मुझे एक बात नही समझ आ रही है कि 2006 में हनुमान जयंती अक्टूबर में पड़ी थी किन्तु इस बार अप्रेल में यह कैसे सम्भव है कि लगभगर 6 माह का अन्तर हो जाये। अक्टूबर में हिन्दी माह के अनुसार कातिक महिना होगा, जबकि अप्रेल में चैत्र चल रहा है।
हनुमान जयंती पर मेरी पिछली पोस्ट - जय बजरंग बली तोड दुश्मन की नली
हनुमान जी के जन्म की कथा - चैत्र पूर्णिमा को हुआ था हनुमानजी का जन्म
चैत्र सुदी पूनम को हनुमान जी का जन्म हुआ था। इस दिन हनुमान जी के मंदिर में चना-चिरौंजी व नारियल का भोग लगाया जाता है। इसे चैत्र पूर्णिमा भी कहते हैं। इस दिन नदी, तीर्थ, सरोवर आदि में स्नान करने से एक माह तक स्नान का फल प्राप्त होता है। आज के दिन ही भगवान श्रीकृष्ण ने ब्रज में महारास रचाया था। यह महारास कार्तिक पूर्णिमा से प्रारम्भ होकर चैत्र मास की पूर्णिमा को समाप्त हुआ था। इस दिन श्रीकृष्ण ने अपनी अनन्त योग शक्ति से अपने असंख्य रूप धारण कर जितनी गोपी उतने ही कान्हा का विराट रूप धारण कर विषय लोलुपता के देवता कामदेव को योग पराक्रम से आत्माराम और पूर्ण काम स्थित प्रकट करके विजय प्राप्त की थी। इस दिन घरों में स्त्रियां भगवान लक्ष्मी नारायण को प्रसन्न रखने के लिए भी व्रत रखती हैं और प्रभु सत्यनारायण की कथा सुनती हैं। चैत्र की पूर्णिमा को चैती पूनम भी कहा जाता है।
शास्त्रों में मतैक्य ना होने पर चैत्र शुक्ल पूर्णिमा को हनुमान जी का जन्म दिवस मनाया जाता है। वैसे वायु पुराणादिकों के अनुसार कार्तिक की चैदस के दिन हनुमान जयंती अधिक प्रचलित है। इस दिन हनुमान जी को सजाकर उनकी पूजा अर्चना एवं आरती करें। उसके बाद भोग लगाकर प्रसाद वितरित करें। व्रत रखने वाले को चाहिए कि वह हनुमान जयंती के व्रत हेतु हनुमान जी का स्मरण करके पृथ्वी पर सोए तथा सूर्योदय से पूर्व उठकर राम जानकी एवं हनुमान जी का पुनः स्मरण करें और नित्य क्रिया से निवृत्त होकर हनुमान जी की मूर्ति की पूजा करें। विनम्रता के साथ कहें-
अतुलितबलधामं स्वर्णशैलाभदेहं दनुजवनकृशांनु ज्ञानिनामग्रगण्यम्।
सकलगुण निधानं वानराणामधीशं रघुपतिवरदूतं वातजातं नमामि।।
हनुमान जी के जन्म तथा उनसे जुड़ी घटनाओं से संबंधित कथा इस प्रकार है- सूर्य, अग्नि, सुवर्ण के समान तेजस्वी और वेद वेदांगों के ज्ञाता तथा महाबली हनुमानजी ने माता अंजनी की कोख से जन्म लिया। एक बार माता अंजना अपने बेटे को पालने में लिटा कर फल-फूल लेने के लिए वन में चली गईं। तभी बालक हनुमान ने पूर्व दिशा में सूर्य को उदय होते देखा। बस क्या था! हनुमानजी तुरंत आकाश में उड़ चले। वायुदेव ने जब यह देखा तो वह शीतल पवन के रूप में उनके साथ चलने लगे ताकि बालक पर सूर्य का ताप नहीं पड़े। अमावस्या का दिन था। राहु सूर्य को ग्रसित करने के लिए बढ़ रहा था तो