ता है तब उसकी इतनी विशाल हृदय-बोधक रसानुभूति कराने की क्षमता का अनुभव होता है। अपनी प्रेयसी की सुध में घनानन्द स्वयं तो खो गये, परन्तु साथ में पाठक को भी विरह की अनन्तोदधि में डूबो दिया। विरह के रस में डूबने का मजा तो घनानन्द के साथ ही मिलता है। घनानन्द के काव्य में विरह की भी कोई एक दशा नहीं है। वियोगी प्रेमी सोते, उठते-बैठते और हर समय उसका हृदय पुकार उठता है अपनी प्रेयसी को! वही बातें जो हृदय में उमड़ती-घुमड़ती रहती हैं, उनको प्रत्यक्ष रूप से अभिव्यक्त करने का अवसर जागते हुए नहीं मिलता तो उसके सोते समय 'स्वप्न' में चित्र-सा गति मान होने लगता है। घनानन्द लिखते हैं कि चलो इस बहाने मन ही बहला लें कि-
जगि सोवनि में लगिये रहे,
चाह वहै गरराय उठै रतियां।
भरि अंक निःसक हृै भेटन कौं,
अभिलाख अनेक भरी छतियाँ।
सलोनी स्याम-मुरति फिरै आगे।
कटाछै बान से उर आन आन लागे।।
मुकुट को लटक हिृय में आय हालै।
चितवानी बंक जियरा बीच सालै।। 
घनानन्द के काव्य में विरह असीम हो गया है। इस दशा में विरहिणी कैसे अपने प्रियतम को पत्र लिख सकती है। ऐसी विरहिणी तो है नहीं जो आंसुअन की स्याही में डुबो-डुबो कर पत्र लिख डाले। वह अपनी विशेषता प्रगट करती है कि-
लिखै कैसे पियारे प्रेम पाती,
लगै अंसुअन भरी हृ हूंक छाती। 
विरहणी नायिका सोचती है कि इससे तो अच्छा होता कि नायक गुणवान न होता, कम से कम विरहाग्नि में वह उसे इस प्रकार याद आकर उसके हृदय को नोचता तो नहीं। पर क्या करे उसे याद आ ही जाती है अपने 'रावरे रूप की मोहिनी सूरत' उसके आकर्षण का कारण भी तो यही है।

रावरे रूप की रीति अनूप,
नयो नयो लागत ज्यों-ज्यों निहारिये। नायिका बेचारी रो रही है अपने प्रेमी के गुणों व रूप स्मृति में। उसकी मुश्किल यह है कि उसके प्रेमी का रूप उसकी आँखों से ओझल नहीं होता है-
छवि को सदन, मोह मण्डित बदन चन्द
तृषनि चखन लाल! कब धौं दिखाए हों। 
विरहिणी नायिका की निस्वार्थ प्रीति का उत्कर्ष यह है कि वह एक ओर तड़फ रही है, अपने प्रिय के लिए, परन्तु कोई बात नहीं, उसके मन से प्रिय के लिए दुआ ही निकलती है कि उसका प्रिय सुख व आनंद से रहे, उसे यही कामना है। प्रेम की इस त्याग की भावना कितनी उत्कृष्ट है, कि-
धन आनन्द जीवन प्रान सुजान,
तिहारि पै बातनि लोजियै जू।
नित नीकै रहो चाटु कहाइ,
असीम हमारियौ लीजिये जू।। 
वियोग श्रृंगार में इस तरह की त्याग की भावना को रीतिकाल के अन्य किसी कवि में इतने उत्कट रूप से नहीं देखा जा सकता है। उसे अपने प्रेमी के सम्मान का कितना ध्यान है, वह कृष्ण को ठगिया नहीं कहती और न उन्हें कुछ बुरा भला कहती है। विरह है तो घनानन्द की विरहिणी केवल आत्म-निवेदन करती है कि इतनी निष्ठुरता क्यों अपनाई है।
पहलै अपनाय सुजान सनेह सैं,
क्यों फिर तेह कै तोरिये।। 
घनानन्द के यहाँ विरहिणी की विचित्र दशा चित्रित की गई है-
कारी कूर कोकिला कहाँ को बैर काढ़ति री,
कूक कूकि अब ही करेजौ किन कोरिली।
पैंडे परे पापी ये कलापी निस श्रोस ज्यों ही,
चातक घातक त्योंहो तू ही कान फोरिलै।
आनन्द के घन प्रान जीवन सुजान बिन,
जानि कै अकेली सब घेरौ दल जोरि लै।
जौलों कहै आवन विनोद वरसावन वे,
तौलौं रे ठरारे वजमारे घन घोरिलै।
 श्री परशुराम चतुर्वेदी लिखते हैं-''घनानन्द ने विरह के महत्व को भली भांति समझा था इसलिए प्रेमी के विरहदग्धा हृदय तथा उसके सूक्ष्मातिसूक्ष्म एवं अनिर्वचनीय मानसिक व्यापारों का जैसा सुन्दर वर्णन अपनी कविता द्वारा उन्होंने किया है वैसा बहुत कम कवि कर पाए हैं।'' वियोग वर्णन में कवि जिन तरीकों को अपनाया है, उनको जानना भी आवश्यक है और वह किस-किस तरह से अपने वियोग की भावना को अभिव्यक्त करता है। इसे भी देखा जाना चाहिए।
रूपासक्ति की प्रधानता - प्रेम का मूलाधार रूपासक्ति ही होता है। यही बात वियोग में पीड़ा को घना कर देती है। घनानंद के उत्कट विरह का मूल कारण यह है कि उनकी 'अलबेली सुजान' अनिन्द सुन्दरी थी, उसमें उन्हें अलौकिक सौंदर्य के दर्शन हुए थे और वे उस सौंदर्य को नित्य देखते रहना चाहते थे। कारण यह था कि वह रूप नित्य नया-नया प्रतीत होता था और उस रूप पर उन्होंने अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया था, परन्तु दुर्भाग्य से वह रूप उनकी आंखों से ओझल हो गया, उन्हें फिर देखने को नहीं मिला और वे अपनी पागल रीझ (मोह.प्रेम) के हाथों बिककर रात-दिन वियोग की आग में जलते रहे-
रावरे रूप की रीति अनूप नयो-नयो लागत ज्याँ-ज्याँ निहारियै।
त्यौं इन आंखिन बानि अनोखी अद्यानि कहूँ नहि आन तिहारियै।।
एक ही जीव हुतो सु तौ वार्यौ सुजान सॅकोच और सोच सहारियै।
रोकी रहे न, दहै घन आनंद बावरी रीझ के हाथनि हारियै।। 
घनानन्द के प्रेम में रूपलिप्सा का योग तो है परन्तु साहचर्य का उतना व्यापक-वर्णन जितना सूर के काव्य का है, उतना इनमें नहीं मिलता। कृष्ण की लीलाओं को उतना स्थान न दिया जितना कि सूर ने दिया है और न यौवन कालीन ऋीड़ाओं को ही महत्व दिया है। घनानन्द ने कृष्ण की रूप माधुरी का वर्णन किया है, उसी मार्मिकता तन्मयता व तल्लीनता के साथ जितना अन्य कृष्ण भक्त कवियों ने किया है, यथा-
मोर चन्द्रिका सिर धरें, गरें, गुंज की माल।
