अखरोट के फायदे, उपयोग और नुकसान



ड्राई फ्रूट्स सेहत के लिए फायदेमंद होते हैं। स्वस्थ आहार के साथ-साथ अगर आप अपनी दिनचर्या में ड्राईफ्रूट्स शामिल करते हैं, तो यह आपकी सेहत के लिए अच्छा है। बादाम, किशमिश, खजूर व अखरोट के साथ-साथ कई ऐसे ड्राई फूट्स हैं, जो आपकी सेहत बनाए रखने में मदद करते हैं। अखरोट का फल एक प्रकार का सूखा मेवा है जो खाने के लिये उपयोग में लाया जाता है। अखरोट का बाह्य आवरण एकदम कठोर होता है और अंदर मानव मस्तिष्क के जैसे आकार वाली गिरी होती है। अखरोट (के वृक्ष) का वानस्पतिक नाम जग्लान्स निग्रा है। आधी मुट्ठी अखरोट में 392 कैलोरी ऊर्जा होती हैं, 9 ग्राम प्रोटीन होता है, 39 ग्राम वसा होती है और 8 ग्राम कार्बोहाइड्रेट होता है। इसमें विटामिन ई और बी6, कैल्शियम और मिनेरल भी पर्याप्त मात्रा में होते है। दिन भर में एक मुट्ठी या 4 से 5 अखरोट का सेवन आपके हृदय को तंदुरुस्त रखने के साथ ही, कोलेस्ट्रॉल के स्तर को कम करने में मदद करता है। अखरोट खाने के 4 घंटे के भीतर ही अपना असर दिखाना शुरु कर देता है। अखरोट में मौजूद एंटीऑक्सीडेंट न केवल आपकी त्वचा को बेहतरीन बनाता है बल्कि आंखों और बालों के लिए भी फायदेमंद है। इसमें कई तरह के एंटीऑक्सीडेंट पाएं जाते हैं जो आपको जवां बनाए रखने के साथ ही सेहत से जुड़े फायदे देते हैं। मानव मस्तिषक के आकार का यह फल वाकई आपके मस्तिष्क के लिए बेहद फायदेमंद है। मौजूद ओमेगा 3 मस्तिष्क की समस्याओं को दूर कर तनाव कम करने में भी सहायक है। नियमित रूप से अखरोट को अपनी डाइट में शामिल कर आप मस्तिष्क को स्वास्थ बनाए रख सकते हैं।
अखरोट को अंग्रेजी में वॉलनट (Walnut), तेलुगू में अकरूट काया, मलयालम में अक्रोथंदी, कन्नड़ में अक्रोटा, तमिल में अकरोट्टू, मराठी में अकरोड़ और गुजराती में अक्रोट कहा जाता है। विभिन्न भाषाओं में अखरोट के जितने नाम हैं, उसके फायदे भी उतने ही हैं।
  • रंग : अखरोट का रंग भूरा होता है।
  • स्वाद : इसका स्वाद फीका, मधुर, चिकना (स्निग्ध) और स्वादिष्ट होता है।
  • स्वरूप : पर्वतीय देशों में होने वाले पीलू को ही अखरोट कहते हैं। इसका नाम कर्पपाल भी है। इसके पेड़ अफगानिस्तान में बहुत होते हैं तथा फूल सफेद रंग के छोटे-छोटे और गुच्छेदार होते हैं। पत्ते गोल लम्बे और कुछ मोटे होते हैं तथा फल गोल-गोल मैनफल के समान परन्तु अत्यंत कड़े छिलके वाले होते हैं। इसकी मींगी मीठी बादाम के समान पुष्टिकारक और मजेदार होती है।
  • स्वभाव : अखरोट गर्म व खुष्क प्रकृति का होता है।
  • गुण : अखरोट बहुत ही बलवर्धक है, हृदय को कोमल करता है, हृदय और मस्तिष्क को पुष्ट करके उत्साही बनाता है इसकी भुनी हुई गिरी सर्दी से उत्पन्न खांसी में लाभदायक है। यह वात, पित्त, टी.बी., हृदय रोग, रुधिर दोष वात, रक्त और जलन को नाश करता है।
अखरोट के फायदे
अखरोट न सिर्फ सेहत, बल्कि त्वचा के लिए भी फायदेमंद है। नीचे हम आपको पहले सेहत के लिए अखरोट के फायदे बताएंगे, उसके बाद बताएंगे कि यह त्वचा के लिए किस प्रकार लाभकारी है।
  1. अपस्मार :- अखरोट की गिरी को निर्गुण्डी के रस में पीसकर अंजन और नस्य देने से लाभ होता है।
  2. अर्श (बवासीर) होने पर :- *वादी बवासीर में अखरोट के तेल की पिचकारी को गुदा में लगाने से सूजन कम होकर पीड़ा मिट जाती है।
  3. आंतरिक सफाई करे - अखरोट वास्तव में आपके शरीर के लिए वैक्यूम क्लीनर का काम करता है, क्योंकि यह आपकी पाचन प्रणाली से अनगिनत जीवाणुओं को साफ करता है।
  4. इंफ्लेमेटरी बीमारियों के लिए - अखरोट में उच्च मात्रा में फैटी एसिड होता है। इसलिए, जिन्हें अस्थमा, आर्थराइटिस व एक्जिमा जैसी इंफ्लेमेटरी बीमारियां होती हैं, उनके लिए अखरोट का सेवन फायदेमंद हो सकता है।
  5. एंटी-एजिंग - अखरोट विटामिन-बी से भरपूर पाया जाता है, जिस कारण यह त्वचा के लिए फायदेमंद है। वहीं, विटामिन-बी तनाव से दूर करने में मदद करता है। अगर इंसान को तनाव रहता है, तो इसका सीधा असर उनके चेहरे पर रिंकल्स और एजिंग के रूप में नजर आने लगता है। ऐसे में जब आप अखरोट का सेवन करते हैं, तो एजिंग और रिंकल त्वचा से हटने लगते हैं। इसके लिए एक चम्मच अखरोट का पाउडर, एक चम्मच ओलिव ऑयल, दो चम्मच गुलाब जल व आधा चम्मच शहद मिलाकर पेस्ट बना लें। इस पैक को अपने चेहरे पर 15 मिनट के लिए लगाकर छोड़ दें। फिर सूखने पर पानी से मुंह धो लें। बेहतर परिणाम के लिए आप यह फेस पैक सप्ताह में दो से तीन बार लगा सकते हैं।
  6. कंठमाला :- अखरोट के पत्तों का काढ़ा 40 से 60 मिलीलीटर पीने से व उसी काढ़े से गांठों को धोने से कंठमाला मिटती है।
  7. कंठमाला के रोग में :- अखरोट के पत्तों का काढ़ा बनाकर पीने से और कंठमाला की गांठों को उसी काढ़े से धोने से आराम मिलता है।
  8. कब्ज और पाचन - अखरोट फाइबर से भरपूर होता है, जो आपकी पाचन प्रणाली को दुरुस्त रखता है। पेट सही रखने और कब्ज से बचने के लिए फाइबर युक्त चीजें खानी जरूरी है। ऐसे में अगर आप रोजाना अखरोट का सेवन करते हैं, तो आपका पेट भी सही रहेगा और कब्ज भी नहीं होगी।
  9. कमजोरी :- अखरोट की मींगी पौष्टिक होती है। इसके सेवन से कमजोरी मिट जाती है।
  10. कैंसर के लिए - अमेरिकन एसोसिएशन फॉर कैंसर रिसर्च की शोध के मुताबिक, रोजाना कुछ अखरोट का सेवन करने से ब्रेस्ट कैंसर का खतरा कम होता है ।
  11. खूनी बवासीर (अर्श) :- अखरोट के छिलके का भस्म (राख) बनाकर उसमें 36 ग्राम गुरुच मिलाकर प्रतिदिन सुबह-शाम खाने से खूनी बवासीर (रक्तार्श) नष्ट होता है।
  12. गंजेपन से बचाए - अखरोट का तेल गंजेपन से भी बचाने में मदद करता है। कई अध्ययनों में भी यह बात सामने आई है कि नियमित रूप से अखरोट का तेल सिर पर लगाने से गंजापन दूर होता है।
  13. गर्भावस्था - गर्भावस्था में अखरोट खाना भी फायदेमंद हो सकता है। इसमें मौजूद ओमेगा-3 फैटी एसिड बच्चे के दिमागी विकास में मदद करता है। आप डॉक्टर की सलाह पर सही मात्रा में अखरोट का सेवन कर सकते हैं।
  14. गुल्यवायु हिस्टीरिया :- अखरोट और किशमिश को खाने और ऊपर से गर्म गाय का दूध पीने से लाभ मिलता है।
  15. घाव (जख्म) :- इसकी छाल के काढ़े से घावों को धोने से लाभ होता है।
  16. चमकदार त्वचा - अखरोट में ओमेगा-3 जैसे कई पोषक तत्व होते हैं, जो स्वास्थ्य के साथ-साथ त्वचा को भी पोषण देते हैं। इसके अलावा, इसमें एंटीऑक्सीडेंट गुण भी होता है, जो त्वचा से गंदगी दूर कर आपको चमकदार त्वचा देता है। चार अखरोट, दो चम्मच ओट्स, एक चम्मच शहद, एक चम्मच क्रीम और चार बूंद ऑलिव ऑयल एक साथ अच्छी तरह मिलाकर महीन पेस्ट बना लें। इस पेस्ट को अपने चेहरे पर लगाएं और सूखने तक लगा रहने दें। इसके बाद, चेहरे को गुनगुने पानी से धो लें।
  17. जी-मिचलाना :- अखरोट खाने से जी मिचलाने का कष्ट दूर हो जाता है।
  18. टी.बी. (यक्ष्मा) के रोग में :- 3 अखरोट और 5 कली लहसुन पीसकर 1 चम्मच गाय के घी में भूनकर सेवन करने से यक्ष्मा में लाभ होता है।
  19. डायबिटीज - डायबिटीज से बचाव के लिए भी अखरोट का सेवन फायदेमंद बताया गया है। अध्ययन में भी यह बात सामने आई है कि जो लोग दो से तीन चम्मच अखरोट का सेवन रोजाना करते हैं, उनमें टाइप-2 डायबिटीज का खतरा कम हो जाता है।
  20. डार्क सर्कल - आंखों के नीचे काले घेरे दूर करने में भी अखरोट का सेवन फायदेमंद हो सकता है। अखरोट का तेल आपकी आंखों के नीचे आई सूजन को दूर करता है और डार्क सर्कल कम करने में मदद करता है।
  21. डैंड्रफ से बचाए - अखरोट का तेल प्राकृतिक रूप से एंटी-डैंड्रफ का काम भी करता है। यह सिर की त्वचा को मॉइस्चराइज करता है, जिससे डैंड्रफ दूर रहता है।
  22. तनाव खत्म और बेहतर नींद - अखरोट का सेवन आपको तनाव से दूर कर बेहतर नींद भी प्रदान करता है। अखरोट में मेलाटोनिन होता है, जो बेहतर नींद लाने में मदद करता है। वहीं, ओमेगा-3 फैटी एसिड ब्लड प्रेशर को संतुलित कर तनाव से राहत दिलाता है।
  23. दर्द व सूजन में :- किसी भी कारण या चोट के कारण हुए सूजन पर अखरोट के पेड़ की छाल पीसकर लेप करने से सूजन कम होती है।
  24. दांतों के लिए :- अखरोट की छाल को मुंह में रखकर चबाने से दांत स्वच्छ होते हैं। अखरोट के छिलकों की भस्म से मंजन करने से दांत मजबूत होते हैं।
  25. दाद :- सुबह-सुबह बिना मंजन कुल्ला किए बिना 5 से 10 ग्राम अखरोट की गिरी को मुंह में चबाकर लेप करने से कुछ ही दिनों में दाद मिट जाती है।
  26. दिल के स्वास्थ्य के लिए - अखरोट दिल को स्वस्थ बनाए रखने में मदद करता है। इसमें प्रचुर मात्रा में ओमेगा-3 फैटी एसिड होता है, जो आपकी हृदय प्रणाली के लिए फायदेमंद होता है। इसके अलावा, यह भी पाया गया है कि जिन्हें उच्च रक्तचाप की समस्या होती है, उनके लिए भी अखरोट लाभकारी होता है। आपको बता दें कि ओमेगा-3 फैटी एसिड शरीर से खराब कोलेस्ट्रॉल को कम करके अच्छे कोलेस्ट्रॉल के निर्माण में मदद करता है, जो हृदय के लिए फायदेमंद होता है ।
  27. नष्टार्तव (बंद मासिक धर्म) :- अखरोट का छिलका, मूली के बीज, गाजर के बीज, वायविडंग, अमलतास, केलवार का गूदा सभी को 6-6 ग्राम की मात्रा में लेकर लगभग 2 लीटर पानी में पकायें फिर इसमें 250 ग्राम की मात्रा में गुड़ मिला दें, जब यह 500 मिलीलीटर की मात्रा में रह जाए तो इसे उतारकर छान लेते हैं। इसे सुबह-शाम लगभग 50 ग्राम की मात्रा में मासिक स्राव होने के 1 हफ्ते पहले पिलाने से बंद हुआ मासिक-धर्म खुल जाता है।
  28. नाड़ी की जलन :- अखरोट की छाल को पीसकर लेप करने से नाड़ी की सूजन, जलन व दर्द मिटता है।
  29. नासूर :- अखरोट की 10 ग्राम गिरी को महीन पीसकर मोम या मीठे तेल के साथ गलाकर लेप करें।
  30. नेत्र ज्योति (आंखों की रोशनी) :- 2 अखरोट और 3 हरड़ की गुठली को जलाकर उनकी भस्म के साथ 4 काली मिर्च को पीसकर अंजन करने से आंखों की रोशनी बढ़ती है।
  31. पेट में कीड़े होने पर :- अखरोट को गर्म दूध के साथ सेवन करने से बच्चों के पेट में मौजूद कीड़े मर जाते हैं तथा पेट के दर्द में आराम देता है।
  32. प्रमेह (वीर्य विकार) :- अखरोट की गिरी 50 ग्राम, छुहारे 40 ग्राम और बिनौले की मींगी 10 ग्राम एक साथ कूटकर थोड़े से घी में भूनकर बराबर मात्रा में मिश्री मिलाकर रखें, इसमें से 25 ग्राम प्रतिदिन सेवन करने से प्रमेह में लाभ होता है। ध्यान रहे कि इसके सेवन के समय दूध न पीयें।
  33. फंगल इन्फेक्शन से बचाए - अगर आपको फंगल इन्फेक्शन की समस्या रहती है, तो काला अखरोट आपके लिए फायदेमंद साबित हो सकता है। पाचन तंत्र में कैंडिडा की वृद्धि और फंगल इन्फेक्शन के कारण त्वचा खराब होने लगती है। ऐसे में काला अखरोट फंगल इन्फेक्शन को बढ़ने से रोकता है।
  34. फुंसियां :- यदि फुंसियां अधिक निकलती हो तो 1 साल तक रोजाना प्रतिदिन सुबह के समय 5 अखरोट सेवन करते रहने से लाभ हो जाता है।
  35. बालों के रंग को हाइलाइट करे - अखरोट का छिलका एक प्राकृतिक रंग का एजेंट है, जो आपके बालों को और खूबसूरत बनाने में मदद करता है। अखरोट के तेल में भरपूर मात्रा में प्रोटीन होता है। यह बालों के रंग को ठीक करता है और उन्हें चमकदार बनाता है।
  36. बूढ़ों की निर्बलता :- 8 अखरोट की गिरी और चार बादाम की गिरी और 10 मुनक्का को रोजाना सुबह के समय खाकर ऊपर से दूध पीने से वृद्धावस्था की दुर्बलता दूर हो जाती है।
  37. बूढ़ों के शरीर की कमजोरी :- 10 ग्राम अखरोट की गिरी को 10 ग्राम मुनक्का के साथ रोजाना सुबह खिलाना चाहिए।
  38. मरोड़ :- 1 अखरोट को पानी के साथ पीसकर नाभि पर लेप करने से मरोड़ खत्म हो जाती है।
  39. मस्तिष्क के लिए - अखरोट में मौजूद ओमेगा-3 फैटी एसिड न सिर्फ दिल, बल्कि मस्तिष्क के लिए भी फायदेमंद होता है। ओमेगा-3 फैटी एसिड से भरपूर चीजें खाने से आपकी तंत्रिका प्रणाली ठीक तरह से काम करती है, जिससे स्मरण शक्ति में सुधार आता है।
  40. मॉइस्चराइजर - जिनकी त्वचा रूखी होती है, उनके लिए भी अखरोट काफी फायदेमंद होता है। चूंकि, इसमें प्राकृतिक रूप से चिकनाई पाई जाती है, जो त्वचा का रूखापन दूर कर इसे पोषण देकर मॉइस्चराइज रखने में मदद करती है। इसके लिए आपको ज्यादा कुछ नहीं, बस रोजाना रात को सोते समय अपनी त्वचा पर अखरोट का तेल लगाना होगा। इसके बाद सुबह उठकर मुंह धो लें।
  41. याददाश्त कमजोर होना :- ऐसा कहा जाता है कि हमारे शरीर का कोई अंग किस आकार का होता है, उसी आकार का फल खाने से उस अंग को मजबूती मिलती है। अखरोट की बनावट हमारे दिमाग की तरह होती है इसलिए अखरोट खाने से दिमाग की शक्ति बढ़ती है। याददाश्त मजबूत होती है।
  42. रोग-प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाए - अखरोट में प्रचुर मात्रा में एंटीऑक्सीडेंट तत्व पाए जाते हैं, जो आपकी रोग-प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाते हैं और आपको बीमारियों से बचाने में मदद करते हैं। इसलिए, खुद को बीमारियों से बचाने के लिए और तंदुरुस्त रहने के लिए अपनी रोजाना की डाइट में अखरोट जरूर शामिल करें।
  43. लंबे और मजबूत बाल - अखरोट पोटेशियम, ओमेगा-3, ओमेगा-6 और ओमेगा-9 फैटी एसिड से भरपूर होता है। ये सभी पोषक तत्व बालों को मजबूती देते हैं। ऐसे में नियमित रूप से बालों में अखरोट तेल लगाने से बाल लंबे और मजबूत होते हैं। इसके लिए दो प्रयोग है प्रथम आप थोड़ा-सा अखरोट का तेल लें। तेल को गुनगुना करके इसे आंखों के नीचे काले घेरे वाले भाग पर लगाकर सो जाएं। फिर सुबह सामान्य तरीके से चेहरा धो लें। आप इस प्रक्रिया को रोज रात को तब तक दोहराएं, जब तक असर दिखना न शुरू हो जाए। दूसरा प्रयोग आप नींबू का रस, शहद, ओटमील और अखरोट का पाउडर एक साथ मिलाकर पेस्ट बना लें। इस पेस्ट को आंखों के नीचे लगाएं और 15-20 मिनट के लिए छोड़ दें। फिर पानी से धो लें। इस प्रक्रिया को आप सप्ताह में तीन से चार बार दोहरा सकते हैं।
  44. लकवा (पक्षाघात-फालिज-फेसियल, परालिसिस) :- रोजाना सुबह अखरोट का तेल नाक के छिद्रों में डालने से लकवा ठीक हो जाता है।
  45. वजन कम करे - आपको जानकर हैरानी होगी कि अखरोट वजन कम करने में अहम भूमिका निभाता है। इसमें भरपूर मात्रा में प्रोटीन व कैलोरी होती है, जो वजन को नियंत्रित रखने में मदद करती है। शोध में भी यह बात साबित हो चुकी है कि अखरोट का सेवन न सिर्फ वजन कम करता है, बल्कि उसे नियंत्रित भी रखता है।
  46. वात रक्त दोष (खूनी की बीमारी) :- वातरक्त (त्वचा का फटना) के रोगी को अखरोट की मींगी (बीज) खिलाने से आराम आता है।
  47. वात रोग :- अखरोट की 10 से 20 ग्राम की ताजी गिरी को पीसकर दर्द वाले स्थान पर लेप करें, ईंट को गर्म कर उस पर जल छिड़ककर कपड़ा लपेटकर उस स्थान पर सेंक देने से शीघ्र पीड़ा मिट जाती है। गठिया पर इसकी गिरी को नियमपूर्वक सेवन करने से रक्त शुद्धि होकर लाभ होता है।
  48. विवेचन (पेट साफ करना) :- अखरोट के तेल को 20 से 40 मिलीलीटर की मात्रा में 250 मिलीलीटर दूध के साथ सुबह देने से मल मुलायम होकर बाहर निकल जाता है।
  49. विसर्प-फुंसियों का दल बनना :- अगर फुंसियां बहुत ज्यादा निकलती हो तो पूरे साल रोजाना सुबह 4 अखरोट खाने से बहुत लाभ होता है।
  50. शरीर में सूजन :- अखरोट के पेड़ की छाल को पीसकर सूजन वाले भाग पर लेप की तरह से लगाने से शरीर के उस भाग की सूजन दूर हो जाती है।
  51. शैय्या मूत्र (बिस्तर पर पेशाब करना) :- प्राय: कुछ बच्चों को बिस्तर में पेशाब करने की शिकायत हो जाती है। ऐसे बाल रोगियों को 2 अखरोट और 20 किशमिश प्रतिदिन 2 सप्ताह तक सेवन करने से यह शिकायत दूर हो जाती है।
  52. सफेद दाग :- अखरोट के निरंतर सेवन से सफेद दाग ठीक हो जाते हैं।
  53. सफेद दाग होने पर :- रोजाना अखरोट खाने से श्वेत कुष्ठ (सफेद दाग) का रोग नहीं होता है और स्मरण शक्ति (याददाश्त) भी तेज हो जाती है।
  54. स्कैल्प को स्वस्थ रखे - नियमित रूप से अखरोट के तेल से सिर की मालिश करने से आपका स्कैल्प स्वस्थ रहता है। यह आपके स्कैल्प को मॉइस्चराइज रखता है। इसमें मौजूद एंटी फंगल गुण इन्फेक्शन से भी बचाने में मदद करता है।
  55. स्तन में दूध की वृद्धि के लिए :- गेहूं की सूजी एक ग्राम, अखरोट के पत्ते 10 ग्राम को एक साथ पीसकर दोनों को मिलाकर गाय के घी में पूरी बनाकर सात दिन तक खाने से स्त्रियों के स्तनों में दूध की वृद्धि होती है।
  56. हड्डियों के लिए - अखरोट हड्डियों को मजबूत करने का भी काम करता है। इसमें अल्फा-लिनोलेनिक एसिड होता है, जो हड्डियों को मजबूत करने में मदद करता है। इसके अलावा, अखरोट में मौजूद ओमेगा-3 फैटी एसिड सूजन को भी दूर करता है ।
  57. हाथ-पैरों की ऐंठन:- हाथ-पैरों पर अखरोट के तेल की मालिश करने से हाथ-पैरों की ऐंठन दूर हो जाती है।
  58. हृदय की दुर्बलता होने पर :- अखरोट खाने से दिल स्वस्थ बना रहता है। रोज एक अखरोट खाने से हृदय के विकार 50 प्रतिशत तक कम हो जाते हैं। इससे हृदय की धमनियों को नुकसान पहुंचाने वाले हानिकारक कोलेस्ट्रॉल की मात्रा नियंत्रित रहती है। अखरोट के असर से शरीर में वसा को पचाने वाला तंत्र कुछ इस कदर काम करता है। कि हानिकारक कोलेस्ट्रॉल की मात्रा कम हो जाती है। हालांकि रक्त में वसा की कुल मात्रा में कोई परिवर्तन नहीं होता। अखरोट में कैलोरी की अधिकता होने के बावजूद इसके सेवन से वजन नहीं बढ़ता और ऊर्जा स्तर बढ़ता है।
  59. हैजा :- हैजे में जब शरीर में बाइटें चलने लगती हैं या सर्दी में शरीर ऐंठता हो तो अखरोट के तेल से मालिश करनी चाहिए।
  60. होठों का फटना :- अखरोट की मिंगी (बीज) को लगातार खाने से होठ या त्वचा के फटने की शिकायत दूर हो जाती है।

