सर्वप्रथम उठने वाला प्रश्न यही है, कि महिला सशक्तिकरण (
Mahila Sashaktikaran) क्या है? महिलाओं को शारीरिक, मानसिक, आर्थिक, सामाजिक एवं राजनीतिक रूप से सशक्त बनाना तथा स्वनिर्भर बनाना सशक्तिकरण कहा जा सकता है। स्त्रियों के पास एक महान शक्ति सोई हुई पड़ी है। दुनिया की आधी से बड़ी ताकत उनके पास है। आधी से बड़ी इसलिए कि बच्चे-बच्चियाँ उनकी छाया में पलते हैं और वे जैसा चाहे बच्चों को परिवर्तित कर सकती हैं। पुरुषों के हाथ में कितनी ही ताकत क्यों न हो लेकिन पुरुष एक दिन स्त्री की गोद में होता है, वहीं से अपनी जिन्दगी की यात्रा शुरू करता है और चाहे जितना बड़ा हो जाये या वृद्ध ही क्यों न हो जाये, वह अपनी पत्नी के सानिध्य में, अपनी पत्नी की निकटता में निरंतर अपनी माँ का अनुभव करता है। निरंतर अपनी माँ की छाया देखता ही है। माँ बचपन से उसके जीवन में छाया बनी रहती है। एक बार स्त्री की पूरी शक्ति जाग्रत हो जाये और वे निर्णय कर लें कि किसी प्रेम को निर्मित करेगी, जहाँ युद्ध नहीं होंगे, जहाँ हिंसा नहीं होगी, जहाँ राजनीति नहीं होगी, जहाँ जीवन में बुराई रूपी कोई बीमारियाँ नहीं होगी। जहाँ प्रेम है, जहाँ भी करूणा है, जहाँ भी दया है, वहीं महिला मौजूद है। इसलिए कह सकते है कि महिला सशक्तिकरण होने से महिला का शोषण तो दूर की बात होगी, परंतु महिलाओं द्वारा नया साम्राज्य होगा जिसमें केवल प्रेम, दया एवं करूणा होगी।
महिलाएं पुरुषों से भिन्न हैं। उनका व्यक्तित्व, उनका शरीर, उनका मन, उनकी चेतना किन्हीं अलग रास्तों से जीवन में गति करती है, किन्हीं अलग मार्गों से जीवन की खोज करती है। उनकी चेतना उनकी जागरूकता, पुरुषों की चेतना से भिन्न है। इसलिए उनकी शिक्षा-दीक्षा उनके वस्त्र, उनके चिंतन, उनके विचार सब भिन्न होने चाहिए, पुरुष जैसे नहीं, तब हम नारी शक्ति का मनुष्य की संस्कृति में उपयोग कर सकते हैं और वह उपयोग अत्यन्त मंगलदायी सिद्ध हो सकता है। महिलाएं प्राचीन समय से ही ताकतवर थी, परन्तु मध्यकाल में पुरुषों ने स्त्री को अबला एवं पुरुष पर निर्भर रहने के लिए कुछ ऐसे कठोर नियम बनाये, जिससे वे सिमटकर स्वयं की शक्ति को नहीं पहचान पाई। पुरुषों को डर था कि कहीं स्त्री, पुरुष से अव्वल न हो जाये, क्योंकि पुरुष स्वाभिमान के वश स्त्री के आगे झुकना नहीं चाहता।
हमारे देश में ज्यादातर औरतें आजाद नहीं है। चाहे समाज में उनकी अहमियत का मामला हो या पैसों का, इन सभी के लिये उन्हें आदमियों का मुंह देखना पड़ता है। इस संबंध में समाज भी उन्हें बहुत थोड़ी छूट देता है। ज्यादातर परिवारों में लड़कियाँ शादी से पहले अपने पिता या भाईयों की निगरानी में रहती है और शादी के बाद पति या ससुराल वालों की निगरानी में। बचपन से ही लड़कियों को आज्ञाकारी और घरेलू बनाना सिखाया जाता है। उन्हें जीवन के किसी भी पहलू पर फैसले लेने का अधिकार नहीं दिया जाता। उन्हें सिखाया जाता है कि उनका मुख्य काम परिवार के बाकी सदस्यों के आराम का ध्यान रखना है। कर्तव्य पालन करने वाली बेटी, प्यार देने वाली माँ, आज्ञाकारी बहू और वफादार दब्बू पत्नी के रूप में पुरुष देखना चाहता है। लड़की होने की वजह से उसके घूमने-फिरने, पढ़ाई-लिखाई और व्यवसाय सीखने के पर रोक लगाई जाती है, क्योंकि वह अपने खर्च के लायक पैसा न कमा ले या पैसे के मामले में आजाद न हो जाएं। इसीलिए बहुत सी औरतों को बाहर का काम नहीं करने दिया जाता। जो बाहर काम करती हैं, उन्हें दुगुने घंटे कार्य करना पड़ता है। पुरुष-स्त्रियों के काम साफ तौर पर बंटे होते है। औरतें पुरुष के बदले बाहर का काम, परिवार को चलाने एवं पालन-पोषण