॥ श्री रामाष्टकः ॥ (Shree Ramashtak)



Ramashtakam


श्री रामाष्टकः
हे रामा पुरुषोत्तमा नरहरे नारायणा केशव ।
गोविन्दा गरुड़ध्वजा गुणनिधे दामोदरा माधवा ।।

हे कृष्ण कमलापते यदुपते सीतापते श्रीपते ।
बैकुण्ठाधिपते चराचरपते लक्ष्मीपते पाहिमाम् ।।

आदौ रामतपोवनादि गमनं हत्वा मृगं कांचनम् ।
वैदेही हरणं जटायु मरणं सुग्रीव सम्भाषणम् ।।

बालीनिर्दलनं समुद्रतरणं लंकापुरीदाहनम् ।
पश्चाद्रावण कुम्भकर्णहननं एतद्घि रामायणम् ।।


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डाकू रत्नाकर से महर्षि वाल्मीकि (Maharishi Valmiki)





इंसान की अगर इच्छा शक्ति उसके साथ हो तो वह कोई भी काम बड़े आराम से कर सकता है। इच्छा शक्ति और दृढ़ संकल्प इंसान को रंक से राजा बना देती है और एक अज्ञानी को महान ज्ञानी। भारतीय इतिहास में आदि कवि महर्षि वाल्मीकि जी की जीवन कथा भी हमें दृढ़ संकल्प और मजबूत इच्छा शक्ति अर्जित करने की तरफ अग्रसर करती है। कभी रत्नाकर के नाम से चोरी और लूटपाट करने वाले वाल्मीकि जी ने अपने संकल्प से खुद को आदि कवि के स्थान तक पहुंचाया और “वाल्मीकि रामायण” के रचयिता बने। आइए आज इन महान कवि की जीवन यात्रा पर एक नजर डालें।

दस्यु (डाकू) रत्नाकर से महर्षि वाल्मीकि(Maharishi Valmiki)
पौराणिक कथा के अनुसार प्राचीन समय में एक रत्नाकर नाम का दस्यु था जो अपने इलाके से आने-जाने वाले यात्रियों को लूटकर अपने परिवार का भरण पोषण करता था। एक बार नारद मुनि भी इस दस्यु के शिकार बने। जब रत्नाकर ने उन्हें मारने का प्रयत्न किया तो नारद जी ने पूछा – तुम यह अपराध क्यों करते हो?
रत्नाकर: अपने परिवार के भरण-पोषण के लिए? नारद मुनि: अच्छा तो क्या जिस परिवार के लिए तुम यह अपराध करते हो वह तुम्हारे पापों का भागीदार बनने को तैयार है ?
इसको सुनकर रत्नाकर ने नारद मुनि को पेड़ से बांध दिया और प्रश्न का उत्तर जानने के लिए अपने घर चला गया। घर जाकर उसने अपने परिवार वालों से यह सवाल किया लेकिन उसे यह जानकर आश्चर्य हुआ कि कोई भी उसके पाप में भागीदार नहीं बनना चाहता।

घर से लौटकर उसने नारद जी को स्वतंत्र कर दिया और अपने पापों का प्रायश्चित करने की मंशा जाहिर की। इस पर नारद जी ने उसे धैर्य बँधाया और राम नाम जप करने का उपदेश दिया। लेकिन भूल वश वाल्मीकि राम-राम की जगह ‘मरा-मरा’ का जप करते हुए तपस्या में लीन हो गए। इसी तपस्या के फलस्वरूप ही वह वाल्मीकि के नाम से प्रसिद्ध हुए और रामायण की महान रचना की।

संस्कृत का पहला श्लोक
महर्षि वाल्मीकि के जीवन से जुड़ी एक और घटना है जिसका वर्णन अत्यंत आवश्यक है। एक बार महर्षि वाल्मीकि एक क्रौंच पक्षी के जोड़े को निहार रहे थे। वह जोड़ा प्रेम करने में लीन था। पक्षियों को देखकर महर्षि वाल्मीकि न केवल अत्यंत प्रसन्न हुए, बल्कि सृष्टि की इस अनुपम कृति की प्रशंसा भी की। इतने में एक पक्षी को एक बाण आ लगा, जिससे उसकी जीवन -लीला तुरंत समाप्त हो गई। यह देख मुनि अत्यंत क्रोधित हुए और शिकारी को संस्कृत में कुछ श्लोक कहा। मुनि द्वारा बोला गया यह श्लोक ही संस्कृत भाषा का पहला श्लोक माना जाता है।

