दस दिन का दशहरा, नौ दिन का नवरात्र और साथ ही दुर्गा-पूजा उत्सव। ये सभी भारतीय परम्परा का बहुत बड़ा हिस्सा हैं। हर साल सितंबर-अक्टूबर में यह पर्व दस दिन तक मनाया जाता है जो पूरी तरह से देवी मां को समर्पित है। यह शुरू होता है नौ दिन के व्रत से और खत्म होता है ‘विजयदशमी‘ को। देवी मां को कई तरह के नामों से जाना जाता है जैसे दुर्गा, भवानी, अंबा, चंडिका, गौरी, पार्वती, महिषासुर मर्दिनी और दूसरे कई नाम। दुर्गा का मतलब है ‘शक्ति‘ जो भगवान शिव की ऊर्जा की भी प्रतीक हैं। हालांकि मां दुर्गा सभी देवताओं की प्रचण्ड शक्ति को दर्शाती है और भक्तों की रक्षक के रूप में भी जानी जाती हैं। मां दुर्गा का स्मरण आते ही उनकी छवि सामने आती है- सिंह पर सवार और हाथों में कई अस्त्र लिए शक्ति की।
हिंदुओं में यह त्योहार अलग-अलग तरीकों से मनाया जाता है। कुछ देशों में विभिन्न तरह से इस उत्सव का आयोजन होता हैं। उत्तरी भारत में यह पर्व नौ दिन तक चलता है। इसे नवरात्र कहते हैं। इस अवसर पर कई लोग व्रत रखते हैं और फिर विजयदशमी भी धूमधाम से मनाई जाती है। पश्चिमी भारत में नौ दिन का यह त्योहार मनाया जाता है पर वहां एक खास तरह का नृत्य भी होता है। जिसमें पुरुष और महिलाएं दोनों ही हिस्सा लेते हैं। दक्षिण भारत में दशहरा दस दिन का होता है और यह मेले भी लगाए जाते है। पूर्वी भारत में इस त्योहार पर लोगों का उत्साह देखते बनता है। सांतवे दिन से लेकर दसवें दिन तक महोत्सव जैसा माहौल लगता है। हालांकि इस पर्व पर अलग-अलग रूप भी दिखते हैं। जैसे- गुजरात का गरबा नृत्य, वाराणसी की रामलीला, मैसूर का दशहरा और बंगाल की पूजा तो देखते बनती है।
नवरात्र का मतलब होता है ‘नौ रात‘ जिसे लोग पूजा और व्रत कर मनाते हैं। यह साल में दो बार आता है। पहला गर्मियों के शुरू होते ही और दूसरा सर्दियों के आगमन से पहले। नवरात्र के दौरान ऊर्जा और शक्ति की प्रतीक देवी मां की उपासना और भक्ति की जाती है। सदियों से नारी को शक्ति का प्रतीक माना गया हैं। बच्चे भी अपने मां से बहुत कुछ सीखते हैं इसलिए माता की पूजा जरूरी हो जाती है। और उसी शक्ति के रूप में मां दुर्गा की पूजा की जाती है। नवरात्र के नौ दिन को लोग कई तरह से मनाते हैं। पर नवरात्र का पहला तीन दिन पूरी तरह से मां दुर्गा का उत्सव होता है उसके बाद के तीन दिन में मां लक्ष्मी की पूजा की जाती हैं और फिर आखिरी के तीन दिन में देवी सरस्वती की। इन नौ दिनों में भक्तों को धन, बुद्धि और शक्ति तीनों का आशीर्वाद मिलता हैं। ‘दशहरा‘ नवरात्र के बाद का दसवां दिन हैं। यह दिन बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रतीक है। रामायण के अनुसार इसी दिन असत्य के प्रतीक रावण को मार कर सत्य को नई प्रतिष्ठा दी थी। इस दिन रावण पुतले फूंके जाते हैं।