धातु चित्र कटि पीत पट, मोहन मदन गुपाल।।
अति कामनीय किशोर बपु, गोपीनाथ उदार।
कमल नैन ऋीड़ा निपुन, कान्हर गोप कुमार।।
कमल केलि कीड़ा कुसल, कलानाथ रसवन्त।
गोवरधन वासी सदा, गोप-कामिनी-कंत।।
लहलहाति जीवन उदै, ब्रजमोहन अंग अंग।
महारूप सागर उमगि, उठति अमोष तरंग। 
इसी प्रकार राधा के रूप सौंदर्य का वर्णन किया है। घनानन्द की गोपियां कृष्ण की एक रूपलिप्सा पर आकर्षित हैं तथा इनकी गोपियां भी मुरली की पावन-पंचम ध्वनि को सुनते ही फड़क उठती हैं। राधा का चारुतम रूप माधुरी भी कृष्ण अपनी ओर आकृष्ट करता है और राधा कृष्ण के प्रति 'सैन नैन' चलाती हैं। राधा का रूप वर्णन करते हुए कवि कहता है, यथा-
लाजनि लपेटी चितवनि भेदभाव भरी,
लसति ललित लोल चख तिरछीन में।
छवि को सदन गोरो वदन, रूचिर माल,
रस निरचुरत मीठी मृदु मुसक्यान में।
दसन दमिक फैलि हियें मोती लाल होति,
पिय सों लड़कि प्रेम पगी बतरानि में।
आनग्द की निधि जगमगति छबीली बाल।
अंग न श्रनंग-रंग ढुरि मुरजानि में । 
हृदय की मौन पुकार की अधिकता- घनानंद का विरह बौद्धिक नहीं है, वह उनके हृदय की सच्ची अनुभूति है और जहां विरह बौद्धिक होता है, वहां प्रदर्शन एवं आडम्बर का आधिक्य देखा जाता है, किंतु जहाँ हृदय की अनुभूति होती है वहां प्रदर्शन एवं आडम्बर कहाँ वहां तो हृदय की टीस, प्राणों की तडपन एवं आकुलता बाहर नहीं सुनाई पड़ती, क्योंकि हृदय बोल नहीं पाता, वह मौन रहकर हही धडकता रहता है।
अंतर-आच उसास तचै अति, अंत उसीजै उदेग की आवस।
ज्यौं कहलाय मसोसनि ऊमस क्यों हूँ कहूँ सुधरें नहीं थ्यावस।। 
प्रिय-जन्य निष्ठुरताः- घनानंद के विरह की तीव्रता एवं उत्कटता का मूल कारण यह है कि उनका प्रिय बड़ा कठोर है, निर्दय है, निष्ठुर है तथा विश्वासघाती है। उनको इसकी तनिक भी परवाह नहीं है, वह इनकी दुर्दशा देखकर तनिक भी नहीं पसीजता और अब उसने जान-पहचान भी मिटा डाली है। वह निष्ठुरता एवं कठोरता का व्यवहार करके अब रात-दिन जलाता रहता है।
भए अति निठुर मिटाय पहिचानि डारी,
याही दुख हमैं जक लागी हाय हाय है।
तुम तो निपट निरदई गई भूमि सुधि,
हमैं सूल-सेलनि सो क्यों हूँ न भुलाय है।। 
प्रेमगत विषयताः- घनानंद के विरह में सबसे बड़ी विशेषता यह है कि एकांकी है, सम नहीं है, अपितु विषम है, क्योंकि जो तड़पन है, चीत्कार है, जलन है, धड़कन है वह एक ओर ही- केवल प्रेमिका ही हृदय अपने प्रिय (प्रेयसी सुजान) के विरह में रात-दिन तडपता रहता है। लेकिन उनके प्रिय के हृदय में विरह की तनिक भी आग नहीं है, तनिक भी चाह नहीं हैं परन्तु प्रेमी घनानंद को इसकी चिंता नहीं है कि उनका प्रिय उनके प्रति कैसे भाव रखता है, वे तो अपने प्रिय के अनन्य प्रेमी है और उनके रोम-रोम में प्रीति बसी हुई है।
चाहौ अनचाहौ जान प्यारे पै आनन्दघन,
प्रीति रीति विषम सु रोम रोम रमी है।
उपालम्भ की तीव्रता: - घनानंद के विरह हमें उपालम्भ अत्यंत गूढता एवं गंभीरता के साथ दृष्टिगोचर के साथ होता है। इस उपालम्भ में विरह के प्रेम की एक निष्ठा भरी हुई है, उत्कटता भरी हुई है और प्रिय के प्रेम की उदासीनता भी भरी हुई है। इसीलिए इन उपालम्भों मंे विरही ने स्वयं को अत्यंत दीन, हीन, दुखी, विनम्र एवं अनन्य प्रेमी कहा है तथा अपने प्रिय को कपटी, विश्वासघाती, छली, निर्मोही, सभी प्रकार के सुख सम्पन्न एवं प्रेम रहित कहा है। अपने प्रेम को इसी अन्यनता एवं एक निष्ठा तथा प्रिय की उदासीनता एवं कपट व्यवहार पूर्ण कठोरता पर उपालम्भ देते हुए लिखा है-
अति सूधो सनेह को मारग है जहाँ नेक सयानप बाक नहीं।
तहाॅ साॅचे चलै तजि आतुनपौ झॅझके कपटी जे निसाक नहीं।। 
अंग प्रत्यंग की आकुलताः-घनानंद के विरह में आँख,कान, हृदय, प्राण आदि अंग प्रत्यंगों की अत्यधिक आकुलता, बेचैनी एवं दयनीय स्थिति का चित्रण हुआ है। इसका कारण है, कि विरही घनानंद के सारे शरीर में विरह का विष फैला हुआ है, अंग प्रत्यंग में विरह की आग लगी हुई है, जिससे उनके प्राण नित्य दहकते रहते हैं, नेत्र मदमाते होकर आंसू बहाते रहते हैं।
जिनकों नित नीकें निहारति ही आंखिया अब रोवति हैं।
पल-पाॅवडे पायनि सौं अंसुबानि की धारनि धोवति हैं।। 
प्रकृति जन्य उद्दीपनः- घनानंद को विरह वेदना की तीव्र से तीव्रतम बनाने में प्रकृति का भी अत्यधिक हाथ रहा है। कारण यह कि प्रकृति के ये उपादान विरही के ऊपर कहर ढाने का काम करते हैं। कभी पुरवैया हवा चलकर, तो कभी बादल घिरकर, कभी बिजली चमकरक, तो कभी पुष्प अपनी सुगंध से, तो कभी कोकिला कूक कर, बिचारे विरही को रात-दिन सताते है-
कारी कूर कोकिल! कहां कौ बैर काढति री,
कूकि कूकि अबही करेजो किन कोरि ले। 
संदेश-प्रेषणीयताः-घनानंद के विरह में एक सबसे बड़ी विशेषता यह भी है कि इसमें विरही अपने विरह के संदेश को बडे अनूठे ढंग से अपने प्रिय के पास भेजती है। उसने इस दूत कार्य के लिए ऐसे धीर गंभीर विरही को चुना है, जो उसी की तरह विरह की आग को अपने हृदय में छिपाये हुए हैं, जो उसी की तरह प्रिय के वियोग में मदमत होकर धुमता रहता है, जो दूसरों के लिए ही अपना शरीर धारण किए हुए है और जो दूसरों के के लिए ही उत्पन्न होने के कारण परजन्य (बादल) कहलाता है। एसे धीर गंभीर सज्जन से दूत कार्य कराना सर्वथा उचित ही है, क्योंकि वह समुद्र के खाने पानी को भी अमृत तुल्य बना देता है और सबको जीवनदान देता है।
