स्त्री अशिष्ट रूपण (प्रतिषेध) अधिनियम, 1986
Share:
स्त्री अशिष्ट रूपण (प्रतिषेध) अधिनियम, 1986
उठो जवानो हम भारत के स्वाभिमान सरताज़ है
अभिमन्यु के रथ का पहिया, चक्रव्यूह की मार है
चमके कि ज्यों दिनकर चमका है
उठे कि ज्यो तूफान उठे
चले चाल मस्ताने गज सी
हँसे कि विपदा भाग उठे
हम भारत की तरुणाई है
माता की गलहार है
अभिमन्यु के रथ का पहिया....
खेल कबड्डी कहकर
पाले में न घुस पाये दुश्मन
प्रतिद्वंदी से ताल ठोक कर
कहो भाग जाओ दुश्मन
मान जीजा के वीर शिवा हम
राणा के अवतार है
अभिमन्यु के रथ का पहिया....
गुरु पूजा में एकलव्य हम
बैरागी के बाण है
लव कुश की हम प्रखर साधना
शकुंतला के प्राण है
चन्द्रगुप्त की दिग्विजयों के
हम ही खेवनहार है
अभिमन्यु के रथ का पहिया....
गोरा, बादल, जयमल, पत्ता,
भगत सिंह, सुखदेव, आज़ाद
केशव की हम ध्येय साधना
माधव बन होती आवाज़
आज नहीं तो कल भारत के
हम ही पहरेदार है
अभिमन्यु के रथ का पहिया....
उठो जवानों हम भारत के स्वाभिमान सरताज है
अभिमन्यु के रथ का पहिया, चक्रव्यूह मार है
टैग - संघ गीत
एक तरफ राष्ट्रीय आंदोलन अपनी तीव्रता पर था और दूसरी तरफ सांप्रदायिकता की आग चारों ओर फैल रही थी। ऐसी विषम परिस्थितियों में जिला गाजीपुर उत्तर प्रदेश के 'बुधही' नामक गाँव में सैयद मासूम रज़ा का जन्म हुआ। बुधही मासूम रज़ा का ननिहाल था। ददिहाल के गाँव का नाम है- गंगौली, जो कि ग़ाज़ीपुर शहर से लगभग 12 कि.मी. की दूरी पर स्थित है। वास्तव में मासूम रज़ा के दादा आजमगढ़ स्थित 'ठेकमा बिजौली' नामक गाँव के निवासी थे। दादी गंगौली के राजा मुनीर हसन की बहन थी। वह राही के दादा के संग गंगौली में ही बस गई थीं। तदुपरांत धीरे-धीरे परिवार में गंगौली का रंग रचता-बसता गया। मासूम रज़ा की निगाहें गंगौली में ही खुली, 'ठेकमा बिजौली' से कोई संबंध नहीं रहा।
टी. बी. की बीमारी ने मासूम रज़ा के जीवन को एक नया मोड़ प्रदान किया। साथ ही उनकी संवेदनाओं को गहराई तक छोड़ते हुए उनके भविष्य के साहित्यकार जीवन की पृष्ठभूमि के रूप में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। बीमारी के कारण उन्हें फिल्म देखने का शौक भी पूरा करने का भी मौका मिला। दोस्तों, हवेलियों-मवालियों के साथ पालकी पर बैठ कर फिल्म देखने जाते। शायद बीमार मासूम का मन फिल्मों से बहल जाये, संभवतः इसी कारण परिवार के बड़े-बूढ़ों ने उन्हें फिल्म देखने से रोकने के बजाय बढ़ावा ही दिया। उनके फिल्मी जीवन के प्रेरणा-स्रोत के रूप में उनके बचपन के फिल्म के शौक ने अवश्य कहीं-न-कहीं पृष्ठभूमि का कार्य किया।
अपनी उदासी और सूनेपन को दूर करने में फिल्म इत्यादि से असफल हो अंत में 'हसरत' या फिर अन्य उर्दू की पत्र-पत्रिकाओं की शरण में जाना पड़ता। परिवार के घरेलू कार्यों के लिए अली हुसैन साहब थे, जिन्हें सब कल्लू काका कहा करते थे। उनका अन्य कार्यों के अतिरिक्त एक प्रिय कार्य था किस्सागोई। कल्लू काका 'तिलिस्मे होशरूबा' सुनाने बैठ जाते। धीरे-धीरे अन्य बच्चों का मन उकता जाता, लेकिन मासूम रजा कभी नहीं थकते थे। यहाँ इस तथ्य का उल्लेख कर देना आवश्यक है कि प्रेमचंद भी बचपन में तिलिस्मे होशरूबा के दीवाने थे। बाद में मासूम रज़ा द्वारा किये गये शोध कार्य 'तिलिस्मे होशरूबा में वहजती अनासिर' के प्रेरणा-स्रोत के रूप में उनके द्वारा बचपन में तिलिस्मे होशरूबा के किस्से को बार-बार सुनने की उत्कंठा को रेखांकित किया जा सकता है।
अलीगढ़ विश्वविद्यालय में प्रवेश से पहले मासूम रज़ा ने किसी भी शिक्षण-संस्थान से औपचारिक रूप में शिक्षा नहीं प्राप्त की। बीमारी के कारण टांगे पहले टेढ़ी हो चुकी थीं। डॉक्टरों ने निरंतर इलाज की सलाह दी थी, इसलिए प्राइवेट परीक्षाओं के द्वारा धीरे-धीरे शिक्षा का क्रम आगे बढ़ता रहा। साथ ही उनके लिए गाजीपुर में एक कोआपरेटिव स्टोर खुलवा दिया गया। पर अब तक उनके आगामी जीवन की भूमिका के रूप में साहित्य ने अपनी जड़ों के लिए जमीन तैयार कर ली थी, अतः दुकान में मन लगाना आसान कार्य नहीं था।
मासूम रज़ा की शादी के साथ जीवन में उथल-पुथल एवं परिवर्तनों का एक नया दौर प्रारंभ हुआ साहित्य का बीज मासूम रज़ा के मस्तिष्क में पहले ही अपना स्थान बना चुका था, लेकिन उनकी वैचारिक दृढ़ता को दिशा प्रदान करने में शादी एवं उससे उत्पन्न स्थितियों का महत्वपूर्ण योगदान है। उनकी शादी उत्तर प्रदेश के जिला फैजाबाद (वर्तमान में अंबेडकर नगर) की टांडा तहसील में स्थित गाँव कलापुर के एक खानदानी व्यक्ति, जो कि पेशे से पोस्ट मास्टर की पुत्री मेहरबानो से संपन्न हुई। मेहरबानों एक पारंपरिक रूढ़िवादी परिवार से आयी थी, रंग-रूप भी औसत था जबकि मासूम रज़ा का घर बहुत हद तक रूढ़ि-मुक्ति एवं आधुनिक विचार वाला था। घर के स्वच्छंद एवं स्वतंत्र वातावरण का अनुमान इस बात से ही लगाया जा सकता है कि उनके घर में बड़े भाई मूनिस रज़ा प्रगतिशील विचारधारा के समर्थक थे, तो पिता श्री बशीर हसन आब्दी कांग्रेसी थे।
कुछ साल तक मेहरबानो ने मासूम रज़ा के परिवार में अपना जीवन बड़ी कठिनाइयों के बीच व्यतीत किया। मासूम रज़ा के साथ ही उन्होंने प्राइवेट हाई स्कूल की परीक्षा पास की, पर उनको वहाँ फूटी आँख भी पसंद नहीं किया गया। सैयद जुहेर अहमद जैदी ने लिखा है कि, “एक सूत्र के अनुसार मासूम अत्यधिक क्रोध में आकर उस अबला को खूब पीटा करते थे।” संभवत्त: कम आयु में विवाह हो जाने, विकलांग होने और निरंतर बीमार रहने का प्रभाव उनके वैवाहिक जीवन पर पड़ा और आगे चलकर मासूम रज़ा का मेहरबानो से तलाक हो गया।
जीवन के छिट-पुट इन अंधेरे पक्षों एवं दुखद घटनाओं के अतिरिक्त उनके बचपन से ही, उनकी विरोधी प्रवृत्तियों का स्वर सकारात्मक रहा है। मासूम रजा पर बड़े भाई मूनिस रज़ा का बहुत प्रभाव था। यही कारण है कि मूनिस रजा के साथ-साथ मासूम रज़ा पर प्रगतिशील विचारधारा का गहरा प्रभाव पड़ा। फलस्वरूप उनकी विरोधी प्रकृति प्रगतिशील विचारधारा के माध्यम से समाज के निम्न वर्ग को स्वर प्रदान करती हुई साहित्य के माध्यम से मुखरित हुई।
मासूम रज़ा का बचपन विशिष्ट सामाजिक मान्यताओं, परंपराओं के बीच बीता, जहाँ सलाम और आदाब 'खालिस' (नस्लीय शुद्धता) पर आधारित था, परंतु इन रूढ़ियों को तोड़ने का प्रण मासूम ने जैसे बचपन से ही कर लिया था। धर्म और रोजी-रोटी के आपसी संबंधों की समझ संभवत: उन्हें बचपन से ही हो गयी थी। मासूम का बचपन जहाँ बीता वहाँ राकी, जुलाहों और सैयदों में अंतर तो था ही, उत्तर पट्टी के सैयदों में भी फर्क था। अहीर और चमारों की बस्तियाँ गाँव से दूर थी । मीर साहबानो के सामने सब निम्न थे, ऐसी दोनों पक्षों की धारणा थी कि मीर साहबानों के बच्चों को सख्त हिदायत थी कि नीचे समझे जाने वाले वर्ग के बच्चों के साथ खेलना तो क्या उनके साथ बातचीत भी नहीं करना चाहिए, परंतु मासूम ने कबड्डी का खेल उनके साथ खेलते हुए पहली बार इस परंपरा को क्रांतिकारी ढंग से तोड़ा।