     

    अखरोट के नुकसान
    जिस चीज के इतने फायदे होते हैं, उसके कहीं न कहीं, कुछ न कुछ नुकसान भी होते ही हैं। ऐसा ही अखरोट के साथ भी हैं। नीचे हम अखरोट खाने के नुकसान बता रहे हैं:
    1. अखरोट खाने के नुकसान में एलर्जी भी शामिल है। अगर आपको इससे एलर्जी है, तो अखरोट का सेवन न करें। इससे आपको छाती में खिंचाव महसूस हो सकता है या फिर सांस लेने में तकलीफ हो सकती है।
    2. अगर अखरोट का ज्यादा सेवन किया जाए, तो यह मुंह में छाले पैदा कर सकता है।
    3. अगर किसी को पहले से ही कफ की समस्या है, उन्हें अखरोट नहीं खाना चाहिए। कफ के दौरान अखरोट खाने से यह समस्या और बढ़ सकती है।
    4. इसमें फैट होता है, इस वजह से अगर इसका ज्यादा सेवन किया जाए, तो यह मोटापा बढ़ा सकता है।
    5. काले अखरोट में कुछ ऐसे केमिकल तत्व होते हैं, जिनसे त्वचा के कैंसर का खतरा बढ़ सकता है।
    6. काले अखरोट में फाइटेट्स नाम के यौगिक होते हैं। आयरन डिसऑर्डर इंस्टीट्यूट के अनुसार, फाइटेट्स भोजन में मौजूद लोहे के अवशोषण को 50 से 60 प्रतिशत तक कम कर सकते हैं, जिससे खून की कमी हो सकती है।
    7. काले अखरोट से स्किन रैशेज होने का खतरा भी बढ़ सकता है। इसके छिलके में ऐसे तत्व पाए जाते हैं, जो आपकी त्वचा पर लाल रैशेज पैदा कर सकते हैं।
    अखरोट का उपयोग
    अकसर हमारे मन में ये सवाल उठता है कि अखरोट का सेवन कैसे और कब करें। अखरोट के फायदे और नुकसान जानने के बाद अब हम जानते हैं कि अखरोट कैसे खाएं।
    1. दही में अखरोट की दो-तीन गिरियां मिलाकर भी इसे खाया जा सकता है।
    2. दूध में एक चम्मच अखरोट का पाउडर और एक चम्मच शहद डालकर भी इस्तेमाल कर सकते हैं।
    3. रात को सोते समय एक गिलास दूध के साथ अखरोट के दो-तीन टुकड़े खाना काफी फायदेमंद रहता है।
    4. शाम के वक्त स्नैक्स में आप अखरोट को भूनकर भी खाने में उपयोग कर सकते हैं।
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    व्यंग्यकार श्रीलाल शुक्ल संक्षिप्त जीवन परिचय



    श्रीलाल शुक्ल हिन्दी व्यंग्य तथा कथा साहित्य के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर है। "उनका जन्म लखनऊ के मोहनलाल कस्ब के निकटवर्ती ग्राम अतरौली में 31 दिसम्बर, 1925 को एक सुसंस्कृत और विपन्न कृषक परिवार में हुआ। पितामह पं. गदाधर प्रसाद शुकुल, हिन्दी, उर्दू एवं संस्कृत का व्यवहारिक ज्ञान रखते थे तथा कसरत और संगीत का उन्हें शौक था। "उन्होंने अपने पुत्र को श्लोंकों तथा हिन्दी कविताओं का बचपन में ही मुक्तदान दिया। इसी के फलस्वरूप हाई स्कूल तक आते-आते जब श्रीलाल शुक्ल ने संस्कृत बोलने का अभ्यास प्रारम्भ किया तो व्याकरण में भले ही कमजोरी अनुभव हुई हो अभिव्यक्ति की कमजोरी अनुभव न हुई।" शुक्ल जी का बचपन गरीबों की गलियों में बीता। वहाँ के बच्चों के साथ खेलकर, गाँव के आस-पास की खेतों और जंगलों में घूमकर उन्होंने अपना बचपन व्यतीत किया था। गाँव में अलग-अलग जाति के लोग रहते थे। उन सब के अपने-अपने आचार-विचार भी थे। शुक्ल जी के पिता एक किसान थे। गरीब परिवार के बावजूद उनके परिवार में पठन-पाठन की परम्परा बनी रही। जीवन के उत्तरार्द्ध में अपने बड़े पुत्र पर निर्भर रहते हुए सन् 1945 में इनके पिता की मृत्यु हो गई। माँ साधनहीन होते हुए भी उदारमना तथा उत्साही प्रवृत्ति की थी। सन् 1960 में अपने कनिष्ठ पुत्र भवानी शंकर शुक्ल के पास अल्मोड़ा में उनका निधन हुआ।


    दो भाईयों तथा दो बहनों के बीच श्रीलाल शुक्ल का बाल्यकाल बीता। परिवार का बोझ सिर पर आ जाने के कारण उनके अग्रज पं. शीतलासहाय शुकुल को हाई स्कूल उत्तीर्ण होते हुए कानपुर जाकर नौकरी करनी पड़ी। श्रीलाल शुक्ल की प्रारम्भिक शिक्षा पास के मोहनलालगंज में हुई। परिश्रमी, कुशाग्र बुद्धि तथा साहित्यिक रूचि सम्पन्न उनके एक चचेरे चाचा पं. चन्द्रमौलि शुकुल संस्कृत, हिन्दी, उर्दू, फारसी तथा अंग्रेजी के प्रकाण्ड विद्वान थे। उन्होंने हिन्दी में विविध विषयक अनेक पुस्तकें लिखी। जब वह ग्रीष्मावकाश में गाँव आते, तो उनके पास उच्च कोटि की पुस्तकों को भण्डार होता था। साहित्य-जगत् से श्रीलाल शुक्ल का परिचय इन्हीं पुस्तकों के माध्यम से हुआ। उन्हीं के शब्दों में "पर उनकी (चाचा की) सम्पन्नता में मेरे मतलब की चीज़ सिर्फ उनकी किताबें और पत्रिकाएँ थीं। वह हमारे लिए 'चाँद', 'माधुरी', 'सुधा', 'सरस्वती', 'गंगा', 'हंस', 'सुकवि', 'काव्य', 'कलाधर' आदि पढ़ने का मौका था। मैंने प्रेमचन्द और प्रसाद की कई पुस्तकं,े जो उन्हें सादर भेंट की गई थीं, आठवीं पास करने के पहले ही पढ़ी थीं, उन साहित्यिकों के हस्ताक्षरों को बार-बार गौर से देखा था। नागरी-प्रचारिणी सभा और गंगा-पुस्तक माला आदि के नवीनतम प्रकाशन मैंने 1939-40 तक पढ़ लिये। उनमें वृन्दावन लाल वर्मा और निराला की कृतियाँ भी थी।"

    श्रीलाल शुक्ल में सृजनात्मकता के बीज बचपन से ही थे, जिन्हें गाँव के साहित्यिक माहौल में पनपने का अवसर मिला। शिक्षा और साहित्य के प्रति उनमें अदम्य आग्रह रहा है। 12-13 वर्ष की अवस्था में उन्होंने धनाक्षरी-सवैये लिखना प्रारम्भ कर दिए। वह कवि-सम्मेलनों में भी जाने लगे। कुछ कहानियाँ, अलोचनात्मक निबन्ध, उपन्यास भी लिखे। उन्होंने मिडिल मोहनलालगंज से, हाई स्कूल कान्यकुब्ज वोकेशनल काॅलिज, लखनऊ से इन्टरमीडिएट कान्यकुब्ज काॅलिज कानपुर से किया।

    1945 में इन्टरमीडिएट परीक्षा उत्तीर्ण कर उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय में बी.एड. में प्रवेश लिया। अब तक पद्य के प्रति उनका आकर्षण समाप्त हो गया था। उन्होंने कहानियाँ लिखना प्रारम्भ किया। इलाहाबाद में वह केशवचन्द्र वर्मा, धर्मवीर भारती, विजयदेव नारायण साही, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना, गिरीधर गोपाल, जगदीश गुप्त जैसे उभरते साहित्यकारों के सम्पर्क में आये। विपन्नता के कारण एम.ए. और कानून की पढ़ाई छोड़नी पड़ी। कुछ समय तक उन्होंने कान्यकुब्ज वोकेशनल इंटर काॅलिल, लखनऊ में अध्यापन कार्य किया।


    इसी बीच उनका विवाह कानपुर के एक सुसंस्कृत परिवार में हो गया। उनका पारिवारिक जीवन सुखी रहा। उनकी तीन पुत्रियाँ (रेखा, मधुलिका, विनीता) तथा एक पुत्र आशुतोष है। सभी सुखी जीवन व्यतीत कर रहे हैं। अपनी पत्नी की देखभाल में उन्होंने कोई कमी नहीं की। रवीन्द्र कालिया के शब्दों में "श्रीलाल जी एक शिशु की तरह गिरिजा की देखभाल करते।" अपने परिवार के प्रति अपनी आस्था उन्होंने कभी छिपायी नहीं। रचना के तीव्र क्षणों में अपने मकान को वह परिवारवालों के लिए छोड़कर अकेले रह लिया करते थे। पत्नी के बीमार हो जाने के बाद वे उदास हो गये। रवीन्द्र कालिया ने इसके बारे में लिखा है "श्रीलाल जी के साथ बितायी एक दोपहर तो भुलाए नहीं भूलती। गिरिजा जी एकदम असहाय, असमर्थ और चेतनाशून्य हो चुकी थी। श्रीलाल जी पूर्ण समर्पण के साथ उनकी तीमारदारी में मशगुल थे।" वे एक ऐसे जिम्मेदार गृहस्थ भी हैं जो जीवनभर सैर-सपाटे और पत्नी के साथ बाहर निकलने में रूचि रखते हैं। वे एक ऐसे जिम्मेदार गृहस्थ भी हैं जो जीवन भर सैर-सपाटे और पत्नी के साथ बाहर निकलने में रूचि रखते थे। पत्नी के बीमार होने के बाद उन्होंने जीवन की मस्ती, उत्साह, आराम सब कुछ छोड़ दिये। "इस समय श्रीलाल जी न लेखक थे, न आराम पसन्द अवकाश प्राप्त अधिकारी, वह मात्र पति थे, प्रेमी थे, दोस्त थे। पास ही मेज़ पर कई दिनों के समाचार-पत्र और पत्रिकाएँ पड़ी थी। लगता था, समाचार पत्रों की तह भी नहीं खुली। एक कोने में लावारिस सी डाक पड़ी थी।" इस तरह एक उन्मुक्त, उत्साहप्रिय, आराम तलब व्यक्ति अपनी पत्नी के लिए पूर्णरूप से समर्पित हो जाते हैं। रवीन्द्र वर्मा के अनुसार-"एक ठेठ भारतीय की तरह उनकी पत्नी उनके लिए एक जीवन मूल्य थी।" उनकी पत्नी उनके साथ ही साहित्य का अध्ययन भी करती थी और उसे संगीत में भी रूचि थी।

    सन् 1949 में उनका चयन पी.सी.एस. में हो गया। वर्ष 1973 में श्रीलाल शुक्ल की आई.ए.एस. में पदोन्नति हो गई। उत्तरप्रदेश शासन के अनके उच्च पदों पर कार्य करने के उपरान्त वह विशेष सचिव, चिकित्सा, एव स्वास्थ्य के पद से 30 जून, 1983 को सेवा मुक्त हो गए। उन्हें भिन्न-भिन्न जगहों पर काम करने का अवसर मिला था। जहाँ-जहाँ उन्होंने काम किया वहाँ के जनजीवन की खासियतों को समझने की कोशिश भी की है। नौकरी के क्षेत्र में वे समाजधर्मी एवं निष्ठावान थे। सरकारी अफसर के रूप में उन्हांेने प्रशासनिक क्षेत्र की समस्याओं को सुलझाने में विशेष क्षमता दिखाई है। उत्तरप्रदेश सिविल सर्विसेज में काम करते हएु उन्हें संघीय लोकसेवा आयोग में विशेष कार्याधिकारी के रूप में कार्य करने का अवसर मिला था। नौकरी के क्षेत्र में उन्हें कई अनुभव प्राप्त हुए है। बड़े-बड़े लोगों से मिलने तथा उनकी आदतों एवं चारित्रिक विशेषताओं को समझने का अवसर भी उन्हें प्राप्त हुआ था।


