सादगी की प्रतिमा भारत के द्वितीय प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री



लाल बहादुर शास्त्री का जन्म 2 अक्टूबर 1904 को मुगलसराय उत्तरप्रदेश में हुआ था। उनके पिता शारदा प्रसाद एक गरीब शिक्षक थे, जो बाद में राजस्व कार्यालय में लिपिक (क्लर्क) बने। अपने पिता और अपनी माता श्रीमती रामदुलारी देवी के तीन पुत्रों में से वे दूसरे थे। शास्त्री जी की दो बहनें भी थीं। बचपन में ही उनके पिता का निधन हो गया। 1928 में उनका विवाह श्री गणेश प्रसाद की पुत्री ललिता देवी से हुआ और उनके छह संतान हुई। स्नातक की शिक्षा समाप्त करने पश्चात् वे भारत सेवक संघ से जुड़ गए और देश सेवा का व्रत लेते हुए यहां से अपने राजनैतिक जीवन की शुरुआत की। भारत की स्वतंत्रता के पश्चात् शास्त्री जी को उत्तरप्रदेश के संसदीय सचिव के रूप में नियुक्त किया गया था। वे गोविन्द वल्लभ पंत के मुख्यमंत्री के कार्यकाल में प्रहरी एवं यातायात मंत्री बने। यातायात मंत्री रहते उन्होंने प्रथम बार किसी महिला को बस संवाहक (कंडक्टर) के पद पर नियुक्त किया। प्रहरी विभाग के मंत्री होने के बाद उन्होंने भीड़ को नियंत्रण में रखने के लिए लाठी की जगह पानी की बौछार का प्रयोग आरम्भ कराया । 1951 में जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में वह अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के महासचिव नियुक्त हुए। उन्होंने 1952, 1957 व 1962 के चुनावों में कांग्रेस पार्टी को भारी बहुमत से जितवाने के लिए बहुत परिश्रम किया।
Lal Bahadur Shastri Family Photo - 1964
जवाहरलाल नेहरू का प्रधानमंत्री के कार्यकाल के दौरान 27 मई, 1964 को देहावसान हो जाने के बाद शास्त्री जी ने 9 जून, 1964 को प्रधानमंत्री का पदभार ग्रहण किया। बचपन में ही पिता का सिर से साया उठ जाने के उपरांत मां ने कदम-कदम पर आर्थक संघर्षों से जूझ-जूझ कर अपने बेटे लाल बहादुर का लालन-पालन किया था। हाई स्कूल में अध्ययन करते समय लाल बहादुर पण्डित निष्कामेश्वर मिश्र एवं रामनारायण मिश्र नामक दो अध्यापकों के निकट समपर्क में आए। इन अध्यापकों से लाल बहादुर ने आत्मविश्वास की शिक्षा अर्जित करते हुए हर मुसीबत में धैर्य से मुकाबला करते हुए आगे बढ़ने का संकल्प लिया।
आत्म्विश्वास के धनी लालबहादुर शास्त्री को अंग्रेजों के अत्याचारों व गांधीजी के अहिंसा के बजे बिगुल से अन्र्तआत्मा को झकझोर दिया और वे गांधीजी द्वारा चलाए गए आंदोलन में सक्रिय हो गए। आजादी के आंदोलन में भाग लेने से भला रोटी तो मिलती नहीं थी, सो उन्होंने आंदोलन में भाग लेने के साथ-साथ आर्थिक संकटों का मुकाबला करने के लिए अपने एक मित्र की खादी के कपड़े व वस्त्रों की दुकान पर काम करना शुरू कर दिया। नौकरी के साथ शास्त्री