हिन्दी साहित्य के इतिहास में मध्यकाल की अपनी अलग महत्व और पहचान है। मध्यकाल को दो भागों में बांटा गया है भक्ति काल और रीति काल। भक्ति काल का संवत् 1375 से संवत् 1700 तक माना जाता है और इसे हिन्दी साहित्य का स्वर्ण युग कहा जाता है। इसको भी दो भागों में विभाजित किया गया हैं -
- सगुण भक्ति धारा
- निगुर्ण भक्ति धारा।
सगुण भक्ति धारा के अंतर्गत राम भक्तिषाखा है, जिसके प्रतिनिधि हिन्दी के महान कवि गोस्वामी तुलसी दास है, जिन्होंने रामचरित मानस और अनेक ग्रंथ रचे थे। दूसरी धारा कृष्ण भक्ति की है जिसके प्रतिनिधि कवि सूरदास है। कृष्ण के जीवन को आधार बनाकर गीति तत्वों से युक्त, उदात्त भावों से युक्त रचे गये काव्य जिसमें भक्ति भावना भी कूट-कूट कर भरी है। कृष्ण का जीवन जीवन की यथार्थ भूमि से जुड़ा है और उसमें जीवन की तमाम विसंगतियाँ और अंतर्विरोध भी दिखाई देते हैं। अतः उनका जीवन मानव को अपने जीवन के निकट दिखाई देता है। सूरदास ने इसी निकटता को अपने काव्य में स्थान दिया है।
सूरदासजी के संबंध में कोई विशेष जानकारी नहीं मिलती है। सूरदास कब पैदा हुए? इसका स्पष्ट उल्लेख किसी भी ग्रंथ में नहीं है। सूरसारावली और साहित्य लहरी के एक एक पद के आधार पर विद्वानों ने सूर की जन्मतिथि निश्चित करने का प्रयत्न किया है। ’’सूरसारावली’ का पद है - गुरू परसाद होत यह दरसन सरसठ बरस प्रवीन। शिवविधान तप कियो बहुत दिन तऊ पार नहिं लीन।।’’ इस पद के आधार पर समस्त विद्वान सूर सारावली की रचना के समय सूरदास की आयु 67 वर्ष निश्चित करते हैं।
साहित्य लहरी के पद- मुनि मुनि रसन के रस लेख। श्री मुंशीराम शर्मा इस पद के आधार पर साहित्य लहरी का रचनाकाल संवत् 1627 मानते है। सूर सारावली के समय उनकी आयु 67 वर्ष मानी जाये तो सूर का जन्म विक्रम संवत् 1540 के आस पास माना जाना चाहिए। मिश्र बंधुओं ने ही सबसे पहले इस तिथि की ओर ध्यान दिलाया था। बाह्य साक्ष्य की दृष्टि से विचार किया जाये तो सूरदास का जन्म संवत् 1535 के आसपास माना जा सकता है। पुष्टि संप्रदाय की मान्यता के अनुसार सूरदास वल्लभाचार्य से आयु में 10 दिन छोटे थे। इसका सर्वाधिक प्राचीन प्रमाण निजवार्ता है। श्री वल्लभाचार्य जी की जन्म तिथि संवत् 1535 वैशाख कृष्ण 15 रविवार है। इस आधार पर सूर की जनमतिथि संवत् 1535 वैशाख शुक्ल 5 को ठहरती है। इन तथ्यों के आधार पर सूरदास की जन्म तिथि संवत् 1535 मानी जा सकती है। सूरदास की मृत्यु के संबंध में आचार्य रामचंद्र शुक्ल का मानना है कि संवत् 1620 उनके स्वर्ग वास की तिथि हो सकती है। श्री मुंशीराम शर्मा एवं द्वारिकाप्रसाद मिश्र के विभिन्न तर्को, सूर और अकबर की भेंट की तिथि