स्वामी विवेकानंद हिंदी में (Swami Vivekananda In Hindi)
स्वामी विवेकानन्द भारतीय दर्शन, धर्म, संस्कृति, देशप्रेम और विश्व बंधुत्व की जीवंत प्रतिमा थे, जिन्होंने विश्व में गहन आध्यात्मिकता और मानव मूल्यों के भारतीय दर्शन की स्थापना की। युवा नरेन्द्र अपने गुरू स्वामी रामकृष्ण परमहंस की उस रहस्यमयी ऊर्जा के समन्वय थे, जा भारतीय ऋषियों ने युगों से विश्व विरासत की उदात्त भावना के परिपेक्ष्य में अपने शिष्यों को विरासत में दी है। ऊर्जा और अध्यात्म धर्म और समाज संस्कृति और समन्वय का ऐसा उदाहरण विश्व इतिहास में ही नहीं मिलता जो स्वामी जी के विराट व्यक्तित्व में समाहित रहा है। स्वामी विवेकानन्द के पिता श्री विश्वनाथ दत्त और दादा दुर्गाचरण दत्त थे। उनके पिता अंग्रेजी और फारसी भाषा के विद्वान थे। उन्हें बाइबिल और फारसी के कवि फाजिल के शेरों की बहुत अच्छी जानकारी थी। वह कलकत्ता के हाईकोर्ट में एक सफल बैरिस्टर थे। स्वामी विवेकानंद के बाबा फारसी और संस्कृत के प्रकाण्ड विद्वान थे। वह 50 वर्ष की उम्र में सन्यासी हो गये थे। स्वामी विवेकानन्द अपने पिता की मृत्यु के कुछ दिन बाद ही रामकृष्ण परमहंस के शिष्य बन गये थे।
स्वामी विवेकानन्द भारतीय दर्शन, धर्म, संस्कृति, देशप्रेम और विश्व बंधुत्व की जीवंत प्रतिमा थे, जिन्होंने विश्व में गहन आध्यात्मिकता और मानव मूल्यों के भारतीय दर्शन की स्थापना की। युवा नरेन्द्र अपने गुरू स्वामी रामकृष्ण परमहंस की उस रहस्यमयी ऊर्जा के समन्वय थे, जा भारतीय ऋषियों ने युगों से विश्व विरासत की उदात्त भावना के परिपेक्ष्य में अपने शिष्यों को विरासत में दी है। ऊर्जा और अध्यात्म धर्म और समाज संस्कृति और समन्वय का ऐसा उदाहरण विश्व इतिहास में ही नहीं मिलता जो स्वामी जी के विराट व्यक्तित्व में समाहित रहा है। स्वामी विवेकानन्द के पिता श्री विश्वनाथ दत्त और दादा दुर्गाचरण दत्त थे। उनके पिता अंग्रेजी और फारसी भाषा के विद्वान थे। उन्हें बाइबिल और फारसी के कवि फाजिल के शेरों की बहुत अच्छी जानकारी थी। वह कलकत्ता के हाईकोर्ट में एक सफल बैरिस्टर थे। स्वामी विवेकानंद के बाबा फारसी और संस्कृत के प्रकाण्ड विद्वान थे। वह 50 वर्ष की उम्र में सन्यासी हो गये थे। स्वामी विवेकानन्द अपने पिता की मृत्यु के कुछ दिन बाद ही रामकृष्ण परमहंस के शिष्य बन गये थे।
स्वामी विवेकानन्द का जन्म 12 जनवरी 1863 को हुआ था। उनका बचपन का नाम नरेन्द्र था। नरेन्द्र की माता का नाम भुवनेश्वरी देवी था। वह बड़ी ही धार्मिक प्रवृत्ति की सद्गृहस्थ महिला थीं। वे अत्यन्त बुद्धिमान और तेजस्विनी थीं। वह बहुत जल्दी ही अपने संपर्क में आने वाले लोगों को प्रभावित कर देती थीं। उन्हें रामायण और महाभारत जैसे धार्मिक ग्रन्थों का अच्छा ज्ञान था। दोनों ग्रन्थ उन्होंने कंठस्थ ही कर रखे थे। नरेन्द्र को अंग्रेजी की प्रारंभिक शिक्षा अपनी मां से ही मिली। उन्होंने भी मां की तरह कई धार्मिक ग्रन्थों के प्रसंग याद कर रखे थे। वह घर पर ही ध्यान में तल्लीन हो जाते। एक दिन तो घर वालों ने कमरे का दरवाजा तोड़कर उन्हें जोर से हिलाया तब उनका ध्यान टूटा।