हनुमानजी ने उसे पकड़ लिया। राहु किसी तरह उनकी पकड़ से छूट कर भागा और देवराज इंद्र के पास पहुंचा। इंद्र अपने प्रिय हाथी ऐरावत पर बैठकर चलने लगे तो हनुमानजी ऐरावत पर भी झपटे। इस पर इंद्र को क्रोध आ गया। उन्होंने बालक पर वज्र से प्रहार किया तो हनुमानजी की ठुड्डी घायल हो गई। वह मूच्र्छित होकर पर्वत शिखर पर गिर गए। यह सब देखकर वायुदेव को भी क्रोध आ गया। उन्होंने अपनी गति रोक दी और अपने पुत्र को लेकर एक गुफा में चले गए। अब वायु के नहीं चलने से सब लोग घबरा गए। देवतागण सृष्टि के रचयिता ब्रम्हाजी के पास पहुंचे। सारी बात सुनकर ब्रम्हाजी उस गुफा में पहुंचे और हनुमानजी को आर्शीवाद दिया तो उन्होंने आंखें खोल दीं। पवन देवता का भी क्रोध शांत हो गया। ब्रम्हाजी ने कहा कि इस बालक को कभी भी ब्रम्ह श्राप नहीं लगेगा। इसके बाद उन्होंने सभी देवताओं से कहा कि आप सब भी इस बालक को वर दें। इस पर देवराज इंद्र बोले कि मेरे वज्र से इस बालक की हनु यानि ठोढ़ी पर चोट लगी है इसलिए इसका नाम हनुमान होगा। सूर्य ने अपना तेज दिया तो वरूण ने कहा कि हनुमान सदा जल से सुरक्षित रहेंगे। इस प्रकार हर देवता ने हनुमानजी को वर प्रदान किया जिससे वह बलशाली हो गए।
हनुमानजी बहुत ही चंचल थे। वह जब चाहें जहां चाहें पहुंच जाते थे और जो मन में आता वह कर डालते थे। हनुमानजी की शरारतों से आश्रमों में रहने वाले ऋषि-मुनि परेशान रहते थे। इस पर ऋषि-मुनियों ने हनुमानजी को श्राप दिया कि जिस बल के कारण तुम इतने शरारती हो गए हो उसी को लंबे समय तक भूले रहोगे जब कोई तुम्हें तुम्हारे बल के बारे में याद दिलाएगा तभी तुमको सब याद आएगा। इस श्राप के कारण हनुमानजी का स्वभाव शांत और सौम्य हो गया।
हनुमानजी बहुत ही चंचल थे। वह जब चाहें जहां चाहें पहुंच जाते थे और जो मन में आता वह कर डालते थे। हनुमानजी की शरारतों से आश्रमों में रहने वाले ऋषि-मुनि परेशान रहते थे। इस पर ऋषि-मुनियों ने हनुमानजी को श्राप दिया कि जिस बल के कारण तुम इतने शरारती हो गए हो उसी को लंबे समय तक भूले रहोगे जब कोई तुम्हें तुम्हारे बल के बारे में याद दिलाएगा तभी तुमको सब याद आएगा। इस श्राप के कारण हनुमानजी का स्वभाव शांत और सौम्य हो गया।
इसके बाद उनके माता-पिता ने उन्हें शिक्षा-दीक्षा के लिए सूर्यदेव के पास भेजने का निर्णय किया तो हनुमानजी बोले कि सूर्यदेव तो बहुत दूर हैं, मैं वहां पहुंचुगा कैसे? उनकी माता अंजना हनुमानजी को मिले श्राप के बारे में जानती थीं और जब उन्होंने उनको उनके बल के बारे में याद दिलाया तो उन्हें सब याद आ गया कि बचपन में वह किस प्रकार सूर्य की ओर लपके थे। वह आकाश में जा पहुंचे और सूर्यदेव के सारथि अरुण से मिले जोकि उन्हें सूर्यदेव के पास ले गए। सूर्यदेव ने उनके आने का कारण जाना तो बोले कि