कितना अच्छा लगता है न जब नारी को छिनार बनाने वाले लोग ही किसी विशेष परिस्थिति में नारी को छिनार कहे जाने पर विरोध करें, ऐसे ही कुछ मीडिया के महानुभाव लोग "छिनार मुक्ति मोर्चा" का गठन किये हुये है। जब तक स्वयं छिनार बनाओ आंदोलन छेड़ा हुआ था तब तक तो ठीक था किन्तु जब किसी ने वर्तमान परिदृश्य को छूने की कोशिश की तो यह बुरा लगने वाला प्रतीत हो रहा है।
आज की जो परिस्थिति है वह बहुत ही निंदनीय और सोचनीय है, आज मोहल्ला ब्लॉग समूह बड़ी तेजी से विभूति नारायण को कुलपति पद से हटवाने के पीछे पड़ा हुआ है। यह वही मोहल्ला है जिसने पूर्व के वर्षों में अपनी गंदगी से काफी समय पूर्व तक बदबू फैला हुआ था, ऐसा है मोहल्ला जहाँ की सड़ांध से लोग दूर भागते फिरा करते है।
बात यहाँ विभूति की नही है बल्कि बात यहाँ उनके कुलपति के पद की है, अगर विभूति नारायण कुलपति न होते तो शायद ही इतना बड़ा मुहिम उनके खिलाफ चलाया गया होता। व्यक्ति की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भी कुछ होती है और उस व्यक्ति ने पिछले कुछ समय से कुछ ऐसी महिलाओ को कहा जो अनर्गल लेखन का सहारा ले रही है। यदि इस देश मे फिदा हुसैन जैसे लोगो को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार है कि हिन्दुओ के आराध्यों के नग्न चित्र बनाया जा सकता है किन्तु अन्य व्यक्ति मर्मस्पर्सी भावनाओ को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता नही कहा जा सकता है। अब कुछ ऐसे महानुभाव लोग यह कहते है कि अब अगर मकबूल फिदा हुसैन हिंदू को पेंटिंग में नहीं, इंटरव्यू में गाली देते तो उनका भी शर्तिया विरोध होता इसी प्रकार के विचित्र प्राणी भी इसी धरा पर विराजते है यह आज पता चला, कि दोहरे मापदंड ऐसे निकाले जाते है।
यह किसी को इसलिये पेंट मे दर्द नही हो रहा कि पिछले कुछ वर्षो की कुछ लेखिकाएँ छिनार हो गई अपितु पेंट के दर्द का असली कारण यह कि है कोई संवैधानिक दायित्व(कुलपति) पर बैठा व्यक्ति कैसे यह कह सकता है, इसका सारा अधिकार तो मोहल्ला के पत्रकारो का ही कि वो किसे छिनार बोलवाये और किसे नही, क्योकि पत्रकार बन्धु लोग तो पत्रकारिता की छात्राओं के साथ छेड़खानी करते है तो किसी नारी के दामन दंगा न ही होता अपुति उस समय पत्रकार उसी शोभा मे चार चांद लगाने का प्रयास कर रहा होता है।
बात यहाँ विभूति नारायण की नही है बात यहाँ महात्मा गांधी विश्वविद्यालय में अपनी दाल गलाने की, पूर्व में कभी दाल नहीं गली रही होगी तो आज कलम के सिपाहीगण, कमल की धार के बल पर विभूति नारायण सामाजिक बलात्कार करने में जुट गये, समकालीन मे कुछ पत्रकारों को तरह तरह के बलात्कार करने प्रचलन ही चल गया है, कभी कोई स्त्री का करता है तो कभी नाजायज स्त्री विमर्श का विरोध करने वाले है इसी प्रकार लगातार कुछ लोगों के कारण झूठे का बोल-बाला और सच्चे का मुँह काला किया जा रहा है। क्योंकि आज पत्रकारिता की कलम कुछ ऐसे ही अंधेर नगरी के चौपट राजाओ के हाथ लग गई है।
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तुम्हारी पालिटिक्स क्या है पार्टनर !