     राजनीतिक परिस्थिति तथा प्रशासनिक क्षेत्र के बारे में गहराई से पढ़ने की कोशिश की। नौकरी के क्षेत्र में व्यस्त रहने पर भी वे एक अच्छे पाठक थे। वे नौकरशाह नहीं थे। वैसा दम्भ उनमें नहीं था। सरकारी फाइलों के बीच सालों तक रहने पर भी वे सच्चे, मनुष्य तथा मानवीयता के वक्ता बनकर रहे हैं। ममता कालिया ने लिखा है-'वे हिन्दी के एकमात्र ऐसे कथाकार हैं जिन्होंने खाकी रगं की सरकारी फाइलों की अटपटी जानकारी व शब्दावली से अपनी मौलिक रचनात्मक भाषा का अनुसन्धान किया है। पूर्णकालिक जिम्मेदार नौकरी में इतने घंटे (बरस) बिताकर, कई आदमी यांत्रिक और बेजान हो जाते हैं, उनमें से फाइलों की बू आने लगती है पर श्रीलालजी ने इन सीमाओं को अपना सामथ्र्य बनाया।" उत्तर प्रदेश शासन के अनेक उच्च पदों पर कार्य करने के उपरान्त वह विशेष सचिव, चिकित्सा एवं स्वास्थ्य के पद से 30 जून, 1983 को सेवामुक्त हो गए। उसके बाद वे निरन्तर लेखन में जुड़े रहे तत्पश्चात् 28 अक्टुबर 2011 को इनकी मृत्यु हो गई।


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    झड़ते बालों का उपचार



    1. अपने बालों को खोने का नुकसान कम करने के लिए जो पहला कदम आप उठा सकते हैं वह है तेल के साथ अपने सिर की मालिश करना। बालों और सिर की उचित मालिश करने से बालों के रोम में रक्त का प्रवाह बढ़ाता है और आपके बालों की जड़ों की शक्ति में वृद्धि होती है। यह आपको आराम पहुंचाने और तनाव की भावनाओं को कम करने में मदद भी करेगा।
    2. अपने बालों को खोने का नुकसान कम करने के लिए जो पहला कदम आप उठा सकते हैं वह है तेल के साथ अपने सिर की मालिश करना। बालों और सिर की उचित मालिश करने से बालों के रोम में रक्त का प्रवाह बढ़ता है और आपके बालों की जड़ों की शक्ति में वृद्धि होती है। यह आपको आराम पहुंचाने और तनाव की भावनाओं को कम करने में मदद भी करेगा। आप बालों के लिए नारियल या बादाम का तेल, जैतून का तेल, अरंडी का तेल, आंवला तेल, या अन्य तेल का उपयोग कर सकते हैं। बेहतर और तेज़ परिणाम के लिए रोज़मैरी एसेंशियल ऑइल की कुछ बूंदें जोड़ें। अपनी उंगलियों के साथ हल्का दबाव देकर बाल और सिर पर उपरोक्त बताये तेलों में से किसी एक से अपने बालों में मालिश करें। यह सप्ताह में कम से कम एक बार करें।
    3. आंवले के चूर्ण को दही में मिलाएं और पेस्ट बना लें। इसके बाद इस पेस्ट को हल्के हाथों से बालों की जड़ों में लगाएं। कुछ देर ऐसे ही रहने दें और फिर धो लें। ऐसा नियमित रूप से करने पर बालों की समस्याएं खत्म हो जाती हैं।
    4. आधा कप दही में एक ग्राम काली मिर्च और थोड़ा नीबू का रस मिलाकर बालों में लगाएं, शीघ्र ही बहुत फायदा होगा।
    5. आप क्या खाते हैं ये भी बालों के पोषण में अहम भूमिका निभाता है। विटामिन, प्रोटीन और मिनरल युक्त भोजन भोजन के सेवन करने से बालों को भी पोषित किया जा सकता है। सही खाने से बालों को झड़ने से रोका जा सकता है।
    6. आप बालों के लिए नारियल या बादाम का तेल, जैतून का तेल, अरंडी का तेल, आंवला तेल, या अन्य तेल का उपयोग कर सकते हैं। बेहतर और तेज़ परिणाम के लिए रोज़मैरी एसेंशियल ऑइल की कुछ बूंदें जोड़ें।
    7. एलोवेरा में एंज़ाइम होते हैं जो बालों के स्वस्थ विकास को सीधे बढ़ावा देने में शामिल होते हैं। इसके अलावा, अपने एल्कलाइन गुण के कारण ये बालों के पीएच को एक सही स्तर पर लाने में मदद कर सकते हैं और बाल विकास को बढ़ावा दे सकते हैं। एलोवेरा के नियमित उपयोग से आप सिर की खुजली को दूर कर सकते है, सिर की लालिमा और सूजन को कम कर सकते हैं, बालों की शक्ति और चमक बढ़ा सकते हैं और रूसी को भी कम कर सकते हैं। एलो वेरा जेल और रस दोनों ही इस काम में प्रभावी हैं।
    8. गरम जैतून के तेल में एक चम्मच शहद और एक चम्मच दालचीनी पाउडर मिलाकर उनका पेस्ट बनाकर नहाने से पहले उसे लगाने से भी बालों का गिरना कम होता है।
    9. जैतून के तेल और दही के मिश्रण से भी सिर के झड़ते बालों को रोका जा सकता है। इसके लिए एक प्याले में ताजा दही लेकर इसमें 2 चम्मच जैतून का तेल मिला लें। दोनों का मिश्रण तैयार करके इसे बालों की जड़ों में मसाज करते हुए लगाएं। ऐसा करने के करीब आधे घंटे बाद शैंपू करके सिर धो लें। बालों की झड़ने की समस्या इससे धीरे-धीरे कम हो जाएगी।
    10. जैतून के तेल को गर्म करें और उसमें एक चम्मच शहद और एक चम्मच दालचीनी पाउडर मिलाकर पेस्ट बना लें। नहाने से पहले इस पेस्ट को बालों की जड़ों में लगाएं। कुछ समय बाद बालों को धो लें।
    11. दस मिनट तक कच्चे पपीता का पेस्ट सिर में लगाएं। इससे बाल भी नहीं झड़ेंगे और डेंड्रफ भी नहीं होगी।
    12. दही और नीबू के रस को मिलाकर पेस्ट बनाएं। इस पेस्ट को नहाने से पहले बालों में लगाएं। 20-30 मिनट बाद बालों को धो लें।
    13. नियमित रूप से तिल के तेल से बालों की मालिश करें। तिल के तेल में गाय का घी और अमरबेल के चूर्ण को मिलाकर लगाएंगे तो बहुत जल्दी लाभ होगा। यह नुस्खा रात को सोने से पहले अपनाना चाहिए। सिर की मालिश करने से रक्त संचार व्यवस्थित हो जाता है और बालों के रोम सक्रिय हो जाते हैं। इससे बालों की सेहत में सुधार होता है।
    14. नींबू से भी बालों के झड़ने को रोका जा सकता है। नींबू के रस के इस्तेमाल से रूसी से निजात पाई जा सकता है। इसके लिए नींबू को हल्के हाथों से सिर की त्वचा पर रगड़ें। कई दिनों तक लगातार ऐसा करने से फायदा दिखने लगेगा।
    15. नींबू के रस को दही में मिलाकर पेस्ट बना लीजिए। नहाने से पहले इस पेस्ट को बालों में लगाइए। 30 मिनट बाद बालों को धो लीजिए। बालों का गिरना कम हो जाएगा।
    16. नीम का पेस्ट सिर में कुछ देर लगाए रखें, फिर बाल धो लें। बाल झड़ना बंद हो जाएगा।
    17. प्याज का रस निकालकर उसे गर्म करें और ठंडा होने के बाद बालों की जड़ों में लगाएं। इससे पहले गर्म पानी में भीगे हुए तौलिए से बालों को कुछ देर ढककर रखें। इसके बाद प्याज का रस लगाएं। कुछ देर बाद बालों को अच्छे शैम्पू से धो लें। ऐसा नियमित रूप से करें। प्याज का रस गर्म करने से उसकी दुर्गंध दूर हो जाती है।
    18. प्याज के रस में उच्च मात्रा में सल्फर कंटेंट होता है, जो बालों के रोम के लिए रक्त परिसंचरण में सुधार करता है, बालों के रोम का पुनर्निर्माण करने और सूजन को कम करने में मदद करता है जिसके कारण बालों का झड़ना कम हो जाता है। प्याज के रस में जीवाणुरोधी गुण होते हैं जो बालों के झड़ने का कारण बन सकने वाले कीटाणुओं और परजीवियों को मारने में मदद करता है, और सिर संक्रमण का उपचार करता है।
    19. प्याज के रस में उच्च मात्रा में सल्फर कंटेंट होता है, जो बालों के रोम के लिए रक्त परिसंचरण में सुधार करता है, बालों के रोम का पुनर्निर्माण करने और सूजन को कम करने में मदद करता है जिसके कारण बालों का झड़ना कम हो जाता है। प्याज के रस में जीवाणुरोधी गुण होते हैं जो बालों के झड़ने का कारण बन सकने वाले कीटाणुओं और परजीवियों को मारने में मदद करता है, और सिर संक्रमण का उपचार करता है।
    20. प्रतिदिन नहाने से पहले टमाटर का पेस्ट बनाकर बालों की जड़ों में लगाएं तो रूसी की समस्या दूर हो जाएगी।
    21. बाल धोने से 20-30 मिनट पहले बालों की जड़ों में दही लगाएं। जब बाल सूख जाएं तो पानी से धो लें।
    22. बालों का गिरना रोकने और बालों की वृद्धि के लिए सप्ताह में एक बार अपने बालों की रोजमेरी ऑयल से मालिश कीजिए, इससे बाल मजबूत होते हैं।
    23. बालों के प्राकृतिक और तेज़ी से विकास के लिए, आप आंवले का भी उपयोग कर सकते हैं। आंवला में विटामिन सी प्रचुर मात्रा में होता है, जिसकी शरीर में कमी बालों को गिरने का एक कारण हो सकती है।
    24. बालों को धोने से कम से कम आधा पहले बालों में दही लगाइये और जब यह पूरी तरह सूख जाएं तो उसे पानी से धो लीजिए। बालों को धोने से एक घंटा पहले बालों में अंडे लगाने से भी बाल मजबूत होते हैं।
    25. बालों को सेहतमंद और मजबूत बनाए रखने के लिए तेल मालिश करना बेहद जरूरी है। इससे सिर की त्वचा में ब्लड सर्कुलेशन तेज होता है और बालों के झड़ने में कमी आती है। इसके अलावा बालों की मालिश करने से सिर की त्वचा को नमी मिलती है। जिसकी वजह से रूसी नहीं होती है।
    26. बालों में सप्ताह में एक बार तिल का तेल जरूर लगाएं। इस तेल के लगातार उपयोग से बाल गिरना बंद हो जाते हैं।
    27. बेसन मिला दूध या दही के घोल से बालों को धोएं। इससे भी बालों में चमक आती है और झड़ना भी बंद होता है।
    28. मेंहदी का इस्तेमाल करके भी बालों के झड़ने को कम किया जा सकता है। इसके लिए रात को मेहंदी के पाउडर को पानी में भिगो दें। इसके बाद सुबह इसे अच्छी तरह फेंट कर बालों में जड़ों से लेकर पूरी लम्बाई में लगा लें। इसके बाद इसे सूखने दें और बाद में शैम्पू से सिर को धो लें। इससे जल्द ही बालों की झड़ने की समस्या से निजात मिलेगी।
    29. मेथी बालों के झड़ने के उपचार में बहुत प्रभावी है। मेथी के बीज में हार्मोन अंटेसीडेंट होते हैं जो बालों के विकास को बढ़ाने और बालों के रोम के पुनर्निर्माण में मदद करते हैं। इसमें प्रोटीन और निकोटिनिक एसिड भी होता है जो बालों के विकास को प्रोत्साहित करता है।
    30. मेहंदी में भरपूर पोषण होता है जो बालों के लिए फायदेमंद है, इसलिए बालों में मेहंदी लगानी चाहिए। मेहंदी को अंडे के साथ मिलाकर लगाने से भी बहुत फायदा होता है।
    31. विटामिन डी बालों को बढ़ने में काफी मददगार साबित होता है। शरीर पर कम से कम 15 मिनिट के लिए भी सूर्य की किरणें पड़ने देते हैं, तो उस दिन के लिए जरूरी मात्रा में विटामिन डी की खुराक मिल जाती है।
    32. शहद को बालों में लगाने से बालों का गिरना बंद हो जाता है और असमय सफेदी से भी मुक्ति मिलती है।
    33. सप्ताह में एक बार एक चम्मच शहद और एक चम्मच नीबूं को मिलाकर नहाने से आधा घंटा पहले अपने बालों में लगाने से बालों का गिरना बहुत कम हो जाता है। दालचीनी और शहद को मिलाकर भी बालों में लगाइए।
    34. समय से पहले झड़ते बालों का एक मुख्य कारण तनाव भी हो सकता है। इसके लिए तनाव से मुक्ति पाना जरूरी है। तनाव में कमी लाकर काफी हद तक झड़ते बालों से बचा जा सकता है।


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    प्रभाकर चौबे का जीवन एवं साहित्यिक परिचय



    प्रभाकर चौबे का जन्म एक अक्टूबर सन् 1935 में इलाहाबाद में हुआ। उनके पिता का नाम माधवानंद और माता का नाम सरयूबाई था। उनके पिता जी बंगाल नागपुर रेलवे में स्टेशन मास्टर के पद पर कार्यरत थे। प्रभाकर चौबे के पिता का स्वर्गवास कम उम्र में हो जाने के कारण उन्हें पितृ सुख प्राप्त नहीं हुआ। पिता के स्वर्ग सिधार जाने पर बालक की जिम्मेदारी बढ़ जाती है, बालक का बचपना खो जाता है, उन्हें कष्टों का सामना करना पड़ता है। प्रभाकर चौबे के शब्दों में-
    "मां का जाना, घर के छत का जाना,
    पिता का जाना, घर की आंखों का जाना।
    पिता होते हैं तो निश्चिंत होते हैं
    या चिंता में होते हैं, पिता के नहीं होने पर
    हम अचानक, पिता हो जाते हैं।"
    प्रभाकर चौबे की माता जी परिश्रम, साहस, संघर्ष, मर्यादा और ममता की साक्षात प्रतिमूर्ति थी। उन्होंने आसुओं को पीकर दृढ़ता से जीना सिखाया था। वह कड़क और स्वाभिमानी थी। वह खेत की देखरेख करती थी। प्रभाकर जी के बड़े भाई ने भी जीवन में बहुत संघर्ष किया। घर में बड़ा होने के कारण से कम पढ़ाई करके ही परिवार के लिये पैसा कमाना आरंभ कर दिया उन्हीं के सहयोग से प्रभाकर जी ने हाई स्कूल और उच्च शिक्षा प्राप्त की। प्रभाकर चौबे अपनी मां का बहुत सम्मान करते थे। घर में अभिभावक मां ही थी। वे देवी के समान मां को पूजते थे। गीता में संस्कृत श्लोक में कहा गया है- "यत्रनार्यस्तु पूजयन्ते, रमन्ते तत्र देवता।"

    प्रभाकर चौबे की माता जी को छत्तीसगढ़ी और बुदेलखंडी भाषा की अनेक कविताएँ याद थी। बात-बात पर कहावतें व लोकोक्तियाँ बोलती थीं। वे आज प्रभाकर जी के बड़े काम आये। उन्होंने कई लेखों में उसका उपयोग भी किया है। कबीर की वाणी के ढेरों दोहे और तुलसी की चैपाइयाँ उन्हें याद थी। मीरा के पद वे बड़े राग से गाती थी। धार्मिक ग्रंथ जैसे रामायण, गीता आदि पढ़ने में अभिरूचि थी। पढ़ने के साथ-साथ वे राम और कृष्ण के आदर्शों को उदाहरण के रूप में सुनाती थी। इन सबका प्रभाव बचपन में ही प्रभाकर जी के मानस पटल पर पड़ा। प्रभाकर चौबे माँ को ही सर्वस्व मानते थे -
    मैं नहीं जानता था - जंगल, पहाड़।
    मैं नहीं जानता था- आसमान, तारे सूर्य-चाँद,
    अंतरिक्ष मैं नहीं जानता था, मैं केवल मां जानता था।"
    जैसे कि आम ग्रामीण बच्चों का बालपन गांव की गलियों में गोली-कंचा, गुल्ली-डंडा, छुवा-छुवौवल और कबड्डी खेलते बीतता है, वहाँ की प्रकृति की धूल भरी गोद में, नालों-तालाबों और खेत-खलिहानों में फसलों का आनंद लूटते हुए व्यतीत होता है, प्रभाकर चौबे का बालपन भी इन्हीं क्रियाकलापों में बीता। जहाँ भविष्य के कोई सपने नहीं होते और न उन सपनों को पूरा करने की कोई चिंता। प्रभाकर चौबे की प्राथमिक शिक्षा सिरसिदा गांव से दो किलोमीटर दूर सिहावा में हुई। महानदी पार करके पढ़ने के लिये स्कूल जाना पड़ता था। बरसात में जब महानदी में खूब बाढ़ आ जाती थी, तो स्कूल जाने का कार्य बाधित हो जाता था। उन दिनों स्कूल की छुट्टी होती थी। यदि नदी में गले तक पानी होता था, तो वह अपने बाल मित्रों के साथ बस्ता और कपड़ा हाथ में उठाकर एक-दूसरे के हाथ पकड़े हुए नदी पार करते थे और स्कूल पहुँच जाते थे। उन्हीं के मित्रों में से कुछ अच्छे तगड़े बच्चे नदी पार करने में छोटे बच्चों को सहयोग देते थे। यह सहयोग उसी तरह का था जैसे भगवान कृष्ण एवं ग्वाल-बाल का।


    सन् 1945 में प्रभाकर चौबे को आई.वी.एम. स्कूल रायपुर में पांचवी कक्षा में प्रवेश दिलाया गया। आई.वी.एम. स्कूल अंग्रेजों ने भारतीय छात्रों के लिये स्थापित किया था, जिसका नाम 'इंडियन वर्नाकुलर मिडिल स्कूल' दिया गया। अंग्रेज भारतीय भाषा को वर्नाकुलर कहकर हमारी भाषा का अपमान करते थे। आजादी के बाद वर्नाकुलर शब्द हटा दिया गया। उनके घर में अभाव की स्थिति थी। पांच लोगों का परिवार था और उनके बड़े भाई की छोटी सी नौकरी थी। बहुत मुश्किल से परिवार का गुजारा चलता था।

    प्रभाकर जी पढ़ने लिखने में बड़े कुषाग्र बुद्धि के थे। वे बचपन से ही मेघावी छात्र थे। सिहावा रेंज के प्राथमिक शाला बोर्ड परीक्षा में वे प्रथम स्थान पर थे। पूरे सिहावा रेंज में प्रथम स्थान प्राप्त करना एक गौरव की बात थी, इसलिये पांचवी कक्षा (मिडिल स्कूल) में अध्ययन के समय 'मेरिट कम मीन्स' स्कालरशिप दिया गया। इसी तिनके के सहारे उन्होंने आगे के शिक्षा-दीक्षा के अथाह समुद्र को पार करने की योजना बनाई। उस जमाने में तीन रूपये प्रतिमाह स्कालरशिप मिलती थी। साल के अंत में एक साथ छत्तीस रूपये हाथ में आता था। गरीबी के दिनों में यह बहुत बड़ी रकम थी। सन् 1945 में यह रकम उनके पढ़ाई एवं कॉपी-पुस्तक की सहायता के लिये पर्याप्त थी। परिवार के सदस्य भी इस स्कालरशिप से राहत महसूस करते थे।