मैं तो हर समय अंतरिक्ष की यात्रा करता रहता हूं मुझे एक पल का भी आराम नहीं है मैं तुम्हें किस प्रकार शिक्षा-दीक्षा दे पाउंगा। इस पर हनुमानजी बोले कि मैं आपके रथ के वेग के साथ-साथ चलता रहूंगा क्योंकि मुझे आपसे ही शिक्षा प्राप्त करनी है। इस पर सूर्यदेव ने हां कर दी और पूरे मनोयोग से हनुमानजी को हर शास्त्र में निपुण बना दिया। शिक्षा खत्म होने के बाद जब हनुमानजी चलने लगे तो उन्होंने दक्षिणा के बारे में पूछा तो सूर्यदेव बोले कि मुझे कुछ नहीं चाहिए लेकिन यदि कपिराज बाली के छोटे भाई सुग्रीव की मदद का वचन मुझे दोगे तो मुझे अत्यंत प्रसन्नता होगी। इस पर हनुमानजी ने उन्हें सुग्रीव की मदद करने का वचन दिया।
बाद में हनुमानजी ने सुग्रीव की भरपूर मदद की और उनके खास मित्र बन गए। सीताजी का हरण करके रावण जब उन्हें लंका ले गया तो सीताजी को खोजते श्रीराम और लक्ष्मण जी से हनुमानजी की भेंट हुई। उनका परिचय जानने के बाद वह उन दोनों को कंधे पर बैठाकर सुग्रीव के पास ले गए। सुग्रीव के बारे में जानकर श्रीराम ने उन्हें मदद का भरोसा दिया और सुग्रीव ने भी सीताजी को ढूंढने में मदद करने का वादा किया। श्रीराम ने अपने वादे के अनुसार एक ही तीर में बाली का अंत कर दिया और सुग्रीव फिर से किष्किन्धा नगरी में लौट आए। उसके बाद सुग्रीव का आदेश पाकर प्रमुख वानर दल सीताजी की खोज में सब दिशाओं में चल दिए।
श्रीराम जी ने हनुमानजी से कहा कि मैं आपकी वीरता से परिचित हूं और मुझे विश्वास है कि आप अपने लक्ष्य में कामयाब होंगे। इसके बाद श्रीराम जी ने हनुमानजी को अपनी एक अंगूठी दी जिस पर उनका नाम लिखा हुआ था। सीताजी का पता मिलने के बाद जब हनुमान जी लंका में पहुंचे तो उन्होंने माता सीता से भेंटकर उन्हें श्रीराम का संदेश दिया और लंका की पूरी वाटिका उजाड़ने के बाद लंका में आग भी लगा दी। इसके बाद सीताजी को मुक्त कराने के लिए जो युद्ध हुआ उसमें हनुमानजी ने महती भूमिका निभाई।हनुमान जी को सिंदूर चढ़ाया जाता है इसके पीछे भी एक कथा है- एक बार हनुमान जी ने सीता माता की मांग में सिंदूर लगा देखकर आश्चर्य से पूछा कि हे माता! आपने यह लाल द्रव्य मस्तक में क्यों लगाया हुआ है? इस पर सीता माता ने ब्रम्हचारी हनुमान की इस सीधी-सादी बात पर प्रसन्न होकर कहा कि पुत्र इसे लगाने से मेरे स्वामी की दीर्घायु होती है।
इस पर हनुमान जी ने सोचा कि यदि उंगली भर सिंदूर लगाने से स्वामी दीर्घायु होते हैं तो क्यों ने पूरे बदन पर सिंदूर लगाकर उन्हें अजर अमर कर दूं। उन्होंने ऐसा ही किया और ऐसा करके वह जैसे ही सभागार में पहुंचे, भगवान श्रीराम उन्हें देखकर मुस्कुराए और उन पर काफी प्रसन्न हुए। तभी से हनुमान जी को सिंदूर चढ़ाया जाने लगा।
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