आदि के आधार पर सूर का संवत् 1628 तक जीवित रहना सिद्ध होता है। इस आधार पर कछु विद्वान उनकी मृत्यु संवत् 1640 में गोवर्धन के निकट पारसोली ग्राम में मानते है। कुछ विद्वान सूरदास का जन्म मथुरा और आगरा के बीच स्थित रूनकता नामक ग्राम को मानते है। पर अधिकांश विद्वान चौरासी वैष्णव के वार्ता जो सर्वाधिक प्रामाणिक ग्रंथ है, के आधार पर दिल्ली के पास स्थित सीही नामक ग्राम को मानते हैं। सूरदास जनमान्ध थे अथवा बाद में अन्धे हुए , इस विषय में भी विद्वानों में मतभेद है। वार्ता साहित्य में सूरदास को केवल जन्म से अन्धे ही नही अपितु आँखों में गड्डे तक नही वाला बताया है। इसके अतिरिक्त सूरदास के समकालीन कवि श्रीनाथ भट्ट ने संस्कृत मणिबाला ग्रंथ में सूर को जनमान्ध कहा है - जन्मान्धों सूरदासों भूत। इनके अतिरिक्त हरिराय एवं प्राणनाथ कवि ने भी सूर को जन्मान्ध बताया है।
वल्लभाचार्य ने सूर को पुष्टि मार्ग में दीक्षित किया और कृष्णलीला से अवगत कराया। उनके पदों का संकलन सूर सागर के नाम से जाना जाता है। वल्लभाचार्य के निधन के पश्चात् गोस्वामी विट्ठल नाथ पुष्टि संप्रदाय के प्रधान आचार्य बने। संप्रदाय के सर्वश्रेष्ठ कवियों को लेकर उन्होंने संवत् 1602 में अष्टछाप की स्थापना की । इन आठ भक्त कवियों में सूरदास का स्थान ही सबसे ऊँचा था। अष्टछाप में चार आचार्य वल्लभाचार्य के और चार विट्ठलनाथ जी के शिष्य थे। इनके नाम है- 1. सूरदास 2. कुम्भनदास 3. कृष्णदास 4. परमानंद दास 5. गोविन्द स्वामी 6. नंददास 7. छीतस्वामी 8. चतुभुर्जदास ।
सूरदास की रचनाएं
सूरदास द्वारा लिखित निम्न कृतियाँ मानी जाती हैं - 1. सूर सारावली 2. साहित्य लहरी 3. सूर सागर 4. भागवत भाषा 5. दशमस्कन्ध भाषा 6. सूरसागर सार 7. सूर रामायण 8. मान लीला 9. नाग लीला 10. दान लीला 11. भंवर लीला 12. सूर दशक 13. सूर साठी 14. सूर पच्चीसी 15. सेवाफल 16. ब्याहलो 17. प्राणप्यारी 18. दृष्टि कूट के पद 19. सूर के विनय आदि के पद 20. नल दमयंती 21. हरिवंश टीका 22. राम जन्म 23. एकादशी महात्म्य। कुछ आधुनिक आलोचकों ने सूरदास के तीन ग्रंथ ही प्रामाणिक माने हैं। ये तीन प्रसिद्ध हैं - 1. सूर सारावली 2. साहित्य लहरी 3. सूरसागर।
सूर सारावली - सूर सारावली नाम से ऐसा लगता है मानो यह सूर सागर की भूमिका, सारांश या अन्य कुछ है। ग्रंथ के अध्ययन से स्पष्ट होता है कि यह रचना ऐसी न होकर वल्लभाचार्य के दार्शनिक एवं धार्मिक सिद्धांतों का लौकिक रूप है, जो एक वृहत् होली गान के रूप में प्रकट किया गया है। सूर सारावली में विषय की दृष्टि से कृष्ण के कुरूक्षेत्र से लौटने के बाद के समय से जुडे संयोग लीला, वसंत हिंडोला और होली आदि प्रसंग अभिव्यक्त हुए है।