उत्तरी भारत खासकर वाराणसी में दशहरा रामलीला का मंचन कर मनाया जाता है। मैसूर का दशहरा देखते बनता है। यहां दुर्गा के रूप में चामुंडा देवी की पूजा की जाती है। कहते हैं मैसूर के महाराजा का पूरा परिवार इन्हें अपना खानदानी देवी मानता था। चामुंडा देवी की पूजा में हाथी-घोड़े सब शामिल होते हैं। यह दृश्य बेहद सुंदर होता है। पूर्वी भारत खासकर बंगाल में दुर्गा पूजा का माहौल ही कुछ अलग होता है। बड़े पंडालों में मां दुर्गा की भव्य मूर्तियां रखी जाती हैं और उनकी पूजा की जाती है। सांस्कृतिक उत्सव के साथ प्रसाद भी बंटता हैं। जब मां दुर्गा की विदाई होती है तो महिलाएं सिंदूर की होली खेलती हैं और खुशी-खुशी मां को अगले साल आने का आवाहन करती हैं। वहीं पूर्वी परम्परा में मां दुर्गा के साथ-साथ मां लक्ष्मी, सरस्वती, भगवान गणेश और कार्तिकेय की मूर्ति भी साथ में रखी जाती है और उनकी भी पूजा की जाती है। विजयदशमी के दिन जहां रावण जलाने की परम्परा है वहीं मां दुर्गा की विदाई भी की जाती हैं। यह माना जाता है मां विदा होकर अपने पति भगवान शिव के पास कैलाश पर्वत चली जाती है।
नवरात्र के दौरान मां दुर्गा की उपासना से सुख-संपत्ति और ज्ञान ही नहीं, कई शक्तियां भी प्राप्त होती हैं। जिससे जीवन की चुनौतियां का सामना करने की हिम्मत मिलती है। वैसे तो हर किसी में अपनी शक्ति होती है लेकिन मां दुर्गा यह शक्ति और बढ़ा देती है।
देवी मां दुर्गा के नौ विभिन्न रूपों की पूजा का उत्सव है नवरात्रि पर्व। यह पर्व साल में दो बार मनाया जाता है। इनमें पहला है चैत्र नवरात्रि और दूसरा है शारदीय नवरात्रि। शारदीय नवरात्रि के बारे में कहा जाता है कि सर्वप्रथम भगवान श्रीरामचंद्रजी ने इस पूजा का प्रारंभ समुद्र तट पर किया था और उसके बाद दसवें दिन लंका विजय के लिए प्रस्थान किया और विजय प्राप्त की। मान्यता है कि तभी से असत्य पर सत्य की जीत तथा अर्धम पर धर्म की विजय की जीत के प्रतीक के रूप में दशहरा और उससे पहले नवरात्रि पर्व मनाया जाने लगा।
नवरात्रि पर्व के दौरान प्रत्येक दिन आदिशक्ति के विभिन्न नौ रूपों की विधि विधान से पूजा की जाती है। इन नौ रूपों में मां दुर्गा का पहला स्वरूप ‘शैलपुत्री’ के नाम से विख्यात है। कहा जाता है कि पर्वतराज हिमालय के घर पुत्री रूप में उत्पन्न ह¨ने के कारण इनका नाम ‘शैलपुत्री‘ पड़ा। नवरात्रि पर्व के दूसरे दिन मां के दूसरे स्वरूप ‘ब्रह्मचारिणी’ की पूजा अर्चना की जाती है। दुर्गा जी का तीसरा स्वरूप मां ‘चंद्रघंटा’ का है। तीसरे दिन की पूजा का नवरात्रि में अत्यधिक महत्व माना गया है। पूजन के चौथे दिन कूष्माण्डा देवी के स्वरूप की उपासना की जाती है। पांचवां दिन स्कंदमाता की उपासना का दिन होता है। स्कंदमाता अपने भक्तों की समस्त इच्छाओं की पूर्ति करती हैं। दुर्गा जी के छठे स्वरूप का नाम कात्यायनी और सातवें स्वरूप का नाम कालरात्रि है। मान्यता है कि नवरात्रि के सातवें दिन मां कालरात्रि की पूजा से ब्रह्मांड की समस्त सिद्धियों का द्वार खुलने लगता है। दुर्गा जी की आठवें स्वरूप का नाम महागौरी है। यह मनवांछित फलदायिनी हैं और इनकी उपासना से श्रद्धालुओं के सभी पाप विनष्ट हो जाते हैं। दुर्गा जी के नौवें स्वरूप का नाम सिद्धिदात्री है। ये सभी प्रकार की सिद्धियों को देने वाली हैं। जो श्रद्धालु इस दिन पूरे विधि-विधान और पूर्ण निष्ठा के साथ साधना करते हैं उन्हें सभी सिद्धियों की प्राप्ति होती है।