माता उनकी चंचलता देखकर कह उठतीं- मैंने शिवजी से पुत्र मांगा था, उन्होंने यह भूत भेज दिया। वही भूत आगे चलकर देश-विदेश में हिन्दू राष्ट्र और संस्कृति का कितना बड़ा नाम कर गया यह सारी दुनिया जानती है। उन्हें पशु-पंक्षियों और प्राकृतिक दृश्यों से बड़ा लगाव था। छह वर्ष की अवस्था में उन्हें पाठशाला भेजा गया। अगले वर्ष पंडित ईश्वर चन्द्र विद्यासागर द्वारा स्थापित मैट्रोपोलिटन इंस्टीट्यूट में प्रवेश दिलाया गया। वे हाजिर जबाब थे। उन्हें तलवारबाजी, लाठीचालन, कुश्ती, नौका और कई तरह के खेल पसन्द थे। पाक विद्या अर्थात् रसोई के कार्य में भी वे बड़ी रूचि लेते थे। सन् 1877 ई0 में वह कक्षा 3 के विद्यार्थी थे। पिता को किसी कार्यवश रायपुर जाना पड़ा। नरेन्द्र भी उनके साथ थे जिस कारण उनकी स्कूली शिक्षा बाधित हो गयी। दो वर्ष बाद वे कलकत्ता लौटे। उनकी कुशाग्र बुद्धि को देखते हुए ही उन्हें पुनः प्रवेश मिल सका लेकिन इससे भी बड़े आश्चर्य की बात थी कि उन्होंने तीन वर्ष का पाठ्यक्रम मात्र एक वर्ष में ही पूरा कर लिया। कालेज प्रवेश परीक्षा में वे विशेष योग्यता के साथ उत्तीर्ण हुए। इस अवधि में उनकी ध्यान और साधना काफी बढ़ गई थी। उन्हें प्रेसीडेन्सी कालेज में प्रवेश मिला। वहां के प्रधानाचार्य डब्लूडब्लू हेस्टी ने एक बार कहा था- ’’मैंने सुदूर देशों का भ्रमण किया है लेकिन कहीं भी नरेेंद्र जैसा प्रतिभावान और संभावनाओं से भरा शिष्य नहीं देखा।
जान स्टुअर्ट मिल, ह्यूम और हर्बर्ट स्पेन्सर के अध्ययन से उनके विचारों में काफी बड़ा परिवर्तन आया। उन पर ब्रह्म समाज के नेता केशव चन्द्र सेन का बड़ा प्रभाव था। सत्य को जानने की तीव्र आकांक्षा से वे ब्रह्म समाजी नेता महर्षि देवेन्द्र नाथ ठाकुर के पास भी गये। जब उन्होंने देवेन्द्र नाथ ठाकुर से पूछा- क्या आपने ईश्वर को देखा है? यह सुनकर वे सकते में आ गये। उन्होंने नरेंद्र को रामकृष्ण परमहंस के पास भेजा। रामकृष्ण हुगली जिले के छोटे से गांव में एक निर्धन ब्राह्मण परिवार में पैदा हुए थे और दक्षिणेश्वर के काली मंदिर में पुजारी थे। उन्होंने कई धर्मों का ज्ञान प्राप्त किया था। नरेन्द्र ने अपने कालेज के प्रधानाचार्य विलियम हेस्टी से उनका उल्लेख सुना था। जब वह विलियम वर्डस्वर्थ की कविता का भावार्थ समझा रहे थे।