पर काजहिं देह को धारि फिरों परजन्य जथारथ है दर सौ।
नीधि-नीर सुधा के समान करौ सबही विधि सज्जनता सरसौ।
घनआनन्द जीवन दायक है कुछ मेरीयों पीर हियै परसौ।
कबहू वा विसासी सुजान के आगन मो असुवानि हुलै वरसौ।। 
सात्विकता एवं आध्यात्मिकता:-घनानंद के विरह में अंतिम और सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उसमें तनिक भी वासना की गंध नही है, कहीं भी अश्लीलता नही है, किसी भी स्थल पर कामुकता नहीं है और कोई भी उक्ति कामपरक नही है। यहां प्रत्येक पर में सात्विकता है, प्रत्येक पद प्रेम की पवित्रता है, प्रत्येक छंद में प्रेम की दिव्यता है और प्रत्येक उक्ति में काम-जन्य वासना से सर्वथा परे आध्यात्मिक वंदना की शुद्धता है।
लहा छेह कहाधौं मचाय रहे ब्रजमोहन हौ उत नींद भरे हौ।
मिली होति न भैंट दूरे उधरौ ठहरै ठहरानि क लाभ परे हौ।।
घनाआंनद छाय रहौ नित हो हित प्यासनि चातक ज्ञात परे हौ।। घनानंद की विरहानुभूति में शुद्ध एवं सात्विक विरह की व्यंजना की हुई है, इसमें हृदय की गहराई अधिक है। अपनी यथार्थता, सात्विकता, पवित्रता एवं आध्यात्मिकता के कारण ही घनानंद की विरहानुभूति सर्वोत्कृष्ट है और अपनी इसी सात्विक विरह-भावना के कारण घनानंद हिन्दी के सर्वोत्कष्ट विरही कवि है।

घनानंद का अनुभूति पक्ष या भावपक्ष
घनानंद की अनुभूति पक्ष या भाव पक्ष का समयक् अनुशीलन करने के लिए उनके काव्य में भी यह देखते की चेष्टा की जाएगी कि घनानंद ने विविध वस्तुओं के वर्णन कैसे किये है, विविध भागों के निरूपण में कैसा कौशल दिखाया ही, विविध रखों की अभिव्यंजना में कैसी दक्षता प्रकट की है और विविध सौन्दर्य चित्रों को अंकित करने में अपनी जो कला-चातुरी व्यक्त की है, उसे निम्न भागों विभक्त किया गया है-
वस्तु वर्णन - घनानंद ने ब्रज प्रदेश के प्रति अपनी गहन आस्था एवं असीम श्रद्धा व्यक्त की है और इसी कारण उन्होने ब्रज के गांवों, यमुना, वृन्दावन आदि का अत्यंत सजीवता से निरूपण किया है।
जमुना तीर गांव राजनि। कहा कहौं गोकुल-छवि-छाजनि।।
गोकुल -छवि आखिनि हीं भावै। रही न सकै रस न कछु गावै।। 
इसी तरह ब्रज के अन्य स्थानों का वर्णन करते हुए घनानंद ने सर्वाधिक वृन्दावन की मंजुल छवि का निरूपण किया है।
वृन्दावन छवि कहत न आवै। सौ कैसे कहि कोऊ गावै।।
तीर भूमि बनि रह्यौ सदावन। जै जमुना जै जै वृन्दावन।। 
इसी प्रकार घनानंद ने ब्रज के घर, गांव, गली, गलियारे, घाट, पनघट, गापे, गौप, ग्वाल - बाल, गाय, वृंदावन, बरसाना, गोवर्धन आदि का अत्यंत विस्तृत वर्णन किया है।प्रकृति चित्रण:- घनानंद ने प्रकृति के अत्यंत रमणीय चित्र अंकित किये हैं। वे सच्चे प्रकृति प्रेमी थे और प्रकृति के साथ उनका साहचर्य भी अधिक रहा था। इसलिए उन्होंने प्रकृति के अनेक सुन्दर एवं सजीव चित्र अंकित किये हैं।
घुमड़ि पराग लता-तरु भोए। मधुरितु-सौंज-समोए।।
वन बसंत वरनत मन फूल्यौ। लता-लता झूलनि संग झूल्यो।। 
प्रकृति के आलंबन रूप की अपेक्षा घनानंद ने प्रकृति के उद्दीपन रूप का चित्रण अधिक सरसता एवं मार्मिकता के साथ किया है, क्योंकि घनानंद का काव्य विरह प्रधान है और विरह में प्रकृति प्रायः विरही जानों के भावों को उद्दीप्त करती हुई दिखाई जाती है।
लहकि लहकि आवै ज्यौं पुरवाई पौन,
दहकि दहकि त्यौं त्यौं तन तांवरे तवै।
बहकि बहकि जात बदरा बिलोकें हियौ,
गहकि गहकि गहबरनि गरै मचै।
चहकि चहकि डारै चपला चखनि चाहैं,
कैसे घन आनन्द सुजान बिन ज्यौं बचे। 
भाव निरूपण - घनानंद की कविता भावों का भंडार है, क्योंकि घनानंद ने ऐसे मार्मिक भावों का चित्रण किया है कि देखते ही बनता है और एक साधारण कवि जहां तक पहुँच नहीं सकता। धनानंद की इस भाव निरूपण पद्धति पर सर्वत्र उनके गहन प्रेम की छाप है इसी कारण उनके सभी भाव चित्र इतने मनोरंजक एवं आकर्षक बन पडे हैं कि पाठकों एवं श्रोताओं के हृदय उन्हें पढ़कर एवं सुनकर आनंद के सागर में डुबकियां लगाने लगते हैं।

नैन कहैं सुनि रे मन! कान दै क्यों इतनी गुन मोहि दयौ है।
सुन्दर प्यारे सुजान कौ मंदिर बाबरे तू हम ही ते भयौ है।।
लोभी तिन्हें तन कों न दिखावत ऐसो महामद छाकि गयौ है।
कीजिए जू घन आनंद आय कै पायै परौ यह न्याय नयौ है।। 
इसी तरह घनानंद ने उपालम्भ के द्वारा 'स्मृति' का चित्र अंकित करते हुए आवेग, अमर्ष, उग्रता, ग्लानि आदि भावों का बड़ा ही मार्मिक निरूपण किया है-

क्यों हंसि हेरि हर्यो हियरा अरू क्यों हित कै चित्त चाह बढाई।
काहे को बोलि सुधासने बैननि चैननि मैन-निसैन चढाई।।
सो सुधि मोहिय मैं घन आनन्द सालति क्यों हूॅ कढै न कढाई।
मीत सुजान अनीत की पाटी इतै पै न जानियै कौने पढाई।। 