सन् 1948 तक मासूम रजा 'राही' उपनाम से उर्दू शायरी में प्रवेश पा चुके थे। धीरे-धीरे उनकी प्रतिभा से डॉ० एजाज़ हुसैन जैसे विद्वान भी प्रभावित होने लगे। उनकी साहित्यिक गतिविधियों का क्षेत्र विस्तृत होने लगा। एक-एक करके डॉ. अजमल अजमली, श्री मुजाविर हुसैन (इब्ने सईद), श्री जमाल रिज़वी (शकील जमाली), मसूद अख्तर जमाल, खामोश गाजीपुरी, तेग इलाहाबादी, असरार जैसे नवोदित शायरों के साथ-साथ बलवंत सिंह और फिराक गोरखपुरी जैसे स्थापित लोगों से उनका संपर्क होने लगा। इन मिलने-जुलने वाले अधिकांश साहित्यकारों का रुझान प्रगतिशील विचारों के प्रति थी। राही मासूम रजा का प्रगतिशील विचारधारा से पहले ही संबंध था, फलत: इन लोगों के संपर्क में आने के पश्चात उनके विचारों को और अधिक बल प्राप्त हुआ। स्वाभाविक रूप से उनकी दृष्टि भी साफ हुई। सब लोगों ने डॉ. एजाज़ हुसैन के संरक्षण में मिलकर “नकहत' क्लब की स्थापना किया। इसके गोरखपुर में होने वाले पहले अधिवेशन के साथ ही नियमित रूप से राही ने इसकी गतिविधियों में हिस्सा लेना प्रारम्भ दिया था। पटना के सम्मेलन तक राही मंझ चुके थे। आजमगढ़ का सम्मेलन होते-होते उनकी शायरी प्रसिद्धि के शिखर को छूने लगी थी। इसी बीच कथा-साहित्य के क्षेत्र में उन्होंने उर्दू के उपन्यास 'मुहब्बत के सिवा' के साथ प्रवेश किया पर वो एक रोमानी उपन्यास साबित हुआ। शायरी के समानांतर मुहब्बत के सिवा की तर्ज पर उन्होंने बहुत सारे उपन्यासों की रचना की। उपन्यासकार के रूप में उन्होंने 'शाहिद अख्तर' नाम अपनाया।
राही का इलाहाबाद में प्रगतिशील साहित्यकार वर्ग से जुड़ना स्वाभाविक था, क्योंकि साम्यवादी विचारधारा का प्रभाव उन पर गाजीपुर में ही पड़ चुका था, परंतु गैर प्रगति वादियों से भी उन्हें कोई परहेज नहीं था। इलाहाबाद का तत्कालीन साहित्य संसार प्रतिवादियों के अतिरिक्त कांग्रेसी, महासभाई इत्यादि सभी विचारधारा के साहित्यकारों का गढ़ था। 'परिमल' नामक संस्था से बच्चन एवं धर्मवीर भारती इत्यादि हिंदी कवि सक्रिय थे। प्रत्येक विचारधारा के साहित्यकारों एवं संस्थाओं से संपर्क में आने के कारण उन्हें एक विस्तृत साहित्यिक फलक मिला, जहां उनकी प्रतिभा प्रस्फुटित हुई। 'हिंदोस्तां की मुकद्दस जीम, जैसे मेले में तन्हा हो नाजनी' नज़्म ने पहली बार उनकी इलाहाबाद के बाहर के साहित्यकारों के बीच प्रसिद्धि का कारण बनी।
डॉ० एजाज़ हुसैन के संपादकत्व में निकलने वाली पत्रिका “कारवाँ' में उनकी नज्में और लेख प्रकाशित होते रहे। 'फसाना' दिल्ली से प्रकाशित होती थी, उसमें भी राही का प्रकाशन लगभग नियमित था। राही मासूम रज़ा के तेवर बचपन से ही तेज़ थे, यही उनके साहित्यिक जीवन में स्पष्ट बयानी, दो टूक जवाब की प्रवृत्ति के रूप में और भी अधिक मुखरित हुई। राही मासूम रज़ा के जीवन का यह वह काल था जब भारत का विभाजन तो हो चुका था, लेकिन उसका प्रभाव अब तक था। सामाजिक विघटन, सांप्रदायिकता की सड़ांध अब भी वातावरण में बाकी थी। लेकिन इस विघटन और सड़ांध के प्रभाव से, गंगा की गोद में पल-बढ़ कर बढ़े हुए राही दूर रहे। फिर भी वे कहीं-न-कहीं से टूटने लगे थे। टूटने का कारण भी अपनों के बीच ही अजनबीपन का एहसास पैदा होना।
साहित्यिक गतिविधियों के बीच ही राही ने उर्दू में बी. ए. के समकक्ष परीक्षा पास कर ली थी। देश विभाजन के कारण डॉ. मुस्तफा, जिनके यहाँ वह रहते थे, भारत छोड़कर पाकिस्तान चले गये। फलस्वरूप राही का मन इलाहाबाद से उचाट हो गया। अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में उनके बड़े भाई मूनिस रजा और दो छोटे भाई पहले से ही थे। मूनिस रज़ा की प्रेरणा से उन्होंने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में एम. ए. उर्दू में प्रवेश ले लिया। एम. ए. में प्रवेश से पहले ही उनका “रक्से मय' 'मौजे सबा” “नया साल' 'अजनबी शहर अजनबी रास्ते' इत्यादि काव्य संग्रह उर्दू में प्रकाशित हो चुके थे। जिस काल में अलीगढ़ में राही मासूम रज़ा आये, वह समय अलीगढ़ की साहित्यिक गतिविधियों के लिए महत्वपूर्ण रहा है। अनेक लेखक एवं शायरों की गतिविधियों प्रगतिशील झंडे के तले सक्रिय थी। राही को यहाँ मार्ग ढूँढने में कोई कठिनाई नहीं हुई। दूसरी तरफ 'उर्दू-ए-मुअल्ला' नामक कैंप भी था जिसके संचालक आले अहमद सुरूर एवं शहाब जैसे साहित्यकार थे।
अलीगढ़ आने से पहले ही राही के पास अपना एक निश्चित दृष्टिकोण था। बचपन से ही उनके अंदर “ईगो' की भावना भी विद्यमान थी, यहाँ के वातावरण ने उसे और अधिक पहले पलने बढ़ने का अवसर प्रदान किया। इसलिए उन्हें अकेलेपन एवं लोगों से अलगाव का एहसास होता था। अलीगढ़ में राही द्वारा अपने से सबको कमतर समझने का कारण भी था। जब तक साहित्यकार में प्रतिस्पर्धा की भावना हो उसका साहित्य तभी तक जीवित रह सकता है, जब वह ऐसे नये सवाल लेकर आये जिसका जवाब दूसरे साहित्यकार के पास न हो और वे सवाल साहित्य को झिंझोड़ने की क्षमता रखते हों। राही भी नये तेवर और नये सवालों के साथ साहित्य को झिंझोड़ रहे थे। राही रास्ते की खोज में लग गये। भाषिक सीमाओं तो तोड़ती हुई राही की खोजी प्रवृत्ति, उन्हें कला के एक दूसरे क्षेत्र 'फिल्म' तक घसीट ले गयी।
फिल्मों के प्रति अनुराग राही के अंदर बचपन से ही था। अलीगढ़ में एम. ए. के बाद शोध-कार्य में लग गये, परंतु उनका बहुमुखी व्यक्तित्व सक्रिय रहा। साहित्यिक गतिविधियों के अतिरिक्त राही विश्वविद्यालय के नाट्य मंच से भी कुछ दिन तक जुड़े रहे। राही के द्वारा नाटक 'एक पैसे का सवाल है बाबा” भी उस जमाने में अत्यधिक चर्चित हुआ। अलीगढ़-प्रवास काल में ही उनका संपर्क प्रसिद्ध अभिनेता भारत भूषण के भाई रमेश चंद्र से रहा। उनके साथ राही सन् 1963 में बंबई भी जा चुके थे। राही के फिल्मों के प्रति लगाव की पृष्ठभूमि के रूप में उनकी रंगमंचीय सक्रियता एवं रमेश चंद्र के संर्पक ने कार्य किया। दूसरी तरफ उनके निजी जीवन की उथल-पुथल ने भी उन्हें फिल्मों की तरफ जाने के लिए मजबूर कर दिया।
अलीगढ़ में राही को एक शायर के रूप में लोकप्रियता तो मिल ही चुकी थी किन्तु आधा गांव की लोकप्रियता ने उनके जीवन में एक नयी हलचल उत्पन्न कर दी। यह उपन्यास नागरी लिपि में प्रकाशित हुआ था। पहले के उपन्यास के लिए अपनाये गये नाम 'शाहिद अख्तर' को छोड़कर इस उपन्यास पर लेखक के नाम के स्थान 'राही' मासूम रजा लिखा गया। इसकी रचना 1964 ई0 में हुई। शोध समाप्त करने के बाद राही उर्दू विभाग में प्रवक्ता हो गये। कुछ ही दिनों बाद संपर्क एक अन्य महिला श्रीमती नैयर से हो गया। दोनों लोगों ने दिल्ली जाकर शादी कर ली। इस विवाह के कारण ही उनकी नौकरी छूट गई। उनके स्थान पर एक अन्य शोधार्थी अतीक अहमद सिद्दीकी की नियुक्ति कर दी गयी। राही का दिल टूट गया। दिल्ली में उन्हें आकाशवाणी से नौकरी का निमंत्रण मिला। लेकिन उन्होंने आकाशवाणी की नौकरी अस्वीकार करके, बंबई जाकर सिनेमा-संसार में भाग्य आजमाने का निर्णय किया। सन् 1968 से राही बम्बई रहने लगे थे। वह अपनी साहित्यिक गतिविधियों के साथ-साथ फिल्मों के लिए भी लिखते थे, जिससे उनकी जीविका