पूजन विधि- वेदी पर रेशमी वस्त्र से आच्छादित सिंहासन स्थापित करें। उसके ऊपर चार भुजाओं तथा उनमें आयुधों से युक्त देवी की प्रतिमा स्थापित करें। भगवती की प्रतिमा रत्नमय भूषणों से युक्त, मोतियों के हार से अलंकृत, दिव्य वस्त्रों से सुसज्जित, शुभलक्षण सम्पन्न और सौम्य आकृति की हो। वे कल्याणमयी भगवती शंख-चक्र-गदा-पद्म धारण किये हुये हों और सिंह पर सवार हों अथवा अठारह भुजाओं से सुशोभित सनातनी देवी को प्रतिष्ठित करें। भगवती की प्रतिमा के अभाव में नवार्णमन्त्र युक्त यंत्र को पीठ पर स्थापित करें और पीठ पूजा के लिये पास में कलश भी स्थापित कर लें। वह कलश पंचपल्लव युक्त, उत्तम तीर्थ के जल से पूर्ण और सुवर्ण तथा पंचरत्नमय होना चाहिये। पास में पूजा की सब सामग्रियां रखकर उत्सव के निमित्त गीत तथा वाद्यों की ध्वनि भी करानी चाहिये। हस्त नक्षत्र युक्त नन्दा तिथि में पूजन श्रेष्ठ माना जाता है। पहले दिन विधिवत् किया हुआ पूजन मनुष्यों का मनोरथ पूर्ण करने वाला होता है। सबसे पहले उपवास व्रत, एकभुक्त व्रत अथवा नक्तव्रत इनमें से किसी एक व्रत के द्वारा नियम करने के पश्चात् ही पूजा करनी चाहिये।
पूजन के पहले प्रार्थना करते हुये कहें- हे माता् मैं सर्वश्रेष्ठ नवरात्र व्रत करूंगा। हे देवि! हे जगदम्बे! इस पवित्र कार्य में आप मेरी संपूर्ण सहायता करें। इस व्रत के लिए यथाशक्ति नियम रखें। उसके बाद मंत्रोच्चारणपूर्वक विधिवत् भगवती का पूजन करें। चंदन, अगरु, कपूर तथा मन्दार, करंज, अशोक, चम्पा, कनैल, मालती, ब्राम्ही आदि सुगन्धित पुष्पों, सुंदर बिल्वपत्रों और धूप-दीप से विधिवत् भगवती जगदम्बा का पूजन करना चाहिये। इस अवसर पर अघ्र्य भी प्रदान करें। नारियल, बिजौरा नींबू, दाडिम, केला, नारंगी, कटहल तथा बिल्वफल आदि अनेक प्रकार के सुंदर फलों के साथ भक्तिपूर्वक अन्न का नैवेद्य अर्पित करें। होम के लिए त्रिकोण कुण्ड बनाना चाहिये अथवा त्रिकोण के मान के अनुरूप उत्तम वेदी बनानी चाहिये। विविध प्रकार के सुंदर द्रव्यों से प्रतिदिन भगवती का त्रिकाल पूजन करना चाहिये और गायन, वादन तथा नृत्य के द्वारा महान उत्सव मनाना चाहिये।
व्रती नित्य भूमि पर सोये और वस्त्र, आभूषण तथा अमृत के सदृश दिव्य भोजन आदि से कुमारी कन्याओं का पूजन करे। नित्य एक ही कुमारी का पूजन करें अथवा प्रतिदिन एक-एक कुमारी की संख्या के वृद्धि क्रम से पूजन करें अथवा प्रतिदिन दुगुने-तिगुने के वृद्धि क्रम से और या तो प्रत्येक दिन 9 कुमारी कन्याओं का पूजन करें। अपने धन-सामथ्र्य के अनुसार भगवती की पूजा करें। देवी के यज्ञ में धन की कृपणता न करें। पूजा विधि में एक वर्ष की अवस्था वाली कन्या नहीं लेनी चाहिये क्योंकि यह कन्या गन्ध और भोग आदि पदार्थों