रस निरूपण -घनानंद ने मुख्यता संयोग श्रृंगार, वियोग श्रृंगार एवं भक्ति का निरूपण किया है। इसमें से भी घनानंद वियोग श्रृंगार के ही कवि है, वियोग के ही अद्वितीय चितेरे हैं। और इनके काव्य में वियोग श्रृंगार का ही पूर्ण परिपक्व अधिक मार्मिकता एवं सजीवता के साथ हुआ है। इसीलिए वे अपनी संजीवन-मूर्ति 'सुजान' के वियोग में रात-दिन व्यथित रहते हैं। सोने पर भी सो नहीं पाते, जागने पर भी जाग नहीं पाते, विचित्र सी पीड़ा नित्य आँखों में रह रहकर आती है, अमृत विष तुल्य प्रतित होता है। फूल शूल जैसे लगते हैं, चंद्रमा अंधकार उगलता जान पडता है, पानी संपूर्ण अंगों को जलाता है, राग-रागनियां अच्छी नहीं लगती गुण दोष में बदल गये हैं, औषधियां रोग पैदा करने वाली हो गयी हैं और रस विरस जान पड़ते हैं। इस तरह 'सुजान' के मान फेर लेने से दिन भी फिर गये है। और न जाने अब कैसे दिन बीतेंगें। घनानंद ने इस व्यथा एवं पीड़ा का मार्मिक निरूपण किया है।
सुधा तें स्त्रवत विष, फूल में जगत सूल,
तम उगिलत चंदा, भई नई रीति है।
जल जारै अंग, और राग कर सुर भंग,
संपति विपति पारै, बडी विपरीत है।।
सहागुन गहै दोषैं, औषधि हूॅ रोग पोषै,
ऐसे जान रस माहि बिरस अनीति है।
दिनन को फेर मोहिं तुम मन फेरि डार्यो,
एहो घनाआनंद! न जानौं कैसे बीति है।। 
सौंदर्य चित्रण - घनानंद ने रूप सौंदर्य के कितने ही अत्यंत मनोहारी चित्र अंकित किये है, जिनमें अपनी प्राणप्रिया सुजान' की विविध रूप छवियाॅ अत्यंत माधुर्य एवं गाम्भीर्य के साथ विद्यमान है। घनानंद ने इन रूप-चित्रों में आँख, नाक, कान, मुख, अंग-प्रत्यंग आदि को अलग-अलग दिखाने की उतनी प्रवृत्ति नहीं दिखाई देती, जितनी कि उन्होंने संपूर्ण अंग की अतिशय रमणीयता एवं प्रभविष्णुता को दिखाने का प्रयास किया है। घनानंद के इन सौंदर्य-चित्रों में सुजान का रूप, उसका लावण्य, उसकी छवि, उसकी कान्ति, उसकी अंग-दीप्ति आदि मानों साकार हो उठी है-
स्याम घटा लपटी थिर बीज कि सोहै अमाावस-अंग उज्यारी।
धूम के पुंज मैं ज्वाल की माल सी पै दृग सीतलता-सुखकारी।।
कै छवि छायौं सिंगार निहारि सुजान-तिया-तनं-दिपति प्यारी।
कैसी फवी घन आनन्द चोपानि सौ पहिरी चुनि सांवरी सारी।। 
इसी प्रकार घनानंद ने अंग-अंग में द्युति की तरंग उठने वाले पार्थिव रूप-सौंदर्य को बड़ी तन्मयता एवं तत्परता के साथ शब्दों में डालकर अंकित किया है।

घनानंद का अभिव्यक्ति पक्ष या कला पक्ष
किसी कवि के अभिव्यक्ति पक्ष से तात्पर्य उसकी उस वर्णन पद्धति से है, जिसमें वह अपनी अनुभूति को अभिव्यक्ति करता है। इसके लिए वह अनेक उपकरणों का सहारा लेता है और इन उपकरणों द्वारा कलात्मक ढंग से अपनी अनुभूति को वाणी प्रदान करता है। इसलिए अभिव्यक्ति पक्ष को कला पक्ष भी कहते हैं और इसके अंतर्गत कला के वे सभी उपकरण आते हैं, जिनके माध्यम से अनुभूति को अभिव्यक्ति प्रदान की जाती है, अर्थात भाषा, अलंकार, गुण, वृत्ति, शब्द शक्ति, छंद आदि कला को संपूर्ण अवयवों का विवेचन अभिव्यक्ति पक्ष के अंतर्गत होता है।
  • भाषा - घनानंद ने ब्रजभाषा में अपनी सरस काव्य-धारा प्रवाहित की है। उनकी ब्रजभाषा में सर्वत्र स्वच्छता, एकरूपता एवं सुघडता के दर्शन होते हैं। घनानंद ब्रजभाषा के अत्यंत प्रवीण कवि थे। इसी कारण उनकी भाषा के अनुकूल चलने की अपूर्व शक्ति दिखाई देती है, वह नई-नई भंगिमाओं के द्वारा भावों को प्रस्तुत करने में बड़ी निपुण जान पडती है और उसका रचना-कौशल कारीगरी तथा रूप-विधान सभी कुछ असाधारण एवं अद्वितीय जान पड़ता है। घनानंद का भाषा पर इतना अधिक अधिकार दिखाई पडता है कि वह कवि की वशवर्तिनी होकर उनके इशारे पर नाचती है, उनके कहने पर चलती है, उनके आदेश पर कार्य करती है। ऐसा जान पड़ता है कि घनानंद ब्रजभाषा की नाडी पहचानते थे, उसके निश्चित प्रयोगों को जानते थे और उसकी नस-नस से परिचित थे। इसी प्रकार घनानंद ने बडी स्वच्छता और सुंदरता के साथ ब्रजभाषा का प्रयोग किया है, उसके एक-एक शब्द की स्थापना की है और उसे अपने अभीष्ट लक्ष्य की पूर्ति के लिए गति प्रदान की है। ब्रजभाषा पर ऐसा साधारण अधिकार अन्य किसी हिन्दी कवि का दिखाई नहीं देता। घनानंद की भाषा साफ-सुथरी और अत्यंत निखरी है तथा उसमें भावों के निरूपण की अनन्त शक्ति भरी हुई है।
  • शब्द शक्ति - शब्द की तीन शक्तियां होती है- अभिधा, लक्षण और व्यंजना। जिनमें ये शक्तियां होती है, वे शब्द भी तीन प्रकार के होते हैं-वाचक, लक्षक और व्यंजक शब्दों एवं लक्ष्यार्थ एवं व्यंग्यार्थ की प्रधानता है। घनानंद ने सबसे अधिक उक्ति-वैचित्र्य का सहारा लिया है। इसलिए इनके काव्य में अभिधा की अपेक्षा एवं व्यंजना लक्षण-प्रधान माना जाता है। कविवर घनानंद ने उक्ति-चमत्कार के लिए, भावों को गहन बनाने के लिए तथा सरसता उत्पन्न करने के लिए ही लाक्षणिक प्रयोगों को अधिक अपनाया है।
  • अलंकार - काव्य में अलंकारों का प्रयोग भी कथन में चारूता एवं भव्यता लाने के लिए होता है। इसलिए अलंकारों को कथन की प्रणाली बतलाया गया है, भावों की तीव्रता करने वाली योजना कहा गया है और वस्तुओं के रूप, गुण एवं क्रिया को अधिक तीव्र गति से अनुभव कराने वाली युक्ति बतलाया गया है। निस्संदेह अलंकारों के दो ही कार्य होते हैं- एक तो वे भावों का उत्कर्ष दिखाया करते हैं और दूसरे वे वस्तुओं के रूप अनुभव गुणानुभव और क्रियानुभव को तीव्रता प्रदान करते हैं। घनानंद के काव्य में जहां रस और भावों में अधिक्य है वहाँ अलंकारों ने उन्हें और भी अधिक सजीवता एवं प्रभविष्णुता (दूसरों पर प्रभाव डालने वाला) प्रदान की है। घनानंद ने दोनों प्रकार के अलंकार अपनाएं हैं, यहाँ शब्दालंकार भी है और अर्थालंकार भी।