रामकृष्ण परमहंस नरेन्द्र से कुछ इस तरह मिले जैसे पूर्व परिचित हों और लम्बे अरसे से उनकी बाट देख रहे हों। रामकृष्ण से जब उन्होंने ईश्वर क¨ देखने की बात पूछी तो उन्होंने कहा- ’’ठीक ऐसे ही देखा है जैसे मैं तुझसे बात कर रहा हूं।’’ नरेन्द्र इस घटना के एक महीने बाद पुनः दक्षिणेश्वर आये तो रामकृष्ण परमहंस ने उन्हें छू दिया। उनके स्पर्श मात्र से उनके अन्दर की अभिनव अनुभूति जाग गयी। फिर नरेन्द्र का हफ्ते-पन्द्रह दिन में आना-जाना होता रहा। इसी बीच, 1884 में नरेन्द्र के पिता की हृदयगति रुक जाने से मृत्यु हो गयी। छह-सात लोगों के भरण-पोषण का भार अब उन्हीं पर आ गया। पिता की मृत्यु के बाद उन्होंने बीए की परीक्षा उत्तीर्ण की और लाॅ कालेज में प्रवेश लिया। अत्यन्त धनी बाप के बेटे को गरीब की तरह बिना जूते के मोटे कपड़े पहने भूखे पेट ही कालेज जाना पड़ता था। नरेन्द्र और रामकृष्ण की निकटता बढ़ती गयी।
1885 में रामकृष्ण परमहंस को गले का कैंसर हुआ। उन्हें श्याम पुकुर से काशीपुर के उद्यान भवन में लाया गया। एक दिन रामकृष्ण परमहंस ने उन्हें निर्देश दिया- मैं तेरे संरक्षण में इन लोगों को छोड़ता हूं। देखना मेरे चले जाने के बाद यह साधना-भजन छोड़कर कहीं घर वापस न जायें। 16 अगस्त 1886 को श्री रामकृष्ण ने महासमाधि ली। उसके बाद नरेन्द्र ने वराहनगर में रामकृष्ण संघ की स्थापना की जिसे बाद में रामकृष्ण मठ में बदल दिया गया। उन्होंने एक दिन विरजा होम संस्कार कर ब्रह्मचर्य और त्याग का व्रत लिया। 1888 तक वह वराहनगर में ही रहे उसके बाद कलकत्ता छोड़ वाराणसी, अयोध्या, लखनऊ, आगरा, वृन्दावन और हाथरस होकर हिमालय की यात्रा को चले गये। हाथरस रेलवे स्टेशन पर स्टेशन मास्टर शरदचंद्र गुप्त से उनकी भेंट हुयी जिन्हें उन्होंने प्रथम शिष्य बनाया और सदानन्द नाम दिया। एक वर्ष के उपरान्त वह गाजीपुर में पवहारी बाबा से मिले। 1890 में वह वापस वराह नगर पहुंचे। उनके गुरुभाई स्वामी अखंण्डानन्द तभी तिब्बत यात्रा से लौटे थे।
फरवरी 1891 में स्वामीजी एकांगी हो गये और दो वर्ष तक परिव्राजक के रूप में भ्रमण करते रहे। इस बीच वह राजपूताने की यात्रा पर निकले और इसी दौरान अलवर के महाराजा मंगल सिंह से भी मिले। महाराजा मूर्ति पूजा पर विश्वास नहीं करते थे लेकिन स्वामी विवेकानन्द से हुयी वार्ता के बाद उनकी आंखें खुल गयीं। खेतड़ी के महाराजा उनसे पहले ही शिक्षा ले चुके थे। एक दिन संध्या को एक नर्तकी महाराज का मनोरंजन कर रही थी। महाराज ने स्वामी जी को भी आने का निमंत्रण दिया लेकिन उन्होंने आने से इन्कार कर दिया। यह सूचना जब नर्तकी को मिली तो वह सूरदास का एक पद गाने लगी- ’’प्रभु मेरे अवगुण चित न धरो’’। नर्तकी के भावपूर्ण स्वर सुनकर स्वामीजी बाहर निकल आये और उन्होंने कहा कि इस घटना ने मेरी आंखों से पर्दा हटा दिया है। हम सभी ईश्वर की अभिव्यक्ति हैं। मैं किसी की निन्दा नहीं कर सकता। वे खेतड़ी महाराज के साथ जयपुर गये अ©र फिर राजपूताना होते हुए बम्बई और दक्षिण भारत की यात्रा की। वह 23 दिसम्बर 1892 को कन्याकुमारी पहुंचे। वहां वह तीन दिन तक सुदीर्घ और गंभीर समाधि में रहे।