के स्वाद से बिल्कुल अनभिज्ञ रहती है। कुमारी कन्या वह कही गयी है जो दो वर्ष की हो चुकी हो। तीन वर्ष की कन्या त्रिमूर्ति, चार वर्ष की कन्या कल्याणी, पांच वर्ष की रोहिणी, छह वर्ष की कालिका, सात वर्ष की चण्डिका, आठ वर्ष की शाम्भवी, 9 वर्ष को दुर्गा और दस वर्ष की कन्या सुभद्रा कहलाती है। इससे ऊपर की अवस्था वाली कन्या का पूजन नहीं करना चाहिये क्योंकि वह सभी कार्यों में निन्द्य मानी जाती हैं। इन नामों से कुमारी का विधिवत् पूजन सदा करना चाहिये।
अद्भुत व अलौकिक हैं दुर्गा माता के सभी नौ स्वरूप
नवरात्र में माता दुर्गा के नौ रूपों को पूजा जाता है। माता दुर्गा के इन सभी नौ रूपों का अपना अलग महत्व है। माता के प्रथम रूप को शैलपुत्री, दूसरे को ब्रह्मचारिणी, तीसरे को चंद्रघण्टा, चैथे को कूष्माण्डा, पांचवें को स्कन्दमाता, छठे को कात्यायनी, सातवें को कालरात्रि, आठवें को महागौरी तथा नौवें रूप को सिद्धिदात्री कहा जाता है। नवरात्र के सभी नौ दिन इन सभी रूपों में बंटे हुए हैं जोकि इस प्रकार हैं-
शैलपुत्री
वन्दे वांछितलाभाय चन्द्रार्धकृतशेखराम।
वृषारूढां शूलधरां शैलपुत्रीं यशंस्विनिम।।
मां दुर्गा का पहला स्वरूप शैलपुत्री का है। पर्वतराज हिमालय के यहां पुत्री के रूप में उत्पन्न होने के कारण इनको शैलपुत्री कहा गया। यह वृषभ पर आरूढ़ दाहिने हाथ में त्रिशूल और बाएं हाथ में पुष्प कमल धारण किए हुए हैं। यह नव दुर्गाओं में प्रथम दुर्गा हैं। नवरात्र पूजन में पहले दिन इन्हीं का पूजन होता है। प्रथम दिन की पूजा में योगीजन अपने मन को मूलाधार चक्र में स्थित करते हैं। यहीं से उनकी योग साधना शुरू होती है।
ब्रह्मचारिणी
दधाना करपद्माभ्यामक्षमालाकमण्डलू।
देवी प्रसीदतु मयि ब्रह्मचारिण्यनुत्तमा।।
मां दुर्गा की नौ शक्तियों में से दूसरा स्वरूप ब्रह्मचारिणी का है। यहां ब्रह्मा शब्द का अर्थ तपस्या से है। ब्रह्मचारिणी का अर्थ हुआ तप की चारिणी यानि तप का आचरण करने वाली। ब्रह्मचारिणी देवी का स्वरूप पूर्ण ज्योतिर्मय एवं अत्यंत भव्य है। इसके बाएं हाथ में कमण्डल और दाएं हाथ में जप की माला रहती है। मां दुर्गा का यह स्वरूप भक्तों और सिद्धों को अनंत फल प्रदान करने वाला है। इनकी उपासना से मनुष्य में तप, त्याग, वैराग्य, सदाचार और संयम की वृद्धि होती है। दुर्गा पूजा के दूसरे दिन इन्हीं की उपाासना की जाती है। इस दिन साधक का मन स्वाधिष्ठान चक्र में स्थित होता है। इस चक्र में अवस्थित मन वाला योगी उनकी कृपा और भक्ति प्राप्त करता है।
मां दुर्गा की तीसरी शक्ति का नाम चंद्रघण्टा है। नवरात्र उपासना में तीसरे दिन इन्हीं के विग्रह का पूजन व आराधना की जाती है। इनका स्वरूप परम शांतिदायक और कल्याणकारी है। इनके मस्तक में घण्टे के आकार का अर्धचन्द्र है। इसी कारण इस देवी का नाम चंद्रघण्टा पड़ा। इनके शरीर का रंग स्वर्ण के समान चमकीला है। इनका वाहन सिंह है। हमें चाहिए कि हम मन, वचन, कर्म एवं शरीर से शुद्ध होकर विधि-विधान के अनुसार, मां चंद्रघण्टा की शरण लेकर उनकी उपासना व आराधना में तत्पर हों। इनकी उपासना से हम समस्त सांसारिक कष्टों से छूटकर सहज ही परमपद के अधिकारी बन सकते हैं।