  • गुण - काव्य के तीन प्रमुख गुण माने गये हैं- माधुर्य, ओज और प्रसाद। माधुर्य गुण अन्तःकरण को आनंद से द्रवीभूत करने वाला होता है, ओज गुण चित्त में स्फूर्ति उत्पन्न करने वाला होता है और प्रसाद गुण श्रवण मात्र से काव्य की शीघ्र अर्थ-प्रतीत कराने वाला होता है। साहित्य शास्त्रियों ने अलंकारों के बिना भी काव्य रचना हो सकती है, किंतु गुणों के बिना काव्य रचना नहीं होती। यदि कोई काव्य बिना किसी गुण के रचा भी जाता है तो वह निर्जीव नीरस एवं निरर्थक होता हैं। घनानंद के काव्य में सर्वत्र माधुर्य गुण की प्रधानता है क्योंकि माधुर्य गुण की अनुभूति गुण की अनुभूति सर्वाधिक विप्रलम्भ श्रृंगार अथवा विरह-निरूपण में होती है और घनानंद ने सबसे अधिक विरह का ही वर्णन किया है।
    रैन दिना धुटिबौ करें प्रान झरैं अखियां झरना सो।
    प्रीतम की सुधि अन्तर मैं कसकै सखी ज्यौ पॅसरीन में गाॅसी।।
  • छंद - काव्य का छंद से नित्य सम्बन्ध तो नहीं हैं क्योंकि बिना छंद-बंध के भी काव्य रचना होती है, किंतु छंद से काव्य में एक ऐसी प्रभविष्णुता आ जाती है, जिससे काव्य पाठकों एवं श्रोताओं के हृदय में उतरता चला जाता है और उनका कंठ हार बन जाता है। घनानंद का सारा काव्य छंद की रस-माधुरी से ओत प्रोत है, उसमें प्राणों का संगीत भरा हुआ है। और वह कवि की हृदय-वीणा के तारों की मधुर झंकार से झंकृत है। घनानंद की छंद रचना पर विचार करने से ज्ञात होता है कि घनानंद ने विविध प्रकार के छंदों का प्रयोग किया है। जैसे-सवैया, कवित्त, त्रिलोकी, ताटंक, निसाती, सुमेरू, शोभन, त्रिभंगी, दोहा, चौपाई तथा घनाक्षरी पद। इनमें से घनानंद ने मुख्यतया सवैया एवं कवित्त छन्दों का प्रयोग अत्यंत प्रभावशाली ढंग से किया है। घनानंद के सर्वथा तो हिन्दी जगत में सर्वाधिक प्रसिद्ध है और उन्हें सर्वथा छंद का सिरताज कहना सवैया समीचीन ज्ञात होता है। इस प्रकार घनानंद की कविता विविध प्रकार के कलात्मक सौंदर्य से ओत प्रोत है उसमें जितनी अनुभूति है, उतनी ही गहन अभिव्यक्ति भी है।
रीतिमुक्त स्वच्छंद काव्यधारा में घनानंद का स्थान - हिन्दी की संपूर्ण स्वच्छंद प्रेम काव्यधारा का अनुशीलन करने पर ज्ञात होता है कि इस धारा के प्रमुख कवियो में से रसखान, आलम, घनानंद, ठाकुर और बोधा के नाम उल्लेखनीय है। ये सभी कवि प्रेम काव्य के प्रमुखप्रणेता है और इन्होने स्वच्छंदता के साथ प्रेमानुभूति का बडा ही मर्मस्पर्शी वर्णन किया है, परन्तु इनमें से घनानंद सर्वश्रेष्ठ कवि है, क्योंकि घनानंद के काव्य में रसखान की सी प्रेम की अनिर्वचनीयता भी हैं, परन्तु इन सबसे बढ़कर घनानंद में कुछ ऐसे असाधारण काव्य सौष्ठव के दर्शन होते हैं, जो न रसखान में है, न आलम में हैं, न ठाकुर में है और न बोध मे ही है। घनानंद ने 'सुजान' केा आलम्बन बनाकर अपनी इस लौकिक प्रेयसी के रूप-सौंदर्य का इतना मार्मिक एवं मनोरंजक वर्णन किया है कि देखते ही बनता है। सुजान की तिरछी चितवन, धुमते कटाक्ष, रसिली हँसी, मृदु-मुस्कान, अरूण होठ कान्तिमंडित दंतावलि, सचिवकण, केशराशि, वक्रिम भौंहें, विशाल नैत्र, गर्वीली मुदा, उन्तम यौवन आदि परमुग्ध घनानंद ने उसकी रूप निकाई के अनेक संश्लिष्टप्त चित्र अंकित करते हुए जहाँ अपनी प्रेम-विभोरता का परिचय दिया है, वहाँ मुहम्मद शाह रंगीले दरबार की इस नर्तकी के प्रति अपना ऐसा प्रणय-निवेदन किया है, जो हिन्दी काव्यकी स्थायी सम्पत्ति बन गया है। घनानंद की श्रेष्ठता का सबसे बडा करण यह है कि घनानंद के हृदय में सुजान के प्रति उत्कृष्ट प्रेम एवं असीम व्यामोह भरा हुआ था, उनके मन में सुजान की अक्षय रूप राशि समाई हुई थी। इसीलिए घनानंद का काव्य प्रेम की गूढता से भरा हुआ था, उनके मन में सुजान की अक्षय रूप राशि समाई थी। इसीलिए घनानंद का काव्य प्रेम की गूढता से भरा हुआ है, अतृप्ति की अनंतता से भरा हुआ है, अन्तद्र्वद्व की अलौकिकता से भरा हुआ है, वेदना की अक्षयता से भरा हुआ हैं और तीव्रानुभूति की अखंडता से भरा हुआ है, क्योंकि घनानंद का सा उक्ति वैचित्रय और कोई कवि दिखा नहीं सका है, उनकी सी लाक्षाणिक मूर्तिमत्ता किसी की भी रचना में दृष्टिगोचर नहीं होती और उनका सा प्रयोग वैचित्रय कहीं ढूढ़ने पर भी नहीं मिलता है। निःसंदेह वे प्रेम के इतने धनी थे, उतने ही भाषा के भी धनी थे और उतने ही अभिव्यंजना के भी धनी थे। इसी कारण हिन्दी काव्य की रीतिमुक्त स्वच्छंद प्रेम धारा में घनानंद का शीर्षस्थ स्थान है।