ने शिवप्रसाद गुप्त द्वारा चलाए गए काशी विद्यापीठ में पढ़ाई भी की। यहां से वे परीक्षा उत्तीर्ण कर प्रयाग आए और वहां वे नेहरू परिवार के सम्पर्क में आए और पूरी तरह राजनैतिक और सामाजिक कार्यों में जुट गए। कुछ ही समय उपरान्त शास्त्री जी प्रयाग नगरपालिका के सदस्य निर्वाचित हुए। जिससे उनके जनसेवा के कार्यों का विस्तार होने लगा। वे इम्प्रूवमेंट ट्रस्ट के सदस्य बने। इस ट्रस्ट के अध्यक्ष पण्डित जवाहरलाल नेहरू थे। वर्ष 1930 से 1935 तक वे का कांग्रेस कमेटी इलाहाबाद के मंत्री तथा बाद में अध्यक्ष बने। वर्ष 1937 में उत्तरप्रदेश प्रांतीय कांग्रेस कमेटी के मंत्री चुने गए और जनप्रिय हो गए। वर्ष 1941 और फिर 1942 में भारत छोड़ो आन्दोलन के दौरान विदेशी हुकूमत ने शास्त्री को गिरफ्तार कर लिया। ऐसे समय में उनके घर की आर्थिक स्थिति बहुत बिगड़ गई लेकिन बड़ी सूझबूझ व धैर्य के साथ उन्होंने संकट का मुकाबला किया। वर्ष 1946 में शास्त्री उत्तरप्रदेश निर्वाचित समिति के सदस्य चुन लिए गए।
भारत देश की आजादी के बाद वे सन् 1951-52 में उत्तर प्रदेश विधानसभा के सदस्य बने, उन्हीं दिनों केन्द्र में मंत्रीमंडल बनाया गया और शास्त्री को केन्द्रीय रेल व परिवहन मंत्री बनाया गया। उन्होंने मंत्रित्व पद पर रहते हुए रेल सेवाओं में अनेकानेक सुधार किए, किन्तु आलियालर (दक्षिण भारत) में रेल दुर्घटना में जब सैकड़ों लोगों की मृत्यु हो गई तो शास्त्री इस सदमे को बर्दाश्त न कर सके वपद से इस्तीफा दे दिया। वर्ष 1956-57 मेंइलाहाबाद से लोकसभा चुनावों में भारी मतों से निर्वाचित हुए और उन्हें केन्द्रीय मंत्रिमंडल में संचार परिवहन मंत्री बना दिया गया। कुछ ही समय उपरान्त उन्हें वाणिज्य मंत्री का पद सौंपा गया। मई,1964 में जवाहरलाल नेहरू के निधन के बाद लालबहादुर शास्त्री को देश का प्रधानमंत्री बनाया गया। वर्ष 1965 में पाकिस्तान ने भारत पर आक्रमण किया था उस समझौते के दौरान वे फरवरी, 1966 में ताशकंद समझौते में गए तो उनका वहीं निधन हो गया था। वर्ष 1966 की 11 फरवरी को शास्त्री जी के निधन की खबर सुनते ही पूरे भारत में शोक छा गया। उनके पार्थिव शरीर को भारत लाया गया और दिल्ली के विजयघाट पर उनका अंतिम संस्कार किया गया। आज वे हमारे बीच नहीं है, लेकिन उनकी यादें हमेशा -हमेशा हर भारतवासी के मन में प्रेरणादायक के रूप में ताजी है।


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अमृत फल आम के औषधीय प्रयोग



