भारतीय दर्शन में संस्कार शब्द किसी परिचय का मोहताज नही है। भारतीय दर्शन में 16 संस्कारों की बात की गई है। संस्कारों से तात्पर्य व्यक्ति के जीवन में अपनाए जाने वाले सद्गुणों से होता है।
आचार्य चरक ‘’चरक संहिता’’ में संस्कार की व्याख्या करते हुऐ कहते है -
संस्कारो ही गुणन्तरराधानतुच्यते अर्थात पहले से विद्यमान दुर्गुणों को हटाकर सद्गुणों को धारण करना ही संस्कार है। इसी प्रकार शंकराचार्य ने गुणधान या दोषापनयन को संस्कार मानते हुए वेदान्त सूत्र शांकरभाष्य में कहते है कि-
संस्कारों हि नाम गुणाधानेन वास्य दोषायनयनेन वा।
सर्वप्रथम यह प्रश्न उठना स्वाभाविक हो जाता है कि व्यक्ति के अन्दर संस्कारों का समावेश होता है कैसे है? मानव में संस्कारों के निर्माण के दो वर्ग विभाजित है प्रथम है वंशक्रम तथा द्वितीय है पर्यावरणीय। वंश क्रम का अध्ययन करने पर पता चलता है कि जिस प्रकार पूर्वजों का वीर्य व रजस होगा उसी प्रकार की संतान होगी। निश्चित रूप से आम के पेड़ से आम ही उत्पन्न होता है इमली नही उसी प्रकार खट्टे आम के पेड़ से सदैव खट्टा आम ही उत्पन्न होगा। ठीक उसी प्रकार जिस संस्कारों के माता-पिता या पूर्वज होते है उसी संस्कारों की संताने भी होती है। कभी कभी इसका अपवाद भी उत्पन्न हो जाता है कि कुछ राक्षसों के यहां धर्म मार्ग पर चलने वाली संतानों ने जन्म कैसे ले लिया ? प्रश्न का उठना भी सार्थक है। राक्षसी गुणों वालों के यहां भी संत पैदा हो जाते है। प्रह्लाद की माता के गुण धार्मिक थे इस कारण प्रह्लाद धार्मिक प्रवृत्ति के हुए। इसकी प्रकार प्रह्लाद के पौत्र भी प्रह्लाद की तरह धार्मिक हुये, आज वैज्ञानिक भी मानते है कि ऊंचाई, मोटाई, गोरा या काला होना वंश पर निर्भर करता है कभी कभी देखने में आता है कि गोरे माता-पिता की संतान भी काली उत्पन्न होती है या संतान का चेहरा मॉ-बाप दोनों से नही मिलता है। कारण है कि इनके पूर्वजों में कभी यह गुण रहे होगें जो आज परिलक्षित हो रहे है। इसी प्रकार यह बात संस्कारों पर भी लागू होती है कि पूर्वजों के उत्ताधिकारी के रजोवीर्य कसे जन्म लेने वाली उनके संस्कारों को धारण करती है। सुसंस्कारित पूर्वजों की संताने संस्कारवान तथा कुत्सित पूर्वजों की संताने कुत्सित होती है।
आधुनिक वैज्ञानिकों गाल्टन तथा ब्रिजमैन के अनुसार प्राणी जो कुछ भी है वह वंशानुक्रम का परिणाम है, और इसमें किसी प्रकार का परिवर्तन नही किया जा सकता है। इस बात की पुष्टि भर्तहरि नीतिशतक में भी मिलती है-
भूयोSपि सिक्त: पयसा घृतेन न निम्बवृक्षों मधुरत्वमेति। अर्थात दूध-घी के निरंतर घोने से भी नीम्ब के वृछ में मधुरता नही लाई जा सकती है।
गाल्टन तथा ब्रिजमैने के विपरीत डा. नेफाख जैसे पर्यावरणवादी के अनुसार वंशानुगत गुणें को भी पर्यावरण द्वारा बदला जा सकता है इस तर्क के समर्थन में भर्तृहरि नीतिशतक में एक श्लोक है-
सन्ताप्तायसि संस्थितस्य पयसों नामपि न लक्ष्यते,
मुक्ताकारताया तदेव नलनि पत्रस्थितं राजते।
स्वात्या सागरशुक्तिसम्पुटगतं तज्जायते भौक्तिकं,
प्रायेणाधर्ममध्यभोक्तगुण: संसर्गतो जायते।।