माता दुर्गा के चैथे स्वरूप का नाम कूष्माण्डा है। अपनी मंद, हल्की हंसी द्वारा ब्रह्मांड को उत्पन्न करने के कारण इनका नाम कूष्माण्डा पड़ा। नवरात्रों में चैथे दिन कूष्माण्डा देवी के स्वरूप की उपासना की जाती है। इस दिन साधक का मन अनाहज चक्र में स्थित होता है। अतः पवित्र मन से पूजा-उपासना के कार्य में लगना चाहिए। मां की उपासना मनुष्य को स्वाभाविक रूप से भवसागर से पार उतारने के लिए सुगम और श्रेयस्कर मार्ग है। माता कूष्माण्डा की उपासना मनुष्य को आधिव्याधियों से विमुक्त करके उसे सुख, समृद्धि और उन्नति की ओर ले जाती है। अतः अपनी लौकिक, परलौकिक उन्नति चाहने वालों को कूष्माण्डा की उपासना में हमेशा तत्पर रहना चाहिए।
स्कन्दमाता
सिंहासनगता नित्यं पद्माश्रितकरद्वया।
शुभदास्तु सदा देवी स्कन्दमाता यशस्विनी।।
मां दुर्गा के पांचवें स्वरूप को स्कन्दमाता कहा जाता है। ये भगवान स्कन्द ‘कुमार कार्तिकेय’ के नाम से भी जाने जाते हैं। इन्हीं भगवान स्कन्द अर्थात कार्तिकेय की माता होने के कारण मां दुर्गा के इस पांचवें स्वरूप को स्कन्दमाता के नाम से जाना जाता है। इनकी उपासना नवरात्रि पूजा के पांचवें दिन की जाती है इस दिन साधक का मन विशुद्ध चक्र में स्थित रहता है। इनका वर्ण शुभ्र है। ये कमल के आसन पर विराजमान हैं। इसलिए इन्हें पद्मासन देवी भी कहा जाता है। इनका वाहन भी सिंह है। नवरात्र पूजन के पांचवें दिन का शास्त्रों में पुष्कल महत्व बताया गया है। इस चक्र में अवस्थित रहने वाले साधक की समस्त बाह्य क्रियाएं एवं चित्र वृत्तियों का लोप हो जाता है।
मां दुर्गा के छठे स्वरूप को कात्यायनी कहते हैं। कात्यायनी महर्षि कात्यायन की कठिन तपस्या से प्रसन्न होकर उनकी इच्छानुसार उनके यहां पुत्री के रूप में पैदा हुई थीं। महर्षि कात्यायन ने सर्वप्रथम इनकी पूजा की थी इसलिए ये कात्यायनी के नाम से प्रसिद्ध हुईं। मां कात्यायनी अमोद्य फलदायिनी हैं। दुर्गा पूजा के छठे दिन इनके स्वरूप की पूजा की जाती है। इस दिन साधक का मन आज्ञा चक्र में स्थित रहता है। योग साधना में इस आज्ञा चक्र का अत्यंत ही महत्वपूर्ण स्थान है। इस चक्र में स्थित मन वाला साधक मां कात्यायनी के चरणों में अपना सब कुछ न्यौछावर कर देता है। भक्त को सहजभाव से मां कात्यायनी के दर्शन प्राप्त होते हैं। इनका साधक इस लोक में रहते हुए भी अलौकिक तेज से युक्त होता है।
मां दुर्गा के सातवें स्वरूप को कालरात्रि कहा जाता है। मां कालरात्रि का स्वरूप देखने में अत्यंत भयानक है लेकिन ये सदैव शुभ फल देने वाली मानी जाती हैं। इसलिए इन्हें शुभड्करी भी कहा जाता है। दुर्गा पूजा के सप्तम दिन मां कालरात्रि की पूजा का विधान है। इस दिन साधक का मन सहस्त्रार चक्र में स्थित रहता है। उसके लिए ब्रह्मांड की समस्त सिद्धियों के द्वार खुलने लगते हैं। इस चक्र में स्थित साधक का मन पूर्णतः मां कालरात्रि के स्वरूप में अवस्थित रहता है। मां कालरात्रि दुष्टों का विनाश और ग्रह बाधाओं को दूर करने वाली हैं। जिससे साधक भयमुक्त हो जाता है।