मां निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः।
यत्क्रौंचमिथुनादेकम् अवधीः काममोहितम्॥
(अरे बहेलिये, तूने काममोहित मैथुनरत क्रौंच पक्षी को मारा है।जा तुझे कभी भी प्रतिष्ठा की प्राप्ति नहीं हो पाएगी)

वाल्मीकि रामायण महर्षि वाल्मीकि ने ही संस्कृत में रामायण की रचना की। उनके द्वारा रची रामायण वाल्मीकि रामायण कहलाई। रामायण एक महाकाव्य है जो कि श्रीराम के जीवन के माध्यम से हमें जीवन के सत्य से, कर्तव्य से, परिचित करवाता है। वाल्मीकि रामायण में भगवान राम को एक साधारण मानव के रूप में प्रस्तुत किया गया है। एक ऐसा मानव, जिन्होंने संपूर्ण मानव जाति के समक्ष एक आदर्श उपस्थित किया। रामायण प्राचीन भारत का सबसे महत्वपूर्ण ग्रंथ है।


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बिल्वपत्र का महत्व एवं प्रयोग



बिल्व (बेल) पत्र का महत्व एवं प्रयोग
Bael (Aegle marmelos), also known as Bengal quince, golden apple, stone apple, wood apple, bili.


बिल्व (बेल )पत्र

बिल्व (बेल ) फल

मान्यता है कि शिव को बिल्व-पत्र चढ़ाने से लक्ष्मी की प्राप्ति होती है। दरअसल बिल्व-पत्र एक पेड़ की पत्तियां हैं, जो आमतौर पर तीन-तीन के समूह में मिलती हैं। कुछ पत्तियां पांच के समूह की भी होती हैं लेकिन ये बड़ी दुर्लभ होती हैं। बिल्व को बेल भी कहते हैं। वास्तव में ये बिल्व की पत्तियां एक औषधि है। इसके औषधीय प्रयोग से हमारे कई रोग दूर हो जाते हैं। बिल्व के पेड़ का भी विशिष्ट धार्मिक महत्व है। कहते हैं कि इस पेड़ को सींचने से सब तीर्थो का फल और शिवलोक की प्राप्ति होती है।

महादेव का रूप है वृक्ष.बिल्व वृक्ष का धार्मिक महत्व है। कारण यह महादेव का ही रूप है। धार्मिक परंपरा में ऐसी मान्यता है कि बिल्व के वृक्ष के मूल अर्थात जड़ में लिंगरूपी महादेव का वास रहता है। इसीलिए बिल्व के मूल में महादेव का पूजन किया जाता है। इसकी मूल यानी जड़ को सींचा जाता है। इसका धार्मिक महत्व है। धर्मग्रंथों में भी इसका उल्लेख है-
बिल्वमूले महादेवं लिंगरूपिणमव्ययम्।
य: पूजयति पुण्यात्मा स शिवं प्राप्नुयाद्॥
बिल्वमूले जलैर्यस्तु मूर्धानमभिषिञ्चति।
स सर्वतीर्थस्नात: स्यात्स एव भुवि पावन:॥
शिव पुराण १३/१४
अर्थ- बिल्व के मूल में लिंगरूपी अविनाशी महादेव का पूजन जो पुण्यात्मा व्यक्ति करता है, उसका कल्याण होता है। जो व्यक्ति शिवजी के ऊपर बिल्वमूल में जल चढ़ाता है उसे सब तीर्थो में स्नान का फल मिल जाता है।

बिल्व-पत्र तोड़ने का मंत्रबिल्व-पत्र को सोच-विचार कर ही तोड़ना चाहिए। पत्ते तोड़ने से पहले यह मंत्र बोलना चाहिए-
"अमृतोद्भव श्रीवृक्ष महादेवप्रिय: सदा।
गृह्णामि तव पत्राणि शिवपूजार्थमादरात् ॥"
अर्थ- अमृत से उत्पन्न सौंदर्य व ऐश्वर्यपूर्ण वृक्ष महादेव को हमेशा प्रिय है। भगवान शिव की पूजा के लिए हे वृक्ष में तुम्हारे पत्र तोड़ता हूं।