अर्थात जिस प्रकार जल की एक बूँद गर्म आग के गोले पर पड़ कर नष्ट हो जाती है, कमल पत्र पर पड़ने पर वह मोती सदृश्य प्रतीत होती है और वही बूँद अगर सीपी में पढ जाती है तो वह मोती बन जाती है। चूकिं जल की प्रकृति पीने की है किन्तु सद्गुणों के सानिध्य से वह संस्कारित होती है। जीन्स पर शोध कर रहे डाक्टर खुराना जो भारतीय मूल के अमेरिकी नोबेल पुरस्कार विजेता है कहते है कि किसी विशेष गुण वाले जीनस को प्रजनन तत्व में से निकाल कर अभीप्सित गुण वाले जीन्स के आरोपण द्वारा मन चाहे गुणों वाली संतान प्राप्त की जा सकती है वह दिन अब दूर नही जब गांधी, सुभाष, टैगोर तिलक फिर से पैदा किये जायें।
संस्कार वादी व्यवस्था में समन्यवादी विचार का दर्शन होता है। समन्यवादी से तात्पर्य वंशाक्रम या पर्यावरण के बीच द्वंद की समाप्ति से है। साम्यवादी विचारधारा में माता-पिता द्वारा प्रदत्त वंशानुगतगुणों पर संदेह नही किया जाता फिर भी पर्यावरण के द्वारा नवीन गुणों से पुराने गुणों को परिवर्तित करने का प्रयास किया जाता हैं। उपरोक्त बातों से स्पष्ट है कि सर्वथा अभिनव मानव का निर्माण तो नहीं किया जा सकता किन्तु मानव का नव निर्माण तो नहीं किया जा सकता किंतु मानव का निर्माण जरूर किया जा सकता है।
स्वामी रामतीर्थ के शब्दों में- समाज कि उन्नति बड़े लोगों के छोटे विचारों से न होकर छोटें लोगों बड़े विचारों से है। यही कारण है कि कबीर रैदास आज सर्वत्र पूजे जाते है और भौतिक संसाधनों से परिपूर्ण स्वर्णमायी लंका नष्ट हो जाती है। हमारे ऋषियों ने उक्त तथ्यों को समझा और ‘मानव’ में संस्कार पद्धति को जन्म दिया और निम्न 16 संस्कारों की रचना की—
1. गर्भाधान, 2. पुंसवन, 3. सीमान्तोन्नयन, 4. जातकर्म, 5. नामकरण, 6. निष्क्रमण, 7. अन्नप्राशन, 8. चूड़ाकर्म, 9. कर्णवेध, 10. उपनयन, 11. वेदारम्भ, 12. समावर्तन, 13. विवाह, 14. वानप्रस्थ, 15. सन्यास, 16. अन्येष्ठि या अन्तिम संस्कार।
संस्कारों के हमारे जीवन में समावेश के दो पक्ष है पहला है सैद्धान्तिक दूसरा व्यवहारिक। व्यावहारिक पक्ष देश काल की प्रवृत्तियों के अनुरूप परिवर्तित हो सकता है परन्तु सिद्धान्त वही रहता है। प्राचीन काल में संस्कारों का समावेश जीवन में वैदिक मंत्रों तथा यज्ञों का आयोजन कर किया जाता था और आज परिवार जनों व इष्ठ मित्रों को बुलाकर सामान्य पूजा पाठ करके पूरा किया जाता है। निश्चित रूप से भारतीय जीवन दर्शन व मूल्यों मे संस्कार अभिन्न अंग है।
सनातन अथवा हिन्दू धर्म की संस्कृति संस्कारों पर ही आधारित है। हमारे ऋषि-मुनियों ने मानव जीवन को पवित्र एवं मर्यादित बनाने के लिये संस्कारों का आविष्कार किया। धार्मिक ही नहीं वैज्ञानिक दृष्टि से भी इन संस्कारों का हमारे जीवन में विशेष महत्व है। भारतीय संस्कृति की महानता में इन संस्कारों का महती योगदान है।मनुष्य के जन्म से लेकर मृत्यु तक सोलह पवित्र संस्कार सम्पन्न किये जाते हैं:-
- गर्भाधान: हमारे शास्त्रों में मान्य सोलह संस्कारों में गर्भाधान पहला है। गृहस्थ जीवन में प्रवेश के उपरान्त प्रथम कर्तव्य के रूप में इस संस्कार को मान्यता दी गई है। गार्हस्थ्य जीवन का प्रमुख उद्देश्य श्रेष्ठ सन्तानोत्पत्ति है। उत्तम संतति की इच्छा रखने वाले माता-पिता को गर्भाधान से पूर्व अपने तन और मन की पवित्रता के लिये यह संस्कार करना चाहिए। वैदिक काल में यह संस्कार अति महत्वपूर्ण समझा जाता था।