    प्रभाकर चौबे ने विद्यार्थी जीवन में नाटकों में खूब काम किया। एक नाटक में महिला का अभिनय किया। नाटक के निर्देशक पी.के. सेन थे। वे तन्मय होकर नाटक का निर्देशन करते थे। प्रभाकर जी ने बताया-देश स्वतंत्र होने के बाद भी अंग्रेजी शासन काल का प्रभाव खत्म नहीं हुआ था -
    "मैंने स्कूल में दाखिला लिया, तब मुल्क आजाद हो गया था।
    पिता ने अंग्रेजी राज में नौकरी की थी
    उन्हीं ने मुझे योर्स मोस्ट ओबिडिएंट सर्वेंट
    की स्पेलिंग और इसका अर्थ बताया था।

    छत्तीसगढ़ महाविद्यालय रायपुर में जब प्रभाकर चौबे बी.कॉम. अंतिम वर्ष के छात्र थे, तो उन्हें महाविद्यालय में छात्र संघ का अध्यक्ष चुना गया। सागर विश्वविद्यालय की ओर से सामुदायिक विकास योजनाओं के क्रियान्वयन की समीक्षा करना था। वहाँ उन्हें चालीस दिन रहकर अध्ययन करना और रिपोर्ट बनाना था। उनके साथ सागर विश्वविद्यालय का एक और छात्र था। उन्हें चटगाँव का दौरा कर सर्वेक्षण पूरा करना था। यह कार्य बहुत ही रोचक एवं ज्ञानवर्धक था। बाद में उनकी सर्वे रिपोर्ट को प्रथम स्थान प्राप्त हुआ, जिसमें 250 रुपये की सम्मान राशि के साथ विश्वविद्यालय प्रतिभा प्रमाण पत्र प्राप्त हुआ। प्रभाकर जी ने बी.काॅम. अंतिम की परीक्षा प्रावीण्य सूची में उत्तीर्ण की। अतः उन्हें अपनी स्नातक होने की डिग्री लेने सागर विश्वविद्यालय जाने का एवं दीक्षांत समारोह में शामिल होने का एक नया अनुभव मिला, जिसने उन्हें काफी रोमांचित किया। सन् 1946 में शहर में छात्रों का एक विशाल जुलूस निकला। देश के बंटवारे पर सहमति बन गई थी और शायद इसीलिये उस जुलूस में यह नारा लग रहा था- "एक पैसा तेल में, जिन्ना बेटा जेल में।" जुलूस टाउन हॉल में गया। वहाँ राष्ट्रीय पुस्तकों की प्रदर्शनी लगी थी। प्रभाकर जी ने वहाँ दो-दो पैसे की कामिक तराना नामक पुस्तक खरीदी। उसी दिन उन्होंने सर्वेश्वर म्यूजियम देखा। आज भी यह अष्ट कोणिय भवन यथावत स्थित है, जो महाकौशल कला वीथिका को दे दी गई। जिलाधीष परिसर में महारानी विक्टोरिया और पंचम जॉर्ज के संगमरमर की मूर्तियाँ स्थापित की गई थी। आज़ादी के पश्चात् उन मूर्तियों को वहाँ से हटाकर म्यूजियम में रख दिया गया।

    सन् 1947 में गांधी जी रायपुर स्टेशन से गुजरे। खबर मिलते ही जनसमुदाय उनसे मिलने के लिये स्टेशन पर उमड़ पड़ा। प्रभाकर चौबे भी स्कूल के अन्य छात्रों के साथ स्टेशन गये। वहाँ इतनी भीड़ थी, कि अंदर घुसना बहुत मुश्किल था। प्रभाकर जी लोगों के बीच से घुसते हुए ट्रेन के दरवाजे तक पहुँचे, उन्होंने देखा गांधी जी ट्रेन के दरवाजे पर खड़े थे। वहाँ गांधी बाबा की जय जयकार के नारे का घोष हो रहा था। वे भीड़ में भी गांधी जी को देखते रह गये। गांधी जी की झलक आज भी उनकी स्मृतियों में बसी हुई है।

    प्रभाकर जी पढ़ाई के साथ-साथ शहर की अन्य गतिविधियों से भी जुड़े रहे। अन्य गतिविधियों के कारण अनुभव और ज्ञान के नये आयाम खुले, जिसने उनके बाद के लेखन में बड़ी मदद की। प्रभाकर चौबे खेल के भी शौकीन रहे। इसी के चलते उन्होंने एक पुस्तक का नाम "खेल के बाद मैदान" रखा। वास्तव में खेल के पश्चात् भी मैदान की उपयोगिता की समीक्षा और अगले प्रतियोगिता के लिये अभ्यास करने के लिये आवश्यक है।
    "खेल के बाद, मैदान खाली नहीं होता
    खेल के बाद खिलाड़ी, छोड़ जाते है स्पंदन।
    खेल के बाद, मैदान यह चुगली नहीं करता।
    सबके स्पंदन को, आत्मसात करता है, मैदान।"

    गोवा मुक्ति आंदोलन में प्रभाकर जी के चाचा राजेन्द्र कुमार चौबे स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे। उनके ताऊ समाजवादी विचारधारा के थे। कुछ समाजवादी लोगों के साथ वे सन् 1948 में समाजवादी कांग्रेस से अलग हुए और रायपुर समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष बने। प्रसिद्ध वकील बुलाकीलाल पुजारी और सरयू प्रसाद दुबे उनके मुख्य सहयोगी थे। उसी समय से किषोर अवस्था में जयप्रकाश नारायण, राममनोहर लोहिया, लाड़ली मोहन निगम, एच.वी. कामथ जैसे प्रखर समाजवादी नेता से उन्हें मिलने का अवसर प्राप्त हुआ। जब रायपुर में बड़े गणमान्य नेतागण आते, तो उनकी देख-रेख की जवाबदारी प्रभाकर जी को दी जाती थी। बाद में वे डॉ. राममनोहर लोहिया को लेकर सिहावा गये, जहाँ आदिवासी नेता सुखराम बागे के नेतृत्व में आदिवासियों का जंगल सत्याग्रह चल रहा था। डॉ. राममनोहर लोहिया के साथ उन्हें सिहावा इसलिये भेजा गया क्योंकि वे इस क्षेत्र से पहले से ही वाकिफ थे। सन् 1954 में छत्तीसगढ़ कॉलेज रायपुर में छात्रसंघ का उद्घाटन करने के लिये ठाकुर प्यारेलाल सिंह को आमंत्रित किया, जो उन दिनों नगर के विधायक थे। वे प्रखर समाजवादी और छत्तीसगढ़ के लोकप्रिय नेता थे। वे पूर्व मध्य प्रदेश में विधानसभा के विपक्षी दल के नेता थे। बाद में वे विनोबा भावे के प्रभाव में आकर सर्वोदयी नेता बन गये।

    प्रभाकर चौबे ने अनुभव किया कि सरकार मलेरिया उन्मूलन और बीमारियों के लिये जागरूकता लाने का प्रयास कर रही थी। प्रौढ़ शिक्षा के अंतर्गत रात को कक्षाएँ लगती थी। पंचायत भवनों में रेडियो दिये गये थे। विकास कार्यों में जनता की सहयोग भावना विकसित करना सामुदायिक विकास कार्यक्रम की योजना थी। प्रभाकर जी को जब सागर विश्वविद्यालय की ओर से सामुदायिक विकास योजना के क्रियान्वयन की समीक्षा करना था और वहाँ चालिस दिन रहकर अध्ययन कर रिपोर्ट बनाना था। तब उनको इस बीच वहाँ उस क्षेत्र के ग्रामीण समाज को समझने का अवसर मिला। छत्तीसगढ़ के गांव तथा मालवा अंचल के गांव का तुलनात्मक अध्ययन करना रोचक था। इस आधार पर चौबे जी ने विस्तृत लेख भी लिखा। कॉलेज के दिनों में प्रभाकर चौबे वाम राजनीति की ओर आकर्षित हो गये थे। बुलाकी लाल पुजारी जब नगर पालिका के अध्यक्ष का चुनाव लड़ रहे थे तब प्रभाकर जी उनके चुनाव कार्य में सहयोग किया और वकील बुलाकीलाल पुजारी चुनाव जीत गये। पुजारी जी बहुत ही स्पष्टवादी थे, उनके प्रति प्रभाकर जी का सम्मान व विश्वास हमेशा बना रहा। साहित्य के क्षेत्र में उन्हें अनेक पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
    1. वर्ष 2006 में साहित्य के क्षेत्र में कवि नारायण लाल परमार सम्मान से नवाजा गया।
    2. वर्ष 2011 में महाराष्ट्र मंडल रायपुर द्वारा साहित्य के समग्र अवदान के लिये मुक्तिबोध सम्मान से नवाजा गया।
    3. महासचिव के रूप में छत्तीसगढ़ प्रगतिशील लेखक संघ ने सार्वजानिक सम्मान किया।
    4. ट्रेड यूनियन के कार्यकर्ताओं ने 'श्रेष्ठ लीडर' के रूप में सार्वजनिक सम्मान किया।
    5. मध्य प्रदेश शिक्षक संगठन ने अखिल भारतीय शिक्षक संघ नेतृत्वकत्र्ता के रूप में सम्मानित किया।
    इसके अतिरिक्त विभिन्न संस्थाओं द्वारा आपका सार्वजनिक सम्मान किया गया। जिनमें प्रमुख रूप से नगर पालिका रायपुर द्वारा सार्वजनिक अभिनंदन किया गया। अखिल भारतीय शांति एवं एकजुटता संगठन में वरिष्ठ सक्रिय कार्यकर्ता के नाम पर सम्मान किया। आप कुछ समय तक आकाशवाणी के सलाहकार समिति के मानद सदस्य भी रहे। वहाँ पर अच्छे प्रस्तोता के रूप में उन्हें सार्वजनिक सम्मान दिया गया। चूंकि प्रभाकर चौबे का जीवन एक अध्यापकीय जीवन रहा है, जहाँ अध्ययन अध्यापन ही एकमात्र कर्म है। वहाँ घरेलू वातावरण भी ब्राह्मण संस्कार युक्त प्रांजल परिवेश में उनका वैवाहिक जीवन फलता फूलता रहा है। पत्नी मालती चौबे भी अत्यंत सात्विक और संस्कारों में पली हुई, पति की छाया की तरह साहित्य सेवा में सतत उनकी अनुगामिनी रही। पत्नी नगर पालिका रायपुर में शिक्षक होने के साथ-साथ अच्छी गृहिणी भी रही। पुत्र द्वय जीवेश और आलोक अपने माता-पिता के स्वभाव के अनुकूल साहित्य अनुरागी ही रहे और पिता की रचनाओं में अपना योगदान देते रहे। 21 जून 2018 को उनका निधन हो गया।


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    पाण्डेय बेचन शर्मा ‘उग्र’: संक्षिप्त जीवनी



    पाण्डेय बेचन शर्मा 'उग्र' का जन्म विक्रमी संवत् 1957, (सन् 1900) पौष शुक्ल अष्टमी की रात साढ़े आठ बजे उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर जिले की चुना तहसील के सद्दूपुर नामक मुहल्ले में श्री बैजनाथ पाण्डेय कौशिक गोत्रोत्पन्न सरयू-पारीण ब्राह्मण के घर हुआ। इनके पिता श्री बैजनाथ पाण्डेय बड़े तेजस्वी, सतोगुणी, वैष्णव हृदय के थे। उनकी आजीविका दूसरों के घरों में पूजा-पाठ द्वारा ही चलती थी। पूर्वजों के कारण जो सम्मानित प्रतिष्ठा थी, उसके कारण इनका गाँव में सभी लोग आदर करते थे। " 'उग्र' के प्रपितामह सुदर्शन पाण्डेय सिद्धपुरूष थे, जिनके सिद्धिबल से प्रभावित होकर काशी नरेश ने उन्हें 108 बीघे भूमि, जिसमें चार कुएँ और दो आम के बाग थे, दान में दी थी। इनके पितामह हरसू पाण्डेय एक राजा के यहाँ राजपुरोहित थे।" इनकी माता का नाम जयकली था। वे परम उग्र, कराल, क्षत्राणी स्वभाव की थी, परम क्रोधिनी होने के साथ वे भोली भी कम न थीं। वे परिश्रमी भी बहुत थीं। अतः उग्र को यह उग्रता अपनी माँ से ही संस्कार रूप में प्राप्त हुई थी।
    'उग्र' के बहन-भाइयों की संख्या एक दर्जन तक पहुँची परन्तु उनमें अधिकतर उत्पन्न होते ही अथवा वर्ष-दो वर्ष के होते-होते ईश्वर के प्यारे हो गए। पहले भाइयों के नाम उमाचरण, देवीचरण, श्रीचरण, श्यामचरण, रामचरण आदि थे। बच्चों की अकाल मृत्यु से भयभीत होने के कारण, 'उग्र' के जन्म पर थाली तक न बजाई गई और जन्मते ही इन्हें बेच दिया गया। स्वयं उपन्यासकार उग्र ने कहा है - "सो, जन्मते ही मुझे यारों ने बेच डाला, और किसी कीमत पर ? महज टके पर एक। उसका भी गुड़ मँगाकर मेरी माँ ने खा लिया था। अपने पहले उस टके में से एक छदाम भी नहीं पड़ा था, जो मेरे जीवन का संपूर्ण दाम था।" उग्र का बेचन नाम जन्मते ही बिकने का सूचक है। यह नाम उत्तर भारत के पूर्वी जिलों में चलने वाला नाम है, अहीरों, कोरियों आदि निम्न वर्गीय जातियों में प्रचलित है। ब्राह्मण वंश मेंजन्म लेने पर भी इनके परिवार वालों ने यह मन्द नाम इन्हें प्रदान किया, जिससे ये अकाल मृत्यु का ग्रास न बनें। "यह नाम तिलस्मी गंडा बना और 67 वर्ष तक ये जीवन संग्राम के योद्धा बने रहे, काल को इनका मन्द नाम पसन्द न आया और ये उसका ग्रास बनने से बचते रहे।"

    उग्र के आरम्भिक जीवन, व्यक्तित्व और साहित्य पर उनके बड़े तथा मंझले भाइयों का बहुत कुछ प्रभाव पड़ा। बालक बेचन केवल दो वर्ष छः माह के थे कि उनके पिता जी का देहान्त हो गया। उनके मंझले भाई पितामरण के कुछ ही दिन के अन्दर बड़े भाई तथा भाभी से लड़कर अयोध्या भाग गए और साधु बनकर मण्डलियों में अभिनय करने लगे। बड़े भाई ने अपनी पत्नी और माता के आभूषण जुआ-यज्ञ में स्वाहा कर दिए, घर के बरतन-भांडों तक को बेच डाला। इस सम्बन्ध में वे लिखते हैं - "जब भी मेरे घर में जुआ जमता, भाई की आज्ञा से दरवाजे पर बैठकर मैं गली के दोनों नाके ताड़ता रहता, कि पुलिस वाले तो नहीं आ रहे हैं। जरूर इस ड्यूटी के बदले पैसा-दो-पैसा मुझे भी किसी परिचित जुआरी से मिलता रहा होगा।" उग्र के बड़े भाई घोर पियक्कड़ तथा वेश्यागामी थे। उनका प्रभाव बालक बेचन के संस्कारों पर इतना अधिक पड़ा कि वे अपने जीवन तथा साहित्य में इन बुराइयों को प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से उतारे बिना न रहे। इनका जन्म एक ऐसे परिवार में हुआ, जहाँ निर्धनता ने अपना साम्राज्य स्थापित कर रखा था। आय के साधन अति सीमित थे, उससे पेट भर भोजन भी नहीं मिलता था। बड़ी कठिनाई से यदि प्रातः भोजन मिलता तो रात्रि को व्रत रखना पड़ता। ऐसी स्थिति में उसकी शिक्षा-दीक्षा का सवाल ही नहीं उठता। आँख खोलते ही जीवन-ग्रन्थ का जो पृष्ठ उसे देखने को मिला, वह शिक्षा-दीक्षा को चैपट करने वाला था। उसी से वह नरक की ओर अधिक आकर्षित हुआ और उसकी खोज में दूर, बहुत दूर तक चला गया। उसका साहित्यिक दृष्टिकोण भी घोर यथार्थवादी बना। नरक बुरा होने पर भी उसका प्रिय जीवन-संगी बन गया। "इस प्रकार कथाकार ब्राह्मण-वंश में जन्म लेकर भी ब्राह्मण-ब्राह्मणियों की अपेक्षा शूद्र-शूद्राणियों की ओर अधिक आकृष्ट रहा और शूद्र, खानाबदोश एवं बंजारे अपने अंग से प्रतीत होते रहे।"

    जिस समय बालक को वात्सल्य, समुचित शिक्षा और नैतिक वातावरण की आवश्यकता होती है, उस समय 'उग्र' इसमें नितान्त रहित होकर अभावों और विपन्नताओं का जीवन व्यतीत कर रहे थे। "जीवन को स्वर्ग और नरक दोनों ही का सम्मिश्रण कहा जाए तो मैंने नरक के आकर्षक सिरे से जीवन दर्शन आरम्भ किया और बहुत देर, बहुत दूर तक उसी राह चलता रहा। इस बीच में स्वर्ग की केवल सुनता ही रहा मैं।" 'उग्र' के ये शब्द उनके बचपन का यथार्थ चित्रण उपस्थित करते हैं। उनके साहित्य में नाटकीयता का जो अपूर्व सौष्ठव मिलता है, उसका मूलस्त्रोत उनका वह जीवन है, जिसमें वह रामलीला मण्डलियों के साथ वर्षों घूमते रहे और समय-समय पर कई प्रकार का अभिनय भी करते रहे। इनके दो बड़े भाई पहले से ही रामलीला में अभिनय करते थे।