पत्तियां कब न तोड़ें - विशेष दिन या पर्वो के अवसर पर बिल्व के पेड़ से पत्तियां तोड़ना मना है। शास्त्रों के अनुसार इसकी पत्तियां इन दिनों में नहीं तोड़ना चाहिए-

सोमवार के दिन
चतुर्थी, अष्टमी, नवमी, चतुर्दशी और अमावस्या की तिथियों को।
संक्रांति के पर्व पर।
अमारिक्तासु संक्रान्त्यामष्टम्यामिन्दुवासरे ।
बिल्वपत्रं न च छिन्द्याच्छिन्द्याच्चेन्नरकं व्रजेत ॥ - (लिंगपुराण)अर्थ - अमावस्या, संक्रान्ति के समय, चतुर्थी, अष्टमी, नवमी और चतुर्दशी तिथियों तथा सोमवार के दिन बिल्व-पत्र तोड़ना वर्जित है।


क्या चढ़ाया गया बिल्व-पत्र भी चढ़ा सकते हैं-शास्त्रों में विशेष दिनों पर बिल्वपत्र चढ़ाने से मना किया गया है तो यह भी कहा गया है कि इन दिनों में चढ़ाया गया बिल्व-पत्र धोकर पुन: चढ़ा सकते हैं।

अर्पितान्यपि बिल्वानि प्रक्षाल्यापि पुन: पुन:।
शंकरायार्पणीयानि न नवानि यदि चित्॥ (स्कन्दपुराण, आचारेन्दु)
अर्थ- अगर भगवान शिव को अर्पित करने के लिए नूतन बिल्व-पत्र न हो तो चढ़ाए गए पत्तों को बार-बार धोकर चढ़ा सकते हैं।

विभिन्न रोगों की कारगर दवा :बिल्व-पत्र-बिल्व का वृक्ष विभिन्न रोगों की कारगर दवा है। इसके पत्ते ही नहीं बल्कि विभिन्न अंग दवा के रूप में उपयोग किए जाते हैं। पीलिया, सूजन, कब्ज, अतिसार, शारीरिक दाह, हृदय की घबराहट, निद्रा, मानसिक तनाव, श्वेतप्रदर, रक्तप्रदर, आंखों के दर्द, रक्तविकार आदि रोगों में बिल्व के विभिन्न अंग उपयोगी होते हैं। इसके पत्तो को पानी से पकाकर उस पानी से किसी भी तरह के जख्म को धोकर उस पर ताजे पत्ते पीसकर बांध देने से वह शीघ्र ठीक हो जाता है।

पूजन में महत्व- वस्तुत: बिल्व पत्र हमारे लिए उपयोगी वनस्पति है। यह हमारे कष्टों को दूर करती है। भगवान शिव को चढ़ाने का भाव यह होता है कि जीवन में हम भी लोगों के संकट में काम आएं। दूसरों के दुःख के समय काम आने वाला व्यक्ति या वस्तु भगवान शिव को प्रिय है। सारी वनस्पतियां भगवान की कृपा से ही हमें मिली हैं अत: हमारे अंदर पेड़ों के प्रति सद्भावना होती है। यह भावना पेड़-पौधों की रक्षा व सुरक्षा के लिए स्वतः प्रेरित करती है।

पूजा में चढ़ाने का मंत्र- भगवान शिव की पूजा में बिल्वपत्र यह मंत्र बोलकर चढ़ाया जाता है। यह मंत्र बहुत पौराणिक है।
त्रिदलं त्रिगुणाकारं त्रिनेत्रं च त्रिधायुतम्।
त्रिजन्मपापसंहारं बिल्वपत्रं शिवार्पणम्॥
अर्थ- तीन गुण, तीन नेत्र, त्रिशूल धारण करने वाले और तीन जन्मों के पाप को संहार करने वाले हे शिवजी आपको त्रिदल बिल्व पत्र अर्पित करता हूं।


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