- पुंसवन : गर्भस्थ शिशु के मानसिक विकास की दृष्टि से यह संस्कार उपयोगी समझा जाता है। गर्भाधान के दूसरे या तीसरे महीने में इस संस्कार को करने का विधान है। हमारे मनीषियों ने सन्तानोत्कर्ष के उद्देश्य से किये जाने वाले इस संस्कार को अनिवार्य माना है। गर्भस्थ शिशु से सम्बन्धित इस संस्कार को शुभ नक्षत्र में सम्पन्न किया जाता है। पुंसवन संस्कार का प्रयोजन स्वस्थ एवं उत्तम संतति को जन्म देना है।
- सीमन्तोन्नयन : सीमन्तोन्नयन को सीमन्तकरण अथवा सीमन्त संस्कार भी कहते हैं। सीमन्तोन्नयन का अभिप्राय है सौभाग्य संपन्न होना। गर्भपात रोकने के साथ-साथ गर्भस्थ शिशु एवं उसकी माता की रक्षा करना भी इस संस्कार का मुख्य उद्देश्य है। इस संस्कार के माध्यम से गर्भिणी स्त्री का मन प्रसन्न रखने के लिये सौभाग्यवती स्त्रियां गर्भवती की मांग भरती हैं। यह संस्कार गर्भ धारण के छठे अथवा आठवें महीने में होता है।
- जातकर्म : नवजात शिशु के नालच्छेदन से पूर्व इस संस्कार को करने का विधान है। इस दैवी जगत् से प्रत्यक्ष सम्पर्क में आने वाले बालक को मेधा, बल एवं दीर्घायु के लिये स्वर्ण खण्ड से मधु एवं घृत वैदिक मंत्रों के उच्चारण के साथ चटाया जाता है। यह संस्कार विशेष मन्त्रों एवं विधि से किया जाता है। दो बूंद घी तथा छह बूंद शहद का सम्मिश्रण अभिमंत्रित कर चाटने के बाद पिता यज्ञ करता है तथा नौ मन्त्रों का विशेष रूप से उच्चारण के बाद बालक के बुद्धिमान, बलवान, स्वस्थ एवं दीर्घ जीवी होने की प्रार्थना करता है। इसके बाद माता बालक को स्तनपान कराती है।
- नामकरण : जन्म के ग्यारहवें दिन यह संस्कार होता है। हमारे धर्माचार्यों ने जन्म के दस दिन तक अशौच (सूतक) माना है। इसलिये यह संस्कार ग्यारहवें दिन करने का विधान है। महर्षि याज्ञवल्क्य का भी यही मत है, लेकिन अनेक कर्मकाण्डी विद्वान इस संस्कार को शुभ नक्षत्र अथवा शुभ दिन में करना उचित मानते हैं।
- नामकरण संस्कार का सनातन धर्म में अधिक महत्व है। हमारे मनीषियों ने नाम का प्रभाव इसलिये भी अधिक बताया है क्योंकि यह व्यक्तित्व के विकास में सहायक होता है। तभी तो यह कहा गया है राम से बड़ा राम का नाम हमारे धर्म विज्ञानियों ने बहुत शोध कर नामकरण संस्कार का आविष्कार किया। ज्योतिष विज्ञान तो नाम के आधार पर ही भविष्य की रूपरेखा तैयार करता है।
- निष्क्रमण : दैवी जगत् से शिशु की प्रगाढ़ता बढ़े तथा ब्रह्माजी की सृष्टि से वह अच्छी तरह परिचित होकर दीर्घकाल तक धर्म और मर्यादा की रक्षा करते हुए इस लोक का भोग करे यही इस संस्कार का मुख्य उद्देश्य है।