में मदद या जिम्मेदारी के उद्देश्य से कर सकती है। परन्तु पुरुष घर के काम करने में अपनी शान के खिलाफ समझते हैं। हर क्षेत्र में महिलाओं को सशक्त होना अत्यन्त आवश्यक है। किसी फैक्टरियों, कम्पनी या खेतों में एक जैसे काम के लिये महिलाओं को पुरुष से कम वेतन दिया जाता है। महिलाओं को सार्वजनिक कार्यों में सक्रिय रूप से भाग लेने में उन्हें कई परेशानियों का सामना करना पड़ता है। एक पुरुष की तुलना में उन्हें दोगुनी कठिनाइयाँ झेलनी पड़ती है। यहाँ तक ऐसी महिलाओं को भी जो पुरुषों की तुलना में दुगुनी सक्षम और योग्य होती है। संसद, राज्य, विधायिका तथा मंत्रालयों में महिलाओं का कम होना ठीक नहीं लगता है। यह इसलिए भी असमर्थनीय है कि वर्ष 1992 में 73वें एवं 74वें संवैधानिक संशोधन के बाद महिलाओं ने पंचायतों और स्थानीय शासी-निकायों में आरक्षित सीटो पर उत्कृष्ट काम किया है।
महिला सशक्तिकरण के अनेक अन्य आयाम भी हैं, जैसे- शिक्षा, स्वास्थ्य संबंधी देखभाल तथा रोजगार में आने वाली समस्याओं को दूर करना आदि। उसके साथ प्रेम तथा सार्वजनिक क्षेत्र में आदर एवं गरिमापूर्ण व्यवहार किया जाना चाहिए। हमारी माँ-बहनें बिना किसी प्रकार के भय या आशंका के कभी भी और कहीं भी आने-जाने के लिए सुरक्षित महसूस कर सके। महिलाओं को निश्चित रूप से सुरक्षा का मूल मान दण्ड जीवन जीने का अधिकार है। हालांकि केवल कानून व सरकारी विनिमयों से ही इन सामाजिक कमियों को दूर नहीं किया जा सकता। हमें समुचित जन-शिक्षा द्वारा समर्थन प्राप्त कर सुदृढ़ एवं अनवरत सामाजिक स्तर पर कार्यवाही की आवश्यकता है। महिला सशक्तिकरण के बारे में समाज के विभिन्न वर्गों, व्यवसायों एवं आर्थिक स्तर से जुड़े व्यक्तियों (पुरुष एवं महिला दोनों) की नजर में अलग-अलग मायने और दृष्टिकोण है। एक ओर जहाँ यह महिलाओं की आर्थिक स्वतंत्रता या आर्थिक रूप से आत्मनिर्भरता होना है, तो दूसरे रूप में पुरुषों के समान स्थिति को प्राप्त करना है। समाज की एक सोच के अनुसार पूरी तरह पश्चातता अथवा आधुनिकता को अपनाना ही सशक्तिकरण है, उपरोक्त सशक्तिकरण के कतिपय पहलू मात्र हैं। संपूर्ण एवं समग्र सशक्तिकरण वह स्थिति है, जब महिलाओं के व्यक्तित्व का विकास, शिक्षा प्राप्ति, समग्र सशक्तिकरण व्यवसाय परिवार, तथा परिवार में निर्णय का समान अवसर मिले, जब वह आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर हो, शारीरिक व भावनात्मक रूप से सुरक्षित महसूस करें तथा तमाम रूढ़िवादी व अप्रासंगिक रिवाजों, रूढ़िवादी बंधनों से पूरी तरह स्वतंत्र हो।
21वीं सदी में कदम रखने वाली भारतीय समाज की महिलाओं को आज भी वह दर्जा प्राप्त नहीं हुआ है जो उसे पहले मिल जाना चाहिए था। वधु-दहन आज भी निर्भरता पूर्वक होता है। दहेज प्रथा से आज भी कई बहुओं का शोषण हो रहा है। तलाक तो आज आम बात हो गयी है, जो नारी के लिये तो कलंक के समान है और पुरुष के लिए आजादी। कन्या जन्म बुरा माना जाता है। सोनोग्राफी द्वारा पता लगाकर यदि कन्या भ्रूण है तो उसकी हत्या करवा दी जाती है। अथवा कन्या को जन्म होने के पश्चात कहीं झाड़ी के नीचे या कचरे के डिब्बे में मरने के लिये छोड़ दिया जाता है। प्रतिवर्ष ढाई से तीन लाख कन्या भ्रूण की हत्या करवा दी जाती है। समाज का बड़ा तबका आज भी कन्या शिक्षा को अच्छा नहीं मानता। ऐसे अमानवीय पतनशील समाज में स्त्री फिर भी जीवित है, यह क्या आश्चर्य से कम है। यदि महिलाएं बौद्धिक और आर्थिक रूप से सशक्त होगी तो वे प्रत्येक क्षेत्र में उचित निर्णय करने में सफल हो पायेगी।
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