    अपने पिता की मृत्यु के पश्चात् 'उग्र' विजयदशमी के अवसर पर होने वाली रामलीला में कोई न कोई भूमिका निभाया करते थे। भाई के कहने पर इन्होंने एक-दो बार सीता का अभिनय किया। जब 'उग्र' के भाई अयोध्या की रामलीला मण्डली में थे, तब उन्होंने इनको बनारस की मण्डली में अपने किसी मित्र के संरक्षण में छोड़ दिया। इस समय इनकी अवस्था आठ या नौ वर्ष की थी। कुछ समय पश्चात् इनके भाई ने इन्हें अयोध्या की मण्डली में बुला लिया। यहाँ इन्हें आठ-दस रूपये मासिक पर लक्ष्मण और जानकी का अभिनय करने का काम दिया गया। रामलीला के विभिन्न पात्रों के संवाद कंठस्थ करने के अतिरिक्त वे एक वैरागी पखावजी से संगीत भी सीखा करते थे। रामलीला के दिनों में ही 'उग्र' का परिचय श्रीरामचरितमानस् से हुआ और इन्हीं दिनों में ही इन्होंने सुलझे हुए साधुओं को निष्ठापूर्वक रामायण का पारायण करते हुए देखा। 'उग्र' का रामायण-अनुराग इतना प्रगाढ़ हुआ कि इस ग्रन्थ के विविध अंश इन्होंने कंठस्थ कर लिए। "रामलीला मण्डलियों से सम्बन्धित जीवन का यदि कोई सुखद प्रभाव 'उग्र' पर पड़ा तो वह यह था कि उनका जीवन दर्शन रामायण में वर्णित आदर्शों से पर्याप्त रूप से प्रभावित हुआ।" वे राम, तुलसी और तुलसी की कृतियों, विशेषकर रामचरितमानस् और विनय पत्रिका के अनन्य प्रशंसक बन गए। इन रचनाओं के अनेक उद्धरण उनकी कृतियों में यत्र-तत्र दृष्टिगोचर होते हैं।

    बेचन पाण्डेय को रामलीलाओं की ओर प्रेरित करने वाली घरेलू परिस्थितियाँ ही थी, परन्तु समयानुसार इनकी अपनी चित्तवृत्तियाँ भी इस कार्य में रमने लगीं और ये विभिन्न रामलीला-मण्डलियों में भरत, लक्ष्मण, सीता आदि के अभिनय बड़े मनोयोग से करते रहे। 'उग्र' अपने दूसरे भाई के साथ महन्त राममनोहर दास की रामलीला मण्डली में कार्य करने लगे। इस मण्डली में इन्होंने अलीगढ़, दलीपपुर, फैजाबादा, प्रतापगढ़, मेरठ, दिल्ली, कटनी आदि स्थानों का भ्रमण किया। "विभिन्न स्थानों में लक्ष्मण और सीता की भूमिका करते और सहस्र जनों से अपने पैरों की अर्चना करवाते।" उस समय लोग ऐसी धार्मिक भूमिकाएँ करने वालों को ही भगवान् समझ बैठते थे, लेकिन वे रामलीला मण्डली के सदस्यों से परिचित नहीं थे। परन्तु 24 घण्टे इस मण्डली में रहने वाले 'उग्र' ने जो-जो कुकृत्य देखे, उसका वर्णन अपने अधिकतर उपन्यासों में कर चुके हैं। जब इनकी आयु 11-12 वर्ष के लगभग थी तो ये मण्डली के विलास-जाल के कुप्रभाव में आने लगे। महन्त राम मनोहरदास की राम मण्डली पाप लोलुप कार्यों में लिप्त थी। "महन्त किसी न किसी लड़के पर रीझकर उसी के साथ रात्रि व्यतीत करते।" बेचन शर्मा इन कुकृत्यों से बचे रहे, क्योंकि वे अपने दो हट्टे-कट्टे भाइयों के संरक्षण में थे। 'अपनी खबर' में उग्र ने लिखा है - "लीलाधारी लोग स्वरूपों के साथ अनैतिक कार्य भी अवसर मिलने पर किया करते थे। मण्डली के अन्य लोग जैसे अधिकारी, भण्डारी, श्रृंगारी और लीलाधारी भी इन छोकरों के साथ ऐसा दुव्र्यवहार करते।" उग्र अपने विषय में लिखते हैं - "अपने तेजस्वी भाइयों के कारण ये मेरा कुछ न बिगाड़ सके।" राम मनोहर दास की मण्डली पाप कृत्यों से भरी पड़ी थी। इस राम मण्डली में 'उग्र' का पहला और अंतिम प्रेम पनपा। ये एक सत्रह वर्षीया सुन्दरी अभिरामा श्यामा पर मोहित हो गए। वह विवाहिता थी और रामलीला देखने के लिए प्रायः आती थी। उग्र स्टेज पर अपनी भूमिका निभाते हुए इन्हें निहारा करते थे। इनका प्रेम वासना न होकर केवल भावनात्मक था, लेकिन राममनोहर मण्डली ने इस सुन्दरी के साथ व्यभिचार करके इसे यौन रोग से ग्रसित कर दिया। संयोगवश उन्हीं दिनों उसका पति आ गया और उसे समझते देर न लगी। पति ने उत्तेजित होकर उसका अंग-अंग दाग दिया और वह चिकित्सालय में लाई जाने पर भी बच न सकी, उसने दम तोड़ दिया। इस घटना का आतंक उग्र में मानसपटल पर ऐसा पड़ा कि इनकी प्रत्येक कहानी एवम् उपन्यास में नारी की भूमिका में श्यामा की प्रतिछाया दिखाई पड़ती है। इस दुःखद प्रसंग के बारे में उग्र ने स्वयं लिखा है - "मेरा प्रथम और अन्तिम प्रेम भी वही था।" 12 वर्ष की आयु में घटी इस घटना ने उग्र की विचारधारा को नया मोड़ दिया। रामलीला मण्डली से इनका जी उचाट हो गया और वापिस चुनार आ गए।

    चुनार आने के पश्चात् उनके पुत्रहीन चाचा ने उन्हें विधिवत् गोद लिया। 14 वर्ष की आयु में ये चुनार के चर्च स्कूल में तृतीय श्रेणी में पढ़ने लगे। अभी ये छठी कक्षा में पहुँचे ही थे कि इनकी चाची ने एक सुन्दर बालक को जन्म दिया, जिससे इनके चाचा-चाची के प्यार में कटुता आ गई। विधि-विरहित दत्तक पुत्र बनने के कारण उसे पुनः कठोर धरती पर पटक दिया गया। उसके चाचा-चाची परिवार सहित काशी चले गए और उसे पुनः कसाई समान क्रूर बड़े भाई के चरणों में आना पड़ा। शिक्षा, खान-पान आदि की कठिनाइयाँ उसे सताने लगीं और वह विचित्र संकट में फस गया। इन्हें जो उग्रता अपनी माता के संस्कारों के रूप में प्राप्त हुई थी, उसी ने विद्यार्थी जीवन तथा साहित्यिक जीवन में विस्तार पाया। छठी कक्षा में अध्ययन करते समय वह उग्रता प्रथम बार एक भयानक रूप में प्रस्फुटित हुई। "उनके एक अध्यापक थे मौलवी लियाकत अली, जो उर्दू-फारसी आदि पढ़ाया करते थे। मौलवी के विचार हिन्दू-विरोधी थे और अध्यापन के समय वे ऐसी बातें कह जाया करते थे, जिनसे हिन्दू विद्यार्थियों की भावनाओं को ठेस पहुँचती थी।" एक दिन मौलवी ने विद्यार्थियों से कहा - "हिन्दुओं के देवता मेरे पाजामें में बंद रहते हैं।" यह सुनकर अनके हिन्दू-छात्रों में विद्रोह की अग्नि भड़क उठी। सभी ने इन मौलवी को सबक सिखाने की ठानी। लेकिन पहल कौन करे ? उग्र पढ़ने से बचना चाहते थे, इसलिए यह मुसीबत अपने ऊपर ले ली और प्रिसिंपल को तार अपने नाम से भिजवा दिया - "मौलवी लियाकत अली, मिशन टीचर, इन्सल्ट्स अवर रिलीजयस फीलिंग्स, नो सैटिस्फैक्टरी इन्क्वायरी बेचन पाण्डे।" तार पाते ही मुख्याध्यापक तुरन्त स्कूल पहुँचे, लेकिन भय से उस दिन उग्र अनुपस्थित रहे, जिसके कारण इनका नाम स्कूल से काट दिया गया और मौलवी की भी कठोर भत्र्सना की गई। इस प्रकार चुनार के स्कूल से इनकी शिक्षा खत्म हो गई।
    पुनः उग्र काशी की शरण में गए। इन्होंने यहीं पढ़़ने की प्रार्थना की। चाचा ने इन पर कृपा करके इन्हें बनारस के विख्यात हिन्दू कालिजिएट स्कूल की छठी कक्षा में प्रवेश दिलवा दिया। प्रधान अध्यापक काली प्रसन्न चक्रवर्ती की इन पर असीम कृपा थी, जिनकी शरण में इन्होंने छठी, सातवं कक्षा उत्र्तीर्ण की, (इन पर) लेकिन इनके चाचा ने इन्हें अपने से अलग कर दिया। तब काली प्रसन्न चक्रवर्ती ने काशी के बाबू शिवप्रसाद जी के नाम एक पत्र लिखकर भेजा, जिसमें उग्र की शिक्षा, खान-पान, रहने की निःशुल्क व्यवस्था हो गई। एक वर्ष तक ये सभी सुविधाओं को प्राप्त करते रहे, लेकिन अपने उग्र स्वभाव को न बदल सके, जिसके कारण दुबारा इनकी शिक्षा रूक गई। ये वार्षिक परीक्षा में फेल हो गए और वापिस चुनार आ गए। इनकी शिक्षा यहीं तक सीमित थी।

    उग्र जी के उग्र स्वभाव को सर्वाधिक उत्तेजना उनके बड़े भाई के अनुचित एवं अनैतिक आचरण ने ही दी, वह उस कसाई के समान थे जो कभी सन्तुष्ट नहीं होता। इसी से बेचन को अपना घर संसार का सबसे बड़ा कारावास लगता था। बड़े भैया की अनुपस्थिति में दस रूपए का नोट हाथ लगते ही ये धोती-कमीज पहने एक अंगोछा लिए घर से भागकर कलकत्ता चले गए। कलकत्ता जिन विश्वनाथ त्रिपाठी (पड़ोसी भाई) से मिलना था, वे चुनार के लिए रवाना हो चुके थे। एक सप्ताह के बाद श्री विश्वनाथ कलकत्ता आ गए। उन्हीं की कृपा से इन्हें आरव्म्एलव्म् बर्मन कम्पनी में एक रूपया प्रतिदिन की नौकरी मिली। अभी महीना खत्म भी न हुआ था कि बड़े भाई का चुनार पहुँचने के लिए पत्र आ गया और इन्हें बिना सूचना दिए चुनार जाना पड़ा। जिसके कारण इन्हें पूरे महीने का वेतन भी न मिला। यह इनके जीवन की पहली और अन्तिम नौकरी थी। चुनार आकर इन्होंने साहित्य सृजन को अपना लक्ष्य बनाया। आरव्म्एलव्म् बर्मन कम्पनी में नौकरी करते वक्त इनका राजनीतिज्ञों से भी वास्ता पड़ता था। घुमक्कड़ प्रवृत्ति होने के कारण इन्होंने कटु यथार्थ देखे और अनुभव किए। ये वाराणसी, कलकत्ता, बम्बई, इन्दौर, दिल्ली आदि महानगरों में घूमे। स्वस्थ एवम् अस्वस्थ जीवन को अपनी रचनाओं में प्रतिपादित किया।

    "बेचन की पहली रचना 'धु्रवधारणा' नामक खण्डकाव्य थी।" पाण्डुलिपि का संशोधन लाला भगवानदीन ने किया। 'अपनी खबर' आत्मकथा में उग्र लिखते हैं, "मुझमें यदि कुछ प्रतिभा थी तो उसे लालाजी के मात्र आशीर्वाद का पोष प्राप्त हुआ। पढ़ा वह मुझे न पाये।" "दूसरी कृति थी 'महात्मा ईसा' जिसका संशोधन लालाजी ने किया और पुनर्वाचन प्रेमचन्द ने।" इस युग के साहित्यकारों में ईष्र्या की भावना न होकर सद्भावना थी, जिसके तहत ये एक-दूसरे की सहायता करते रहते। उग्र को भी अनेक साहित्यकारों ने सराहा एवं इनकी भूरि-भूरि प्रशंसा की। अपनी आत्मकथा में 'उग्र' लिखते हैं - "पहले सौ में से सौ साहित्यकार ऐसे होते थे जो कहीं जरा भी प्रतिभा जरा भी प्रसाद देखते ही उसका यथोचित आदर करते थे। आज जैसे वह चली ही गई है।" उग्र का साहित्यिक जीवन सन् 1920 से प्रारम्भ होता है। इन्होंने शहीद मैक्स्विनी पर एक लम्बी कविता लिखी, जो कि 'आज' में प्रकाशित हुई। 'आज' में प्रकाशित होने वाली यह पहली कविता थी। इसके कुछ दिन पश्चात ही 'उग्र' की पहली कहानी 'गांधी आश्रम' आज में छपी। 'आज' में कार्यरत बाबूराव विष्णु पराड़कर जी ने उग्र के लेखन कार्य को हर प्रकार से प्रोत्साहित किया। "पराड़कर जी के विषय में भी उग्र कह चुके हैं कि उनकी साहित्य के प्रति रूचि जगाने में पराड़कर जी की अहम भूमिका रही है।" कई वर्षों तक लिखते रहने से इनकी लेखनी में परिपक्वता आ गई थी। 'आज' के द्वारा ही इन्हें बनारस एवं सम्पूर्ण उत्तरप्रदेश में ख्याति प्राप्त हुई।
    सन् 1921 से उग्र का साहित्यिक एवं पत्रकारिता का जीवन प्रारम्भ हुआ। इनके जीवन में गांधी जी के व्यक्तित्व का प्रभाव दिखता है। उग्र ने अनेक बार गांधी के भाषणों को सुना और इन से प्रभावित भी हुए। अपनी रचनाओं में देश की विभिन्न समस्याओं के समाधान के लिए गांधीवादी सुझावों का प्रतिपादन किया। इनके लिए सन् 1927 से 29 तक के वर्ष विवादास्पद, कोलाहलकारी रहे। इन्हीं वर्षों में ये 'मतवाला' के साथ जुड़े एवम् कुछ विवादास्पद रचनाओं का निर्माण भी इसी वर्ष हुआ। जैसे 'चाॅकलेट', 'दिल्ली का दलाल', 'बुधुआ की बेटी' आदि। इसमें चाॅकलेट कहानी संग्रह पर जितना बवंडर उठा, शायद इतना किसी और साहित्यिक रचना पर हुआ हो। चाॅकलेट के विरूद्ध 'घासलेट आन्दोलन' चला। महात्मा गांधी ने 'चाॅकलेट' को अनेक बार पढ़ा एवम् सराहा, लेकिन आलोचकों ने इन्हें मानसिक पीड़ा पहुँचाई, जिससे ये विरक्त हो गए। उग्र के शब्दों में - "मैंने सोचा - परे करो इस हिन्दी को। चरने दो उन्हें, चरा रही है मेरी चर्चा, चलो बम्बई चलो।"

    जब इनका साहित्य से जी उचाट हो गया, तब ये फिल्मी दुनिया से जुड़ गए और सन् 1930 से 1938 तक फिल्मों में लेखन का कार्य करते रहे। फिल्मी निर्माता, निर्देशक इनके पास आते और इनसे कहानी, संवाद, गीत लिखवा ले जाते। "राम विलास, सजीव मूर्ति, पतित पावन, अहिल्योद्धार, राधामोहन, जन्म के लाल आदि चित्र इन्हीं की लेखनी से उतरे थे।" सिनेमा जगत् में रहते हुए इन्होंने कहानी, संवाद, गीत लेखक की हैसियत से जीवनयापन किया। जीवन के कटु सत्य एवम् सिनेमा जगत् के घृणित कृत्य और खोखलेपन को इन्होंने बड़ी निकटता से देखा। साहित्य के प्रति पुनः इनका रूझान सन् 1938 में जागृत हुआ, जब ये इन्दौर में थे। वहाँ रहकर इन्होंने अपनी रचनाओं द्वारा सामाजिक, धार्मिक, राजनैतिक जीवन की विद्रूपताओं का यथार्थ चित्रण प्रस्तुत किया। जितने साल ये फिल्मी दुनिया में रहे, उतने साल ये साहित्यिक दुनिया से कटे रहे। यह हिन्दी का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा। सन् 1929 से 38 के बीच इनके दो उपन्यास 'शराबी' और 'सरकार तुम्हारी आँखों में' मिले। सन् 1945 में वे पुनः बम्बई चले गए और भारत स्वतन्त्र होने तक वहीं रहे। सन् 1950-53 तक ये कलकत्ता रहे एवम् अनेक घृणित कृत्य देखे। इन्होंने अपने उपन्यासों में कलकत्ता को 'भोग भरी रखेली' भी कहा है। जब इनका मन यहाँ से भी उचाट हो गया, तब ये दिल्ली चले गए और यहाँ आकर 'कढ़ी में कोयला' और 'फागुन के दिन चार' उपन्यास लिखे।

    सन् 1953 में जब ये दिल्ली आए थे, तब ये पंजाबी बस्ती सब्जी मण्डी में रहे। उग्र अपनी रचनाओं के स्वयं प्रकाशक भी बने। इन्होंने 'उग्र प्रकाशन' की स्थापना की और इस सम्बन्ध में अपनी कटु अनुमूर्तियों को बताते हुए कहा - "ये पंक्तियाँ लिखते समय मेरी उम्र 54 वर्ष चार महीने और चार दिन है। मैं तो ठीठ या निर्लज्ज या क्रूर या उग्र होने से अभी भी तगड़ा हूँ, नहीं तो मेरे बराबर वाले अनेक मित्र न जाने कभी के निज कर्मानुसार नरक या स्वर्ग की राह लग गए, लेकिन मैं आपसे पूछूँ कि इस अर्थ युग में, ऐसी आर्थिक दुव्र्यवस्था में मेरे जैसे कटु-कषाय उग्र यदि दिनों के लिए, खुदा न करें, बीमार पड़ जाए या कलम घिसकर चना चबेना जुटाने में असमर्थ हो जाए तो क्या होगा ? ...अस्तु अब सिवा इसके कि मैं सारी पुस्तकें स्वयं छाप लूँ और ब्रिक्री का प्रबन्ध करूँ। मेरे लिए दूसरा कोई चारा नहीं।" सन् 1957 से ये यमुना पार कृष्णनगर में रहने लगे। वहाँ इन्होंने 'हिन्दी पंच' पत्र का सम्पादन किया। 23 मार्च 1967 को प्रातः 3 बजे इन्होंने अपने जीवन की अन्तिम साँस ली। उग्र पुरानी पीढ़ी के विशिष्ट लेखक रहे एवम् अपनी कलम के माध्यम से समाज के गले-सड़े रूप को चित्रित किया। ये जीवन भर उपेक्षित रहे। अन्तिम समय में भी इन्हें उपेक्षा ही मिली। डाॅव्म् प्रभाकर माचवे के कथनानुसार - "उनके शव के साथ बीस-पच्चीस साहित्यकार, मुहल्ले के थोड़े से लोग एवं नए-पुराने कुछ ही पत्रकार उपस्थित थे। विश्वविद्यालय, हड़ताली अखबारों आदि से कोई न गया। यह कैसी दिल्ली है ? पैंतीस लाख में दो तिहाई तो हिन्दी भाषी होंगे और शमशान में पच्चीस-तीस लेखक, चार प्रकाशक और उतने ही लोग।"