घनानंद की रचनाएँ - घनानंद द्वारा लिखित कई ग्रन्थ है। सबसे पहले भारतेन्दु हरिशचन्द्र ने ’सुजान शतक’ नामक पुस्तक में घनानंद कविताओं का संकलन किया। इसके अतिरिक्त ’सुजानहित’तथा ’सुजान सागर’ नामक संकलन भी प्रकाश में आया। इस क्षेत्र में आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र द्वारा घनानंद पर किया गया शोध कार्य बड़ा सार्थक सिद्ध हुआ। उन्होंने घनानंद के कविताओं को संकलित कर तीन पुस्तकें प्रकाशित की। प्रथम ’घनानंद कवित’ जिसमें 502 कवित्त संग्रहित है। द्वितीय संकलन सन् 1945 में प्रकाशित हुआ जिसमें कवित्त सवैयों के अतिरिक्त घनानंद के 500 पद तथा उनकी ’वियोग बेलि’, ’यमुना यश’, ’प्रीति पावस’ तथा ’प्रेम पत्रिका’ रचनाओं का संग्रह है। इसके बाद सन् 1952 में घनानंद की अन्य 36 कृतियों का संकलन करते हुए ’घनानंद ग्रंथावली’ का प्रकाशन हुआ। काशी नागरी प्रचारिणी महासभा ने 2000 सम्वत् तक की खोज के आधार पर निम्नलिखित कृतियों को उनका माना है- 1. घनानन्द कवित्त 2. आनन्द घन के कवित्त 3. कवित्त 4. स्फुट कवित्त 5. आनन्द घन जू के कवित्त 6. सुजान हित 7. सुजानहित प्रबंध 8. कृपाकन्द निबंध 9. वियोग बेला 10. इश्क लता 11. जमुना-जस 12. आनन्द घन जी की पदावली 13. प्रीती पावस 14. सुजान विनोद 15. कविता संग्रह 16. रस केलि बल्ली 17. वृन्दावन सत।

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उल्टी के लक्षण, कारण, इलाज, दवा और उपचार



उल्टी आने के कई कारण हो सकते हैं। जब कभी हमारा शरीर किसी ऐसी चीज को ग्रहण कर लेता है जो संक्रमित हो, तो ऐसे में शरीर का प्रतिरक्षा तंत्र उसे उल्टी के माध्यम से शरीर के बाहर भेज देता है। इसके अलावा भी ज्यादा खा लेने की वजह से, ज्यादा शराब पी लेने की वजह से, एसिडिटी या फिर माइग्रेन की वजह से उल्टी की समस्या होती है। गर्भवती महिलाओं को भी उल्टी की समस्या से काफी परेशान होना पड़ता है। इसके विभिन्न कारणों में स्टोमक के भीतर ब्लीडिंग होना, इन्फेक्शन, इरिटेशन, इन्टेस्टाइन में ब्लॉकेज, बॉडी केमिकल्स और मिनरल्स कम-ज्यादा होना, बॉडी में टॉक्सिसिटी होना भी शामिल हैं।

ultee ke lakshan, kaaran, ilaaj, dava aur upachaar
ultee ke lakshan, kaaran, ilaaj, dava aur upachaar
  1. उल्टी के कारण कई तरह के हो सकते हैं जिनमें फूड-पॉइजनिंग, इन्फेक्शन, ब्रेन और सेंट्रल नर्वस सिस्टम में समस्या होना या कोई सिस्टमिक डिजीज होना शामिल हैं।
  2. कई बार उल्टी होने का कारण कोई दवाई का साइड इफ़ेक्ट,कैंसर कीमोथेरेपी में उपयोग में ली गई ड्रग्स या फिर रेडिएशन थेरेपी भी हो सकती हैं।
  3. कई बार अल्कोहल, बियर, वाइन और लिक्वर केमिकल-एसीटैल्डिहाइड में बदल जाते हैं,जिसके कारण अगली सुबह जी मिचलाना जैसी फीलिंग आती हैं जिसे हैंग-ओवर कहते हैं।
  4. कुछ बीमारियों में जी घबराना और उल्टी आना आम होता है। जबकि उस समय रोगी में गैस्ट्रो इंटेस्टाइनल ट्रैक्ट या स्टमक का उल्टी के लिए कोई कारण नहीं होता जैसे निमोनिया,हार्ट अटैक और सेप्सिस।
  5. कुछ वाइरल इन्फेक्शन, सर में लगी चोट, गालब्लेडर डिजीज, एपेंडीसाईटीस, माइग्रेन, ब्रेन ट्यूमर, ब्रेन इन्फेक्शन, हाइड्रोसिफेलस (ब्रेन में बहुत सा फ्लूइड जमा होना,सर्जरी में उपयोग आने वाले एनेस्थिशिया के साइड इफ़ेक्ट,स्टोमक प्रोब्लम जैसे ब्लॉकेज (पाइलोरिक ओबस्ट्रेकशन,वो स्थिति जिसके कारण बच्चों में फोर्सफुल थूक बाहर आता हैं) भी उल्टी के कारण हो सकते हैं।
  6. प्रेगनेंसी के दौरान जी मिचलाना और उल्टियां लगातार होती रहती हैं। सामान्यतः शुरुआती कुछ महीनों में मोर्निंग सिकनेस होती हैं लेकिन कई बार ये पूरे 9 महीने भी चल जाती हैं।
आयुर्वेद के अनुसार उल्टी के प्रकार और कारण
 उल्टी आना कोई गंभीर समस्या नहीं है, बल्कि दिनचर्या, खानपान में बदलाव के कारण भी ऐसी समस्याएं हो सकती हैं। लेकिन आयुर्वेद में उल्टी के इन 5 प्रकारों का वर्णन मिलता है।
  1. आगंतुज : इस तरह की उल्टी बदबू, गर्भावस्था, अरूचिकर भोजन, पेट में कीड़े या किसी स्थान विशेष पर जाने से हो सकती है। इस तरह की उल्टी को आगन्तुज छर्दि भी कहते हैं।
  2. कफज : कफ के कारण होने वाली उल्टी इस श्रेणी में आती है। इसमें उल्टी का रंग सफेद और प्रकार गाढ़ा होगा। इसका स्वाद मीठा होता है। मुंह में पानी भरना, शरीर का भारी होना, बार-बार नींद आना, जैसे लक्षण इस प्रकार की उल्टी में होना स्वाभाविक हैं।
  3. त्रिदोषज : त्रिदोषज उल्टी वह होती है जो वात, पित और कफ, तीनों कारणों के चलते होती है। यह गाढ़ी, नीले रंग की या खून की हो सकती है। स्वाद में नमकीन या खट्टी हो सकती है। इसके अलावा पेट में तेज दर्द, भूख में कमी, जलन, सांस लेने में परेशानी और बेहोशी भी इसके लक्षणों में शामिल है।
  4. पित्तज : पित्त की गर्मी के कारण होने वाली उल्टी पित्तज की श्रेणी में आती है। इस स्थिति में पीले, हरे रंग की उल्टी आती है और मुंह का स्वाद बेहद बुरा होती है। इसमें भोजन नली व गले में जलन हो सकती है। सिर घूमना, बेहोशी भी इसके लक्षणों में शामिल है।
  5. वातज : पेट में गैस से होने वाली उल्टी वातज की श्रेणी में आती है। इस तरह की उल्टी कम मात्रा में कड़वी, झाग वाली और पानी जैसी होती है। लेकिन कई बार इसके साथ सिर का दर्द, सीने में जलन, नाभि में जलन, खांसी और आवाज का खराब होना आदि समस्याएं भी होती हैं।
उल्टी रोकने के कुछ अन्य घरेलू इलाज
  1. खाने के तुरंत बाद ना सोयें।
  2. खाने के तुरंत बाद ब्रश ना करें, इससे वोमिट होने के सबसे ज्यादा चांस होते है।
  3. गुलुकोस, एलेक्ट्रोल जैसी चीज पीते रहें।
  4. जितना हो सके आराम करें।