आम फलों का राजा है। कहते हैं यह इस भूतल पर अमरपुरी अर्थात स्वर्ग से आया है, इसी से इसका नाम अमृत फल हुआ, दूसरा देवफल तथा तीसरा सर्वप्रिय फल है क्योंकि इस फल को बच्चे, युवा, वृद्ध सभी यहाँ तक कि पक्षी भी बड़े चाव से खाते हैं और पसंद करते हैं, अतः इस फल के एक किस्म का नाम दिल पसंद है। आम स्वाद में ही नहीं, गुणों में भी राजा है। हिन्दी में आम को आम, नृपप्रिय, सर्वप्रिय, फलश्रेष्ठ, पिकवल्लभ आदि कहते हैं। संस्कृत में आम को आम्र, मराठी में आम को आम्बा, गुजराती में अंबो व कैरिनुझाड़, बंगला में आम्र, तमिल में मांगई, मलयालम में मआंग, सिंधी में अंब, कश्मीरी में अम्ब आदि कहते हैं।
 
भारत विश्व का सबसे ज्यादा आम का उत्पादन देश है। पूरे विश्व में आम का जितना भी उत्पादन होता है उसमें से 63% उत्पादन भारत में होता है। आम की हजारों किस्में पाई जाती हैं जैसे तोता, लंगड़ा, सफेदा, दशहरी, चौसा आदि। पके हुए आम में रासायनिक तत्व काफी अधिक मात्रा में होते हैं। आम का फल पौष्टिक और शक्तिदायक होता है। आम एक रुचिकर फल है। बच्चे, बुडे और जवान सभी आम खाना पसंद करते हैं। आम का फल बहुत ही स्वादिष्ट और मीठा होता है। गर्मी के मौसम में आम और दूध का शेक बनाकर पीते हैं। आम का फल हमारे शरीर के कई बिमारियों में लाभदायक है जैसे छय रोग आखों के रोग, पेट के रोग, उच्च रक्तचाप, पीलिया, कब्ज, अनीमिया बवासीर आदि।
अनेक औषधीय गुणों व उपयोगिता के अलावा इसका उपयोग अचार, चटनी, मुरब्बा, आम पापड़, जैली, शर्बत आदि बनाने में किया जाता है॰ वास्तव में यह स्वाद में सर्वश्रेष्ठ गुणों का भंडार है। भारत से इसका निर्यात किया जाता है। पका हुआ आम मीठा, चिकना, शक्ति बढ़ाने वाला, सुख व तृप्ति देने वाला, वायु का नाश करने वाला, कांति बढ़ाने वाला, ठंडा और खून को बढ़ाने वाला है। आयुर्वेद की दृष्टि में आम त्रिदोष नाशक है। आम रक्तवर्द्धक है, रक्ताल्पता को दूर करता है, आम से आँतों को बल मिलता है, पाचन शक्ति बढ़ती है, कब्ज दूर होती है और भूख बढ़ती है, यह वात, पित्त नाशक है। हमारे यहाँ इसे एक पवित्र वृक्ष माना जाता है तथा धार्मिक अनुष्ठानों में इसके पत्तों और शुष्क टहनियों का उपयोग होता है। मांगलिक अवसरों पर आम के पत्तों के तोरण घरों-मंडपों एवं मंदिरों पर बाँधे जाते हैं और नवरात्रि में कलश स्थापना के समय आम पल्लवों का उपयोग अनिवार्य माना जाता है।
आम का गूदा विटामिन ए तथा सी का अच्छा स्रोत है। इसके गूदे तथा गुठली दोनों में ही प्रोटीन, वसा और कार्बोहाइड्रेट प्रचुर मात्रा में पाया जाता है। वैज्ञानिक शोध के अनुसार आम के लगभग 100 ग्राम गूदे से 74 कैलोरी ऊर्जा प्राप्त होती है।
Health benefits of mango for women pregnant, during pregnancy and lose weight (Diet)
100 पके आम में 0.6 प्रतिशत प्रोटीन, 0.1 प्रतिशत वसा, 0.02 प्रतिशत फास्फोरस, 11.20 से 16.80 कार्बोहाड्रेट, 8.3 मिग्रा. लोहा, 8.3 मिग्रा निकोटिनिक एसिड, .18 से .56 प्रतिशत तक फौलिक एसिड, 480 अंतर्राष्ट्रीय इकाई कैरोटिन एवं 85.1 प्रतिशत पानी पाया जाता है।

