प्रेरक प्रसंग- ला और लीजिए



एक सेठ कुऍं में गिर पड़ा। गड्डा बहुत गहरा नहीं था। सो निकलने के लिये चिल्‍लाने लगें। एक किसान ने सुना तो पहुँचा और बोला- ला! अपना हाथ उसके रस्‍सी बाँध कर ऊपर खीच लेंगे। सेठ जी हाथ ऊपर करने को और किसी फन्‍दे में फसने को तैयार नही हो रहे थे।
झंझट देखकर एक अन्‍य समझदार किसान आदमी वहॉं पहुँच गया और हुज्‍जत को समझ गया। उसने कहा- ‘’सेठ जी रस्‍सी पकड़ लीजिए और इसे सहारे आप ऊपर आ जायेगें।‘’ 
सेठ जी ने बात मान ली और बाहर निकल आये। पहली बार किसान कह रहा था कि ला हाथ और दूसरे ने कहा कि रस्‍सी पकड़ लिजिए। दोनों की कहना एक था किन्‍तु भाव अलग अलग थे।
इससे हमें यह शिक्षा मिलती है परोपकार भी मृदुभाव से किया जाना चाहिऐ तभी फलित होता है।


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गज़ल



तुम्हारे दिल में मेरा प्यार कितना रहता है,
बताऊं कैसे कि इकरार कितना रहता है।
समन्दर हूँ लेकिन, गोते लगाने से पेश्तर,
हमारे प्यार का एहसास कितना रहता है।
न चाहते हुए भी सब्ज़ बाग में मैंने,
तेरे किरदार से तकरार किया है मैंने।
दिल के टुकड़े को एक जरीना ने देखो,
मरते दम तक दिखाया कि प्यार रहता है।