की समस्या हल होती थी। राही अपने सांप्रदायिकता-विरोध तथा धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रीय दृष्टिकोण के कारण वहाँ अत्यंत लोकप्रिय हो गए। बंबई रहकर उन्होंने 300 फिल्मों की पटकथा और संवाद लिखे तथा दूरदर्शन के लिए 100 से अधिक धारावाहिक लिखे, जिनमें 'महाभारत” और “नीम का पेड़" अविस्मरणीय हैं। राही ने प्रसिद्ध टीवी सीरियल 'महाभारत' की स्क्रिप्ट भी लिखी। सन् 1977 में आलाप', 1979 में “गोलमाल', 1980 में 'हम पाँच', 'जुदाई' और 'कर्ज', 1991 में 'लम्हें' तथा 1992 में 'परंपरा' आदि फिल्मों के संवाद उल्लेखनीय हैं। इसके अतिरिक्त है सन् 1979 में 'मैं तुलसी तेरे आँगन की' फिल्म के लिए राही को बॉलीवुड का प्रतिष्ठित फिल्म फेयर बेस्ट डायलाग अवार्ड भी मिला। बंबई में रहते हुए राही लगातार विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में छिटपुट तथा नियमित स्तंभ भी लिखा करते थे, जो व्यक्ति, राष्ट्रीयता, भारतीय संस्कृति और समाज, धार्मिकता तथा मीडिया के विभिन्न आयामों पर केंद्रित रही। अपने समय में राही भारतीय साहित्य और संस्कृति के एक अप्रतिम प्रतिनिधि हैं। उनका पूरा साहित्य हिंदुस्तान की साझा विरासत का तथा भारत की राष्ट्रीय एकता का प्रबल समर्थक है। बंबई फिल्मी जीवन के संघर्ष में लगे राही के अंदर का साहित्यकार संघर्ष करता हुआ साहित्य-यात्रा के अनेक पड़ावों को तय करता रहा। 5 मार्च सन् 1992 में बंबई में ही राही ने इस नश्वर संसार से आखिरी विदाई ली।
कृतित्व - राही ने साहित्य में कदम 1945 में रखा। तब उन्होंने विधिवत उर्दू में शायरी आरंभ की। 1966 तक आते उनके 4 काव्य-संग्रह प्रकाशित हो चुके थे- 'नया साल', 'मौजे गुल, मौजे सबा, 'रक़्से मय', 'अजनबी शहर अजनबी रास्ते' । बाद में 'शीशे के मकांवाले' तथा 'मैं एक फेरीवाला' दो काव्य-संग्रह और प्रकाशित हुए। 1857 पर लिखा उनका एक महाकाव्य 'क्रांति-कथा : 1857' हिंदी-उर्दू दोनों में प्रकाशित है। सन् 1966 में गाजीपुर के परमवीर चक्र विजेता शहीद अब्दुल हमीद पर उनकी जीवनी 'छोटे आदमी की बड़ी कहानी' प्रकाशित हुआ। उनका अंतिम काव्य-संग्रह 'ग़रीबे शहर' सन् 1993 में प्रकाशित हुआ।
सन् 1964 ई0 में जब राही मासूम रज़ा अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के उर्दू प्रवक्ता पद के लिए तत्कालीन परिस्थितियों के अनुरूप अयोग्य ठहराये गये, तो राही के भीतर का रचनाकार साहित्यिक तलवार लेकर बीच चौराहे पर खड़ा हो गया और ऐसा प्रतीत हुआ कि यह रचनाकार उर्दू साहित्य के महंतों के ही रक्त का प्यासा नहीं है, बल्कि उर्दू की विशिष्ट सामंती मानसिकता को भी सिरे से कत्ल कर देना चाहता है। उसकी आक्रोश पूर्ण दृष्टि अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय, उर्दू और मुस्लिम समाज की ज़मींदारी मनोवृत्ति के विरुद्ध सशक्त मोर्चा बनाने के लिए उसे तत्पर हुई। राही का प्रथम उपन्यास आधा गांव इसी आक्रोश के नतीजे में हिंदी में लिखा गया। वैसे तो राही के पास उर्दू कविता का सशक्त माध्यम था, किंतु कविता के पाठक सीमित थे, फिर कविता का फलक राही के आक्रोश को व्यक्त करने के लिए पर्याप्त नहीं था।
आधा गाँव' का रचना काल सन् 1964 ई0 के आस-पास का है। इस समय तक राही को हिंदी लिखने का ठीक-ठाक अभ्यास नहीं था। राही ने अपने दृढ़ संकल्प और लगन से न केवल हिंदी सीखी, बल्कि हिंदी में निरंतर लिखने का निश्चय कर लिया। उनके भीतर की आत्मा ने उनके इस निर्णय को अद्भुत शक्ति प्रदान की। इसी अद्भुत निर्णय का परिणाम था- आधा गाँव'। महाभारत जैसे अत्यंत लोकप्रिय टी. वी. सीरियल के पटकथा और संवाद लिखकर भी राही को अपार सफलता मिली। आधा गाँव' के बाद राही की अन्य उपन्यासिक कृतियाँ कालक्रम के अनुसार इस प्रकार आती हैं- 'टोपी शुक्ला (1968), हिम्मत जौनपुरी' 1969), ओस की बूंद” (1970), 'दिल का सादा काग्रज' (1973), 'सीन 75' (1977), 'कटरा बी आर्जू' 1978), 'असंतोष के दिन' (1986), तथा “नीम का पेड़' ।
राही की मृत्यु के बाद उनके मित्र और साथी तथा हिंदी के सुप्रसिद्ध मार्क्सवादी समीक्षक प्रो. कुँवर पाल सिंह ने उनकी अप्रकाशित रचनाओं को छह पुस्तकों में संपादित करके प्रकाशित कराया है। पुस्तकों के नाम इस प्रकार हैं- 'क्रांति कथा : 1857', “लगता है बेकार गये हम”, 'खुदा हाफिज कहने का मोड़', 'सिनेमा, समाज और संस्कृति', 'राही का रचना संसार' तथा राही मासूम रजा से दोस्ती'। अभिनव कृदम' पत्रिका ने भी राही विशेषांक नवंबर 2001-अक्टूबर 2002 निकाला, जिसमें राही के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर पर्याप्त सामग्री है। इन सभी संपादित पुस्तकों में विभिन्न विषयों पर लेख, भाषण, संस्मरण और पत्र संकलित हैं।
Kshatriy Rajput Thakur Whatsapp Facebook Logo & HD Wallpaper Download
माधवराव सदाशिव गोलवलकर का चिंतन सर्वदा राष्ट्र, समाज एवं ग्रंथों पर चलता रहता था। इससे चिंतन में एक दिन उनके मन में विचार आया कि साहित्य के क्षेत्र में कार्य प्रारम्भ करना चाहिए, जिससे ग्रंथों का संरक्षण किया जा सके। दूसरी ओर साहित्य में दो कमियाँ थी, भारतीय संस्कृति की श्रेष्ठता को नकारना व सभी भारतीय भाषाओं का एक साझा मंच नहीं था। इन कारणों को देखते हुए सुप्रसिद्ध साहित्यकार जैनेन्द्र जी के साथ मिलकर, 1966 में ‘अखिल भारतीय साहित्य परिषद’ की स्थापना की गई।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख हिन्दी साहित्यकारों के विकास के लिए प्रचार माध्यम की व्यवस्था, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वारा की गई। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का उद्देश्य यह है कि व्यक्ति का चरित्र-निर्माण और समाज का संगठन तथा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ परिवार को सारे समाज में पहुँचाना, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का कार्य है। इस कार्य का प्रमुख साधन है स्वयंसेवक, जो व्यक्तिगत सम्पर्क और बंधुभाव का विस्तार करते हुए यह कार्य सम्पन्न करता है। फिर भी इसमें उसकी सहायता के लिए जनसंचार माध्यमों और लिखित साहित्य की भी अपनी उपयोगिता है। अतएव 1947 में कुछ स्वयंसेवकों ने दिल्ली में ‘भारत प्रकाशन’ नामक संस्था स्थापित कर ‘ऑर्गेनाइजर’ साप्ताहिक पत्र प्रारंभ किया। फिर ‘पाञ्चजन्य’ साप्ताहिक और ‘राष्ट्र धर्म’ मासिक (लखनऊ) का प्रकाशन प्रारम्भ हुआ। बाद के वर्षों में विभिन्न प्रान्तों से ‘मदरलैण्ड’, ‘स्वदेश’, ‘युगधर्म’, ‘तरुण भारत’ इत्यादि दैनिक समाचार-पत्र तथा कुछ पत्रिकाएँ भी प्रकाशित होने लगी। अनेक वर्षों तक ‘हिन्दुस्तान’ नामक समाचार अभिकरण भी चलाया गया। कतिपय कारणों से व्यवधान के उपरान्त अब पुनः कार्यरत है। वर्तमान में आधुनिक सूचना-माध्यमों से युक्त विश्व संवाद केन्द्र भी अनेक स्थानों पर स्थापित किये गये हैं।पुस्तक रूप में राष्ट्रवादी साहित्य के प्रकाशन हेतु दिल्ली में सुरुचि प्रकाशन, लखनऊ में लोकहित प्रकाशन, जयपुर में ज्ञानगंगा प्रकाशन, भोपाल में अर्चना प्रकाशन, मुम्बई, नागपुर, पूणे में भारतीय विचार साधना, विजयवाड़ा में साहित्य निकेतन, कुरुक्षेत्र में विद्याभारती प्रकाशन व जालन्धर में अपना साहित्य इत्यादि संस्थाओं की स्थापना की गयी। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख हिन्दी साहित्यकारों का परिचय इस प्रकार हैः-
1. डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार - राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की नींव रखने के कारण राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में अनेक भाषण, संवाद के माध्यम से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विचारों को आगे बढ़ाया। आपकी पुस्तक ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ तत्व और व्यवहार में आपने हिन्दुओं का भविष्य, संगठन व स्वयंसेवकों के गुणों को बड़े ही प्रभावशाली लेखों के माध्यम से प्रस्तुत किया है। यह लेख सुरुचि प्रकाशन के द्वारा संकलित है।
2. माधवराव सदाशिव राव गोलवलकर - राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख साहित्यकारों में इनका नाम लिया जाता है, इन्हें श्री गुरुजी के नाम से लोग अधिक जानते हैं। श्री गुरुजी की पुस्तक ‘विचार नवनीत’ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का आधार कही जा सकती है। इसमें अनेक लेखक व भाषणों का संग्रह है। इसमें उन्होंने राष्ट्र, संस्कृति, सांस्कृतिक राष्ट्रवाद, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का परिचय अधिकतर सभी विषयों से ये हमें परिचित कराते हैं। इनकी दूसरी पुस्तक ‘गुरु दक्षिणा’ में इन्होंने गुरु, दक्षिणा, यज्ञ, गुरुपूर्णिमा के विषयों को बड़े ही अच्छे ढंग से स्पष्ट किया है। संस्कृतनिष्ठ शब्दावली का प्रयोग इनकी पुस्तक में देखने को मिलता है।
3. श्री चन्द्रशेखर परमानन्द भिशीकर - श्री चन्द्रशेखर परमानन्द जी मूलतः नागपुर निवासी है। दैनिक ‘तरुण भारत’ का सम्पादन 1949 में किया। इसी की एक शाखा पुणे में खुल गई वहाँ पर आपने कार्यकारी सम्पादन किया। आगे चलकर 1964 से 1978 में आप ‘तरुण भारत’ के मुख्य संपादक रहे। विगत लगभग 12 वर्षों से वे रविवार के तरुण भारत में चिंतनशील साहित्यिक स्तम्भ लिखते रहे हैं। आप ने दो ग्रंथ ‘केशवः राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ निर्माता’ और ‘श्री गुरुजी’, ‘पं. दीनदयाल उपाध्याय के विचार दर्शनः राष्ट्र की अवधारणा’ एक से अधिक भाषाओं में प्रकाशित हुई है। ‘डॉ. हेडगेवार परिचय एवं व्यक्तित्व’ पुस्तक में भी आपने डॉ. हेडगेवार के व्यक्तित्व को बड़े ही प्रभावशाली ढंग से दिखाया है। आपके विचारों में आध्यात्मिकता देखने को मिलता है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघप्रणीत जनकल्याण-समिति के आप प्रांतीय उपाध्यक्ष है।
4. पंडित दीनदयाल उपाध्याय - पंडित दीनदयाल उपाध्याय का जन्म 25 सितम्बर 1916 में एक गरीब परिवार में प्रसिद्ध ज्योतिषी पं. हरिराम उपाध्याय के वंश में उत्तर प्रदेश के मथुरा जिले में, नाग्ला चन्द्रभान ग्राम में हुआ। स्वयंसेवक, वक्ता, लेखक, पत्रकार, 1951 के बाद राजनीतिज्ञ साथ में चिंतक। जीवन भर देश, जनता और उसकी समस्या इन्ही चिन्ता में मग्न। आजन्म ब्रह्मचारी, स्नेहशील विनोदप्रिय व्यक्ति थे। उनकी रचनाएँ- ‘पोलिटिकल डायरी’, ‘राष्ट्र जीवन की दिशा’, ‘जगद्गुरु शंकराचार्य’, लघु उपन्यास (मात्र 16 घण्टे में रचित)- ‘चन्द्रगुप्त मौर्य’ आदि हैं। दीनदयाल जी की भाषा सरल व स्पष्ट थी। यह भी संस्कृतनिष्ठ भाषा के पक्षधर थे। इन्होंने हर समसामायिक परिस्थितियों के अनुसार लेख भी ‘आर्गनाईजर’ में लिखे हैं, जिनका संकलन ‘पोलिटिकल डायरी’ में है। राष्ट्र को दिशा देने के, राष्ट्र, राज्य, व्यक्ति व समाज जैसे विषयों को उन्होंने ‘राष्ट्र जीवन की दिशा’ में स्पष्ट किया है। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का स्वरूप भी स्पष्ट किया है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में प्रमुख साहित्यकारों में से इनका नाम बड़े ही आदर के साथ लिया जाता है।
5. श्री दत्तोपंत बालकृष्ण ठेंगड़ी - राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्कारों तथा स्वर्गीय श्री गुरुजी के निकट सहवास से जिस गुण समृद्ध नेतृत्व का अनेक क्षेत्रों में निर्णय हुआ, उनमें श्री दत्तोपंत बालकृष्ण ठेंगड़ी का उल्लेख प्रमुखता से करना होगा कुशाग्र मेधा के अध्ययनशील तत्वचिन्तक, कुशल संगठन और राष्ट्र समर्पित जीवन के तपस्वी थे। श्री ठेंगड़ी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के आजीवन प्रचारक थे। संगठन के कार्य को, उलझाये रखने वाले दायित्व संभालते हुए भी ठेंगड़ी ने सैद्धान्तिक लेखन पर्याप्त मात्रा में किया है। उन्होंने अपने गं्रथ ‘दत्तोपंत बापूराव ठेंगड़ी के विचार दर्शन’ व ‘पं. दीनदयाल उपाध्याय विचार दर्शनः तत्व जिज्ञासा’ में दीनदयाल के दार्शनिक विचारों को, पाठकों तक सम्प्रेषित करने में सफल हुए हैं। जिसका अनुभव पाठक कर सकते हैं।
6. श्री भालचंद्र कृष्णा जी केलकर - सिद्धस्त पत्रकार, लेखक तथा दिल्ली में ‘महाराष्ट्र परिचय केंद्र’ के संस्थापक-संचालक श्री भालचंद्र कृष्ण जी केलकर ने ‘नवशक्ति’, ‘विवेक’, ‘तरुण भारत’ आदि पत्र-पत्रिकाओं में भरपूर लेखन किया है। 1983 में सरकारी सेवा से निवृत्त हो गये थे व स्वतंत्र लेखन शुरू किया है। इनकी रचनाएँ ‘सुभाष चरित्र’, ‘तिलक विचार’, ‘समाज-सुधारक सावरकर’, ‘सावरकर दर्शन’ व ‘पं. दीनदयाल उपाध्याय विचार दर्शनः राजनीतिक चिन्तन’ आदि लिखे हैं। दीनदयाल जी का राजनीतिक दृष्टिकोण, उनके अनुभव के साथ लिखा है जो पाठकों को पढ़ने के लिए आकर्षित करता है।
7. डॉ. जागेश्वर पटेल - डॉ. जागेश्वर पटेल का जन्म मध्य प्रदेश के बालाघाट जिले में बैहर तहसील के चीनी ग्राम में 25 जून, 1977 को हुआ। इन्होंने ‘माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर’ के राजनीति चिन्तन पर पी.एच-डी. की। 1999 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक बने। आप विभिन्न अकादमिक संस्थाओं के आजीवन सदस्य हैं एवं लेखन कार्य में सतत् संलग्न है। इनकी रचनाएँ हैं- ‘श्री गुरुजी-एक राष्ट्रवादी संगठक’, ‘श्री गुरुजी एक बहुआयामी व्यक्तित्व’ है, जिसमें इन्हेांने ‘श्री गुरुजी’ के व्यक्तित्व, दर्शन, उनके दृष्टिकोण को उदाहरणों सहित अपनी पुस्तक में प्रस्तुत किया है। ‘श्री गुरुजी’ को जानने के लिए यह पुस्तकें बहुत उपयोगी हैं।
8. श्री आनन्द आदीश - उत्तर प्रदेश के जिला मेरठ अन्तर्गत ग्राम खेकड़ा के संभ्रान्त, सुशिक्षित, समाजसेवी, जमींदार, वैष्णव परिवार में इनका जन्म हुआ। हिन्दी, अंग्रेजी में स्नातकोत्तर तक शिक्षा प्राप्त की। आप पूर्व प्राचार्य, निदेशक, ब्यूरो आॅफ टैक्स्ट बुक्स, हिन्दी अकादमी के सदस्य व अखिल भारतीय साहित्य परिषद के राष्ट्रीय महासचिव पद पर कार्य किया। आप का काव्य संकलन ‘‘राष्ट्र-मंत्र के हे उद्गाता!’’ में आपने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के जन्म, विचारधारा व केशव जी का जन्म का वर्णन प्रभावशाली व आकर्षक ढंग से किया है।