वहां से वापस लौटकर स्वामीजी आबू रोड़ में अपने गुरुभाई स्वामी ब्रह्मानन्द और स्वामी तूर्यानन्द से मिले। उन्होंने उन दोनों से कहा- ’’मैं सारे भारत में घूमा हूं। देश की दरिद्रता और दुखों को देखकर मेरे आंसू नहीं रुक पाते। अब मैं इनकी मुक्ति के लिये अमेरिका जा रहा हूं। इकत्तीस मई 1893 को वह बम्बई से अमेरिका के लिये रवाना हुये। उन्होंने लंका, पनामा, सिंगापुर, हांगकांग, कैन्टान, नागाशाकी, ओसाका, क्योटो, टोक्यो, योकोहामा होते हुए जुलाई के अन्त में शिकागो पहुंचे। उन्होंने रास्ते में चीन और जापान के मंदिरों में भारत के धार्मिक प्रभावों के अवशेष देखे। चीन में संस्कृत पाण्डुलिपि देखकर वह आश्चर्यचकित थे, जापान में उन्हें बंग्ला लिपि में संस्कृत मंत्रों को देखकर अचरज हुआ। शिकागो पहुंचने के कुछ दिन पश्चात् उन्होंने विश्व धर्म मेले के सूचना विभाग में सम्पर्क किया तो पता चला कि सितम्बर के प्रथम सप्ताह में धर्म सम्मेलन शुरू होगा। उसमें हिस्सा लेने के लिए समुचित परिचय पत्र होना आवश्यक है। कोई भी व्यक्ति उस सम्मेलन में ऐसे ही शामिल नहीं हो सकता। उन्होंने मद्रास के एक मित्र को तार भेजकर सहायता की मांग की लेकिन उन्हें निराशा ही हाथ लगी।
शिकागो की अपेक्षा बोस्टन कम खर्चीला था इसलिए स्वामी विवेकानन्द बोस्टन के लिए रवाना हुए। रास्ते में उनकी भेंट अमेरिकन महिला से हुयी जिसने उन्हें अपने घर रहने का निमन्त्रण दिया। उन्होंने हार्वर्ड विश्वविद्यालय में यूनानी विभाग के प्रोफेसर जेएच राइट का परिचय दिया। श्री राइट का एक मित्र डा. बोरोज धर्म संसद प्रतिनिधि चयन समिति के अध्यक्ष थे। उन्होंने एक पत्र देकर स्वामीजी को उनके पास भेजा। उन्होंने पत्र में लिखा-’’यह एक ऐसा मनुष्य है जो हमारे सब प्रोफेसरों को मिला देने पर उनसे कहीं अधिक विद्वान है।’’ उन्होंने स्वामी जी को शिकागो का टिकट भी खरीदकर दिया। जब वह शिकागो पहुंचे तो समिति का पता उनके हाथ से खो गया। वे थक कर चकनाचूर हो गये। इस हताशा के क्षण में श्रीमती जार्ज डब्लू ह्वेल से उनका परिचय हुआ। ह्वेल ने स्वामीजी को धर्म महासभा के कार्यालय में पहुंचाया। उन्हें प्रतिनिधि के रूप में स्वीकार कर लिया गया। स्वामीजी धर्म सम्मेलन के प्रतिनिधियों के साथ ठहरा दिये गये।
कोलम्बस हाल में 11 सितम्बर 1893 को धर्म संसद आरम्भ हुयी उसमें 120 करोड़ मानवों के धार्मिक विश्वासों के प्रतिनिधि विराजमान थे। रोमन कैथोलिक चर्च के सर्वोच्च धार्मिक नेता कार्डीनल गिब्बन्स के दोनों ओर प्रतिनिधियों को बैठाया गया जिनमें प्रताप चन्द्र मजूमदार, बम्बई से ब्रह्म समाज के प्रतिनिधि नगरकर, लंका के बौद्ध प्रतिनिधि धर्मपाल, जैनियों के प्रतिनिधि महात्मा गांधी, श्रीमती ऐनी बीसेन्ट के साथ श्री चक्रवर्ती थियोसाॅफिकल सोसाइटी के प्रतिनिधि थे। उन्हीं के बीच स्वामी विवेकानन्द भी शामिल हुए। तीसरे पहर स्वामी विवेकानन्द को अध्यक्ष के जोर देने पर खड़ा होना पड़ा। उन्होंने बोलना प्रारम्भ किया- ’’अमेरिका निवासी बहनो और भाइयो!’’ इसके बाद स्वामी विवेकानन्द बोल न सके। समूचा सभास्थल तालियों से गडगडा उठा। स्वामी विवेकानन्द के सम्बोधन पर सभी श्रोता मन्त्रमुग्ध थे। उनसे पूर्व इतना हृदयस्पर्शी सम्बोधन कोई धर्म प्रतिनिधि नहीं दे सका था। देर तक सभा स्थल हर्षोल्लास से भरा हुआ था। लगभग पांच मिनट तक स्वामी विवेकानन्द ने बोलने की कोशिश की लेकिन खुशी के शोर में उनकी आवाज कोई सुन न सका।
स्वामी जी ने विश्व के युवाओं को सहिष्णुता की शिक्षा दी। उन्होंने दो श्लोकों का उद्धरण देते हुए कहा कि यदि कभी कोई सार्वभौमिक धर्म होना है तो वह किसी देश-काल की सीमा में नहीं रह सकता। वह उस असीम ईश्वर के सदृश ही असीम होगा जिसका उपदेश सूर्य, कृष्ण, ईसा और दूसरे धर्मगुरुओं ने समय-समय पर दिया है। उन्होंने अन्त में शुद्धता, पवित्रता, दयाशीलता, उन्नत चरित्र तथा गरीबों और असहायों पर दया की शिक्षा दी। अमेरिका के समाचार पत्रों में स्वामी विवेकानन्द पूरी तरह से छा गये थे। किसी समाचार पत्र ने उन्हें मशीहा तो किसी ने उन्हें ऋषि की संज्ञा दी। दि न्यूयार्क हेरल्ड ने ‘धर्म महासभा के सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति‘ की संज्ञा दी। उसने लिखा- ऐसे ज्ञानी देश में मिशनरियों को भेजना कितनी मूर्खता की बात है।
स्वामी विवेकानन्द की सफलता के समाचार शीघ्र ही भारत के सभी शहरों में पहुंच गये। मद्रास से अल्मोड़ा, कलकत्ता से बम्बई, सभी भारतीय समाचार पत्र-पत्रिकाओं ने स्वामी विवेकानन्द की सफलता की चर्चा की। वराह नगर रामकृष्ण मठ के सन्यासियों को भी यह समाचार मिला तो उनके आनन्द की सीमा न रही। इस धर्म सम्मेलन के बाद स्वामीजी अमेरिका के विभिन्न विद्यापीठों, संस्कृति केन्द्रों के प्रवास पर गये। उन्होंने ब्रूकलिन एथिकल एसोसिएशन के निमंत्रण पर आध्यात्मिक प्रकाश का मार्गदर्शन किया। जिज्ञासुओं को राजयोग और ज्ञानयोग का अभ्यास कराया। वह यूरोप और जर्मनी की यात्राओं पर भी गये जहां उन्होंने कई केन्द्र स्थापित कर अपने वेदान्त आन्दोलन का आरम्भ किया। 1895 में वह इंग्लैण्ड गये और लगभग डेढ़ वर्ष यूरोपीय संस्कृति के केन्द्र पेरिस में अजायबघर, गिरजाघर, केथेड्रल, आर्ट गैलरी और कला सम्पदा देखकर खूब मुग्ध हुए।