- निष्क्रमण का अभिप्राय है बाहर निकलना। इस संस्कार में शिशु को सूर्य तथा चन्द्रमा की ज्योति दिखाने का विधान है। भगवान भास्कर के तेज तथा चन्द्रमा की शीतलता से शिशु को अवगत कराना ही इसका उद्देश्य है। इसके पीछे मनीषियों की शिशु को तेजस्वी तथा विनम्र बनाने की परिकल्पना होगी। उस दिन देवी-देवताओं के दर्शन तथा उनसे शिशु के दीर्घ एवं यशस्वी जीवन के लिये आशीर्वाद ग्रहण किया जाता है। जन्म के चौथे महीने इस संस्कार को करने का विधान है। तीन माह तक शिशु का शरीर बाहरी वातावरण यथा तेज धूप, तेज हवा आदि के अनुकूल नहीं होता है इसलिये प्राय: तीन मास तक उसे बहुत सावधानी से घर में रखना चाहिए। इसके बाद धीरे-धीरे उसे बाहरी वातावरण के संपर्क में आने देना चाहिए। इस संस्कार का तात्पर्य यही है कि शिशु समाज के सम्पर्क में आकर सामाजिक परिस्थितियों से अवगत हो।
- अन्नप्राशन : इस संस्कार का उद्देश्य शिशु के शारीरिक व मानसिक विकास पर ध्यान केन्द्रित करना है। अन्नप्राशन का स्पष्ट अर्थ है कि शिशु जो अब तक पेय पदार्थों विशेषकर दूध पर आधारित था अब अन्न जिसे शास्त्रों में प्राण कहा गया है उसको ग्रहण कर शारीरिक व मानसिक रूप से अपने को बलवान व प्रबुद्ध बनाए। तन और मन को सुदृढ़ बनाने में अन्न का सर्वाधिक योगदान है। शुद्ध, सात्विक एवं पौष्टिक आहार से ही तन स्वस्थ रहता है और स्वस्थ तन में ही स्वस्थ मन का निवास होता है। आहार शुद्ध होने पर ही अन्तःकरण शुद्ध होता है तथा मन, बुद्धि, आत्मा सबका पोषण होता है। इसलिये इस संस्कार का हमारे जीवन में विशेष महत्व है। हमारे धर्माचार्यों ने अन्नप्राशन के लिये जन्म से छठे महीने को उपयुक्त माना है। छठे मास में शुभ नक्षत्र एवं शुभ दिन देखकर यह संस्कार करना चाहिए। खीर और मिठाई से शिशु के अन्न ग्रहण को शुभ माना गया है। अमृत: क्षीरभोजनम् हमारे शास्त्रों में खीर को अमृत के समान उत्तम माना गया है।
- चूड़ाकर्म : चूड़ाकर्म को मुंडन संस्कार भी कहा जाता है। हमारे आचार्यो ने बालक के पहले, तीसरे या पांचवें वर्ष में इस संस्कार को करने का विधान बताया है। इस संस्कार के पीछे शुचिता और बौद्धिक विकास की परिकल्पना हमारे मनीषियों के मन में होगी। मुंडन संस्कार का अभिप्राय है कि जन्म के समय उत्पन्न अपवित्र बालों को हटाकर बालक को प्रखर बनाना है। नौ माह तक गर्भ में रहने के कारण कई दूषित किटाणु उसके बालों में रहते हैं। मुंडन संस्कार से इन दोषों का सफाया होता है। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार इस संस्कार को शुभ मुहूर्त में करने का विधान है। वैदिक मंत्रोच्चारण के साथ यह संस्कार सम्पन्न होता है।
- विद्यारम्भ : विद्यारम्भ संस्कार के क्रम के बारे में हमारे आचार्यों में मतभिन्नता है। कुछ आचार्यों का मत है कि अन्नप्राशन के बाद विद्यारम्भ संस्कार होना चाहिए तो कुछ चूड़ाकर्म के बाद इस संस्कार को उपयुक्त मानते हैं। मेरी राय में अन्नप्राशन के समय शिशु बोलना भी शुरू नहीं कर पाता है और चूड़ाकर्म तक बच्चों में सीखने की प्रवृत्ति जागने लगती है। इसलिये चूड़ाकर्म के बाद ही विद्यारम्भ संस्कार उपयुक्त लगता है। विद्यारम्भ का अभिप्राय बालक को शिक्षा के प्रारम्भिक स्तर से परिचित कराना है। प्राचीन काल में जब गुरुकुल की परंपरा थी तो बालक को वेदाध्ययन के लिये भेजने से पहले घर में अक्षर बोध कराया जाता था। माँ-बाप तथा गुरुजन पहले उसे मौखिक रूप से श्लोक, पौराणिक कथायें आदि का अभ्यास करा दिया करते थे ताकि गुरुकुल में कठिनाई न हो। हमारा शास्त्र विद्यानुरागी है। शास्त्र की उक्ति है सा विद्या या विमुक्तये अर्थात विद्या वही है जो मुक्ति दिला सके। विद्या अथवा ज्ञान ही मनुष्य की आत्मिक उन्नति का साधन है। शुभ मुहूर्त में ही विद्यारम्भ संस्कार करना चाहिये।