9. डॉ. कृष्ण कुमार बवेजा - 24 सितम्बर, 1949 में सोनीपत, हरियाणा में डॉ. कृष्ण कुमार बवेजा जी का जन्म हुआ। पिता का नाम श्री हिम्मत राम बवेजा व माता का नाम भागवंती देवी जी था। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्कार घर से ही मिले। गणित विषय में आपने पी.एच.-डी. की थी। हिन्दू कॉलेज, रोहतक में आप प्राध्यापक थे। उसके बाद आप प्रचारक बने। आपातकाल में आपको जेल भी भेजा गया, जहां पर आपको भीषण यातनाएं दी गयीं। पंजाब प्रांत में बौद्धिक प्रमुख, दिल्ली में सह प्रान्त प्रचारक, हरियाणा के प्रान्त प्रचारक व अनेक वर्षों तक उत्तर क्षेत्र के बौद्धिक प्रमुख भी रहे। इनकी पुस्तक ‘‘श्री गुरुजी व्यक्तित्व एवं कृतित्व’’ इन्होंने गुरुजी के जन्म शताब्दी के वर्ष में इस पुस्तक की रचना करके राष्ट्रीय स्तर के साहित्य में सहयोग किया। इस पुस्तक में गुरु जी की अनेक विचारधारा का वर्णन लेखक ने किया है।
10. श्री रूप सिंह भील - श्री रूप सिंह भील का जन्म 12 जुलाई 1934 को राजस्थान के उदयपुर जिले के खैरवाड़ा तहसील के बनवासी गाँव विलख में हुआ। ‘राजस्थान में भूमि सुधार’ में आदिवासियों के अधिकार और वननीति संबंधी इनका लेख सम्मिलित है। सन् 1996 में काॅमनवेल्थ ह्यूमन राइट्स एण्ड माइनोरिटी ग्रुप द्वारा नई दिल्ली में आयोजित जनजाति व आदिम जातियों के अधिकार विषयक कार्यशाला में अपना प्रपत्र प्रस्तुत किया, जो संगठन द्वारा प्रकाशित पुस्तक में सम्मिलित है। जनजाति व अंग्रेजी शासन पर रचित उनकी पुस्तक ‘‘अंग्रेजी शासन में सामग्री शोषण एवं जनजातिय भगत आन्दोलन’’ एक सराहनीय पुस्तक है। 1998 में इन्हें जनजाति समाज की उल्लेखनीय सेवा के लिए ‘महाराणा मेवाड़ फाउन्डेशन का राणा पूजा अवार्ड से नवाजा गया।
11. श्री शरद अनन्त कुलकर्णी - महाराष्ट्र प्रान्त में जलगाँव के निवासी श्री शरद अनंत कुलकर्णी आर्थिक विषयों के अध्येता और अधिकारी लेखक है। बाल्यावस्था से ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक रहते हुए अनेक वर्षों तक उन्होंने जिला कार्यवाह का दायित्व संभाला। आपकी पुस्तक ‘पंडित दीनदयाल उपाध्याय विचार दर्शन एकात्मक अर्थनीति’ दीनदयाल जी के आर्थिक दृष्टिकोण को समझने सहायक पुस्तक है।
12. श्री विश्वनाथ नारायण देवधर - श्री देवधर जी, आरम्भ से ही पत्रकार थे। इन्होंने ‘दैनिक भारत’ तथा केसरी से शुरुआत की थी। 1978 से 1984 तक पुणे के ‘तरुण भारत’ के मुख्य संपादक रहे। सटीकता, स्नेहपूर्ण स्वभाव, उत्तम व्यक्तित्व, राष्ट्रवादी विचारों का ठोस अधिष्ठान आदि गुणों एवं आकर्षक लेखन शैली के कारण आपने उल्लेखनीय प्रभाव अर्जित किया है। आप के द्वारा रचित पुस्तक ‘पंडित दीनदयाल उपाध्याय विचार दर्शन व्यक्ति दर्शन’ एक सराहनीय पुस्तक है, जिसमें आपने अनेक लोगों से भेंट कर, विविध स्मृतियों के रूप में पं. दीनदयाल जी का उत्कृष्ट व्यक्ति दर्शन कराया है।
13. श्री बलवंत नारायण जोग - मुम्बई, के रहने वाले श्री बलवंत जोग, पत्रकारिता से जुड़े हुए थे। ‘विवेक’ साप्ताहिक पत्रिका के सम्पादक के रूप में आपने काम किया। आपने मुस्लिम समस्या का गहन अध्ययन किया है, जिस पर ‘भारत का यक्ष-प्रश्न’ शीर्षक से पुस्तक भी लिखी। आपके द्वारा रचित ‘पं. दीनदयाल उपाध्याय विचार दर्शन राजनीति राष्ट्र के लिए’ में दीनदयाल जनसंघ में क्यों गये, राजनीति, राष्ट्र के लिए ऐसे विषयों पर दीनदयाल के अनुभव हमारे साथ बाटें। जिससे दीनदयाल को जानने में सहायता मिलती है।
14. विजय कुमार गुप्ता - विजय कुमार गुप्ता का जन्म 1937 में उत्तर प्रदेश में हुआ। बाल्यावस्था में ही 1946 में आपका राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में प्रवेश हुआ। मा. भाऊराव देवरस व दीनदयाल जी के सम्पर्क से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ समझ आया। स्नातक, बरेली काॅलेज से पास की। अगस्त 1961 में आप ‘टाइम्स आॅफ इंडिया’ से जुड़ गये। आजकल आप सुरुचि प्रकाशन से जुड़़े हैं। आपको लिखने की प्रेरणा मा. राजपाल वासन जी ने दी। आपके द्वारा रचित पुस्तक ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ प्रार्थना’, ‘भारत की महान् क्रान्तिकारी महिलाएँ’ दोनों ही सराहनीय पुस्तक है। ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ प्रार्थना’ में आपने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की प्रार्थना की व्याख्या, उच्चारण के नियम बड़े ही अच्छे ढंग से स्पष्ट किये हैं। ‘भारत की महान् क्रान्तिकारी महिलाएँ’ में आपने भारत की 36 नारियों की वीरता का वर्णन ओजमयी व प्रभावशाली ढंग से किया है।
15. सिद्धार्थ शंकर गौतम - 2 फरवरी, 1986 में महरौनी, जिला ललितपुर उत्तर प्रदेश में सिद्धार्थ शंकर गौतम का जन्म हुआ। आपने एम.ए. जन संचार तक शिक्षा ग्रहण की है। आप पत्रकारिता से जुड़े हुए हैं। वर्तमान में आप ‘नई दुनिया’ से सम्बद्ध हो। गौतम जी की पुस्तक है- ‘वैचारिक द्वन्द्व’, ‘लोकतन्त्र का प्रधानसेवक’ व ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ राष्ट्र भावना का जागृत प्रहरी’। इस पुस्तक में इन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रति लोगों की गलत सोच पर कटाक्ष करते हुए उनका सही उत्तर देने की कोशिश की है।
16. सुरेश सोनी - गुजरात प्रान्त के सुरेन्द्र नगर जिला स्थित चूड़ा गाँव में एक सामान्य परिवार में जन्मे श्री सुरेश सोनी 16 वर्ष की आयु में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सम्पर्क में आये 1973 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक बने। आपातकालीन की परिस्थितियों का सामना किया व प्रताड़ना का शिकार भी हुआ। मध्य भारत प्रान्त प्रचारक व अखिल भारतीय भी हुआ। मध्य भारत प्रान्त प्रचारक व अखिल भारतीय सह प्रचार प्रमुख भी रहे। इनकी रचनाएँ हैं- ‘भारत में विज्ञान की उज्ज्वल परम्परा’, ‘हमारी सांस्कृतिक विचारधारा के मूल स्त्रोत’, ‘भारत-अतीत वर्तमान और भविष्य’ ‘गुरुत्व याने हिन्दुत्व।’ इसमें इन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में गुरु का क्या महत्व है, उसे स्पष्ट किया है। ‘हिन्दुत्व सामाजिक समरसता’ में इन्होंने जैन, बौद्ध और सिक्ख धर्मों के मूल चिन्तन के बारे में बड़े ही अच्छे ढंग से स्पष्ट किया है।
17. डॉ. मोहनराव भागवत - वर्तमान सरसंघचालक मोहन भागवत जी जो आज राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को मार्गदर्शन कर रहे हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में समय-समय पर अपने विचारों की प्रस्तुति देते रहते हैं, जैसे राष्ट्र निर्माण में युवाओं की भूमिका, संगठित हिन्दू समर्थ भारत, समन्वय संकल्पना, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का आह्वान जगे राष्ट्र-पुरुषार्थ, इनका संकलन सुरुचि प्रकाशन ने किया है। ‘हिन्दुत्व हिन्दू राष्ट्र’, हिंदुत्व सामाजिक समरसता’ दो भागों में ‘हिंदुत्व’ नाम से स्वयंसेवकों के उपयोग के लिये लिखी है, जिसमें हिंदुत्व की अवधारणा को समझने में सहायता मिलती है।