  5. तेज सुगन्धित वाली जगह में ना बैठे, इससे जी और ज्यादा मचलाता है।
  6. बहुत हल्का एवं कम तेल मसाले वाला भोजन लें, एवं धीरे धीरे खाएं।
  7. वोमिट जैसा महसूस होने पर, एक एक घूँट पानी पीते रहें।
उल्टी रोकने के आयुर्वेदिक घरेलू इलाज
  1. अदरक पाचन-तन्त्र के लिए बहुत अच्छा होता हैं और उल्टियाँ रोकने के लिए प्राकृतिक रूप से एंटी-एमेटिक के जैसे काम करता हैं। एक चम्मच अदरक के रस और नीम्बू के रस को मिलाकर दिन में 2-4 बार लेने से उल्टियाँ होना और जी घबराना बंद हो जाता हैं। इसके अलावा अदरक के छोटे टुकड़े मुंह में रखने पर भी थोड़ी देर के लिए आराम मिलता हैं । शहद के साथ अदरक की चाय बनाकर भी ली जा सकती हैं।
  2. अदरक में पेट की हर समस्या से निपटने का इलाज होता है। इसके एक टुकड़े को कूचकर पानी में मिला लीजिए। इसमें एक चम्मच शहद मिलाकर इसका सेवन कीजिए। उल्टी से तुरंत लाभ मिलेगा।
  3. उल्टी आने की स्थिति में दो चार लौंग लेकर दांतों के नीचे दबा लें और इसका रस चूसते रहें। इसका स्वाद उल्टी को तुरंत रोकने में कारगर होता है। यह मुंह की तमाम समस्याओं का भी बेहतरीन निदान है। दांतों की सेंसिटिविटी के लिए लौंग अचूक औषधि है।
  4. उल्टी जैसा जी होने पर नींबू का एक टुकड़ा मुंह में रख लें। इससे उल्टी में काफी राहत मिलती है।
  5. एक चम्मच पुदीने की पत्ती का जूस,नींबू का रस और शहद मिलाकर दिन में 3 बार पीने से भी उल्टियां कम होने लगती हैं।
  6. एप्पल साइडर विनेगर भी बेचैनी को कम करता हैं,यह डीटॉक्सीफिकेशन भी करता हैं,इसमें एंटी-माइक्रोबियल गुण होने के कारण यह फूड-पॉइजनिंग भी सही करता हैं। एक चम्मच एप्पल साइडर विनेगर और एक चम्मच शहद को पानी में मिलाकर पीने से जी घबराना और उल्टी होना कम हो सकता हैं। उल्टी होने के कारण मुंह का खराब स्वाद और गंध भी इससे कम की जा सकती हैं। आधे कप पानी में 1 चम्मच विनेगर मिलाकर पीने से मुंह खराब स्वाद और गंध के कारण बार-बार उल्टियां नहीं होती।
  7. ऐसे में इस समस्या से निपटने के लिए आपको कुछ घरेलू उपाय जरूर आजमाने चाहिए। इससे आपको उल्टी की समस्या से तुरंत आराम मिलता है।
  8. कभी भी उल्टी आने पर पुदीने की चाय बनाकर पी लीजिए या फिर केवल उसकी पत्ती को चबाइए। उल्टी से तुरंत राहत मिल जाएगी।
  9. जामुन के पेड़ की छाल का पाउडर बना ले इसे 10 मिनट के लिए पानी में भिगोकर रखें,और अब इसमें 1 चम्मच शहद मिलाकर रोज 2-3 चम्मच इसे पीये। यह ब्लड शुगर को भी कम करता हैं इसलिए लोग इसे डाईबिटिज में भी पीते हैं।
  10. ताजा संतरे का जूस उल्टी में काफी लाभदायक ट्रीटमेंट है। इसके कई अन्य फायदे भी हैं। जैसे, यह शरीर में ब्लड प्रेशर के नियंत्रण के लिए भी बेहद लाभदायक है।
  11. दालचीनी भी जठर संबंधी समस्याओं को शांत करती हैं। इसे लेने से भी जी मिचलाना और उल्टी होने जैसे समस्याओं में कमी आती हैं। एक कप पानी में आधा चम्मच दालचीनी पाउडर डालकर उबालें और इस पानी को पिए,इसमें शहद भी मिला सकते हैं। हालांकि ये उपाय गर्भवती महिलाओं के लिए उपयुक्त नहीं हैं।
  12. दिन में कई बार सैंफ चबाना उल्टी में बेहद फायदेमंद है। यह मुंह के स्वाद को बदलने के लिए भी प्रयोग किया जाता है। इसे खाने के बाद उल्टी से काफी राहत मिलती है।
  13. नींबू और प्याज का रस भी मिलाकर पीने से उल्टियां कम हो सकती हैं।
  14. पुदीने की चाय भी पाचन तन्त्र को संतुलित रखती हैं। यदि ताज़ी पत्तियां उपलब्ध हो तो उन्हें चबाए लेकिन यदि ना हो तो एक चम्मच सुखी पुदीने की पत्तियों को गर्म पानी में डालकर इसके चाय बनाए।
  15. पेट की एसिडिटी शांत रखने के लिए तथा खाना हजम करने के लिए इलायची भी काफी कारगर उपाय है।
  16. मीठी तुलसी की पत्तियों की खुशबू भी उल्टी को कम करती हैं। इसका जूस बनाकर एक ग्लास गर्म पानी में 2 चम्मच शहद मिलाकर पीने से उल्टी होना और जी मिचलाना कम हो जाते हैं।
  17. यदि डॉक्टर की सलाह ले चुके हो या फिर उल्टी होने का कारण समझ आ चुका हो, तो कुछ घरेलू उपायों से भी लगातार होने वाली उल्टियों को रोका जा सकता हैं।
  18. लौंग भी गैस्ट्रिक इरिटेबिलिटी को कम करती हैं, लौंग की चाय बनाई जा सकती हैं या फिर तले हुए लौंग को शहद के साथ मिलाकर भी लिया जा सकता हैं।


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गुर्दे के पथरी के रामबाण घरेलू उपाय एवं उपचार



किडनी में पथरी होना एक आम समस्या हो गई है। हमारी जिन्दगी में किडनी स्टोन गलत खानपान का नतीजा है और लगातार इसके मरीजों की संख्या लगातार बढ़ रही है। यूरिक एसिड, फास्फोरस, कैल्शियम और ऑक्जेलिक एसिड। यही सारे तत्व स्टोन बनाने के लिए उत्तरदायी होते हैं। कुछ पथरी रेत के दानों की तरह बहुत छोटे आकार के होते हैं तो कुछ मटर के दाने की तरह। इसके साथ ही बहुत अधिक मात्रा में विटामिन डी के सेवन से, डिहाइड्रेशन और अनियमित डाइट की वजह से भी किडनी में स्टोन हो जाता है। आमतौर पर पथरी मूत्र के जरिये शरीर के बाहर निकल जाती है, लेकिन जो पथरी बड़ी होती है वह बहुत ही परेशान करती है। किडनी में स्टोन हो जाने पर पेट में हर वक्त दर्द बना रहता है।
