विधि पर चर्चा करना बहुत ही गंभीर मसला है, खास कर विधि वालों पर करना उससे भी गंभीर। यह मै नही पिछले कुछ दिनों में हिन्दी चिट्ठाकारी में घटे वाक्यें ये कहते है। हमारे अरुण जी को एक मेल मिलता है, वे डर से या किसी और कारण अपनी ब्लॉग पोस्ट का वध कर देते है। उक्त पोस्ट के वध के कारणों की व्याख्या करते हुए स्वयं अरुण जी ने नये पोस्ट को भी लेकर आते है।
उनकी हटाई गई पोस्ट को मैने कई बार गंभीरता पूर्वक पढ़ा, मनन और विचार मंथन भी किया, किसी सिरे से वह पोस्ट ऐसा प्रतीत हो रहा था कि वह किसी समुदाय विशेष के लिये तो लिखी गई है किन्तु कोई आहत होगा, ऐसा तो मुझे नही ही लगा। मै ऐसा इसलिये कह रहा हूँ, कि मेरा परिवार स्वयं विधि से 35 वर्षों से जुड़ा हुआ है, और मै स्वयं 21 वर्ष से विधि के सानिध्य में पल-बढ़ रहा हूँ तथा गत 2 वर्षो से विधि का अध्ययन कर रहा हूँ, और एशिया के सबसे बड़े उच्च न्यायालय के शहर से जुड़े होने के नाते, कुछ महत्वपूर्ण फैसलों पर अध्ययन व लेखन भी करता रहता हूँ, विधि के एक छात्र होने के तौर पर। जब इस प्रकार के कुछ मुद्दे घटित होते है तो निश्चित रूप से प्रश्नचिन्ह खड़ा हो जाना स्वाभाविक होता है, जैसा आपने विभिन्न ब्लागों पर आप लोगो ने देखा ही होगा। मै पुन: मूल विषय पर आना चाहूँगा वह यह है कि क्या वह लेख अधिवक्ता समाज के लिये अपामान जनक है/था ? इस पर मै कुछ बात कहना चाहूँगा।
- सर्वप्रथम भारतीय फिल्मों को लूँगा, कहा जाता है कि फिल्में समाज की दर्पण होती है, सर्वप्रथम फिल्मों में वकील को किस किस रूप में नही दिखाया जाता है। भारत में लगभग 30 प्रतिशत फिल्मों में वकीलों का महत्वपूर्ण किरदार होता है, फिल्मों में दिखाया ज्यादातर वकील उच्चके, मक्कर, धूर्त, अश्लीलता भरे प्रश्न पूछने वाले, रिश्वत खोर, गुन्डो के सहयोगी, बलातकार के आरोपी का मददगार तथा भिन्न भिन्न रूपों में दिखाया जाता है। इन दृश्यों से वकील समुदाय की छवि नहीं खराब होती है? या यह सब वास्तविकता है जो वकील समुदाय चुप हो कर स्वीकार करता है। यहां तक की भारतीय न्यायालय व न्यायाधीश की स्थिति को भी नकारात्मक दिखाने का प्रयास किया जाता है।
- ज्यादातर फिल्मों में जो ऊपर वकीलों के लिये लिखता हूँ, उसी छवि को दिखाने के लिये नेता, पुलिस तथा डॉक्टर आदि के लिये भी किया किया जाता है। फिल्मों में साफ तौर पर दिखाया जाता है कि खास तौर पर महाराष्ट्र राज्य के मुख्यमंत्री कुर्सी बचाने के लिये व गृह मंत्री सीएम की कुर्सी पाने के लिये अपराधियों का साथ लेते है। यहाँ किसी समुदाय की ओर ऊँगली न होकर व्यक्ति विशेष की ओर होता है, क्योंकि मुख्यमंत्री या गृहमंत्री कोई व्यक्ति विशेष होता है। पुलिस के तौर पर केवल मुम्बई पुलिस को ले लिया जाता है और डॉक्टरों के लिये भी कि वे बहुत बार पैसों की लालच में अपराधी तत्वों के साथ खड़े होते है। अब तक कितने नेता, डॉक्टर व पुलिस समुदाय आहत हुआ।
- पुन: विधि की ओर आऊँगा, सिरफिरे वकील द्वारा मुकदमा दायर करने की बात उठी थी। उसका भी विश्लेषण करना चाहूंगा। आज अधिवक्ता पेशे में नैतिक मूल्यों में काफी गिरावट आयी है। ज्यादातर युवा अधिवक्ता कोर्ट में कम सड़को पर ज्यादा नजर आते है। इस प्रकार युवाओं द्वारा अपनी मांगों को लेकर तोड़ फोड़ या बलवा नैतिक है। क्या कोई आम आदमी अपनी ओर से मुकदमा दायर करके, इनके अनैतिक बंद तथा तोड़ फोड का विरोध नहीं कर सकता है। क्योंकि आम आदमी को विधिक जानकारी नहीं होती है। अत्यंत खेद का विषय है कि कोई वकील क्यो नही अपने समुदाय इन कृत्यों को अवैध सिद्ध करने के लिए मुकदमा दायर नही करता है।