18. डॉ. हरिश्चन्द्र बड़थ्वाल - डॉ. हरिश्चन्द्र बड़थ्वाल ने ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ एक परिचय’ में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का परिचय, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के समाज में भूमिका, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की संगठन का वर्णन स्पष्ट किया है।
इन साहित्यकारों के अतिरिक्त संघ के अनेकों साहित्यकार है जिन्होंने हिन्दी में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ केे विचारों को प्रस्तुत किया है, उनमें नरेंद्र ठाकुर, डॉ. बजरंग लाल गुप्ता, श्री सुभाष सरवटे, मा.गो. वैद्य, हो.वे. शेषाद्रि, एकनाथ रानडे, उमाकान्त केशव आप्टे, विनोद बजाज, यशवंत गोपाल भावे, दामोदर शाण्डिल्य, मोहनलाल रुस्तगी, प्रशांत बाजपेई, अमरनाथ डोगरा, कुप. सी. सुदर्शन, प्रो. राजेन्द्र सिंह, बालासाहब देवरस जी, स्वामी विज्ञानानंद, कुलदीप चन्द अग्निहोत्री, डॉ. के.वी. पालीवाल, लक्ष्मण श्रीकृष्ण भिड़े, महामहोपाध्याय बाल शास्त्री हरदास, अनिल कुमार, श्री सुरेश जोशी, डॉ. कृष्ण गोपाल, आशा धानकी, लज्जाराम तोमर आदि है, जिनके कारण आज समाज में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का स्वरूप स्पष्ट हो सका है। इन व्यक्तिगत साहित्यकारों के अतिरिक्त सुरुचि प्रकाशन, शरद प्रकाशन, विद्या भारतीय प्रकाशन, ज्ञान गंगा प्रकाशन आदि भी व्यक्तिगत रूप से अपनी पुस्तकों का निर्माण करते रहते हैं, जिससे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विचारों का विकास हो सके। पत्रिकाओं का योगदान भी बराबर है, जैसे- ‘पान्चजन्य’, ‘म्हारा देश-म्हारी माटी’, ‘सेवा साधना’ आदि।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ एक सांस्कृतिक संगठन है, न कि राजनीतिक। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ समाज में फैल रही कुरीतियों के खिलाफ खड़ा एक संगठन है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ आज विश्व का सबसे बड़ा स्वयंसेवी संगठन है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का वर्तमान स्वरूप अर्थात् शुन्य से विराट स्वरूप तक पहुँचने का एकमात्र कारण ‘संगठन का स्वरूप है। इस व्यवस्था का स्वरूप अन्य संगठनों के प्रचलित स्वरूप से भिन्न अर्थात् ‘पारिवारिक’ है। परिवार संविधान के आधार पर नहीं अपितु परम्परा, कर्तव्य पालन, त्याग, सभी के कल्याण-विकास की कामना व सामूहिक पहचान के आधार पर चलता है। परिवार के हित में अपने हित का सहज त्याग तथा परिवार के लिये अधिक से अधिक देने का स्वभाव व परस्पर आत्मीयता ही ‘परिवार’ का आधार है। डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की आधार शिला ही एक पारिवारिक ढंग से की है। यहाँ सब मिल कर रहते हैं। कोई जाति-पाति का यहाँ भेद नहीं है। सारे कार्यक्रम व्यवस्थित ढंग से चलते हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखा में स्वयंसेवकों को प्रतिज्ञा, प्रार्थना, यज्ञ, एकात्म मंत्रों का उच्चारण आदि कराया जाता है, जिससे स्वयंसेवकों को भारत की संस्कृति की रक्षा करने का अपना कर्तव्य याद रहता है।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने देश को आजाद कराने में भी अपनी अहम भूमिका निभाई है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की प्रतिज्ञा में भी देश को आजाद कराने की बात कही गयी है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्राकृतिक आपदाओं में भी सहायता कर यह दिखा दिया है कि वह राष्ट्र जीवन के हर क्षेत्र में सहायता करने का अग्रसर रहेगा। कश्मीर की समस्या हो या आतंकवाद की, हर समस्या में वह राष्ट्र के साथ खड़ा है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने हिन्दू संस्कृति की रक्षा करने का अपना उद्देश्य पूरा करने के लिए भी ‘विश्व हिन्दू परिषद’ की भी स्थापना की। भैय्या जोशी ने भी सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की धारणा को स्पष्ट करने के लिए संगोष्ठी की। मोहन भागवत जी भी हिन्दू धर्म की रक्षा करने में सदा अग्रसर रहे हैं। श्री गुरुजी, बाला साहब देवरस, सुदर्शन जी, रज्जू भैया जी ने भी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की विचारधारा को आगे बढ़ाया है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि हिन्दी साहित्यकारों ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की संकल्पना को इतने अच्छे ढंग से स्पष्ट किया है कि पाठक उसे पढ़कर एक बार सोचने पर विवश अवश्य हो जाता है। हिन्दी साहित्य में ऐसे ही साहित्यकारों की आवश्यकता अधिक है, जिनके साहित्य को पढ़कर पाठकों के अन्दर सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की भावना पैदा हो और देश के प्रति कुछ कर गुजरने की चाह। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के साहित्यकार अपने इसी दृष्टिकोण के विकास में अग्रसर हो रहे हैं और आगे भी होते रहेंगे।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ एक देश व्यापी सामाजिक, सांस्कृतिक संगठन है। देश भर में सभी राज्यों के सभी जिलों में 58967 हजार से शाखाओं के माध्यम से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का कार्य चल रहा है। प्रत्येक समाज में देशभक्त, अनुशासित, चरित्रवान और निस्वार्थ भाव से काम करने वाले लोगों की आवश्यकता रहती है। ऐसे लोगों को तैयार करने का, उनको संगठित करने का काम राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ करता है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ समाज में एक संगठन न बनकर सम्पूर्ण समाज को ही संगठित करने का प्रयास करता है।
हमारे सामाजिक जीवन में अनेक सामाजिक, सांस्कृतिक, ऐतिहासिक एवं राष्ट्रीय महत्व के प्रसंगों से हमारा समाज अनुप्राणित होता है। प. पू. डाॅक्टर जी ने समाज में जिन गुणों की आवश्यकता अनुभव की उन्हीं के अनुरूप उत्सवों की योजना की। प्रत्येक उत्सव किसी विशेष गुण की ओर इंगित करता है। यथा गुरु पूर्णिमा आत्म निवेदन एवं समर्पण भाव, रक्षाबन्धन के द्वारा समरसता एवं समानता का प्रकटीकरण, विजयादशमी, वर्ष प्रतिपदा एवं हिन्दु साम्राज्य दिवस के द्वारा विजीगीषु वृत्ति, पुरुषार्थ, राष्ट्र भाव एवं आत्म गौरव वृत्ति जागरण, पराभूत मानसिकता में परिवर्तन एवं मकर संक्रान्ति द्वारा सही दिशा में सम्यक क्रांति एवं संगठन का भाव निर्माण करना। उत्सवों के माध्यम से आत्म केन्द्रित स्वभाव बदलकर सामाजिक बोध का जागरण करना है।