साहित्य लहरी - साहित्य लहरी सूरदास की दूसरी प्रमुख रचना है। इसमें कुल 118 पद हैं। साहित्य लहरी का विषय सूर सागर से कुछ भिन्न एवं तारतम्यविहीन दिखाई देता है। इसके पदों में रस, अलंकार, निरूपण एवं नायिका भेद तो है ही, साथ ही कुछ पदों में कृष्ण की बाल लीलाओं का वर्णन भी है। साहित्य लहरी में अनेक पद दृष्टिकूट पद है, जिनमें गुह्य बातों का दृष्टिकूटों के रूप में वर्णन किया गया है। कृष्ण की बाल लीलाओं के साथ ही नायिकाओं के अनेक भेद के साथ राधा का वर्णन भी है तो अनेक प्रकार के अलंकारों जैसे -दृष्टांत , परिकर, निदर्शना, विनोक्ति, समासोक्ति , व्यतिरेक का भी उल्लेख है।
सूरसागर -सूरदास की काव्य यात्रा का यह सर्वोत्कृष्ट दिग्दर्षन है। ऐसा माना जाता है कि इसमें सवा लाख पद थे, किंतु वर्तमान में प्राप्त और प्रकाशित सूरसागर में लगभग चार से पाँच हजार पद संकलित है। सूरसागर की रचना का मूल आधार श्रीमद्भागवत है। इसमें सूरदास ने श्रीमद्भागवत् का उतना ही आधार ग्रहण किया है, जितना कि कृष्ण की ब्रज लीलाओं की रूपरेखाओं के निर्माण के लिए आवश्यक था। सूरसागर प्रबंध काव्य नहीं है। यह तो प्रसंगानुसार कृष्ण लीला से संबंधित उनके प्रेममय स्वरूप को साकार करने वाले पदों का संग्रह मात्र है। सूरसागर की कथा वस्तु बारह स्कन्धों में विभक्त है। इनमें दशम् स्कन्ध में ही कृष्ण की लीलाओं का अत्यंत विस्तार से वर्णन है। सूरसागर में आये पदों को विषय के अनुसार निम्नांकित वर्गों में रखा जा सकता है-
- कृष्ण की बाल लीलाओं से संबंधित पद
- कृष्ण कीद प्रेम और मान लीलाओं से संबंधित पद
- दान लीला के पद
- मान लीला के पद और भ्रमर गीत5. विनय, वैराग्य, सत्संग एवं गुरू महिमा से संबंधित पद
- श्रीमद्भागवत के अनुसार रखे गये पद
भ्रमरगीत काव्य परम्परा एवं सरूदास
भ्रमरगीत का शाब्दिक अर्थ है- भ्रमर का गान अथवा गुंजन। भ्रमरगीत काव्य परम्परा का मूल एवं आधारभूत ग्रंथ श्रीमद्भागवत है। भागवत में कृष्ण कथा के अन्य प्रसंगों के साथ सेंतालीसवें अध्याय में भ्रमरगीत का प्रसंग आया है। इसमें भ्रमरगीत का प्रारम्भ श्रीकृष्ण के गोकुल लीला के स्मरण से होता है। उन्हें बचपन के ग्वाल’- बाल सखाओं की याद आती है, साथ ही गोपिकाओं की भी। वे अपने मित्र उद्धव को गोपियों को सांत्वना देने के लिये ब्रज भेजते है। ब्रज पहुँचते ही उद्धव नंद- यशोदा से मिलते हैं और अपने उद्गारों से कृष्ण के ब्रह्म स्वरूप का प्रतिपादन करते हैं। श्रीकृष्ण के इसी स्वरूप की प्राप्ति के लिये वे ज्ञान का उपदेश नंद-यशोदा को देते हैं। बाद में गोंपियां उन्हें एकांत में ले जाती है। इसी वक्त एक भ्रमर