- कर्णवेध : हमारे मनीषियों ने सभी संस्कारों को वैज्ञानिक कसौटी पर कसने के बाद ही प्रारम्भ किया है। कर्णवेध संस्कार का आधार बिल्कुल वैज्ञानिक है। बालक की शारीरिक व्याधि से रक्षा ही इस संस्कार का मूल उद्देश्य है। प्रकृति प्रदत्त इस शरीर के सारे अंग महत्वपूर्ण हैं। कान हमारे श्रवण द्वार हैं। कर्ण वेधन से व्याधियां दूर होती हैं तथा श्रवण शक्ति भी बढ़ती है। इसके साथ ही कानों में आभूषण हमारे सौन्दर्य बोध का परिचायक भी है। यज्ञोपवीत के पूर्व इस संस्कार को करने का विधान है। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार शुक्ल पक्ष के शुभ मुहूर्त में इस संस्कार का सम्पादन श्रेयस्कर।
- 11. यज्ञोपवीत : यज्ञोपवीत अथवा उपनयन बौद्धिक विकास के लिये सर्वाधिक महत्वपूर्ण संस्कार है। धार्मिक और आध्यात्मिक उन्नति का इस संस्कार में पूर्णरूपेण समावेश है। हमारे मनीषियों ने इस संस्कार के माध्यम से वेदमाता गायत्री को आत्मसात करने का प्रावधान दिया है। आधुनिक युग में भी गायत्री मंत्र पर विशेष शोध हो चुका है। गायत्री सर्वाधिक शक्तिशाली मंत्र है। यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं अर्थात् यज्ञोपवीत जिसे जनेऊ भी कहा जाता है अत्यंत पवित्र है। प्रजापति ने स्वाभाविक रूप से इसका निर्माण किया है। यह आयु को बढ़ाने वाला, बल और तेज प्रदान करने वाला है। इस संस्कार के बारे में हमारे धर्म शास्त्रों में विशेष उल्लेख है। यज्ञोपवीत धारण का वैज्ञानिक महत्व भी है। प्राचीन काल में जब गुरुकुल की परम्परा थी उस समय प्राय: आठ वर्ष की उम्र में यज्ञोपवीत संस्कार सम्पन्न हो जाता था। इसके बाद बालक विशेष अध्ययन के लिये गुरुकुल जाता था। यज्ञोपवीत से ही बालक को ब्रह्मचर्य की दीक्षा दी जाती थी जिसका पालन गृहस्थाश्रम में आने से पूर्व तक किया जाता था। इस संस्कार का उद्देश्य संयमित जीवन के साथ आत्मिक विकास में रत रहने के लिये बालक को प्रेरित करना है।
- वेदारम्भ : ज्ञानार्जन से सम्बन्धित है यह संस्कार। वेद का अर्थ होता है ज्ञान और वेदारम्भ के माध्यम से बालक अब ज्ञान को अपने अन्दर समाविष्ट करना शुरू करे यही अभिप्राय है इस संस्कार का। शास्त्रों में ज्ञान से बढ़कर दूसरा कोई प्रकाश नहीं समझा गया है। स्पष्ट है कि प्राचीन काल में यह संस्कार मनुष्य के जीवन में विशेष महत्व रखता था। यज्ञोपवीत के बाद बालकों को वेदों का अध्ययन एवं विशिष्ट ज्ञान से परिचित होने के लिये योग्य आचार्यों के पास गुरुकुलों में भेजा जाता था। वेदारम्भ से पहले आचार्य अपने शिष्यों को ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करने एवं संयमित जीवन जीने की प्रतिज्ञा कराते थे तथा उसकी परीक्षा लेने के बाद ही वेदाध्ययन कराते थे। असंयमित जीवन जीने वाले वेदाध्ययन के अधिकारी नहीं माने जाते थे। हमारे चारों वेद ज्ञान के अक्षुण्ण भंडार हैं।
