अन्य कार्यक्रमः शाखा के अतिरिक्त समय में भी संस्कार जगाने तथा गुणसंवर्धन करने वाले अनेक कार्यक्रम होते हैं। जैसे- सहभोजः इसमें सब स्वयंसेवक अपने-अपने घर से भोजन लाते हैं। सबका भोजन एक स्थान पर मिला दिया जाता है। कुछ देर तक गीत-कविता, अंत्याक्षरी-प्रश्नमंच आदि मनोरंजक एवं ज्ञानवर्द्धक कार्यक्रमों के बाद सब एक साथ बैठकर भोजन करते हैं, किसके घर का भोजन किसने किया, यह पता ही नहीं लगता। परस्पर स्नेह तथा समरसता जाग्रत करने में यह कार्यक्रम अतुलनीय है।
वनविहारः इसमें सब स्वयंसेवक अपने नगर-गांव से दूर जाकर खेलकूद आदि के बाद ‘सहभोज‘ करते हैं। कभी-कभी वहीं भोजन बनाते हैं या फिर सब आपस में शुल्क एकत्र कर कुछ खानपान सामग्री मंगा लेते हैं।
शिविरः प्रायः दो-तीन दिन के शिविर बाल एवं तरूण विद्यार्थियों, व्यावसायियों, अवकाश प्राप्त स्वयंसेवकों के लिए अलग-अलग होते हैं। इनमें विभिन्न प्रकार की शारीरिक-मानसिक प्रतियोगिताओं द्वारा स्वयंसेवक की प्रतिभा को उभारने का प्रयास किया जाता है। शिविर में सब तरह की आर्थिक एवं सामाजिक स्थिति वाले स्वयंसेवक आते हैं, पर सब एक साथ भूमि पर सोते, खाते-पीते तथा खेलते हैं। इनमें भाग लेने के लिए गणवेश, किराया, भोजन शुल्क आदि सब अपनी जेब से भरते हैं।
गणवेशः शाखा में तो स्वयंसेवक किसी भी निक्कर में आ सकता है, पर कुछ कार्यक्रमों में गणवेश अनिवार्य होता है। इसमें पूरी बांहों की एक जेब वाली सफेद कमीज, खाकी निकर, चमड़े की लाल पेटी का हुआ करता था अब सिंथेटिक की पेटी का उपयोग होने लगा है, खाकी मोजे, चमड़े या प्लास्टिक के काले फीते वाले जूते तथा काली टोपी होती है। प्रायः ऐसे कार्यक्रमों में कंधे तक की लाठी भी सब लाते हैं।
प्रशिक्षण वर्गः समय-समय पर नये कार्यकर्ताओं के प्रशिक्षण हेतु वर्गों का आयोजन होता है। एक सप्ताह के वर्ग को ‘प्राथमिक शिक्षा वर्ग‘ कहते हैं, इनका आयोजन दोे-तीन जिलों को मिलाकर किया जाता है। तीन सप्ताह के वर्ग के ‘संघ शिक्षा वर्ग‘ कहते हैं। ये प्रायः 20-25 जिलों के बीच मई-जून के अवकाश में होता है। प्रथम और द्वितीय वर्ष के संघ शिक्षा वर्ग अपने प्रान्त में ही होते हैं, जबकि ‘तृतीय वर्ष‘ का वर्ग पूरे देश का एक साथ नागपुर में होता है, इसकी अवधि एक मास की होती है।
संगठन संरचना: संघ की संगठनात्मक रचना हिन्दू परिवार जैसी है। एक शाखा के क्षेत्र को तीन-चार भागों में बांट देते हैं, जिसे ‘गट‘ तथा इसके प्रमुख को ‘गटनायक‘ कहते हैं, यह संघ की पहली इकाई है। शाखा के शारीरिक कार्यक्रमों को कराने के लिए 15-20 स्वयंसेवकों की कई टोलियां बनाते हैं, इन्हें ‘गण‘ तथा इनके प्रमुख को ‘गणशिक्षक‘ कहते हैं। शाखा लगाने वाला ‘मुख्यशिक्षक‘ तथा उनके ऊपर ‘कार्यवाह‘ होता है। नगर की तीन-चार शाखाओं या ग्रामीण क्षेत्र में न्यायपंचायत को कार्य देखने वाले को ‘मंडल कार्यवाह‘ तथा इसी प्रकार ‘नगर कार्यवाह‘ या ग्रामीण क्षेत्र में खंड, तहसील और जिला कार्यवाह होते हैं। नगर, खंड, तहसील तथा इसके ऊपर के स्तर पर ‘संघचालक‘ भी होते हैं, इनकी भूमिका परिवार के मुखिया जैसी, जबकि कार्यवाह की भूमिका मुख्य कर्ताधर्ता की होती है। जिला तथा उससे ऊपर के संघचालकों का प्रति तीन वर्ष बाद चुनाव होता है। ये अन्य प्रतिनिधियों के साथ मिलकर ‘सरकार्यवाह‘ को चुनते हैं। वर्तमान सरकार्यवाह श्री भैया जी जोशी हैं। ‘सरसंघचालक‘ की भूमिका परिवार के मुखिया की भांति ‘मार्गदर्शक एवं परामर्शदाता‘ की होती है, प्रायः संघचालक प्रमुख कार्यकर्ताओं के परामर्श से इनका मनोनयन करते हैं, वर्तमान में श्री मोहन जी भगवत पर यह दायित्व है। संघचालक तथा कार्यवाह के साथ खंड से लेकर अ0भा0 स्तर तक शारीरिक, बौद्धिक, सेवा तथा व्यवस्था प्रमुखों की टोली होती है। जिले में एक प्रचार प्रमुख भी होता हैं ये सब परस्पर विचार-विमर्श से अपने क्षेत्र के कार्य को गति एवं स्थायित्व प्रदान करते हैं।