आम में जो विटामिन सी पाया जाता है वह सेब में पाए जाने वाले विटामिन सी का 6 गुना होता है। एक विख्यात पाश्चात्य विद्वान ने आम का उल्लेख करते हुए लिखा है- आम पूरा भोजन है, विश्व का कोई भी फल आम की तुलना में ठहर नहीं सकता। अमेरिका के डॉ. विल्सन के अनुसार आम में मक्खन से सौ गुना अधिक पोषक तत्व विद्यमान है। उन्होंने परीक्षण कर यह सिद्ध किया है कि आम के उचित प्रयोग से शरीर के स्नायविक संस्थान को शक्ति मिलती है, शुद्ध रक्त बहुतायत से उत्पन्न होता है तथा शोर्य वीर्य की वृद्धि होती है। चरक ने हृदय रोगों के लिए 10 औषधियाँ निर्धारित की हैं, उनमें एक आम भी है। आम के सेवन से श्रुकाल्पताजन्य, नपुंसकत्व तथा मस्तिष्क, दौर्बल्य आदि के लक्षण शीघ्र दूर होते हैं। भाव प्रकाश ने लिखा है कि आम से नया खून अधिक मात्रा में बनता है और तपेदिक के रोगियों के लिए यह रामबाण औषधि है।

आम के औषधीय उपयोग 
  • आम खाकर उपर से दूध पीना शक्तिवर्द्धक, स्फूर्तिदायक तो है ही साथ ही अनिद्रा ग्रस्त रोगियों के लिए भी यह रामबाण है।
  • आम के रस में शहद मिलाकर कुछ दिनों तक पीने से बढ़ी तिल्ली ठीक हो जाती है।
  • आम और जामुन का रस मिलाकर पीने से मधुमेह में लाभ होता है।
  • आम में विटामिन ए भरपूर मात्रा में होता है, अतः आम नेत्र ज्योति के लिए बहुत लाभकारी है। रतौंधी के लिए चूसने वाला आम विशेष उपयोगी रहता है।
  • पाचन संस्थान को सुदृढ़ करने के लिए मीठे आम के रस में थोड़ा सा नमक डालकर कुछ दिनों तक सेवन करें।
  • क्षय रोगियों को चाहिए कि आम के मौसम में आम के एक कप रस में दो चम्मच शहद मिलाकर सेवन करें।
 सावधानियां 
  • पके फल खाएं, बासी व कटे फल काम में न लें। आमों को एक घंटे पानी में भीगने दें। अधिक मात्रा में आम नहीं खाएँ मोटे।
  • मधुमेह से ग्रस्त व पाइल्स रोगियों को सीमित मात्रा में सेवन करना चाहिए।
आम की पत्तियों का उपयोग
  • हल्के हरे रंग के छोटे आकार के आम के पत्तों को तो़ड़ लें, उन्हें अच्छे से धोएं और छोटे-छोटे टुकड़ों में काटकर चबाइये।
  • आम के कुछ पत्तों को तोड़िये और रात भर के लिये बर्तन में भिगो दें। सुबह इसका सेवन करें। ध्यान रखें इसका सेवन खाली पेट ही करें।
  • पत्तियों को धो कर धूप में सुखाएं और पावडर बना लें। इस पावडर की एक चम्मच लें और एक गिलास पानी में मिलाकर पी लें। रोज सुबह एक चम्मच सेवन करने से ब्लड शुगर लेवल कंट्रोल में रहता है।
  • आम के फल के साथ-साथ पत्तों में भी विटामिन ए होता है, जो आंखों के लिये बेहद फायदेमंद होता है।
    आम के पत्ते भी आंखों को खराब होने से बचा सकते हैं, साथ ही ब्लड शुगर लेवल को नियंत्रण में रखने में भी मदद करते हैं।


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महर्षि वाल्मीकि का व्यक्तित्व एवं कृत्तव