उडता हुआ वहाँ आ जाता है। गोपियाँ भ्रमर के बहाने श्रीकृष्ण के प्रति उलाहनै, उपालम्भ आरम्भ कर देती है। इस प्रकार गोपियों का भ्रमर को लक्ष्य करके उपालम्भ करना ही भ्रमर गीत के नाम से पुकार जाता है। गोपियों ने भ्रमर को लक्ष्य करके उद्धव और श्रीकृष्ण दोनों को उल्हाने दिये, अथवा व्यंग्य किया और अनेक तरह से फटकार लगाई। इस बात के आधार बनाते हुए कहा जा सकता है कि भ्रमरगीत का तात्पर्य भ्रमर को इंगित करके गाया जाने वाला गीत भी है।
सूर का भ्रमर गीत - सूरदास ने श्रीकृष्ण की अन्याय लीलाओं की भांति भ्रमरगीत का प्रसंग भी श्रीमद्भागवत से लिया है। हिन्दी में सर्वप्रथम सूर ने ही भ्रमरगीत की रचना की और इन्हीं के कारण भ्रमरगीत की लोकप्रियता भी बहुत अधिक हुई ।
सूरदास के आधार पर कहा जा सकता है कि भ्रमरगीत लिखने के पीछे मुख्य उद्देश्य निर्गुण पर सगुण की विजय एवं ज्ञान पर भक्ति की विजय को प्रमाणित करना था। चूंकि सूरदास के समय में ज्ञान और भक्ति में श्रेष्ठता को लेकर विवाद था। शायद यही कारण है कि उन्होंने इसमें निर्गुण का तर्क और भाव से खंडन करते हुए सगुण का मंडन किया है। ज्ञान के समक्ष भक्ति की श्रेष्ठता प्रतिपादित की है। सूर का भ्रमर गीत वाग्वैदग्धता, वचनवक्रता और उपालम्भ का काव्य है।
सूर के भ्रमरगीत की विशेषताएं
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने भ्रमरगीत को सूरसागर का सार कहा है- ’’भ्रमरगीत सूरसागर के भीतर का एक सार रत्न है।’’
काव्य को दो तरह से समीक्षित किया जा सकता है - काव्य का अनुभूति पक्ष और उसका अभिव्यक्ति पक्ष। प्रथम का सम्बन्ध वर्णित विषय से है यानी क्या कहा गया है, इसका उत्तर देना अनुभूति पक्ष है। दूसरे का संबंध कैसे कहा गया से है अर्थात् इस अनुभूति की अभिव्यक्ति कितनी कलात्मक तरीके से की गई है, इसका विवेचन अभिव्यक्ति पक्ष है। समीक्षा के बिन्दु निम्नलिखित है- वर्ण्य विषय, मर्मस्पर्शी स्थल, कल्पना सौन्दर्य, प्राकृतिक सुषमा, रसाभिव्यक्ति, भाषा और काव्यरूप, अलंकार योजना, बिम्बयोजना, लक्षण शक्ति।
सूर के भ्रमरगीत की विषय वस्तु - ब्रजभूमि में विहार करतै, लीला दिखाते श्रीकृष्ण कंस के निमंत्रण पर अक्रुर जी के साथ मथुरा चले जाते हैं। वहाँ से वापस आने की कोई संभावना न पाकर गोपियाँ उनके लिए संदेष भेजती हैं। पथिक संदेशों के डर से मथुरा जाने वाले रास्ते पर जाने से भी घबराने लगते हैं, क्योंकि संदेशों की संख्या बेहिसाब बढ चली थी। इस पद में संदेश भेजने की विवषता और विसंगति को देखा जा सकता है -
’’ संदेसनि मधुबन कूप भरे।
अपने तौ पठवत नहिं मोहन , हमरे फिरि न फिरे।
जिते पथिक पठाए मधुबन कौ बहुरि न सोध करे।