प्रचारकः संघकार्य के विस्तार में प्रचारकों की बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका है। अनेक युवा स्वयंसेवक अपनी शिक्षा पूरी करने के बाद 2-3 वर्ष का समय देते हैं। इन्हीं ही ‘प्रचारक‘ कहते हैं। इनको कोई वेतन आदि नहीं मिलता, पर योगक्षेम की न्यूनतम आवश्यकताएं संगठन पूर्ण करता है। सामान्यतः प्रचारक स्वयंसेवक-परिवारों में ही भोजन करते हैं, निर्धारित समय के बाद ये घर लौटकर सामान्य कामकाज में लग जाते हैं। प्रचारक अपनी कार्य-अवधि में अविवाहित रहते हैं। अब बड़ी संख्या में अवकाश प्राप्त ‘वानप्रस्थी‘ कार्यकर्ता‘ भी पूरा समय देकर काम करने लगे हैं।
आर्थिक व्यवस्था : संघकार्य के संचालन में होने वाले सम्पूर्ण व्यय का आधार ‘श्री गुरूदक्षिणा‘ है। वर्ष में एक बार सब स्वयंसेवक अपनी शाखा के अनुसार एकत्र होकर कुछ राशि भगवद्ध्वज के सम्मुख अर्पण करते हैं। यह राशि एक लिफाफे में रखकर अर्पण की जाती है, जिससे किसी के मन में हीनता या बड़प्पन का भाव उत्पन्न न हो। उस शाखा के तीन-चार प्रमुख कार्यकर्ता इसका हिसाब रखते हैं। संघ के कार्यक्रम, कार्यालय की व्यवस्था, प्रचारकों के प्रवास... आदि इससे पूरे होते हैं।
संघ और सेवाकार्यः स्वयंसेवक जिम्मेदार नागरिक होने के नाते समाजसेवा में स्वाभाविक रूप से लगे रहते हैं। गत 15-20 वर्ष से इन सेवाकार्य को व्यवस्थित रूप दिया गया है। हिन्दू समाज के उपेक्षित, वंचित एवं निर्धन वर्ग की सेवार्थ 50,000 से भी अधिक सेवाकेन्द्र चलाये जा रहे हैं। प्रतिवर्ष इनकी संख्या बढ़ रही है। इनके संचालन के लिए 'सेवा भारती' आदि अनेक पंजीकृत संस्थाएं हैं। शाखा के प्राप्त संस्कारों के कारण बाढ़, भूकम्प, तूफान, चक्रवात, दुर्घटना आदि प्राकृतिक या मानव निर्मित आपदाओं में स्वयंसेवक सेवाकार्य में सबसे आगे तथा सबसे देर तक लगे दिखायी देते हैं।
संघ और विविध कार्य : स्वयंसेवकों में अपनी रूचि, प्रवृत्ति तथा सामाजिक आवश्यकता के अनुसार अनेक संगठन बनाये गये हैं। मजदूर-किसान, विद्यार्थी-नारी, धर्म-कला, शिक्षा-वनवासी, उपभोक्ता-सहकारिता, अर्थनीति-राजनीति, साहित्य-इतिहास...., अर्थात समाज के प्रायः सभी क्षेत्रों में स्वयंसेवक काम कर रहे हैं। इतना ही नहीं तो इन क्षेत्रों में काम करने वाले अन्य संगठनों से वे बहुत आगे भी हैं। इनका संविधान, कार्यविधि, अर्थव्यवस्था, कार्यालय आदि अलग होते हैं, फिर भी वैचारिक आधर पर ये संघ से जुड़े रहते हैं।
संघ का विरोध क्यों : एक सामाजिक संगठन होने के बावजूद अनेक लोग इसका विरोध करते हैं। मुख्यतः यह विरोध कम्युनिस्टों तथा कांग्रेस की ओर से होता है। कम्युनिस्टों के विरोध का आधार तो स्पष्ट है। कांग्रेस ने 1947 के बाद चाहा कि संघ उसकी युवा शाखा बन जाये, पर संघ ने यह स्वीकार नहीं किया। तब से नेहरू जी संघ के विरोधी बने गये। दूसरी ओर संघ ने अपनी बहुआयामी गतिविधियों से धर्मान्तरण को काफी मात्रा में रोका है तथा जो हिन्दू किसी कारण से धर्मान्तरित हो गये थे, उन्हें वापस लाने की प्रक्रिया भी तेजी से चलायी है। ईसाई तथा मुस्लिम संस्थाएं इस कारण संघ को शत्रु मानती हैं।