लंदन में उनकी भेंट मार्गेट नोबल से हुयी जो बाद में भगिनी निवेदिता के नाम से प्रसिद्ध हुयीं। स्वामीजी ने अपने गुरुभाई स्वामी शारदानन्द को लन्दन का काम सौंपकर पुनः अमेरिका का रुख किया जिन्हें बाद में न्यूयार्क बुला लिया गया था। 30 दिसम्बर 1896 को स्वामी जी स्वदेश के लिए रवाना हुए। लगभग 15 दिन बाद वह लंका के समुद्रतट पर पहुंचे। कोलम्बो पहुंचने पर धार्मिक स्त्रोतों, ध्वजाओं और पताकाओं के साथ जयघोष से उनका स्वागत किया गया। वे वहां 10 दिन रहे। फिर वे मद्रास पहुंचे जहां उनका बड़े धर्मगुरू की तरह स्वागत किया गया। उन्होंने वहीं विश्व के युवाओं का आह्वान किया - ’’उठो, जागो और ध्येय की प्राप्ति तक रुको मत। आत्मा अनन्त, सर्वशक्तिमान तथा सर्वज्ञ है। यदि सारी दुनिया हाथ में नंगी तलवार लेकर तुम्हारे विरोध में खड़ी हो जाये तो भी तुम जिसे सत्य समझते हो, उसे पूरा करने का साहस करो।’’ 28 फरवरी 1897 को वराहनगर रामकृष्ण मठ की ओर से स्वामी विवेकानन्द का अभिनन्दन किया गया जिसकी अध्यक्षता राजा विनय कृष्ण देव बहादुर ने की।
लंदन में उनकी भेंट मार्गेट नोबल से हुयी जो बाद में भगिनी निवेदिता के नाम से प्रसिद्ध हुयीं। स्वामीजी ने अपने गुरुभाई स्वामी शारदानन्द को लन्दन का काम सौंपकर पुनः अमेरिका का रुख किया जिन्हें बाद में न्यूयार्क बुला लिया गया था। 30 दिसम्बर 1896 को स्वामी जी स्वदेश के लिए रवाना हुए। लगभग 15 दिन बाद वह लंका के समुद्रतट पर पहुंचे। कोलम्बो पहुंचने पर धार्मिक स्त्रोतों, ध्वजाओं और पताकाओं के साथ जयघोष से उनका स्वागत किया गया। वे वहां 10 दिन रहे। फिर वे मद्रास पहुंचे जहां उनका बड़े धर्मगुरू की तरह स्वागत किया गया। उन्होंने वहीं विश्व के युवाओं का आह्वान किया - ’’उठो, जागो और ध्येय की प्राप्ति तक रुको मत। आत्मा अनन्त, सर्वशक्तिमान तथा सर्वज्ञ है। यदि सारी दुनिया हाथ में नंगी तलवार लेकर तुम्हारे विरोध में खड़ी हो जाये तो भी तुम जिसे सत्य समझते हो, उसे पूरा करने का साहस करो।’’ 28 फरवरी 1897 को वराहनगर रामकृष्ण मठ की ओर से स्वामी विवेकानन्द का अभिनन्दन किया गया जिसकी अध्यक्षता राजा विनय कृष्ण देव बहादुर ने की।
स्वामी विवेकानन्द ने अपने जीवनकाल में वेलूर मठ की स्थापना के अलावा अमरनाथ, अल्मोड़ा जैसे सुदूर हिमालय क्षेत्रों की यात्राएं भी कीं। वह दूसरी विदेश यात्रा पर 20 जून 1899 को रवाना हुए। अमेरिका में स्वामी तूर्यानन्द को ले जाकर वहां के कार्य को पुनः गति प्रदान की। वे न्यूयार्क के निकट मांट क्लेयर में रूक गये। स्वामी विवेकानन्द ने केलीफोर्निया, सान फ्रान्सिस्को, ओकलैण्ड, अलॅमेडा आदि स्थानों पर नये केन्द्र खोले। जुलाई 1900 में वे पेरिस पहुंचे जहां कांग्रेस आॅफ दि हिस्ट्री रिलीजन्स में शामिल हुए। लगभग तीन महीने पेरिस में रहकर विएना, कुस्तुन्तुनिया, एथेन्स और मिस्र होते हुए वे दिसम्बर में मातृभूमि वापस आ गये। सन् 1901 में वह पूर्वी बंगाल और असम की तीर्थयात्रा पर गये। अगले वर्ष उन्होंने बनारस की यात्रा की। स्वामी विवेकानन्द ने 39 वर्ष की अवस्था में देहत्याग कर दिया।
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