घर के बुजुर्गों के पास अक्सर हर दर्द का इलाज होता है और हम लोगो ने अपने घर में बड़े बुजुर्गों जैसे कि दादा-दादी या नाना-नानी को कहते सुना होगा कि सुबह खाली पेट 3-4 गिलास पानी पीने से पेट की सारी बीमारियां दूर हो जाती हैं। ऐसे ही कितने घरेलू नुस्खे हमें दादी और अन्य लोगों से सुनने को मिले हैं। आज हम पेट और किडनी में पथरी के इलाज के लिए दादी मां के कुछ नुस्खे यानी ऐसे नुस्खे जानेंगे जिन्हें आप घर पर आजमा सकते हैं -
  1. 2-15 दाने बड़ी इलायची, एक चम्मच खरबूजे के बीज की गिरी और दो चम्मच मिश्री एक कप पानी में पीस-मिलाकर सुबह-शाम दो बार पीने से पथरी निकल जाती है।
  2. अजवाइन किडनी के लिए टॉनिक के रूप में काम करता है। किडनी में स्टोन के गठन को रोकने के लिए अजवाइन का इस्तेमाल मसाले के रूप में या चाय में नियमित रूप से किया जा सकता है।
  3. अनार का रस किडनी स्टोन के खिलाफ बहुत ही असरदार और सरल घरेलू उपाय है। अनार के कई स्वास्थ्य लाभ के अलावा इसके बीज और रस में खट्टेपन और कसैले गुण के कारण इसे किडनी स्टोन के लिए प्राकृतिक उपाय के रूप में माना जाता है।
  4. आंवला भी पथरी में बहुत फायदा करता है। आंवला का चूर्ण मूली के साथ खाने से मूत्राशय की पथरी निकल जाती है।
  5. करेला बुहत कड़वा होता है और आमतौर पर लोग इसे कम पसंदकरते हैं, लेकिन किडनी स्टोन के मरीजों के लिए यह रामबाण की तरह है।करेले में मैग्नीशियम और फॉस्फोरस नामक तत्त्व होते हैं,जो पथरी को बनने से रोकते हैं। इसलिए किडनी स्टोन की समस्या पर होनेकरेले का सेवनकरना चाहिए।
  6. किडनी स्टोन को बाहर निकालने के लिए बथुआ का साग बहुत ही कारगर माना जाता है। इसके लिए आधा किलो बथुआ के साग को उबालकर छान लें। अब इसे पानी में जरा सी काली मिर्च, जीरा और हल्का सा सेंधा नमक मिलाकर दिन में चार बार पिए, किडनी स्टोन में फायदा होगा।
  7. किडनी स्टोन से छुटकारा दिलाने में अंगूर महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। अंगूर प्राकृतिक मूत्रवर्धक के रूप में कार्य करता है, क्योंकि इसमें पोटेशियम और पानी भरपूर मात्रा में होता है। अंगूर में अलबूमीन और सोडियम क्लोराइड बहुत ही कम मात्रा में होते हैं, जिनकी वजह से इन्हें किडनी स्टोन के उपचार के लिए अच्छा माना जाता है।
  8. जीरे और चीनी को समान मात्रा में पीसकर एक-एक चम्मच ठंडे पानी से रोज तीन बार लेने से लाभ होता है और पथरी निकल जाती है।
  9. जैतून के तेल के साथ नींबू का रस मिलाकर सेवन करने से किडनी स्टोन में फायदा होता है। दर्द होने पर 60 मिलीलीटर नींबू के रस में उतनी ही मात्रा में आर्गेनिक जैतून का तेल मिलाकर सेवन करने से इसके दर्द से भी आराम मिलता है। नींबू का रस और जैतून का तेल पूरे स्वास्थ्य के लिए अच्छा रहता है और यह आसानी से उपलब्ध भी हो जाता हैं।
  10. तीन हल्की कच्ची भिंड़ी को पतली-पतली लंबी-लंबी काट लें। कांच के बर्तन में दो लीटर पानी में कटी हुई भिंड़ी ड़ालकर रात भर के लिए रख दें। सुबह भिंड़ी को उसी पानी में निचोड़कर भिंड़ी को निकाल लें। ये सारा पानी दो घंटों के अंदर-अंदर पी लें। इससे किड़नी की पथरी से छुटकारा मिलता है।
  11. तुलसी की चाय पीने से किडनी स्टोन से निजात मिलता है। तुलसी का रस लेने से पथरी को पेशाब के रास्ते निकलने में मदद मिलती है। कम से कम एक महीना तुलसी के पत्तों के रस के साथ शहद लेने से किडनी स्टोन की समस्या से छुटकारा मिल सकता है। तुलसी के कुछ ताजे पत्ते रोजाना चबा भी सकते हैं, यह बहुत ही फायदेमंद है।
  12. नारियल का पानी पीने से पथरी में फायदा होता है। पथरी होने पर नारियल का पानी पीना चाहिए।
  13. पका हुआ जामुन पथरी से निजात दिलाने में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। पथरी होने पर पका हुआ जामुन खाना चाहिए।
  14. प्याज में स्टोन नाशक तत्त्व होते है इसका प्रयोगकर किडनी स्टोन से निजात पा सकते है। लगभग 70 ग्राम प्याज को पीसकर और उसका रस निकालकर पिए। सुबह खाली पेट प्याज के रस का नियमित सेवन करने से पथरी के छोटे-छोटे टुकड़ों में होकर निकल जाती है।
  15. मिश्री, सौंफ, सूखा धनिया लेकर 50-50 ग्राम मात्रा में लेकर डेढ़ लीटर पानी में रात को भिगोकर रख दीजिए। अगली शाम को इनको पानी से छानकर पीस लीजिए और पानी में मिलाकर एक घोल बना लीजिए, इस घोल को पीजिए। पथरी निकल जाएगी।
  16. सहजन की सब्जी खाने से गुर्दे की पथरी टूटकर बाहर निकल जाती है। आम के पत्ते छांव में सुखाकर बहुत बारीक पीस लें और आठ ग्राम रोज पानी के साथ लीजिए, फायदा होगा।
  17. स्टोन की समस्या से निपटने के लिए केले का सेवनकरना चाहिए। इसमें विटामिन बी-6 होता है। विटामिन बी-6 ऑक्जेलेट क्रिस्टल को बनने से रोकता और तोड़ता है। इसके अलावा विटामिन बी-6,विटामिन बी के अन्य विटामिन के साथ सेवनकरना किडनी स्टोन के इलाज में काफी मददगार होता है। एक शोध के मुताबिक विटामिन बी की 100 से 150 मिलीग्राम दैनिक खुराक किडनी स्टोन के उपचार में बहुत फायदेमंद है।
डिस्क्लेमर: घरेलू इलाज के अलावा डॉक्टर से तुरंत संपर्क करें और जरूरी इलाज शुरू करें।


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