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हाल ए शहर इलाहाबाद




प्रयाग की पावन धरती महर्षियों, विद्वानों, प्रख्यात साहित्यकारों, कुशल राजनीतिज्ञों की भूमि रही है। परन्तु वर्तमान समय में इसकी भरपाई नही हो पा रही कि हम अपने शहर को उसकी खोयी हुयी प्रतिष्ठा लौटा पायें, चूंकि इसके लिए प्रयास किया जा रहा है, जिसमें हम कुछ क्षेत्रों में सफल भी हुए है। परन्तु जिस प्रतिष्ठा का हमें इंतजार है वह है भारत के मानचित्र में इलाहाबाद शहर का नाम प्रत्येक क्षेत्र में हो। शिक्षा, विज्ञान, साहित्य, खेल के साथ ही उन सभी क्षेत्रों में हमको विकास करना होगा जिसकी आवश्यकता हमें महसूस हो रही है।
यदि वर्तमान शिक्षा पद्धति और इसमें सफलता की बात करे तो वह अभी भी निराशा पूर्ण है। इसका उदाहरण है वर्ष 2006 की सभी बोर्ड के हाई स्कूल और इंटरमीडिएट में सफल छात्र-छात्राओं की । यह बात गौरतलब है कि अच्छे अंक के साथ उत्तीर्ण तो हुए लेकिन यूपी बोर्ड के छात्र-छात्रा ने मेरिट सूची मे शहर का नाम रोशन नही किया। इसे हम क्या कहें शहर का र्दुभाग्‍य या और कुछ? वहीं कानपुर के एक कालेज से कितने छात्र-छात्राओं ने मेरिट सूची में अपने नाम के साथ शहर का नाम जोड़ दिया। जो गौरर्वान्वित करने वाली बात है।
शिक्षा के साथ संस्कृति का भी बहुत गहरा सम्‍बन्‍ध रहा है। परन्तु क्या हमारी संस्कृति `संस्कृति´ रह गयी हैं? आदि काल से हमारी संस्कृति एशिया के साथ ही अन्य देशों को संस्कार प्रदान करती रही है। जिसमें प्रयाग की महत्चपूर्ण भूमिका रही है। परन्तु इस हाईटेक जमाने में हमारे विचार उलट गये है। अर्थात संस्कार देने के स्थान पर गृहण कर रहे है। जो मनोंरजन के साèानो और अन्य देशों की परम्परा के अनुसार कर रहें है। जो हमारे देश की परम्परा और स्वयं के अनुकूल नही है। शहर के कई स्थानों पर बदली हुयी संस्कृति के लोग से आप परिचित हो सकते है। आश्चर्य की बात तो यह है कि आधुनिक संस्कृति के साथ पुरानी को भूलते जा रहें है। आज के युवा-युवतियां जो अपनी संस्कृति को भूलते जा रहे हैं उनमें शहर के भी शामिल हैं। इसमें केवल उनका दोष नही बल्कि अभिभावकों और माता-पिता का भी है। जरूरत बदलाव की है परन्तु, भुलाकर बदलना उचित नही होगा।
हाल शहर के शांति व्यवस्था की है जो चौपट होती जा रही है अनेक जख्म दिये जा रहे है। बढ़ते अपराधियों- छिनैती, चोरी, डकैती, हत्या, लूट के साथ ही शहर अपराधियों के चंगुल में फंस गया है जो अन्य शहरों की अपेक्षा अधिक है। दिन-प्रतिदिन यह घटनाएं आम होती जा रही है। इसके पीछे भी हाईटेक जमाने का हाथ है जो महंगे शौक को पूरा करने के लिए कुछ लोग ऐसी दुष्कृति कर खुद को सुखद महसूस कर रहे है। पर क्या किसी को कष्ट देकर कितना सुख हासिल किया जा सकता हैं? शहर की सुरक्षा के जिम्मेदार व्यक्ति भी अब सुरक्षित नहीं हैं ऐसे में शहर की सुरक्षा क्या होगी? तत्काल की कुछ घटनाएं इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है। नगर के प्रमुख स्थानों पर जहां हमारी सुरक्षा की जिम्मेदारी बढ़ जाती है, अक्सर वहां ऐसी घटनाएं होती है।
साहित्य समाज का दर्पण होता है। वह सामाजिक सरोकारो को पाठकों के बीच पहुंचाता है और सिखाता भी है। हमारे शहर में साहित्यकारों की कमी नहीं है, कमी है तो सिर्फ उनके लिखे गये मनोभावों को लोगों को पढ़ने की, चूंकि बदलते दौर में लोग अपना रिश्ता किताबों से कम कर दिया है। ऐसी क्या कमी है कि हम अपने पाठकों को उनकी रूचि के अनुसार पुस्तकें प्रदान नहीं कर पा रहें है? कहा जाता है कि मुंशी प्रेमचंद आज भी प्रासंगिक है, उनके उपन्यास, कहानियां सब कुछ आज के दौर से मेल खा रही हैं जब कि आजाद भारत से पूर्व ही लिखा गया था। फिर आज के साहित्यकारों में ऐसी कौन सी कमी है कि वह मुंशी प्रेमचंद के जैसे उपन्यास, कहानी, निबंध या नाटक नहीं लिख सकते? यदि समाज को विकसित करना है तो हमे `दूर की सोच´ कर साहित्य लिखना होगा। साथ ही साहित्य के क्षेत्र में नोबेल पुरस्कार दिला के शहर को गौरवान्वित करना होगा।
कहा जाता है कि शिक्षा के साथ यदि खेल न हो तो शारीरिक विकास अवरुद्ध हो जाता है इसलिए खेल का होना जरूरी है। परन्तु ऐसे खेल जिसमें हम पारंगत होकर विश्व कीर्तिमान स्थापित कर सके। पिछले वर्ष हुए एथेंस ओलंपिक में राज्यवर्धन सिंह राठौड़ जैसे निशानेबाज खिलाड़ी ने अपने देश का गौरव बढ़ाया वरना विश्व मे दूसरी आबादी वाले देश का क्या हाल होता? जब हमसे छोटे देश फेहरिस्त में आते तो उनके सामने हम बौने नजर आते। यदि शहर की बात करे तो क्रिकेट में मोहम्मद कैफ के अलावा कोई भी खिलाड़ी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर शहर का नाम विख्यात नही किया। फिर अब वर्ल्ड कप में शामिल न होना कैफ का दुर्भाग्य कहें या कुछ और ?

कुल मिलाकर समाज में बढ़ते आधुनिकता के दौर में हम अपने आप को संयमित नही कर पा रहे है। तथा पूरे समीकरण में सामन्जस्य बिठाना अब हमारे लिए मुश्किल होता जा रहा है। अब सभी क्षेत्रों में अर्थात खेल हो या अन्य क्षेत्र सभी में राजनीति का दखल होने लगा है। जिससे प्रतिभा की प्रतिष्ठा दांव पर लग रही है। अब तो विशेष आयोजनों के लिए भी विभाग को चंदा की जरूरत पड़ती है।
पिछले महीने समाप्त हुए अर्द्धकुंभ में हमारी संस्कृति के दर्शन के लिए करीब बीस हजार से ऊपर विदेशी सैलानी आये थे। यदि फायदे की बात की जाए तो जिस तरह से हमारी संस्कृति में रची बसी दुनिया उनको भा रही है और इससे प्रभावित हो रहे है। तो आने वाले कुंभ में यह हमें आर्थिक रूप से काफी मजबूत कर सकता है क्योंकि पर्यटन क्षेत्र को बढ़ावा देकर इसके विकास के लिए कदम उठाये जा सकते है।
विज्ञान और चिकित्सा के क्षेत्र में हमारा शहर कुछ हद तक अपनी विकास गति को बढ़ाया है। और इसमें सुधार हो रहा है। इस प्रकार यदि हम शहर के विकास की बात करें तो हमें हर क्षेत्र के प्रत्येक पहलुओं पर बारीकी से अध्ययन करने के उपरान्त ही उचित कदम उठाकर विकास किया जा सकता है। वरना इस प्रयाग की गौरवमयी संस्कृति को नष्ट होने में ज्यादा समय नहीं लगेगा।


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