उत्सवों के माध्यम से कार्यकर्ताओं को पास से देखने व समझने का मौका मिलता है। वह समाज में एक अच्छा संदेश राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को लेकर जाता है, जिससे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में नये व्यक्तियों को संगठन से जोड़ने का स्वर्णिम अवसर मिल जाता है। उत्सव को मनाने के लिए, सादगी ढंग से तैयारी की जाती है। सभी स्वयंसेवकों की भी उचित व्यवस्था की जाती है। समाज को ही संगठित करने का प्रयास में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में छः उत्सव प्रमुख रूप में वर्ष प्रतिपदा, हिन्दु साम्राज्य दिवस, श्री गुरु पूर्णिमा, रक्षाबन्धन, विजया दशमी और मकर संक्रान्ति पर्व मनाये जाते हैंः-
1. वर्ष प्रतिपदा - चैत्र शुक्ल प्रतिपदा ‘भारतीय काल गणना’ का प्रथम दिन अर्थात् नववर्ष का प्रथम दिन होता है। इसी दिन से नवरात्रे प्रारम्भ होते हैं, स्वामी दयानन्द द्वारा आर्य समाज की स्थापना हुई। विक्रमादित्य द्वारा शकों पर पूर्ण विजय प्राप्त करने के उपलक्ष्य में विक्रमी सम्वत् प्रारम्भ हुआ था। वर्ष प्रतिपदा के ही दिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक डाॅ. केशव बलिराम हेडगेवार का जन्म हुआ था। स्वयंसेवकों के लिए यह दिन और भी अधिक महत्त्वपूर्ण हो जाता है। इस दिन स्वयंसेवक ध्वज लगाने से पूर्व आद्य सरसंघचालक को प्रमाण करते हैं। इस दिन गणवेश व समय का ध्यान रखना स्वयंसेवक के लिए अपेक्षित है। इसी दिन सभी नागरिकों के द्वारा मिलकर नववर्ष भी मनाया जाता है तथा कार्यक्रम कराये जाते हैं।
2. हिन्दु साम्राज्य दिवस - ज्येष्ठ शुक्ल त्रयोदशी विक्रमी संवत् 1731 (1674 ई.) के दिन छत्रपति शिवाजी महाराज का राज्याभिषेक तथा हिन्दु पद पाद शाही की स्थापना हुई, जिसने ‘हिन्दु राज्य’ नहीं बन सकता, इस हीन भाव को दूर किया। छत्रपति शिवाजी महाराज ने सीमित साधनों से ही सिद्ध किया कि हिन्दू सभी दृष्टि से श्रेष्ठ, स्वतंत्र व स्वयं शासक बनने योग्य है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का यह उत्सव मनाने के पीछे उद्देश्य भी यही है कि हमारे अन्दर की शक्ति निकालकर शिवाजी की तरह दिखाना की तुम भी योग्य शासक बन सकते हो।
3. श्री गुरु पूर्णिमा - यह उत्सव आषाढ़ पूर्णिमा को मनाया जाता है। व्यास महर्षि ने हमारे राष्ट्र जीवन के श्रेष्ठतम गुणों को निर्धारित करते हुए, उनके महान् आदर्शों को हमे दिखाया है। इस तरह वेद व्यास जगत गुरु हैं। उसी प्रकार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने भी अपना एक गुरु भगवा ध्वज को बनाया है, जो हमें देश के प्रति समर्पण भाव को जगाता है और इसी दिन स्वयंसेवक गुरु दक्षिण के रूप में भेंट भी देते हैं, जिससे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का कार्य सुचारू रूप से चलता है।
4. रक्षाबंधन - श्रावण की पूर्णिमा को यह उत्सव मनाया जाता है। इस दिन को समाज में जाति का भेद मिटाकर समानता, समरसता युक्त समाज का स्वरूप खड़ा करने का प्रयास किया जाता है। रक्षाबंधन का त्योहार जहाँ भाई-बहन की रक्षा करता है, यह कथा है। वही स्कन्द पुराण में यह भी लिखा है कि- ‘‘राजाओं एवं अन्य बन्धु-बन्धवों तथा यजमानों के हाथ में शुद्ध स्वर्णिम सूत्र बांधते हुए शुभ कामनाएँ करते थे।’’ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में भी परम वंदनीय भगवा ध्वज को रक्षा-सूत्र बांध कर संकल्प करते हैं कि इस ध्वज की रक्षा का भार हम पर है। जिस समाज, राष्ट्र व संस्कृति का यह पवित्र ध्वज प्रतीक है, हम उसकी रक्षा करेंगे। यह समाज का परस्परावलंबी व अन्योन्याश्रित न्याय का पर्व है। आज के दिन सभी स्वयंसेवक एक-दूसरे को व बस्तियों में जाकर लोगों को राखी बांधते हैं और उनकी रक्षा करने का संकल्प करते हैं।
5. विजयादशमी - आश्विन शुक्ल दशमी को यह दिन मनाया जाता है। यह दिन भी स्वयंसेवक के लिए बहुत महत्व का है। क्योंकि आज के ही दिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की गई थी। यह दिन शक्ति की उपासना के लिए भी मनाया जाता है। आज के दिन राम ने सामान्य लोगों को संगठित कर, अत्याचारी व साधन सम्पन्न रावण पर विजय प्राप्त की। विजय की आकांक्षा को जगाना ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का उद्देश्य है। स्वयंसेवकों के गणवेश में कार्यक्रम व पथ संचलन भी किया जाता है। इसके माध्यम से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ शक्ति तथा अनुशासन का प्रदर्शन होता है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक भी संगठित होकर इस देश की समस्याओं को हल करेंगे।
6. मकर संक्रान्ति - यह उत्सव चन्द्र मास गणना के अनुसार लेकिन यह उत्सव सौर मास गणना के अनुसार माघ 1 सौर मास सामान्यतः 14 जनवरी को होता है। इसी दिन सूर्य मकर राशि में संक्रमण कर दक्षिणायन से उत्तरायण में प्रवेश करता है, जिसके कारण दिन बड़े होने शुरू हो जाते हैं। एक सकारात्मक परिवर्तन होता है। इस दिन खिचड़ी बनाई जाती है, जिसमें सामूहिक दालों का मेल होता है। उसी तरह हमारे समाज में भी भिन्नता होते हुए एकता है उसी का भाव जगाना है। गुड़, तिल का मिश्रण भी बनाया जाता है, जिससे गुड़ में सबको चिपकाने की शक्ति यानी समाहित की उसी तरह हमें भी सभी को एक साथ लेकर चलना है। तिल की तरह स्नेह दिखाना। यह उत्सव हमें समाज में समरसता व समाज में सशक्तिकरण की भावना को बढ़ाता है।
इस प्रकार उत्सव के माध्यम से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में कार्यक्रमों की व्यवस्था बनी रहती है। जिससे लोग राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़ते हैं और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्य को अपना ध्येय मानकर करते हैं। वह हिन्दू संस्कृति की रक्षा करते हैं।
हे महाराज! मैं उन्ही के आदेश से आपकी पुरी में आया हूँ। हे राजेन्द्र! हे अनघ! मैं मोक्ष का अभिलाषी हूँ, अतः जो कार्य मेरे लिये उचित हो, वह बताइये।
हे राजेन्द्र! तप, तीर्थ, व्रत, यज्ञ, स्वाध्याय, तीर्थसेवन और ज्ञान-इनमें से जो मोक्ष का साक्षात् साधन हो, वह मुझे बताइये।
जनक जी बोले-मोक्षमार्गावलम्बी विप्र को जो करना चाहिये, उसे सुनिये। उपनयन संस्कार के बाद सर्वप्रथम वेदशास्त्र का अध्ययन करने हेतु गुरू के सांनिध्य में रहना चाहिए। वहाँ वेद-वेदान्तों का अध्ययन करके दीक्षान्त, गुरूदक्षिणा देकर वापस लौटे विप्र को विवाह करके पत्नी के साथ गृहस्थी में रहना चाहिये। {गृहस्थाश्रम में रहते हुए} न्यायोपार्जित धन से सर्वदा सन्तुष्ट रहे और किसी से कोई आशा न रखे। पापों से मुक्त होकर अग्निहोत्र आदि कर्म करते हुए सत्यवचन बोले और मन, वचन, कर्म से सदा पवित्र रहे। पुत्र-पौत्र हो जाने पर {समयानुसार} वानप्रस्थ-आश्रम में रहे। वहाँ तपश्चर्याद्वारा काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह और मात्सर्य-इन छहों शत्रुओं पर विजय प्राप्त करके अपनी स्त्री रक्षा का भार पुत्र को सौंप देने के पश्चात्, वह धर्मात्मा सब अग्नियों का अपने में न्यायपूर्वक आधान कर ले और सांसारिक विषयों के भोग से शान्ति मिल जाने के बाद हृदय में विशुद्ध वैराग्य उत्पन्न होने पर चैथे आश्रम का आश्रय ले ले। विरक्त को ही संन्यास लेने का अधिकार है, अन्य किसी को नहीं- यह वेदवाक्य सर्वथा सत्य है, असत्य नहीं-ऐसा मेरा मानना है।