अभी तक तस्लीमा नसरीन और मकबूल फिदा हुसैन की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर जो जार-जार आंसू बहा रहे थे, सत्ता के दमन को जी-भर कोस रहे थे, छिनाल प्रकरण के बाद वह खुद बेपर्दा हो गये। विभूति राय ने जो कहा वह तो अलग विमर्श की मांग करता है लेकिन जिस तरह सजा का एलान करते हुये स्वनाम धन्य लोग विभूति के पीछे लग लिये उसने कई सारे सवाल पैदा कर दिये।
विभूति राय की टिप्पणी के बाद विरोध का पूरा का पूरा माहौल ही दरबारीनुमा हो गया। ज्यादातर, एक सुर मेरा भी मिलो लो की तर्ज पर विभूति की लानत मलानत में जुटे हैं। हमारे कई साथी तो इस वजह से भी इस मुहिम का हिस्सा बन लिये की शायद इसी बहाने उन्हें स्त्रियों के पक्षधर के तौर पर गिना जाने लगे। लेकिन एक सवाल हिन्दी समाज से गायब रहा कि- विभूति की टिप्प़डी़ के सर्न्दभ क्या हैं। इस तरह एक अहम सवाल जो खड़ा हो सकता था, वह सामने आया ही नहीं।
जबकि विभूति ने साक्षात्कार में यह अहम सवाल उठाया कि महिला लेखिकाओं की जो आत्मकथाएं स्त्रियों के रोजाना के मोर्चा पर जूझने, उनके संघर्ष और जिजाविषा के हलाफनामे बन सकते थे आखिर वह केलि प्रसंगों में उलझाकर रसीले रोमैण्टिक डायरी की निजी तफसीलों तक क्यूं समिति कर दिये गये। इस पर कुछ का यह तर्क अपनी जगह बिल्कुल जायज हो सकता है कि आत्मकथाएं एजेण्डाबद्व लेखन का नतीजा नहीं होंती लेकिन अगर सदियों से वंचित स्त्रियों का प्रतिनिधित्व करने वाली लेखिकाएं सिर्फ केलि प्रसंग के इर्द-गिर्द अपनी प्रांसगिकता तलाशने लगे तो ऐसे में आगे कहने को कुछ शेष नहीं बचता। हम पाठकों के लिए स्त्री विर्मश देह से आगे औरतों की जिन्दगी के दूसरे सवालों की ओर भी जाता हैं। हमें यह लगता है कि धर्म, समाज और पितसत्तामक जैसी जंजीरों से जकड़ी स्त्री अपने गरिमापूर्ण जीवन के लिए कैसे संघर्ष पर विवश है उसकी तफलीसें भी बयां होनी चाहिये। मन्नू भण्डारी, सुधा अरोडा, प्रभा खेतान जैसी तमाम स्त्री रचानाकारों ने हिन्दी जगत के सामने इन आयमों को रखा है।अन्या से अनन्या तो अभी हाल की रचना है जिसमें प्रभा खेतान के कन्फेस भी हैं लेकिन बिना केलि-प्रंसगों के ही यह रचना स्त्री अस्तित्व के संघर्ष को और अधिक मर्मिम बनाती है।
अगर यही सवाल विभूति भी खडा करते हैं तो इसका जवाब देने में सन्नाटा कैसा। जबकि एक तथाकथित लंपट किस्म के उपन्यासकार को ऐसी टिप्पणी पर जवाब देने के लिए कलम वीरों को बताना चाहिये कि- हजूर ! आपने जिन आत्मकथात्मक उपान्यासों का जिक्र किया है उसमें आधी दुनिया के संघर्षों की जिन्दादिल तस्वीर हैं और यौन कुंठा की वजह से आपको उनके सिर्फ चुनिंदा रति-प्रसंग ही याद रह गये।