संस्कृत साहित्य के प्रथम महाकवि वाल्मीकि हैं, इसलिए उन्हें आदिकवि भी कहते हैं। महर्षि च्यवन की परम्परा में वाल्मीकि ऋषि थे। उनका स्थान तत्कालीन महर्षियों में सर्वोच्च था। वाल्मीकि की लोक-कल्याण भावना अपरिमित थी। इसी भावना से प्रेरित होकर उन्होंने लोक-पथ प्रषस्त बनाने के उद्देष्य से रामायण की रचना की थी। विचारणा की जिस उदात्त पृष्ठभूमि पर राम-कथा प्रतिष्ठित की गई है, उसका उद्भव आदिकवि के हृदय से हुआ। उनके व्यक्तित्व का विकास वैदिक ऋषियों के समान हुआ था। समग्र भारत के वनों, पवन, पर्वतोपनद, सभ्यता और संस्कृति का प्रत्यक्ष ज्ञान उन्हें था। रामायण के अनुसार वाल्मीकि की वाणी कभी असत्य नहीं हो सकती थी। महर्षि भावितात्मा थे, उनकी बुद्धि उदार थी।

महर्षि वाल्मीकि के द्विज होने, उनके आरम्भिक जीवन से ही सद्कार्य में निरत होने विषयक तथ्यों को लेकर इतना विविधतापूर्ण साहित्य उपलब्ध होता है कि मतामत का निर्धारण कर पाना प्रायः असम्भव-सा जान पड़ता है। कोई इन्हें भृगु वंशीय, कोई प्राचेतस, कोई शूद्रा का पति, कोई साहसिक आदि निकृष्ट कर्म करने वाला सिद्ध करने का प्रयास करते हैं। अतः यदि महर्षि वाल्मीकि के काल-निर्धारण से पूर्व (के साथ) ही इन अनेकतः मूलक मगर विरोधी बातों का दिग्दर्षन कर लिया जाए तो अप्रासंगिक अथवा अनुचित न होगा। इस पुराण तथा मध्यकालीन आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं के साहित्य में प्रचलित रामाख्यान या रामायणों के कारण हैं।
महर्षि वाल्मीकि के दस्यु जीवन का सर्वप्रथम उल्लेख स्कन्द पुराण के वैष्णव खण्ड आवन्त्य खण्ड, प्रभासखण्ड तथा नागर खण्ड में हैं। वहां उनके जीवन की कुछ कथाओं में इन्हें आरम्भिक जीवन में दस्यु दिखलाया गया है दूसरी ओर, राम-नाम के प्रभाव से इन्हें एक ऋषि के रूप में रामायण का कर्ता दर्शाया गया है। वैष्णव खण्ड के अतिरिक्त अन्य खण्डों में महर्षि वाल्मीकि को ब्राह्मण -पुत्र कहा गया है, परन्तु वैष्णव खण्ड में इनकी उत्पति एक शैलूषी से दिखाई गई है।
महर्षि कष्यप और अदिति के नवम पुत्र वरुण (आदित्य) से इनका जन्म हुआ। इनकी माता चर्षणी और भाई भृगु थे। वरुण का नाम प्रचेत भी है। महर्षि वाल्मीकि के सम्बन्ध में भ्रान्ति फैलाने का श्रेय मुख्यतः तथा कथित रामायणों को है जिनका निर्माण शिव-पूजा की प्रतिद्वन्द्वता में रामोपसना को उसके ऊपर प्रतिष्ठित करना था। इन रामायणों के लेखकों ने प्रायः यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया कि राम, राम-नाम पतितातिपतित का भी उद्धार कर सकता है और इसके उद्धरण के रूप में महर्षि वाल्मीकि को प्रस्तुत करना उन्हें सरल लगा क्योंकि एक तो वे राम-कथा के प्रणेता थे, दूसरे ऋषि के रूप में वैदिक और औपनिषदिक साहित्य में उनका उल्लेख न मिलने के कारण उनके उक्त कथन को खण्डित करने के लिये अवकाश भी न था।