हे शुकदेवजी! वेदों में कुल अड़तालीस संस्कार कहे गये हैं। उनमें गृहस्थ के लिये चालीस संस्कार महात्माओं ने बताये हैं। मुमुक्षु के लिये शम, दम आदि आठ संस्कार कहे गये हैं। एक आश्रम से ही क्रमशः दूसरे आश्रम में जाना चाहिये, ऐसा शिष्टजनों का आदेश है।
शुकदेवजी-चित्त में वैराग्य और ज्ञान-विज्ञान उत्पन्न हो जाने पर अवश्य ही गृहस्थादि आश्रमों में रहना चाहिये अथवा वनों में।
जनकजी-हे मानद! इन्द्रियाँ बड़ी बलवान् होती हैं, वे वश में नही रहतीं। वे अपरिपक्व बुद्धिवाले मनुष्य के मन में नाना प्रकार के विकार उत्पन्न कर देती है।
यदि मनुष्य के मन में भोजन, शयन, सुख और पुत्र की इच्छा बनी रहे तो वह सन्यासी होकर भी इन विकारांे के उपस्थित होने पर क्या कर पायेगा।
वसनाओं का जाल बड़ा ही कठिन होता है, वह शीघ्र नही मिटता। इसलिये उसकी शान्ति के लिये मनुष्य को क्रम से उसका त्याग करना चाहिये।
ऊँचे स्थान पर सोने वाला मनुष्य ही नीचे गिरता है, नीचे सोनेवाला कभी नही गिरता। यदि सन्यास-ग्रहण कर लेने पर भ्रष्ट हो जाय तो पुनः वह कोई दूसरा मार्ग नही प्राप्त कर सकता।
जिस प्रकार चींटी वृक्ष की जड़ से चढ़कर शाखा पर चढ़ जाती है और वहाँ से फिर धीरे-धीरे सुखपूर्वक पैरों से चलकर फलतक पहुँच जाती है। विघ्न-शंका के भय से कोई पक्षी बड़ी तीव्र गति से आसमान में उड़ता है और परिणामतः थक जाता है, किंतु चींटी सुखपूर्वक विश्राम ले-लेकर अपने अभीष्ट स्थानपर पहुँच जाती है।
मन अत्यन्त प्रबल है; यह अजितेन्द्रिय पुरूषों के द्वारा सर्वथा अजेय है। इसलिये आश्रमों के अनुक्रम से ही इसे क्रमशः जीतने का प्रयत्न करना चाहिये।
गृहस्थ-आश्रम में रहते हुए भी जो शान्त, बुद्धिमान् एवं आत्मज्ञानी होता है, वह न तो प्रसन्न होता है और न खेद करता है। वह हानि-लाभ में समान भाव रखता है।
जो पुरूष शास्त्र प्रतिपादित कर्म करता हुआ, सभी प्रकार की चिन्ताओं से मुक्त रहता हुआ आत्मचिन्तन से सन्तुष्ट रहता है; वह निःसन्देह मुक्त हो जाता है।
हे अनघ! देखिये, मैं राजकार्य करता हुआ भी जीवन मुक्त हूँ मैं अपने इच्छानुसार सब काम करता हूँ, किन्तु मुझे शोक या हर्ष कुछ भी नही होता।
जिस प्रकार मैं अनेक भोगों को भोगता हुआ तथा अनेक कार्यो को करता हुआ भी अनासक्त हूँ, उसी प्रकार हे अनघ! आप भी मुक्त हो जाइये।
ऐसा कहा भी जाता है कि जो यह दृश्य जगत् दिखायी देता है, उसके द्वारा अदृश्य आत्मा कैसे बन्धन में आ सकता है? पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु एवं आकाश-ये पंचमहाभूत और गन्ध, रस, रूप, स्पर्श एवं शब्द-ये उनके गुण दृश्य कहलाते हैं।
आत्मा अनुमानगम्य है और कभी भी प्रत्यक्ष नहीं होता। ऐसी स्थिति में है ब्रह्मन्! वह निरंजन एवं निर्विकार आत्मा भला बन्धन में कैसे पड़ सकता है? हे द्विज! मन ही महान् सुख-दुःख का कारण है, इसी के निर्मल होने पर सब कुछ निर्मल हो जाता है।
सभी तीर्थों में घूमते हुए वहाँ बार-बार स्नान करके भी यदि मन निर्मल नही हुआ तो वह सब व्यर्थ हो जाता है। हे परन्तप! बन्धन तथा मोक्ष का कारण न यह देह है, न जीवात्मा है और न ये इन्द्रियाँ ही हैं, अपितु मन ही मनुष्यों के बन्धन एवं मुक्ति का कारण है।
आत्मा तो सदा ही शुद्ध तथा मुक्त है, वह कभी बँधता नही है। अतः बन्धन और मोक्ष तो मन के भीतर हैं, मन की शान्ति से ही शान्ति है।
शत्रुता, मित्रता या उदासीनता के सभी भेदभाव भी मनमें ही रहते हैं। इसलिये एकात्मभाव होने पर यह भेदभाव नहीं रहता; यह तो द्वैतभाव से ही उत्पन्न होता है।
’मैं जीव सदा ही ब्रह्म हूँ-इस विषय में और विचार करने की आवश्यकता ही नही है। भेदबुद्धि तो संसार में आसक्त रहने पर ही होती है।
हे महाभाग! बन्धन का मुख्य कारण अविद्या ही है। इस अविद्या को दूर करने वाली विद्या है। इसलिये ज्ञानी पुरूषों को चाहिये कि वे सदा विद्या तथा अविद्या का अनुसन्धान पूर्वक अनुशीलन किया करें।
जिस प्रकार धूप के बिना छाया के सुख का अनुभव नही होता, उसी प्रकार अविद्या के बिना विद्या का अनुभव नही किया जा सकता।
गुणों में गुण, पंचभूतों में पंचभूत तथा इन्द्रियों के विषय में इन्द्रियाँ स्वयं रमण करती हैं; इसमें आत्मा का क्या दोष है।
हे पवित्रात्मन्! सबकी सुरक्षा के लिये वेदों में सब प्रकार से मर्यादा की व्यवस्था की गयी है। यदि ऐसा न होता तो नास्तिकों की भाँति सब धर्मों का नाश हो जाता। धर्म के नष्ट हो जाने पर सब नष्ट हो जायेगा और सब वर्णों की आचार-परम्परा का उल्लंघन हो जायेगा। इसलिये वेदोपदिष्ट मार्ग पर चलने वालों का कल्याण होता है।
शुकदेवजी-हे राजन्! आपने जो बात कही उसे सुनकर भी मेरा सन्देह बना हुआ है; वह किसी प्रकार भी दूर नही होता।
हे भूपते! वेदधर्मों में हिंसा का बाहुल्य है, उस हिंसा में अनेक प्रकार के अधर्म होते हैं। {ऐसी दशा में} वेदोक्त धर्म मुक्तिप्रद कैसे हो सकता है? हे राजन्! सोमरस-पान, पशुहिंसा और मांस-भक्षण तो स्पष्ट ही अनाचार है। सौत्रामणियज्ञ में तो प्रत्यक्षरूप से सुराग्रहण का वर्णन किया गया है। इसी प्रकार द्यूतक्रीड़ा एवं अन्य अनेक प्रकार के व्रत बताये गये है।
सुना जाता है कि प्राचीन काल में शशबिन्दु नाम के एक श्रेष्ठ राजा थे। वे बड़े धर्मात्मा, यज्ञपरायण, उदार एवं सत्यवादी थे। वे धर्मरूपी सेतु के रक्षक तथा कुमार्गगामी जनों के नियन्ता थे। उन्होने पुष्कल दक्षिणवाले अनेक यज्ञ सम्पादित किये थे।
{उन यज्ञों में} पशुओं के चर्म से विन्ध्यपर्वत के समान ऊँचा पर्वत-सा बन गया। मेघों के जल बरसाने से चर्मण्वती नाम की शुभ नदी बह चली।
वे राजा भी दिवंगत हो गये, किन्तु उनकी कीर्ति भूमण्डल पर अचल हो गयी। जब इस प्रकार के धर्मों का वर्णन वेद में है, तब हे राजन्! मेरी श्रद्धाबुद्धि उनमें नहीं है।
स्त्री में साथ भोग में पुरूष सुख प्राप्त करता है और उसके न मिलने पर वह बहुत दुःखी होता है तो ऐसी दशा में भला वह जीवन्मुक्त कैसे हो सकेगा?
जनकजी-यज्ञों में जो हिंसा दिखायी देती है, वह वास्तव में अहिंसा ही कही गयी है; क्योंकि जो हिंसा उपाधियोग से होती है वही हिंसा कहलाती है, अन्यथा नहीं-ऐसा शास्त्रों का निर्णय है।
जिस प्रकार {गीली} लकड़ी के संयोग से अग्नि से धुआँ निकलता है, उसके अभाव में उस अग्नि में धुआँ नही दिखायी देता, उसी प्रकार हे मुनिवर! वेदोक्त हिंसा को भी आप अहिंसा की समझिये। रागीजनों द्वारा की गयी हिंसा ही हिंसा है, किंतु अनासक्त जनों के लिये वह हिंसा नही कही गयी है।
जो कर्म राग, तथा अंहकार से रहित होकर किया जाता हो, उस कर्म को वैदिक विद्वान, मनीषीजन न किये हुए के समान ही कहते हैं।
हे द्विजश्रेष्ठ! रागी गृहस्थों के द्वारा यज्ञ में जो हिंसा होती है; वही हिंसा है। हे महाभाग! जो कर्म रागरहित तथा अहंकार शून्य होकर किया जाता है, वह जितात्मा मुमुक्षुजनों के लिये अहिंसा ही है।