कै वै स्याम सिखाइ प्रमोधै, कै कहुं बीच मरे।
कागद गरे मेघ,मसि खूटी, सर दव लागि जरे।
सेवक सूर लिखन कौ आंधौ, पलक कपाट अरे।’’
कृष्ण चाहकर भी गोपियों के प्रति अपने अनुराग को विस्मृत कर सकते थे। इसी चिन्ता में उद्धव नामक एक ब्रह्म ज्ञानी महापुरूष को कृष्ण ने गोपियों के प्रति अपने मन की व्यथा बताई, तो उन्होने कृष्ण से कहा कि यदि आप कहें तो मैं ब्रज जाकर उन सबकों समझा दूं कि वे आपके लिये दुःखी न हों, निर्गुंण निराकार ब्रह्म का ध्यान आरंभ करें। कृष्ण इसकी अनुमति दे देते हैं और इस संदर्भ में सूरदास ने इस संपूर्ण प्रसंग को एक अत्यंत अनूठे काव्य का रूप दिया है। जिसमें आदि से अंत तक व्यथा- कथा कही गई है। इस कथा के दो भाग हैं। एक तो उद्धव के संदेश देने जाने से पहले की वियोग कथा, जिसमें विरह दशा के प्रायः सभी वर्णन हैं और दूसरा उद्धव तथा गोपियों का वार्तालाप, जिसमें प्रेम की अनन्यता प तन्मयता सर्वत्र ध्वनित हुई है और इसी में निर्गुण का खण्डन व सगुण का मंडन उभरा है।
’’ काहे को रोकत मारग सूधो?
सुनहु मधुप निर्गुण कटक तें राजपंथ क्यौं रूधौ?
कै तुम सिखै पठाए कुब्जा, कै कही स्यामधन जू धौ।।’’
वाग्वैदधता- वाग्वैदग्धता का अर्थ है वाणी का चार्तुय अर्थात् एक बात जो सीधे ढंग से कहने पर उतना प्रभाव नहीं दिखती है वही बात यदि किसी वाक्चातुर्य से अलग ढंग से व्यक्त की जाये तो बहुत अधिक प्रभावशाली हो जाती है। सूर ने अनपढ़ गोपियों के माध्यम से वाणी की जिस प्रदग्धता का प्रयोग किया है वह अच्छे-अच्उे पढ़े लिख लोगों को भी पानी पिलाने वाला है। वे कहती कुछ हैं और उसका अर्थ कुछ और ही होता है। यह कुछ और अर्थ पाठक तक भी संप्रेषित होता है और वह वाह! वाह! कर उठता है।
यहाँ देखिए गोपियां श्रीकृष्णर के पिछले कार्यों का वर्णन करना चाहती हैं, क्योंकि उन्हें स्मरण करने में अच्छा लगता है, परन्तु सूरदास ने उनकी स्मृति को दूसरे ही रूप में व्यक्त किया है। वे कहते हैं कि कृष्ण ब्रज में इसलिये नहीं आ रहे कि वहाँ पर मुझसे गोपियाँ बहुत सारे काम करायेंगी। दरअसल वे कह कुछ रही हैं परन्तु उनका मन्तव्य कुछ और है, यह सूर की वागवैदग्धता के कारण ही संभव हो सका है, देखिए है-
यदि डर बहुनि गोकुल आए।
सुनी री सखी! हमारी करनी समुझि मधुपुरी छाए।
अधरातिक तै उठि बाल बस मोहि जगैहैं आये।
बिनु पद त्रान बहुरि पठवैंगी बनहि चरावन गाय।।
सूनो भवन आनि रोकेंगी चोरत दधि नवनीत।
पकरि जसोदा पै ले जैहैं, नाचत मावत गीत।।
ग्वालिनी मोहि बहुरि बाँधेगी केते वचन लगाय।
ऐते दुःखन सुमरि सूर मन, बहुरि सकै को जाये।।