पुराणों की तालिका के अनुसार महाभारत युद्ध से उन्हें करीब तीन सौ वर्ष पूर्व होना चाहिये। महाभारत का समय सम्भवतः जैसा कि आगे प्रतिपादित किया गया है, 1450 ई. पू. के आसपास है। इस गणना के अनुसार रामायण का समय 1750 ई. पू. के लगभग होना चाहिये। डॉ. राधा कुमुद मुखर्जी के अनुसार महाभारत कालीन कुरूक्षेत्र का समय सामान्यतः 1485 या 1425 वर्ष ई. पू. स्थिर होता है। इस प्रकार महर्षि वाल्मीकि के विषय में वाह्य विचार प्रस्तुत करते हैं और उनका व्यक्तित्व अस्पष्ट ही रह जाता है। यह विचारणीय है।
आदिकवि वाल्मीकि के जीवन-चरित्र व उनके व्यक्तित्व के विषय में अनेक किंवदंतियाँ प्रचलित हैं, जिनकी सत्यता प्रमाणित नहीं है, विष्णुपुराण के अनुसार वाल्मीकि भृगुवंषी ऋषि थे तथा वे वैवस्वत मन्वन्तर में होने वाले 24वें व्यास थे। एक अन्य प्रमाण के अनुसार चैबीसवें व्यास वाल्मीकि का मूल नाम ‘ऋक्ष’ था, वे वैदिक ऋषि थे, जिन्होंने महाभारत काल से लगभग 2000 वर्ष पूर्व आदिकाव्य रामायण की रचना की। लोक में प्रचलित एक जनश्रुति के अनुसार वाल्मीकि प्रारम्भिक जीवन में ‘लुटेरे’ या ‘डाकू’ थे। अध्यात्म रामायण के अनुसार वाल्मीकि का नाम ‘रत्नाकर’ था। वे यात्रियों को लूटा करते थे। सप्तर्शियों या नारद मुनि के उपदेश से उन्होंने दस्युवृत्ति का परित्याग किया। कुछ लोग मानते हैं कि वे जाति से चाण्डाल थे। इसी आधार पर ‘हरिजन’ वाल्मीकि को अपना पूर्वज मानते हैं। परन्तु ये बातें निराधार प्रतीत होती हैं। इतिहास पुराण के अनुसार वाल्मीकि प्रचेता (वरुण) के वंष में उत्पन्न हुए थे और च्यवन भार्गव के पुत्र थे। प्रसिद्ध बौद्धकवि अश्वघोष ने लिखा है कि जिस पद्य का निर्माण च्यवन ऋषि न कर सके उसका निर्माण उनके पुत्र ने किया -
वाल्मीकिरादौ च ससर्ज पद्यं।
जग्रन्थ यन्न च्यवनो महर्शिः।।
महाभारत वनपर्व में उल्लेख है कि च्यवन तप करते हुए ‘वल्मीकि’ हो गया - ‘स वल्मीकोऽभवदृशिः’ च्वयन वाल्मीकि का पुत्र वाल्मीकि कहलाया। मूलनाम उसका ‘ऋक्ष’ था। महाभारत में ‘रामायण’ और वाल्मीकि का स्पष्टत: अनेकबार उल्लेख हुआ है। रामायण का एक श्लोक भी द्रोणपर्व में उद्धृत है- -‘अपि चायं पुरा गीतः ष्लोको वाल्मीकिना भुवि’। कहा जाता है कि वाल्मीकि को सप्तऋषियों ने धार्मिक जीवन की दीक्षा दी थी। उन्होंने बहुत समय तक निरन्तर समाधि लगाई। जब वे अपनी समाधि से उठे तो उनके चारों ओर दीमकों ने ‘बमी’(बाँबी) बना ली थी और वे उससे बाहर निकले थे। वे अयोध्या के समीप ही गंगा नदी के किनारे रहते थे। राम अपने वनवास के समय सर्वप्रथम उनके ही आश्रम पर पहुचे थे। (द्रष्टव्य रामायण, अयोध्याकांड, सर्ग 56), उन्हें राम के जीवन