    उग्र ने साहित्य की अनेक विधाएँ - कहानियाँ, उपन्यास, एकांकी नाटक, संस्मरण, लिखकर हिन्दी साहित्य को भी सम्पन्न किया। जिनका संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है - 

    कहानियाँ
    • पोली इमारत - इसमें 'चूनरी के साथ', 'चैड़ा छुरा', 'उरूज', 'आजादी के आठ दिन पहले', 'मूर्खा', 'वीभत्स', 'जल्लाद', 'बदमाश', 'आँखों में आँसू', 'जुआरी', 'बाजरा', 'दूध के कार्ड', 'नौ हजार नौ सौ निन्यानवे', 'समाज के चरण', 'ब्राह्मण के चरण', 'ब्राह्मण द्रोही', 'घोड़े की जीवनी', 'पोली इमारत' बीस कहानियों को संग्रहीत किया गया है। 
    • चित्र-विचित्र - इसमें 'पिशाची', 'ब्लैक एण्ड व्हाइट', 'जब सारा आलम रोता है', 'मूसल ब्रह्म', 'गंगा गंगदत्त और गांगी', 'सोसायटी ऑफ डेविल्स', 'काने का ब्याह', 'मूर्खों का मीना बाजार', 'सनकी अमीर', 'प्राइवेट इंटरव्यू', 'न्यूल रील', 'कम्युनिस्ट दरवाजे पर', 'चित्र-विचित्र' नामक 13 कहानियाँ हैं। 
    • यह कंचन सी काया - इसमें 12 कहानियाँ हैं - 'कला का पुरस्कार', 'चाँदनी', 'मलंग', 'दितवारिया', 'प्रस्ताव स्वीकार', 'करूण कहानी', 'हत्यारा समाज', 'स्वदेश के लिए', 'संगीत समाधि', 'सुधारक' और 'कंचन सी काया।' 
    • कालकोठरी - इसमें चौदह कहानियां है - 'पंजाब की महारानी', 'देशद्रोह', 'रेन आफ टेरर', 'एक भीषण स्मृति', 'सिख सरदार', 'प्यारी पताका', 'पागल', 'कर्तव्य' और 'प्रेम', 'वीर कन्या', 'पत्रिका पताका', 'नादिरशाही', 'निहिलिस्ट', 'भीष्म संतोष' और 'काल कोठरी। 
    • ऐसी होली खेलो लाल - इसमें चैदह कहानियाँ है - 'उसकी माँ', 'टाम डिक, हैरी एण्ड कम्पनी लिमिटेड', 'मेरी माँ', 'दिल्ली की बात', 'दोजख नरक', 'ईश्वर द्रोही', 'खुदा के सामने', 'शाप', 'खुदाराम', 'नागा परसिंहदास', 'वह दिन', 'माँ कैसे मरी', 'जैतू में' और 'ऐसी होली खेलो लाल' आदि। 
    • मुक्ता - इस संग्रह में 'प्रार्थना', 'रिसर्च', 'भ्रम', 'मुक्ता', 'टीला और गड्ढा', 'दोजख की आग', 'नेता का स्थान', 'देशभक्त', 'रेशमी', 'लाइन पर', 'फुलझड़ी', 'आचार्य लाल बुझक्कड़', 'प्यारी तलवार', 'तीन कलाकारों की एक भूल', 'तब महाराजकुमारी को नींद आई', 'घूंघट के पट खोल री', 'अवतार' और 'महाराजाधिराज' आदि 18 कहानी हैं। 
    • चॉकलेट - 'हे सुकुमार', 'व्यभिचारी प्यार', 'जेल में', 'पालट', 'हम फिदाये लखनऊ', 'कमरिया नागिन सी बल खाये' और 'चॉकलेट चर्चा' आदि 8 कहानी है।
    नाटक - 'सनकी अमीर', 'महात्मा ईसा', 'गंगा का बेटा', 'डिक्टेटर', 'आवारा', 'अन्नदाता माधव महाराज महान्' आदि नाटक है।
    एकांकी - 'राम करै सौ होय'।
    कविता - इनकी कविताओं के नाम 'कंचन घट', 'चन्द्रोदय', 'राष्ट्रीय गान', 'चमकीली चर्चाएँ', 'पर घूँघट का टार', 'साघ', 'साहित्य' और 'मृत्यु गीत' है। उपर्युक्त रचनाओं में से अधिकांश अभी तक उपलब्ध नहीं है क्योंकि इनकी अनेक रचनाओं पर ब्रिटिश सरकार ने प्रतिबंध लगा दिया था।
    संस्मरण: व्यक्तिगत, यह चरित्र-चित्रणों का एक संग्रह है। इसमें 13 स्कैच संकलित हैं- 1. शिवोह्म-शिवोउहम्, 2. मैं और भगवतीचरण वर्मा, 3. होशियार पागल, 4. आदरणीय श्री कृष्ण दत्त पालीवाल, 5. काटजू और कल्चर,
    6. सिंहल विजय, 7. नौ वर्ष बाद मैं संयुक्त प्रदेश में, 8. बम्बई बनाम बनारस, 9. हमारा पीड़ित पत्रकार, 10. देवालय और वेश्यालय, 11. पायल झनक-झनक बाजे, 12. बनारस फिर से बसे तो बेहतर और 13. प्रदर्शनी
    आत्मकथा: अपनी खबर, जीवन के कड़वे मीठे अनुभवों को इन्होंने बहुत ही सुन्दर ढंग से प्रस्तुत किया है।
    आलोचना -  इन्होंने पं. रामनरेश त्रिपाठी रचित 'तुलसीदास और उनकी कविता', 'डाॅ. श्यामसुन्दर दास कृत 'मेरी आत्मकहानी', भारती भंडार द्वारा प्रकाशित 'ईरान के सूफी कवि', 'दिनकर आदि पर निर्भीक व कटु आलोचनाएँ लिखी हैं।
    उग्र के उपन्यासों का सर्वेक्षण - सन् 1923 से 1963 तक उग्र ने हिन्दी जगत् को उपन्यास साहित्य प्रदान कर समृद्ध किया। इन्होंने दस उपन्यास 'चन्द हसीनों के खुतूत', 'दिल्ली का दलाल', 'बुधुआ की बेटी', 'शराबी', 'सरकार तुम्हारी आँखों में', 'घण्टा', 'जी जी जी', 'कढ़ी में कोयला', 'फागुन के दिन चार', 'जुहू' लिखे। ग्यारहवां अधूरा उपन्यास 'गंगा माता' है।


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    कवि कैलाश गौतम का जीवन और साहित्य



     
    हिन्दी और भोजपुरी बोली के रचनाकार कैलाश गौतम का जन्म चन्दौली जनपद के डिग्घी गांव में 8 जनवरी 1944 को हुआ। शिक्षा काशी हिन्दू विश्वविद्यालय और प्रयाग विश्वविद्यालय में हुई। लगभग 37 वर्षों तक इलाहाबाद आकाशवाणी में विभागीय कलाकार के रूप में सेवा करते रहे। व्यक्तित्व को देखें तो कैलाश गौतम एक सावधान लेखन-कर्मी के रूप में कौशल के साथ विनम्र, प्रेरक सहायक होने का सकारात्मक परिचय देते हैं। वे चक्रव्यूह में घिरे योद्धा की तरह जीवन-समर में जूझते हुए नजर आये। इलाहाबाद में भी अन्दर ही अन्दर लोग उनसे बरबस ईष्र्या रखते थे। हिन्दुस्तानी अकादमी में उनकी नियुक्ति के समय यह ही नहीं अनेक अवसरों पर उन्हें अकारण ही ईष्र्या का सामना करना पड़ा। लेकिन, वे सारे व्यूह-जालों को काटते हुए अपनी मंज़िलें पार करते गए।
    कर्तव्य की दृष्टि से देखें तो कैलाश गौतम के पांच आयाम स्पष्ट दिखाई देते हैं-खड़ी बोली में आंचलिक लोकतत्व को जिस रूप और परिमाण में कैलाश गौतम ने समेटा है, अन्य किसी रचनाकार में यह क्षमता नजर नहीं आती। खड़ी बोली में ही दोहे की पुनस्र्थापना ’धर्मयुग‘ के माध्यम से कैलाश गौतम ने ही की थी। जैसे दुष्यन्त कुमार को नागरी गजल को आन्दोलन के रूप में स्थापित करने का श्रेय दिया जाता है, उसी प्रकार दोहा-आंदोलन का पुरोधा निश्चित रूप से कैलाश गौतम को माना जायेगा। इन दोनों रचनाकारों ने काव्य के स्तर पर उर्दू के रचनाकारों को भी गहराई के साथ प्रभावित किया है। हिन्दी-उर्दू की नई गजल कहने वाले रचनाकारों और दोहाकारों के गले में दुष्यन्त और कैलाश के ताबीज देखे जा सकते हैं।
    कैलाश गौतम के सर्जक का बड़ा प्रखर रूप उनके नवगीतों में द्रष्टव्य है। उनके नवगीत जहां एक ओर सामाजिक यथार्थ को स्वर देते हैं वहीं मानसिक रागभाव की तरलता को भी बरकरार रखते हैं। लोकतत्व का छौंक नवगीतों को एक अलग सौंधापन देता है। रंगमय चाक्षुषबिम्ब अमूर्त को मूर्त रूप प्रदान करते हैं। यह विज्ञान परक आधुनिकता का द्योतक है। व्यंग्यकार के रूप में कैलाश गौतम की रचनाएं उन्हें जन-समूह से जोड़ती हैं। उनके व्यंग्यों का तीखापन जैसा खड़ी बोली में रहता है वैसा ही भोजपुरी में भी। सामाजिक, राजनीतिक आर्थिक और मानसिक विषमताएं अपने पूरे जरूरीपन के साथ पाठक-श्रोता को सहज रूप से सहमत करने में सक्षम हैं। जो शालीनता बहु प्रचारित पाखण्डी परफाॅर्मर्स में बिलकुल नदारत है वह कैलाश में जैविक गुण-सूत्रों के रूप में विद्यमान है।
    रेडियो-लेखन कैलाश के आशु-सृजन की ऐसी मंजूषा है जो केन्द्रीय योजनाओं को तात्कालिक अपेक्षा की पूर्ति के रूप में प्रचुर सामग्री प्रस्तुत करती है। इसमें रूपक, नाटक, झलकियां आदि सभी द्रष्टव्य हैं। छन्देतर कविताएं युगीन यथार्थ की खिड़की खोलने के अलावा कैलाश गौतम के विधागत पूर्वाग्रह से मुक्ति का रास्ता प्रशस्त करती हैं। कैलाश गौतम का धारावाहिक उपन्यास ’आज‘ दैनिक के रविवासरीय अंकों में आंचलिक-बोध के सजीव चित्रण की क्षमता की ओर इंगित करता है।
    कवि कैलाश गौतम उत्सवधर्मी रचनाकार थे। जीवन की रागनुभूतियां उन्हें भीतर तक उत्तेजित और प्रेरित करती थीं। इसीलिए भौजी, सियाराम, राग-रंग से भरे स्नेह सम्बन्ध, मेले-ठेले, पर्व उनके गीतों की अनुभूति में समाये हुए थे। मंच संचालन में विनोदप्रियता तथा चुटीली टिप्पणियां उनके व्यक्तित्व से जुड़ी हुई थीं जो गोष्ठियों को गरिमा प्रदान करतीं। बेहद सहज, आत्मीय और बेबाक संवेदनशील कवि कैलाश गौतम जी मूलतः नवगीत के चितेरे थे। डिग्घी गांव में जन्मे कैलाश गौतम जी शिक्षा के लिए इलाहाबाद आये और यहीं के होकर रह गये। उनका पूरा जीवन साहित्य को समर्पित था। प्रयाग की गंगा-जमुनी संस्कृति उनके रग-रग में समाई थी। जिस सरलता और सहजता के साथ आम आदमी के दुख और सुखों को कविता में संजोया वह अत्यंत मर्मस्पर्शी था। गांव की कच्ची मिट्टी की महक उनके गीतों में जिजीविषा थी। आज की चकाचैंध भरी जिन्दगी से अलग चना और चबेना में कविता का सौन्दर्य शास्त्र तलाशता यह कवि सभी से हटकर था। वह सहृदयता, जिन्दादिली, सहजता, आत्मीयता और संजीदगी का मिला-जुला अक्श थे। ऊर्जा से भरे हुए लोगों से गपियाते, ठहाका लगाते, आज यहां तो कल वहां हमेशा ही जल्दी लेकिन संजीदा, हर किसी को महत्वपूर्ण बनाते हुए, जो कोई भी मिला उनका गहरा आत्मीय बन गया, सबको लगता गौतम जी उनके सबसे निकट हैं। इतना लोकप्रिय इतना जिन्दादिल शख्स कभी समाप्त नहीं होता है। प्रयाग की माटी में पनपे कैलाश गौतम यहां की साहित्यिक विरासत के पुरजोर नुमाइन्दे थे। पंत, महादेवी, निराला, धर्मवीर भारती, नरेश मेहता, उपेन्द्र नाथ अश्क जैसे स्तम्भों के साथ एक नाम और जुड़ गया। भले ही आज साहित्यिक जगत मित्रों और आत्मीयों के बीच एक वीरानगी है पर जनकवि अपने शब्दों, कृतियों और गीत के बीच इतना कुछ छोड़ गये हैं जो साहित्यिक चिंतकों के बीच विरासत का काम करेगा और प्रयाग की धरती उसकी सुगंध से महकती रहेगी। वह जमीन से जुड़े हुए रचनाकार ही नहीं बल्कि एक सच्चे मनुष्य थे जिन्होंने ’मानुष सत्य‘ को जाना था और आम आदमी की संवेदना को छोटे-छोटे सपनों में बुना था। वे अपनी कविताओं में चरित्रों को गढ़ते हुए आमजन से रूबरू होते रहे। दरअसल लोकजीवन ही उनका अपना जीवन था। चाहे आम बात-व्यवहार हो, जिस इंसानी जज़्बे के साथ वह मुखातिब होते थे, उसके पीछे उनका यह गहरा लोक संस्कार ही था। मंचीय कविता में उनकी जीवंत उपस्थिति साथ-साथ पेशे के रूप में आकाशवाणी के ग्रामीण कार्यक्रमों में उनकी अत्यंत लोकप्रिय भागीदारी इसके ज्वलंत साक्ष्य हैं। रेडियो, नाटक, पटकथा, लेखन, गीतों के अलावा हास्य व्यंग्य और अखबारों में स्तम्भ-लेखन उनकी अभिव्यक्ति के ऐसे ही अन्य माध्यम थे। जब कवि सम्मेलनों की परम्परा में गिरावट आयी थी तो उसे उन्होंने स्वस्थ हास्य और कुशल संचालन से जैसे उबार लिया हो। बड़ी बात यह है कि उसकी संकीर्ण रसिकता पर अंकुश लगाते हुए उन्होंने सामान्य सुख-दुख के साथ प्रखर जन-पक्षधरता का भी समावेश किया। कहीं विडम्बनाओं में निर्ममता से नश्तर लगाये तो कहीं सुन्दर बहुरंगी लोक-छवियों के गुलदस्ते सजा दिये।
    अपने जीवन के अंतिम समय में आकाशवाणी से रिटायरमेंट के बाद कैलाश गौतम इलाहाबाद में हिंदुस्तानी एकेडमी के अध्यक्ष पद पर कार्यरत थे। ग्रामीण जीवन के बिम्बों के इस प्रयोगधर्मी कवि का निधन 9 दिसंबर 2006 को हुआ। अखिल भारतीय मंचीय कवि परिषद की ओर से शारदा सम्मान, महादेवी वर्मा साहित्य सहकार न्यास की ओर से महादेवी वर्मा सम्मान, उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान का राहुल सांकृत्यायन सम्मान सहित कैलाश गौतम मुम्बई का परिवार सम्मान, लोक भूषण सम्मान, सुमित्रानन्दन पंत सम्मान और ऋतुराज सम्मान से भी सम्मानित किया गया। अपने वाराणसी अधिवास के दौरान कैलाश गौतम 'आज' और 'गांडीव' जैसे दैनिक पत्र समूह से भी जुड़े रहे। सन्मार्ग के लिए भी उन्होंने नियमित स्तम्भ लिखा।

    कैलाश गौतम की मशहूर कविता- पप्पू के दुल्हिन
    पप्पू के दुल्हिन की चर्चा कालोनी के घर घर में,
    पप्पू के दुल्हिन पप्पू के रखै अपने अंडर में
    पप्पुवा इंटर फेल और दुलहिया बीए पास हौ भाई जी
    औ पप्पू अस लद्धड़ नाहीं, एडवांस हौ भाई जी
    कहे ससुर के पापा जी औ कहे सास के मम्मी जी
    माई डियर कहे पप्पू के, पप्पू कहैं मुसम्मी जी
    पप्पू की दुल्हन पूरे कालोनी में चर्चित है, पप्पू को अपने अंडर में रखती है, पप्पू 12वीं फेल हैं और दुल्हन स्नातक पास है, एडवांस है, ससुर को पापा और सास को मम्मी बुलाती है। पप्पू को 'माई डियर' कहती है जबकि पप्पू उसे 'मोसम्मी जी' कहते हैं।

    बहु सुरक्षा समिति का गठन
    बहु सुरक्षा समिति बनउले हौ अपने कॉलोनी में
    बहुतन के ई सबक सिखौले हौ अपने कॉलोनी में
    औ कॉलोनी के कुल दुल्हनिया एके प्रेसिडेंट कहैंली
    और एकर कहना कुल मानेली एकर कहना तुरंत करैली
    पप्पू के दुल्हिन के नक्शा कालोनी में हाई हौ
    ढंग एकर बेढब हौ सबसे रंग एके एकजाई हो
    अपने कॉलोनी में उसने बहु सुरक्षा समिति का गठन किया है, कई लोगों को सबक सिखा चुकी है, कॉलोनी में सभी महिलाएं इसका कहना मानती हैं और प्रेसीडेंट कहती हैं।