और देखिए जब गोपियां अपने विरह की अभिव्यक्ति करती है तो सीधे यह न कहकर कि हमारा वियोग बढ़ रहा है या हमें कामदेव सता रहा है, वे इस तरह की बातें करती हैं मानो कुछ और ही वर्णन कर रही हैं। ऐसा कहना है कि यह ब्रजभूमि इन्द्र पर से कामदेव ने जागीर के रूप में ले ली है। इस बहाने से भी वर्णन हुआ है। वह कवि की वचन-चातुरी को समझने में पर्याप्त सहायक है-
कोई सखि नई चाह सुनि आई।
यह ब्रजभूमि सकल सुरपति पै मदन मिलिक कर पाई।
धन धावन बग पांति पटो सिर बैरख तड़ित सुहाई।
बोलिक पिक चातक ऊँचे सुर, मनो मिलि देत दुहाई।
निर्गुण पर सगुण की विजय- सूरदास ने अपने भ्रमरगीत में निर्गुण ब्रह्य के स्थान पर सगुण की प्रतिष्ठा करने का प्रयास किया है। गोपियों और उद्धव के बीच का सारा संवाद प्रेम की प्रतिष्ठा के बहाने सगुण की प्रतिष्ठा का प्रयत्न करना ही रहा है। उद्धव निर्गुण ब्रह्य की उपासना की बात कहना चाहते हैं, परन्तु गोपियों उनकी बात को अपने तर्कों के सामने ठहरने नहीं देतीं हैं। जिस समय उद्धव मथुरा लौटकर वापस जाते हैं और श्रीकृष्ण को ब्रज के समाचार देते हैं उस समय के उनके वचनों द्वारा स्पष्ट रूप से निर्गुण ब्रह्म के सामने सगुण की प्रतिष्ठा का आख्यान होता है।उद्धव कृष्ण से कहते हैं-
कहिबे मैं न कछू सक राखी।
बुधि विवेक अनुमान आपने मुख आई सो भाखी।।
हौं पचि कहतो एक पहर में, वै छन माहिं अनेक।
हारि मानि उठि चल्यो दीन हैं छाँड़ि आपनो टेक।।
उद्धव के कथन में सर्वत्र ही अपने तर्कों की पराजय का स्वीकार है। इस तरह सूरदास ने अनेक स्थलों पर निर्गुण पर सगुण की विजय का वर्णन किया गया है। एक उदाहरण और भी देखा जा सकता है-
मैं समुझाई अति अपनी सो।
तदपि उन्हें परतीति न उपजी सबै लखो सपनो सो।
कही तिहारी सबै कही मैं और कछू अपनी।
श्रवन न बचन सुनत हैं उनके जो पट मह अकनी।।
कोई कहै बात बनाइ र्पचासक उनकी बात जु एक।
धन्य-धन्य सो नारी ब्रज की दिन दरसन इहि टेक।।
प्रेममार्ग की उत्कृष्टता- सूरदास ने अपने भ्रमरगीत में ईश्वर की साधना के लिए प्रेममार्ग की महत्ता प्रदर्शित की है। वे गोपियों के माध्यम से यह कहना चाहते हैं कि उन्हें तो एकमात्र कृष्ण के साथ बिताये हुए सुख के क्षणों की ही चाह है। उन्हें ऐसा ब्रह्म नहीं चाहिये जो उनके साथ रस-क्रीड़ा न कर सके। वे उद्धव से कहती हैं-
रहु रे, मधुकर, मधु मत वारे।
कहा करौ, निर्गुन लै कै हौं जीवहु कान्ह हमारे।।
सूरदास ने गोपियों के माध्यम से प्रेम की उत्कृष्टता की अभिव्यक्ति की है। वे कई प्राकृतिक परिवेष में रचे बसे प्रसंगों का उदाहरण देकर अपनी बात सिद्ध करतीं हैं, जैसे पतंग, चातक, चकोर, मौन, मृग आदि का प्रेम प्रसिद्ध हैं उसी तरह वे अपना कृष्ण के प्रति प्रेम भी मानती हैं। अब चाहे वे मरे या रहें जो व्यक्ति प्रेममार्ग में अग्रसर होता है वह मरने-जीने की चिंता नहीं करता है। इसका कथन अनेक उदाहरणों द्वारा करते हुए गोपियां उद्धव से कहती हैं-