मकबूल फिदा हुसैन का समर्थन करके जिस असहमति के तथाकथित स्पेस की हम हमेशा से दुहाई सी देते आये इस प्रकरण के बाद इस मोर्चे पर भी हमारी कलई खुल गयी। तमाम बड़े नामों को देखकर यह साफ हो गया कि अभी भी हमारे भीतर असहमति का कोई साहस नहीं है और अतिक्रमण करने वाले के खिलाफ हम खाप पंचायतों की हद तक जा सकते हैं। इन सबके बीच कुछ साथी छिनाल शब्द के लोकमान्यता में न होने की बात कहते हुये भी कुलपति को हटाने की मांग की लेकिन आज अगर आज लोकमान्यता के प्रतिकूल शब्द पर कुलपति हटाए जाते हैं तो हुसैन साहब की बनाई तस्वीरों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर हम कैसे आगे बचा सकेंगे क्योंकि लोकमान्यता के सामान्य अर्थों में शायद ही कोई हिन्दू सीता की नग्न तस्वीर देखना पसंद करें। और इसी तरह फिर शायद हम तस्लीमा के लिए भी सीना नहीं तान सकेंगे क्योंकि शायद ही कोई मुसलमान लोक मान्यता के मुताबिक धर्म को लेकर उनके सवालों से इत्तेफाक करेगा।
पहले ही कह चुका हूं कि विरोध को लेकर माहौल ऐसा दरबारीनुमा हो गया है कि प्रतिपक्ष में कुछ कहना लांछन लेना है। बात खत्म हो इसके पहले डिस्कमेलटर की तर्ज पर यह कहना जरूर चाहूंगा कि विभूति नारायण राय से अभी तक मेरी कुछ जमा तीन या चार बार की मुलाकात है, जो एक साक्षात्कार के लिए हुयी थी। इसका भी काफी समय हो चुका है और शायद अब विभूति दिमाग पर ज्यादा जोर देने के बाद ही मुझे पहचान सकें। तथाकथित स्त्री विमर्श के पक्ष में चल रही आंधी में मेरे यह सब कहना मुझे स्त्री विरोधी ठहर सकता है लेकिन इस जोखिम के साथ यह जानना जरूर चाहूंगा कि आखिर, पार्टनर! तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है….
हिमांशु पाण्डेय, इलाहाबाद में पत्रकार है।
विभूति राय की टिप्पणी के बाद विरोध का पूरा का पूरा माहौल ही दरबारीनुमा हो गया। ज्यादातर, एक सुर मेरा भी मिलो लो की तर्ज पर विभूति की लानत मलानत में जुटे हैं। हमारे कई साथी तो इस वजह से भी इस मुहिम का हिस्सा बन लिये की शायद इसी बहाने उन्हें स्त्रियों के पक्षधर के तौर पर गिना जाने लगे। लेकिन एक सवाल हिन्दी समाज से गायब रहा कि- विभूति की टिप्प़डी़ के सर्न्दभ क्या हैं। इस तरह एक अहम सवाल जो खड़ा हो सकता था, वह सामने आया ही नहीं।
जबकि विभूति ने साक्षात्कार में यह अहम सवाल उठाया कि महिला लेखिकाओं की जो आत्मकथाएं स्त्रियों के रोजाना के मोर्चा पर जूझने, उनके संघर्ष और जिजाविषा के हलाफनामे बन सकते थे आखिर वह केलि प्रसंगों में उलझाकर रसीले रोमैण्टिक डायरी की निजी तफसीलों तक क्यूं समिति कर दिये गये। इस पर कुछ का यह तर्क अपनी जगह बिल्कुल जायज हो सकता है कि आत्मकथाएं एजेण्डाबद्व लेखन का नतीजा नहीं होंती लेकिन अगर सदियों से वंचित स्त्रियों का प्रतिनिधित्व करने वाली लेखिकाएं सिर्फ केलि प्रसंग के इर्द-गिर्द अपनी प्रांसगिकता तलाशने लगे तो ऐसे में आगे कहने को कुछ शेष