मां दुर्गा के आठवें स्वरूप का नाम महागौरी है। दुर्गा पूजा के आठवें दिन महागौरी की उपासना का विधान है। इनकी शक्ति अमोघ और सद्यः फलदायिनी है। इनकी उपासना से भक्तों के सभी कलुष धुल जाते हैं।
सिद्धिदात्री
सिद्धगन्धर्वयक्षाद्यैरसुरैरमरैरपि।
सेव्यामाना सदा भूयात सिद्धिदा सिद्धिदायिनी।।
मां दुर्गा की नौवीं शक्ति को सिद्धिदात्री कहते हैं। जैसा कि नाम से प्रकट है ये सभी प्रकार की सिद्धियों को प्रदान करने वाली हैं। नव दुर्गाओं में मां सिद्धिदात्री अंतिम हैं। इनकी उपासना के बाद भक्तों की सभी मनोकामनाएं पूर्ण हो जाती हैं। देवी के लिए बनाए नैवेद्य की थाली में भोग का सामान रखकर प्रार्थना करनी चाहिए।
50 से 200 मि.ली. छाछ में जीरा और सेंधा नमक डालकर उसके साथ निर्गुण्डी के पत्तों का 20 से 50 मि.ली. रस पीने से वात रोगों से मुक्ति मिलती है।
रसवंती के साथ शहद मिलाकर लगाने से डिप्थिरिया, टॉन्सिल, गले के रोग, मुँह का पकना, भगंदर, गंडमाल आदि मिटते हैं।
मेथी की सब्जी का नियमित सेवन करने से अथवा उसका दो-दो चम्मच रस दिन में दो बार पीने से शरीर में कोई रोग नहीं होता।
असगंध का चूर्ण, गुडुच का चूर्ण एवं गुडुच का सत्व 1-1 तोला लेकर उसमें घी-शहद (विषम-मात्रा) में मिलाकर दो महीने तक (शिशिर ऋतु में) में खाने से कमजोरी दूर होकर सब रोग नष्ट हो जाते हैं।
स्वच्छ पानी को उबालकर आधा कर दें। ऐसा पानी बुखार, कफ, श्वास, पित्तदोष, वायु, आमदोष तथा मेद का नाशक है।
प्रतिदिन प्रातःकाल 1 से 3 ग्राम हरड़ के सेवन से हर प्रकार के रोग से बचाव होता है।
महात्मा प्रयोग - हरड़ का पाँच तोला चूर्ण एवं सोंठ का ढाई तोला चूर्ण लेकर उसमें आवश्यकतानुसार गुड़ मिलाकर चने जितनी गोली बनायें। रात्रि को सोते समय 3 से 6 गोली पानी के साथ लें। जब जरूरत पड़े तब तमाम रोगों से उपयोग किया जा सकता है। यह कब्जियत को मिटाकर साफ दस्त लाती है।
कल्याण अमृत बिन्दुः कपूर, इजमेन्ट के फूल(क्रिस्टल मेन्थल), अजवाइन के फूल तीनों समान मात्रा में लेकर शीशी में डाल दें। तीनों मिलकर पानी बन जायेंगे। शीशी के ऊपर कार्क लगाकर फिर बंद कर दें ताकि दवा उड़ न जाये। इस दवा की 2 से 5 बूँद दिन में 3 से 4 बार पानी के साथ देने से कॉलरा, दस्त, मंदाग्नि, अरूचि, पेट का दर्द, वमन आदि मिटता है। दाँत अथवा दाढ़ के दर्द में इसमें रूई का फाहा भीगोकर लगायें। सिर अथवा बदनदर्द में इस दवा को तेल में मिलाकर मालिश करें। सर्दी-खाँसी होने पर थोड़ी सी दवा ललाट एवं नाक पर लगायें। छाती के दर्द में छाती पर लगायें। यह दवा सफर में साथ रखने से डॉक्टर का काम करती है।
आज का विचार
"रणभूमि मेँ दस हजार योद्धाओँ को जीतने वाले को बलवान माना जाता है किँतु इससे भी बलवान वह है जो अपने मन को जीत लेता है...!!!"