ऊधो-प्रीति न मरन विचारे।
प्रीति पंतग जरै पावक परि जरत अंग नहिं टारै।।
प्रीति परेवा उड़त गगन चहि गिरत न आप प्रहारै।।
प्रीति जानू जैसे पय पानी जारि उपनपो जारै।।
प्रीति कुरंग नाद रस लुब्धक तानि तानि सर मारै।
प्रीति जान जननी सुत कारन को न अपनपो हारै।
सूर स्याम सों प्रीति गोपिन की कहु कैसे निरुवरै।।
सूर के काव्य में प्रेम की उत्कृष्टता को प्रतिष्ठित करने वाले बहुत से पद आये हैं। वे गोपियों के माध्यम से हर बार इसी बात पर बल दिया है कि प्रेम के मार्ग में ही अपना बलिदान, दुःख, त्याग और सहिष्णुता का भाव रहता है। प्रेम तो मन की बात है तभी तो- ’दाख छुहारा छाड़ि अमृत फल विषकीरा विष खात’ वाली बात भी ठीक लगती है। इस तरह के कथन गोपियों के वचनों में बार-बार देखने को मिलते हैं। सूरदास ने अनेक पदों द्वारा प्रेममार्ग की उत्कृष्टता का प्रतिपादन किया है। यहां पर बस एक उदाहरण और पठनीय है-
ऊधो मन माने की बात।
जरत पतंग दीप में जैसे और फिरि फिरि लपटात।।
रहत चकोर पुहुमि पर मधुकर! ससि अकाश भरमात।
ऐसो जतन धरो हरि जू पै छन इन उत नहिं जात।।
दादुर रहत सदा जल भीतर कमलसिंह नहिं नियरात।
काठ फोरि घर कियो मधुप पैं बंधे अम्बुज के पात।।
वरषा बरसत निसदिन ऊधो : पुहुमि पूरि अघात।
रवाति बूंद के काज पपीहा छन-छन रटत रहात।।
सेनि न खात अमृत फल भोजन तोमरि को ललचात।
सूरज कृस्न कूबरी रीझे गोपिन देख लजात।
व्यंग- सूरदास के भ्रमरगीत में व्यंगशैली की प्रचुरता है। वे जहां दूसरे भावों की व्यंजना करते हैं वहाँ उनके द्वारा कुब्जा के प्रति किये गये व्यंग्य विशेष रूप में दृष्टव्य हैं। गेपियां कृष्ण के न आने से व्यथित हैं। उन्हें कुब्जा का एक ऐसा उदाहरण मिल जाता है कि वे उसी पर घटाकर अनेक बातें कहती हैं। सूरदास ने गोपियों के असूया भाव को व्यक्त करने का यह अच्छा अवसर निकाल लिया है। वे दासी, कुबड़ी आदि कहकर नाना भांति से श्रीकृष्ण की प्रेम-भावना पर व्यंग करती है। व्यंग के सम्बन्ध में सूरदास के भ्रमरगीत में व्यंग वचनों के द्वारा विभिन्न भावों की व्यंजना को प्रमुखता दी गयी है।
उलाहने- व्यंग्य और उलाहने सूर दास के प्रमुख साधन हैं बात को नए ढंग से कहने के लिए। गोपियां भ्रमरगीत को देखकर श्रीकृष्ण को उसी के माध्यम से उलाहने देने लगती हैं। भ्रमर के माध्यम से, कहीं कुब्जा पर घटाकर, कहीं राजा बनने पर और कहीं अपने वंश का अधिक ध्यान रखने पर, इसी तरह की बातों पर गोपियों द्वारा उलाहने दिलाये गये हैं।
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