- केशान्त : गुरुकुल में वेदाध्ययन पूर्ण कर लेने पर आचार्य के समक्ष यह संस्कार सम्पन्न किया जाता था। वस्तुत: यह संस्कार गुरुकुल से विदाई लेने तथा गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने का उपक्रम है। वेद-पुराणों एवं विभिन्न विषयों में पारंगत होने के बाद ब्रह्मचारी के समावर्तन संस्कार के पूर्व बालों की सफाई की जाती थी तथा उसे स्नान कराकर स्नातक की उपाधि दी जाती थी। केशान्त संस्कार शुभ मुहूर्त में किया जाता था।
- समावर्तन : गुरुकुल से विदाई लेने से पूर्व शिष्य का समावर्तन संस्कार होता था। इस संस्कार से पूर्व ब्रह्मचारी का केशान्त संस्कार होता था और फिर उसे स्नान कराया जाता था। यह स्नान समावर्तन संस्कार के तहत होता था। इसमें सुगन्धित पदार्थो एवं औषधादि युक्त जल से भरे हुए वेदी के उत्तर भाग में आठ घड़ों के जल से स्नान करने का विधान है। यह स्नान विशेष मंत्रोच्चारण के साथ होता था। इसके बाद ब्रह्मचारी मेखला व दण्ड को छोड़ देता था जिसे यज्ञोपवीत के समय धारण कराया जाता था। इस संस्कार के बाद उसे विद्या स्नातक की उपाधि आचार्य देते थे। इस उपाधि से वह सगर्व गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने का अधिकारी समझा जाता था। सुन्दर वस्त्र व आभूषण धारण करता था तथा आचार्यों एवं गुरुजनों से आशीर्वाद ग्रहण कर अपने घर के लिये विदा होता था।
- विवाह : प्राचीन काल से ही स्त्री और पुरुष दोनों के लिए यह सर्वाधिक महत्वपूर्ण संस्कार है। यज्ञोपवीत से समावर्तन संस्कार तक ब्रह्मचर्य व्रत के पालन का हमारे शास्त्रों में विधान है। वेदाध्ययन के बाद जब युवक में सामाजिक परम्परा निर्वाह करने की क्षमता व परिपक्वता आ जाती थी तो उसे गार्हस्थ्य धर्म में प्रवेश कराया जाता था। लगभग पच्चीस वर्ष तक ब्रह्मचर्य का व्रत का पालन करने के बाद युवक परिणय सूत्र में बंधता था। हमारे शास्त्रों में आठ प्रकार के विवाहों का उल्लेख है- ब्राह्म, दैव, आर्ष, प्राजापत्य, आसुर, गंधर्व, राक्षस एवं पैशाच। वैदिक काल में ये सभी प्रथाएं प्रचलित थीं। समय के अनुसार इनका स्वरूप बदलता गया। वैदिक काल से पूर्व जब हमारा समाज संगठित नहीं था तो उस समय उच्छृंखल यौनाचार था। हमारे मनीषियों ने इस उच्छृंखलता को समाप्त करने के लिये विवाह संस्कार की स्थापना करके समाज को संगठित एवं नियमबद्ध करने का प्रयास किया। आज उन्हीं के प्रयासों का परिणाम है कि हमारा समाज सभ्य और सुसंस्कृत है।
- अन्त्येष्टि : अंत्येष्टि को अंतिम अथवा अग्नि परिग्रह संस्कार भी कहा जाता है। आत्मा में अग्नि का आधान करना ही अग्नि परिग्रह है। धर्म शास्त्रों की मान्यता है कि मृत शरीर की विधिवत क्रिया करने से जीव की अतृप्त वासनायें शान्त हो जाती हैं। हमारे शास्त्रों में बहुत ही सहज ढंग से इहलोक और परलोक की परिकल्पना की गयी है। जब तक जीव शरीर धारण कर इहलोक में निवास करता है तो वह विभिन्न कर्मो से बंधा रहता है। प्राण छूटने पर वह इस लोक को छोड़ देता है। उसके बाद की परिकल्पना में विभिन्न लोकों के अलावा मोक्ष या निर्वाण है। मनुष्य अपने कर्मो के अनुसार फल भोगता है। इसी परिकल्पना के तहत मृत देह की विधिवत क्रिया होती है।
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