नहीं बचता। हम पाठकों के लिए स्त्री विर्मश देह से आगे औरतों की जिन्दगी के दूसरे सवालों की ओर भी जाता हैं। हमें यह लगता है कि धर्म, समाज और पितसत्तामक जैसी जंजीरों से जकड़ी स्त्री अपने गरिमापूर्ण जीवन के लिए कैसे संघर्ष पर विवश है उसकी तफलीसें भी बयां होनी चाहिये। मन्नू भण्डारी, सुधा अरोडा, प्रभा खेतान जैसी तमाम स्त्री रचानाकारों ने हिन्दी जगत के सामने इन आयमों को रखा है।अन्या से अनन्या तो अभी हाल की रचना है जिसमें प्रभा खेतान के कन्फेस भी हैं लेकिन बिना केलि-प्रंसगों के ही यह रचना स्त्री अस्तित्व के संघर्ष को और अधिक मर्मिम बनाती है।
अगर यही सवाल विभूति भी खडा करते हैं तो इसका जवाब देने में सन्नाटा कैसा। जबकि एक तथाकथित लंपट किस्म के उपन्यासकार को ऐसी टिप्पणी पर जवाब देने के लिए कलम वीरों को बताना चाहिये कि- हजूर ! आपने जिन आत्मकथात्मक उपान्यासों का जिक्र किया है उसमें आधी दुनिया के संघर्षों की जिन्दादिल तस्वीर हैं और यौन कुंठा की वजह से आपको उनके सिर्फ चुनिंदा रति-प्रसंग ही याद रह गये।
मकबूल फिदा हुसैन का समर्थन करके जिस असहमति के तथाकथित स्पेस की हम हमेशा से दुहाई सी देते आये इस प्रकरण के बाद इस मोर्चे पर भी हमारी कलई खुल गयी। तमाम बड़े नामों को देखकर यह साफ हो गया कि अभी भी हमारे भीतर असहमति का कोई साहस नहीं है और अतिक्रमण करने वाले के खिलाफ हम खाप पंचायतों की हद तक जा सकते हैं। इन सबके बीच कुछ साथी छिनाल शब्द के लोकमान्यता में न होने की बात कहते हुये भी कुलपति को हटाने की मांग की लेकिन आज अगर आज लोकमान्यता के प्रतिकूल शब्द पर कुलपति हटाए जाते हैं तो हुसैन साहब की बनाई तस्वीरों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर हम कैसे आगे बचा सकेंगे क्योंकि लोकमान्यता के सामान्य अर्थों में शायद ही कोई हिन्दू सीता की नग्न तस्वीर देखना पसंद करें। और इसी तरह फिर शायद हम तस्लीमा के लिए भी सीना नहीं तान सकेंगे क्योंकि शायद ही कोई मुसलमान लोक मान्यता के मुताबिक धर्म को लेकर उनके सवालों से इत्तेफाक करेगा।
पहले ही कह चुका हूं कि विरोध को लेकर माहौल ऐसा दरबारीनुमा हो गया है कि प्रतिपक्ष में कुछ कहना लांछन लेना है। बात खत्म हो इसके पहले डिस्कमेलटर की तर्ज पर यह कहना जरूर चाहूंगा कि विभूति नारायण राय से अभी तक मेरी कुछ जमा तीन या चार बार की मुलाकात है, जो एक साक्षात्कार के लिए हुयी थी। इसका भी काफी समय हो चुका है और शायद अब विभूति दिमाग पर ज्यादा जोर देने के बाद ही मुझे पहचान सकें। तथाकथित स्त्री विमर्श के पक्ष में चल रही आंधी में मेरे यह सब कहना मुझे स्त्री विरोधी ठहर सकता है लेकिन इस जोखिम के साथ यह जानना जरूर चाहूंगा कि आखिर, पार्टनर! तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है….