    पप्पू भी जान गया है कि किसलिए 'माई डियर' बुलाती है
    औ कॉलोनी के बुढ़िया बुढ़वा दूरे से परनाम करैले
    भीतरे भीतर सास डरैले भीतरे भीतर ससुर डरैले
    दिन में सूट रात में मैक्सी, न घुंघटा न अँचरा जी
    देख देख के हसं पड़ोसी मिसराइन औ मिसरा जी
    अपने एक्को काम न छुए कुल पप्पु से करवावैले
    पप्पुओ जान गयल हौ काहें माई डियर बोलावैले
    कॉलोनी के सभी वृद्ध महिला-पुरुष इससे डरते हैं और दूर से ही प्रणाम करते हैं। दिन में सूट, रात में मैक्सी पहनती है, पड़ोस के मिश्रा जी और उनकी पत्नी देखकर हंसते हैं। खुद कोई काम नहीं करती, सभी काम पप्पू से करवाती है अब तो पप्पू भी जान गया है कि किसलिए 'माई डियर' बुलाती है।
    चौराहेबाजी, हाहा ही ही सब कुछ छूट गया है
    छूट गइल पप्पू के बीड़ी औ चौराहा छूट गइल
    छूट गइल मंडली रात के ही ही हा हा छूट गइल
    हरदम अप टू डेट रहैले मेकअप दोनों जून करैले
    रोज बिहाने मलै चिरौंजी गाले पे निम्बुवा रगरै
    पप्पू ओके का छेड़िहैं ऊ खुद छेड़ेले पप्पू के
    जइसे फेरे पान पनेरिन ऊ फेरेले पप्पू के
    पप्पू का रात का टहलना, चौराहेबाजी, हाहा ही ही सब कुछ छूट गया है, हमेशा अप टू डेट रहते हैं, दोनों टाइम मेकअप करते हैं। गाल पर नींबू और चिरौंजी मलते है। पप्पू उसको नहीं छेड़ पाते बल्कि वो खुद पप्पू को छेड़ती है।
    एक दिन पप्पू के जेब से वो लव लेटर पा गई
    पप्पू के जेबा एक दिन लव लेटर ऊ पाई गइल
    लव लेटर ऊ पाई गइल, पप्पू के शामत आई गइल
    मुंह पर छीटा मारै उनके आधी रात जगावैले
    इ लव लेटर केकर हउवे ओनही से पढ़वावैले
    लव लेटर के देखते पप्पुवा पहिले तो सोकताइ गइल
    झपकी जैसे फिर से आइल पप्पुवा उहै गोताई गइल
    एक दिन पप्पू के जेब से वो लव लेटर पा गई, फिर क्या था, पप्पू पर तो जैसे आफत आ गई। आधी-आधी रात को मुंह पर छींटे मार-मार कर वो पप्पू को जगाती थी और पूछती थी कि ये लव लेटर किसका है, उन्हीं से पढ़वाती भी थी।

    अंदाज के एक तीर छोड़ दिया
    मेहर छींटा मारे फिर फिर पप्पुवा आँख न खोलत हौ
    संकट में कुकरे के पिल्ला जैसे कूँ कूँ बोलत हौ
    जैसे कत्तो घाव लगल हौ हाँफ़त औ कराहत हौ
    इम्तहान के चिट एस चिटिया मुंह में घोंटल चाहत हौ
    सहसा हँसे ठठाकर पप्पुवा फिर गुरेर के देखलस
    अँधियारन में एक तीर ऊ खूब साधकर मरलस
    पप्पू को कई बार पानी के छींटे मारी लेकिन वो अभी आंख नहीं खोल रहा। संकट के समय जैसे कुत्ते के पिल्ले कूं-कूं बोलते हैं या कहीं घाव के चलते कराह रहे हों वैसे ही उसकी स्थिति है। परीक्षा के चिट की तरह वो लव लेटर को घोंट जाना चाहता है। अचानक उसे कोई उपाय सूझ गया और पहले तो ठठाकर हंसा फिर गुरेर कर पत्नी की तरफ देखा और अंधेरे में अंदाज के एक तीर छोड़ दिया।

    अच्छा ! देखो, इधर आओ और सुनो !
    अच्छा देखा एहर आवा बात सुना तू अइसन हउवे
    लव लेटर लिखै के हमरे कॉलेज में कम्पटीसन हउवे
    हमरो कहना मान मुसमिया रात आज के बीतै दे
    सबसे बढ़िया लव लेटर पे पुरस्कार हौ, जीतै दे
    अच्छा ! देखो, इधर आओ और सुनो ! ऐसा है कि हमारे कॉलेज में कल लव लेटर लिखने का कम्पटीसन है। मोसम्मी मेरी बात मान लो और आज की रात बीत जाने दो क्योंकि जो सबसे बढ़िया लव लेटर लिखेगा, उसे पुरस्कार मिलेगा इसलिए मुझे जीतने दो।


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    देवेश ठाकुर - व्यक्ति परिचय, व्यक्तित्व तथा रचनाधर्मिता



    देवेश ठाकुर प्रयोगधर्मी तथा बहुआयामी साहित्यकार हैं। वे एक साथ कवि, कहानीकार, उपन्यासकार, समीक्षक, संपादक शोधक, शोध निर्देशक आदि हैं। उनके जीवनवृत्त, व्यक्तित्व, रचनाधर्मिता आदि की हम क्रम से जानकारी लेते हैं।
    देवेश ठाकुर - व्यक्ति परिचय, व्यक्तित्व तथा रचनाधर्मिता

    जन्म तथा जन्म स्थान - देवेश ठाकुर ने अपने नाम तथा जन्म के बारे में स्वयं कहा है कि, - "मैं - देवेश ठाकुर उर्फ दलजीत सिंह उर्फ दरबार सिंह ठाकुर उर्फ मुन्ना उर्फ दादा उर्फ दुर्गा उर्फ देबू आत्मज ठाकुर, दीवान सिंह नेगी और आनंदी देवी, ग्राम दाडिम, मल्लस सल्ट, जिला अलमोडा, उत्तराखंड। जन्म तिथी: स्कूल प्रमाणपत्र के अनुसार: 22 जुलाई, 1933।" देवेश ठाकुर के स्नेही सुदेश कुमार देवेश जी के नाम के बारे में लिखते हैं कि, "देवेश को घर में 'मुन्ना' कहकर पुकारा जाता था। वैसे उसका बचपन का नाम दलजीत सिंह है। देवेश की माताजी ने एक बार बातों-बातों में मुझे बताया था कि वह अपने ननिहाल में पैदा हुआ था। उसका नाम दलजीत रखा और उसके जन्म की सूचना उसके पिता को दे दी गई। उसके पिता तब बद्रीनाथ में तैनात थे। पिता को भगवान के दरबार में अपने बेटे के जन्म की सूचना मिली। इसलिए उसका नाम दरबार सिंह रखा। स्कुल-कॉलेज तक उसका यही नाम चलता रहा। देहरादून मे जब वह एम.ए. के प्रथम वर्ष में पढ रहा था, तब उसकी पहली कविता - पुस्तक छपी। उस पर उसका नाम 'देवेश ठाकुर' ही गया। बाद में एम.ए. पास करने के बाद बम्बई आने पर उसने कानूनी रूप से अपना नाम 'देवेश ठाकुर' करवा लिया"।

    माता-पिता, भाई-बहन - देवेश ठाकुर के पिताजी का गाँव दाड़िम। पिताजी दस-ग्यारह साल के थे तब देवेश जी के दादाजी का निधन हुआ। उसके बाद घर-परिवार की ड़ोर उनके सबसे बड़े भाई के हाथ में आ गयी। बडे़ भाई की कठोरता से तंग आकर पिताजी घर से भाग गए और रानीखेत पहुँच गए। वहाँ छोटी-मोटी नौकरी करके जिंदगी शुरू कर दी। बाद में वे सेना में कांस्टेबल के रूपमें नियुक्त हो गए। 27-28 साल की उम्र में पैठानी गाँव की सात साल की लड़की से उनकी शादी हो गई। देवेश ठाकुर का जन्म नानी के घर अर्थात पैठानी में हुआ। देवेश ठाकुर के दो भाई और एक बहन थे। बहन होने के बाद उनकी माताजी घर में कन्या आ गयी इसलिए बहुत खुश हुई।
    शिक्षा - जैसे की ऊपर कहा गया देवेश जी का जन्म नानी के यहाँ अर्थात् पैठानी में हुआ। वहीं पर उन्हें अक्षर-ज्ञान कराया गया और दो दर्जे तक की पढ़ाई बटूलियाँ स्कूल में हो गई। बाद में पिताजी के तबादले के कारण बिजनौर, चाँदपुर और नजीबाबाद इस प्रकार उनके स्कुललगातार बदलते रहे। नजीबाबाद के एकमात्र सरकारी स्कुल में पाँचवी कक्षा में रिक्त स्थान न होने के कारण उन्हें फिर से चैथी कक्षा में दाखिल करवा दिया था। इससे वे बहुत दुःखी हुए। परिणाम स्वरूप पढ़ाई से उनका मन ऊब गया। धीर-धारे वहाँ उन्हें दोस्त मिलते गऐ और वे उस परिवेश में घुलमिल गए। सब एक साथ मौज-मस्ती करने लगे। उनका अधिकांश समय गिल्ली-डंडा खेलने, सड़कों पर पहिया चलाने, पतंग उड़ाने और छोटी-छोटी बातों पर लड़ने और झगड़ने में बीतने लगा। बाद में छोटे भाई और बहन के साथ खेलने में उनका समय बीतने लगा। सन् 1948 में उनके पिताजी रिटायर हो गए। तब वे दसवीं कक्षा में पढ़ रहे थे। रिटायर होने के बाद आर्थिक तंगी के कारण उनके पिताजी काफी चिंतित और उदास रहने लगे। एक दिन उन्होंने देवेश जी से कहा, "दुर्गा, तू पढा़ई में ध्यान क्यों नहीं लगाता। तू पढ़लेगा तो अपने भाई-बहन को भी पढा लेगा। मैं तो आब रिटायर हो गया हूँ। 50-55 रूपए पेंशन मिलेगे उससे क्या होगा। दसवीं की परीक्षा शुरू हो गयी। परीक्षा के लिए माँ श्रध्दानुसार उन्हें एक चम्मच दही चटाती और सर पर हाथ फेरकर उन्हें शुभकामनाएँ देती। आखिरकार परीक्षा खत्म हो गयी और देवेश जी द्वितीय श्रेणी में पास हों गये।
    उनके पिताजी चाहते थे किं इंटर पास करके देवेश पुलिस सब-इन्स्पेक्टर बन जाये। इसलिए नगीना में उनका दाखिला करवा लिया। उन्होंने इंटर की परीक्षा दे दी। बाद में मिलिट्री में उन्हें दाखिल करवाने के प्रयास हुए। वहाँ दुबली तबीयत के कारण असफल हो गये। बाद में आर्थिक तंगी के बावजूद देहरादून में बी.ए. के लिए उनका दाखिला करवाया गया। बी.ए. और एम.ए. के दौरान उनका जीवन बड़ा ही संघर्षमय बीता। एम.ए. के परिणाम घोषित होने पर पता चला देवेश जी द्वितीय श्रेणी में पास हो गये। नौकरी की आवश्यकता के कारण उन्होंने बी.एड. पूरा होने के पूर्व 'बाम्के एज्युकेशन सर्विसेज' के द्वारा असिस्टैट लेक्चरर के पद पर नियुक्ति हो गयी। तभी उन्होंने पं. नंद दुलारे वाजपेयी के निर्देशन में सागर विश्वविद्यालय के अंतर्गत पीएचडी. के लिए पंजीकरण किया और 1961 में पीएचडी. की डिग्री मिल गयी। बाद में वाजपेयी के आदेशानुसार उन्होंने डी.लिट. के लिए कार्य करना शुरू किया और हिन्दी साहित्य में विश्वविद्यालयीन उच्चतम् उपाधि डि.लिट. भी अर्जित की।

    नौकरियाँ - देवेश जी का असली संघर्षमय जीवन बी.ए. तथा एम.ए. के दौरान शुरू हो गया। आर्थिक दृष्टि से उन्हें बड़ा संघर्ष करना पड़ा। अपनी पढा़ई पूरी करने के लिए उन्हें टयुषन लेना पड़ा। इतना ही नहीं होटल में मैनेजर बनकर ग्राहकों की जुठी प्लेटें भी उठाने का काम किया। गर्मियोंकी छुट्टियों में अपने घर न जाकर अखबार बाँटने का काम किया। जब उनके पास खाने के लिए कुछ नहीं होता तब वे खाने के समय पर दोस्तों के घर जाते और उनको वहाँ खाना मिल जाता। बी.ए. की परीक्षा देने के बाद पैसा कमाने के हेतु से वे दिल्ली चले गये। वहाँ जुतों के डिब्बे को साफ करने का काम भी किया। प्रतिकूल परिस्थिति के बावजूद भी उन्होंने आशावादी बनना स्वीकार किया।
    एम.ए. में द्वितीय श्रेणी पाने के बाद एक प्राइमरी स्कूल में उन्हें पढा़ने का काम मिल गया। लेकिन पढ़ाने की ट्रेनिंग न होने के कारण 'हफ्ते भर बाद वहाँ से मेरी यह कहकर छुट्टी कर दी गयी कि मुझे पढ़ाना नहीं आता।" बाद में बी.एड. का ट्रेनिंग पूरा होने से पहले 'बाम्के एजुकेशन सर्विसेज' के अंतर्गत 'सिड़नहम' कॉलेज में असिस्टैंट लेक्चरर के पद पर नियुक्ति हो गयी। इसलिए देहरादून में बी.एड. की ट्रेनिंग छोड़कर वे बम्बई चले गये। वहाँ नौकरी ज्वाइन की। देवेश ठाकुर के शब्दों मे 'सिड़नहम कॉलेज में मेरे दिन बडे़ अच्छे बीते। मुझसे पहले दिनेश यहाँ आ चुका था। मैं उसी के साथ 'शेरे पंजाब हॉस्टल' में रहने लगा। कॉलेज में मेरे विभागाध्यक्ष प्रो. चंदुलाल दुबे ने मुझे बहुत सहयोग दिया। जब तक वे बम्बई में रहे, हर रोज घर से मेरा लंच लेकर आते रहें।" उनका तबादला होने के बाद देवेश जी विभागाध्यक्ष बनें। बाद में उनकी बदली राजकोट में हो गयी। लेकिन वहाँ का वातावरण उनको रास नहीं आया। उन्होंने इस्तीफा दिया और वे बम्बई लौट आये। बम्बई में राम नारायण रूइया कॉलेज में सहजता से उनको नौकरी मिल गयी, वहाँ पर 33 वर्षों तक वे कार्यरत रहें और 1993 में वहाँ पर सेवानिवृत्त हुए।

    पारिवारिक जीवन - देवेश जी का विवाह पंजाब के सुविख्यात कामरेड पद्म विभूषण सत्यपाल डंग की बहन सुशीला जी, जो दिल्ली के लेडी हार्डिंग हॉस्पिटल में सिस्टर इंचार्ज थी, उनसे 1961 में हुआ। उन्होंने देवेश जी के हर सुख-दुःख में बखूबी साथ निभाया। दिसम्बर 1962 में उनकी पहली बेटी आभा का जन्म हुआ। जो की आज डॉक्टर है और उन्होंने एम.डी. और डीएनबी के सिवा लंदन में जाकर दो साल की लीवर ट्रांसप्लैंट की ट्रेनिंग ली है। गैस्टोएन्ट्रोलाॅजी की वह विशेषज्ञ भी है। दिसम्बर 1963 में उनकी छोटी बेटी आरती का जन्म हुआ। जो स्थानीय कॉलेज में इकाॅनाॅमिक्स की वरिष्ठ प्रवक्ता है। देवेश जी ने दोनों बेटियों का विवाह भी सादे ढंग से किया। इसके बारे में डॉ. रोहिणी देवबालन का कथन है कि "कोई शर्त नहीं, कोई धार्मिक पाखण्ड नहीं। कोई लेन-लेन नहीं। कोई मंत्रोच्चार नहीं। दोनों की रजिस्टर्स मैरिज। दोनों के अत्यन्त सम्मानित परिवारों में विवाह किया। देवेश सर की अपनी बच्चियों से बड़ी दोस्ती है, आभा-आरती दोनों ही सर को पिता से ज्यादा मित्र समझती है। सौभाग्य से उनको दोनों दामाद भी ऐसे ही मिले हैं जिनके साथ सर का व्यवहार सम्बन्धियों जैसा नहीं, बल्कि फक्कड़ दोस्तों जैसा अधिक है। आभा के पति भी लीवर ट्रांसप्लैट के सर्जन है। दोनों जसलोक और भाटिया अस्पताल में विशेषज्ञ हैं। दोनों बेटियाँ उनके घर-संसार में सुखी हैं। "कामयाब आदमी के पीछे औरत का हाथ होता है।" इसी हिसाब से देखा जाऐ तो देवेश जी के यशश्वी जीवन के पीछे भी उनकी पत्नी सुशीला जी का अनमोल सहकार्य ही है। परिवार की अधिक से अधिक जिम्मेदारी उठाने के कारण ही देवेश जी अपनी 'साहित्य-साधना' कर पायें। सुशीला स्वयं कहती है कि, "वैवाहिक जीवन में अनेक-अनेक कठिन मौकों पर हमने समझदारी बरती है और मिलकर हर स्थिति का सामना किया है और सफलता के साथ किया है।" आगे वह कहती हैं कि, "वैसे मैं जानती हूँ कि यह घर मेरी वजह से ही चल रहा है अन्यथा इनकी आदतें इस घर को न जाने कहाँ ले जाती। फिर भी यह क्यों न माने कि ये मूलतः एक अच्छे, हँसोड़, समझदार और जिन्दादिल इन्सान हैं, इनकी अव्यवस्था में भी एक व्यवस्था हैं।" पत्नी तथा अपने परिवार के साथ-साथ उनके दोस्तों का योगदान भी कम नहीं है। कॉलेज के दिनों से लेकर आज तक उनके सच्चे और आत्मीय दोस्तों ने प्रामाणिकता से अपनी मित्रता निभाई है। उनके परम स्नेही सुदेश कुमार का सुशीला जी के बारे में कथन है कि, "शीला भाभी बहुत सहज, संतुलित और शालीन हैं। मैं तो यह सोचता हूँ कि आज देवेश जो भी बन पाया है, उस में 50 प्रतिशत से अधिक भाग शीला भाभी का हैं। वे देवेश की पत्नी भी है, प्रेमिका भी हैं, दोस्त भी हैं और माँ और बहन भी हैं।" वैवाहिक जीवन में दोनों के वैचारित ताल-मेल से ही जीवन सुखकर हो जाता है तथा हर क्षेत्र में सफलता प्राप्त होती है। देवेश जी और सुशीला जी के सम्बन्धों को देखकर यह बात सोलह आना सच लगती है।
    अपने पूरे जीवन में उन्होंने अपने तत्वों के साथ कभी समझौता नहीं किया। जो गलत है उसे गलत ही ठहराया गया है। किसी भी परिस्थिति में गलत को सही मानने की गलती नहीं की। यहाँ तक की अपनी माँ, बहन और भाई के टुच्चे पन को भी सही-सही दर्शाया। परिवारवालों की स्वार्थी प्रवृत्ति के कारण 37 वर्ष की आयु में उनका पहला बड़ा हृदयाघात हुआ। जिसके परिणाम स्वरूप 1995 में 'ओपन हार्ट सर्जरी' करवानी पडी। ऐसी परिस्थिति में सुशीला जी ने खास खयाल रखा। पारिवारिक संघर्ष के बावजूद देवेश जी ने परिस्थितियों का सामना किया, आशावादी बनकर।