की विशेष घटनाओं का ज्ञान था। वे उनके उदात्त गुणों से बहुत प्रभावित थे। एक दिन वे अपने आश्रम पर आए हुए नारद ऋषि से मिले और उनसे आदर्श पुरुष का जीवनचरित पूछा। उत्तर में नारद ने राम के जीवन का वर्णन किया। यह ज्ञात होता है कि वाल्मीकि राम के जीवन के विषय में प्रामाणिक और निश्चित विवरण ज्ञात करना चाहते थे। नारद से मिलने के बाद उनका ध्यान राम की ओर ही केन्द्रित हो गया और वे इसी अवस्था में अपने आश्रम के समीप बहने वाली तमसा नदी के तट पर गए। मार्ग में उन्होंने देखा कि एक व्याध ने क्रौंच पक्षी को मार दिया है। क्रौंची अपने पति एवं प्रिय के वियोग में बहुत दुखित होकर रो रही थी। यह देखकर वाल्मीकि ऋषि का हृदय द्रवित हो गया और उन्होंने व्याध को शाप दिया कि वह बहुत काल तक दुःखित रहे। उनका यह करुणाजन्य शाप पद्य रूप में परिणत होकर प्रकट हुआ, जो कि निम्न रूप में है -
मा निशाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः।
यत्क्रौ‍‌ञ्चमिथुनादेकमवधीः काममोहितम्।।

वे पूजा करके अपने आश्रम को लौटे। तत्पश्चात् ब्रह्मा उनके सामने आए। उन्होंने आशीर्वाद और आदेश भी दिया कि वे राम को शक्ति प्रदान की कि वह राम के वर्तमान भूत और भविष्यत् जीवन को साक्षात् देख सकेंगे। ब्रह्मा के जाने के पश्चात् वाल्मीकि ने काव्य की रचना प्रारम्भ की, जिसको आगे चलकर ‘रामायण’ के नाम से पुकारा गया।
कुछ लोग महर्षि वाल्मीकि को निम्न जाति का बतलाते हैं। पर ‘वाल्मीकि रामायण’ तथा अध्यात्मरामायण में इन्होंने स्वयं अपने को प्रचेता का पुत्र कहा है। मनुस्मृति में प्रचेता को वशिष्ठ, नारद, पुलस्त्य कवि आदि का भाई लिखा है। स्कन्दपुराण के वैशाखमहात्म्य में इन्हें जन्मान्तर का व्याध बतलाया है। इससे सिद्ध है कि जन्मान्तर में ये व्याध थे। व्याध जन्म के पहले भी ‘स्तम्भ’ नाम के श्रीवत्सगोत्रीय ब्राह्मण थे। व्याध जन्म में ‘शङ्ख’ ऋषि के सत्सङ्ग से राम नामके जप से ये दूसरे जन्म में ‘अग्नि शर्मा’ (मतान्तर से रत्नाकर) हुए, वहाँ भी व्याधों के सङ्ग से कुछ दिन प्राक्तन संस्कारवश व्याधकर्म में लगे फिर सप्तऋषियों के सत्सङ्ग से ‘मरा-मरा’ जप कर - बाँबी पड़ने से वाल्मीकि नाम से ख्यात हुए और बाल्मीकि-रामायण की रचना की।
इस प्रकार हम यह कह सकते हैं कि भले ही वाल्मीकि का स्थितिकाल तथा उनकी कृति का रचनाकाल विवादास्पद हो और अभी तक सही-सही ढंग से आँका भी न गया हो। किन्तु उनकी रचना ‘रामायणम्’ का संस्कृत काव्य जगत् में सर्वोच्च स्थान है। यह वह रचना है जिसने अनेकानेक षैलियों में रामचरित लिखने की प्रेरणा परवर्ती कवियों को दी। इससे प्रेरणा प्राप्तकर अनेक कवियों ने संस्कृत साहित्य जगत में सफल कविकर्म प्रस्तुत किए हैं।


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