हिमांशु पाण्डेय, इलाहाबाद में पत्रकार है।
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नही जमी - "वन्स अपॉन ए टाइम इन मुंबई"
Once Upon A Time In Mumbaai के बारे में जितना सुना उतना मिला नहीं। जहाँ तक मै जानता हूँ कि मुंबई के नाम पर फिल्म बने तो वह औसत हिट हो ही जायेगी। शुरू से लेकर अंत तक फिल्म के कुछ हिस्से छोड़ दिये जाये तो दर्शकों को बांधने मे असफल रही है। पता नहीं वह कौन सा समय था जब मुम्बई काली दुनिया के खौफ से बेखौफ होकर घूमती थी ?
फिल्म शुरुआत होती है, एक एम्बेसडर कार के समुद्र के निकलने से, यह कार मुंबई के एएसपी एग्नेल विल्सन की होती है। उनका ही सहकर्मी यह कहता है कि यह आत्महत्या है न की एग्नेल विल्सन पर कोई हमला, यह विल्सन के सीनियर इस बात को जानना चाहते है कि कारण क्या है तो सूत्रधार के रूप में एग्नेल विल्सन फिल्म की कहानी शुरू करते है।
एग्नेल विल्सन के रूप में अभिनेता रणदीप हुड्डा का काम मुझे पसंद आया, अभिनेत्री कंगना राणावत भी अपना ग्लैमर छोड़ने में सफल रही,कंगना जितनी सेक्सी और हसीन दिख सकती थी फिल्म में इससे भी ज्यादा नज़र आयी। फिल्म मे कंगना फिल्म मे सबसे अधिक सुन्दर अजय देवगन के साथ भाषण के समय लगी। प्राची देसाई भी रोल के हिसाब से औसत का किया।
अजय देवगन की बात ही निराली है, उनके बारे कुछ कह ही नही सकता, अभिनय अच्छा रहा। मेरी यह इमरान हाशमी की पहली फिल्म थी जिसे मैने देखा, उसका काम भी ठीक था। अन्तोगत्वा फिल्म को बहुत उम्दा नहीं कहा जा सकता है, मेरे नजर मे पैसा बेकर फिल्म थी।छ हटकर - कुछ दिनो से मूड ठीक नहीं था और मै सो रहा था, कल रात मे दोस्त संजू का फोन आया कि कल दोपहर 1.50 की फिल्म का टिकट ले ले रहा हूँ। मैने भी नींद मे कहा ले लो और फोन कट गया। आज सुबह 10 बजे फिर फोन आया चल रहे हो न, मैने पूछा कहाँ ? उसने कहा कि भूल गये क्या ? :)
आखिर बात खत्म हुई और मै 1.45 पर पीवीआर पहुँच गया जहां वो इंतजार कर रहा था। अच्छा लगा मूड ठीक नहीं था पर दोस्त का साथ हमेशा सब कुछ खराब होने पर भी सब ठीक कर देता है। जब फिल्म शुरू हुई तो एक लड़का अपनी गर्लफ्रेंड के साथ आया और मशगूल होकर मेरे ऊपर बैठने लगा, मैंने कहा भाई साहब देख करके। अच्छा हुआ उसकी गर्लफ्रेंड ने बैठने की कोशिश नहीं की। :)
फिल्म का ब्रेक मे हम कुछ खाने के लिये चल दिये लौट कर आये तो देखा कि एक नेपाली लड़का हमारी सीट पर बैठा था हमने कहा भाई साहब यहाँ कहाँ ? पता चला कि वो हॉल 2 में बैठा था और चला आया 3 मे :) खैर फिल्म देखा और अब मूड काफी कुछ अच्छा लग रहा है यही कारण है कि आज पोस्ट भी लिख रहा हूँ।Share:
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