    साहित्य का आरंभ - देवेश ठाकुर का भी अधिकांश साहित्यकारों की तरह साहित्य का प्रारंभ काव्यलेखन से ही हुआ। देवेश जी का शिक्षा पूरी करने के लिए संघर्ष चल ही रहा था। एम.ए. के समय उनकी दोस्ती साहित्यिक तथा साहित्य पे्रमी दोस्तों से हो गयी। उनके साथ रहने के कारण देवेश जी में भी साहित्य की रूचि निर्माण हुई और वे भी युवावस्था में कविताएँ लिखने लगे। देवेश ठाकुर ने अपने साहित्य के आरंभ के बारे में स्वयं कहा हैं कि, "देहरादून में पहली बार मुझे अपने परिवारवालों से अलग रहना पड़ा। घर की बड़ी याद आती थी। अकेली घड़ियों में या तो मैं रोता था या कविता करता था। इस तरह मैं समझता हूँ मेरा अकेलापन ही मेरे लिखने की शुरूआत का कारण बना।" देहरादून का वातावरण बड़ा साहित्यिक था। वहाँ पर स्थानीय काव्य-गोष्ठियाँ होती थी। उनमें श्रीराम शर्मा 'प्रेम', मनोहरलाल 'श्रीमान' और अपना सहपाठी 'कुल्हड' आदि लोकप्रिय कवि सहभागी रहते थे। कवि सम्मेलन होते थे। उनमें नीरज हंस कुमार तिवारी, देवेश जी के मित्र देवराज 'दिनेश' आदि भी सहभागी होते थे। इनकी प्रेरणा से देवेश जी की 'काव्य-साधना' आगे बढती गई। एम.ए. के प्रथम वर्ष में 'वैनगार्ड' नामक स्थानीय पत्रिका में उनकी कविताएँ छपने लगी। बाद में 'मयुरिका' नाम का पहला काव्य संकलन प्रकाशित हुआ। 1956 में उनका 'अन्तर-छाया' नामक खंडकाव्य प्रकाशित हुआ।
    देवेश ठाकुर के एक और मित्र प्रा. दिनेश कुकरेती का कथन है कि "कॉलेज में और शहर में भी आए दिन छोटे-मोटे कवि सम्मेलन तथा साहित्य गोष्ठियाँ होती रहती थी। इसी वातावरण से प्रभावित होकर हम दो-चार मित्रों ने 'तरूण-साहित्य मण्डल' नाम से छोटी सी संस्था संगठित की थी। जिसकी प्रथम दो-तीन गोष्ठियाँ बंगाली-मौहल्ले के उस कमरे में धूमधाम से आयोजित की गई जो देवेश एवं सुदेश का निवास-स्थान था।" इस प्रकार काव्य से देवेश ठाकुर का साहित्यिक प्रवास शुरू हो गया। जो आगे चलकर उपन्यास कहानी, समीक्षा, शोध आदि की तरफ बढता ही गया। साहित्य के प्रति उनकी अपनी एक अलग रूचि है। इसके बारे में दिनेश कुकरेती का मत द्रष्टव्य है, "पुस्तकों से देवेश का प्रारम्भ से ही प्यार रहा है, पढ़ने का ही नहीं, संग्रह का भी शौक है। भीषण अर्थाभाव के दिनों में भी वह पुस्तकें खरीदता रहता था। बम्बई में होटल निवास के दिनों में ही उसका ट्रंक कपड़ों की जगह पुस्तकों से भर गया था।" साहित्य के प्रति रूचि, लगन तथा जिज्ञासा के कारण 500 पृष्ठों का शोध-प्रबंध उन्होंने 18 महीनों में पूरा कर लिया। जिसके परिणाम स्वरूप 1961 में उन्हें पीएच.डी. की उपाधि मिल गयी।

    सम्मान एवं उपाधियाँ - देवेश ठाकुर के 'शून्य से शिखर तक', और 'शिखर पुरुष' दोनों उपन्यास महाराष्ट्र राज्य हिन्दी अकादमी द्वारा पुरस्कृत हैं। उनका डी.लिट्. का शोध-प्रबंध 'आधुनिक हिंदी साहित्य की मानवतावादी भूमिकाएँ' - हिन्दी संस्थान, उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा 'तुलसी पुरस्कार' से पुरस्कृत हैं।


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    खांसी की आयुर्वेदिक एवं प्राकृतिक चिकित्सा



    खांसी की समस्या प्रायः हर मौसम में होने की सम्भावना होती है किंतु ठंड में अधि‍क होती है।  यह कई अन्य बीमारियों की जड़ भी हो सकती है। अगर खांसी का उपचार समय पर नहीं किया गया तो यह कई बीमारियां दे सकती हैं। यदि उपचार के बाद भी खांसी जल्दी ठीक न हो तो इसे मामूली बिल्कुल न समझें। आयुर्वेद में खांसी को कास रोग भी कहा जाता है। खांसी होने ये पहले रोगी को गले में खरखरापन, खराश, खुजली आदि होती है और गले में कुछ भरा हुआ-सा महसूस होता है। कभी-कभी मुंह का स्वाद बिगड़ जाता है और भोजन के प्रति अरुचि हो जाती है।

    खांसी की आयुर्वेदिक एवं प्राकृतिक चिकित्सा

    खांसी के प्रकार
    1.  कफज खांसी : कफ के कारण होने वाली खांसी में कफ बहुत निकलता है। इसमें जरा-सा खांसते ही कफ आसानी से निकल आता है। कफज खांसी के लक्षणों में गले व मुंह का कफ से बार-बार भर जाना, सिर में भारीपन व दर्द होना, शरीर में भारीपन व आलस्य, मुंह का स्वाद खराब होना, भोजन में अरुचि और भूख में कमी के साथ ही गले में खराश व खुजली और खांसने पर बार-बार गाढ़ा व चीठा कफ निकलना शामिल है।
    2. क्षतज खांसी : यह खांसी वात, पित्त, कफ, तीनों कारणों से होती है और तीनों से अधिक गंभीर भी। अधि‍क भोग-विलास (मैथुन) करने, भारी-भरकम बोझा उठाने, बहुत ज्यादा चलने, लड़ाई-झगड़ा करते रहने और बलपूर्वक किसी वस्तु की गति को रोकने आदि से रूक्ष शरीर वाले व्यक्ति के गले में घाव हो जाते हैं और खांसी हो जाती है।इस तरह की खांसी में पहले सूखी खांसी होती है, फिर रक्त के साथ कफ निकलता है।
    3. क्षयज खांसी : यह खांसी क्षतज खांसी से भी अधिक गंभीर, तकलीफदेह और हानिकारक होती है। गलत खानपान, बहुत अधि‍क भोग-विलास, घृणा और शोक के के कारण शरीर की जठराग्नि मंद हो जाती है और इनके कारण कफ के साथ खांसी हो जाती है। इस तरह की खांसी में शरीर में दर्द, बुखार, गर्माहट होती है और कभी-कभी कमजोरी भी हो जाती है। ऐसे में सूखी खांसी चलती है, खांसी के साथ पस और खून के साथ बलगम निकलता है। क्षयज खांसी विशेष तौर से टीबी यानि (तपेदिक) रोग की प्रारंभिक अवस्था हो सकती है, इसलिए इसे अनदेखा बिल्कुल भी नहीं करना चाहिए।
    4. पित्तज खांसी : पित्त के कारण होने वाली खांसी में कफ निकलता है, जो कि पीले रंग का कड़वा होता है। वमन द्वारा पीला व कड़वा पित्त निकलना, मुंह से गर्म बफारे निकलना, गले, छाती व पेट में जलन होना, मुंह सूखना, मुंह का स्वाद कड़वा रहना, प्यास लगती रहना, शरीर में गर्माहट या जलने का अनुभव होना और खांसी चलना, पित्तज खांसी के प्रमुख लक्षण हैं।
    5. वातज खांसी : वात के कारण होने वाली खांसी में कफ सूख जाता है, इसलिए इसमें कफ बहुत कम निकलता है या निकलता ही नहीं है। कफ न निकल पाने के कारण, खांसी लगातार और तेजी से आती है, ताकि कफ निकल जाए। इस तरह की खांसी में पेट, पसली, आंतों, छाती, कनपटी, गले और सिर में दर्द भी होने लगता है।
    एलोपैथिक चिकित्सा के अनुसार निम्न कारणों से होती है-
    1. प्लूरा के रोग, प्लूरिसी, एमपायमा आदि रोग होने से खांसी होती है।
    2. फुफ्फुस के रोग, जैसे तपेदिक (टीबी), निमोनिया, ट्रॉपिकल एओसिनोफीलिया आदि से खांसी होती है।
    3. श्वसन नली के ऊपरी भाग में टांसिलाइटिस, लेरिन्जाइटिस, फेरिन्जाइटिस, सायनस का संक्रमण, ट्रेकियाइटिस तथा यूव्यूला का लम्बा हो जाना आदि से खांसी होती है।
    4. श्वसनी (ब्रोंकाई) में ब्रोंकाइटिस, ब्रोंकियेक्टेसिस आदि होने से खांसी होती है।
    खांसी की आयुर्वेदिक एवं प्राकृतिक चिकित्सा
    1. अगर आप खांसी से परेशान हैं तो अदरक का जूस पीएं। इसमें शहद मिला कर आप इसका और ज्यादा फायदा उठा सकते हैं।
    2. अगर खांसी के साथ बलगम भी है तो आधा चम्मच काली मिर्च को देसी घी के साथ मिलाकर खाएं। आराम मिलेगा।
    3. अडूसा के पत्तों के रस (6 मि.ली.) को शहद (4मि.ली.) में मिलाकर पीने से भी खांसी और गले की खराश से राहत मिलती है।
    4. अदरक के रस में तुलसी मिलाएं और इसका सेवन करें। इसमें शहद भी मिलाया जा सकता है।
    5. अदरक को छोटे टुकड़ों में काटें और उसमें नमक मिलाएं। इसे खा लें। इसके रस से आपका गला खुल जाएगा और नमक से कीटाणु मर जाएंगे।
    6. अनार का रस भी खांसी से राहत दिलाता है। लेकिन इसके लिए आपको सिर्फ अनार का नहीं, इसमें जरा सा पिपली पाउडर और अदरक भी डालना होगा।
    7. अनार के जूस में थोडा अदरक और पिपली का पाउडर डालने से खांसी को आराम मिलता है।
    8. अपनी चाय में अदरक, तुलसी, काली मिर्च मिला कर चाय का सेवन कीजिए। इन तीनों तत्वों के सेवन से खांसी-जुकाम में काफी राहत मिलती है।
    9. अलसी के बीजों को मोटा होने तक उबालें और उसमें नीबू का रस और शहद भी मिलाएं और इसका सेवन करें। जुकाम और खांसी से आराम मिलेगा।
    10. आंवला खांसी के लिए काफी असरकारी माना जाता है। आंवला में विटामिन-सी होता है, जो ब्लड सरकुलेश को बेहतर बनाता है। अपने खाने में आंवला शामिल कर आप एंटी-ऑक्सीडेंट्स का सोर्स बढ़ा सकते हैं। यह आपकी इम्यूनिटी को मजबूत करेगा।
    11. आंवला में प्रचुर मात्रा में विटामिन-सी पाया जाता है जो खून के संचार को बेहतर करता है और इसमें एंटी-ऑक्सीडेंट्स भी होते हैं जो आपकी रोग-प्रतिरोधक क्षमता में इजाफा करता है।
    12. आधा चम्मच शहद में एक चुटकी इलायची और कुछ नीबू का जूस डालें। इस मिश्रण को दिन में दो से तीन बार लें। यह घरेलू नुस्खा खांसी की रामबाण दवा साबित हो सकता है।
    13. खांसी की अंग्रेजी दवा तो बहुत से लोग लेते हैं, लेकिन उसे लेने से नींद आने लगती है और उसके साइड इफेक्ट भी बहुत हैं। इसकी जगह आप हल्दी वाला दूध ले सकते हैं। हल्दी वाले दूध एंटीऑक्सीडेंट्स होते हैं। इसके अलावा हल्दी में एंटी वायरल और एंटी बैक्टीरियल गुण भी होते हैं, जो संक्रमण से लड़ने में मददगार होते हैं। तो खांसी की दवा के तौर पर आप हल्दी वाले दूध का इस्तेमाल कर सकते हैं।
    14. खांसी की असरकारी दवा के तौर पर आप गर्म पानी और नमक का इस्तेमाल कर सकते हैं। इसके लिए आप गर्म पानी में चुटकी भर नमक डालकर उससे गरारे कर सकते हैं। ऐसा करने से आपको खांसी से हुए गले के दर्द से राहत मिलेगी।
    15. खांसी के साथ अक्सर बलगम भी हो जाती है। यह बेचैनी और दर्द पैदा करती है। इससे बचने के लिए आप काली मिर्च को देसी घी में मिलकार ले सकते हैं। राहत महसूस होगी।
    16. गर्म पानी में चुटकी भर नमक मिला कर गरारे करने से खांसी-जुकाम के दौरान काफी राहत मिलती है। इससे गले को राहत मिलती है और खांसी से भी आराम मिलता है। यह भी काफी पुराना नुस्खा है।
    17. गले में खराश या ड्राई कफ होने पर अदरक के पेस्ट में गुड़ और घी मिलाकर खाएं।
    18. जितना हो सके गर्म पानी पिएं। आपके गले में जमा कफ खुलेगा और आप सुधार महसूस करेंगे।
    19. जुकाम और खांसी के उपचार के लिए आप गेहूं की भूसी का भी प्रयोग कर सकते हैं। 10 ग्राम गेहूं की भूसी, पांच लौंग और कुछ नमक लेकर पानी में मिलाकर इसे उबाल लें और इसका काढ़ा बनाएं। इसका एक कप काढ़ा पीने से आपको तुरंत आराम मिलेगा। हालांकि जुकाम आमतौर पर हल्का-फुल्का ही होता है जिसके लक्षण एक हफ्ते या इससे कम समय के लिए रहते हैं। गेंहू की भूसी का प्रयोग करने से आपको तकलीफ से निजात मिलेगी।
    20. जैसा कि हम बता चुके हैं अदरक और नमक दोनों ही खांसी में गले के दर्द से राहत दिलाते हैं। तो अगर दोनों को एकसाथ खाया जाए तो यह और भी फायदेमंद साबित होंगी। आपको करना बस यह है कि अदरक के टुकड़ों पर नमक लगा कर खाना है।
    21. तुलसी के साथ शहद हर दो घंटे में खाएं। कफ से छुटकारा मिलेगा।
    22. नहाते समय शरीर पर नमक रगड़ने से भी जुकाम या नाक बहना बंद हो जाता है।
    23. नाक बह रही हो तो काली मिर्च, अदरक, तुलसी को शहद में मिलाकर दिन में तीन बार लें। नाक बहना रुक जाएगा।
    24. बचपन में सर्दियों में नानी-दादी घर के बच्चों को सर्दी के मौसम में रोज हल्दी वाला दूध पीने के लिए देती थी। हल्दी वाला दूध जुकाम में काफी फायदेमंद होता है क्योंकि हल्दी में एंटीआक्सीडेंट्स होते हैं जो कीटाणुओं से हमारी रक्षा करते हैं। रात को सोने से पहले इसे पीने से तेजी से आराम पहुचता है. हल्दी में एंटी बैक्टीरियल और एंटी वायरल प्रॉपर्टीज मौजूद रहती है जो की इन्फेक्शन से लडती है. इसकी एंटी इंफ्लेमेटरी प्रॉपर्टीज सर्दी, खांसी और जुकाम के लक्षणों में आराम पहुंचाती है।
    25. ब्रैंडी तो पहले ही शरीर गर्म करने के लिए जानी जाती है। इसके साथ शहद मिक्स करने से जुकाम पर काफी असर होगा।
    26. लगभग 2 कप पानी में अदरक के छोटे-छोटे टुकड़े और कुछ इमली की कुछ पत्तियां डालें और तब तक उबालें जब तक कि ये एक कप न रह जाए। इसमें 4 चम्मच शक्कर ड़ालकर धीमी आंच पर कुछ देर और उबालें, फिर ठंडा होने दें। ठंडा होने पर इसमें 10 बूंद नीबू रस की डाल दें। हर तीन घंटे में इस सिरप का एक बार सेवन करने से खांसी छू-मंतर हो जाती है।
    27. लहसुन को घी में भून लें और गर्म-गर्म ही खा लें। यह स्वाद में खराब हो सकता है लेकिन स्वास्थ्य के लिए एकदम शानदार है।
    28. लहसुन भी खांसी से राहत दिलाने में कारगर है। इसके लिए आपको लहसुन को घी में भून कर गर्मागरम खाना होगा।
    29. खांसी से परेशान हैं तो गर्म पानी पिएं। यह गले में जमे कफ को कम करने में मदद करेगा।
    30. समान मात्रा में शहद और कच्चे प्याज का रस (लगभग एक चम्मच) मिलाकर 3 से 4 घंटे के लिये किसी अंधेरे स्थान पर रख दें और बाद में इसका सेवन करें। यह खांसी की दवाई के रूप में सटीक कार्यकरता है।
    31. खांसी-जुकाम में गाजर का जूस काफी फायदेमंद होता है लेकिन बर्फ के साथ इसका सेवन न करें।
    32. सूप, चाय, गर्म पानी का सेवन करें और ठंडा पानी, मसालेदार खाना आदि से परहेज करें।


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