- वर्तमान समय मे हम हर समय विधि का उल्लंघन करते है, कहीं पान खाकर थूकते है तो कहीं सार्वजनिक स्थान पर धूम्रपान आदि ऐसे विषय है जहाँ विधि का तोड़ा जाता है किन्तु आप फिर से विधि को तोड़ कर पुलिस या सक्षम अधिकारी को घूस देकर छूट सकते है।
- करीब 2 साल पूर्व जिस प्रकार एक कथित ब्लॉग न इलाहाबाद उच्च न्यायालय की गरिमा को तार तार किया उसे भी कतई उचित नहीं कहा जा सकता था, किसी उच्च न्यायालय के न्यायाधीश पर ऐसी टिप्पणी मैने तो कभी नही देखी थी।
विधि का उल्लंघन कोई आम बात नही है, पायरेटेड सीडी से पूरा मार्केट पटा पड़ा है, क्या यह विधि के अंतर्गत है? प्रत्यक्ष व परोक्ष दैहिक धंधे हो रहे है क्या यह विधि के अंतर्गत है ? आज समाज में ऐसे बहुत से मुद्दे है जिस पर अधिवक्ता जैसे बौद्धिक वर्ग से समाज की बहुत अपेक्षायें है न किसी आतंकवादी के समर्थन में खड़े होने की। उस लेख की भाषा तल्ख थी, जिसमें आक्रोश था। देश पर आतंकी हमला, जो अब तक का देश पर सबसे बड़ा आतंकी हमला था, इस पर देश के हर नागरिक को आक्रोश होना स्वाभाविक है।
कसाब के सम्बन्ध में न्यायालय से तो मेरी यही माँग होगी कि कोई न्यायधीश इस मामले में लीक से हटकर अपना ऐतिहासिक फैसला दे, और न्याय की गरिमा को बनावटी गवाहो तथा साक्ष्यों से धोखा न दिया जा सके। मा. सर्वोच्च तथा उच्च न्यायालय के को किसी भी जगह त्वरित न्याय देने का अधिकार है, वह अपनी अदालत किसी भी समय किसी भी जगह लगा सकता है, न्याय को कसौटी पर मापने को स्वतंत्र है। निश्चित रूप से आज समय है कि देश की दर्द भरी पुकार को न्यायालय सुने और अपना ऐतिहासिक फैसला दे ताकि कोई अन्य गतिविधि को अंजाम देकर कसाब को बचाने का प्रयास न किया जा सके।
अजमल कसाब के सम्बन्ध में यही कहना चाहूंगा कि मीडिया, भारतवासियों तथा बहुत माध्यम से सिद्ध है कि वह आतंकवादी के रूप में हमला किया व पकड़ा गया। दुर्भाग्य है कि किसी वीर सैनिक की गोली उसके सीने में नहीं लगी अन्यथा उसे बेकसूर सिद्ध करने का प्रश्न ही खत्म हो गया होता। आज जिंदा पकड़े जाने पर उस आतंकवादी को बेकसूर साबित करने की कोशिश की जा रही है। प्रश्न उठता है कि जो आतंकवादी गोली का शिकार होकर मारे गये वे भी तो बेकसूर हो सकते थे जब कसाब के बारे में बेकसूर होने की सम्भावना व्यक्त की जा रही है। अरुण जी ने जो आक्रोश व्यक्त किया, करीब बहुत से पाठकों ने अपना समर्थन व्यक्त किया था, जिसमें मै भी था। जिस प्रकार लेख को गलत कहा गया कि ''तीसरा खम्भे'' की नजरों में यह अपराध है। अगर ऐसा है तो तीसरे खंभे में जरूर घुन लग रहा है और यह घुने हुये तीसरे खम्भे की सोच ही हो सकती है क्योंकि लेख में कुछ गलत नहीं था यदि था तो उसे डिलीट करने के अलावा भी कई उपाय सोचे जा सकते थे, किंतु सीधे डिलीट करने की अनुशंसा करना ठीक नहीं था। जब अनुमोदन पर लेख हटाया जा सकता था तो लेख को बरकरार रखते हुये अपत्तिजनक बातो को हटाया जा सकता था। जिससे लेख भी बरकरार रहता और भावनायें भी। विधि का पालन होना जरूरी है न कि उसका आतंक, लेख डिलीट करने जैसी घटना ''विधिक आतंकवाद'' को जन्म देती है। लेखको के समक्ष लेख हटाने व वापस लेना अन्तिम विकल्प होना चाहिये।
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